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Thursday, December 15, 2011

हलवाई या मोदनवाल वैश्य

हलवाई जाति का इतिहास और संस्कृति 


भारत वर्ष के मानवीय भूगोल कर्म प्रधान रहा है । कर्म या व्यवसाय के आधार पर आज भी व्यक्ति व उनका सन्तती सम्बोधित होता है । किसी खास कर्म–व्यवसाय में संलिप्त व्यक्ति, परिवार और विस्तारित पारीवारिक संगठनों ने जातीय–संज्ञा प्राप्त की ।

देश, काल और परिस्थिति की धरातल पर सम्पूर्ण मानवीय समाज को कर्म–व्यवसाय के आधार पर चार वर्ण में वर्गीकृत कर जातीय संरचना का निर्माण हुआ । ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य व शूद्र । ईन चार वर्णों के भितर विभिन्न जाति एवं उपजाति विकसित हुआ । इन्हीं वर्ण एवं जातीय संरचना में वैश्य वर्ण अन्तर्गत हलवाई जाति बना । हलवाई को नेपाल में हलुवाई बोला जाता है । हलवाई का पृष्ठभूमि, चरित्र, जीवन और आजीविका ‘अन्न एवं अन्य फसल उगाना, उन पदार्थाें का पाककला के माध्यम से स्वादिष्ट व्यञ्जन और मिष्टान बनाना तथा देवी–देवता, ऋषि–मुनि, पितृ एवं समस्त समाज की क्षुधा को तृप्त करने’ जैसे सर्वाधिक प्राचीन सामाजिक आयाम और प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है । हमारा बहुत पिछला जीवन कबिलाई संस्कृति से जुड़ा हुआ है । कदाचित उन समूहों मे भोजन–प्रभारी (या समूह) भी जाति विशेष के रूप में सम्बोधित होते थे । हमें हमारी आदिम इतिहास, संस्कृति और पहचान पर गर्व है । हम अपनी विशिष्टताओं का स्मरण कर रोमाञ्चित होते हैं । और, यदाकदा टूटी–फूटी जातीय इतिहास और अशिक्षा–गरिबी से ग्रस्त अपने कुटुम्बों की बद्हाली देखकर दुःखी भी होते हैं ।

सम्भवतः इतिहासकारों ने जितनी सजगता एवं तत्परता राजवंशो के इतिहास लेखन में दिखाई है, उतनी जातीय इतिहास लेखन में नहीं । यही कारण है कि जातीय एवं उपजातीय इतिहास विशुद्ध रूप से सामने नहीं आ पाया है । यह खुशी की बात है कि सदियों से शोषित, पीडित, उपेक्षित आम जातियों में २० वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जातीय जागरण का श्री गणेश हुआ और वर्तमान दौर में यह एक उचाइ पर है । सांस्कृतिक जिज्ञासा, पहचान और समान जातीय महता की खोज तीव्र रूप में बढ़ गया है । हलवाई जाति भी इससे अछुता नहीं है ।

भारतीय वाङमय के अनुसार मोदनसेन जी महाराज, यज्ञसेन जी महाराज, गणीनाथ जी महाराज तथा महान संत पलटु दास एवं महाकवि जय शंकर प्रसाद जैसे वैश्य–हलुवाई जाति की महानतम विभुति इस समाज के नहीं बल्कि विश्व के गौरव हैं ।

हलुवाई जाति का प्रादुर्भाव और इतिहास की बातें वेदकाल से लेकर वर्तमान काल खण्डों तक विभिनन समय में सिर्जित यजुर्वेद (अध्याय–३२ सुक्ति–१२), अथर्ववेद गरुड़ पुराण (अध्याय ४४ क–१८), वराहपुराण, मनुस्मृति, गर्ग संहिता (खण्ड–७ अध्याय–८), वर्णविवेक चन्द्रिका, वर्ण विवेकसार जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों में उल्लेख है । आधुनिक काल में विभिन्न विद्वानों द्वारा हलुवाई जाति पर शोध कर विभिन्न ग्रन्थ, शोधपुस्तक, इन्टरनेट प्रकाशित किया गया है । शताब्दी पूर्व स्थापित अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा से लेकर उसके बाद विभिन्न काल में विभिन्न स्थान पर स्थापित संघ–संगठनों ने जाति एकीकरण का प्रयास किया है, जातीय इतिहास और संस्कृति का अध्ययन कर प्रसारित किया है और आधुनिक राज्य व्यवस्था में जातीय हिस्सा प्राप्त करने में क्रियाशील हैं ।

‘वर्णविवेक चन्द्रिका’ में सृष्टि का उत्पत्ति क्रम दिखाते हुए वैश्यों की उत्पत्ति और बाद में हलुवाई वैश्यों की उत्पत्ति का वर्णन निम्न लिखित अनुसार है —

देव देव महादेव लोकानां हितकाकार ।
वर्णानामाश्रमाणां च संकाराणां तथैवच ।।
उत्पत्तिं श्रोतु मिच्छासि विस्तरेण कृपानिधे ।
कृया तृत्या महादेव, फलौ तिष्ठेच मानावः ।।

अर्थात— ‘श्री पार्वती जी ने देवों के देव श्री महादेव जी से पूछा कि हे कृपानिधे ! मनुष्यों के वर्ण, आश्रम, उत्पत्ति तथा संकरों के भेद क्या है ? कृपया लोकों के हित के लिए विस्तार पूर्वक कहिये ।’ इस पर श्री महादेव जी ने कहा—

श्रृणु देवी प्रवक्ष्यामि जातीनांच विनिर्णयम् ।
अव्यक्ताच समुत्पन्ना ब्रह्मविष्णु महेश्वराः ।।
ब्राह्मण निर्मिता वर्णामुख बाहुरूपादतः ।
ब्राह्मणः क्षत्रियों वैश्यः शूद्रश्रैव यथा क्रमम ।।

अर्थात— ‘हे देवी ! सुनो ! जातियों का विवरण इस तरह है कि, पहले अव्यक्त यज्ञ से ब्रह्मा, विष्णु , महेश्वर उद्धत हुए । फिर प्रजापति (ब्रह्मा) ने मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रीय, उरू से वैश्य और पाद से शूद्र वर्ण रचे ।’ फिर

मरीचिरत्र्यंगिरसौ पुलस्यः पुलहः क्रतुः ।
भृगुर्वशिष्ठ श्रयवो नारदो दक्ष एच च ।।
तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च ब्राह्मणेषु प्रतिष्ठिताः ।
वेदाध्ययन सम्पन्ना स्त्रिषु वर्णाषु पूजिताः ।।

अर्थात— मरीचि, अंगिरा, पुलस्य, पुलह, क्रत, भृगु, वशिष्ठ, श्रयव, नारद और दक्ष के पुत्र प्रभृति से ब्राह्मणों का वंश चला । और ये, वेदादि से सम्पन्न तीनों वर्णो से पूजित और गोत्रकार ऋषि हुए । और —

ब्राह्मणो बाहु देशाश्च मनुः स्वायंम्भुवोऽभवत् ।
वाम वाहोः समुत्पन्नां शतरूपा पतिव्रताः ।।
तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च क्षत्रवंशे प्रतिष्ठिताः ।
चतुर्दशमनूनां च वंशास्ते क्षत्र जातयः ।।

अर्थात— प्रजापति के दाहिने बाहु देश से स्वायम्भुवमनु तथा बाहु से उनकी स्त्री शतरूपा नास्त्री उत्पनन हुई । इनके पुत्र पौत्र प्रभृति क्षत्रीय वंश के प्रतिष्ठित हुए ।

इसके बाद —

अरूदेशात्समुतपन्नों ब्राह्मणः प्राणवल्लभे ।
भलनदनेति विख्यातस्तस्य पत्नी मरूत्वति ।।
वत्समीति सुतस्तस्य प्रांशुस्तस्याऽभवनसुतः ।
प्राशोः पुत्राः षडासन्वै तेषां नामानिमे श्रृणु ।।

मोदः प्रमोदो बालश्च मोदनश्च प्रमर्दनः ।
शंकुकर्णेति विख्यातस्तेषां कर्म पृथक् पृथक ।।

अर्थात— प्रजापति के उरू देश से वैश्यों के मूलपुरुष भलनन्दन और उनकी स्त्री मरूत्वती नाम से पैदा हुई । इनके पुत्र वत्सप्रीति, वतसप्रीति से प्रांशु हुए । प्रांशु के छः पुत्र हुए जिनका नाम क्रमशः मोद, प्रमोद, बाल, मोदन, प्रमर्दन, शंकु और कर्ण हुआ । इनके कर्म भी पृथक पृथक हुए ।

मोदनस्य च वंशाये मोदकानां प्रकारकाः ।
वैश्य वृत्ति समाश्रित्य संजाताः पृथिवीतले ।।

अर्थात— मोदन के वंश में, मोदक (लड्डू) आदि का व्यवसाय करने वाले— वैश्य उत्पन्न हुए । जो कि इस वैश्य वृत्ति के द्वारा संसार में फैले । वर्णविवेक चन्द्रिका के अनुसार भलनन्दन और मरूत्वती नाम से उत्पन्न मोदन से हलुवाई जाति की विकास हुई ।

जिस तरह माली द्वारा तोडा गया फूल, डोम द्वारा बनाया गया बा“स का वर्तन, कुम्हार द्वारा बनाया गया मिट्टी का वर्तन धर्म कार्य हेतु शुद्ध माना गया हैं, उसी तरह सिर्फ हलुवाई द्वारा बनायी गई नेवैद्य ही देवी देवता को अर्पण करने के लिए शुद्ध माना गया हैं ।

मोदनसेन, मोदक और मोदनवाल

मोदनसेन महाराजा के बाद व्यञ्जन÷मिष्ठानादि के लिए जातीय कर्म में निरूपित हुए । उनका मूल नाम ‘मोदन’ से मोदक शब्द बना जिसका तात्पर्य सर्वोत्कृष्ठ मिष्ठान्न होता है । संस्कृति में ‘मोदक’ शब्द का अर्थ इस प्रकार दर्शाया गया है— मुद वर्ष ददति मोदक यानि जो सबको आनन्दित करें । मोद से ही मधु अर्थात मिठा होता है । उसी तरह मोदन का अर्थ बताया गया है— जिसमें सबको आनन्दित करने की क्षमता निहित हो । इस तरह संस्कृत के भावार्थ में ‘मोदन’ एक व्यक्तित्व के रूप में और ‘मोदक’ एक वस्तु के रूप में प्रतीत होता है ।

मोदक को बोलचाल में लड्डु कहते हैं । एभयउभि न्चयगउक क्ष्लमष्बके वेवसाइट के अनुसार मिष्ठान बनाने बाले हलुवाई प्रथम पुजीत भगवान् श्री गणेश जी का प्रिय भोजन मोदक (लड्डु) बनाने वाले के नाम से जाने जाते हैं । इसिलिए मोदक बनाने वाले मोदनवाल के रूप में परिचित हैं । आटा, चिनी, घी, बदाम, पिस्ता और केशर के मिश्रण से बनने वाला स्वादिष्ट मिष्टान्न ‘हलवा’ बनाने वाले को हलवाई कहा गया है ।

किन्तु अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा (भदोही, संतकवीरनगर, उत्तरप्रदेश) इस बात से सहमत नहीं है । महासभा की शताब्दी प्रवाह स्मारिका के अनुसार एक मात्र ‘हलवा’ से ‘हलवाई’ समझना उचित नहीं है । क्यों कि हलवा शब्द यहाँ का नहीं है— अरब आदि यवन देशों का है । यहाँ इस तरह के मिष्ठान को ‘मोहनभोग’ कहा जाता है । हलुवाई शब्द हलवा बनाने को लेकर नहीं, बल्कि ‘हलवाही’ शब्द अपभ्रंश होकर हलवाई हुआ जिसका तात्पर्य हल जोतना होता है । हलवाही कर अन्न उगाना और उसका मोदक आदि मिष्ठान सहित विभिन्न व्यञ्जन बनाने के कारण ये हलवाई तथा मोदनवाल आदि शब्दों से परिचित हुए । ‘वाल’ शब्द समूह वाचक है । संस्कृत में इसका अर्थ है— वृक्ष । ये चारो ओर से मिट्टी के घेरे से मेढ़ बन्दी कर दी जाती है । उसे वाल कहा गया है । अतः मोदनवाल सगुणों से परिपूर्ण प्रतीत होता है । हलुवाई जाति विशेष को मोदनवाल टाइटिल से पुकारा जाता था । आज हलुवाई जाति विभिन्न टाइटिल प्रयोग करने लगे है.। मोदनवाल हलुवाई का इतिहास मोदनसेन महाराजा के साथ शुरू होता है । मोदक बनाने वाले मोदनसेन कहलाए ।

गोत्र, इष्टदेव एवं कुलदेव

हलुवाई जाति कश्यप गोत्र के माने जाते हैं । हलुवाई अपने इष्टदेव के रूप में मोदनसेन, यज्ञसेन, गणीनाथ तथा अन्य विभुतियों को पुजते हैं । वे विभिन्न देवी–देवता के रूप में गणपति, सूर्य, अग्नि, काली बन्दी का आराधना करते हैं । मूलतः हलुवाई के वंशज तीन सांस्कृतिक समूहों में होने का वर्णन अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा के वेबसाइट पर पाया गया है । मोदनसेनी हलुवाई मोदनसेन जी महाराज को, यज्ञसेनी हलुवाई यज्ञसेन जी महाराज को तथा मधेशी हलुवाई गणीनाथ जी महाराज से अपना वंश वृक्ष जुड़ा होने का विश्वास करते हैं । मोदनसेन जी कान्यकुब्ज (कन्नौज, उत्तरप्रदेश) में अवतरित हुए । यज्ञसेन जी बिठूर कानपुर (उत्तर प्रदेश) में अवतरित हुए । गणीनाथ जी गुरलामान्धता पर्वत पलवैया (बिहार) में अवतरित हुए । इसी क्षेत्रीय धरातल पर इनके वंशजों का विस्तार हुआ । अर्थात गणीनाथ, मोदनसेन और यज्ञसेन जी महराज तीनों समूह के कुलदेवता के रूप में पूजित होने का वर्णन पाया जाता हैं ।

वैश्य वंशवृक्ष की जड़ में मूल देवता भलनन्दन जी महाराज हैं । उपर अंकित श्लाकों के अनुसार प्रजापति ब्रह्मा के उरू देश से उत्पन्न भलनन्दन के पौत्र के रूप में मोदन उत्पन्न हुए । प्रजापति के द्वारा आयोजित यज्ञ में मोदनसेन जी महाराज को खाद्य–व्यवसायी (हलवाई) का चरित्र प्रदान किया गया उल्लेख होने से उनका वंशज मोदनसेनी (मोदनसेनी हलवाई) कहलाए । उसी तरह राजा दक्ष के यज्ञ के क्रम में यज्ञसेन उत्पन्न हुए । यज्ञसेन के वंशजो द्वारा यज्ञ–निर्मित पदार्थों को व्यापार करने के कारण यज्ञसेनी (यज्ञसेनी हलवाई) कहलाए । संत गणीनाथ एघारवीं सदी में उत्पन्न हुए । वे शिव की अवतार कहलाते हैं । गणीनाथ जी का पिता मनसा राम जी हलुवाई के १४ कुलदेवों में पूजित हैं । आस्था के आधार पर हलवाई जाति में कुलदेवता निम्न प्रकार हैं —

१. हलवाई (मोदनवाल) ः मोदनसेन जी महाराज

२. हलवाई (यज्ञसेनी) ः यज्ञसेन जी महाराज

३. मधेशिया हलवाई ः गणीनाथ जी महाराज

४. कान्य कुब्ज वैश्य (भूर्जि) ः बाबा पलटू दास

५. भौज्य हलवाई ः चन्द्रदेव जी महाराज

६. क्रोंच हलवाई ः कंकाली बाबा

७. गुडिया वैश्य ः यह घटक उड़ीसा प्रान्त में गुड का व्यवसाय और गुड की स्वादिष्ट मिष्ठान बनाने का कार्य करते हैं ।

मोदनसेन जी महाराज

आदि काल में प्रजापति ब्रह्मा के द्वारा विश्व कल्याण के लिए सभी देवी–देवता, ऋषि सम्मिलित महायज्ञ आयोजन किया गया । यज्ञ में मोदनसेन जी पर भोजन व्यवस्था का दायित्व था । भांती भांती के व्यञ्जन और मिष्ठान बनाकर यज्ञजनों को सन्तुष्ट करने के कारण उनको इस कार्य (पाकशास्त्र) के आचार्य घोषित किया गया । बाद में उनके वंशज इसी चक्र द्वारा संसार में फैले । मोदनसेन जी महाराज भलनन्दन जी की चौथी पीढ़ी में तथा उनके पूवर्ज मनु महाराज से सातवीं पीढ़ी में उत्पन्न हुये थे । आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व श्री मोदनसेन जी महाराज की जयन्ती कार्तिक शुक्ल (अक्षय नवमी) को मनाने की परम्परा मिली है ।

यज्ञसेन जी महाराज

प्रजापति दक्ष के यज्ञ के समय महर्षि भृगु ने ऋचाओं के गायन–आवाहन के साथ, ज्योंही यज्ञकुण्ड की दक्षिणाग्नि में घृताहुति दी, त्योंही यज्ञाग्नि से तप्त स्वर्ण की सी कांति लिऐ एक यज्ञ पुरुष प्रकट हुए । यह यज्ञ पुरुष कस्तुरी मृगों से जुते हुए, दिग्विजयी रथ पर आरूढ़, मणिमुकुटों को धारण किये हुए थे । उन्हें महर्षि मृगु ने ऋभु यज्ञसेन नाम से सम्बोधित किया । यज्ञसेन का विवाह ऋषिपुत्री दक्षिणा से हुआ और उनके ९२ पुत्ररत्न हुए । जो यज्ञ–निर्मित पदार्थों को बनाते व व्यापार करते थे । पुराण के प्रथम अंक के सातवें अध्याय के श्लोक ९३ से २९ तक यज्ञसेन वंश का वर्णन मिलता है । यज्ञसेन महाराज के वंशजो को यज्ञसेनी हलुवाई कहा जाता है । यज्ञसेन जी गुरु पूर्णिमा को अवतरित हुए थे । यज्ञसेन जी का उद्भव कहाँ हुआ था इस विषय में मंगली प्रसाद गुप्त ने लिखा है कि ‘बिठूर, जिला कानपुर (उत्तर प्रदेश) में हुए थे ।’ कुछ लोगों का मत है कि कानपुर से कुछ किलोमिटर दूर गंगा–तट पर जाजमऊ में हुये थे । तिसरा मत यह है कि यज्ञसेन जी महाराज मथुरा में हुये थे । कुछ का मत है कि यज्ञपुर तीर्थ (बिहार–उड़िसा) में हुये थे । इनमें बिठूर (कानपुर) ही ठीक प्रतीत होता है, यहाँ यज्ञ कीलक (कीलों) ब्रह्मशिला है, जहाँ पर यज्ञसेन महाराज ने एक महान यज्ञ किया था ।

गणीनाथ जी महाराज

विक्रम संवत् १००७ में श्री मनसाराम तथा उनकी पत्नी शिवादेवी की तपस्या पर प्रसन्न होकर गणीनाथ जी का उद्भव् जगदम्बा पार्वती जी के आग्रह पर देवाधिदेव महादेव ने लोककल्याणार्थ किया । गणीनाथ जी का उद्भव् गुरलामान्धता पर्वत पर भाद्रपद बदी अष्टमी शनिबार के प्रातः हुआ । शिशु गणी जी का लालन–पालन व शिक्षा–दीक्षा का दायित्व कान्दू (मध्यदेशीय) वैश्य परिवार के मनसा राम को धर्मपिता के रूप में निर्वहन करना पड़ा । गणी जी योग्य होने पर प्रारम्भिक शिक्षा गुरुकुल में की जहाँ अल्पकाल में ही वेद वेदांग में दक्षता प्राप्त की । शारीरिक एवं बोद्धिक विकास के लिए बल योग साधन भी किए जो कालन्तर में श्री गणीनाथ जी के नाम से प्रसिद्ध हुए तथा बड़े होकर, काशी आदि तीर्थों से होते हुए अंततः महाकाल की पावन स्थली मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर पहुँचे जहाँ उनकी भेंट गुरु गोरखनाथ से हुई । चतुर्दिक ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु गोरखनाथ को गुरु ग्रहण करते हुए उनके सानिध्य में वर्षों तप किए । सिद्धियों पर अधिकार प्राप्त कर पलवैया (बिहार) की पवित्र धरती पर पहुँचे जहाँ आपने गणराज्य की स्थापना कर समताम राज्य स्थापित किया ।

हिन्दु समाज जब पतन की ओर जा रहा था तो गणीनाथ जी ने हिन्दुओं में स्वाभिमान भरा और हिन्दु संस्कृति की रक्षा की । पलवैया में गणीनाथ मन्दिर और उस मन्दिर की ओर से संरक्षित संस्कृत पाठशाला, कुआं, पोखरा आदि हैं । उन्होनें शनित के साथ अहिंसा का भी पाठ पढाया तथा वेदाध्ययन को ब्राह्मणों के चंगुल से मुक्त किया । उन्होनें मुस्लिम आततातियों से युद्ध कर उन्हें पराजित किया ।

कालान्तर में गणीनाथ जी का विवाह झोटी साब की पुत्री क्षेमा सती से हुआ । (वंशवृक्ष स्मारिका पृष्ठ ११८)

विक्रम संवत् १११२ (क्वार महिना) नवरात्री के अवसर पर आयोजित श्री रामजन्मोत्सव एवं शक्ति आराधना कार्यक्रम को सम्बोधन करने के उपरान्त गणीनाथ जी ने देहत्याग किया ।

हलुवाई जाति का उत्पति (देव–मानव वृक्ष)

हलवाई समाज का इतिहास मनु द्वारा स्थापित वर्ण व्यवस्था से बहुत पुराना आदिकालीन है । वर्ण व्यवस्था के अनुसार चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र) मे से हलवाई वैश्य वर्ण अन्तर्गत पड़ता है । वैश्य तथा हलवाई समाज का इतिहास गौरवशाली है । सभी पुरानी गाथाओं में राजाओं के बाद वैश्यों का नाम सम्मानपूर्वक लिया गया है । इनका उत्पत्ति प्रजापति ब्रह्मा के द्वारा है । प्रजापति ब्रह्मा से मुनि मरीचि उत्पन्न हुए । मरीचि से कश्यप एवं कश्यप से विवस्वत मनु उत्पन्न हुए । विवस्वत मनु से निदिस्थ तथा निदिस्थ से नाभाग (वैश्यतांगताः) उत्पन्न हुए । नाभाग से भलनन्दन तथा भलनन्दन से वत्सप्रीति उत्पन्न हुए । वत्सप्रीति से प्रांशु उत्पन्न हुए । प्रांशु से मोदन उत्पन्न हुए । मोदन से मोदनसेन कहलाए । मोदनसेन के वंशज मोदनसेनी या मोदनवाल कहलाए ।

पार्वती के पिता राजा दक्ष द्वारा आयोजित अनुष्ठान में कार्यरत हलुवाई को यज्ञ के रक्षा हेतु तत्काल सेना नियुक्त किया गया वह यज्ञसेन जी कहलाए । उसी तरह शिव अवतार के रूप मे संत श्री गणीनाथ जी महाराज को उत्पन्न हुए । मध्यदेशीयं हलवाई सन्त गणीनाथ को अपना कुलदेवता मानते हैं ।

संस्कार

हिन्दु धर्म वर्ण व्यवस्था मण्डल द्वारा प्रकाशित जाति अन्वेषण ग्रन्थ के पृष्ठ २८७ पर उल्लेख है कि हलवाई उपनाम यज्ञसेनी कान्यकुब्ज अथवा मोदनवाल जाति के लोग शुद्ध वैश्य हैं एवं इन्हें वैश्य वर्ण के अनुसार समस्त धार्मिक कार्य सम्पन्न करने का पूर्ण अधिकार है । भागवत गीता के अनुसार अध्ययन, भजन और दान तीन धर्म तथा कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य ये तीन जीविका है । १२ वर्ष में यज्ञोपवित होना चाहिए ।

हलुवाइ मुख्यतः हिन्दू होते है । लेकिन मुस्लिम में भी हलुवाई जाति होने का उल्लेख मिलता है । हिन्दू एवं बौद्ध धर्म के अनुयायी नेपाल मे नेवार समुदाय में भी हलुवाई जाति होने का प्रमाण मिलता है । खासकर हिन्दू हलुवाई हिन्दू धर्मावलम्बी के सभी संस्कारों को अंगीकार करते हैं । वैदिक कर्मकाण्ड के अनुसार हिन्दुओं को १६ संस्कार पूरा करने का प्रावधान है । १. गर्भाधान संस्कार २. पुंसवन संस्कार ३. सीमन्तोन्नयन संस्कार ४. जातकर्म संस्कार ५. नामकरण संस्कार ६. निष्क्रमण संस्कार ७. अन्नप्राशन्न संस्कार ८. चूड़ाकर्म (मुण्डन) संस्कार ९. विद्यारम्भ संस्कार १०. कर्णवेध संस्कार ११. यज्ञोपवित (उपनयन) संस्कार १२. वेदारम्भ संस्कार १३. केशान्त संस्कार १४. समावर्तन संस्कार १५. पाणिग्रहण संस्कार एवं १६. अन्त्येष्टि संस्कार ।

एभयउभि न्चयगउक क्ष्लमष्ब के अनुसार हलुवाई उपनयन संस्कार के हकदार हैं । ब्राह्मण–क्षेत्री के तरह हलुवाई भी उपनयन संस्कार के हकदार हैं ।

मान्यजन प्रथा

मान्यजन प्रथा हलवाई जाति का एक सांगठनिक प्रथा है । यह एक प्राचीन जातीय संगठन है जो सभी वैश्य तथा अन्य जातजातियों में भी है । जातीय बाहुल्य इलाका या गावं मान्यजन प्रथा के मातहत संगठित होता था । संगठन के मुखिया को मान्यजन कहा जाता था । जातीय विवाद को सुल्झाने प्रमुख जिम्मेवारी मान्यजन का होता था । उन्हें पुरस्कृत करने या दण्ड देने का अधिकार होता था । कुछ प्रमुख व्यक्ति या सामूहिक÷जातीय छलफल के आधार पर मान्यजन अपना निर्णय देते थे । विवाह, श्राद्ध जैसे संस्कार में मान्यजन का परामर्श लिया जाता था । भोज कार्य में सामूहिक न्यौता मान्यजन के मार्फत दिया जाता था । मान्यजन अपनी कार्य सम्पादन करने हेतु सहयोगी नियुक्त करते थे । आज कल मान्यजन प्रथा संकुचित होते गया है ।

हलुवाई जाति का विस्तार

आदि पुरुष श्री मोदनसेन महाराजा के वंशावली सम्बद्ध ग्रन्थों के अनुसार वैश्यों की ३५२ उपजातियां तथा १४४४ ग्रन्थों की संख्या बताई गई है । हलुवाई जाति आज संसार भर में फेले हैं । परन्तु इस जाति का उद्गमस्थल कहाँ है ? कुलपुरुष मोदन जी ने अपना वंश पृथ्वी के किस खण्ड से विस्तार किया ? महाराज भलनन्दन जी कान्यकुब्ज देशाधिपति थे । जिनकी राजधानी महोदयपुरी थी । जो अब कन्नौज के रूप में जानी जाती है और यह उत्तर प्रदेश के अन्तर्गत पड़ता है । अस्तु मोदनसेन का विस्तार कान्यकुब्ज देश से हुआ । कालान्तर में मोदन वंशीय वैश्यों का कई वर्ग और उपवर्ग बना ।

यज्ञसेन जी का वंशज कान्यकुब्ज से निचे कानपुर क्षेत्र से हुआ और गणीनाथ जी का वंशज उससे निचे पटना आसपास से चारो ओर फैले । वैश्विक आप्रवासन का प्रभाव इन पर भी पड़ा । और हजारौं वर्ष के दौरान ये संसार भर फैले । हलुवाई जाति का कान्यकुब्ज देश से लेकर मध्यदेशीय जनपदों तक का प्राचीन बसोवास आज भारत, नेपाल, पाकिस्तान, बंगलादेश में बटा हुआ है । नेपाल के मधेशी हलुवाई साह, साहु, साउ, गुप्ता, दास सरनेम से जाने जाते हैं । हलुवाई जाति भारत के विहार, वंगाल, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मगध, कन्नौज आदि क्षेत्र से ताल्लुक रखता है । उत्तर प्रदेश में मोदनवाल, यज्ञसेनी, हलुवाई, गुप्ता, पंजाव मे कम्बोज, अडोडा, उडिसा में गुडिया, पश्चिम बंगाल मे मायरा, दास टाइटल से जाने जाते हैं । इनका अभी तक ९–१० उप समूह देखा गया है । जैसे मधेशीया, मोदनसेनी, कान्यकुब्ज, यज्ञसेनी, मघिया, जैनपुरी, कानवो, कैथिया, नगारी, रावतपुरिया, बदशाही । इनकी भाषा क्षेत्र के आधार पर हिन्दी, मैथिली, बंगाली, अवधी, भोजपुरी रहा है । नेपाल मे हिमाली जिला को छोडकर महाभारत पहाड़ एवं तराई भूभाग के प्रायः सभी जगह इनकी कहीं सघन तो कहीं अल्प उपस्थिति पाया जाता है । फिर भी पूर्वी तराई के जिलों में तुलनात्मक रूप में अधिक जनसंख्या पाया जाता है । नेपाल में हलुवाई जाति सामाजिक–पिछड़ेपन एवं विभेद का सिकार हैं । सामाजिक चेतना की कमी के कारण यह अपनी मानवीय मूल्य, धार्मिक मान्यता, सांस्कृतिक गौरव, राजकीय अवसर, व्यावसायिक संरक्षण सर्वपक्षीय हक और अधिकार से वञ्चित हैं ।

जनसंख्या

वैश्य अन्तर्गत सैकडों जातियां समाहित हैंं । नेपाल में इनकी चार दर्जन से अधिक जातियां हैं । वहीं भारत में वैश्य जातियों की संख्या तीन सौ ५२ बताया जाता है । भारत वर्ष में वैश्यों का संख्या २५ करोड से ज्यादा बताया जाता है । वैश्य समाज का गौरवशाली इतिहास है और समाज में इनका नाम सम्मानपूर्वक लिया जाता है ।

हलुवाई समाज नेपाल का धारणा के मुताबिक नेपाल में हिन्दू हलुवाई की जनसंख्या २ लाख के करीब है । नेपाल सरकार के द्वारा सन् २००१ में सम्पन्न जनगणना के मुताबिक इस देश में कुल जनसंख्या की ०.२२ प्रतिशत हिस्सा हलुवाई है । इस देश में हलुवाई की कुल जनसंख्या ५० हजार पाँच सौ ८३ बताया गया है । जिनमें पुरुष का संख्या २६ हजार तीन सौ ८७ और महिलाओं का संख्या २४ हजार एक सौ ९६ है । किन्तु हलुवाई समाज नेपाल इस तथ्यांक से सहमत नहीं है । एक तो इस देश में मुस्लिम एवं नेवार हलुवाई भी रहते हैं । मगर इनका कोई जिक्र नहीं है । इस संस्था की पहली नेसनल कन्भेन्सन (सन् २०१०) में प्रस्तुत अध्यक्षीय प्रतिवेदन में उक्त तथ्यांक के प्रति असहमति जताया गया है और कहा गया है कि ‘हमारी जनसंख्या इससे अधिक होना चाहिए और वैज्ञानिक तथा पारदर्शी विधिद्वारा नयी जनगणना के लिए मांग करते हैं ।’ नेपाल में दशकों से जारी सामुदायिक एवं जातीय आन्दोलनों ने निष्पक्ष जनगणना का मांग करते आया है ।

विश्व के जातिजातियों का अनुसन्धान में संलग्न व्यकजगब एचयवभअत के मुताविक नेपाल में हिन्दू के साथ मुस्लिम हलुवाई भी निवास करती है । इस देश में हिन्दू हलुवाई की कुल जनसंख्या ५७ हजार है । जनकपुर में २४ हजार, सगरमाथा अञ्चल में १६ हजार, कोसी अञ्चल में सात हजार दो सौ, नारायणी अञ्चल में चार हजार चार सौ, लुम्बिनी अञ्चल में दो हजार तीन सौ, मेची अञ्चल में एक हजार चार सौ, भेरी अञ्चल में ६ सौ, बागमती अञ्चल में चार सौ, राप्ती अञ्चल में ७० और सेती अञ्चल में ३० है । उसी तरह इस देश में मुस्लिम हलुवाई की जनसंख्या आठ सौ है । जो राप्ति, लुम्बिनी और सेती अञ्चल में निवास करती है । इनके अतिरिक्त नेपाल में नेवार हलुवाई का भी कुछ जनसंख्या देखा जाता है । काठमाण्डू उपत्यका का मूल निवासी ‘नेवार’ जो हिन्दू या बुद्ध धर्म के अनुयायी होते हैं इनकी जनसंख्या तो स्पष्ट नहीं हो पाया है । मगर ये लोग नेवार हलुवाई जाति कहलाने के साथ साथ सरनेम में भी हलुवाई ही लिखते हैं । ईन लोगों का जातीय पेसा भी मिष्टान्न बनाना ही होता है । कुछ लोग काठमाण्डू से बाहर भी रहते हैं । नेपाल में सन् २०११ में राष्ट्रीय जनगणना सम्पन्न हुआ है । जिस के आधार पर विश्लेसन करना बांकी है ।

भारत में हिन्दू एवं मुस्लिम हलुवाई का बसोबास है । यहाँ हिन्दू हलुवाई का कुल जनसंख्या २० लाख २३ हजार बताया गया है । पश्चिम बंगाल में चार लाख चार हजार, बिहार में चार लाख ३३ हजार, उत्तर प्रदेश में दो लाख ७४ हजार, झारखण्ड में ९६ हजार, उड़िसा में पाँच हजार ६ सौ, मध्यप्रदेश में चार हजार नौ सय, छत्तीसगढ में तीन हजार पाँच सौ, महाराष्ट्र में दो हजार तीन सौ अन्डमान निकोबर में एक हजार पाँच सौ है । भारत में मुस्लिम हलुवाई का जनसंख्या एक लाख ५१ हजार है । जिनमें उत्तर प्रदेश में एक लाख ४८ हजार है तो उत्तराञ्चल में तीन हजार आठ सौ का बसोवास है ।

पाकिस्तान में मुस्लिम हलुवाई बसोवास करते हैं । यहाँ इनकी संख्या १९ हजार है । जिनमें सिन्ध प्रान्त में १२ हजार, पञ्जाब में सात हजार तीन सौ और बलुचिस्तान में १० बसोबास करते हैं ।

बगलादेश में ८२ हजार हिन्दू हलुवाई बसोबास करते हैं । इनमें राजशाही में ४६ हजार, ढाका में १८ हजार, खुल्ना में ११ हजार, चटगावं में तीन हजार तीन सौ, सिल्हट में एक हजार आठ सौ और बारिसल में पाँच सौ का बसोवास है ।

पर्वत्यौहार

नववर्ष– द्वादसमासैः संवत्सर । ऐसा वेदवचन है, इसीलिए यह जगत्मानय हुआ । सर्ववर्षारम्भों में अधिक योग्य प्रारम्भ दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा है । इसे पुरे नेपाल व भारत में अलग अलग नाम से सभी हिन्दू हलवाई धुमधाम से मनाते हैं । हिन्दू धर्म में सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ । मूलतः सूर्य षष्ठीव्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है । यह पर्व वर्ष में दो बार (कात्तिक और चैत) मनाया जाता है । आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवरात्रोत्सव आरम्भ होता है । नवरात्रोत्सव में घटस्थापना करते हैं । अखण्ड दीप के माध्यम से नौ दिन दुर्गादेवी की पूजा अर्थात नवरात्रोत्सव मनाया जाता है । श्रावण कृष्ण अष्टमी पर जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाता है ।

सामाजिक अवस्था

यह हिन्दू जाति के स्वाभिमानी, वैष्णव समुदाय के सामाजिक एवम् धार्मिक कर्मकाण्ड के महत्व के आधार पर अपना उच्च अस्तित्व समाजमे परा पूर्व काल से ही कायम रखा है । अन्य वर्ण जातिके साथ साथ ब्राह्मण वर्ण (हिन्दू पुरोहित) भी इनके द्वारा बनाए गए पकवान ग्रहण करते है । यानी की हिन्दू धर्म के प्रत्येक अनुष्ठान, जन्म, विवाह, ब्रतबन्ध आदि उत्सव त्योहार मे इनकी भूमिका रहती हैं ।

श्रोतः शताब्दी प्रवाह अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा

लेकिन आज जातीय उत्कर्ष की होड में हलुवाई समाज अपनी हीन भावना से ग्रसित है । स्वजातीय बोधक ‘हलुवाई’ शब्द प्रयोग करने में हीनता का आभाष किया जाता है । जबकि समाज के सभी वर्गों के पूजापाठ एवं शुभ कर्म प्रयोजन में हलुवाई द्वारा बनाया गया पकवान एवं मिष्ठान शुद्ध माना जाता है ।

हलुवाई जाति का सामाजिक अवस्था मध्यदेशीय सामाजिक व्यवस्था के अनुकुल है । हलुवाई संयुक्त परिवार में रहते हैं । यह जाति वैष्णव जाति के वर्ग में पड़ता है और स्वभिमानी माना जाता है ।

हमारी समाजिक, आर्थिक राजनीतिक एवं शैक्षिक स्तर के उत्थान के लिए हलुवाई समाज को खुद जागरुक होना पडेगा । इसके लिए हलुवाई जाति को अपने अपने गावं, नगर, जिला, प्रान्त तथा राष्ट्रिय स्तर पर संगठित होना जरुरी है । संगठन चाहे संघीय सिद्धान्त के तहत यो या कोई और प्रणाली, पर हमारे संगठन को गा“व गा“व मे विस्तार कर जिला एवम् केन्द्र स्तर पर इस संगठन को एक संगठनात्मक रुपमे मजबुत बनाते हुवे हलुवाई के अस्तित्व को समाज मे कायम रखना आज की आवश्यकता है । इस अभियान में जातीय संगठनों को अगुवाई करनी होगी और क्षमता मे विकास लाना होगा ।

साभार: haluwaisamajnepal.org.np/index.php/about/history

The Halwai are a caste of confectioners and sweet-makers. The name is derived from the Hindi word halwa, a popular sweet made of flour, clarified butter (ghee) sugar, almonds, raisins and pistachio nuts and saffron.

The Halwai are known by different names in each state. They are known as Mithaiha (meaning sweet) in Madhya Pradesh and have the surname Aggarwal. In eastern Bihar, they are called Madhesia and Vaisya and their surnames are Sah, Sahu, Saw and Gupta. In Uttar Pradesh they are known as Yogyaseni, Modanwal, Halwai, and Gupta. In Punjab they are known as Kamboj and Arora. In Orissa, the Halwai are known as Guria (jaggery) while in West Bengal they are known as Mayara, meaning confectioner.

There are large numbers living in the fertile eastern districts of Barabanki and Bahraich of Uttar Pradesh. They trace the origin of the term from the Hindi halwai, or “one who ploughs”.

The Halwai give no specific mythological account of the origins of their community. The Madhya Pradesh Halwais migrated from northwestern India – Rajasthan and Gujarat, during the medieval period. It is believed that Muslim rulers and feudal lords employed them to make sweets.

The Halwai is regarded with respect socially as their services are of social and ritualistic importance. Every caste in India, even the Brahmin (highest Hindu priestly caste) does not consider itself too pure to eat what a Halwai has made. Considering that sweets have a special significance in religious rituals and social events, this community plays a very specific role in all festivals and celebrations such as marriages and childbirths.

The Halwais of Uttar Pradesh speak Hindi along with the Awadhi dialect. The Madhya Pradesh Halwais also speak Hindi and a Bundelkhandi dialect. The Devanagari script is used in most states. In Bihar their first language is Maithili, but they are also conversant with Hindi. In West Bengali is spoken in Bengali and Oriya in Orissa; both have their own distinct scripts.

The Halwai’s traditional occupation is making and selling sweets. These shops are scattered throughout northern India’s towns and bazaars. They also make savoury snacks like samosas and pakoras and chai (spiced tea). Their crowded shops are India’s version of fast food. The shop-owners employ helpers mostly from their own Halwai community. 

Though most Halwai continue in making and selling confectionary, some find alternate employment in private and government sectors in various capacities. A few of them are also professionals such as doctors and engineers, while some others practice agriculture.

As they are mostly vegetarian, wheat and rice are their staple cereals, supplemented by a variety of lentils, pulses and seasonal fruits and vegetables. However, in Bihar both men and women eat mutton and chicken occasionally, but beef is taboo. Milk and dairy products are favourite foods. Alcohol is frowned upon. On ritual occasions they enjoy puri (deep fried wheat bread) and potatoes and rice pudding.

This community believes in educating both boys and girls. They also use modern medicines and practice family planning. Traditional medicines are used only for minor ailments. They make use of subsidised loans that national banks offer under developmental schemes, to set up or expand their businesses.

The Halwai are endogamous, i.e. marriages take place only within their community. There are a different number of sub castes residing in different regions. In Uttar Pradesh the Halwai have nine subgroups namely Modansevi or Modanseni, Kanyakubja, Yogyasevi or Yogyaseni, Jaunpuri, Madhesia, Kanbo, Kaithiya, Nagari, Rawatpuriya and Badshahi, while in Bihar there are two sub castes, Madhesia and Kannaujia.

Marriages are arranged by the elders on both sides. They practice monogamy. The symbols of marriage for women are traditional to the Hindu religion: the bride smears vermilion powder along her headline, wears glass bangles, toe-rings, a nose-ring or stud, a coloured dot on the forehead and decorates her hands and feet with henna. Divorce is allowed and remarriage of divorcees, widows and widowers is permissible. The practice of dowry is prevalent.

Parental property is shared equally by all the sons. Daughters have no inheritance. The eldest son succeeds his father as head of the family. Extended families are becoming less common as younger males use their inheritance to move away to set up their own businesses. 

In Uttar Pradesh some Muslim Halwai called Mithaiwale are known by their location, as in Purabi (of the eastern district) and Pachaon (of the western district). They are non-vegetarian, speak Urdu which is their native language, use the Persian-Arabic script to write it but are also fluent in Hindi. They are a monogamous people. Some of them sell tobacco, work as dyers and daily wage labourers.

What Are Their Beliefs?

The Halwai are mainly Hindu and worship all the major deities such as Shiva (the Destroyer), Durga (Shiva’s wife – a powerful goddess who rides a tiger and slays demons), Rama (virtuous warrior king of Ayodhya) and Hanuman (celibate monkey god; protector from danger and evil spirits; attendant of Rama).

 Krishna (literally, “black”), who is worshipped as the eighth and most popular incarnation of Vishnu, comes in for special reverence because of his pastoral attributes. He is, in fact, also the family deity of a large number of Halwai. The legend of Krishna as a prankish child pinching butter and curds and as an amorous young flautist frolicking among the besotted milkmaids, contribute in no small measure to this devotion.

Ancestor worship is observed during pitra paksha (or, ‘ancestor fortnight’) which is the ‘dark fortnight’, or Krishna paksha, of Aswin – the 6th month of the lunar Hindu calendar, September-October. The Halwai requisition the services of Brahman priests to perform their birth, marriage and death ceremonies. The dead are cremated and the ashes immersed in a river preferably the sacred Ganges. Death pollution is observed for a specified period, as is post-delivery birth pollution.

The Halwai celebrate all major Hindu festivals such as Holi (spring festival of colours and revelry), Diwali (Festival of Lamps), Ramnavmi (Rama’s birthday), and Janamashtami (Krishna’s birthday). Some of the prominent pilgrimage spots are Vrindavan, Haridwar (Gateway to God), Dwarka – the port city sacred to Krishna on the Arabian Sea and Gangotri, the source of the Ganges River in the Himalayas.

The Muslim Halwai belongs to the Sunni sect of Islam and their sacred specialist is the priest who is from other Muslim communities. They celebrate Islamic festivals like Id-Milad (Prophet Mohammed’s birthday), Id-ul-Fitr (Feast of Alms) and believe in and visit the mausoleums of Muslim saints. Their dead are buried.

Most Halwais are financially well off and many are quite wealthy, especially those who live in urban areas.

हलुवाई जाति का प्रादुर्भाव और इतिहास की बातें वेदकाल से लेकर वर्तमान काल खण्डों तक विभिनन समय में सिर्जित यजुर्वेद (अध्याय–३२ सुक्ति–१२), अथर्ववेद गरुड़ पुराण (अध्याय ४४ क–१८), वराहपुराण, मनुस्मृति, गर्ग संहिता (खण्ड–७ अध्याय–८), वर्णविवेक चन्द्रिका, वर्ण विवेकसार जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों में उल्लेख है । आधुनिक काल में विभिन्न विद्वानों द्वारा हलुवाई जाति पर शोध कर विभिन्न ग्रन्थ, शोधपुस्तक, इन्टरनेट प्रकाशित किया गया है । शताब्दी पूर्व स्थापित अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा से लेकर उसके बाद विभिन्न काल में विभिन्न स्थान पर स्थापित संघ–संगठनों ने जाति एकीकरण का प्रयास किया है, जातीय इतिहास और संस्कृति का अध्ययन कर प्रसारित किया है और आधुनिक राज्य व्यवस्था में जातीय हिस्सा प्राप्त करने में क्रियाशील हैं । 

मोदन के वंश में, मोदक (लड्डू) आदि का व्यवसाय करने वाले— वैश्य उत्पन्न । जो कि इस वैश्य वृत्ति के द्वारा संसार में फैले । वर्णविवेक चन्द्रिका के अनुसार भलनन्दन और मरूत्वती नाम से उत्पन्न मोदन से हलुवाई जाति की विकास हुई । 

जिस तरह माली द्वारा तोडा गया फूल, डोम द्वारा बनाया गया बा“स का वर्तन, कुम्हार द्वारा बनाया गया मिट्टी का वर्तन धर्म कार्य हेतु शुद्ध माना गया हैं, उसी तरह सिर्फ हलुवाई द्वारा बनायी गई नेवैद्य ही देवी देवता को अर्पण करने के लिए शुद्ध माना गया हैं 

मोदक को बोलचाल में लड्डु कहते हैं । एक वेवसाइट के अनुसार मिष्ठान बनाने बाले हलुवाई प्रथम पुजीत भगवान् श्री गणेश जी का प्रिय भोजन मोदक (लड्डु) बनाने वाले के नाम से जाने जाते हैं । इसिलिए मोदक बनाने वाले मोदनवाल के रूप में परिचित हैं । आटा, चिनी, घी, बदाम, पिस्ता और केशर के मिश्रण से बनने वाला स्वादिष्ट मिष्टान्न ‘हलवा’ बनाने वाले को हलवाई कहा गया है । 

The Halwai are vaishya bania caste found in India. The Arabic word Halwa means sweet and Halvai or Halwai means sweet-maker. They are also known as Mithaya in Madhya Pradesh, Gudia in Orissa, Mayara in West Bengal and other names in other regions. The Halwai are a caste of confectioners and sweet-makers, found mainly in North India.The name is derived from the word halwa, a popular sweet made of flour, clarified butter (ghee) sugar, almonds, raisins and pistachio nuts and saffron. They sell 


Sweets: grain and/or milk based, dry (like laddus), moist (like barfis) or dipped in syrup (like gulabjamun) 


Savoury snacks: hot (like samosas or pakoras) or dry (like dal biji etc.). 

What they sell is sometimes termed mishtanna, or sweetened grain based items). 

Traditionally Indians ate food cooked inside their own homes, although food cooked with ghee/oil by halwais was considered to be an acceptable exception. 

Since sweets are given to children and are offered to gods during worship, purity of sweets is considered to be an important attribute. 

The Halwai give no specific mythological account of the origins of their community. The Madhya Pradesh Halwais migrated from north-western India - Rajasthan and Gujarat, during the medieval period. They are traditional vaishyas who were involved in Business and agriculture. They enjoy high status in the society as they belong to Vaishya community. They are considered as "Dwija" i.e. twice born and hence enjoys the right of "Upnayan sanskar". 


In Uttar Pradesh, according to their traditions, are descended from man by the name of Bhalandan. This Bhalandan came into being due to the will of the Hindu god Brahma. This individual married a woman named Marutwati. Their son, was an individual by the name of Vatsa Priti. One of his descendents, an individual by the name of Modan took to making sweetmeats. 

The community is split into nine sub-groups, the Modanseni, Kanyakubja, Yagyaseni, Jaunpuri, Badshahi, Kanbo, Kaithiya, Nagri and Rawatputra. The Modanseni consider themselves superior to the other clans. Like other North Indian Hindu castes, they maintain gotra exogamy. The community belong to the Vaishanavi sect of Hinduism. 

The community was one of the earliest to set up its own caste association, the Kanyakubja Vaishya Halwai Mahasabha, which was established in Varanasi in the year 1903. 

The Halwai is regarded with respect socially as their services are of social and ritualistic importance. Every caste in India, even the Brahman does not consider itself too pure to eat what a Halwai has made. Considering that sweets have a special significance in religious rituals and social events, this community plays a very specific role in all festivals and celebrations such as marriages and childbirths. 

The Halwai are known by different names in each state. They are known as Mithaiha (meaning sweet) in Madhya Pradesh and have the surname Agarwal. In eastern Bihar, they are called Madhesia and Kanu Vaisya and their surnames are Sah, Madhesiya, Saw and Gupta. In Uttar Pradesh they are known as Yogyaseni, Modanwal, Halwai, and Gupta. In Orissa, the Halwai are known as Gudia (jaggery) while in West Bengal they are known as Mayara, meaning confectioner. There are large numbers living in the fertile eastern districts of Barabanki and Bahraich of Uttar Pradesh. They trace the origin of the term from the Hindi halwahi, or "one who ploughs". 


Recently some of the Halwai have adopted modern manufacturing approaches and produce packaged sweets in large quantities, some of which are exported to other countries. They have often chosen to keep old fashioned names from previous generations like Ghasitaram, Haldiram, Chandu etc.

4 comments:

  1. We all Halwais are thankful for such vivid description in an authentic and comprehensible presentation. This implies our oneness and necessity to feel brotherhood among all.
    -- Bhola Pd Sah, Deoghar, Jharkhand 9431132710.

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  2. Is it possible to get marry with a girl gupta- caste Vaishya (halwai) & boy -caste is Kashyap(keshari). Please tell me.

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  3. हलवाई वैश्य की जानकारी कृपया हिंदी में बताए।

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  4. Purwar kya kalwar me bhi aate hai

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