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Thursday, October 31, 2013

वैश्य समाज के गौरव

प्रस्तुत लेख इसलिए लिखा गया है कि व्यक्ति अपनी जाति के गौरव को पहचाने अपनी जाति के महान पुरुषों के चरित्र से प्रेरणा लें. इस लेख से अर्थ न लगाया जाए कि जातिवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है. हम प्रत्येक जाति के उच्च चरित्र को यहाँ प्रस्तुत करने के इच्छुक है कृपया हमारा मार्गदर्शन करें जिस-जिस जाति के चरित्र हमारे संज्ञान में आते रहेंगे उनका उल्लेख किया जाता रहेगा.

वैश्य जाति अपनी दानवीरता, धर्म प्रेमिता, सौम्य व्यक्तित्व के लिए सराहनीय मानी जाती रही है. अनेक गौशालाएं, विद्दालयों का संचालन वैश्य जाति का उदारह्र्द्यता के कारण ही सम्भव हो पाया है वैश्य जाति के कुछ श्रेष्ठ चरित्र निम्न है.

1 संजय अग्रवाल:-बाबरी मस्जिद कांड मे गोली लगने से यह नौजवान सर्वप्रथम शहीद हुआ था. सुरक्षा चक्र का घेरा तोड़कर तेजी से यह गुम्बद के ऊपर जा चढ़े और अपनी धर्म संस्कृति की रक्षा करते हुए अमर हो गए.



2 श्री रणवीर गुप्ता - पानीपत के पास चुलकाना (समालखा) के रहने वाले श्री रणवीर जी ने दानवीर कणर् के समान करोड़ों रूपये का दान करके एक ऐसी मिसाल पेश की है कि हर कोई उनका कायल हो गया। उन्होंने गांव के सरकारी स्कूल को 1.40 लाख डॉलर दान दिया जहां से 1962 में आठवीं की परीक्षा पास की थी। समालखा के राजकीय उच्च विद्यालय को भी 1.40 लाख डॉलर दान ​दिया जहां से 11वीं की परीक्षा पास की। 63 वशीर्य रणवीर जी ने 1970 में बी0 आर्क0 की ​डिग्री आई0 आई0 टी0 खडगपुर से उत्तीर्ण की। इस संस्थान को भी वो 20 लाख डॉलर प्रदान कर रहे हैं। इस विश्वस्तरीय शैक्षिक  संस्थान ने डॉ0 गुप्ता के नाम पर आर्किटेक्ट खण्ड स्थापित किया है।

साभार : विश्वामित्र, http://vishwamitra-spiritualrevolution.blogspot.in/2013/03/blog-post_22.html

Wednesday, October 30, 2013

वैश्य गौरव अमर शहीद राम कोठारी व् शरद कोठारी



वैश्य गौरव अमर शहीद राम कोठारी व् शरद कोठारी

अयोध्या : 3 0 अक्टूबर 1 9 9 0 : बलिदान दिवस

तब मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्य मन्त्री थे उन्होंने राम भक्तो को चुनौती दी थी कि अयोध्या में परिंदा भी प्रवेश नहीं कर सकता लेकिन राम भक्तों ने अपनी लाशें बिछा कर न केवल अयोध्या कि गलियों को बल्कि बाबरी ढांचे के गुम्बद पर चढ़ कर भगवा फहरा दिया था उसके बाद ढूंढ कर कोठारी बंधुओ का क़त्ल किया गया , यह बलिदान दिवस है l

आज 3 0 अक्टूबर 1 9 9 0 : बलिदान दिवस है , अपने निकट के मन्दिर बलिदानियों की स्मृति में एक दीपक अवश्य जलाएं और बलिदान की कथा को स्मरण करें

श्री रामजन्मभूमि को विदेशी आतताइयो से मुक्त करवाने के लिए कोठारी बंधुओ ने बलिदान दिया,

आज उनका बलिदान दिवस है 30 अक्टूबर 1990 को दोनों सगे भाइयो ने श्री रामजन्मभूमि को मुक्त करवाने के लिए बलिदान दिया, आज का दिन भूले से भी न भूले।

22 अक्टूबर 1990 को 69 कारसेवको का एक दल अयोध्या की और कूच करने निकल पड़ा, जिसका नेतृत्व दोनों भाई कर रहे थे, पूरा दल कोल्कता से बनारस की और रवाना हुआ पर स्टेशन पर सरकार ने सख्ती की हुई थी, जिस कारण उन्हें अयोध्या से 200 किलोमीटर दूर कोलापुर उतर कर टैक्सी लेनी पड़ी, 30 अक्टूबर को वे अयोध्या पहुंचे, हजारो रामभक्त वहां पर श्री राम जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए डटे हुए थे, लाठियां भांजी जा रही थी, कही पर आंसू गैस के गोले तो कही पर खूनखराबा, कोठारी बंधू सबसे पहले मंदिर के प्रांगन में पहुंचे और उन्होंने वहां पर भगवा ध्वज फहरा दिया, ये हिन्दुओ की जीत थे, इसके बाद सभी अयोध्या की गलियों में राम कीर्तन करते हुए जा रहे थे, उसी समय मुल्लायम के कहने पर पुलिस वालो ने निर्दोष, निहत्थे रामभक्तो पर निर्ममता पूर्वक ताबड़तोड़ गोलियां चलानी शुरू कर दी, कोठारी बंधू सबसे पहले पुलिस के अत्याचारों का शिकार बने, हजारो रामभक्तो ने अपना बलिदान दिया और अपना नाम इतिहास में अमर कर लिया, कोठारी बंधुओ और उनसे पहले श्री राम जन्मभूमि मुक्ति के लिए बलिदान देने वाले लाखो हिन्दुओ शूरवीरो को हिन्दू समाज सदैव याद रखेगा, धन्य है वो माँ जिसने ऐसे सपूतो को जन्म दिया जिन्होंने अपने अराध्य श्री राम के जन्मस्थान मुक्ति के लिए अपने प्राण भी अर्पण कर दिए, यदि हर हिन्दू में ऐसी भावना होती तो आज श्री रामलला टेंट में न होते। 

मंदिर मुक्ति आन्दोलन तब तक चलता रहेगा जब तक सम्पूर्ण रामजन्मभूमि को विदेशियों चंगुल से मुक्त न करा लिया जाए.

जय जय श्री राम

साभार: फेसबुक पेज 

Friday, October 4, 2013

SIYARAM SHARAN GUPTA - सियारामशरण गुप्त




सियारामशरण गुप्त का सेठ रामचरण कनकने के वैश्य परिवार में श्री मैथिलीशरण गुप्त के अनुज रुप में चिरगाँव, झांसी में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने घर में ही गुजराती, अंग्रेजी और उर्दू भाषा सीखी। सन् १९२९ ई. में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और कस्तूरबा गाँधी के सम्पर्क में आये। कुछ समय वर्धा आश्रम में भी रहे। सन् १९४० में चिरगांव में नेता जी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का स्वागत किया। वे सन्त विनोबा भावे के सम्पर्क में भी आये। उनकी पत्नी तथा पुत्रों का निधन असमय ही हो गया था अतः वे दु:ख वेदना और करुणा के कवि बन गये। १९१४ में उन्होंने अपनी पहली रचना मौर्य विजय लिखी। 

चिरगाँव (झाँसी) में बाल्यावस्था बीतने के कारण बुंदेलखंड की वीरता और प्रकृति सुषमा के प्रति आपका प्रेम स्वभावगत था। घर के वैष्णव संस्कारों और गांधीवाद से गुप्त जी का व्यक्तित्व विकसित हुआ। गुप्त जी स्वयं शिक्षित कवि थे। मैथिलीशरण गुप्त की काव्यकला और उनका युगबोध सियारामशरण ने यथावत्‌ अपनाया था। अत: उनके सभी काव्य द्विवेदी युगीन अभिधावादी कलारूप पर ही आधारित हैं। दोनों गुप्त बंधुओं ने हिंदी के नवीन आंदोलन छायावाद से प्रभावित होकर भी अपना इतिवृत्तात्मक अभिघावादी काव्य रूप सुरक्षित रखा है। विचार की दृष्टि से भी सियारामशरण जी ज्येष्ठ बंधु के सदृश गांधीवाद की परदु:खकातरता, राष्ट्रप्रेम, विश्वप्रेम, विश्व शांति, हृदय परिवर्तनवाद, सत्य और अहिंसा से आजीवन प्रभावित रहे। उनके काव्य वस्तुत: गांधीवादी निष्टा के साक्षात्कारक पद्यबद्ध प्रयत्न हैं।

गुप्त जी के मौर्य विजय (१९१४ ई.), अनाथ (१९१७), दूर्वादल (१९१५-२४), विषाद (१९२५), आर्द्रा (१९२७), आत्मोत्सर्ग (१९३१), मृण्मयी (१९३६), बापू (१९३७), उन्मुक्त (१९४०), दैनिकी (१९४२), नकुल (१९४६), नोआखाली (१९४६), गीतासंवाद (१९४८) आदि काव्यों में मौर्य विजय और नकुल आख्यानात्मक हैं। शेष में भी कथा का सूत्र किसी न किसी रूप में दिखाई पड़ता है। मानव प्रेम के कारण कवि का निजी दु:ख, सामाजिक दु:ख के साथ एकाकार होता हुआ वर्णित हुआ है। विषाद में कवि ने अपने विधुर जीवन और आर्द्रा में अपनी पुत्री रमा की मृत्यु से उत्पन्न वेदना के वर्णन में जो भावोद्गार प्रकट किए हैं, वे बच्चन के प्रियावियोग और निराला जी की "सरोजस्मृति' के समान कलापूर्ण न होकर भी कम मार्मिक नहीं हैं। इसी प्रकार अपने हृदय की सचाई के कारण गुप्त जी द्वारा वर्णित जनता की दरिद्रता, कुरीतियों के विरुद्ध आक्रोश, विश्व शांति जैसे विषयों पर उनकी रचनाएँ किसी भी प्रगतिवादी कवि को पाठ पढ़ा सकती हैं। हिंदी में शुद्ध सात्विक भावोद्गारों के लिए गुप्त जी की रचनाएँ स्मरणीय रहेंगी। उनमें जीवन के श्रृंगार और उग्र पक्षों का चित्रण नहीं हो सका किंतु जीवन के प्रति करुणा का भाव जिस सहज और प्रत्यक्ष विधि पर गुप्त जी में व्यक्त हुआ है उससे उनका हिंदी काव्य में एक विशिष्ट स्थान बन गया है। हिंदी की गांधीवादी राष्ट्रीय धारा के वह प्रतिनिधि कवि हैं।

काव्य रूपों की दृष्टि से उन्मुक्त नृत्य नाट्य के अतिरिक्त उन्होंने पुण्य पर्व नाटक (१९३२), झूठा सच निबंध संग्रह (१९३७), गोद, आकांक्षा और नारी उपन्यास तथा लघुकथाओं (मानुषी) की भी रचना की थी। उनके गद्य साहित्य में भी उनका मानव प्रेम ही व्यक्त हुआ है। कथा साहित्य की शिल्प विधि में नवीनता न होने पर भी नारी और दलित वर्ग के प्रति उनका दयाभाव देखते ही बनता है। समाज की समस्त असंगतियों के प्रति इस वैष्णव कवि ने कहीं समझौता नहीं किया किंतु उनका समाधान सर्वत्र गांधी जी की तरह उन्होंने वर्ग संघर्ष के आधार पर न करके हृदय परिवर्तन द्वारा ही किया है, अत: "गोद' में शोभाराम मिथ्या कलंक की चिंता न कर उपेक्षित किशोरी को अपना लेता है; "अंतिम आकांक्षा' में रामलाल अपने मालिक के लिए सर्वस्व त्याग करता है और "नारी' के जमुना अकेले ही विपत्तिपथ पर अडिग भाव से चलती रहती है। गुप्त जी की मानुषी, कष्ट का प्रतिदान, चुक्खू प्रेत का पलायन, रामलीला आदि कथाओं में पीड़ित के प्रति संवेदना जगाने का प्रयत्न ही अधिक मिलता है। जाति वर्ण, दल वर्ग से परे शुद्ध मानवतावाद ही उनका कथ्य है। वस्तुत: अनेक काव्य भी पद्यबद्ध कथाएँ ही हैं और गद्य और पद्य में एक ही उक्त मंतव्य व्यक्त हुआ है। गुप्त जी के पद्य में नाटकीयता तथा कौशल का अभाव होने पर भी संतों जैसी निश्छलता और संकुलता का अप्रयोग उनके साहित्य को आधुनिक साहित्य के तुमुल कोलाहल में शांत, स्थिर, सात्विक घृतपीद का गौरव देता है जो हृदय की पशुता के अंधकार को दूर करने के लिए अपनी ज्योति में आत्म मग्न एवं निष्कंप भाव से स्थित है।

प्रमुख रचनाएँ

खण्ड काव्य- अनाथ, आर्द्रा, विषाद, दूर्वा दल, बापू, सुनन्दा और गोपिका।

मानुषी --कहानी संग्रह

पुण्य पर्व --नाटक

अनुवाद- गीता सम्वाद

नाट्य- उन्मुक्त गीत

कविता संग्रह- अनुरुपा तथा अमृत पुत्र

काव्यग्रन्थ- दैनिकी नकुल, नोआखली में, जय हिन्द, पाथेय, मृण्मयी तथा आत्मोसर्ग।

उपन्यास- अन्तिम आकांक्षा तथा नारी और गोद।

निबन्ध संग्रह- झूठ-सच।

पद्यानुवाद- ईषोपनिषद, धम्मपद और भगवत गीता

सम्मान

उन्हें दीर्घकालीन साहित्य सेवाओं के लिए सन् १९६२ में 'सरस्वती हीरक जयन्ती' के अवसर पर सम्मानित किया गया। १९४१ में उन्हें नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी द्वारा "सुधाकर पदक' प्रदान किया गया। आपकी समस्त रचनाएं पांच खण्डों में संकलित कर प्रकाशित है।

लम्बी बीमारी के बाद ९ मार्च १९६३ ई. को उनका निधन हो गया।

साभार: भारत डिस्कवरी 

Wednesday, October 2, 2013

RAJYAWARDHAN - राज्यवर्धन

राज्यवर्धन थानेश्वर के शासक प्रभाकरवर्धन का ज्येष्ठ पुत्र था। वह अपने भाई हर्षवर्धन और बहन राज्यश्री से बड़ा था। राज्यवर्धन हर्षवर्धन से चार वर्ष बड़ा था। तीनों बहन-भाइयों में अगाध प्रेम था। एक भीषण युद्ध के फलस्वरूप बंगाल के राजा शशांक द्वारा राज्यवर्धन का वध हुआ।
राज्यवर्धन की बहन राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरि वंश केशासक गृहवर्मन से हुआ था। 

प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के उपरान्त ही देवगुप्त का आक्रमण कन्नौज पर हुआ और एक भयंकर युद्ध प्रारम्भ हो गया।  युद्ध में गृहवर्मन मालवा के राजा देवगुप्त के हाथों मारा गया और उसकी पत्नी राज्यश्री को बन्दी बनाकर कन्नौज के काराग़ार में डाल दिया गया। सूचना मिलते ही राज्यश्री के ज्येष्ठ अग्रज राज्यवर्धन ने अपनी बहन को काराग़ार से मुक्त कराने के लिए कन्नौज की ओर प्रस्थान किया। 

राज्यवर्धन ने मालवा के शासक देवगुप्त को पराजित करके मार डाला, किंतु वह स्वयं देवगुप्त के सहायक और बंगाल के शासक शशांक द्वारा मारा गया।  इस समय राज्य में व्याप्त भारी उथल-पुथल से राज्यश्री काराग़ार से भाग निकली और उसने विन्ध्यांचल के जंगलों में शरण ली।बाद में राज्यवर्धन के उत्तराधिकारी सम्राट हर्षवर्धन ने राज्यश्री को विन्ध्यांचल के जंगलों में उस समय ढूँढ निकाला, जब वह निराश होकर चिता में प्रवेश करने ही वाली थी। हर्षवर्धन उसे कन्नौज वापस लौटा लाया और आजीवन उसको सम्मान दिया।



भारत डिस्कवरी प्रस्तुति