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Tuesday, December 29, 2015

Thursday, December 17, 2015

जयदयाल गोयन्दका - JAY DAYAL GOENKA



जयदयाल गोयन्दका (जन्म : सन् 1885 - निधन : 17 अप्रैल 1965) श्रीमद्भगवद् गीता के अनन्य प्रचारक थे। वे गीताप्रेस, गीता-भवन (ऋषीकेश, स्‍वर्गाश्रम), ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम (चूरू) आदि के संस्थापक थे।

जयदयाल गोयन्दका का जन्म राजस्थान के चुरू में ज्येष्ठ कृष्ण 6, सम्वत् 1942 (सन् 1885) को श्री खूबचन्द्र अग्रवाल के परिवार में हुआ था। बाल्यावस्था में ही इन्हें गीता तथा रामचरितमानस ने प्रभावित किया। वे अपने परिवार के साथ व्यापार के उद्देश्य से बांकुड़ा (पश्चिम बंगाल) चले गए। बंगाल में दुर्भिक्ष पड़ा तो, उन्होंने पीड़ितों की सेवा का आदर्श उपस्थित किया।

उन्होंने गीता तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों का गहन अध्ययन करने के बाद अपना जीवन धर्म-प्रचार में लगाने का संकल्प लिया। इन्होंने कोलकाता में "गोविन्द-भवन" की स्थापना की। वे गीता पर इतना प्रभावी प्रवचन करने लगे थे कि हजारों श्रोता मंत्र-मुग्ध होकर सत्संग का लाभ उठाते थे। "गीता-प्रचार" अभियान के दौरान उन्होंने देखा कि गीता की शुद्ध प्रति मिलनी दूभर है। उन्होंने गीता को शुद्ध भाषा में प्रकाशित करने के उद्देश्य से सन् 1923 में गोरखपुर में गीता प्रेस की स्थापना की। उन्हीं दिनों उनके मौसेरे भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार उनके सम्पर्क में आए तथा वे गीता प्रेस के लिए समर्पित हो गए। गीता प्रेस से "कल्याण" पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ। उनके गीता तथा परमार्थ सम्बंधी लेख प्रकाशित होने लगे। उन्होंने "गीता तत्व विवेचनी" नाम से गीता का भाष्य किया। उनके द्वारा रचित तत्व चिन्तामणि, प्रेम भक्ति प्रकाश, मनुष्य जीवन की सफलता, परम शांति का मार्ग, ज्ञान योग, प्रेम योग का तत्व, परम-साधन, परमार्थ पत्रावली आदि पुस्तकों ने धार्मिक-साहित्य की अभिवृद्धि में अभूतपूर्व योगदान किया है।

उनका निधन 17 अप्रैल 1965 को ऋषिकेश में गंगा तट पर हुआ।

सेठ जयदयाल गोयन्‍दका द्वारा स्‍थापित प्रकल्‍प

वे अत्‍यन्‍त सरल तथा भगवद्विश्‍वासी थे। उनका कहना था कि यदि मेरे द्वारा किया जाने वाला कार्य अच्‍छा होगा तो भगवान उसकी सँभाल अपने आप करेंगे। बुरा होगा तो हमें चलाना नहीं है।

गोविन्‍द-भवन-कार्यालय, कोलकाता

यह संस्‍थाका प्रधान कार्यालय है जो एक रजिस्‍टर्ड सोसाइटी है। सेठजी व्‍यापार कार्यसे कोलकाता जाते थे और वहाँ जानेपर सत्‍संग करवाते थे। सेठजी और सत्‍संग जीवन-पर्यन्‍त एक-दूसरेके पर्याय रहे। सेठजीको या सत्‍संगियोंको जब भी समय मिलता सत्‍संग शुरू हो जाता। कई बार कोलकातासे सत्‍संग प्रेमी रात्रिमें खड़गपुर आ जाते तथा सेठजी चक्रधरपुरसे खड़गपुर आ जाते जो कि दोनों नगरोंके मध्‍यमें पड़ता था। वहाँ स्‍टेशन के पास रातभर सत्‍संग होता, प्रात: सब अपने-अपने स्‍थानको लौट जाते। सत्‍संगके लिये आजकलकी तरह न तो मंच बनता था न प्रचार होता था। कोलकातामें दुकानकी गद्दि‍योंपर ही सत्‍संग होने लगता। सत्‍संगी भाइयोंकी संख्‍या दिनोंदिन बढ़ने लगी। दुकानकी गद्दि‍योंमें स्‍थान सीमित था। बड़े स्‍थानकी खोज प्रारम्‍भ हुई। पहले तो कोलकाताके ईडन गार्डेनके पीछे किलेके समीप वाला स्‍थल चुना गया लेकिन वहाँ सत्‍संग ठीकसे नहीं हो पाता था। पुन: सन् 1920 के आसपास कोलकाताकी बाँसतल्‍ला गलीमें बिड़ला परिवारका एक गोदाम किराये पर मिल गया और उसे ही गोविन्‍द भवन (भगवान् का घर) का नाम दिया गया। वर्तमानमें महात्‍मा गाँधी रोडपर एक भव्‍य भवन ‘गोविन्‍द-भवन’ के नामसे है जहाँपर नित्‍य भजन-कीर्तन चलता है तथा समय-समयपर सन्‍त-महात्‍माओंद्वारा प्रवचनकी व्‍यवस्‍था होती है। पुस्‍तकोंकी थोक व फुटकर बिक्रीके साथ ही साथ हस्‍तनिर्मित वस्‍त्र, काँचकी चूडियाँ, आयुर्वेदिक ओषधियाँ आदिकी बिक्री उचित मूल्‍यपर हो रही है।

गीताप्रेस-गोरखपुर

कोलकातामें श्री सेठजी के सत्‍संगके प्रभावसे साधकोंका समूह बढ़ता गया और सभीको स्‍वाध्‍यायके लिये गीताजीकी आवश्‍यकता हुई, परन्‍तु शुद्ध पाठ और सही अर्थकी गीता सुलभ नहीं हो रही थी। सुलभतासे ऐसी गीता मिल सके इसके लिये सेठजीने स्‍वयं पदच्‍छेद, अर्थ एवं संक्षिप्‍त टीका तैयार करके गोविन्‍द-भवनकी ओरसे कोलकाता के वणिक प्रेससे पाँच हजार प्रतियाँ छपवायीं। यह प्रथम संस्‍करण बहुत शीघ्र समाप्‍त हो गया। छ: हजार प्रतियोंके अगले संस्‍करणका पुनर्मुद्रण उसी वणिक प्रेससे हुआ। कोलकातामें कुल ग्‍यारह हजार प्रतियाँ छपीं। परन्‍तु इस मुद्रणमें अनेक कठिनाइयाँ आयीं। पुस्‍तकोंमें न तो आवश्‍यक संशोधन कर सकते थे, न ही संशोधनके लिये समुचित सुविधा मिलती थी। मशीन बार-बार रोककर संशोधन करना पड़ता था। ऐसी चेष्‍टा करनेपर भी भूलोंका सर्वथा अभाव न हो सका। तब प्रेसके मालिक जो स्‍वयं सेठजीके सत्‍संगी थे, उन्‍होंने सेठजीसे कहा – किसी व्‍यापारीके लिये इस प्रकार मशीनको बार-बार रोककर सुधार करना अनुकूल नहीं पड़ता। आप जैसी शुद्ध पुस्‍तक चाहते हैं, वैसी अपने निजी प्रेसमें ही छपना सम्‍भव है। सेठजी कहा करते थे कि हमारी पुस्‍तकोंमें, गीताजीमें भूल छोड़ना छूरी लेकर घाव करना है तथा उनमें सुधार करना घावपर मरहम-पट्टी करना है। जो हमारा प्रेमी हो उसे पुस्‍तकोंमें अशुद्धि सुधार करनेकी भरसक चेष्‍टा करनी चाहिये। सेठजीने विचार किया कि अपना एक प्रेस अलग होना चाहिये, जिससे शुद्ध पाठ और सही अर्थकी गीता गीता-प्रेमियोंको प्राप्‍त हो सके। इसके लिये एक प्रेस गोरखपुरमें एक छोटा-सा मकान लेकर लगभग 10 रुपयेके किरायेपर वैशाख शुक्‍ल 13, रविवार, वि. सं. 1980 (23 अप्रैल 1923 ई0) को गोरखपुरमें प्रेसकी स्‍थापना हुई, उसका नाम गीताप्रेस रखा गया। उससे गीताजीके मुद्रण तथा प्रकाशनमें बड़ी सुविधा हो गयी। गीताजीके अनेक प्रकारके छोटे-बड़े संस्‍करणके अतिरिक्‍त श्रीसेठजीकी कुछ अन्‍य पुस्‍तकोंका भी प्रकाशन होने लगा। गीताप्रेससे शुद्ध मुद्रित गीता, कल्‍याण, भागवत, महाभारत, रामचरितमानस तथा अन्‍य धार्मिक ग्रन्‍थ सस्‍ते मूल्‍यपर जनताके पास पहुँचानेका श्रेय श्रीजयदयालजी गोयन्‍दकाको ही है। गीताप्रेस पुस्‍तकोंको छापनेका मात्र प्रेस ही नहीं है अपितु भगवान की वाणीसे नि:सृत जीवनोद्धारक गीता इत्‍यादिकी प्रचारस्‍थली होनेसे पुण्‍यस्‍थलीमें परिवर्तित है। भगवान शास्‍त्रोंमें स्‍वयं इसका उद्घोष किये हैं कि जहाँ मेरे नामका स्‍मरण, प्रचार, भजन-कीर्तन इत्‍यादि होता है उस स्‍थानको मैं कभी नहीं त्‍यागता।नाहं वसामि वैकुण्‍ठे योगिनां हृदये न च।मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्‍ठामि नारद।।

गीताभवन, स्‍वर्गाश्रम ऋषिकेश

गीताजी के प्रचारके साथ ही साथ सेठजी भगवत्‍प्राप्ति हेतु सत्‍संग करते ही रहते थे। उन्‍हें एक शांतिप्रिय स्‍थलकी आवश्‍यकता महसूस हुई जहाँ कोलाहल न हो, पवित्र भूमि हो, साधन-भजनके लिये अति आवश्‍यक सामग्री उपलब्‍ध हो। इस आवश्‍यकताकी पूर्तिके लिये उत्‍तराखण्‍डकी पवित्र भूमिपर सन् 1918 के आसपास सत्‍संग करने हेतु सेठजी पधारे। वहाँ गंगापार भगवती गंगाके तटपर वटवृक्ष और वर्तमान गीताभवनका स्‍थान सेठजीको परम शान्तिदायक लगा। सुना जाता है कि वटवृक्ष वाले स्‍थानपर स्‍वामी रामतीर्थने भी तपस्‍या की थी। फिर क्‍या था सन् 1925 के लगभगसे सेठजी अपने सत्‍संगियोंके साथ प्रत्‍येक वर्ष ग्रीष्‍म-ऋतुमें लगभग 3 माह वहाँ रहने लगे। प्रात: 4 बजेसे रात्रि 10 बजेतक भोजन, सन्‍ध्‍या-वन्‍दन आदिके समयको छोड़कर सभी समय लोगोंके साथ भगवत्-चर्चा, भजन-कीर्तन आदि चलता रहता था। धीरे-धीरे सत्‍संगी भाइयोंके रहनेके लिये पक्‍के मकान बनने लगे। भगवत्‍कृपासे आज वहाँ कई सुव्‍यवस्थित एवं भव्‍य भवन बनकर तैयार हो गये हैं जिनमें 1,000 से अधिक कमरे हैं और सत्‍संग, भजन-कीर्तनके स्‍थान अलग से हैं। जो शुरूसे ही सत्‍संगियोंके लिये नि:शुल्‍क रहे हैं। यहाँ आकर लोग गंगाजीके सुरम्‍य वातावरणमें बैठकर भगवत्-चिन्‍तन तथा सत्‍संग करते हैं। यह वह भूमि है जहाँ प्रत्‍येक वर्ष न जाने कितने भाई-बहन सेठजीके सान्निध्‍यमें रहकर जीवन्‍मुक्‍त हो गये हैं। यहाँ आते ही जो आनन्‍दानुभूति होती है वह अकथनीय है। यहाँ आने वालोंको कोई असुविधा नहीं होती; क्‍योंकि नि:शुल्‍क आवास और उचित मूल्‍यपर भोजन एवं राशन, बर्तन इत्‍यादि आवश्‍यक सामग्री उपलब्‍ध है।

श्री ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम, चूरू

जयदयालजी गोयन्‍दकाने इस आवासीय विद्यालयकी स्‍थापना इसी उद्देश्‍यसे की कि बचपनसे ही अच्‍छे संस्‍कार बच्‍चोंमें पड़ें और वे समाजमें चरित्रवान्, कर्तव्‍यनिष्‍ठ, ज्ञानवान् तथा भगवत्‍प्राप्ति प्रयासी हों। स्‍थापना वर्ष 1924 ई0 से ही शिक्षा, वस्‍त्र, शिक्षण सामग्रियाँ इत्‍यादि आजतक नि:शुल्‍क हैं। उनसे भोजन खर्च भी नाममात्रका ही लिया जाता है।

गीताभवन आयुर्वेद संस्‍थान

जयदयालजी गोयन्‍दका पवित्रताका बड़ा ध्‍यान रखते थे। हिंसासे प्राप्‍त किसी वस्‍तुका उपयोग नहीं करते थे। आयुर्वेदिक औषधियोंका ही प्रयोग करते और करनेकी सलाह देते थे। शुद्ध आयुर्वेदिक औषधियोंके निर्माणके लिये पहले कोलकातामें पुन: गीताभवनमें व्‍यवस्‍था की गयी ताकि हिमालयकी ताजा जड़ी-बूटियों एवं गंगाजलसे निर्मित औषधियाँ जनसामान्‍यको सुलभ हो सकें।

सन्दर्भ

जयदयाल गोयन्दकाजी गोविन्द भवन कार्यालय के संस्थापक थे। गीताप्रेस, गोविन्द भवन कार्यालय का एक प्रतिष्ठान है। उक्त लिखित बातें उन व्यक्तियों से प्राप्त हुई हैं जो उनके जीवनकाल में साथी रहे थे।

साभार: विकिपीडिया 

Wednesday, December 16, 2015

गीताप्रेस, गोरखपुर





वैश्य समुदाय द्वारा स्थापित  गीताप्रेस या गीता मुद्रणालय, विश्व की सर्वाधिक हिन्दू धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित करने वाली संस्था है। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर के शेखपुर इलाके की एक इमारत में धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन और मुद्रण का काम कर रही है। इसमें लगभग २०० कर्मचारी काम करते हैं। यह एक विशुद्ध आध्यात्मिक संस्था है। देश-दुनिया में हिंदी, संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशित धार्मिक पुस्तकों, ग्रंथों और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री कर रही गीताप्रेस को भारत में घर-घर में रामचरितमानस और भगवद्गीता को पहुंचाने का श्रेय जाता है। गीता प्रेस की पुस्तकों की बिक्री 18 निजी थोक दुकानों के अलावा हजारों पुस्तक विक्रेताओं और 30 प्रमुख रेलवे स्टेशनों पर बने गीता प्रेस के बुक स्टॉलों के जरिए की जाती है। गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा कल्याण (हिन्दी मासिक) और कल्याण-कल्पतरु (इंग्लिश मासिक) का प्रकाशन भी होता है।

गीताप्रेस की स्थापना सन् 1923 ई० में हुई थी। इसके संस्थापक महान गीता-मर्मज्ञ श्री जयदयाल गोयन्दका थे। इस सुदीर्घ अन्तरालमें यह संस्था सद्भावों एवं सत्-साहित्य का उत्तरोत्तर प्रचार-प्रसार करते हुए भगवत्कृपा से निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर है। आज न केवल समूचे भारत में अपितु विदेशों में भी यह अपना स्थान बनाये हुए है। गीताप्रेस ने निःस्वार्थ सेवा-भाव, कर्तव्य-बोध, दायित्व-निर्वाह, प्रभुनिष्ठा, प्राणिमात्र के कल्याण की भावना और आत्मोद्धार की जो सीख दी है, वह सभी के लिये अनुकरणीय आदर्श बना हुआ है।

करीब 90 साल पहले यानी 1923 में स्थापित गीता प्रेस द्वारा अब तक 45.45 करोड़ से भी अधिक प्रतियों का प्रकाशन किया जा चुका है। इनमें 8.10 करोड़ भगवद्गीता और 7.5 करोड़ रामचरित मानस की प्रतियां हैं। गीता प्रेस में प्रकाशित महिला और बालोपयोगी साहित्य की 10.30 करोड़ प्रतियों पुस्तकों की बिक्री हो चुकी है।

गीता प्रेस ने 2008-09 में 32 करोड़ रुपये मूल्य की किताबों की बिक्री की। यह आंकड़ा इससे पिछले साल की तुलना में 2.5 करोड़ रुपये ज्यादा है। बीते वित्त वर्ष में गीता प्रेस ने पुस्तकों की छपाई के लिए 4,500 टन कागज का इस्तेमाल किया।

गीता प्रेस की लोकप्रिय पत्रिका कल्याण की हर माह 2.30 लाख प्रतियां बिकती हैं। बिक्री के पहले बताए गए आंकड़ों में कल्याण की बिक्री शामिल नहीं है। गीता प्रेस की पुस्तकों की मांग इतनी ज्यादा है कि यह प्रकाशन हाउस मांग पूरी नहीं कर पा रहा है। औद्योगिक रूप से पिछडे¸ पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस प्रकाशन गृह से हर साल 1.75 करोड़ से ज्यादा पुस्तकें देश-विदेश में बिकती हैं।

गीता पे्रस के प्रोडक्शन मैनेजर लालमणि तिवारी कहते हैं, हम हर रोज 50,000 से ज्यादा किताबें बेचते हैं। दुनिया में किसी भी पब्लिशिंग हाउस की इतनी पुस्तकें नहीं बिकती हैं। धार्मिक किताबों में आज की तारीख में सबसे ज्यादा मांग रामचरित मानस की है। अग्रवाल ने कहा कि हमारे कुल कारोबार में 35 फीसदी योगदान रामचरित मानस का है। इसके बाद 20 से 25 प्रतिशत का योगदान भगवद्गीता की बिक्री का है।

गीता प्रेस की पुस्तकों की लोकप्रियता की वजह यह है कि हमारी पुस्तकें काफी सस्ती हैं। साथ ही इनकी प्रिटिंग काफी साफसुथरी होती है और फोंट का आकार भी बड़ा होता है। गीताप्रेस का उददेश्य मुनाफा कमाना नहीं है। यह सदप्रचार के लिए पुस्तकें छापते हैं। गीता प्रेस की पुस्तकों में हनुमान चालीसा, दुर्गा चालीसा और शिव चालीसा की कीमत एक रुपये से शुरू होती है।

गीता प्रेस के कुल प्रकाशनों की संख्या 1,600 है। इनमें से 780 प्रकाशन हिंदी और संस्कृत में हैं। शेष प्रकाशन गुजराती, मराठी, तेलुगू, बांग्ला, उड़िया, तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में हैं। रामचरित मानस का प्रकाशन नेपाली भाषा में भी किया जाता है।

तमाम प्रकाशनों के बावजूद गीता प्रेस की मासिक पत्रिका कल्याण की लोकप्रियता कुछ अलग ही है। माना जाता है कि रामायण के अखंड पाठ की शुरुआत कल्याण के विशेषांक में इसके बारे में छपने के बाद ही हुई थी। कल्याण की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि शुरुआती अंक में इसकी 1,600 प्रतियां छापी गई थीं, जो आज बढ़कर 2.30 लाख पर पहुंच गई हैं। गरुड़, कूर्म, वामन और विष्णु आदि पुराणों का पहली बार हिंदी अनुवाद कल्याण में ही प्रकाशित हुआ था।

गीता प्रेस की कुछ विशेषताएं

गीताप्रेस की कुछ विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

गीता प्रेस सरकार या किसी भी अन्य व्यक्ति या संस्था से किसी तरह का कोई अनुदान नहीं लेता है।
गीता प्रेस में प्रतिदिन 50 हजार से अधिक पुस्तकें छपती हैं।

92 वर्ष के इतिहास में मार्च, 2014 तक गीता प्रेस से 58 करोड़, 25 लाख पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें गीता 11 करोड़, 42 लाख। रामायण 9 करोड़, 22 लाख। पुराण, उपनिषद् आदि 2 करोड़, 27 लाख। बालकों और महिलाओं से सम्बंधित पुस्तकें 10 करोड़, 55 लाख। भक्त चरित्र और भजन सम्बंधी 12 करोड़, 44 लाख और अन्य 12 करोड़, 35 लाख।

मूल गीता तथा उसकी टीकाओं की 100 से अधिक पुस्तकों की 11 करोड़, 50 लाख से भी अधिक प्रतियां प्रकाशित हुई हैं। इनमें से कई पुस्तकों के 80-80 संस्करण छपेे हैं।

यहां कुल 15 भाषाओं (हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, गुजराती, मराठी, बंगला, उडि़या, असमिया, गुरुमुखी, नेपाली और उर्दू) में पुस्तकें प्रकाशित होेती हैं।

यहां की पुस्तकें लागत से 40 से 90 प्रतिशत कम दाम पर बेची जाती हैं।

पूरे देश में 42 रेलवे स्टेशनों पर स्टॉल और 20 शाखाएं हैं।

गीता प्रेस अपनी पुस्तकों में किसी भी जीवित व्यक्ति का चित्र नहीं छापती है और न ही कोई विज्ञापन प्रकाशित होता है।

गीता प्रेस से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'कल्याण' की इस समय 2 लाख, 15 हजार प्रतियां छपती हैं। वर्ष का पहला अंक किसी विषय का विशेषांक होता है।

गीता प्रेस का संचालन कोलकाता स्थित 'गोबिन्द भवन' करता है।

सम्बन्धित संस्थाएं

गीताप्रेस, गोविन्द भवन कार्यालय, कोलकाता का भाग है।

अन्य सम्बन्धित संस्थान हैं :

गीता भवन, हृषिकेश
ऋषिकुल्-ब्रह्मचर्य आश्रम् (वैदिक विद्यालय), चुरू, राजस्थान
आयुर्वेद संस्थान, हृषिकेश
गीताप्रेस सेवा दल (प्राकृतिक आपदाओं के समय सहायता करने के लिये)
हस्त-निर्मित वस्त्र विभाग

साभार: विकिपीडिया 

Tuesday, November 17, 2015

Ashok Singhal - हिन्दू ह्रदय सम्राट अशोक सिंघल

Ashok Singhal



Ashok Singhal (15 September 1926 - 17 November 2015) was an international working president of the Hindu organisation Vishwa Hindu Parishad (VHP) for over 20 years until, following a long bout of diminishing physical health, he was replaced in December 2011. Succeeded by Praveen Togadia, Singhal suffered ill-health but was working till a month before his death.

Singhal was born in Agra. His father was a government official. Singhal has a Bachelor's degree in Metallurgical Engineering from the Benaras Hindu University Institute of Technology in 1950.Having been in Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS) since 1942, he became a full-time pracharak after graduation. He worked in various locations around Uttar Pradesh, becoming a prant pracharak for Delhi and Haryana. In 1980, he was deputed to the VHP, becoming its joint general secretary. In 1984, he became its general secretary and, later, the working president, a role in which he continued till 2011.

Singhal was a trained vocalist in Hindustani music. He studied under Pandit Omkarnath Thakur.

Singhal died on 17 November 2015 at Medanta Medicity hospital in Gurgaon, aged 89.

Vishva Hindu Parishad

After the Meenakshipuram conversions in 1981, Singhal moved to the VHP as the joint general secretary. After noting the main greivance of the Dalit communities in the area as being access to temples, VHP built 200 temples specifically for Dalits. He says that the conversions stopped afterwards.

Singhal was a key organiser of the first VHP Dharma Sansad in 1984 held at Vigyan Bhavan in New Delhi, attracting hundreds of sadhus and Hindu notables to discuss the issues of rejuvenating Hinduism. The movement for reclaiming the Ramjanmabhoomi temple was born here. Singhal soon became the chief architect of tamilnadu the Ramjanmabhoomi movement.

अशोक सिंघल: आरएसएस प्रचारक होने के नाते वह आजीवन अविवाहित रहे।tamil जन्मभूमि और राम सेतु आंदोलनों के लिए लोगों को एकजुट करने में प्रमुख भूमिका निभाई। उनके नेतृत्व में विहिप ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चाएं बटोरीं और इस संगठन से समर्थकों को जोड़ा और विदेश में कार्यालय स्थापित किये। विहिप को अपने अभियान के लिए भारत के बाहर से बहुत योगदान मिला।

सिंघल का ‘कार सेवक’ अभियान में भी योगदान महत्वपूर्ण था। इसी अभियान के चलते छह दिसंबर 1992 को अयोध्या में 16वीं सदी की बाबरी मस्जिद ढहाई गई। आगरा में दो अक्तूबर 1926 को जन्मे सिंघल ने वर्ष 1950 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के ‘इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी’ से मेटलर्जिकल इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री प्राप्त की थी। वह वर्ष 1942 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गये थे लेकिन स्नातक की पढाई पूरी करने के बाद वह पूर्णकालिक प्रचारक बने। उन्होंने उत्तर प्रदेश में कई स्थानों पर काम किया और दिल्ली तथा हरियाणा के प्रांत प्रचारक बने।

वर्ष 1980 में उन्‍हें विहिप में जिम्मेदारी देते हुए इसका संयुक्त महासचिव बनाया गया। वर्ष 1984 में वह इसके महासचिव बने और बाद में इसके कार्यकारी अध्यक्ष का पद सौंपा गया। इस पद पर वह दिसंबर 2011 तक रहे। वह जीवनभर आरएसएस की विचारधारा से प्रेरित रहे और संघ परिवार के प्रमुख सदस्य रहे। विहिप नेता सिंघल को अपना ‘मार्गदर्शक’ मानते थे क्योंकि उन्होंने अपने जीवनकाल में कई आंदोलनों का नेतृत्व किया। सिंघल ने आपातकाल के खिलाफ उत्तर प्रदेश में आंदोलन तथा गायों की रक्षा के लिए ‘गौ रक्षा आंदोलन’ शुरू करने में अहम योगदान दिया। सिंघल विहिप में सक्रिय रहे और अंत तक इसके संरक्षक रहे। अस्पताल में भर्ती होने से कुछ दिन पहले सिंघल ने विहिप के कार्यकलाप देखने के लिए विभिन्न देशों का 30 दिवसीय दौरा किया था।

वर्ष 1980 में विहिप के लिए काम करना शुरू करने वाले सिंघल तमिलनाडु में 1981 में मीनाक्षीपुरम धर्मांतरण के बाद उस समय सक्रिय हुए जब विहिप ने खास तौर पर दलितों के लिए 200 मंदिर बनवाए और दावा किया कि इसके बाद धर्मांतरण रुक गया। सिंघल ने दिल्ली में वर्ष 1984 में विहिप की पहली ‘धर्मसंसद’ के प्रमुख आयोजन की जिम्मेदारी संभाली जिसमें हिन्दू धर्म मजबूत करने पर चर्चा में सैकड़ों साधुओं और हिन्दू संतों ने भाग लिया। यहीं पर अयोध्या में रामजन्मभूमि मंदिर पर दावा फिर से हासिल करने के आंदोलन का जन्म हुआ और जल्द ही सिंघल रामजन्मभूमि आंदोलन के मुख्य सदस्य के रूप में उभरे। आरएसएस प्रचारक होने के नाते वह आजीवन अविवाहित रहे।

Tuesday, November 3, 2015

गुप्तवंश (मागध अथवा मालव वंश) माधवगुप्त या उत्तरकालीन गुप्त

सम्राट आदित्यसेन के अपसड़ (जिला गया) एवं सम्राट जीवित गुप्त के देववरणार्क (जिला शाहाबाद) के लेखों से एक अन्य वैश्य गुप्त राजवंश का पता लगता है जो गुप्तवंश के पतन के पश्चात्‌ मालवा और मगध में शासक बना। इस वंश के संस्थापक कृष्णगुप्त थे। इनके क्रम में श्रीहर्षगुप्त, जीवितगुप्त, कुमारगुप्त, दामोदरगुप्त, महासेनगुप्त, माधवगुप्त, आदित्यसेन, विष्णुगुप्त एवं जीवितगुप्त (द्वितीय) इस वंश के शासक हुए।

इस वंश का पूर्वकालिक गुप्तों से क्या संबंध था यह निश्चित नहीं है। पूर्वकालिक गुप्तों से पृथक्‌ करने की दृष्टि से इन्हें माधवगुप्त या उत्तरकालीन गुप्त कहते हैं। इस नए गुप्तवंश का उत्पत्तिस्थल भी विवादग्रस्त है। हर्षचरित्‌ में कुमारगुप्त और माधवगुप्त को ‘मालव राजपुत्र’ कहा है। महासेन गुप्त अनुमानत: मालवा के शासक थे भी। आदित्यसेन के पूर्ववर्ती किसी राजा का कोई लेख मगध प्रदेश से नहीं मिला। उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कुछ विद्वानों ने कृष्णगुप्त के वंश का उत्पत्तिस्थल मालवा निश्चित किया। इसी आधार पर इन्हें मालवगुप्त कहते थे। किंतु अधिकांश विद्वान इन्हें मगध का ही मूल निवासी मानते हैं।

इस वंश के आरंभिक नरेश संभवत: गुप्त सम्राटों के अधीनस्थ सामंत थे। अपसड़ अभिलेख में कृष्णगुप्त को नृप कहा है एवं समानार्थक संज्ञाएँ इस वंश के परवर्ती शासकों के लिये भी प्रयुक्त हुई हैं। अपने वंश की स्वतंत्र सत्ता सर्वप्रथम इस वंश के किस शासक ने स्थापित की, यह अज्ञात है। कृष्णगुप्त के लिये अपसड़ लेख में केवल इतना ही कहा गया है कि वे कुलीन थे। उनकी भुजाओं ने शत्रुओं के हाथियों का शिरोच्छेद सिंह की तरह किया तथा अपने असंख्य शत्रुओं पर विजयी हुए। कृष्णगुप्त के समय में ही संभवत: कन्नौज में हरिवर्मन्‌ ने मौखरिवंश की स्थापना की। कृषणगुप्त ने संभवत: अपनी पुत्री हर्षगुप्ता का विवाह हरिवर्म के पुत्र आदित्यवर्मन्‌ से किया। कृष्णगुप्त के पुत्र एवं उत्तराधिकारी श्रीहर्षगुप्त (लगभग 505-525 ई.) ने अनेक भयानक युद्धों में अपना शौर्य दिखाया और विजय प्राप्त की। इनके उत्तराधिकारी जीवितगुप्त (प्रथम) (ल. 525-545 ई.) को अपसड़ लेख में ‘क्षितीश-चूड़ामणि’ कहा गया है। उनके अतिमानवीय कार्यों को लोग विस्मय की दृष्टि से देखते थे। मागधगुप्तों के उत्तरकालीन सम्राटों के विषय में इस प्रकार की कोई बात ज्ञात नहीं होती। संभवत: राजनीतिक दृष्टि से आरंभिक माधवगुप्त अधिक महत्वपूर्ण भी नहीं थे, इसी से लेखों में उनकी पारंपरिक प्रशंसा ही की गई है।

कुमारगुप्त (लगभग 540-560 ई.) के विषय में पर्याप्त एवं निश्चित जानकारी प्राप्त होती है। कदाचित उनके समय में मागधगुप्तों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता की घोषण की होगी। कुमारगुप्त ने मौखरि नरेश ईशानवर्मन को पराजित किया। उनकी सफलता स्थायी थी। प्रयाग तक का प्रदेश उनके अधिकार में था। उन्होंने प्रयाग में प्राणोत्सर्ग किया। उनके पुत्र दामोदरगुप्त ने पुन: मौखरियों को युद्ध में पराजित किया, किंतु वे स्वयं युद्धक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुए। इसी काल में मागध पुत्री ने मालवा पर भी अपना अधिकार स्थापित किया। दामोदरगुप्त के उपरांत उनके पुत्र महासेनगुप्त (लं. 563 ई.) शासक हुए। मौखरियों के विरूद्ध, अपनी शक्ति दृढ़ करने के उद्देश्य से उन्होंने थानेश्वर के नरेश राज्यवर्धन के पुत्र आदित्यवर्धन से अपनी बहन महासेनगुप्ता का विवाह किया। हर्षचरित में उल्लिखित कुमारगुप्त एवं माधवगुप्त के पिता मालवराज संभवत: महासेनगुप्त ही थे। अपसड़ लेख के अनुसार इन्होंने लौहित्य (ब्रह्मपुत्र नदी) तक के प्रदेश पर आक्रमण किया और असंभव नहीं कि उन्होंने मालवा से लेकर बंगाल तक के संपूर्ण प्रदेश पर कम से कम कुछ काल तक शासन किया हो। महासेनगुप्त ने मागध गुप्तों की स्थिति को दृढ़ किया, किंतु शीघ्र ही कलचुरिनरेश शंकरगण ने उज्जयिनी पर 595 ई. या इसके कुछ पहले अधिकार कर लिया। उधर वलभी के मैत्रक नरेश शीलादित्य (प्रथम) ने भी पश्चिमी मालव प्रदेश पर अधिकार स्थापित कर दिया। इसी बीच किसी समय संभवत: महासेनगुप्त के सामंत शासक शशांक ने अपने को उत्तर एवं पश्चिम बंगाल में स्वतंत्र घोषित कर दिया। संभवत: मगध भी महासेन गुप्त के अधिकार में इसी समय निकल गया। महासेनगुप्त का अपना अंत ऐसी स्थिति में क्योंकर हुआ, ज्ञात नहीं होता। पर उनके दोनों पुत्रों कुमारगुप्त और माधवगुप्त ने थानेश्वर में सम्राट प्रभाकरवर्धन के दरबार में शरण ली।

इस अराजक स्थिति में किन्हीं देवगुप्त ने स्वयं को मालवा या उसके किसी प्रदेश का शासक घोषित कर दिया। इस देवगुप्त का कोई संबंध मागध गुप्तों के साथ था या नहीं, नहीं कहा जा सकता। हर्षवर्धन के अभिलेखों के अनुसार राज्यवर्धन ने देवगुप्त की बढ़ती हुई शक्ति को निरूद्ध किया था। हर्षचरित के अनुसार देवगुप्त ने गौड़ाधिप शशांक की सहायता से मौखरि राजा को पराजित कर उन्हें मार डाला तथा राज्यश्री को बंदी बना लिया। राज्यवर्धन ने देवगुप्त को पराजित किया। किंतु देवगुप्त आदि ने षड्यंत्र द्वारा उन्हें मार डाला। किंतु इसके बाद देवगुप्त भी पराजित हो गए और क्रमश: हर्षवर्धन ने प्राय: संपूर्ण उत्तर भारत में अपनी सत्ता स्थापित कर ली।

अपसद के लेख से प्रतीत होता है की सामीप्य एवं मैत्री में व्यतीत किया। हर्ष ने भी संभवत: माधवगुप्त को पूर्वसंबंधी एवं मित्र होने के नाते मगध का प्रांतपति नियुक्त किया होगा। माधवगुप्त ने हर्ष की मृत्यु के बाद ही अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की होगी। अपसड़ लेख में माधवगुप्त को वीर, यशस्वी और अनेक शत्रुओं को पराजित करनेवाला कहा गया है। इनके राज्य का आरंभ हर्ष की मृत्यु के शीघ्र बाद एवं उसका अंत भी संभवत: शीघ्र ही हो गया होगा। माधवगुप्त के पश्चात्‌ उनके पुत्र आदित्यसेन मगध के शासक हुए। इनके समय के अनेक लेख प्राप्त हुए हैं। उनकी सार्वभौम स्थिति की परिचायिका उनकी ‘महाराजाधिराज’ उपाधि है। देवघर से प्राप्त एक लेख में आदित्यसेन की चोल प्रदेश की विजय एवं उनके द्वारा किए गए विभिन्न यज्ञों आदि का उल्लेख है। उन्होंने तीन अश्वमेध भी किए। उनके काल के कुछ अन्य जनकल्याण संबंधी निर्माण कार्यों का ज्ञान लेखों से होता है। आदित्यसेन ने अपनी पुत्री का विवाह मौखरि नरेश भोगवर्मन से किया और उनकी पौत्री, भोगवर्मन की पुत्री, वत्सदेवी का विवाह नेपाल के राजा शिवदेव के साथ हुआ। नेपाल के कुछ लेखों में आदित्यसेन का उल्लेख ‘मगधाधिपस्य महत: श्री आदित्यसेनरय’ करके हुआ है। इससे लगता है कि पूर्वी भारत में मागधगुप्तों का बड़ा संमान एवं दबदबा था। आदित्यसेन के राज्य का अंत 672 ई. के बाद शीघ्र ही कभी हुआ।

आदित्यसेन के उपरांत उनके पुत्र देवगुप्त (द्वितीय) मगध की गद्दी पर बैठे। 680 ई. के लगभग वातापी के चालुक्य राजा विनयादित्य ने संभत: देवगुप्त को पराजित किया। इन्होंने ‘महाराजाधिराज’ उपाधि धारण की। देववरणार्क लेख से स्पष्ट है कि देवगुप्त के पश्चात उनके पुत्र विष्णुगुप्त मगध के शासक हुए। महाराजाधिराज उपाधि इनके लिये भी प्रयुक्त है। इन्होंने कम से कम 17 वर्ष तक अवश्य राज्य किया क्योंकि इनके राज्य के 17वें वर्ष का उल्लेख इनके एक लेख में हुआ है। इस वंश के अंतिम नरेश जीवितगुप्त (द्वितीय) थे। गोमती नदी के किनारे इनके विजयस्कंधावार की स्थिति का उल्लेख मिलता है। इससे अनुमान होता है कि इन्होंने गोमती के तीरस्थ किसी प्रदेश पर मौखरियों के विरुद्ध आक्रमण किया था।

जीवितगुप्त के पश्चात्‌ इस वंश के किसी शासक का पता नहीं चलता। मागध गुप्तों का अंत भी अज्ञात है। गउडवहो से ज्ञात होता है कि 8वीं सदी के मध्य कन्नौज के शासक यशोवर्मन ने गौड़ के शासक को पराजित कर मार डाला। पराजित गौड़ाधिप को मगध का शासक भी कहा है इसलिये अनुमान है कि यशोवर्मन द्वारा पराजित राजा संभवत: जीवितगुप्त (द्वितीय) ही थे। असंभव नहीं कि गौड़ नरेश ने जीवितगुप्त को पराजितकर मगध उनसे छीन लिया हो और स्वयं गौड़ और मगध की स्थिति में यशोवर्मन के विरुद्ध युद्ध में मारा गया हो।


Saturday, October 31, 2015

RANI SATI - अमर वीरांगना: श्री राणीसती जी की जीवन गाथा

या देवी सर्व भूतेशु सति रुपेणी संस्थिता ।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नारायणी नमोसतुते ॥

माँ रानी सती 

माता रानी सती जी  का मंदिर


माँ नारायणी का जन्म वैश्य जाती के अग्रवाल वंश में हरियाणे में धनकुबेर सेठ श्री घुरसमाल जी गोयल के सं १३३८ वि कार्तिक शुक्ला ८ शुभ मंगलवार रात के १२ बजे पश्चात हरियाणे की प्राचीन राजधानी ‘महम’ नगर के ‘ढ़ोकवा’ उपनगर में हुआ था।
संवत् तेरह सौ अडतीस कार्तिक शुक्ला मंगलवार ।

बारह बजकर दस मिनट, आधे रात लिया अवतार ।

(सती मंगल से)

सेठ घुरसमाल महाराजा अग्रसेन जी के सुपुत्र श्री गोंदालाल के वंशज थे। गोयल गोत्र के थे। सेठ जी ‘महम’ के तो नगर सेठ थे हे लेकिन उस समय उनकी मानता व सम्मान दिल्ली के बादशाहों तक थी। उन दिनों एक तरह से दिल्ली का शासन मह्म्वालों के इशारों पर चलता था| दिल्ली हिसार (ग्रांड ट्रंक) सड़क पर सैंकड़ो महल, मन्दिर, मकबरे, मस्जिदों, भवनों के खंडहर दोनों तरफ आज भी है, जिससे सिद्ध होता है की उस ज़माने में महम समृध्दशाली व विशाल नगर रहा होगा।

बचपन

दुर्गे हे ये शिवे अम्बिके, ये हे आदि भवानी है।
जन जन को दे रही सभी कुछ, जग में सती नारायणी हैं।

इनका नाम ‘नारायणी’ बाई रखा गया था। ये बचपन में धार्मिक व सतियों वाले खेल सखियों के साथ खेला करती थी। कथा आदि में विशेष रूचि लेती थी। बड़ी होने पर सेठजी ने इन्हे धार्मिक शिक्षा , शस्त्र शिक्षा, घुड़सवारी आदि की भी शिक्षा दिलाई थी। इन्होंने इनमें प्रवीणता प्राप्त कर ली थी। उस समय हरियाणा में ही नहीं उत्तर भारत में भी इनके मुकाबले कोई निशानेबाज बालिका एवं पुरुष भी नहीं था|

बचपन का शील स्वभाव निरख, पित – मात स्वजन हर्षाते थे।
कुल का ये मान बढायेगी, मंतव्य सभी दर्शाते थे ॥
भरपूर भक्ति और धर्म सहित, नितकर्म ‘नारायणी’ करती थी।
निज दिव्य ओज से भावी का, आभास कराया करती थी।

(प्राचीन पोथी अग्नि समाधि से)

बचपन में ही ये अपने चमत्कार दिखलाने लगी थी। एक डाकिन (पुराने ज़माने में बच्चे खाने वाली एक औरात) महम नगर में आया करती थी। इनकी सुन्दरता की ख्याति सुनकर डाकिन एक दिन आई। इन पर हमला करने की तो हिम्मत नही पड़ी, लेकिन डाकिन इनकी सहेली को उठाकर लेके जाने लगी| उन्हें आता देख डाकिन बेहोश होकर अंधी हो गई।

डाकिन अंधी हो चली, खड़ी नगर के बाहर।
दीखे उसको कुछ नही, करने लगी विचार।

(सती मंगल से)

डाकिन के पास पहुंचकर नारायणी जी ने तुंरत सहेली को छुड़ाया और उसे जीवित किया। डाकिन इनका ये चमत्कार देखकर डर गई। उसने हाथ जोड़कर क्षमा मांगी और प्रतिज्ञा की कि आगे से मैं बच्चे नही खाया करूंगी। इन्होंने उसे क्षमा किया और उसकी आँखे भी ठीक कर दी। इस तरह दादी ने अपने बहुत सारे चमत्कार बचपन में दिखाए।

विवाह

इनका जन्म अग्रवाल कुल शिरोमणि हिसार राज्य के मुख्य दिवान स्वनाम धन्य सेठ श्री जालानदास जी बंसल के सुपुत्र श्री तनधनदास जी के साथ मंगसिर शुक्ला ८ सं. १३५१ मंगलवार को महम नगर में बहुत ही धूमधाम से समारोह पूर्वक हुआ था। इनके पिता श्री ने जो दहेज़ दिया था उसमे हाथी, घोडे, ऊंट, घोड़े और सैकड़ोँ छवड़े सामान से भरे हुए दिये थे। सबसे विशेष वस्तु एक ‘श्यामकर्ण’ घोड़ी थी। उस काल में उत्तर भारत में यही केवल एक ‘श्यामकर्ण’ घोड़ी थी।

श्री तनधन दास जी का जीवन परिचय

इनका जन्म वैश्य जाती में महाराज अग्रसैन जी के सुपुत्र विशाल्देव जी (वीरभान जी) के वंश में हुआ था। इनके वंशज ‘बंसल’ गोत्री कहाये । उसी बंसल गोत्र में सेठजी श्री जालानदास जी के श्री तनधनदास जी ने जन्म लिया था। इनके एक छोटे भाई का नाम कमलराम था।

उस समय हिसार का नवाबी राज्य आजकल के हरियाणा प्रदेश से बड़ा था। उसी नवाबी राज्य हिसार केश्री जालानदासजी मुख्य दिवान थे । इनकी न्यायप्रियता की धाक दूर-दूर तक राज्यों में थी। ये चतुर व कर्मठ शासक थे।विवाह के पश्चात श्री तनधनदास जी सायकाल अपनी ससुराल वाली घोड़ी पर सैर करने हिसार में जाया करते थे। नवाब के पुत्र शेह्जादे को दोस्तों ने भड़काया कि जैसी घोड़ी दिवान के लड़की के पास है ऐसी तेरे राज्य में नही है। शहजादा तो घोड़ी देखकर पहले से हे जला भुना बैठा था। दोस्तों कि बातो ने आग में घी का काम किया। शहजादा तुंरत नवाब साहब के पास गया और घोड़ी लेने की हठ की। नवाब ने दिवान साहब को बुलाकर घोड़ी मांगी। दिवानजी ने कहा – मालिक ये घोड़ी मेरी नही है। लड़के को ससुराल से मिली है। वह घोड़ी नहीं देंगे। आप क्षमा करें। समय व संस्कार की बात है। नवाब ने घोड़ी छीनने का प्रयत्न किया। संघर्ष में बहुत से सैनिक सेनापति सहित मारे गये।

भाग दौड़ पल्टन गई|
कहा नवाब सन जाय।
सेनापति रण खेत में, दिये प्राण गवांय।

(सती मंगल से)

यह देखकर नवाब ज्यादा निराश हो गया और दोस्तों की बातों में आकर दिवानजी की हवेली से घोड़ी लाने आधी रात को गया। नया आदमी देखकर घोड़ी हिनहिनाने लगी। शाम हो गई। श्री तनधन जी सांग (भाला) लेकर उस ओर चले।

तब लक्ष साध कर शब्द-भेद । तन धन ने उठा फेंकी॥
इक चीख उठी, हो गया ढेर। इक मनुज देह गीरती देखि ॥

(अग्नि समाधी से)


सांग के एक वार में हे नवाबजादा मारा गया। दिवानजी ने मिलकर विचार किया और तुरन्त हिसार छोड़कर झुंझनू – नवाब के पास जाने का निर्णय किया क्यूंकि हिसार और झुंझनू के नवाबो की आपस में लड़ाई व शत्रुता थी। रातों रात हिसार से परिवार सहित दिवानजी चल पड़े।

उधर सुबह होने पर नवाब ने शहजादे को महलों में नहीं देखा। चरों ओर तलाश की गई। अंत में दिवानजी की हवेली से शहजादे की लाश लायी गई। नवाब के महल में कोहराम मच गया। नवाब ने सेना को तुरन्त दिवान को पकड़ लाने का आदेश दिया। सेना चारों और चल पड़ी, उत्तर की और जाने वाली सेना ने लुहारू के पास दिवानजी को जातें हुए देखा। लेकिन तब तक दिवान सपरिवार झुंझनू राज्य की सीमा में प्रवेश कर चुके थे। हिसारी सेना की ताकत झुंझनू सेना से टक्कर लेने की नहीं थी, सेना निराश होकर हिसार लौट आई। नवाब सब सुनकर सिर पीटकर रह गया।

श्री जालान्दास जी के सपरिवार जी के झुंझनू पहुँचने पर नवाब साहब ने शाही मुरतब व लवाजमें के साथ स्वंय नगर सीमा पर स्वागत सम्मान किया और दिवान (मुख्यमंत्री) का पद दिया। उन्होंने हिसार से भी उच्चकोटि का कार्यकर जनता व नवाब के विश्वास पात्र बनकर शानदार ढंग से रहने लगे। राज्यभर में दिवानसाहब की न्यायप्रियता व शासन की धूम मच गई।

मुकलावा (गौना)

‘महम’ नगर चूँकि हिसार राज्य में था। इसलिए शहजादे काण्ड की शान्ति के बाद सेठ घुर्सामल जी के मुकलावा करने के लिए झुंझनू दिवान साहब के पास ब्राह्मण द्बारा निमंत्रण भेजा। साथ ही सारे समाचार और मंगसिर क्रष्ण १ मंगलवार का लग्न मुहूर्त भेज दिया। झुंझनू से लौटकर ब्राह्मण ने मुहूर्त पर कुंवर तनधनदास जी के आने का सुसमाचार नगर सेठ को बताया।

लग्न-मुहूर्त से ४ दिन पहले श्री तनधनदास जी मित्रों व साथियों सहित ढोकवा (महम) सांयकाल पहुंच गये। नगर सेठ की और से स्वागत सत्कार का शानदार व सराहनीय प्रबंध किया गया। सेठ जी श्री तनधनदास जी से प्रार्थना की कि आप महम में ही निवास कीजिये।

जो इच्छा हो व्यापार या कार्य कीजिये। लेकिन गर्वीले श्री तनधन जी ने ससुराल में रहना स्वीकार नहीं किया। मंगसिर कृष्णा १ सं. १३५२ मंगलवार को प्रात: शुभ बेला में नगर सेठ श्री घुरसामल जी ने मुकलावा देकर बाई नारायणी जी को कुंवर श्री तनधनदास जी के साथ झुंझनू के लिए विदा किया। साथ में बहुत धन तथा सामान आदि भी दिया।

श्री तनधन जी के रवाना होते समय अपशकुन होने लगे, सामने छिंक हुई। यह देखकर सबको बहुत ही फिकर व विचार हुआ। पर वीर तनधन जी ने श्री गणेश मनाकर अपनी पत्नी नारायणी देवी के साथ झुंझनू प्रस्थान किया।

मार्ग में दोपहर भोजनादि के बाद आगे चले। नवाब हिसार के राज्य कि सीमा को एक और बचाते हुए दोपहर बाद भिवानी नगर से ४-५ मील दूर ‘देवसर’ की पड़ी के पास पहुंचे ही थे कि पहाड़ी क्षेत्र के खडड खेलों से निकल निकलकर हिसार नवाब की फौजों ने इन पर भयंकर हमला कर दिया।

मार्ग झुंझनू निकट ‘देवसर’ । सेना हिसारी ने घेरा ॥
था सोर झाडियों खड्डों से । मारो पकडो करके घेरा ॥

(अग्नि समाधी से)

श्री तनधन जी के दल ने संख्या में उनसे कम होतें हुये भी वीरता से डटकर हिसारी फौजों से युद्ध किया। हिसारी फौजें श्री तनधन जी के दल की मार न सह सकने के कारण अस्त-व्यस्त होकर भाग चली।

तनधन ने जीवन की बाजी । खांडे से खुल खुल कर खेली ॥
तौबा तौबा अल्ला करते । दम तोड़ा जिसने भी झेली ॥

(अग्नि समाधी से)

नवाबी फौजों के भाग जाने पर सिपहसालार ने छुप कर पीछे से आकर धोखे से दुधारे से श्री तंधन जी पर वार किया ।

कलियुग के इस अभिमन्यु को । घेरा धोखे से वार किया ॥
गडजोड़ा बांधे ‘तंधन’ को । मार दुधारा ख़तम किया ॥

(अग्नि समाधी से)

लेकिन मरते मरते भी वीर तंधन ने सिपहसालार का सिर अपनी सिरोही (तलवार) से एक ही वार में काट दिया।

सती-स्थल

देवसर (भिवानी)

लड़ाई के समय हल्ला बहुत हुआ था। नवाबी फौजे तितर-बितर होने लगी थी। इससे पहाड़ी के नीचे क्षेत्र में वातावरण शान्त सा हो गया। पर्देदार रथ में बैंठी नवेली बहु नारायणी जी ने ये देखने के लिए जरा पर्दा हटाया कि क्या बात हुई। पर्दा हटाते ही जो कुछ देखा, वह सब देखकर सन्न रह गई। रथ के सामने उनके प्राणप्रिय तनधन जी का शव पड़ा हुआ था।

थोड़े समय बाद हे वीर तनधन जी की मृत्यु समाचार जानकर नवाबी फौजें वापस उसी और घेरा डालने आगे लगी। वीरांगना नारायणी जी ने सब देखा और तुंरत निर्णय कर क्रोध में भरकर अपने पति की तलवार हाथ में लेकर उनकी घोडी पर सवार हो गई और रणचणडी सी फौजों पर टूट पड़ी।

ले खडग, नयन अंगार भरे।
ललकारा कुछ को मार दिया॥
इस आधी हारी बाजी को।
माँ जितुंगी ये ठान लिया॥

(अग्नि समाधी से)

श्री नारायणी जी ने कुछ ही समय में अधिकांश नवाबी फौज को मार डाला।

या शेष बचा राणा सेवक । और घोडी उनके पास खड़ी ॥
चिता बनाओं जल्दी से । सती होने तैयार खड़ी ॥

श्री नारायणी जी ने कहा की कोई है । ये सुनते ही घोडी का राणा (सेवक) घायल अवस्था में गिरता पड़ता आया। पुछा क्या आज्ञा है। नारायणी ने कहा – मैं इसी पहाड़ी के नीचे सती होउंगी। जल्दी चिता बनाओं, संध्या होने वाली है।

राणाजी ने झुंझनू ले चलो – सेवक ने कहा। नारायणी ने कहा – मेरा झुंझनू तो सामने है, वहा जाकर क्या करुँगी। जल्दी चिता बना दो, सूर्य छिपने वाला है। ये सुनकर राणा ने आस पास से तुंरत लकड़िया चुनकर इकट्ठी कर चिता बनाई। सती की आज्ञा से राणा ने, तब वहाँ चिता बना दी थी ।

पति का शव गोदी में लेकर, बैठी वह सतवाली थी ॥
स्वय उठी अन्दर से ज्वाला, पति के लोक सिधारी थी ।
धूं धूं करके जली चिता, हो गई सती नारायणी थी ॥

(जीवन गाथा से)

श्री नारायणी जी पति का शव लेकर चिता पर बैठ गई। उसी क्षण सती तेज से अग्नि प्रगट हुई । चिता धायं धायं जलने लगी।

‘महम-झुंझनू’ बीच रहा एक शिखर ‘देवसर’ का भारी ।
उसके नीचे पति संग में, सती हुई दादी म्हारी ॥
‘हरियाणे’ की अमर लाड़ली ही तो ‘श्री रानी सती’ है ।
उलट पुलट कर गाथा,
गाँव गाँव में गूंजे है॥

चिता धायं धायं कर जलने लगी। इसी बीच मारकाट भागदौड़ देखकर आपास के गावों के नर नारियों के झुंड इकट्ठे हो गए। चिता पर नारियल, चावल, घी आदि सामान चड़ने लगे। जय जयकार होने लगी।

गावं गावं से जन-जन आया, पुष्पों की बौछार रहा।
मंगसिर क्रष्ण भोग नौमी को, सटी हुई ‘नारायणी’ थी ॥

थोड़े समय बाद आप चिता में से देवी रूप में प्रगत हुई और मधुर वाणी से बोली – हे राणाजी, मेरी चिता ३ दिन में ठंडी हो जाएगी। भास्मी इकट्ठी करके मेरी चुनरी में बाँध हमारी घोड़ी पर रख देना। तुम भी बैठ जाना। घोड़ी ख़ुद ही जहाँ ठहर जाए उसी स्थान पर मै अपने प्यारे पति के साथ निवास करती हुई जन-जन का भला व कल्याण करती रहूंगी|

ले त्रिशूल राणा ,जन-जन के समुख प्रगट हुई देवी ।
भस्मी को घोड़ी पर रख दो, राणा से बोली देवी ॥

(जीवन गाथा से)

तीन दिन बाद चिता ठंडी होने पर राणा ने सती नारायणी के आदेशानुसार भस्मी इकट्ठी करके उनकी चुनड़ी में बाँध कर घोड़ी पर रख दी और ख़ुद भी बैठ गये। घोड़ी उत्तर दिशा की और झुंझनू के माढ पर चल पड़ी। घोड़ी चलती चलती झुंझनू के बीड़ (गोचर भूमि) को पार करके झुंझनू नगर के उत्तर दिशा में आकर रुक गई। राणा ने अनेक प्रयत्न किये। पर घोड़ी वहीं डट गई।

सती भस्मी

झुंझनू आगमन

राणा ने घोड़ी को वहीं एक जाटी वृक्ष से बांधकर दीवानजी श्रीजालानदास जी के घर जाकर मार्ग के सब समाचार सुनाये। सुनते ही सेठजी का परिवार रो पड़ा, घर में कोहराम मच गया। बहुत समझाने पर सब घोड़ी के पास श्मशान में आये वहां चोतरा बनाकर भस्मी को स्थापित कर पूजन किया गया।

पूजन किया भस्मी का सबने, पावन मरघट में आकर ।
फिर सम्मान किया देवी का, सुंदर सा ‘मंढ’ बनाकर ॥

(जीवन गाथा से)

कुछ लोगों में सती होने पर शंका हुई। उसी समय चेंतरे पर चढे हुए पूजा के सामान से आग की चिनागारिया निकलने लगी। चेंतरे ने चिता का रूप ले लिये । ये देखकर जन-जन जयकार करता हुआ श्मसान की और उमड़ पड़ा। चौतरें पर १३ दिन १३ रात अग्नि चिता सी जलती रही। अंत में बहुत प्रार्थना करने तथा क्षमा मांगने पर जलते हुये चौतरें पर से मधुर वाणी सुनाई दी की ‘चौतरें’ पर जल चढ़ाओँ।

सती चिता ठंडी करने को, जन-जन जल लाया था।
उसी समय से सती देहरी पर, जन-जन जल है चढ़ा रहा ॥

(आज भी समस्त मंदिरों की देहरी पर प्रथम जल चढ़ता है। पूजा सामग्री हो या न हो केवल जल चढ़ाने से हे श्री रानी सती जी प्रसन्न हो जाती है।)

ये सुनते ही जन समूह पात्रों में जल ले लेकर चढ़ाने लगा और चिता शांत हो जाने पर पूजा-दान शुरू हो गया।ये प्रत्यक्ष चमत्कार देखकर जनता जय जय करने लगी।

दूसरा चमत्कार

भस्मी का भूतल प्रवेश

जब पूजा जात-धोक सती की चालू थी। उसी समय जन-जन के सामने तभी हुआ विस्फोट यकायक।

विस्मय एक हुआ भारी ॥
धरती फटी, समाई भस्मी ।
घोड़ी और सम्पत साड़ी ॥

(अग्नि समाधी से)

अर्थात उस समय चौतरें पर यकायक विस्फोट (धमाका) हुआ। जन साधारण ने आश्चर्य से देखा कि चौतरें वाली भूमि फट गई और भस्मी, घोडी और जो-जो सामान को राणा साथ लाये थे, सब के सब उसी भूमि में समा गये। उसी समय तीसरा चमत्कार हुआ कि सब सामान के भूमि में समा जाने के बाद चौतरा फिर जैसा था, वैसा हो गया।

अनुमानत: आज जो विशाल मन्दिर (मंढ) बना हुआ है, ये उसी चौतरे पर चौथा मन्दिर है ।

स्वर्गारोहण

देवसर पड़ी के निचे मंगसिर क्रष्ण ९ सं. १३५२ मंगलवार को जब माँ नारायणी जी सती हो गई तो उसी समय दशों दिगपालों व् अन्य देवलोकों में जयकार होने लगी और कहने लगे कलियुग में सतियाँ आज भी है।

१३ सतियों के मंढ

श्री रानीसती जी माँ नारायणी सं. १३५२वि. में ‘देवसर‘ में सती हुई थी। इनके ही परिवार में सं १७६२वि. तक १२ सतियाँ और हुई। इन १२ सतियों के छोटे छोटे सुंदर कलात्मक मंढ शवेत संगमरमर के एक पंक्ति में बने हुए थे। जिनकी मान्यता व् पूजा बराबर होती आ रही है ।

श्री जालानदास जी के पुत्र कि पुत्रवधू सं. १३५२ में सती हुई। इसी कुल कि १२ सतियाँ झुंझनू में और हुई। (१) माँ नारायणी (२) जीवणी सती (३) पूर्णा सती (४) पिरागी सती (५) जमना सती (६) टीली सती (७) बानी सती (८) मैनावती सती (९) मनोहरी सती (१०) महादेई सती (११) उर्मिला सती (१२) गुजरी सती (१३) सीता सती


साभार : BY SAKSHI LIHLA
















Friday, October 30, 2015

HISTORY OF KAMLAPURI VAISHYA - कमलापुरी वैश्य का इतिहास

भारतीय वैश्यों का उपवर्ग "कम्लापुरी वैश्य " उस प्राचीन वर्ग की सन्तान हे जो कश्मीर स्थित कमलापुर स्थान के मूल निवाशी थे | कमलापुर कश्मीर में 8वीं शताब्दी काल में एक समृद्द नगर था , जिसका वर्णन 12वीं शताब्दी में चित्रित कश्मीर के महाकवि कल्हण के प्रख्यात संस्कृत इतिहास ग्रन्थ राज तरंगिनी में अंकित हे | कम्लापूरी के मूल निवासी होने के कारण यह वैश्य उपवर्ग कम्लापुरी के नाम से जाना जाता हे | 


इतिहासकारो का मत हे की कमलापुर का प्रद्रर्भाव एवं विकाश कारकोट वंशी कश्मीर राजाओं के काल में हुआ | वैश्यवंशीय राजा जयापिड़ की महारानी कमलादेवी ने इस विशाल नगर का निर्माण अपने नाम पर 8वीं शताब्दी के उत्त्तराद्र में ( सन 751 लगभग ) किया था | एतिहासिक अध्ययन से यह भी पता चलता हे की राजा जयापिड़ के पितामह महाराजा ललितादित्य मुक्तिपिड़ की पट्टमहिषी कमलावती ने 50-60 वर्ष कमलाहट्ट का निर्माण किया था | सम्भवतः उसी स्थान का विकास एवं सुधार करते हुए कमलावती ने कमलापुर की स्थापना की हो | 

उपर्युक्त काल में ही प्रख्यात चीनी यात्री ह्युएनसान्ग भारत भ्रमण को आया था , जिसने तत्कालीन सामाजिक स्थिति एवं समृधि का उल्लेख अपने लेखों में किया था | जिस समय शेष भारत में गुप्तवंशीय राजाओं के शासनकाल में उत्कर्ष का स्वर्णयुग था , जिसकी चरम वृद्धि महाराज हर्षवर्धन द्वारा संपन्न हुई , उसी समय कश्मीर में वैश्य वंशीय कारकोट राजवंश का स्वर्णयुग चल रहा था | 

कश्मीर से उत्तर पश्चिम काबुल नदी की उपत्यका को पूर्व में गीढ़ देश को तथा समस्त दक्षिणात्य प्रदेशों को इन राजाओं के प्रशासन ने निरापद एवं निद्रदंद बना दिया था | कश्मीरी वैश्य समुदाय श्रेनिबद्र हो कश्मीर से वाराणसी , पाटलिपुत्र , कन्नोज , गौड़ अंग अवन्नित आदि छेत्रों को व्यापार के लिए आते जाते थे | कमलापुर नगर के तत्कालित ख्याति के कारण वे अपने वैश्यत्व में कमलापुर का विशेषण कम्लापुरी जोड़कर अपने को उस स्थान विशेष के वणिक होने का परिचय देते रहे | 

वर्तमान समय में कमलापुर का नाम विकृत होकर कमाल्पोर हो गया हे , जो कश्मीर में सिपीयन - श्रीनगर मार्ग पर अवस्थित हे | इस तथ्य का प्रतिवेदन राज- तरंगिनी के प्राचीन भाष्यकार भट्टहरक ने भी किया हे |


साभार: http://kamlapuri.org/history.php

V.SHANTARAM - व़ी शांताराम एक महान कलाकार - वैश्य गौरव

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Wednesday, October 21, 2015

Anshu Gupta - अंशु गुप्ता - वैश्य गौरव


Anshu Gupta is an Indian social entrepreneur who founded Goonj, a Delhi-based non-governmental organisation  (NGO) that positions the under-utilised urban material as a development resource for the rural parts of India.

Born in Meerut, (Uttar Pradesh), Gupta spent his initial years in Chakrauta, Banbasa and Bariely, smaller towns of Uttar Pradesh as his father got postings in his job with Indian Army’s Military Engineering Services (MES). After finishing his college from Dehradun, Gupta came to Delhi to do a double PG diploma in Journalism and Advertising and Public Relations from the Indian Institute of Mass Communication. He has also done an MA in Economics.

After working in the corporate sector for some time, he started Goonj in 1999, with his wife Meenakshi Gupta and a few friends, to work on the basic need of clothing, an issue that does not have a place in the development agenda. Using cloth as a metaphor for other crucial but ignored needs like sanitary pads for menses or school material for education, for the last 16 years, under Gupta’s leadership Goonj has taken the growing urban waste and used it as a tool to trigger development work on diverse issues; roads, water, environment, education, health etc. in backward and remote pockets of India. Under Goonj’s flagship intiative ‘Cloth for Work’ village communities across India work on their own issues and get the urban material as a reward for their efforts. Cloth for work and all other initiatives of Goonj have received various, national and international, awards and accolades. 

He won the Ramon Magsaysay Award in 2015, for "his creative vision in transforming the culture of giving in India, his enterprising leadership in treating cloth as a sustainable development resource for the poor, and in reminding the world that true giving always respects and preserves human dignity."  Also, Gupta is an Ashoka fellow and was conferred with ‘Social Entrepreneur of the Year Award' by Schwab Foundation for Social Entrepreneurship in 2012, amongst many others.

साभार: विकिपीडिया 

SAMUDRA GUPTA - समुद्र गुप्त (वैश्य गौरव - गुप्त वंश का शेर)

भारत के महानतम चक्रवर्ती सम्राट "समुद्रगुप्त" की सम्पूर्ण जानकारी






गुप्त साम्राज्य को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग माना जाता है और इसके लिये सम्राट समुद्रगुप्त के साम्राज्य और उनके कार्यों का महत्वपूर्न योगदान है। गुप्त-वंश एवं गुप्त-साम्राज्य का सूत्रपात सम्राट चन्द्रगुप्त प्रथम ने किया है, तथापि उस वंश का सबसे यशस्वी सम्राट समुद्रगुप्त (335-380 ) को ही माना जाता है। इसके एक नहीं, अनेक कारण हैं। एक तो समुद्रगुप्त बहुत वीर था, दूसरे महान् कलाविद्! और इन गुणों से भी ऊपर राष्ट्रीयता का गुण सर्वोपरि था। असाधारण विजय, अद्भुत रणकौशल, प्रशासनिक एवं कूटनीतिक दक्षता, व्यवहार कुशलता, आखेट प्रियता, प्रजा-प्रेम, न्याय प्रियता समुद्रगुप्त का उद्देश्य उसके राज्य के अतिरिक्त भारत में फैले हुए अनेक छोटे-मोटे राज्यों को एक सूत्र में बाँधकर एक छत्र कर देना था, जिससे भारत एक अजेय शक्ति बन जाये और आये-दिन खड़े आक्राँताओं का भय सदा के लिए दूर हो जाये।

समुद्रगुप्त अच्छी तरह जानता था कि छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त देश कभी भी एक शक्तिशाली राष्ट्र नहीं बन पाता है और इसीलिए देश सदैव विदेशी आक्राँताओं का शिकार बना रहता है। जिस देश की सम्पूर्ण भूमि एक ही छत्र, एक ही सम्राट अथवा एक ही शासन-विधान के अंतर्गत रहती है, वह न केवल आक्राँताओं से सुरक्षित रहती है, अपितु हर प्रकार से फलती-फूलती भी है। उसमें कृषि, उद्योग तथा कला-कौशल का विकास भी होता है। उसकी आर्थिक उन्नति और सामाजिक सुविधा न केवल दृढ़ ही होती है, बल्कि बढ़ती भी है।

सम्राट समुद्रगुप्त देश-भक्त सम्राट था। वह केवल वैभवपूर्ण राज्य सिंहासन पर बैठ कर ही संतुष्ट नहीं था, वह उन लोलुप एवं विलासी शासकों में से नहीं था, जो अपने एशो-आराम की तुलना में राष्ट्र-रक्षा, जन-सेवा और सामाजिक विकास को गौण समझते हैं। मदिरा पीने और रंग-भवन में पड़े रहने वाले राजाओं की गणना में समुद्रगुप्त का नाम नहीं लिखा जा सकता है। वह एक कर्मठ, कर्तव्य-निष्ठ तथा वीर सम्राट था।

एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने की समुद्रगुप्त की विजय यात्रा इस प्रकार शुरू होती हैं

सबसे पहले उसने दक्षिणापथ की ओर प्रस्थान किया और महानदी की तलहटी में बसे दक्षिण-कौशल महाकान्तार, पिष्टपुर, कोहूर, काँची, अवमुक्त , देव-राष्ट्र तथा कुस्थलपुर के राजा महेन्द्र, व्याघ्रराज महेन्द्र, स्वामिदत्त, विष्णुगोप, कोलराज, कुबेर तथा धनञ्जय को राष्ट्रीय-संघ में सम्मिलित किया। उत्तरापथ की ओर उसने गणपति-नाग, रुद्रदेव, नागदत्त, अच्युत-नन्दिन, चन्द्रबर्मन, नागसेन, बलवर्मन आदि आर्यवर्त के समस्त छोटे-बड़े राजाओं को एक सूत्र में बाँधा। इसी प्रकार उसने मध्य-भारत के जंगली शासकों तथा पूर्व-पश्चिम के समतट, कामरुप, कर्तृपुर, नैपाल, मालव, अर्जुनायन, त्रौधेय, माद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानिक, काक और खर्पपरिक आदि राज्यों को एकीभूत किया।

इस दिग्विजय में समुद्रगुप्त ने केवल उन्हीं राजाओं का राज्य गुप्त-साम्राज्य में मिला लिया, जिन्होंने बहुत कुछ समझाने पर भी समुद्रगुप्त के राष्ट्रीय उद्देश्य के प्रति विरोध प्रदर्शित किया था। अन्यथा उसने अधिकतर राजाओं को रणभूमि तथा न्याय-व्यवस्था के आधार पर ही एक छत्र किया था। अपने विजयाभिमान में सम्राट समुद्रगुप्त ने न तो किसी राजा का अपमान किया और न उसकी प्रजा को संत्रस्त। क्योंकि वह जानता था कि शक्ति बल पर किया हुआ संगठन क्षणिक एवं अस्थिर होता है। शक्ति तथा दण्ड के भय से लोग संगठन में शामिल तो हो जाते हैं किन्तु सच्ची सहानुभूति न होने से उनका हृदय विद्रोह से भरा ही रहता है और समय पाकर फिर वे विघटन के रूप में प्रस्फुटित होकर शुभ कार्य में भी अमंगल उत्पन्न कर देता है।

किसी संगठन, विचार अथवा उद्देश्य की स्थापना के लिये शक्ति का सहारा लेना स्वयं उद्देश्य की जड़ में विष बोना है। प्रेम, सौहार्द, सौजन्य तथा सहस्तित्व के आधार पर बनाया हुआ संगठन युग-युग तक न केवल अमर ही रहता है बल्कि वह दिनों-दिन बड़े ही उपयोगी तथा मंगलमय फल उत्पन्न करता है।

राष्ट्र को एक करने के लिये परम्परा के अनुसार समुद्रगुप्त ने सेना के साथ ही प्रस्थान किया था, किन्तु उसको शायद ही कहीं उसका प्रयोग करना पड़ा हो। नहीं तो अधिकतर राजा लोग उसके महान राष्ट्रीय उद्देश्य से प्रभावित होकर की एक छत्र हो गये थे। कहना न होगा कि जहाँ समुद्रगुप्त ने इस राष्ट्रीय एकता के लिये अथक परिश्रम किया वहाँ उन राजाओं को भी कम श्रेय नहीं दिया जा सकता जिन्होंने निरर्थक राजदर्प का त्याग कर संघबद्ध होने के लिये बुद्धिमानी का परिचय दिया। जिस देश के अमीर-गरीब, छोटे-बड़े तथा उच्च निम्न सब वर्गों के निवासी एक ही उद्देश्य के लिये बिना किसी अन्यथा भाव के प्रसन्नतापूर्वक एक ध्वज के नीचे आ जाते हैं वह राष्ट्र संसार में अपना मस्तक ऊँचा करके खड़ा रहता है। इसके विपरीत राष्ट्रों के पतन होने में कोई विलम्ब नहीं लगता।

सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने प्रयास बल पर सैकड़ों भागों में विभक्त भरत भूमि को एक करके वैदिक रीति से अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया जो कि बिना किसी विघ्न के सम्पूर्ण हुआ, और वह भारत के चक्रवर्ती सम्राट के पद पर प्रतिष्ठित हुआ। उस समय भारतीय साम्राज्य का विस्तार ब्रह्मपुत्र से चम्बल और हिमालय से नर्मदा तक था।

भारत की इस राष्ट्रीय एकता का फल यह हुआ कि लंका के राजा मेघवर्मन, उत्तर-पश्चिम के दूरवर्ती शक राजाओं, गाँधार के शाहिकुशन तथा काबुल के आक्सस नदी तक राज्य करने वाले शाहाँशु आदि शासकों ने स्वयं ही अधीनता अथवा मित्रता स्वीकार कर ली।

इस प्रकार सीमाओं सहित भारत की आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ बनाकर समुद्रगुप्त ने प्रजा रंजन की ओर ध्यान दिया। यह समुद्रगुप्त के संयमपूर्ण चरित्र का ही बल था कि इतने विशाल साम्राज्य का एक छत्र स्वामी होने पर भी उसका ध्यान भोग-विलास की ओर जाने के बजाय प्रजा जन की ओर गया। सत्ता का नशा संसार की सौ मदिराओं से भी अधिक होता है। उसकी बेहोशी सँभालने में एक मात्र आध्यात्मिक दृष्टिकोण ही समर्थ हो सकता है। अन्यथा भौतिक भोग का दृष्टिकोण रखने वाले असंख्यों सत्ताधारी संसार में पानी के बुलबुलों की तरह उठते और मिटते रहे हैं, और इसी प्रकार बनते और मिटते रहेंगे।

चरित्र एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अभाव में ही कोई भी सत्ताधारी फिर चाहे वह राजनीतिक क्षेत्र का हो अथवा धार्मिक क्षेत्र का मदाँध होकर पशु की कोटि से भी उतरकर पिशाचता की कोटि में उतर जाते है।

सम्राट समुद्रगुप्त ने अश्वमेध के समन्वय के बाद जहाँ ब्राह्मणों को स्वर्ण मुद्रायें दक्षिणा में दीं वहाँ प्रजा को भी पुरस्कारों से वंचित न रक्खा। उसने यज्ञ की सफलता की प्रसन्नता एवं स्मृति में अनेकों शासन सुधार किये, असंख्यों वृक्ष लगवाये, कुएँ खुदवाये और शिक्षण संस्थाएँ स्थापित कीं।

एकता एवं संगठन के फलस्वरूप भारत में धन-धान्य की वृद्धि हुई। प्रजा फलने और फूलने लगी। बुद्धिमान समुद्रगुप्त को इससे प्रसन्नता के साथ-साथ चिन्ता भी हुई। उसकी चिन्ता का एक विशेष कारण यह था कि धन-धान्य की बहुतायत के कारण प्रजा आलसी तथा विलासप्रिय हो सकती है। जिससे राष्ट्र में पुनः विघटन तथा निर्बलता आ सकती है। राष्ट्र को आलस्य तथा उसके परिणामस्वरूप जड़ता की सम्भावना के अभिशाप से बचाने के लिये सम्राट ने स्वयं अपने जीवन में संगीत, कला, कौशल तथा काव्य साहित्य की अवतारणा की। क्योंकि वह जानता था कि यदि वह स्वयं इन कलाओं तथा विशेषताओं को अपने जीवन में उतारेगा तो स्वभावतः प्रजा उसका अनुकरण करेगी ही। इसके विपरीत यदि वह विलास की ओर अभिमुख होता है तो प्रजा बिना किसी अवरोध के आलसी तथा विलासिनी बन जायेगी।

सारे भारतवर्ष में अबाध शासन स्थापित कर लेने के पश्चात्‌ इसने अनेक अश्वमेध यज्ञ किए और ब्राह्मणों दीनों, अनाथों को अपार दान दिया। शिलालेखों में इसे 'चिरोत्सन्न अश्वमेधाहर्त्ता' और 'अनेकाश्वमेधयाजी' कहा गया है। हरिषेण ने इसका चरित्रवर्णन करते हुए लिखा है-

'उसका मन सत्संगसुख का व्यसनी था। उसके जीवन में सरस्वती और लक्ष्मी का अविरोध था। वह वैदिक धर्म का अनुगामी था। उसके काव्य से कवियों के बुद्धिवैभव का विकास होता था। ऐसा कोई भी सद्गुण नहीं है जो उसमें न रहा हो। सैकड़ों देशों पर विजय प्राप्त करने की उसकी क्षमता अपूर्व थी। स्वभुजबल ही उसका सर्वोत्तम सखा था। परशु, बाण, शकु, आदि अस्त्रों के घाव उसके शरीर की शोभा बढ़ाते थे। उसकी नीति थी "साधुता का उदय हो तथा असाधुता कर नाश हो"। उसका हृदय इतना मृदुल था कि प्रणतिमात्र से पिघल जाता था। उसने लाखों गायों का दान किया था। अपनी कुशाग्र बुद्धि और संगीत कला के ज्ञान तथा प्रयोग से उसने ऐसें उत्कृष्ट काव्य का सर्जन किया था कि लोग 'कविराज' कहकर उसका सम्मान करते थे।'

समुद्रगुप्त के 6 प्रकार के सिक्के इस समय में मिलते हैं।

पहले प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें वह युद्ध की पोशाक पहने हुए है। उसके बाएँ हाथ में धनुष है, और दाएँ हाथ में बाण। सिक्के के दूसरी तरफ़ लिखा है, "समरशतवितत-विजयी जितारि अपराजितों दिवं जयति" सैकड़ों युद्धों के द्वारा विजय का प्रसार कर, सब शत्रुओं को परास्त कर, अब स्वर्ग को विजय करता है।

दूसरे प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें वह परशु लिए खड़ा है। इन सिक्कों पर लिखा है, "कृतान्त (यम) का परशु लिए हुए अपराजित विजयी की जय हों।

तीसरे प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें उसके सिर पर उष्णीष है, और वह एक सिंह के साथ युद्ध कर उसे बाण से मारता हुआ दिखाया गया है। ये तीन प्रकार के सिक्के समुद्रगुप्त के वीर रूप को चित्रित करते हैं।

पर इनके अतिरिक्त उसके बहुत से सिक्के ऐसे भी हैं, जिनमें वह आसन पर आराम से बैठकर वीणा बजाता हुआ प्रदर्शित किया गया है। इन सिक्कों पर समुद्रगुप्त का केवल नाम ही है, उसके सम्बन्ध में कोई उक्ति नहीं लिखी गई है। इसमें सन्देह नहीं कि जहाँ समुद्रगुप्त वीर योद्धा था, वहाँ वह संगीत और कविता का भी प्रेमी था।

समुद्रगुप्त के जिस प्रकार के सिक्के आजकल मिलते हैं अगर उतने ही वजन के सोने के सिक्के आज बनाये जाए तो एक सिक्के कीमत पांच लाख रु से ज्यादा होगी सोचो उस समय समुद्रगुप्त ने ऐसे लाखो सिक्के चलवाए थे कितना धनी था हमारा भारतवर्ष

अक्सर इतिहास में हमको पढ़ाया जाता हैं समुद्रगुप्त भारत का नेपोलियन था हकीकत में देखा जाए समुद्रगुप्त कभी नेपोलियन नहीं हो सकता और नेपोलियन कभी समुद्रगुप्त बन ही नहीं सकता हैं समुद्रगुप्त ने कभी मात नहीं खाई जबकि नेपोलियन ने ब्रिटिश कमांडर नेल्सन से और रूस से मात खाई थी नेपोलियन तो साम्राज्यवादी था जबकि समुद्रगुप्त राष्ट्रवादी था उसने तो भारत को एक बनाया जो उसके भारतवर्ष के सपने में शामिल होते गए वे राज्य अधीन होते हुए भी स्वतंत्र थे

केवल एक संयमी सम्राट के हो जाने से भारत का वह काल इतिहास में स्वर्णयुग के नाम से प्रसिद्ध है, तो भला जिस दिन भारत का जन-जन संयमी तथा चरित्रवान बन सकेगा उस दिन यह भारत, यह विशाल भारत उन्नति के किस उच्च शिखर पर नहीं पहुँच जायेगा?

फिर अंत में फिर से एक बात इतिहास में गौरी गजनी अकबर बाबर औरंगज़ेब लोदी को चार पन्नें और महानतम सम्राट समुद्रगुप्त चार लाइन क्यों ?

ROUNIYAR VAISHYA HISTORY - रौनियार वैश्य की इतिहास गाथा

हम रौनियार वैश्य और हमारा वैश्य वंश-

हमारी रौनियार वैश्य की इतिहास गाथा के प्रथम पुरुष सम्राट चन्द्रगुप्त बिक्रमादित्य हैं,जो गुप्त बंश के सस्थापक थे । इनकी शादी नेपाल की राज कुमारी" कुमारदेवी" से हुआ था ,नेपाल हमारे बंश का ननिहाल है । हमारी राजधानी पटलिपुत्रा थी जो आज पटना कहलाता है । हमारे ही समय में स्वेत हूँण का आक्रमण हुआ था जिसका लोहा हमारे पूर्वज सम्राट स्कन्द गुप्त ने लिया था । हम ही सम्राट हेमचन्द्र बिक्रमादित्य के बंशज है जिसे हेमू के नाम से पुकारते है जो दिल्ली से भारत देश चलाता था ।मध्यकाल में हमें अपमानित करने के लिए "रनहार" (रण +हार) कहा गया जो आधुनिक काल तक आते -आते अपभ्रंश" रौनियार "प्रचलित हो गया ।प्राचीन काल मे भी मुझे करास्कर (कड़कश आबाज मे बात करने वाला ,कड़ी संघर्ष ,कड़ी मेहनत करनेवाला )कहा गया । हमसे अत्याचार बर्दास्त नहीं होता ,अन्याय के खिलाफ खड़े हो जाना डीएनए में है। 

ऋग्वेद का दसवां मण्डल के पुरुष सूक्त मे ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य की उत्पाती की गई। वैश्य शब्द वैदिक विश् से निकला है। अर्थ की दृष्टि से वैश्य शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है जिसका मूल अर्थ बसना होता है। वैदिक काल में प्रजा मात्र को विश् कहते थे। पर बाद में जब वर्ण व्यवस्था हुई, तब वाणिज्य व्यवसाय और गौ पालन आदि करने वाले लोग वैश्य कहलाने लगे। इनका धर्म यजन, अध्ययन और पशुपालन तथा वृति कृषि और वाणिज्य था। आजकल अधिकांश वैश्य प्रायः वाणिज्य, व्यवसाय करके ही जीविका निर्वाह करते हैं। वैश्य वर्ण (वर्ण शब्द का अर्थ है-जिसको वरण किया जाए वो समुदाय ) रौनियार वैश्य का इतिहास जानने के पहले हमे वैश्य के विषय मे जानना होगा । हमे यह जानना होगा की वैश्य शब्द कहां से आया है? वैश्य शब्द विश से आया है, विश का अर्थ है प्रजा, प्राचीन काल मे प्रजा (समाज) को विश नाम से पुकारा जाता था। विश के प्रधान संरक्षक को विशपति (राजा) कहते थे, जो निर्वाचन से चुना जता था। वैश्य समाज व्यापार से समाज में रोजगार के अवसर प्रदान कराता है। सामाजिक कार्य मे दान से समाज कि आवश्यकता की पूर्ति करता है। जिससे उसे समाज में शुरू से ही विशिष्ट स्थान प्राप्त है। 

ऋग्वेद का दसवां मण्डल के पुरुष सूक्त मे ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य की उत्पाती की गई। कौटिल्य के अर्थशास्त्र- कौटिल्य का निर्देश है की गंधी , कारस्कर,माली ,धान्य के व्यापारी और प्रधान शिल्पी, क्षत्रियों के साथ राजमहल से पूर्वी भागो में निवास करें ,पक्वान्न ,मदिरा और मांस के बिक्रयी वैश्य राजप्रासाद से दक्षिण के भागों में रहे ,ऊनी और सूती बस्त्रों के शिल्पी तथा जौहरी ब्रहमानों के संग उत्तर दिशा में रहें । 

सिन्धु- घटी की सभ्यता का निर्माण तथा प्रसार दूर के देशों तक वैश्यों ने किया या उनकी वजह से हुआ है। सिन्धु- घाटी की सभ्यता मे जो विशालकाय बन्दरगाह थे वे उत्तरी अमेरिका तथा दक्षिणी अमेरिका, यूरोप के अलग-अलग भाग तथा एशिया (जम्बोदीप) आदि से जहाज दवरा व्यापार तथा आगमन का केन्द्र थे।मध्यकाल मे नमक के व्यापारी अफ्रीका भी जाते थे ,नाइजेरिय के टिंबकटु स्थान के गाफ़र जाती के पाण्डुलिपि से पता चलता है की भारतिए व्यापारी नमक के बदले सोना ले जाते थे ,यहाँ बसे गफार जाती का मूल बंश ब्रिक्ष भारतिय व्यापारियो का बताया जाता है । 

हजारो वर्षो से खेती ,पशुपालन ,बाणिज्य ,कारीगरी ,उद्धोग-धंधा तथा अन्य प्रकार के स्वरोजगार व्यापार श्रेणी के मेहनतकश और कड़ी मेहनत से जीविका उपार्जन करने बालो की अपमान जनक स्थिति से गुजरना पड़ा है। ये सभी व्यापारी की श्रेणी में आते है यानि कमेरा(काम काजी लोग ) वर्ग जिसे वैश्य कहते हैं । इसी श्रेणी की एक वैश्य की जाती “कारस्कर “था । जिसका गोत्र कश्यप था । इस समुदाय के लोग फेरि लगाकर नमक व अन्य बस्तुए बेचते थे ,जो नमक बनाकर एवं उत्खनन करके उससे खड़िया नमक ,साधारण नमक एवं सेंधा नमक आदि गाँव –शहर ,देश –विदेश मे बेचते थे । अन्नय आदि बस्तु के बदले बिक्रय करते थे ,इस तरह मुख्य व्यावसाय नमक उत्पादन से लेकर वितरण था । कड़ी मेहनत ,संघर्सशील और बस्तुएँ बेचने के क्रम मे चिल्लाने के कारण प्राचीन काल मे इस जाती को “कारस्कर ”( कड़ी मेहनत,संघर्षशिलता, जुझारूपन और कर्कस आवाज में बोलने बाला )बताया और नीची जाती कहाँ ,एवं अपमानित किया जाता था। कुछ अंग्रेज़ विद्वान इस समुदाय के अधिकांश लोग को जुझारूपन ,फेरि लगाकर नमक बेचते समय चिल्लाने –गाने के कारण इसका नाम रोने –हारे ,तथा रनहार के अपभ्रंश जो बाद मे प्रचलित रौनियार ,रोनियर ,नोनियार ,नोनिया नूनियार [सभी वैश्य जाती ]का सम्बोधन हो गया बताया है । (अर्थशास्त्र पीटरसन की डिक्शनरी ऑफ फीक पृष्ट 303-4) वह आज भी रौनियार प्रचलित है । मेहनती कामों में लगे हुये लोगों को शुरू से लांछित और अपमानित किया जाता रहा है ,जबकि देश के आर्थिक स्थिति मजबूत करने में रौनियार समुदाय की अहम भूमिका थी । सदियों से देशहित ,समाजहित एवं धार्मिकहित में इस समुदाय के लोगों ने अग्रिणी भूमिका निभाते आया है । 

विक्रमादित्य सम्राट चन्द्रगुप्त को कौन नहीं जानता है । अगर भारतवर्ष को सोने की चिड़ियाँ कहा गया था तो वह काल चन्द्रगुप्तबंश का था।किन्तु उस समय भी इस समुदाय के लोगों को अपमानित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखा था । “कौमुदी महोत्सव नामक प्राचीन नाटक “में चन्द्रगुप्त को “कारस्कर” बताकर ऐसे नीच जाती के पुरुष को राजा होने के अयोग्य बताया है । जबकि वकाटक महारानी प्रभावती गुप्ता के अभिलेख (महरौली और प्रयाग लौह स्तम्भ लेख )में गुप्तों की वंशावली दी गई है । गुप्त अभिलेखों में जो वंश वृक्षों में सर्वप्रथम नाम ‘श्री गुप्त ‘ का आता है ।“ श्री “शब्द सम्मानार्थ है “गुप्त ”का शाब्दिक अर्थ संरक्षित है । “श्री गुप्त ” का अर्थ लक्ष्मी व्दरा रक्षित (लक्ष्मी पुत्र ) है । चन्द्रगुप्त ,समुद्रगुप्त ,कुमारगुप्त तथा कार्तिकय व्दरा रक्षित हुआ । जो किसी प्रतापी राजा के लिए अत्यंत उपयुक्त है । चीनी यात्री इत्सिंग ने भी यात्रा वृतांत में “चे –लि –कि –तो”(लक्ष्मी पुत्र) बताया है । स्वयं समुद्रगुप्त कि प्रयाग प्रशस्ति –महाराजा श्री गुप्त प्रपौत्रस्य महाराजा घटोत्कच पौत्रस्य महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त पुत्रस्य .....श्री समुद्रगुप्तस्य ......क्रमशः ! (1)कुमार गुप्त प्रथम ,स्कन्ध गुप्त ,पुरू गुप्त ,नरसिंह गुप्त बालादित्य ,कुमार गुप्त व्दितिये ,बुध्द गुप्त ,तथागत गुप्त ,बज्रगुप्त ,भानु गुप्त वैन्य गुप्त व्दादशादित्य गुप्त ........परमभट्टारिकायां राजां महादेव्यां श्री श्रीमती देवयामुतपन्ना । 

मेहरौली एवं प्रयाग प्रशस्ति से स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त के विरासत लक्ष्मी पुत्र “चे –लि –कि –तो” है । जो सम्मानजनक नमक के व्यापार में लगी जाती का वंशज है । चन्द्रगुप्त की एक स्वर्णमुद्रा है जिस पर एक ओर लिच्छवियः तथा दूसरी ओर चन्द्रगुप्त तथा कुमार देवी उत्कीर्ण है एवं दोनों का चित्र उस पर अंकित है । लिच्छवियों के वैवाहिक संबंध चन्द्रगुप्त के साथ था ,इस कारण इस समुदाय के वंशज को क्षत्रिय भी माना जाने लगा था ,और उत्तर का भू-भाग तथा पश्चिम बंगाल के भू-भाग गुप्तो के अधिकार मे था एवं उत्तर बिहार (वैशाली तक )जो लिच्छवियों की राजकुमारी कुमार देवी के अधिकार मे था । दोनों वंशों का एकीकरण हो गया तथा चन्द्रगुप्त प्रथम ने प्रराक्रम से अन्य राज्यों को जीत कर पाटलीपपुत्र मे फिर से एक साम्राज्य की नींव डाली एवं शुभ अवसर पर महाराजाधिराज की पदवि धारण किया । .........वायुपुराण में ’भोक्षन्ते गुप्त –वंशजाः’ एवं अपने राज्याभिषेक की तिथि को नए संवत ‘गुप्त संवत ‘का घोषणा किए जो तिथि 20 दिसंबर 318 ई॰ अथवा 26 फरवरी 320 ई॰ निश्चित होती है । लगभग 319-320 ई॰ से गुप्त संवत का श्रीगणेश होता है । इस समय तक आते-आते भारत का नक्शा चतुर्भुज की तरह हो गया था तथा भारतवर्ष को सोने की चिड़ियाँ नाम से संबोधित किया जाने लगा था । सम्राट स्कन्ध गुप्त के समय भारत पर कई वार श्वेत हूणों का भयानक आक्रमण हुआ था ,जिसमे गुप्त वंश विजय प्रप्त किया था। इन आक्रमणों ने स्कन्ध गुप्त की शक्ति को झकझोर दिया तथा काफी धन-जन की हानी उठाना पड़ा था। (बिष्णु स्तम्भ-कंधार –हुणेयस्य समागतस्य समरे दोभर्या धरा कंम्पित भीमावर्तकस्य )सम्राट बुद्ध गुप्त तक अपने साम्राज्य की सुरक्षा में लगा रहा ,किन्तु बार-बार हूण आक्रमण जारी रहा । एरण अभिलेख बुद्ध गुप्त ने 484-85ई॰ में प्रसारित किया था। इनके मृत्यु के बाद हूणों ने कब्जा कर लिया । बुद्ध गुप्त के पश्चात उत्तराधिकारी तथागत गुप्त ,नरसिंह गुप्ता ,वैन्य गुप्त तक आते-आते अपने साम्राज्य को एक नहीं रख पायेँ । प्रायः सभी लड़ाई हारते चले गए । छोटे-छोटे राज्यों में देश का विघटन हो गया । छोटे-बड़े सामंतों ने भी कब्जा कर लिया । इस तरह से लंबे समय से गुप्त वंशों का विघटन होते चला गया । सभी लड़ाईयाँ हारते-हारते गुप्त सम्राट के वंशज को मध्यकाल आते आते रणहार (रण +हार)कहा जाने लगा । जो प्राचीन काल मे कारस्कर वंशबृक्ष का था । कारस्कर जाती नमक के व्यापारी थे,अब मध्यकाल मे इनका सम्बोधन रणहार जो काफी प्रचलित हो गया । उस समय अपमान सूचक था । मध्यकाल में सम्राट हेमचन्द्र हेमू जो 1556 में दिल्ली के साशक थे उन्हे भी हारना पड़ा था ,हेमू के बाद के समय तक आते-आते रणहार (रण +हार) शब्द का मध्य –आधुनिक काल में अपभ्रंस रौनियार ,रोनियार ,नूनियार ,नूनिया ,लानियार (सभी वैश्य वर्ग ) गुप्त वंशजों को कहा जाने लगा , जो आज उस गुप्त वंश के समुदाया का जाती सूचक हो गया है। वर्त्तमान में इस जाती का नाम हीं रौनियार हो गया है ।.( कुछ अंग्रेज़ विद्वान इस समुदाय के अधिकांश लोग को जुझारूपन ,फेरि लगाकर नमक बेचते समय चिल्लाने –गाने के कारण इसका नाम रोने –हारे ,तथा रनहार के अपभ्रंश जो बाद मे प्रचलित रौनियार ,रोनियर ,नोनियार ,नोनिया नूनियार लानियार जाती का सम्बोधन हो गया बताया है । (अर्थशास्त्र पीटरसन की डिक्शनरी ऑफ फीक पृष्ट 303-4)).

हम अपने विरासत के इतिहास की छान-बिन करने पर पाते है की शुरू में कारस्कर जाती जिसका गोत्र कश्यप थी , लिच्छवि राजकुमारी ‘कुमार देवी ‘से वैवाहिक संबंध चन्द्रगुप्त से होना ,चीनी यात्री व्हेनसांग का विवरण ,नेपाल की वंशावली ,प्राचीन तिब्ती ग्रन्थ ‘दुल्व ‘आदि से भी प्रमाणित है । उक्त वैवाहिक संबंध से लिच्छवि तथा गुप्त राज्य का एकिकारण हो सका ,उस समय उत्तर का कुछ भू-भाग तथा पश्चिमी बंगाल पर गुप्तों का अधिकार था और उत्तर बिहार लिच्छवियों के अधिकार में था ,चन्द्रगुप्त ने पराक्रम से अन्य राज्यों को भी जीत कर पाटलीपुत्र में फिर से एक साम्राज्य की नींव रखी तथा उस शुभ अवसर पर ‘महाराजाधिराज ‘की उपाधि धारण किया ,इसका प्रमाण स्वयं चन्द्रगुप्त की है । 

परंतु यह प्रमाणित नहीं है की गुप्त वंश के आदि पुरुष क्षत्रिय थे । गुप्त वंश को जाट या शूद्र भी नहीं कहा जा सकता , क्योंकि भारतिये सांस्कृति में पुरुष के विवाह के उपरांत पुरुष के जाती से ही वंश का जाती माना जाता है । गुप्त वंश तो वैश्य है ,यह प्रमाणित है । गुप्त वंश के पूर्वज नमक के व्यापार करते थे, हमारे कुल देवता लक्ष्मी है तथा हमारे पूर्वजों के द्वारा पीढ़ी –दर पीढ़ी चले आ रहे कहानी से भी गुप्त वंश वैश्य हैं । मौर्य वंश भी वैश्य थे यह भी प्रमाणित है । यह दोनों वंश बौद्ध हो गए थे । गुप्त वंश बौद्ध से पुनः वैश्य हिन्दू हुये थे । जिनके वंशज आज भी वही है । जिनके नाम के साथ गुप्त तथा गुप्ता (पुलिंग तथा स्त्रीलिंग ) पीढ़ी-दर-पीढ़ी आज तक जुड़ा चला आ रहा है । सदियों से वे आज भी वैश्य हैं । उनके वंशज आज भी लक्ष्मी महारानी के साथ-साथ कुल देवता कि पुजा में ‘अहम श्री गुप्तस्याः वंशजाः ‘कहकर पूजा में अपने पूर्वजों को याद कराते हैं और उसी गुप्त वंश को रणहार (रण +हार )तथा रोने-हारे मिलकर या रौनियार शब्द जो अपभ्रंस है कहा जाता है जिसका गोत्र आज भी कश्यप है । जो प्राचीन काल में कास्करजाती (नमक बेचनेवाला जाती )था । हमारे आखिरी पुरखे हिन्दू सम्राट विक्रमादित्य हेमचन्द्र @हेमू साह जिनके हम वंशज हैं प्रमाणित है । हमारे पूर्वजों ने समग्र समाज कि अगुआई कि थी । 

हमें अपनी विरासत से प्रेरणा लेकर समग्र समाज कि अगुआई आगें बढ़कर करना चाहिए । अपनी विरासत कि परम्पराको कायम करना चाहिए । राजनीति में रौनियार समुदाया कि कोई जगह नहीं दी जा रही है ऐसी परिस्थिति में इस समुदाय के स्वाभिमान को जगाना और एकता कायम करना अत्यंत आवश्यक है । यह समग्र समाज कि विकास के लिए भी आवश्यक है कि रौनियार समाज को इस कार्य के लिए आगे लाया जाय इतिहास में हमारे पुरखों ने किया है ,आज समग्र समाज का नेतृत्व करने के लिए रौनियार को आगें बढ़-चढ़ कर आना चाहिए ।

साभार: डॉ ॰ कामेश्वर गुप्ता ,अध्यक्ष (प्रोफेशनल ),अखिल भारतीय वैश्य सम्मेलन..

Friday, August 28, 2015

Bold banias conquer nayi duniya

In the street theatre of Indian politics, the mercantile community has always enjoyed playing puppeteer. Away from the arc lights, they have used the muscle of money to ensure that irrespective of who reigns, they control the strings. Now, the kingmakers are turning kings. Two of India's top politicians, Narendra Modi and Arvind Kejriwal, belong to the mercantile community of west and north India. 

Columnist Aakar Patel, who has written extensively on banias, says Modi marks a departure from the past because he is direct in his quest for power. Similarly, Kejriwal's forceful and articulate leadership is markedly different from the community's traditional image of keeping its cards close to its chest. "But Kejriwal is the bigger radical as he also rejects the community's money-driven worldview. In their own ways, the two leaders represent the mercantile community's new confident face,"says Patel. 

It isn't just politics. The bold bania has stepped out to conquer brave new worlds. Four of the top 20 UPSC successful candidates in 2011, including topper Shena Aggarwal, came from this community. So did toppers Arpit Aggarwal (IIT-JEE 2012), Vidit Aggarwal (CAT 2010) and Nikhil Agarwal (2011-13 batch, IIM-A). 

In medical science, they rank among the best. A 2011 article in a national daily rated Vipul Gupta and Deepak Agrawal as two of India's best neurosurgeons. And let's not forget Flipkart's Sachin Bansal, Zomato's Deepinder Goyal and Myntra's Mukesh Bansal — all poster boys of the new economy. 

Author Ashwin Sanghi says that in recent times "the community has become far more open to the idea that individuals can excel outside the world of business". This is not to suggest that banias did not excel beyond core areas in the past. Sanghi talks of Gujarat's Sarabhai clan, as famous for their textile mills as for Vikram Sarabhai, ISRO and IIM-A. "Similarly, Sir Shankar Lal set up DCM but also patronized the arts through the Sir Shankarlal Festival of Music. Even Hindi film hero Bharat Bhushan came from the merchant class. More recently, we have examples of Sanjay Leela Bhansali, Abhishek Singhvi, Lalit Modi, Bimal Jalan and others who made a name for themselves in other areas," he says. 

The banias can be largely categorized as the traditional entrepreneurial and trading classes of north and west India. In the Hindu varna system, most are vaishyas by caste. Some are Jains too. If we include petty traders and small, caste-driven, professional communities, some would be OBCs as well. For instance, Modi's a ghanchi (oil pressers), an OBC. 

That the community has now widened its field of play is evident from Kejriwal's background. He comes from a family of grain merchants in Haryana. In his hometown Siwani, two of his uncles still practise the trade. His father was the first to break out by becoming an engineer. Arvind went several steps further: the engineer has transformed into a tough-talking politician. 

However, social commentator Santosh Desai says Kejriwal's rise needs to be seen beyond the bania lens. "We need to understand that a third kind of India is emerging beyond the India-Bharat binary or the caste-community prism," he says. 

This is also, because as Patel points out, the mercantile community is "generally socially conservative and finds resonance with Hindutva, especially on issues of cow slaughter." 

Desai links the rise of the bania to the changing values of post-liberalization India where money, once regarded as a contaminant, is seen as an energizer. "Money-making has not only earned legitimacy, it is central to most lives. This change in society's attitude has helped in the rise of the bania community," he says. 

Business historian Gita Piramal believes that education, urban-rural migration, satellite TV and economic growth have forced the country to shed its past. "The change in the mercantile community is just a small sub-section in the larger transformation of India," she says. 

Most experts agree that the key to the community's bold new vision lies in its embrace of education. As Patel points out, "Once you blend stable, upper middle class income with five-six generations of decent education, you find a confident community empowered to move away from its conservative roots." 

He illustrates the point with an example. Basant Kumar Birla, grandfather of Kumar Mangalam Birla, was already in office by the time he was 14-15. "Staff members were deputed to teach him cash flow and book-keeping. Now the alumni of top business schools are full of surnames from the mercantile communities," says Patel. Sanghvi says, "Parents are more open to children choosing a path that may be remarkably different to the ones that they chose for themselves." 

Sanghvi says, "Parents are more open to children choosing a path that may be remarkably different to the one they chose for themselves." Desai sums it up, "In the past, the community was sequestered by a conservative, inward-looking view of the world. Now the fear of the outsider is gone." 

It wasn't always like that. In politics, right from the days of the 18th-century Jagat Seths, the banias were primarily backroom boys. 

Business historian and journalist Harish Damodaran says, "Apart from Gandhi (and Ram Manohar Lohia, though he was more an OBC in spirit!), we didn't have too many banias in politics. They preferred to be backroom funders (Birla, Bajaj, Dalmia). The politicians were largely brahmins (Nehru, Morarji Desai, G B Pant) or kayasthas (Rajendra Prasad, JP, Lal Bahadur Shastri, Subhash Chandra Bose)." 

He adds, "State-level politicians like Chandra Bhanu Gupta in UP and Banarasi Dass Gupta in Haryana got marginalized by Jat leaders like Charan Singh, Devi Lal and Bansi Lal. Post-Mandal, the community became more politically irrelevant. Post-Mandal, the community became more politically irrelevant." At the most they were trusted as treasurers in a top political party; such as Sitaram Kesari in Congress. 

SAABHAAR: Avijit Ghosh,TNN