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Monday, November 21, 2016

तेली समाज अपने नाम के आगे लिखें ‘मोदी’: प्रहलाद मोदी



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के छोटे भाई प्रहलाद मोदी ने देश के तेली समुदाय के लोगों से अनुरोध किया है कि वो अपने नाम के आगे ‘मोदी’ लिखें।

भोपाल। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के छोटे भाई प्रहलाद मोदी ने देश के तेली समुदाय के लोगों से अनुरोध किया है कि वो अपने नाम के आगे ‘मोदी’ लिखें। तैलिक साहू समाज की अखिल भारतीय युवक-युवती परिचय सम्मेलन को रविवार को संबोधित करते हुए प्रहलाद ने कहा कि मैं जब से यहां आया हूं तब से एक ही बात सुन रहा हूं कि देश का गौरव, समाज का गौरव नरेंद्र मोदी हैं। लेकिन हम सब तेली समाज के सदस्य अपने नाम के आगे ‘मोदी’ लिखने के लिए तैयार क्यों नहीं होते।

उन्होंने कहा कि हमारे तेली समाज के नेताओं ने अपनी-अपनी रोटियां सेंकने के लिए हमारी पहचान साहू, चौहान, परमार, राठौड़ और जैसवाल जैसी विभिन्न जातियों के रूप में कर रखी है। प्रहलाद ने कहा कि कर्मादेवी तेली थीं, कर्मादेवी के हम बच्चे हैं और हम तेली है, हम मोदी हैं। आज से ही तय करें कि हम हमारे नाम की शुरुआत मोदी से करें। उन्होंने बताया कि अगर हम मोदी के नाम से अपना परिचय शुरू करें तो मैं मानता हूं कि हिन्दुस्तान में हमारे तेली समाज की आबादी 14 करोड़ हो जाएगी। फिर भी हम बंटे हुए हैं, गुटबाजी में हैं और ये राजनीतिक पार्टियां हमें बेवकूफ बनाती हैं। इसीलिए हमें एक होना है।

प्रहलाद ने कहा कि जब तक हम लोग हमारा परिचय एक नहीं करेंगे, तब तक राजनीतिक पार्टियां हमारा दुरुपयोग करती रहेंगी। अगर हमें इस दुरुपयोग से बचना है, हमें अपने समाज को राष्ट्रीय अखाड़ा नहीं बनाना है, तो हमें अपनी पहचान एक करनी होगी। उन्होंने कहा कि पाटीदार और राजपूतों में भी तेली समाज की तरह विभिन्न उप जातियां हैं, लेकिन उनके परिचय की राष्ट्रीय पहचान क्रमश: पाटीदार और राजपूत हैं।

साभार : IBNKHABAR


Thursday, November 3, 2016

VARSHNEYA VAISHYA - वार्ष्णेय वैश्य समाज

बारहसैनी समाज का उद्गम महाभारत के समय या भगवान श्री कृष्ण की सदी से है। हमारे इष्ट देव श्री अक्रूर जी महाराज हैं जो वृष्णि वंश में उत्पन्न हुये। यह वृष्णि वंश यदुकुल की एक शाखा थी जिसमें भगवान श्री कृष्ण जी का भी अवतार हुआ।

श्री अक्रूर जी महाराज का जन्म श्री कृष्ण जी के पितृकुल में हुआ था अत: वे श्री कृष्ण जी के रिश्ते में चाचा लगते थे। इन सभी तथ्यों में कोई विरोधाभास नहीं मिलता है और पौराणिक सभी ग्रन्थ इन तथ्यों की पुष्टि करते है।

वृष्णि वंश के विषय में सभी पौराणिक ग्रन्थों में इस प्रकार व्याख्या दी गयी है–

वृषस्य पुत्रो मथुरासीम।तस्यापि वृष्णि प्रमुखं पुत्रं शातगसति।
यतो वृष्णि सलामेत दगोत्र भवाय। (4–11–26–27–28) & विष्णु पुराण।

अर्थात् वृश का पुत्र मधु हुआ। मधु के सौ पुत्र हुये जिनमें पहला वृष्णि था। इसी के नाम से ही यह कुल वृष्णिकुल हुआ।

वृष्णिकुल का सीधा सम्बन्ध क्षत्रीय समाज से है लेकिन इतिहास यह दर्शाता है कि जिन क्षत्रियों या ब्राह्मणो ने अपने कर्मों को आधार ‘‘व्यापार’’ बनाया वे ‘‘ वैश्यो’’

वंश के जिस क्षत्रिय समुदाय ने व्यापार को अपनाया उनका कुल ‘‘ बारहसैनी’’ और बाद में ‘‘वार्ष्णेय’’ शब्द से सम्बोन्धित किया गया।

जिस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने अपना समस्त काल मथुरा–वृन्दावन और आसपास के स्थानों पर क्रीड़ाये एवं लीलायें दिखाकर व्यतीत किया, उसी प्रकार हमारे समाज की जन्मदात्री मथुरा–वृन्दावन की पावन भूमि है।

यह बात प्रसिद्ध है कि वृष्णि और उनकी सन्तान मथुरा और उसके आसपास की जगहों पर ही निवास करती थी। वृष्णि के पिता का नाम मधु था और इसी कारण शायद नगर का नाम भी मथुरा पड़ा। आसपास की जगह मधुपुरी एवं मधुवन कहलायी।

‘‘मधुवन में राधिका नाची रे...............................................।’’ यह जगत विख्यात है।



मि0 कुर्क साहिब (अंग्रेज) की किताब ‘‘Enthographical Handbook’’ में 14/16 वें

पृष्ठ पर बारहसैनी शब्द का अर्थ इस प्रकार लिखा है:–

‘‘ प्राचीन होने के विचार से भी बारहसैनी विरादरी सर्वोपरि है उसकी उत्पत्ति की खोज महाभारत के पहले से मिलती है और अन्य विरादरियों की वावत यह भलीभाँति निश्चय हो चुका है कि वह महाभारत से कही पीछे उत्पन्न हुई।’’

उन्होंने जो वृतान्त बारहसैनियों का दिया है वह इस प्रकार है :–

‘‘बाहरसैनी मथुरा, बुलन्दशहर, अलीगढ़, बदायूँ, मुरादाबाद एवं एटा जिलों में रहते है। मथुरा के चारो ओर 84 कोस का क्षेत्र जो ‘‘बृज’’ की सीमा कही जाती है, बारहसैनी समाज की बसावट का क्षेत्र है।’’



बारहसैनी / वार्ष्णेय शब्दो की उत्पत्ति के विषय में कोई ठोस लेख प्राप्त नही है लेकिन पौराणिक गृन्थों एवं इतिहास के पन्नो का अवलोकन करने से कुछ अनुमान लगाये जा सकते है।

श्री अक्रूर जी महाराज के बारह भाई थे और एक बहिन थी, शायद इसी कारण उनके वँशजो ने "बारह" शब्द को अपनाया।

श्रेणियों की विश्वव्यापी परम्परा

"बारहसैनी" पत्रिका के जनवरी 1969 के अंक में आचार्य मुरारीलाल जी द्वारा लिखित एक लेख पढने को मिलता है।
 
इस लेख में उन्होनें प्राचीन समय में श्रेणियों के महत्व को दिखाया है। लेखक अनुसार ज्यों ज्यों कृषि पर आधारित, खानपान से सम्बन्धित पदार्थो के अतिरिक्त अन्य घरेलु सामानों का उदय हुआ, एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ जो मन्डियों में वस्तुओ को बेचने लगा। यह वर्ग कृषि जीवी नहीं था अतः इनकी बस्तियां गावों से पृथक बसने लगी। यही कस्बो / नगरो का आरम्भ था जिनकी जनसँख्या धिरे धिरे गावों की जनसँख्या से बढी होने लगी ऐसे कस्बो / नगरों में व्यापार करने वाले वार्णक सँगठित होने लगे। यह स्वाभाविक था कि बे वार्णक जो एक साथ रहते थे, पारस्परिक लाभ और सुरक्षा के लिये एक सँगठन सुत्र में बँध जाते थे। ऐसे ही सँगठन को वार्णक श्रेणी कहा जाता था। मोनाहन(Monahan) ने "Early History of Bengal" में लिखा है कि श्रेणियाँ विशेष प्रकार की सेनायें थी जो अनुबन्ध के अनुसार सेना की सेवा करती थी।

"बारहसैनी" या "द्वादश श्रेणि" शब्द इस बात का सँकेत करता है कि वेदिक काल मे ही, जब श्रेणियों की पृथा विद्धमान थी और भारतवर्ष में श्रेणियाँ "जाति" का रूप लेती जा रही थी, मथुरा, अलीगढ़(हाथरस) और चन्दोजी के आसपास जो व्यापारी वर्ग सक्रिय रहा और जिस वर्ग का कृषि एवं पशुपालनसे सम्बन्धित पदार्थो के व्यापार पर अधिप्त्य रहा और जिनके इष्ट देवता श्री अक्रूर जी महाराज थे, उन्होनें अपने आपको "बारहसैनी" कहलवाया।

वार्ष्णेय शब्द का महत्व

वार्ष्णेय शब्द का प्रयोग भगवान श्री कृष्ण के लिये कई लेखे में कीया गया है। उनका वँश भि वृष्णि था, गीता में उल्लेख है -
 
अधर्माभिभवात् कृष्ण प्रधुथन्ति कुलस्टियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्ण संकर॥
गीता, अध्याय 1, श्लोक 41

अथकेनप्रयुक्तोंडयं पापं चरति पुरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिन नियाज्वेत॥
गीता, अध्याय 3, श्लोक 36

वृष्णि वँश में जन्म लेने वाले, वैश्य समाज को अपनाने के उपरान्त कलान्तर में समाज के अग्रणी व्यक्तियों का अपने क्षेत्र की अर्थव्यवस्था पर इतना अधिकार रहा होगा की उनके समाज को भी "वार्ष्णेय" शब्द से सम्बोधित कीया जाने लगा। यह बड़े गर्व की बात रही कि समाज को देशवासियों में प्रभु का नाम देना स्वीकार किया। इसीकारण सोलहवीं या बाद की शताब्दी में समाज के कुछ व्यक्तियों ने "वृष्णि", "वार्शनेई" या "वार्ष्णेय" लिखना प्रारम्भ कर दिया।

एक बार प्रेम से बोलो- "भगवान श्री कृष्ण की जय" !

साभार:
Akhil Bharatvarshiya Shri Vaishy Barahsaini Mahasabha




OMAR -UMAR VAISHYA - ओमर उमर वैश्य

जगन्नाथपुरी एवं द्वारिका पुरी अधिवेशनों के समय अखिल भारतीय ओमर-ऊमर वैश्य महासभा की गौरव यात्रा लेख लिखते समय वैश्य समाज एवम् उनके उपवर्गो के प्रामाणिक इतिहास के बारे में शोधात्मक जानकारी की जिज्ञासा ने मेरे अन्तर्मन को आन्दोलित करना आरम्भ कर दिया था।

’वैश्य’ शब्द का प्रयोग वेदों में सर्वप्रथम ’पुरुष सूक्त’ में प्राप्त होता है।

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासी दाहुराजन्यः कृतः।
उरु तदस्य यद्वैश्य पदाभ्यांशद्रो अजायत।।

तत्पश्चात इसकी विस्तृत व्याख्या श्रीमद्भगवत गीता के 18वें अध्याय के श्लोक 44 में मिलती है-

’कृषि गोरक्ष्य वाणिज्यं वैश्य कर्म स्वभावजम’
अर्थात खेती, गोपालन और क्रय विक्रय रुपी सत्य व्यवहार ये वैश्य के स्वाभावित कर्म है।

वैश्यों के उपवर्गो का प्रामाणिक इतिहास सामान्यतः उपलब्ध न होने की बात मैंने 2010 के प्रकाशित लेख में की थी। परंतु अंतर्मन में अपने उपवर्ग के प्रमाणिक इतिहास को खोजने की उत्कंठा इस शोध का कारक बनी।

अनेक स्थानों के नाम ओमर-ऊमर शब्द प्रतिध्वनित करते हुये यथा उमरिया, उमरी, उमराहट, उमरेड आदि नाम के ग्राम भारत के अनेकों स्थानों पर मिलते हैं। परंतु वह जाने से इसका सम्बंध ओमर ऊमर वैश्य समाज से स्थापित न हो सका। अध्ययन तथा शोध कार्यो का दौर चलता रहा, पुरातत्वविदों एवम् इतिहासकारों से सतत चर्चा भी चलती रही ओर इस ज्ञानार्जन की प्रक्रिया के दौरान कानपुर परिक्षेत्र के इतिहास पर ’ ’कानपुर एक सिंहावलोकन’ का सम्पादन एवम् लेखन हिन्दुस्थान समाचार-बहुभाषी संवाद समिति के कानपुर संभाग का सचिव होने के नाते मेरे द्वारा किया गया। इस रचना यात्रा में भारतीय पुरातत्व विभाग के अधिकारियों के सम्बंध भी प्रगाढ़ हुये तथा उनके माध्यम से जानकारियाँ जुटनी आरम्भ हुयी।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा शासित प्रदेशों की जातीय जनगणना सर्वप्रथम 1871 में की गयी और उसके आधार पर विलियम क्रुक द्वारा लिखित पुस्तक ष्ज्तपइमे ंदक ब्ेंजमे वि छवतजीमद प्दकपं ॅमेजमतद च्तवअपदबमे ंदक व्नकीष् जो सन् 1896 में प्रकाशित हुई। जिसमें ओमर-ऊमर वैश्य जाति के बारे में अभिलेखीय आधार सर्वप्रथम प्राप्त हुये जिसमें इन जातियों की प्रभावी बसावट कानपुर तथा मिर्जापुर में विशेष रूप से मानी गई तथा इस वैश्य जाति को मूलतः तत्कालीन अवध प्रांत के बनियों की एक उपजाति के रूप में प्रदशित किया गया परंतु इसका कोई ऐतिहासिक विवरण नही लिखा गया।

जब अभिलेखीय ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं प्राप्त हुये तो पुराणों के वर्णित वंशावलियों एवम् कथानकों का अध्ययन मैंने आरम्भ किया। ईश्वर की अनुकम्पा से मुझे पद्म पुराण में स्वर्ग खण्ड के 30 वें तथा 31 वें अध्याय के यमुना स्नान के महत्व में वैश्य हेमकुण्डल की कथा नारद-युधिष्ठिर संवाद में मिली।

नारद जी ने युधिष्ठिर से कहा कि इसविषय में मैं तुमसे एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करता हूँ। पूर्वकाल के सत्ययुग की बात है। निषध नाम के सुन्दर नगर में एक वैश्य रहते थे। उनका नाम हेमकुण्डल था। वे उत्तम कुल में उत्पन्न होने के साथ ही सत्कर्म करने वाले थे देवता, ब्राह्मण और अग्नि की पूजा करना उनका नित्य का नियम था। वे खेती और व्यापार का काम करते थे। पशुओं के पालन-पोषण में तत्पर रहते थे। दूध, दही, मट्ठा, घास, लकड़ी, फल, मूल, लवण, अदरख, पीपल, धान्य, शाक, तैल, भांति भांति के वस्त्र, धातुओं के सामान और ईख के रस से बने हुए खाद्य पदार्थ (गुड़, खाँड़, शक्कर आदि)- इन्ही सब वस्तुओं को सदा बेचा करते थे। इस तरह नाना प्रकार के अन्याय उपायों से वैश्यने आठ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ पैदा की।

इस प्रकार धर्मकार्य में लगे हुए वैश्य के दो पुत्र हुए। उनके नाम थे- श्रीकुण्डल और विकुण्डल। उन दोनों के सिर पर घरका भार छोड़कर हेमकुण्डल तपस्या करने के लिये वन में चले गये । वहाँ उन्होंने सर्वश्रेष्ठ देवता वरदायक भगवान् गोविन्द की आराधना में संलग्न हो तपस्या द्वारा अपने शरीर को क्षीण कर डाला। निरंतर श्री वासुदेव में मन लगाये रहने के कारण वे वैष्णव-धाम को प्राप्त हुए, जहाँ जाकर मनुष्य को शोक नहीं करना पड़ता। तत्पश्चात् उस वैश्य के दोनों पुत्र जब तरुण हुए तो उन्हें बड़ा अभिमान हो गया। वे धन के गर्व से उन्मत हो उठे। उनका आचरण बिगड़ गया। वे दुर्व्यसनों में आसक्त हो गये। धर्म-कर्मोकी ओर उनकी दृष्टि नहीं जाती थी। वे माता की आज्ञा तथा वृद्ध पुरुषों का कहना नही मानते थे। धन का दुरुपयोग करते हुए उन्होंने वैश्याओं, गुंडों, नटों, मल्लों, चारणों तथा बन्दियों को अपना सारा धन लुटा दिया। ऊसर में डाले हुए बीज की भांति सारा धन उन्होंने अपात्रों को ही दिया।

इस प्रकारउन दोनों का धन थोड़े ही दिनों में समाप्त हो गया। इससे उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उनके घर में ऐसी कोई भी वस्तु नही बची, जिससे वे अपना निर्वाह करते। द्रव्य के अभाव में समस्त स्वजनों, बांधवों, सेवकों तथा आश्रितों ने भी उन्हें त्याग दिया। उस नगर में उनकी बड़ी शोचनीय स्थिति हो गयी। इसके बाद उन्होंने चोरी करना आरम्भ किया। राजा तथालोगों के भय से डरकर वे अपने नगर से निकल गये और वन में जाकर रहने लगे। अब वे सबकों पीड़ा पहुँचाने लगे। इस प्रकार पापपूर्ण आहार से उनकी जीविका चलने लगी।

तदनन्तर, एक दिन उनमें से एक तो पहाड़ पर गयाऔर दूसरे ने वन में प्रवेश किया। राजन! उन दोनों में जो बड़ा था, उसे सिंह ने मार डाला और छोटे को साँप ने डस लिया। उन दोनों महापापियों की एक ही दिन मृत्यु हुई। इसके बाद यमदूत उन्हें पाशों में बाँधकर यमपुरी में ले गये। वहाँ जाकर वे यमराज से बोले-धर्मराज आपकी आज्ञा से हम इन दोनों मनुष्यों को ले आये हैं। अब आप प्रसन्न होकर अपने इन किंकरों को आज्ञा दीजिये, कौन-सा कार्य करें? तब यमराज ने दूतों से कहा ’वीरो! एक को तो दुःसाह पीड़ा देने वाले नरक में डाल दो और दूसरे को स्वर्गलोक में, जहाँ उत्तम-उत्तम भोग सुलभ हैं, स्थान दो।’ यमराज की आज्ञा सुनकर शीघ्रतापूर्वक काम करने वाले दूतों ने वैश्य के ज्येष्ठ पुत्र को भयंकर रौरव नरक में डाल दिया।

मार्ग में अत्यन्त विस्मित होकर विकुण्डल ने दूत से पूछा-दूतप्रवर! मैं आपसे अपने मन का एक संदेह पूछ रहा हूँ। हम दोनों भाइयों का एक ही कुल में जन्म हुआ। हमने कर्म भी एक-सा ही किया तथा दुर्मृत्यु भी हमारी एक-सी ही हुई फिर क्या कारण है कि मेरे ही समान कर्म करने वाला मेरा बड़ा भाई नरक में डाला गया और मुझे स्वर्ग की प्राप्ति हुई? आप मेरे इस संशय का निवाण कीजिये। बाल्यकाल से ही मेरा मन पापों में लगा रहा। पुण्य-कर्मो में कभी संलग्न नहीं हुआ। यदि आप मेरे किसी पुण्य को जानते हो तो कृपया बतलाइये।

देवदूत ने कहा-वैश्यवर! सुनो। हरिमित्र के पुत्र स्वमित्र नामक ब्राह्मण वन में रहते थे। वे वेदों के पारगामी विद्वान थे। यमुना के दक्षिण किनारे उनका पवित्र आश्रम था। उस वन में रहते समय ब्राह्मण देवता के साथ तुम्हारी मित्रता हो गयी थी। उन्हीं के संग से तुमने कालिन्दी के पवित्र जल में, जो सब पापों को हरने वाला और श्रेष्ठ है, दो बार माघ-स्नान कियाहै। एक माघ-स्नान के पुण्य से तुम सब पापों से मुक्त हो गये और दूसरे के पुण्य से तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई है इसी पुण्य के प्रभाव से तुम सदा स्वर्ग में रहकर आनन्द का अनुभव करो। तुम्हारा भाई नरक में बड़ी भारी यातना भोगेगा। दूत की यह बात सुनकर विकुण्डल को भाई के दुःख से बड़ा दुःख हुआ। उसके शरीर के रोंगटे खड़े हो गये। वह दीन और विनीत होकर बोला- ’साधो! सत्पुरुषों में सात पग साथ चलने मात्र से मैत्री हो जाती है तथा वह उत्तम फल देने वाली होती है अतः आप मित्रभावना विचार करके मेरा उपकार करें। मैं आपसे उपदेश सुनना चाहता हूँ। मेरी समझ में आप सर्वज्ञ हैं, अतः कृपा करके बताइये, मनुष्य किस कर्म के अनुष्ठान से यमलोक का दर्शन नहीं करते तथा कौन- सा कर्म करने वे नरक में नहीं जाते हैं?

देवदूत ने विकुण्डल से कहा कि जो मन, वाणी और क्रिया द्वारा कभी किसी भी अवस्था में दूसरों को पीड़ा नहीं देते तथा अहिंसा को परमधर्म मानते हैं। जो अपनी जीविका हेतु जलचर और थलचर जीव की भी हत्या नही करते। वर्णाश्रम धर्म में स्थित होकर शास्त्रोक्त रुप से ’ईष्ट’ अर्थात अग्निहोत्र, तप, सत्य, यज्ञ, दान, वेदरक्षा, आतिथ्य वैश्वदेव और धार्मिक कार्यो को तथा ’पूर्त’ अर्थात वावली कुंआ तालाब, देव मंदिर, धर्मशाला तथा बगीचे आदि की स्थापना में सतत लगे रहते है।। जो पंगु अंध बाल-वृद्ध, अनाथ रोगी तथा दरिद्रों का पालन पोषण करते हैं। गायों को गोग्रास अर्पण करते हुये गो सेवा करते हैं और गाय का पीठ पर कभी भी सवारी नहीं करते हैं, वे स्वर्ग लोक जाते हैं।

प्रतिदिन प्रातः स्नान करने वाले, बिना स्नान के भोजन न करने वाले, उपर्व में नदी स्नान करने वाले, पृथ्वी स्वर्ण और गौ का सोलह बार दान करने वाले, पुण्य तिथियों में तथा संक्रांति में स्नान दान करने वाले। सत्यवादी, प्रियवक्ता, क्रोधविहीन, सदाचारी, दूसरों की बात गुप्त रखने वाले तथा दूसरे के धन का लालच न करने वाले को कभी भी नरक यातना नहीं मिलती। जो तीर्थ को जीविका का साधन नहीं बनाता तथा गंगाजल में पवित्र होने वाला भी नरक में नहीं पड़ता।

जो परस्त्री के प्रति मातृभाव रखते हैं और माता पिता की देवता के समान आराधना करते हैं जो स्त्रियां अपने शील सदाचार की रक्षा करती हैं उन्हें उत्तम स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है। वेद पुराण सुनने तथा उनके ऊपर निष्ठा रखने वाले का भव बन्धन नष्ट हो जाते हैं।

ँ नमो नारायण का जप करते हुये जो श्री हरि विष्णु का पूजन करते हैं, शालिग्राम शिला का पूजन कर उस पर चढ़ाये जल का आचमन करते हैं। एकादशी का व्रत रहने वाला अत्यंत पुण्य वान होता है और वह मनुष्य पितृकुल, मातृकुल एवं पत्नीकुल का उद्धार करने वाला होता जो शालिग्राम शिला के निकट श्राद्ध करता है उसके पितर सौ कल्पों तक स्वर्ग मे तृप्त रहते हैं। दरिद्र से दरिद्र को भी पत्र,फल,मुल तथा जल आदि देकर अपना जीवन सफल बनानाउ चाहिये। मनुष्य मोह के वशीभूत अनेकों पाप करके भी यदि श्री हरि के चरणों में मस्तक झुकाता है तो नरक में नहीं जाता।

इस सम्पूर्ण कथा से शोध के निम्न बिंदु के किनारे था।
1. विषध नगर अथवा क्षेत्र के किनारे था।
2. वह नगर पैराणिक एवं समृद्ध था।
3. वह यमुना के उत्तर तट पर बसा था और दक्षिण तट पर हरिमित्र का आश्रम था।
4. वैष्य पुत्रों को देवदूत द्वारा बताये गये पौराणिक धार्मिक परंपराओं का निर्वहन किस वैश्य उपसर्ग द्वारा किया जाता है।
5. निषध क्षेत्र में पैराणिक ण्काल (लगभग 3000 पूर्व) के विष्णु और शिवमंदिरों के सांस्कृतिक अवशेष होने चाहिये।

इन बिन्दुओं के उत्तर ‘कानपुर एक सिंहावलोकन’ के प्रकाशन के दौरान मुसानगर के पुरातात्विक विवरणों में मुझे प्रतिबिम्बित होने लगे और मैं तथ्यों को संग्रह करने में जुट गया। उपवर्णित बिन्दुओं पर तार्किक पुरातात्विक शोध करने से निम्न निष्कर्ष प्राप्त होते हैं।

‘निषध’ का शाब्दिक अर्थ जहाँ निषाद निवास करते हों होता है और यमुना के किनारे बसा मूसानगर निषाद बाहुल्य प्राचीन समृद्ध नगर पौराणिक काल से रहा है।

प्रसिद्ध पुरातत्वविद् निंबियाखेड़ा के मंदिरों के खोजकर्ता श्री एल0एम0 बहल जी ने अपने लेख प्रौगतिहासिक क्षेत्र जनपद कानपुर में वैदिक इन्डेक्स के हवाले से सिद्ध करते हैं कि गंगा समुना के क्षेत्र में निषाद संस्कृति आर्य संस्कृति के पूर्व थी। इस संबंध में वे वैदिक साहित्य के विद्वान मैकडानल व कीथ के मत को निम्नवत प्रस्तुत करते हैं।

"The Vedic Aryans, on reaching the plains of northern India, encouraged certain aboriginals mtribes whom they called the Nishads and described them as having a dark complexion, short structure and flat nose (ans).” Vedic Indx Lender, 1912.

वैज्ञानिक परीक्षण एवं उससे प्राप्त परिणामों के साक्ष्यों के अनुसार इतना तो अवश्य ही कहा जा सकता है कि ताम्रयुगीन ई.पू. 2100 वर्ष में तो अवश्य गंगा यमुना कांठे में पल्लवित रही होगी, सम्भवतः एवह इस काल से भी और अधिक प्राचीन रही हो।

जब हमने इस क्षेत्र के पौराणिक प्राचीन सांस्कृतिक एवम् पुरातात्विक अवशेषों का अध्ययन आरम्भ किया तो मूसानगर क्षेत्र (मूसानगर-उमरगढ़ काटर व आस-पास के गांव) उपरोक्त आधार पर चिन्हित होता है क्योंकि मूसानगर (उमरगढ़) यमुना के उतार मे है तथा उमराहट (हरिमित्र का आश्रम) यमुना के दक्षिण में हैं।

वर्तमान समय मे भारत के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के डायरेक्टर जनरल श्री राकेश तिवारी तथा पुरातात्वविद् राकेश कुमार श्रीवास्तव ने वर्ष 1993 में इस क्षेत्र का गहन सर्वेक्षण किया और उनके सर्वेक्षण पुरातत्व विभाग की पत्रिका प्राग्धारा के अंक 1 तथा अंक 4 में विस्तृत रूप् से फोटोग्राफ सहित प्रकाशित हुये उनके सर्वेक्षण के अनुसार
1. विन्ध्य क्षेत्र के भोजन संग्रह करने वाले मानव ने जब अनाज उगाना सीखा तो कदाचित् समुना-तट का यह भू-भाग भी उन्हें खेती के लिये उपयोगी लगा होगा। संभव है कि उन्होने कुछ दिनों यहाँ भी डेरा डाला हो। यहां से मिली पत्थर कुल्हाड़ी ऐसा सोचने के सूत्र प्रदान करती है। लेकिन ऐसी कुल्हाड़ियां तो किसी के द्वारा, किसी अन्य के स्थान से भी, यहां लायी जा सकती हैं ? इनका काल सामान्यतः 1500 ई0पू0 से पहले का होना चाहिए लेकिन कुछ जगहों के पुरातात्विक उत्खानों में ये उपकरण मध्यकालीन जमावों में भी पाये गये हैं, जो कि इनके मूल संदर्भ से स्थानान्तरित होने का पमाण प्रस्तुत करते हैं। इसलिये इस क्षेत्र से खेती की शुरूआत करने वाली सांस्कृतिक (नवाश्म काल) के अन्य पुष्ट प्रमाण और ऐसी कुल्हाड़ियों का प्रामाणिक सांस्कृतिक संदर्भ मिलन इस विषय में कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी। ण्फिर भी, ऐसे प्रमाण मिलने की संभावनाओं की जांच तो होनी ही चाहिए।
2. मूसानगर के टीले से उत्तर हड़प्पायुगीन मुद्रा-छाप (मेसोपोटामिया की तत्कालीन मुद्रा-छाप से प्रभावित) का मिलना भी कुछ बताता है? क्या यहां के प्राचीन निवासियों का पश्चिमी भारत के हड़प्पा संस्कृति अथवा तत्कालीन अन्य संस्कृतियों से, परवर्ती युग में, कोई सम्पर्क था? यह अवशेष अन्य प्रकृति अथवा मानवजन्य कारणों से भी यहां आ सकता है? इस युग के अन्य सांस्कृतिक अवशेष क्या यहां मिलते हैं? एक ही साक्ष्य पर परिणाम निकालने का उपक्रम तर्कसंगत नहीं है ? इन आयामों को अग्रेतर अध्ययन की कसौटी पर कस कर ही कछ कहना श्रेयस्कर होगा।
3. पश्चिमी और पूर्वी उत्तर प्रदेश में दूसरी सहशास्त्री की संस्कृतियों की तस्वीरें धीरे-धीरें साफ हो जा रही है, पास ही के इटावा जिले के सई-पई से भी गेरूए रंग के बर्तनों वाली सुस्कृति (ओ.सी.पी. संस्कृति) के अवशेष मिल चुके हैं। लेकिन पूर्व-पश्चिम के बीच के इस भाग में तत्कालीन संस्कृतियों की पर्याप्त जानकारी अभी नहीं मिल सकी हैं ऐसा तो नहीं होना चाहिये कि यह भू-ीाग उस समय पूरी तरह सांस्क1तिक शून्यता में रहा हो? और खोंजे तो शायद पूर्व पश्चिम के कुछ सम्पर्क के कुछ सम्पर्क-सूत्र जुट जायें?
4. टीले के विस्तार और पूरे विस्तार में फैले सघन पुरावशेष यहां छोटी-मोटी बसावट नहीं बरन् एक बड़े नगर के रहे होने होने की कहानी संजाये दिखाते हैं। नगर की साधारण नहीं, ऐसा बड़ और महत्वपूर्ण कि जहां का शासक अष्वमेघ यज्ञ कराने का साक्ष्य लिखवा कर छोड़ गया? इससे यहां की उततलिक राजनैतिक सुदृढ़ता का ज्ञान भी होता है।
5. यहां की भौगोलिक स्थिति और परिस्थितिजन्य विशेषतायें भी बहुत कुछ कहती हैं? कौशाम्बी और उससे आगे प्रतिष्ठापुर वाराणसी , पाटलिपुत्र की और यमुना क ेजल मार्ग के जाने वाली व्यापारिक नौकाओं के बेड़े यहां विश्राम और व्यापार के लिये अवश्य लंगर डालते होंगे? यहां मिलने वाले मथुरा क्षेत्र के लाल चित्तीदार बलुआ पत्थर के वास्तु अवशेष, सिक्के और मुदायें इस पक्ष को बहुत कुछ उतार करते दिखते हैं ?
6. इस नगर का राजनैतिक स्थायित्व लम्बे समय तक ऐसा रहा होगा कि शांतिपूर्ण जीवन जीने वाले नागरिक भिन्न-भिन्न मत-मतान्तरों, यथा बौद्ध-जैन-ब्राम्हण, को मानते हुए एक साथ रह सकें तथा व्यापार, कला और अन्य सकारात्मक कार्यों के लिये अनुकूल वातावरण बन सके।
7. यहां की अत्यन्त सुंन्दर मिट्टी और पत्थर की कृतियां कौशाम्बी और मथुरा काशी की कलाकृतियों से स्पर्धा करती दिखाती है। यहीं के शिल्पी और कलाकार इन्हें गढ़ते थे? या कहीं और के कलाविदों ने इन्हें रूपायित किया? कहीं से गढ़वा कर ये कृतियां यहां मंगवायी गयीं? अथवा श्रेष्ठ शिल्पियो की श्रेणी को यहां बुलवा कर दूरस्थ क्षेत्रों से आयातित पत्थर आदि सामग्री से इन कलाकृतियों को निरूपित कराया गया ?
8. यहां से मिले पुरावशेषों को काल-क्रम में रखने पर आसानी से कहा जा सकता है कि आज से कम से कम 3000 वर्ष के आस-पास तो यहां मानव बस्तियां बस गई थीं (यह अवधि कुछ और पीछे भी जा सकती है) और तब से यह स्थान निरन्तर आबाद रहा है (?)

लेखक द्वय ने अपने सर्वेक्षण के बिन्दु संख्या 9 में जिज्ञासा प्रस्तुत की किए ‘राजनैतिक प्रमुख’ स्थायी सामाजिक जीवन से युक्त धन-धान्य से परिपूर्ण, समुन्नत व्यापारिक केन्द्र और सर्व धर्म की इस महानगरी की ्रपाचीन पहचान क्या थी? किस नाम से अभिहित रही होगी यह नगरी? अश्वमेध यज्ञ कराने वाले यशस्वी देवमित्र किस वंश के कुल-तिलक थे? जिनके गौरव के प्रतीक टीले से मिलकर हमें कौतुक में डाल रहे हैं ? हमारे वे पूर्वज कौन थे ? गहरे डूबे तो शायद इन बातों का कुछ अता-पता चले ?’

उनके प्रश्न का उत्तर पद्म पुराण की यह कथा देती है कि उस नगरी का नाम ‘निषध’ था क्योंकि पद्म पुराण की कथा में वर्णित भौगोलिक आधार पर मुसानगर यमुना के उत्तर में है एऔर उसकी पौराणिक बसावट उमरागढ़ है तथा यमुना के दक्षिण तट पर वर्णित हरिमित्र के आश्रम का स्थान ‘उमरहट’ के नाम स जाना जाता है। इस क्षेत्र में यमूना ‘ऊँ’ का आकार बनाती है। यहां पर उमर शब्द की उत्पत्ति तथा क्षेत्र के ग्रामों के नामकरण हेतु बिन्दु संख्या 4 की चिवेचना समीचीन होगी।

वस्तुतः पद्म पुराण के आख्यान में वर्णित धार्मिक परम्पराओं का पालन तत्कालीन मूसानगर क्षेत्र के वैष्य वर्ग करना आरम्भ किया जिसमें प्रमुख धारा ऊँ हरि की शरण में जाना तथा यमुना के ऊँ आकार के कारण ऊँ हरि आस्था समूहों का विकास रहा जो कालान्तर में अपभ्रंस होकर ओमर-ऊमर हुआ। इसी कारण तत्कालीन नगर जिसे वहां लोग गढ़ का भूकम्प में उलटना मानते हैं को ‘उमरगढ़’ तथा ‘हरिमित्र आश्रम’ के स्थान हो ‘उमरहाट’ ‘ऊँ’ हरि के लोगों का मिलन स्थल कहने लगे तथा समूह के वैष्यों को ओमर-ऊमर। इस समाज का विस्तार हुआ जो यमुना गंगा दोआब में प्रचलित हुआ और वहां के पुरातात्विक तथा सांस्कृतिक अवशेष एवं देवदूत द्वारा धार्मिक परम्पराओं का पालन ओमर-ऊमर वैश्यों द्वारा करने के कारण उपरोक्त तथ्या सिद्ध होता है।

धार्मिक दृढ़ता से सजातीय विवाह पद्धति विकसित हुइ्र और वह आज भी प्रचलित है। मुसानगर उमरगढ़ के प्राप्त अवशेष यह प्रमाणित करते हैं वहां पर समृद्ध नगर तथा विष्णु, शिव मंदिर थे इन मंदिरों में पौराणिक देवी देवताओं की मूर्तियां थीं।

मोक्ष प्राप्त करने हेतु इस क्षेत्र में निवास करने तथा देवदूत द्वारा वर्णित धार्मिक परम्पराओं का पालन करने के कारण इस क्षेत्र को ‘मोक्ष नगर’ के रूप् में चर्चित किया गया जो कालान्तर में अपभ्रंश होकर ‘मूसानगर’ हुआ। भवबन्धन से मुक्ति प्राप्त करने हेतु अश्वमेघ आदि यज्ञ कार्य यहाँ सम्पन्न होने लगे। इस कारण इसे मुक्तानगर भी कहा गया। मुक्तादेवी मन्दिर का यहाँ पर होना इस तथ्य की पृष्ठि करती हैं।

श्री तिवारी एवम् श्रीवास्तव के सर्वेक्षण के अनुसार वैष्णव प्रतिमाओं में नृसिंह, वामन वराह, चतुर्भुज विष्णु, सर्प, गरूड़, सूर्यपुत्र रेवन्त, सप्त मातृकाओं, लज्जा गौरी, कुबेर ब्रह्मा एवं शिव मूर्तियां मुक्ता देवी मंदिर परिसर में संग्रहीत हैं तथा इस क्षेत्र के अनेक मन्दिरों में प्राचीन प्रतिमाओं के अवशेष रखे हैं। इस संदर्भ में निम्न चित्र अवलोकनीय हैं। इनका काल निर्धारण ईसा पूसर्व काल खण्ड है और प्राप्त पुरावशेषों का काल खण्ड पुराण रचना कल से मेल खाता है।

मूसानगर के टीले से समय-समय पर प्राप्त पुरावशेषों में से पालिशयुक्त प्रस्तर-कुल्हाड़ (पालिस्ड स्टोन शेड) उत्तर हड़प्पा युगीन मुद्रा छाप, चित्रित धूसर पात्र (पी.जी.डब्ल्यू.), उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र (एन.बी.पी. वेयर) काले लाल पात्र (ब्लैक एण्ड रेड वेयर), तथा शुंग-कुषाण और मध्यकाल काल के परवर्ती पात्र, शुंग-कुषाण काल के तांबे के सिक्के, अस्थि-बाणाग्र एवं सूजे, मिट्टी और पत्थर के मनके, अभिलिखित मुद्रा-छापे (इन्सक्राइब्ड सीलिंग्स), शुंग-कुषाण कालीन वदिका-स्तम्भ एवं सूचियों, ब्राम्हण-जैन-बौद्ध प्रतिमाएं और मृणमुर्तियां तथा जले हुये अन्न आदि के अवशेष इस स्थल के बहुआयामी पुरातात्विक महत्व का परिचय देते रहे हैं।

मुक्ता देवी मंदिर-परिसर में संग्रहीत प्रतिमाओं में से सिंह के साथ प्रदर्शित शिव की कुषाण कालीन दुर्लभ प्रतिमा अने विशिष्ट लक्षणों के लिए मूर्ति-कला विशेषज्ञों द्वारा बारम्बार चर्चित होती रही है। यहां की अन्य मूर्तियांं का अध्ययन शोध का विशिष्ट विषय बन सकता है। हाल ही मे मूसानगर के निकट स्थित काटर और उमरगढ़ से प्रकाश में आये प्रथमशती ई0पू0 के अत्यंत सुन्दर तोरण-द्वार के अवशेषों से प्रकाश में आये प्रथम शती ई0पू0 के अत्यंत सुन्दर तोरण द्वार के अवशेषों ने एक बार फिर एक क्षेत्र की ओर ध्यान आकृष्ट काराया है। इससे उनको द्वारा कराये गये मंदिर निर्माण की सत्य सिद्ध होती है।

देवदूत द्वार बताये गये धार्मिक परम्पराओं का पालन यथा, कुंआ तालाब बनवाना, सोलह संस्कारों में स्वर्णदानए तथा गौदान करना, गंगाजल का उपयोग, एकादशी व्रत तथा संक्रान्ति में स्नान दान प्रतिदिन प्रातः स्नान करके ही भेजन ग्रहण करना, शालिग्राम पूजन तथा चरणामृत पान, ऊँ नमो नारायण की दीक्षा लेकर जप करना। अहिंसा आदि परंपराओं का पालन अभी भी किया जाता है। दूसरों की बात गोपनीय रखने के कारण यहाँ के वैष्यों ने ‘गुप्त’ तथा ‘गुप्ता’ का उपनाम अंगीकार कर मूल नाम के उपरान्त लगाना आरम्भ कर दिया जो अभी भी प्रत्रलित है।

मूसानगर में श्रृंगारयुत महिलाओं के दर्शित श्रृंगार प्रतीक अभी भी परम्परागत रूप् में विवाह में तथा पूजन में ‘सुहाग टिपरियां’ देवी को अर्पित करने में किया जाता जो इस बात का प्रमाण है कि मूलतः ओमर-ऊमर समाज इसी क्षेत्र का मूल निवासी था। उसमें दर्शित जेवर अभी भी परम्परागत रूप् से विवाह में कन्या को पहनाकर उसका पंच चुड़ भी बनाया जाता है।

श्री तिवारी तथा श्रीवास्तव ने अपन द्वारा लिखित बिंदु 5 में लिखा है कि मूसानगर जलमार्ग से व्यापारिक क्षेत्रों से जुड़ा था अतः यहां के व्यापारी जलमार्ग से आगे बढ़े और कौशाम्बी के पतन के पश्चात् इलाहाबाद से आगे प्रमुख व्यापारिक केन्द्र मिर्जापुर में जा बसे इसीलिये वहां ऊमर वैश्य बड़ी संख्या में हैं। विकास के साथ साथ यह साजए मैदानी क्षेत्रों में भी फैल गया।

यदि मूसानगर को केन्द्र मानकर 25 मील 25 मील की परिधि खींचा जाये जो वर्तमान ओमर-ऊमर समाज के मूलग्राम यथा-मूसानगर, पुखरायां, गढ़ाथा, कुटरा मकरन्दपुर, रेउना, गजनेर, हमीरपुर, मौदहा, बिदोखर, बीबीपुर, जहानाबाद, भरूआ सुमेरपुर, पतेयुरा, अमौली, गढ़ी बिन्दकी बुढ़वां दौलतपुर, बारा, देवमई, रमईपुर, मझावन, नौरंगा तथा जहानाबाद आदि प्रमुख ग्राम इसी क्षेत्र में हैं। उन्नीसवीं सदी में कानपुर बसने के कारण ओमर-ऊमर समाज की बड़ी मात्रा में यहाँ बस गया तथा कुछ लोग गंगा पार शाहजहांपुर, मल्लावां, हरदोई तिलहर, शाहाबाद, बिलग्राम आदि में बस गये।

अकबर के शासनकाल में हुए जमीन बन्दोबस्त में मूसानगर का क्षेत्र कोड़ा जहानाबाद सरकार में निहित हुआ। अतः इस क्षेत्र के ओमर समाज को जहानाबादी, गंगापार क्षत्र के समाज को पछइयां तथा मिर्जापुर तथा पूर्वांचल के समाज को ऊमर थोक कहा जाने लगा।

यह समपूर्ण विवेचना भली प्रकार सिद्ध करती है कि पद्म पुराण में वर्णित कथा के आधार पर ‘ऊँ हरि’ आस्था समूहों से ओमर-ऊमर समाज का प्रादुर्भाव मूसानगर क्षेत्र में ही हुआ है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह सिद्ध होती है कि यदि पुराणो के कथानकां की पुरातात्विकों आधार पर मीमांसा की जाये तो वह सर्वथा सत्य प्रमाणित होते हैं।

यह मेरी शोध का सारांश है। मेरा प्रयास है ि कइस शोध को विस्तृत रूप से एक ग्रथ के रूप में प्रस्तुत किया जाये ताकि ओमर-ऊमर वैष्य समाज अपनी प्राचीनता एवम् इतिहास को अक्षुण्ण रूप् से संरक्षित कर गौरवान्वित हो।

इस शोध कार्य हेतु मैं भारत के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के डायरेक्टर जनरल श्री आर.के. तिवारी, इसी विभाग के विद्वान श्री एल.एम. बहल, कानपुर के वरिष्ठ संरक्षण सहायक श्री मनोज वर्मा, श्री आर.एन. त्रिवेदी (पूर्व आई.ए.एस.), कानपुरियम के संयोजक श्री मनोज कपूर संस्कृत भाषा के ज्ञाता श्री संदीप गुप्ता आदि का विशेष आभार ज्ञापित करता हूँ। अन्त में मैं सभी विद्वान तथा सुधीरजनों से अनुरोध करता हू ि कइस विषय में यदि अन्य जानकारी प्राप्त हो तो मुझे अवगत कराकर कृतार्थ करें।

आभार

महासभा केन्द्रीसय कार्य समिति सत्र 35 में महासभा अध्यक्ष श्री राम प्रकाश ओमर, महामंत्री श्री धर्म प्रकाश गुप्त, माननीय सुरेन्द्र कुमार गुप्त, ‘गोल्डी’ स्वजाति रत्न महेश गुप्ता एड., प्रचार मंत्री श्री श्यामि कशोर कुक्कू महिला परिषद अध्यक्ष श्रीमती बीना गुप्ता, युवजन संघ अध्यक्ष श्री अजय गुप्ता सहित अपने सभी पदाधिकारियों, कार्यसमिति सदस्यों, वरिष्ठ सलाहकारों तथा सभी सहयोगकर्ताओं तथा नवनिर्वाचित अध्यक्ष श्री कैलाश नारायण गुप्ता के प्रति अपना आभार ज्ञापित करती है और कामना करती है कि सबका सहयोग यथावत सदैव प्राप्त होता रहेगा।

लेख साभार :

Akhil Bhartiya Omar Umar Vaishya Mahasabha
omarumarvaishy.com/history.php

ओमर-ऊमर वैश्य जाति का उद्भव
शोधकर्ता - धर्म प्रकाश गुप्त

Tuesday, November 1, 2016

MAHURI VAISHYA CASTE - माहुरी वैश्य

MAHURI  VAISHYA CASTE - माहुरी वैश्य 

औरंगजेब के शासन काल में माहुरी गण मथुरा निवासी थे। औरंगजेब समूचे भारतवर्ष वासियों को अपने धर्म में परिवर्तन कराना चाहता था। इसलिए उसने निश्चय किया की वो शीरनी ( एक प्रकार का मीठा ) खायेगा और देश की सारी जनता उसके बाद घर्म की पुष्टि के लिए खा लेगी, इसतरह सबका घर्म परिवर्तन हो जायेगा और सारे भारतवासी एक उसके धर्म के हो जायेंगे।

कुछ चतुर दरवारीयों ने युक्ती लगाई और इसे नामुमकिन बताया और इसकी सफलता पर प्रश्नन उठाया, इतनी बड़ी दावत का खर्च और जगह की कमी की बात बता कर औरंगजेब को राजी किया की केवल सभी दरबारी ही उसका छोड़ा हुआ शीरनी (मिठाई) की जगह बादशाह का पिया हुआ हुक्का पी लेंगे जीससे उनके अधीन जितनी जनता आती है उनसबों का स्वाभाविक धर्म परिवर्तन माना जायेगा।यह कम खर्च वाली बात, स्वभाव से कंजूस, बादशाह को पसंद आ गई और हुक्का पिने की बात मान गया तथा उसके लिए उसकी एक तिथि घोषित कर दी गई।

चतुर दरवारियों की यह चाल कामयाब हुई क्योंकि हिन्दू हुक्का पीने का जूठा नहीं मानते थे और वख्त पड़ने पर हुक्का सभी से बांट कर पी लेते थे।

लेकिन माहुरी गण हुक्का कभी नहीं पीते थे, धूम्रपान माहुरी समाज में पूर्णतः वर्जित था, धूम्रपान करते पाये जाने से समाज से ही वाहिष्कृत कर देने की प्रथा थी और पूरा माहुरी समाज पूर्णतः शाकाहारी था। आज भी यदि किसीकी गलती से रसोई में मांसाहारी वास्तु बानी तो माहुरी स्त्रीयां उन बर्तनों को आज भी फेंक देती हैं।कुछ माहुरी स्त्रियाँ व मर्द प्याज लहसुन तक खाने की बात छोड़ उसे हाथ तक नही लगाते ।

बादशाह का छोड़ा हुका पिने का दिन यानि धर्म परिवर्तन वाले दिन आने के पहले ही माहुरीगण अपने धमॅ,संस्कृति एवं अपने अस्तित्व को बचाने हेतु करीब 700 परिवार मथुरा से गया शहर को प्रस्थान कर गए । माहुरी 700 परिवार मथुरा से मुगलों के अत्याचार का विद्रोह करते हुए करीब 400 वर्ष पूर्व पहले गया शहर आये परंतु, यहां भी मुगलों की पहुंच महुरीयों को मजबूर किया बिहार के घने स्थानों में बिभाजित होने के लिए , कुछ गया के पास वाले स्थानों बिहारशरीफ , नवादा, बरबीघा, कोडरमा इत्यादि, जो ज़्यादातर उस समय जंगलों जैसे थे , दूसरी ओर, कुछ लोग दूसरी ओर गिरिडीह के घने, अनेक स्थानों मे अवस्थित हुए उस समय गिरिडीह की यात्रा काफी कठीन मनी जाती थी |हालांकि, सुचारू तो आजतक भी नही हुई है| इस तरह माहुरी जाती दो भागों मे विभक्त अनायास ही हो गई और एक दूसरे से बिछड़ गए क्योंकि गया के इलाके से गिरिडीह के इलाकों से, एक जगह से दूसरे जगह जाना आना उस समय लगभग नामुमकिन सा था | इसतरह ये एक दूसरे से 200/ 300 वर्षों तक अलग रहे|

1912 वर्ष में स्वर्गीय कारु राम जी अठघरा के अथक प्रयास से "मगध माहुरी महामंडल " गया के पास पावन स्थल रजगीरीह में स्थापित करवाई|पुनः एक वर्ष के बाद 1913 में गिरिडीह के खरकडिहा में "हज़ारीबाग़ माहुरी वैश्य महामंडल " की भी स्थापना करवाई|स्वर्गीय बाबू कारु राम जी अठघरा की दूरदर्शिता महुरी समाज के लिए हमेशा प्रेरणात्मक रहेगी|

तदुपरांत, 1914 वर्ष मे स्व. प्रभु दयाल गुप्ता ,झरिया निवासी, ने एक बहुत ही रचनात्मक कार्य ,"माहुरी मयंक" पत्रिका का प्रकाशन इंग्लैंड से प्रेस मांगा कर ,झरिया से कमला प्रेस स्थापित कर,बहुत समय तक निःषुल्क पत्रिका वितरण करवाई|कमला प्रेस की स्थापना शुरू में केवल माहुरी मयंक मुद्रण के लिए ही उन्होंने की थी, अन्यथा वे मुख्यतः colliery owner व coal marchant थे।

इस तरह माहुरीमयंक के द्वारा दोनों माहामण्डलों में विचारों का आदान प्रदान होने लगा| कालान्तर में बाबू प्रभु दयाल की अध्यकछता में बरबीघा महाअधिवेसन में अपने दो भाई तथा हिसुआ के घनाडय जमींदार के पुत्र, तीन लड़कों की शादी भरकठा ,गिरिडीह की तीन कन्यायों से निर्धारित कर दखिन ~मगह यानी मगध एवाम् हज़ारीबाग़ महामंडल को एकजुट करवाया|इस महामंडलों की मिलन देखने महुरीगंन दूर दूर से पधारे थे| यह एक ऐतेहासिक प्रसंग था ,तब के बाद से आज भी दोनों महामण्डलों मे वैवाहिक संबंध धड्ड्ले से होते आ रहे हैं|

यह मिलन  माहुरी समाज को बहुत उच्चाईयों तक ले गया, दोनों समाज के बड़े बड़े व्यापरीयों में वैवाहिक सम्बन्धों के साथ देश के सबसे बड़े व्यपारिक परीवारों के बराबरी में लाकर खड़ा कर दीया, यह पूरे माहुरी समाज का स्वर्णिम समय था|एक परीवार,जो CH के नाम से प्रचलित है जिसमें छट्ठू राम होरीलराम, छट्ठू राम दर्शन राम ई. ने अबरख (Mica) खनिज के उत्पादन और निर्यात में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की,साथ ही साथ गया के सफलतम व्यपारी, राय बहादुर राम चंद राम के पुत्र लाला गुरुशरण लाल भदानी से मिल कर गया , बिहार में पहला Textile मिल, गया कॉटन एंड जूट मिल, जो पुरे गया शहर को बिजली भी मुहहैया करवाया, लगाया बाद में गुरुशरण बाबू ने sugar मिल, glass मिल तथा कई तरह की industries की झड़ी लगा दी, देश की सबसे बड़ी ग्लास फैक्टरी भुरकुंडा में Bhurkunda Glass Factory लगाई साथ ही साथ सोघपुर, कलकत्ता में विश्व की सबसे बड़ी सोधपुर ग्लास फैक्टरी स्थापित करने की शुरुवात कर दी । अपने ही एक मैनेजर DNAgrawal को ग्लास स्पेशलाईजेसन के लिए विदेश भेजा जो बाद देश में Safex glass का निर्माण किया और विदेशों में कई ग्लास फैक्ट्री लगवा कर Indian Multinational बने।

जुगिलाल कमलपत सिंघानिया( J K )से इनकी घनिस्टता थी इनके घर " कमला टावर " कानपूर में ही इनका देहवास हो गया। गुरुशरण भादानी देश के सबसे महत्वपूर्ण व्यापारिक पद President of Federal of Indian Chamber of Commerce and Industries ( FICCI ) चुने गये,उनके द्वारा दिए गए सुझाव आज भी सराहनीय हैं|FICCI द्वारा Platinum Jubilee के अवशर पर प्रकाशित volume पर लाला गुरुशरण लाल के कार्य को मुख्य स्थान दीए गए |वे बिहार चैम्बर ऑफ़ कामर्स के प्रेजिडेंट के साथ साथ बिहार सरकार के वित्तीय सलाहकार भी मनोनीत हुए।

अबरख के व्यपार तथा निर्यात में झुमरी तिलैया (कोडरमा) के CH,CD और Indian Mica & Micanite Industries के अलावे गिरिडीह के KPR यानी स्व. कमलापति राम तरवे , RPTarwe & Co. जैसे स्वजातियों ने Japan और अमेरिका जैसे देशों में अबरख व्यपार की धूम मचा कर रख दी। Japan की सबसे बड़ी ग्रुप ऑफ कंपनी से KPR के घने सम्बन्ध थे।

स्व. कमलापति तरवे हजारीबाग महामंडल के स्थाई अध्यक्छ व संग्रक्छक थे। उनके पुत्र स्व. बसुदेब तरवे Japan की" नीहों शोही" ग्रुप ऑफ़ कम्पनी में काफी शुमार हुवा करती थी। वे अधिकतर Japan में ही अवस्थित थे। RPTarwe & Co के संथापक स्व.राम प्रसाद तरवे और उनके पुत्र श्री अजित तरवे curt flower की विशेषता प्राप्त कर अबरख व विभिन्न प्रकार के निर्यात करके आज भी तरवे परिवार देश की विदेशी मुद्रा कोष को मजबूत कर रहें हैं।

CH के C ग्रुप अहमदाबाद में गुजरात कॉटन मिल नगद, ढाई लाख तोले सोना बेच कर खरीद डाला। इतना सोने की बिक्री कलकत्ते सराफा बाजार को हिला कर रख दिया, सोने के तत्काल भाव गिर कर रिकॉर्ड बनाया।इनको अमेरिकन मोटर कार कंपनी विंटेज बेबी कार, जो ओपन कार भी थी, उपहार स्वरुप, बड़े कार क्रेता होने के कारण, प्रदान किया।

इनके H ग्रुप ने बम्बई शहर में हीरजी कॉटन मिल ख़रीदा जिसे झरी राम भदानी बहुत सफल तारिके से चलाया, ये दानवीर बिहारी सेठ ऑफ़ बॉम्बे कहलाये, यहां गरीबों और जरुरतमंदों को छूट कर दान दिया, इन्होंने ही वहां अपनी जमींन पार्क बनाने हेतु दान कर दी जो पुरे भारत में "कमला नेहरू पार्क " के नाम प्रसिद्ध है। इस पार्क में जूते कि शकल वाली structure बनाई गयी है। ये बेशकीमती घोड़ों के मालिक रहे हैं, बेरी डांस,चेतक व पवन जैसे नामचीन घोड़े हवाई जहाज से डर्बी रेस पर जाते, इनके अस्तबल वातानुकूलित होते तथा जीतने पर इनके जौकी इन्हें vat69 पिलाते, इनके खुराक अच्छे आछो को नसीब नहीं होते।

भारतवर्ष में उस समय तेजी से industrialisation होने लगा और सम्पति कर से बचाव व बड़े व्यापार और बढाने लिए कंपनी का फैशन बढ़ा जो निहायत ही पेचीदा आज तक है Indian Companies Act जो वर्ष 1956 में आ पाई। उसके पहले कम्पनी कानून और जटिल थी, आज भी SawWallace, Duncans जैसी Multinational Companies नहीं बच पायी और भारतीय व्यपारियों विजय माल्या और मन्नू छाबड़िया (दुबई के भारतीय व्यपारी)के हाथों आ गई और बहुत जल्द ही इनके हांथों से भी फीसल कर ब्रिटेन चल गई। कंपनी का management पाया जा सकता है पर कम्पनी का मालिक बनना मुमकिन नहीं।कई भारतीय भी इस लपेटे में आ गए और करीब सभी माहुरी कम्पनियो की भी यही दशा हुई।माहुरी परिवार भी यदि पबलीक कम्पनी नहीं खोलता या खरीदता होता तो बहुत कुछ बाच गया होता और इतना बड़ा नुकसान नहीं होता। आज CH प्राइवेट कम्पनी इस लिए बच पाया क्योंकि ये प्राइवेट ली. कम्पनी है जिसका कंट्रोल परिवार व चंद पारिवारिक मित्रों ही सिमित होता है, आज भी एकमात्र CH P.Ltd. कम्पनी की हैसियत अरबों में है।

वर्तमान समय में industrialisation की उम्मीद माहुरी शिक्छितों से भी की जा सकती है, इनमें से कुछ माहुरी यंग छात्र वीलक्छ्न प्रतिभा रखते है और पढाई पूरी करते करते कई कम्पनियाँ खड़े कर चुके हैं ISRO से जुड़ चुके हैं, विदेशी ताकतें बड़ी पूँजी का दाँव इन पर लगाने को तैयार हैं । वैसे जैसे yahoo,google नयी टेक्नॉलॉजि से अंतररास्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है।

माहुरी हमेशा से ही उच्च स्थान प्राप्त जाति रही है, H.H.Pislay, ICS, अपनी किताब में जो 1891में प्रकाशित हुई थी, जिसमें माहुरी जाती की बिहार राज्य में स्थिति काफी सुदृढ थी,उस समय बिहार राज्य बंगाल में मिला हुआ था, और अग्रवाल बनियों के बराबर की स्थित जैसे थे, सिखों की तरह ही तम्बाकू का प्रयोग महुरी समाज में पूर्णतयः निषेध था, इसे व्यवहार करते पाये जाने पर समाज से निष्कसित कर दिया जाता था| एक और सबसे बड़ी विशेषता यह थी की इस जाती में शादियां हेमेशा दूल्हे के स्थान पर हुआ करती थी| व्यपार और सुद का ही मुख्य धंधा इनका काम था जिसमें ज्यादातर लोग जमींदार जैसा उच्च स्थान पर अवस्थित थे, जिंमेंसे कइयों को अलग अलग उपाधि प्राप्त थी,जिन्हें पंगत पर खाने के लिए उच्च स्थान यानी अलग से पीढ़ा बैठने के लिए दिया जाता था| चौधरी जैसा टाइटल महुरीयों के नाम के पीछे नहीं होता है परंतु ये चौधरी कहलाते थे और नाम के पीछे चौधरी की तरह उपनाम लिखते थे|ऐसा एक परिवार बस्ताकोला, धनबाद में अवस्थित हैं इन सबों का वर्णन आगे किया जायेगा| जमींदारी उन्मूलन और अबरख खनिज व्यवहार की प्रायः समाप्ति माहुरी समाज को काफी छती पहुंचाई|अबरख का व्पापार और उत्पादन माहुरी समाज का प्रमुख धंधा हो चला था|

माहुरी जाती की सरलता और साथ ही साथ वैभवता भी बेमिशाल मानी जाती हैं, सादगी की बात करें तो इनके विवाह पांच गज सूती वस्त्र (ननकीलाट) दूल्हे और दुल्हन को पहना कर व दहेज़ के नाम पर रु 11/- पर होती रही हैं साथ ही साथ माहुरी जमींदारों के यहाँ भी विवाह ऐसे ही होते रहे परंन्तु, बेटी के विवाह उप्रान्त खोईछे में ( बिदाई के वक्त दिया गया उपहार ) गावँ के गावँ दे देने की प्रथा रही है। वैभव तो ऐसा कि, मैं खुद 1969 वर्ष में बोम्बई के सबसे रहीश मुह्हले में ईनका जो दो तल्ले banglow में लिफ्ट लगा देखा साथ ही, पहली बार उनमें बैठने की व्यवस्था देखी और जो बड़ा सा चित्र सीड़ियों पर देखा उसकी कीमत 300 से 400 स्वर्ण मुद्राओं से बोली बोल कर ली गयी। माहुरी जमीनदारों के वंसज के यहाँ चोरी भी अंतराष्ट्रीय गिरोहों द्वारा पुरानी पेंटिंग व जवारहतों की चोरी हुई, जहाँ उन अंतर्राष्ट्रीय चोरों को इतनी मूल्यवान वस्तुएं मिली की वे चांदी के बर्तनों व सामान को रस्ते में फेंकते हुये पालयमान हुए।

आज भी कुछ लोगों के पास मथुरा से लायी गयी कुछ दुर्लभ वस्तुओं को देख कर अनुमान लगा सकते हैं की महुरीगण पहले व्यपारी होने के साथ साथ कुशल योद्धा भी होते थे क्योंकि गया के सूबेदार, माहुरी दरवारी के करीब 700 लोगों को गया में पनाह इसलिए दिए,की हमारे माहुरी दरवारी एक युद्ध में सूबेदार की जान बचाई थी।ऐसे बहुत से लोग हमारे समाज में हैं जिनके पास ऐसीही कुछ दुर्लभ वस्तुएं हैं जिसका मतलब नहीं समझ आता जैसे बहुतों के यहाँ तलवार जैसी बहुत पुरानी वास्तु पड़ी रहती है जिसमें अधिकतर लोग अनुउपयोगी समझ कर निकाल भी चुके हैं। ऐसे ही एक वयोबृध् से हमारी मुलाकात हुई जिंकेपास करीब 17 वीं शताबदी की एक तलवार मौजूद है।.

माहुरी गण जब करीब 700 परिवार के साथ गया के सूबेदार बइयो परिवार के शरण पाने के बाद औरंगजेब को उसके जासूसों से इस बात की जानकारी पाते ही, गया पर आक्रमण करने,मुगल सेन की टुकडी भेज दिया. माहुरी गण मुगल सेना से टक्कर लेंना उचित नहीँ समझा और उस समय की नजाकत देख कर जीतनी दूर जा सकते थे उतनी दूर घने स्थानों,जो उस समय जंगलों जैसे ही थे, वहाँ की जो भी जनसँख्या थीं उनमें सम्मिलित हो गये, जहाँ माहुरियों को अलग से खोज निकलना मुगल सैनिकों के लिये काफी कठिन कार्य लगा, इसलिये मुगल सेना और औरंगजेब का सारा का सारा गुस्सा बाइयो परिवार पर निकला जिन्होंने हमें शरण दिया था, वे सारे ही उनके शिकार हुए।

माहुरी परिवार भी उनके उपकार को नहीँ भुले, आज तक उसके उपरांत तक बइयो परिवार को श्रधा पूर्वक प्रत्येक श्राध पर उनके नाम से पिंड निकल कर अलग से पिंड दान करते आ रहे है और हमेशा से करते रहेंगे। हाँ ये बात बहुतों को पता नहीँ की एक अलग पिंड क्यों



इतना ही नहीँ हमारे कुछ माहुरी जमींदार परिवार में बइयो की श्रधा में ही कुछ उनके धर्म के लोग भी पलते दिखे। हीसुआ estate उन में से एक जमींदार परिवार में पायेंगे बइयो परिवार के वंशज कई पीढी तक जो उनके यहाँ पले और बढे, इतना ही नहीँ, उनके शाकाहारी व्यंजन आज भी इस परिवारों में बड़े चाव से इनके रसोई के व्यंजनों में शामिल हैं।

लेख साभार: गोपाल गुप्ता जी,
mahuris.blogspot.in/2015/11/blog-post_27.html

PCS दीप्ति वैश्य कर रही उत्तराखंड में समाज सेवा!



नई दिल्ली: आज महिलाओ ने अपनी हिम्मत, मेहनत, लगन और अपने हौसलो के बल पर भले ही सरकारी या गैरसरकारी क्षेत्र में कामयाबी हासिल की हो। लेकिन इनकी कामयाबी के पीछे की कहानियाँ बयां करती है, कि कैसे इस मुकाम तक पहुचने के लिए उन्हें कटीले रास्तो से गुज़रना पड़ा। ऐसी ही उत्तराखंड की एक जाबाज़ महिला PCS अफसर दीप्ति वैश्य की कहानी से आपको रूबरू करा रहे हैं।

उत्तराखंड के बड़े ज़िलों में शुमार ऊधम सिंह नगर में दीप्ति वैश्य अपर जिलाधिकारी (वित्त एवँ राजस्व) के पद पर तैनात हैं। इस पद तक पहुंचने का सफर आसान नहीं था। लेकिन दीप्ति ने ठान लिया था कि वो अपनी माँ का सपना ज़रूर पूरा करेंगी और उन्होंने PCS बन कर अपनी माँ के सपनो को उड़ान दे दी।

मूल रूप से राज्य के बागेश्वर में जन्मी दीप्ति के पिता स्व. श्री बाली राम शिक्षा विभाग और माँ श्रीमती गौरी दास चिकित्सा विभाग में काम करते थे। बचपन में ही दीप्ति कुशाग्र बुद्धि और तेज़ थी। उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा नैनीताल के मशहूर आल सेंट्स कालेज से करने के बाद दिल्ली की JNU से ग्रेजुएशन किया।

सिर्फ ग्रेजुएशन करने से कुछ नहीं होता, यह तो दीप्ति जानती थी। उन्होंने ठान लिया था कि कामयाबी हासिल करने और परिवार के सपनो को उड़ान देने के लिए उन्हें स्टडी में जुटना होगा। रात-रात भर उन्होंने प्रशासनिक सेवा में जाने के लिए कड़ी मेहनत की। आखिरकार उनकी मेहनत रंग लाई, उनका PCS में सलेक्शन हो गया। अपनी इस कामयाबी का श्रेय दीप्ति अपनी माँ और पिता को देती है।


दीप्ति वैश्य का मानना कि महिलाये अगर ठान ले तो अपना मुकाम ज़रूर हासिल कर सकती है। जब महिलाये ऊँचे पद पर होती है, तो विशेष कर महिलाओ की अपेक्षाएं आप से काफी होती है। हम समाज सेवा के लिए ही इस नौकरी में आये है,हमें उनकी समस्याओ को प्राथमिकता से हल करना चाहिए।

उनकी पहली नियुक्ति उत्तराखंड सरकार ने टिहरी गढ़वाल के एस डी एम के पद पर की। इसके बाद पिथौरागढ़ और गंगोलीघाट की एस डी एम भी रही। गंगोलीघाट में नियुक्ति के दौरान महिलाओ की शिकायत पर अवैध शराब के खिलाफ उन्होंने जाबाज़ी से शराब माफियाओ के खिलाफ कार्यवाही की।

कुमाऊँ मंडल विकास निगम की जी एम रहते दीप्ति वैश्य ने पर्यटन में बेरोज़गारों को रोज़गार के अवसर मुहैया कराने पर ज़ोर दिया। अपर जिलाधिकारी चम्पावत और किच्छा चीनी मिल ई. डी. के पद पर भी कार्यरत रही। वर्तमान में ऊधम सिंह नगर ज़िले में अपर जिलाधिकारी (वित्त एवँ राजस्व) के पद पर दीप्ति वैश्य अपना जलवा दिखा रही है। यहाँ भी वो अवैध अतिक्रमणकारियों से अकेले ही जूझ गई। उन्हें किसी सिफारिश से काम करना कतई पसंद नहीं है,वो दिल से अपने काम को अंजाम देती है। सच्चाई के लिए वो किसी से भी टकरा सकती है।

उनके पति मीडिया में कार्यरत है, अपनी नौकरी के साथ वो परिवार के लिए भी वक़्त निकल लेती है। अभी उनकी बिटिया छोटी है। लेकिन काम से निबट कर वो उस पर अपना ढेर सा प्यार उड़ेल देती है। यही है उनकी ज़िन्दगी का फलसफा।

साभार : खबर इंडिया टीवी 



आदेश कुमार गुप्ता (55 वर्ष) सीईओ, लिबर्टी ग्रुप

करिश्माई कारोबारी: हमेशा एक कदम आगे रहने का जज्बा


आदेश कुमार गुप्ता (55 वर्ष) सीईओ, लिबर्टी ग्रुप

वाकया 1983 का है. उनके पास आज के युवाओं की तरह अपना रोजगार खुद चुनने की आजादी नहीं थी. अतः पिता पी.डी. गुप्ता की लिबर्टी फुटवियर कंपनी में आए. हरियाणा के कुरुक्षेत्र से मकैनिकल इंजीनयरिंग कर चुके आदेश कुमार गुप्ता बताते हैं, “उस जमाने में युवा अपनी पसंद के रोजगार के बारे में सोच भी नहीं सकते थे.” लेकिन जब अपने करियर की शुरुआत की तो पहली बार 1982-83 में भारत की फुटवियर इंडस्ट्री में क्रांतिकारी बदलाव लेकर आए. पॉलीयूरेथेन और ईवीए तकनीक लाने वाली एशिया की पहली कंपनी बन गई लिबर्टी. आदेश के मुताबिक, यह ऐसा वक्त था जब खास आदमी भी 75-100 रु. से ज्यादा के जूते नहीं खरीदता था. लेकिन लिबर्टी ने हल्के वजन वाले पहले जूते की कीमत ही 250 रु. रखी.

1983 सही मायने में कार में मारुति, टू व्हीलर में हीरो होंडा और फुटवियर में लिबर्टी का साल बन गया. कीमत ज्यादा होने के बावजूद लोगों ने इसे हाथोहाथ लिया. आदेश बताते हैं, “हम विदेश से तकनीक लेकर आए, लेकिन स्वदेशी की भावना लिबर्टी ग्रुप के संस्थापक से ही हमारे भीतर थी, इसलिए हमने उत्पादन का काम भारत में किया.” लिबर्टी ग्रुप की स्थापना की कहानी सचमुच सामाजिक क्रांति की द्योतक है. एक संभ्रांत वैश्य परिवार में जन्मे व्यक्ति के लिए उन दिनों चमड़े के धंधे से जुडऩा एक बगावती पहल थी.

महात्मा गांधी के पदचिन्हों पर चलने वाले पुरुषोत्तम दास गुप्ता ने करनाल में पाल बूट हाउस नाम से एक छोटी-सी दुकान की नींव डाली थी. उन्होंने ही आजादी के बाद अपने बड़े भाई धर्मपाल गुप्ता के साथ मिलकर 1954 में लिबर्टी फुटवियर कंपनी गठित की. 1957 में अपने भानजे राजकुमार बंसल के सहयोग से उन्हें आगे बढऩे का मौका मिला और परिवार पूरी तरह से कंपनी के साथ जुड़ गया. स्थापना के वक्त चार जोड़ी फुटवियर बनाने वाली कंपनी आज रोजाना 50,000 जोड़ी जूते-चप्पल बना रही है.

लिबर्टी के संस्थापक को 1964 में एक बड़ा मौका मिला, जब उन्होंने घरेलू बाजार के अलावा एक्सपोर्ट करने की सोची. उसी वक्त उन्हें चेकोस्लोवाकिया के एक प्रतिनिधिमंडल के दिल्ली आने की जानकारी मिली. वे गाड़ी से दिल्ली के लिए निकले, लेकिन चेकोस्लोवाकिया के दूतावास के पास ही उनकी गाड़ी खराब हो गई. तभी वहां एक गाड़ी आई जिससे उन्होंने दूतावास के बारे में पूछा. संयोग देखिए कि उस गाड़ी में चेकोस्लोवाकिया से आया प्रतिनिधिमंडल ही था, जिससे मिलने वे करनाल से आए थे. बातों ही बातों में मकसद का खुलासा हुआ और सड़क पर ही गाड़ी की डिक्की खोल प्रतिनिधिमंडल को पुरुषोत्तम दास गुप्ता ने लिबर्टी के फुटवियर दिखाए, जिससे प्रभावित होकर चेक गणराज्य से उन्हें फौरन 50,000 डॉलर के एक्सपोर्ट के ऑर्डर मिल गए.

यहीं से कंपनी अंतरराष्ट्रीय पहुंच वाली हो गई. 1970 के दशक में उन्होंने रूस की कंपनी नीनो केसाथ मिलकर रूस में साझे का कारोबार शुरू किया तो 1977 में हंगरी के रिटेल कारोबार में पैर पसारते हुए लिबर्टी के शो-रूम खोले. आज 60 साल का सफर पूरा कर चुकी लिबर्टी 25 से ज्यादा देशों में अपना कारोबार कर रही है. 1983 लिबर्टी के लिए एक निर्णायक मोड़ वाला साल था, जब दुनिया में स्पोर्ट्स शूज की अहमियत को पहचान कर उसे लॉन्च किया गया.

उसी निर्णायक वर्ष में उनके बड़े बेटे आदेश कंपनी के साथ जुड़े. कंपनी में पहली बार पॉलीयूरेथेन तकनीक लाने में आदेश की अहम भूमिका साबित हुई. 1995 आते-आते कंपनी अपने 10 ब्रांड के साथ पसंदीदा फुटवियर ब्रांड बन गई. उसके बाद 2004 तक का दौर कंपनी में स्थिरता वाला रहा. 2003 में लिबर्टी के संस्थापक पी.डी. गुप्ता के निधन के बाद 2004 में आदेश ने बतौर सीईओ कंपनी की कमान संभाली और जड़ता तोडऩे के लिए कई बड़े कदम उठाए. वे कहते हैं, “संस्थापक ही कारोबार को चला रहे थे. लेकिन जब मेरे कंधों पर जिम्मेदारी आई तो मैंने कंपनी को पूरी तरह से यू-टर्न कराया.” उन्हें बदलाव लाने में चार साल लग गए. सबसे पहले उन्होंने कंपनी का खुद का स्टोर खोलने की पहल की.

अब तक लिबर्टी के अपने 125 तो फ्रेंचाइजी के 500 स्टोर हैं. इस पहल से ग्राहकों की पसंद-नापसंद का फीडबैक कंपनी को सीधे मिलने लगा, जो उत्पादों के सुधार में मददगार साबित हुआ. उनकी साफ सोच रही है&वन स्टेप अहेड, एक कदम आगे. इसी सोच के साथ उन्होंने 2008 में कंपनी की सप्लाइ चेन को बदल दिया. पहले चेन सिस्टम पुश थ्योरी थी. यानी कंपनी उत्पाद को एक निश्चित संख्या में रिटेल तक भेजती थी. लेकिन थ्योरी आईः पुल सिस्टम यानी ग्राहक जितना चाहेगा, उतना ही मिलेगा. अगर किसी दुकानदार को किसी एक साइज का एक जोड़ी जूता चाहिए तो उतना ही मिलेगा. पहले कम से कम 12 जोड़ी लेना पड़ता था. इस तरह लिबर्टी ने ग्राहकों की जरूरत के अनुरूप तय समय पर उत्पाद पहुंचाने की नीति अपना ली. आदेश की मानें तो “2004 से पहले कंपनी का फोकस मैन्युफैक्चरिंग पर था, लेकिन अब मुक्चय उद्देश्य मार्केटिंग है.”

अब उनका मकसद 61वें साल में चल रही कंपनी को परिवार की ओर से संभाली जाने वाली और पेशेवर ढंग से चलाई जाने वाली कंपनी बनाना है. वे बेबाकी से कहते हैं, “मुमकिन है, आप अगली बार आएं तो मेरी जगह कोई प्रोफेशनल बातचीत के लिए मिले.” आदेश परिवार में सबसे बड़े हैं. छोटे भाई आदर्श कार्यकारी निदेशक की भूमिका में हैं जो कंपनी की कोर टीम के साथ पूरी निगाह रखते हैं. तीसरे भाई दिनेश गुप्ता कंपनी में निदेशक हैं. सीईओ बनने के बाद कंपनी को 200 करोड़ रु. से 600 करोड़ रु. के टर्नओवर तक पहुंचाने जा रहे आदेश परिवार के साथ संतुलन बिठाना बखूबी जानते हैं. उनका मानना है, घर में खुशनुमा माहौल न हो तो पैसे का भी कोई मोल नहीं. परिवार में तनाव हो तो कोई भी अपना काम ढंग से नहीं कर पाएगा. सुबह साढ़े सात बजे उठकर एक घंटा व्यायाम-योग करने के साथ आधे घंटे का पूजा-पाठ उनकी दिनचर्या का हिस्सा है. कारोबार से बचा अपना समय अमूमन शाम को 7 बजे के बाद वे परिवार के साथ बाहर खाने-पीने, सोशल इवेंट में शामिल होने और ऐसी ही दूसरी गतिविधियों में लगाते हैं.

आम तौर पर सूट पहनने वाले आदेश स्टाइल के प्रति सजग रहते हैं. कॉलेज के जमाने से पहनावे, ड्रेस के चयन, सूट के साथ टाइ आदि के रंगों पर उनका खास ध्यान रहता है. वे बेहिचक बताते हैं, “मेरी सोसाइटी के लोग मुझे स्मार्ट और बड़े ही सलीके से कपड़े पहनने वाला शख्स मानते हैं.” खाने में शाकाहारी और हर रोज कुछ नया खाने की चाहत रखने वाले आदेश कारोबार में भी कुछ नया करने का जज्बा रखते हैं.

साभार : इंडिया टुडे, आजतक