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Wednesday, January 31, 2018

MOHIT GUPTA CA TOPPER

पिता की मृत्यु, आर्थिक चुनौतियों का सामना, हार नहीं माने और पहले प्रयास में ही बन गए CA टॉपर

अगर कुछ पाने की चाहत हो और आप में कड़ी मेहनत करने का ज़ज़्बा हो तो शायद ही कोई आपको आपकी मंज़िल पाने से रोक सकता है। कई बार हमें अपने मंज़िल को पाने के लिए कठिन रास्तों को चुनना पड़ता है। इन रास्तों पर चलनें के दौरान राह में कई मुश्किलें आती हैं, कई बार हमें अपनी आदतों को बदलना पड़ता है, कई पसंदीदा चीजों से समझौता करना पड़ता है। पर यही क्षणिक त्याग हमें अपनी मंज़िल को पाने में सहायक होता है। दृढ़ निश्चय के बल पर कुछ भी पाना असम्भव नहीं। आज हम एक ऐसे ही शख्स की बात करने जा रहे हैं, जिसने अपने बुलंद हौसले और त्याग के बदौलत सीए एग्जाम में ऑल इंडिया टॉप किया है।

इनका नाम है मोहित गुप्ता। मोहित मूलरूप से करनाल से रहने वाले हैं। मोहित के पिता बिनोद गुप्ता पेशे से एक मुनीम थे, वे अनाज़ मंडी में काम करते थे। मगर वर्ष 2001 में एक सड़क दुर्घटना में उनका निधन हो गया और महज़ सात साल की उम्र में मोहित के सिर से उनके पिता का साया उठ गया। बचपन से मोहित की माँ नें ही उन्हें अकेले पाला। उन्होंने एक किराने की दुकान चला अपने बच्चों को पाला व पढ़ाया।




मोहित ने शुरूआती पढ़ाई श्री शक्ति मिशन स्कूल से की। फिर वर्ष 2012 में उन्होंने आरएस पब्लिक स्कूल से अपनी 12वीं पूरी की और आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली का रुख किया। उन्होंने दिल्ली के रामजस कॉलेज से बीकॉम की पढ़ाई की, फिर दिल्ली यूनिवर्सिटी से ही एमकॉम भी किया।

उसके बाद रोहित गुड़गांव के एक सीए फर्म के लिए काम करना शुरू किया। साथ ही वह चार्टेड अकाउंटेंट की परीक्षा की तैयारी में भी जुटे थे। उनकी मेहनत रंग लायी और सीए जैसी कठिन मानी जाने वाली परीक्षा में मोहित नें अपने पहले ही प्रयास में न सिर्फ सफलता हासिल की बल्कि अखिल भारतीय स्तर पर टॉप भी किया। इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया (आईसीएआई) नवंबर में हुई फाइनल परीक्षा और दिसंबर में हुई सीपीटी के नतीजे घोषित किये और मोहित का नाम उनमें सबसे ऊपर रहा। मोहित गुप्ता ने 73.88 प्रतिशत अंकों के साथ ऑल इंडिया टॉपर रहे, उन्होंने कुल 800 अंक में से 587 अंक प्राप्त किये।

मोहित अपने सफलता का श्रेय अपनी माँ को देते हैं, जिन्होनें उनके लिए हर संभव कदम उठाये, उन्हें पढ़ाया। आज में यंगस्टर्स जहाँ मोबाइल और सोशल मीडिया के बिना एक मिनट भी नहीं रह सकते। वहीं मोहित परीक्षा की तैयारी के दौरान सोशल मीडिया से दूर रहते थे, ताकि उनका समय बचे और ध्यान दूसरी तरफ न जाए। वे इसे अपनी सफलता की एक बड़ी बजह मानते हैं। वे पढ़ाई के दौरान अपने मोबाइल,गैज़ेट से दूर रहते थे। उन्होंने रिवीजन टेस्ट पेपर की सहायता ली और जमकर स्टडी मैटेरियल्स का रिवीजन किया। नौकरी के दौरान पढने के लिए पर्याप्त समय ना मिलने का बावजूद उन्होंने अपने टाइम को मैनेज किया और आज उसका नतीजा सबके सामने है। मोहित आज अन्य युवाओं के लिये एक प्रेरणास्रोत हैं।

साभार: hindi.kenfolios.com/mohit-gupta-ca-topper/by Sandeep Kapoor


वैश्य : धर्म एवं कर्म


हमारी यह सहज प्रवृत्ति है, कि हम हमारे प्राचीन शास्त्र , तत्वज्ञान और हमारी ऐतिहासिक जीवन पद्धति से आज के आधुनिक जीवन शैली की तुलना करते हैं व वर्णाश्रम की सामाजिक संरचना को समझने का प्रयास करते हैं, इस कला में हम निपुण हैं। वर्णाश्रम के एक एक वर्ण को अलग​ करके समझा जाए तो पहले दो वर्ण अर्थात ब्राह्मण एवं क्षत्रिय भूत काल से सम्बंधित हैं। आसान शब्दों में कहें तो आज के समय में ऐसे कम ब्राह्मण हैं जिनमें ब्राह्मणत्व के गुण, चरित्र और ज्ञान हैं और सच्चे ब्रह्मज्ञानी तो उनसे भी कम हैं। वैदिक वर्णाश्रम के सर्वोच्च श्रेणी के जो ब्राह्मण रह चुके वह आज के समय में निरर्थक हो चुके हैं। वे केवल ब्राह्मण उपनाम मात्र​ से पहचाने जाते हैं । जहाँ एक ज़माने में क्षत्रिय और उनके धर्म के विषय में महान काव्य रचे गए थे वह श्रेणी भी आज अपनी पहचान खो बैठी है। आज की वित्त केंद्रित दुनिया में बाद के दो वर्ण ज्यादा प्रचलित हैं , जो धन अर्जित कर रहे हैं वह वर्ण दुनिया की आबादी का अधिकतम हिस्सा निर्मित कर रहे हैं। हमारे प्राचीन वैदिक इतिहास में इन दो वर्णों को वैश्य तथा शूद्र कहा जाता था।

ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण को शास्त्र विधि से समझ कर व उनके आधुनिक रूप को पहचान कर अब तीसरे वर्ण को समझने की आवश्यकता है जिसे सामान्य भाषा में व्यापारी श्रेणी (वैश्य ) कहा जाता है। संस्कृत शब्द वैश्य की व्युत्पत्ति है "विशं याति इति वैश्यः " अर्थात जो धन प्राप्त करे उसे वैश्य कहते हैं।

श्रीमद भागवत भी वैश्य के कर्त्तव्य व गुण पर प्रकाश डालती है :

देवगुर्वच्युते भक्तिस्त्रिवर्गपरिपोषणम् । आस्तिक्यमुद्यमो नित्यं नैपुण्यं वैश्यलक्षणम् ॥

भागवत । ७ । ११ ।२३ ॥

देवता गण के प्रति , गुरु के प्रति , ब्रह्म स्वरूप भगवान विष्णु के प्रति स्थिर भक्ति हो , तीनों पुरुषार्थ : धर्म , अर्थ और काम की पुष्टि जो करे , जो निरंतर धनार्जन करने में निपुण हो , यह सब वैश्य के लक्षण भागवत में बताये गए हैं।

यदि हम आज वैश्य वर्ण को समझने का प्रयास करें और उनके धन एकत्रित करने का प्रयास समझें , और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण अर्थ को नियंत्रित करने की कला को समझना चाहें तो आज के आधुनिक अर्थशास्त्रिक उदाहरण के माध्यम से हम समझ सकते हैं। सामान्य अर्थशास्त्र में उपादान के कारक (भूमि , श्रमिक, पूंजी , उद्यमवृत्ति ) धनार्जित करने के आधार हैं।

प्रथम कारक है भूमि। धरती से प्रदत्त जो भी कीमती वस्तु , जमीन के नीचे या ऊपर हो उसे धरती की संपत्ति ही माना जाता है। मनु स्मृति में बताया गया है :

प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददे पशून् ।

प्रजापति ने पशुओं की उत्पत्ति करके वैश्य वर्ण को प्रदान किया। आज भी पशुओं को संपत्ति माना जाता है।

बीजानामुप्तिविच्च स्यात्क्षेत्रदोषगुणस्य च ।

मानयोगं च जानीयात्तुलायोगांश्च सर्वशः । । मनु स्मृति | ९.३३० । ।

वैश्य को बीज बोने की पद्धति का, विभिन्न प्रकार की मिटटी का , धरती को नापने का व अन्य कीमती पदार्थों के वज़न करने का ज्ञान होना चाहिए।

दूसरा कारक है श्रमिक। पुरे के पुरे उद्योग को जो अपनी मेहनत से चलाता है उसे श्रमिक कहते हैं।

भृत्यानां च भृतिं विद्याद्भाषाश्च विविधा नृणाम् ।

वैश्य को सभी कर्मचारियों के विभिन्न वेतन का ज्ञान होना चाहिए व उनके अनेक भाषाओं में वार्तालाप की क्षमता होनी चाहिए।

वैश्य को केवल स्थानीय मज़दूरों को ही नहीं अपितु विदेशी मज़दूरों को भी नियंत्रित​ करना आना चाहिए।

तीसरा कारक है अर्थ निवेश। ऐसा कोई व्यापार नहीं है जो बिना पूंजी के हो सके।

धर्मेण च द्रव्यवृद्धावातिष्ठेद्यत्नमुत्तमम् ।

वैश्य को निरंतर धर्मानुसार अपनी संपत्ति की वृद्धि करनी चाहिए।

मनुस्मृति के अनुसार वैश्य को चाहिए कि वह न केवल धन अर्जित करे अपितु उसे फायदेमंद अवसरों में निवेश करे।

ऐसा कोई व्यवसाय नहीं है जिसमें किसी प्रकार से, कुछ मात्रा में आर्थिक​ जोख़िम न हो और यही उपादान का आखरी चरण है।

व्यवसायी भाव कोई भी व्यापार में अत्यंत आवश्यक है क्योंकि समस्त निर्माण अर्थात उपादान के पहलुओं के मध्य में यह आर्थिक जोख़िम ही है जो एक व्यवसायी या वैश्य को समाज से पृथक करता है, चाहे वह आधुनिक समाज हो या वैदिक ।

सारासारं च भाण्डानां देशानां च गुणागुणान् ।

लाभालाभं च पण्यानां पशूनां परिवर्धनम् । । मनु स्मृति ९.३३१ । ।

वैश्य की कार्य शैली है अनेक पदार्थों में दोषयुक्त अथवा श्रेष्ठ पदार्थों का ज्ञान, मित्र व शत्रु देशों का बोध, निर्माण के कार्यों में फायदा -नुक्सान व पशुओं की वृद्धि में निपुणता।

मनु स्मृति का यह श्लोक व्यवसायी को आर्थिक जोखिम लेने का महत्व समझाता है और कहता है कि यदि कार्य में फायदा और नुक्सान हुआ तो यह व्यवसायी अर्थात वैश्य पर निर्भर है की वह व्यापार इत्यादि को पूर्णतः समझे और निवेश, मज़दूर, संपत्ति ऐसे किसी कार्य में लीं होने से पहले समस्त पहलुओं को पूर्णतः परख लें ।

वैश्य वर्ण समाज का वित्तीय स्तंभ है जिनके बिना उद्योग संभव नहीं, धन नियमित नहीं होता व समाज व दुनिया का अधिकतम वर्ग के पास न कार्य होता है और न ही नियमित धनागमन (वेतन ) होता है। धन जीवन की मूल भूत आवश्यकता है जिससे धर्म की पुष्टि से लेकर स्व का पोषण होता है और इस कारण से धन और इसके निर्माता किसी भी समाज के लिए अत्यंत आवश्यक हैं।

धनात् धर्मं ततः सुखम्

धन से धर्म की प्राप्ति होती है और धर्म से सुख प्राप्त होता है।

साभार: shrinathdham.com/resources/shri-shuk-prashaadi/vaishya.html

Friday, January 19, 2018

CHAVI GUPTA - CAT TOPPER

दिल्ली की छवि का कमाल, जॉब करते हुए CAT की परीक्षा में हासिल की 100 पर्सेंटाइल

कुछ समय पहले आई फ़िल्म दंगल का एक डायलॉग काफी प्रसिद्ध हुआ जिसमे आमिर खान कहते हैं कि “म्हारी छोरियां छोरों से कम है के” सच कहे तो यह सिर्फ एक फ़िल्म का डायलॉग ही नहीं बल्कि हक़ीक़त हैं क्योंकि जिस तरह से हमारे देश की बेटियां सफलताओं के शिखर को छू रही हैं वह वाकई हमारे लिए सम्मान का विषय है। कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला देश के प्रतिष्ठित मैनेजमेंट स्कूल आईआईएम समेत शीर्ष बिज़नेस स्कूलों में दाखिले के लिए होने वाले कॉमन एडमिशन टेस्ट (कैट) 2017 में क्योंकि इस कठिन मानी जाने वाली परीक्षा में पहली बार टॉप-20 में दो बेटियों ने अपना कब्ज़ा जमाया है।

आईआईटी दिल्ली से पास आउट छवि गुप्ता ने इसी साल पहली बार कैट की परीक्षा दी और अपनी मेहनत के दम पर 100 पर्सेंटाइल के साथ टॉप-20 में अपनी जगह सुनिश्चित की।


छवि बताती हैं कि “मैंने आईआईटी दिल्ली से साल 2016 में बीटेक और एमटेक ड्यूल डिग्री हासिल की। उसके बाद से ही मैं निजी कंपनी में कार्य कर रही हूँ। हालांकि अच्छी नौकरी के लिए एमबीए डिग्री बेहद जरूरी है। इसीलिए मैंने पहली बार कैट की परीक्षा दी और सौ पर्सेंटाइल हासिल किया मैं बहुत खुश हूँ कि अब मेरा आईआईएम अहमदाबाद में एमबीए के लिए दाखिला लेने का सपना पूरा हो जाएगा।”

खास बात यह है कि आईआईटी की तर्ज पर ही बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार आईआईएम में भी सुपर न्यूमेरी कोटा लाने की योजना पर विचार कर रही हैं। आईआईटी व एनआईटी में 20 फीसदी सुपर न्यूमेरी गर्ल्स कोटा इसी सत्र से लागू किया गया है। यह कुल सीटों पर अतिरिक्त सीट होती हैं, जिन पर बेटियों को दाखिला मिलेगा।

छवि आगे बताती है कि “अब तो आईआईएम बिल पास हो चुका है। तो खुशी का पैमाना दोगुना बढ़ गया है क्योंकि अब मुझे एमबीए की डिग्री मिलेगी। पहले भारत में आईआईएम डिप्लोमा को डिग्री की तरह ही समझा जाता था। लेकिन विदेश में जाने पर इस विषय में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था लेकिन अब ऐसा नही होगा और हम भी गर्व से कहेंगे कि हमने आईआईएम से एमबीए डिग्री हासिल की हैं।”


हमारी बेटियां जिस रफ़्तार से आगे बढ़ रही है वह वाकई गर्व का विषय हैं लेकिन कुछ लोग का नज़रिया अब भी आलोचनात्मक ही है जो यह कहते है कि “टॉप-20 में दो लड़कियों के शामिल होने बड़ी बात नही हैं कैट का प्रश्न पत्र आसान रहा होगा।” तो उन्हें हम बता देते है कि पिछले साल की तुलना में इस बार प्रश्न पत्र बेहद कठिन था और टॉप 20 में जगह बना पाना मेहनत और लगन के बिना सम्भव नहीं है।

साभार: hindi.kenfolios.com/iit-delhi-girl-chhavi-gupta-score-100-percentile/
by Himadri SharmaJanuary 


JAGDISH GANDHI - शिक्षा के 'गांधी' बन गए जगदीश



अलीगढ़ से जब वो लखनऊ आए तो उनके पास सिवाए एक बक्से के कुछ नहीं था। बक्से में एक रजाई, दो जोड़ी कपड़े और कुछ किताबें। लखनऊ विश्वविद्यालय में ऐडमिशन हुआ, लेकिन कहीं रहने को ठिकाना नहीं था। शुरुआती दिनों में हनुमान सेतु स्थित हनुमान मंदिर में रहकर पढ़ाई की। ग्रैजुएशन के साथ सोशल ऐक्टिवटीज में भी शामिल रहे। महात्मा गांधी और विनोबा भावे के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने कई आंदोलन भी चलाए। नतीजा रहा कि पहले स्टूडेंट यूनियन के उपाध्यक्ष और फिर अध्यक्ष चुने गए। शादी के बाद पत्नी के साथ मिलकर स्कूल खोला। पांच बच्चों से शुरू किया गया यह स्कूल आज राजधानी ही नहीं प्रदेश का सबसे ज्यादा शाखा और स्टूडेंट्स वाला स्कूल बन गया है। विश्व शांति के लिए उनकी कोशिशों को अमेरिका समेत कई यूरोपीय देशों ने सराहा और सम्मानित किया है। जी हां, हम बात कर रहे हैं सिटी मॉन्टेसरी स्कूल के फाउंडर मैनेजर जगदीश गांधी की। 

अध्यात्म की तरफ झुकाव उनके बचपन का नाम जगदीश अग्रवाल है। इनके चाचा प्रभुदयाल अग्रवाल स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और गांधीवादी थे। बापू के साथ वह कई बार जेल भी गए। जब भी आते तो महात्मा गांधी के सादे जीवन और आध्यात्म की चर्चा करते। बालमन पर इन बातों का काफी असर हुआ। गांधी जी से मिलने के लिए उनका मन छटपटाता रहता। चाचा के सामने यह इच्छा जताई। इसी बीच देश आजाद हो गया और गांधी जी हिंदू मुस्लिम दंगों को शांत कराने के लिए नोआखली चले गए। सिवाय इंतजार के अब कुछ नहीं हो सकता था।

खुद गांधी बन गए करीब पांच महीने इंतजार के बाद स्कूल से लौटे तो गांव के लोग एक पेड़ के नीचे उदास खड़े थे। पूछने पर चाचा ने बताया कि रेडियो पर समचार आया है कि राष्ट्रपिता की हत्या हो गई है। किसी ने उन्हें गोली मार दी है। यह सुनकर वह घर के भीतर गए और रामधुन गाने लगे। कुछ देर बाद बाहर आए और पिता से कहा कि अपना नाम बदल कर जगदीश गांधी करना चाहता हूं। उनकी भावनाओं का आदर करते हुए पिता ने भी उन्हें नहीं टोका और स्कूल का नाम जगदीश अग्रवाल की जगह जगदीश गांधी हो गया।

ऐसे आए लखनऊ मथुरा से इंटर करने के बाद ग्रैजुएशन करने के लिए पहले बनारस हिंदू विश्वविद्यालय गए। शहर से कैंपस काफी दूर था। ऐसे में ट्यूशन पढ़ाने के लिए शहर में रहना और फिर इतनी दूर आना मुमकिन नहीं था। अब इलाहाबाद जाने का मन बनाया। रेल का टिकट लेने के लिए दोस्त लाइन में लगा। बारी आई तो पूछने लगा कि लखनऊ चलें या इलाहाबाद। जगदीश गांधी ने कहा कि कहीं का टिकट ले लो। टिकट देने वाला कर्मचारी झल्ला गया और उसने लखनऊ के दो टिकट दे दिए। ट्रेन में बैठे और बस यूं ही लखनऊ आ गए।

लखनऊ और जगदीश गांधी अलीगढ़ से लखनऊ आकर पढ़ाई की। छात्रसंघ के पदाधिकारी बने और भारती गांधी से शादी हुई। जीवन के तमाम मुकाम जगदीश गांधी को लखनऊ की सरजमीं पर ही हासिल हुए। अलीगढ़ लौटने के बजाय लखनऊ को ही अपनी कर्मभूमि बनाने का संकल्प लिया। वह 12 स्टेशन रोड के जिस मकान में रहते थे, उसमें ही स्कूल खोल दिया। एडमिशन के लिए घर-घर गए लेकिन हर कोई टाल देता। काफी दिनों बाद एक महिला ने अपने पांच बच्चों को स्कूल भेजा। साल के अंत में 19 बच्चे हो गए। इसके बाद सफर शुरू हुआ तो नहीं रुका। आज सीएमएस में 47 हजार स्टूडेंट्स हैं।

साभार: नवभारत टाइम्स 

Thursday, January 18, 2018

वैश्य जाति की उत्पत्ति, इतिहास एवं परिचय

वैश्य जाति की उत्पत्ति, इतिहास एवं परिचय

वैश्य हिंदू वर्ण व्यवस्था के चार वर्णों में से एक है। वैश्य हिन्दू जाति व्यवस्था के अंतर्गत वर्णाश्रम का तृतीय एवं महत्त्वपूर्ण स्तंभ है। इस समुदाय में प्रधान रूप से किसान, पशुपालक, और व्यापारी समुदाय शामिल हैं।

व्युत्पत्ति

'वैश्य' शब्द वैदिक 'विश्' से आया है, जिसका तात्पर्य है- 'प्रजा'। शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से 'वैश्य' यह शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है, जिसका आधारभूत अर्थ "बसना" होता है। मनुस्मृति के मुताबित वैश्यों की उत्पत्ति ब्रह्मा के उदर अर्थात पेट से हुई है। हालाकि कुछ अन्य विचारों के अनुसार ब्रह्मा से जन्मने वाले ब्राह्मण हुए और विष्णु भगवान से पैदा होने वाले वैश्य कहलाये और शंकर जी जिनकी उत्पत्ति हुई वो क्षत्रिय कहलाए. आज भी इसलिये ब्राह्मण वर्ण माँ सरस्वती (विद्या की देवी), वैश्य वर्ण माँ लक्ष्मी (धन की देवी), क्षत्रिय माँ दुर्गे (दुष्टों को विनाश करने वाली) को पूजते है।

वैश्य वर्ण का इतिहास

वैश्य समुदत के प्रवर्तक भगवान विष्णु एवं कुलदेवी माता लक्ष्मी 

वैश्य समुदाय का इतिहास जानने से पूर्व हमें यह जानना जरुरी है कि वैश्य शब्द आखिर आया कहाँ से? दरअसल वैश्य संस्कृत शब्द विश् से आया है। विश् शब्द का तात्पर्य है प्रजा। प्राचीन काल में प्रजा (अर्थात समाज) को विश् नाम से संबोधित किया जाता था। इसके मुख्य संरक्षक को विशपति (यानि राजा) कहते थे, जो चयन से चुनाव के माध्यम से किया जाता था।

मनु के अनुसार चार प्रधान सामाजिक वर्ण शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय तथा ब्राह्मण थे, जिनमें सभ्यता के विकास के संग-संग नए व्यवसाय भी बाद में जुड़ते चले गए थे। शूद्रों के आखेटी कम्युनिटी में अनसिखियों को बोझा व सामान ढोने का कार्य दिया जाता था। बाद में उसी समुदाय के लोगो को जब कुछ लोगों ने कृषि क्षेत्र में छोटा-मोटा मजूरी करने का कार्य सीखा, तो वह आखेट करने के बजाय कृषि कार्य करने लगे। ज्यादातर ऐसे लोगों में जिज्ञासा का आभाव, अज्ञानता और जिम्मेदारी सम्भालने के प्रति बेपरवाही की मानसिकता रही। वें अपनी तब की जरूरतों की पूर्ति के अतिरिक्त कुछ और सोचने में अक्षम और निष्क्रिय रहे। उनके अन्दर स्वयं से बात करने की सीमित क्षमता थी, जिस वजह से वह समुदाय की चीजो का दूसरे समुदायों के संग लेन-देन नहीं कर सकते थे।

धीरे-धीरे आखेटी सामज किसानी करने लगा। समाज के लोग कृषि औरर कृषि से सम्बंधित अन्य व्यव्साय भी सीखने लगे। समुदाय के लोगों ने भोजन और कपडा आदि की निजी आवश्यकताओ की आपूर्ति भी कृषि के उत्पादकों से करनी प्रारंभ कर दी थी। उन्होंने कृषि प्रधान जानवर/पशु पालने आरम्भ किया और उनको अपनी सम्पदा में सम्मिलित कर लिया। श्रम के स्थान पर पशुओ तथा कृषि से उत्पन्न उत्पादकों का लेन-देन होने लगा। मानव समुदाय बंजारा जीवन त्यागकर कृषि तथा जल श्रोतो (नदियाँ, तालाव इत्यादि) के निकट रहने लगे। इस तरह का जीवन ज्यादा सुखप्रद था।

ज्यों-ज्यों क्षमता और सामर्थ्य बढ़ा, उसी के मुताबित नये किसान व्यवसायी समुदाय के पास शूद्रों (शुद्र, हिन्दू वर्ण व्यवस्था में चतुर्थ स्थान) से ज्यादा साधन आते गये और वह एक ही जगह पर निवास कर सुखमय जीवन व्यतीत करने लगे। अब उनका प्रमुख उद्देश्य संसाधन संग्रहित करना और उनको वैश्य व्यापारी इस्तेमाल में लाकर ज्यादा सुख-सम्पदा एकत्रित करना था। इस व्यवसाय को संचालित करने हेतु व्यापारिक कौशल्या, सूझबूझ, व्यवहार-कुशलता, वाक्पटुता, परिवर्तनशीलता, खतरा अथवा जोखिम उठाने की क्षमता व साहस, धीरज, परिश्रम की जरुरत थी।


जिनमे इस प्रकार गुण निहित अथवा या जिन्होंने इस प्रकार की क्षमता हासिल कर ली थी, वह वैश्य वर्ग में शामिल हो गया। वैश्य कृषि-खेती, उत्पादक वितरण, पशुपालन और कृषि से जुडी औज़ारों व उपकरणों के संधारण (रखरखाव) तथा क्रय-विक्रय का व्यवसाय करने लगे। उन्होंने शूद्र जाति के लोगो को अनाज, कपड़ा, रहने का व्यवस्था आदि की जरुरी सुविधायें प्रदान कर अपनी मदद के लिये निजी अधिकार में रखना प्रारंभ कर दिया। इस तरह सभ्यता के विकास के संग जब वस्त्र, अनाज, रहवास आदि के बदले पैसे देने की रिवाज विकसित होने लगी तो उसी के संग ही ‘सेवक’ व्यव्साय का भी जन्म हुआ।  आज हमारा वैश्य समुदाय एक प्रशिक्षशित वर्ग के रूप में स्वयं को स्थापित कर चूका है।

हिन्दू वर्ण व्यवस्था में वैश्य 

हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार वैश्य कृषि और पशुपालन में पारंपरिक भूमिका निभायी थी, लेकिन समय के साथ वे भूमि मालिक, व्यापारियों और साहुकार आदि के रूप में आये। वैश्य, ब्राह्मण / बहूण और क्षत्रिय /छेत्री वर्णों के सदस्यों के साथ, द्विव्या का दावा करते हैं। भारतीय और नेपाली व्यापारियों को क्रमशः दक्षिण पूर्व एशिया और तिब्बत क्षेत्रों में हिंदू संस्कृति के प्रसार के लिए श्रेय दिया गया है।

ऐतिहासिक रूप से, वैश्य अपने परंपरागत व्यापार और वाणिज्य के अलावा अन्य भूमिकाओं में शामिल रहे हैं। इतिहासकार राम शरण शर्मा के अनुसार, गुप्त साम्राज्य एक वैश्य राजवंश था जो "दमनकारी शासकों के खिलाफ प्रतिक्रिया का परिणाम था।"

वैश्यों का आधुनिक समुदाय 

वैश्य वर्ण में कई जाति या उप-जातियाँ होतीहैं, जिनमे विशेष रूप से अग्रहरि, अग्रवाल, बार्नवाल, गहौइस, कसौधन, महेश्वरी, खांडेलवाल, महावार, लोहानस, ओसवाल, रौनियार, आर्य वैश्य आदि है। 

साभार: allaboutvaishya.blogspot.in/2017/08/Vaishya-caste-history-origin-and-facts.html


BARNWAL VAISHYA-बरनवाल वैश्य जाति की उत्पत्ति, इतिहास एवं परिचय

बरनवाल वैश्य जाति की उत्पत्ति, इतिहास एवं परिचय

बरनवाल (बर्नवाल, वर्णवाल) एक वैश्य समुदाय है, जिनकी उत्त्पत्ति महाराजा अहिबरन से है। बरनवाल अथवा बर्नवाल समाज के पितामह अहिबरन बुलंदशहर के राजा थे। बरनवाल अधिकतर उत्तर भारत के राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल तथा पडोसी देश नेपाल में पाए जाते हैं।

बरनवाल जाति का इतिहास 

श्री महालक्ष्मी व्रत कथानुसार अयोध्या के सूर्यवंशी क्षत्रिय राजा मान्धाता के दो पुत्र थे- एक का नाम गुनाधि तथा दुसरे का नाम मोहन था। मोहन के वंशज वल्लभ और उनके पुत्र अग्रसेन हुए। महाराजा अग्रसेन अग्रवाल व अग्रहरि वैश्य वंश की शुरुआत की। वही दुसरे पुत्र गुनाधि के पुत्र परामल और उनके पौत्र अहिबरन हुए। जिन्होंने बरनवाल समुदाय की नींव रखी।

बरनवाल समाज के पितामह महाराजा अहिबरन 

बर्नवाल समुदाय का इतिहास उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर से शुरू होता है। बुलंदशहर के राजा थे अहिबरन जिन्होंने 'बरन' नाम के एक किले का निर्माण किया, जो उस वक्त बुलंदशहर की राजधानी बनी। वर्तमान में भी बुलंदशहर में बलाईकोट या ऊपरकोट नामक एक स्थान है, जिसे महाराजा अहिबरन का किला बताया जाता है। बरन-साम्राज्य सैकड़ों वर्षो तक व्यापार तथा कला को संयोजित किया। इन्हीं कारणों से राजा अहिबरन ने व्यापार को प्रोत्साहित करने और अपनी प्रजा की भलाई के लिए वैश्य-धर्म को धारण किया।

सन 1192 ई० में मोहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबद्दीन (कुछ मतानुसार तुगलक) ने बरन शहर (आज का बुलंदशहर) पर आक्रमण कर बरन किले को अपने कब्जे में ले लिया।

वर्तमान में बुलंदशहर के वीरपुर, भटोरा, ग़ालिबपुर गाँव में हुए उत्खनन के दौरान बरन-साम्राज्य के कुछ मूर्तियाँ व सिक्के प्राप्त हुए है जो लखनऊ के राजकीय संग्रहालय में संरखित है।

बरन साम्राज्य के पतन के बाद बरनवाल समाज देश के भिन्न-भिन्न स्थानों में विभिन्न उपनामों यथा गोयल, शाह, मोदी, जायसवाल आदि से बसने लगे।

अहिबरन जयंती मनाता बरनवाल समाज 

एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल के जर्नल के वॉल्यूम 52 भाग -1-2 के मुताबित बरन साम्राज्य अपने समय में काफी समृद्ध व संपन्न राज्य हुआ करता था। उन्नीसवीं सदी के दस्तावेजों के मुताबित इस साम्राज्य ने पाली में लिखे तांबे और चाँदी के मुद्राओ को प्रचलन में थे। 

अंग्रेज शासनकाल में कुछ बरनवाल राय बहादुर के उप नाम से देश के कई हिस्से में जमींदारी का काम देखा करते थे।

बरनवाल जाति के गोत्र एवं उपनाम 

बरनवाल में 36 गोत्र हैं। ये गर्ग, वत्सील, गोयल, गोहिल, क्रॉ, देवल, कश्यप, वत्स, अत्री, वामदेव, कपिल, गल्ब, सिंहल, अरन्या, काशील, उपमैनु, यामिनी, पराशर, कौशिक, मौना, कट्यापन, कौंडियाल, पुलिश, भृगु, सरव, अंगिरा, कृष्णाभी, उध्लालक, ऐश्वरान, भारद्वाज, संक्रित, मुदगल, यमदग्रि, छ्यवन, वेदप्रामिटी और सांस्कृत्यायन आदि गोत्र है।

साभार: allaboutvaishya.blogspot.in/2017/09/origin-history-and-introduction-of-baranval-barnwal-varnwal-vaishya-community.html

YOSHA GUPTA - योषा गुप्ता - एक सफल उद्यमी

वर्ल्ड बैंक की नौकरी छोड़ एक साधारण आइडिया से करोड़ों का साम्राज्य बनाने वाली अलीगढ़ की योशा

देश के बड़े शहरों में बड़ी-बड़ी घटनाओं का होना शहरी लोगों के लिए एक आम बात है लेकिन देश के छोटे से शहर से निकल कर विदेशों में और फिर अपने देश में यदि सफलता का डंका किसी भारतीय लड़की द्वारा बजाया जाए तो यकीनन यह बड़े ही गौरव की बात है।


भारत के छोटे से शहर अलीगढ़ में जन्मी योशा गुप्ता ने 16 वर्ष अलीगढ़ में ही गुजारे। उनके पिता अलीगढ़ में महिलाओं का सबसे बड़ा कॉलेज चलाते हैं। पिता के व्यापार में आते उतार-चढ़ावों को योशा ने हमेशा बेहद करीब से देखा और समझने की कोशिश की। वर्ल्ड बैंक में सलाहकार के रूप में काम करते हुए योशा को वियतनाम, इंडोनेशिया, म्यांमार, फिलीपींस और चाइना जैसे देशों में कृषि और मोबाइल बैंकिंग से संबंधित कार्य करने का अवसर मिला। इस दौरान उन्होंने मोबाइल बैंकिंग के क्षेत्र में अपार संभावनाओं को महसूस किया।

इधर भारत में भी हाल ही में शुरू हुए स्टार्टअप कार्यक्रम की भावी सफलता के प्रति योशा आश्वस्त थी। बस फिर क्या था उसने निर्णय लिया एक नए स्टार्टअप का जहां एक ही मंच पर मूल्य चयन, कैशबैक, बैंकों द्वारा अवसर प्रदान करने वाली वेबसाइट एवं इनामी अंक देने वाली वेबसाइट को एक बहुत बड़े सेविंग प्लेटफार्म के रूप में पेश करेंगी। अपने 10 वर्ष के अनुभव को योशा ने अपने नए स्टार्टअप लाफालाफा डॉट कॉम पर पूरी तरह से लागू किया। यह अनूठा प्लेटफार्म ग्राहकों को कैशबैक एवं डिस्काउंट कूपन प्रदान करता है जिसे ग्राहक मनी ट्रांसफर, मोबाइल रिचार्ज, शॉपिंग वाउचर के रूप में प्राप्त कर सकते हैं। लाफालाफा के शुरू होने के 7 महीनों के अंदर ही चार लाख से ज्यादा लोगों ने यह ऐप डाउनलोड कर इसके द्वारा लाभ कमाया। सिलिकॉन वैली के शीर्ष 500 स्टार्ट-अप में अपनी जगह बनाने वाली लाफालाफा की अकेली संस्थापक योशा गुप्‍ता हैं जो हांगकांग से भारत में काम कर रहे 17 लोगों की टीम के साथ तालमेल बनाए रखती है।

भीषण चुनौतियों का सामना करके सफल व्यापार को स्थापित करने वाली योशा का मानना है कि बाजार में अपने व्यापारिक क्षेत्र में यदि आपके प्रतियोगी ज्यादा भी हो तों आप अपनी गुणवत्ता से स्वयं को बेहतर साबित करके सबसे आगे निकल सकते हैं। योशा भारत ही नहीं विदेशों में भी अपने व्‍यापार को बढ़ाने की योजना पर काम कर रही हैं। विशेष तौर पर उन देशों में जहां वह पहले काम कर चुकी है क्योंकि ऐसा करके उनका अनुभव एवं अच्छे संबंध उनके व्यापार को वहां विस्तार प्रदान करेंगे। लाफालाफा एप को प्रत्येक a एंड्राइड फोन पर देखना योशा का सपना है। इसके लिए सुबह 7 बजे से योजनाबद्ध तरीके से वह अपनी दिनचर्या शुरू करके अपनी सहयोगी टीम और ग्राहकों से संपर्क बनाए रखती हैं।

अपने ट्विटर अकाउंट के माध्यम से योशा अपनी सफलता का राज बड़े ही सुंदर शब्दों में बांटती है ‘’जो आप करना चाहते हैं उसे मन से करें। वही लोग अपने जीवन में सफल हो पाते हैं जो गर्व की अनुभूति के साथ अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ते हैं। नि:संदेह ऐसे लोगों की सफलता का रास्ता कोई वस्तु नहीं रोक सकती’’।

साभार: 
hindi.kenfolios.com/journey-from-aligarh-to-silicon-valleys-hottest-startup-incubator/

by Meghna GoelJanuary 15, 2018

SHIVANI MAHESHWARI - VAMIKA BAHETI - फूल की खेती से कामयाबी की कहानी लिखने वाली दो दोस्त

कोई कार्य क्षेत्र ऐसा नहीं जहाँ सफलता की गुंजाईश ना हो बस आवश्यकता होती है तो लगन मेहनत और ख़ुद पर विश्वास की। हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है लेकिन बदलते आधुनिक परिवेश ने खेती और किसान दोनों की परिभाषा बदल दी है। हमारी आज की कहानी भी आधुनिक भारत की ऐसी दो बेटियों की है जो धरती पुत्री अर्थात किसान बनकर खेती को एक व्यवसाय के रूप में विकसित कर रही हैं।


जयपुर की शिवानी माहेश्वरी और दिल्ली की वामिका बेहती ने अच्छी ख़ासी नौकरी छोड़ कर हरियाणा में फूलों की खेती का व्यवसाय करने की तरफ रुख़ किया। और आज एक सफल किसान के रूप में अपनी पहचान बना चुकी हैं।

आपको बता दें कि भारत की फ्लोरिकल्चर इंडस्ट्री की सालाना कुल ग्रोथ 30 फीसदी की रफ्तार से भी तेज हो रही है।वहीं इंडस्ट्री बॉडी एसोचैम की मानें तो आने वाले 2015 तक इस इंडस्ट्री का मार्केट कैप 10,000 करोड़ रुपये तक पहुंच जाएगी। ऐसे स्थिति में इस क्षेत्र में कारोबार की बड़ी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में हरियाणा में वामिका और शिवानी की पहल ने किसानों की मदद की है साथ ही उन्हें उन्नत खेती की तकनीकों और व्यावसायिक खेती से अवगत कराया है ।

जयपुर की रहने वाली 23 साल की शिवानी एमबीए ग्रैजुएट हैं तो दिल्ली की 25 साल की वामिका चार्ट्रड अकाउंटेंट हैं।

साल 2015 में शिवानी को फूलों का व्यवसाय करने का ख्याल उस समय आया जब उन्हें रोहतक-दिल्ली जानेे के दौरान एक बार पॉलीहाउस फार्मिंग नेट देखने का अवसर प्राप्त हुआ। शिवानी वहाँ की कुछ तस्वीरें कैमरे में क़ैद कर लाई और फूलों के व्यवसाय के बारे में इंटरनेट पर रिसर्च करना शुरू किया। उसी समय उनकी मुलाकात वामिका से हुई और फिर दोनों ने मिलकर इस पर काम शुरू किया।

हरियाणा खास तौर पर अपने क्षेत्र के किसानों और उनकी खेती के लिये मशहूर है इसलिए दोनों के लिये व्यवसाय से जुड़ी सारी चीजें खुद-ब-खुद बेहतर होने लगी। वामिका की बहादुरगढ़ में एक फैक्ट्री और झझर जिले के तंडाहेरी गांव में खाली जमीन भी थी जिस पर दोनों ने मिलकर यूनिस्टार एग्रो नाम की एक फार्म शुरू कर दी जहाँ लिलियम, गेरबेरा, गुलाब, रजनीगंधा और ग्लेडियोलस की खेती की जाने लगी।



दोनों ने मिलकर अपने फूलों के व्यवसाय में अपनी पढ़ाई का भी पूरा प्रयोग करना शुरू किया जिसका फायदा इन्हें अपने व्यवसाय में मिल रहा है। साथ में ही वामिका को उनके बिजनेसमैन पति की उपयोगी सलाह भी मिलती है।

इन दोनों के उद्यम यूनिस्टार एग्रो को अब हरियाणा सरकार भी सहायता प्रदान कर रही है क्योंकि वामिका और शिवानी की पढ़ाई और तकनीकी जानकारी की वजह से ऑर्गेनिक खेती करने के लिये कई किसानों को सहायता मिल रही हैं।

आज उनका फूलों का व्यवसाय खूब फल-फूल रहा है। उनकी मेहनत और किसानों के फायदों को देखते हुए सरकार ने उन्हें पुरस्कार सब्सिडी और इनसेनटिव भी देना शुरू कर दिया। वामिका और शिवानी अब अपने व्यवसाय को और आगे बढ़ाना चाहती हैं और देश में ही नहीं बल्कि मौका मिला तो विदेशों तक अपने कारोबार को फैलाना चाहती हैं। साथ ही किसानों का आर्थिक स्तर भी सुधारना उनका लक्ष्य हैं।

वाक़ई यदि देश की युवा पीढ़ी इस तरह अपने ज्ञान का उपयोग करेगी तो वो दिन दूर नहीं जब भारत फिर से सोने की चिड़िया कहलाने लगेगा।

साभार: hindi.kenfolios.com/ca-and-mba-girls-chose-farming-over-corporate-jobs/

by Himadri SharmaJanuary 13, 2018

Wednesday, January 17, 2018

हिन्दू धर्म में वैश्य समाज का महत्व और योगदान

हिन्दू धर्म में वैश्य समाज का महत्व और योगदान



पद्मावती फ़िल्म का सर्व हिन्दू समाज ने विरोध किया जो कि बहुत ही प्रसन्नता का विषय है। फ़िल्म के प्रखर विरोध के लिए श्री राजपूत करणी सेना व राजपूत संगठनों के साथ बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, अन्य हिन्दू संगठन अग्रवाल महासभा, ब्राह्मण महासभा, वैश्य महासभा व अन्य 36 कौम एक साथ आई हैं। महारानी पद्मिनी सभी हिन्दूओं की माँ हैं और उनका सम्मान किसी के लिए बंटा हुआ नहीं है।

परन्तु जब भी हिन्दू एकजुट से दिखने लगते हैं कुछ मूर्ख जातिवाद फैलाना चालू कर देते हैं। जैसे कुछ मूर्ख राजपूतों को कायर तक कह देते हैं, कुछ धूर्त ब्राह्मणों को बेरोकटोक गाली बक जाते हैं। ऐसे ही कुछ नमूने बनियों को धंधेबाज और स्वार्थी कहकर उनका अपमान करते हैं। वैश्यों ने अपना कभी भी प्रचार कर महानता की पीपुड़ी बजाकर दूसरों को नीचा नहीं दिखाया इसलिए हमेशा ही उनका कम आकलन किया गया है और परिदृश्य से ही ओझल सा कर दिया जाता है। जबकि वैश्य समाज ने हमेशा हिन्दूओं की हर लड़ाई में ऐसे साथ दिया है जैसे गायक का साथ उसके संगतकार देते हैं। एक कवि की कुछ पंक्तियां हैं —

मुख्य गायक की गरज़ में,
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से,
गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में, खो चुका होता है,
तब संगतकार ही स्थाई को सँभाले रहता है।

तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला,
तभी मुख्य गायक को ढाढस बँधाता,
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर,
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ,
और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है,
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है,
उसे विफलता नहीं,
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।

ऐसा ही है वैश्य समाज जो कहीं से छिपकर, बिना किसी अहम् के धर्म की लड़ाई में गिलहरी योगदान देता आया है। जब हम कहते हैं कि विदेशी आक्रांताओं ने आक्रमण करके भारत का धन लूटा, व्यापार नष्ट कर दिए, तो वे लुटने वाले कौन थे? वे यही लोग थे। पर वे कभी धर्म से दूर नहीं हुए और अपने धन संसाधन सदैव धर्म के लिए निःस्वार्थ भाव से खोले रखे। युद्धों की सबसे ज्यादा गाज व्यापार पर ही गिरती है और वैश्य ही कर द्वारा राज्य को समृद्ध बनाते हैं।



जौहर केवल जाति विशेष का नहीं..

विल ड्यूरेन्ट ने अपनी किताब द स्टोरी ऑफ सिविलाइज़ेशन में लिखा है कि, “जब अलाउद्दीन ने चित्तौड़ में प्रवेश किया तब परकोटे की चारदीवारी में मनुष्य जीवन का चिन्ह तक नहीं था। सभी पुरुष युद्ध में मारे जा चुके थे और उनकी पत्नियाँ जौहर में।” अमीर खुसरो के अनुसार “सैनिकों के अलावा 30 हज़ार हिन्दूओं का खिलजी ने क़त्ल करवाया था। जिस कारण लगता था कि खिज्रबाद में घास की बजाय पुरुष उगते थे।” इसलिए यह तो स्पष्ट है कि केवल राजपूत ही नहीं ब्राह्मण, वैश्य सभी का बलिदान और क़त्ल हुआ था। क्योंकि कोई भी नगर केवल एक जाति से नहीं बसता है। राजपूत साम्राज्य की छत्रछाया में वृहद हिन्दू समाज भी रहता था। ऐसे में शुरुआत से ही यह लड़ाई केवल एक समुदाय की नहीं अखिल हिन्दू समाज की लड़ाई है।



भामाशाह का दान


वैश्य समाज धर्म के लिए कभी भी पीछे नहीं रहा है। हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप जब मेवाड़ के आत्मसम्मान के लिए जंगलों में भटक रहे थे तब भामाशाह ने सम्पूर्ण निजी सम्पत्ति का दान कर दिया था। जिससे 25000 सैनिकों का बारह वर्ष तक निर्वाह हो सकता था। प्राप्त सहयोग से महाराणा प्रताप में नया उत्साह उत्पन्न हुआ और उन्होंने पुन: सैन्य शक्ति संगठित कर मुगल शासकों को पराजित करके राज्य सम्भाला।


धर्मपरायणता के लिए जाति निकाला..

अग्रवाल वैश्यों के धर्माभिमान का ये स्तर था कि एक लाला रतनचंद मुग़ल बादशाह फ़र्रुख़सियर का दीवान बन गए और सैय्यद भाइयों के खास। उस समय लाला रतनचंद की भूमिका किंग मेकर जैसी थी। जज़िया का भी उन्होंने विरोध किया था। परन्तु अग्रवाल समाज को उनका मुस्लिमों की नौकरी करना नागवार गुजरा और उन्हें जाति बहिष्कृत कर दिया गया। रतनचंद से पहले किसी अग्रवाल का मुगलों से सम्बन्ध नहीं रहा था। बाद में रतनचंद ने राजवंशी नाम की अलग उपजाति बना ली। इसी धर्मपरायणता के कारण 1990 से पहले एक भी अग्रवाल का मुस्लिम बनने का मामला नहीं मिलता।


वैश्य: हिन्दू धर्म के निःस्वार्थ सेवक

देश के अधिकांश मंदिर निर्माण, प्रबंधन, धार्मिक आयोजन, सेवा प्रकल्प, यज्ञ याग आदि में तो इस समाज का योगदान बताने की आवश्यकता नहीं है। हिंदी के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र, क्रांतिकारियों के प्रेरणापुंज लाला लाजपत राय, गीताप्रेस के द्वारा सनातन धर्म की अकल्पनीय निःस्वार्थ सेवा करने वाले गीताप्रेस के संस्थापक ब्रह्मज्ञानी हनुमान प्रसाद पोद्दार जी, जयदयाल गोयन्दका जी हों, हिन्दुत्व को कलम से सींचने वाले सीताराम गोयल हों या देश में श्रीरामलला की आंधी चलाने वाले पूज्य अशोक सिंहल जी या हज़ारों युवा जिन्होंने श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन में ऐतिहासिक भाग लिया वैश्यों ने कभी भी अपने कार्य को प्रचार और एहसान जताने के साधन नहीं बनाया। न इसके लिए किसी सम्मान की कभी उपेक्षा की। अपने हिस्से की धर्मसेवा की और उसे मन से निकालकर फेंक दिया। पुनः धर्म और सन्तों के सेवक बनकर गिलहरी योगदान देते रहने को ही जीवन का उद्देश्य माना। फिर भी जब कुछ जातिवाद के दम्भ से पीड़ित लोग वैश्यों को स्वार्थी, सांठगांठ करने वाला और निष्क्रिय बताकर अपने दम्भ को पोषित करने का प्रयास करते हैं तो हंसी नहीं तो दया के पात्र लगते हैं।


पद्मावती फ़िल्म के विरोध में भी यह समाज सहज रूप से स्वयं प्रेरित भाव से ही अलख जगाता रहा। और माँ के सम्मान में हमेशा खड़ा रहेगा। राष्ट्रीय अग्रवाल महासभा उन सबका पूर्ण समर्थन और अभिवादन करती है जो माँ के सम्मान में खड़े हैं। समग्र वैश्य समाज तो धर्म के प्रत्येक कार्य में एकांत में योगदान देकर अपना कर्तव्य निभाता रहेगा। कभी कोने में घायल गौ के घाव भरता दिखेगा तो कभी रामलला के चौखट पर पत्थर लगाते। कभी किसी प्यासे को पानी पिलाते तो किसी पंगत में सन्तों की सेवा करते। कभी युद्ध में रसद पहुंचाते तो कभी युद्धभूमि में मुस्कुराते मुख के साथ बलिदान हुआ मिलेगा….

साभार: राष्ट्रीय अग्रवाल महासभा, theanalyst.co.in/vaishya-community-in-hindu-dharma/


Sakshi Agarwal-साक्षी अग्रवाल

Sakshi Agarwal


Sakshi Agarwal (born 20 July 1990) is an Indian film actress, primarily known for her work in the Tamil film industry, Kollywood. She started her career modelling in Bangalore and also worked in two Kannada films, Sandalwood before she began working on Tamil films. Apart from acting, Sakshi has also worked on many TV commercials and photo shoots for some big brands in the city.

Brought up in Chennai, Sakshi completed her engineering degree from St. Joseph's Engineering College, Chennai in 2006 and pursued further studies by attending MBA from a leading institute in Bangalore. After working for a few months in one of the India's top IT companies, she was noticed by a well known fashion designer from Bangalore who gave her a break into the modelling industry.

Early life

Sakshi was born in Almora but soon moved to Chennai with her parents. She grew up in this city. Her father is from Rajasthan and her mother is from Tamil Nadu. Sakshi received a gold medal in Bachelor of Information Technology from Anna University (one of top 256 engineering colleges), then pursued her MBA from Xavier Institute of Management and Entrepreneurship, Bangalore. She completed her crash course on Method Acting at the most prestigious school in the world- "Lee Strasberg Theatre and Film Institute" which follows the Stainslavaski approach to acting. She is the only actress in South India to have done this course, other prominent names include Uma Thurman, Scarlett Johansson, Ranbir Kapoor, Imran Khan etc. Her mother is a home maker and father a Businessman in the south.


Career

She has worked in over 100 TV commercials and modelled for many photo shoots. Some brands she has worked with are, Palam Silks,Kalyan Silks, Sakti Masala, Toni&Guy, Times Of India, Max Life style, Coco fresh, Saravana stores, Malabar Gold, ARRS Silks, MRF Aqua fresh, Mysore Silk, Hebron Builders, Jullaaha (Medimix group), Cura Health Plus, Life style galleria, Aruna Masala. She has also walked as a show stopper for some top designers in Chennai and Bangalore, in likes of Tina Vincent, Kirtilal's Jewelers, Krishna Chetty and Sons, Ramesh Dembla, Sanjana Jon, Shilpi Choudhary, Calonge, 


साभार: विकिपीडिया 



CA FINAL के परिणाम में वैश्य समाज का जलवा

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साभार: दैनिक भास्कर