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Saturday, October 6, 2012

वीर बालक : दिग्विजयी स्कन्दगुप्त(SKAND GUPTA)

वैश्य गौरव - वीर बालक स्कन्द गुप्त 

हूण, शक आदि मध्य एशिया की मरुभूमि में रहने वाली बर्बर जातियां वहां पांचवीं शताब्दी में थीं। हूण और शक जाति के लोग बड़े लड़ाकू और निर्दयी थे। इन लोगों ने यूरोप को अपने आक्रमणों से बहुत बार उजाड़-सा दिया। रोम का बड़ा भारी राज्य उनकी चढ़ाइयों से नष्ट हो गया। चीन को भी अनेक बार इन लोगों ने लूटा। ये लोग बड़ी भारी सेना लेकर जिस देश पर चढ़ जाते थे वहां हाहाकार मच जाता था।

एक बार समाचार मिला कि हूणों की बड़ी भारी सेना हिमालय पर्वत के उस पार भारत पर आक्रमण करने के लिए इकट्ठी हो रही है। उस समय भारत में सबसे बड़ा मगध का राज्य था। वहां के सम्राट कुमार गुप्त थे। उनके पुत्र युवराज स्कन्द गुप्त उस समय तरुण नहीं हुए थे। हूणों की सेना एकत्र होने का जैसे ही समाचार मिला, स्कन्द गुप्त अपने पिता के पास दौड़े हुए गये। सम्राट कुमारगुप्त अपने मंत्रियों और सेनापतियों के साथ उस समय हूणों से युद्ध करने की सलाह कर रहे थे। स्कन्द गुप्त ने पिता से कहा कि 'मैं भी युद्ध करने जाऊंगा। महाराज कुमार गुप्त ने बहुत समझाया कि 'हूण बहुत पराक्रमी और निर्दयी होते हैं। वे अधर्मपूर्वक छिपकर भी लड़ते हैं और उनकी संख्या भी अधिक है। उनसे लड़ना तो मृत्यु से ही लड़ना है।'

लेकिन युवराज स्कन्द गुप्त ऐसी बातों से डरने वाले नहीं थे। उन्होंने कहा- 'पिताजी! देश और धर्म की रक्षा के लिए मर जाना तो एक वीर आर्य  के लिए बड़े मंगल की बात है। मैं मृत्यु से लडूंगा और अपने देश को क्रूर शत्रुओं द्वारा लूटे जाने से बचाऊंगा।'

महाराज कुमार गुप्त ने अपने वीर पुत्र को हृदय से लगा लिया। स्कन्द गुप्त को युद्ध में जाने की आज्ञा मिल गयी। उनके साथ मगध के दो लाख वीर सैनिक चल पड़े। पटना से चलकर पंजाब को पार करके हिमालय की बर्फ से ढकी सफेद चोटियों पर वे वीर सैनिक चढ़ गये। भयानक सर्दी, शीतल हवा और बर्फ के तूफान भी उन्हें आगे बढ़ने से रोक नहीं सके।

हूणों ने सदा दूसरे देशों पर आक्रमण किया था। कोई आगे बढ़कर उन पर भी आक्रमण कर सकता है, यह उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था। जब उन्होंने देखा कि हिमालय की चोटी पर से बड़ी भारी सेना उन पर आक्रमण करने उतर रही है तो वे भी लड़ने को तैयार हो गये। उन्हें सबसे अधिक आश्चर्य यह हुआ कि उस पर्वत से उतरती सेना के आगे एक छोटी अवस्था का बालक घोड़े पर बैठा नंगी तलवार लिये शंख बजाता आ रहा है। वे थे युवराज स्कन्द गुप्त।

युद्ध आरम्भ हो गया। युवराज स्कन्द गुप्त जिधर से निकलते थे, शत्रुओं को काट-काटकर ढेर कर देते थे। थोड़ी देर के युद्ध में ही हूणों की हिम्मत टूट गयी। वे लोग इधर-उधर भागने लगे। पूरी हूण सेना भाग खड़ी हुई। शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके जब युवराज स्कन्दगुप्त फिर हिमालय को पारकर अपने देश में उतरे, उनका स्वागत करने के लिए लाखों लोगों की भीड़ वहां पहले से खड़ी थी। मगध में तो राजधानी से पांच कोस तक का मार्ग सजाया गया था। उनके स्वागत के लिए पूरे देश में उस दिन उत्सव मनाया गया।

यही युवराज स्कन्द गुप्त आगे जाकर भारत के सम्राट हुए। आज के ईरान और अफगानिस्तान तक इन्होंने अपने राज्य का विस्तार कर लिया था। इनके-जैसा पराक्रमी वीर भारत को छोड़कर दूसरे देश के इतिहास में मिलना कठिन है। इन्होंने दिग्विजय करके अश्वमेध यज्ञ किया था, वीर होने के साथ ये बहुत ही धर्मात्मा, दयालु और न्यायी सम्राट थे।

साभार : पांचजन्य 

लाला हरदेव सहाय - गोऊ माता की रक्षा को समर्पित जीवन (LALA HARDEV SAHAY)




हमारे धर्मशास्त्रों में मातृभूमि के महत्व पर व्यापक रूप से प्रकाश डाला गया है। वेद का कथन है- 'माताभूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:' अर्थात भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं। इस आदेश का असंख्य महापुरुष पालन करते हुए मातृभूमि की समृद्धि के लिए, उसकी अखंडता की रक्षा के लिए सदैव सन्नद्ध रहे हैं। मातृभूमि के लिए सर्वस्व समर्पित करने की प्रेरणा पुराणों तथा उपनिषदों में भी दी गई है। परमगति को कौन प्राप्त होते हैं, इसका विश्लेषण करते हुए कहा गया है-

द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमंडलभेदिनौ।

परिव्राड् योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हत:।।

अर्थात् योगयुक्त संन्यासी और रण में जूझते हुए वीरगति को प्राप्त होने वाला वीर- ये दो पुरुष सूर्यमंडल को भेदकर परमगति को प्राप्त होते हैं। धर्मशास्त्रों के वचनों से प्रेरणा लेकर समय-समय पर माता के सपूत मातृभूमि की रक्षा के लिए अनादिकाल से आत्मोत्सर्ग करने, प्राणदान करने, शीशदान तक करने को तत्पर रहते रहे हैं।

महापुरुषों की इसी पावन परम्परा की श्रृंखला में एक नाम है- 'लाला हरदेव सहाय'। उनका अनूठा बहुमुखी व्यक्तित्व था। वे जहां प्रखर स्वाधीनता सेनानी थे, वहीं हिन्दी व शिक्षा के अनन्य प्रचारक भी थे। उन्होंने हिसार जिले के गांव-गांव में हिन्दी माध्यम के विद्यालयों की स्थापना कर ज्ञान की ज्योति प्रज्ज्वलित करने का अनूठा प्रयोग किया। गांवों में खादी तथा अन्य स्वदेशी वस्तुओं के उत्पादन को प्रोत्साहन देकर 'स्वरोजगार' का पहला सफल प्रयोग किया। एक यशस्वी सम्पादक व प्रभावी लेखक के रूप में समाज के जागरण में उन्होंने अहम भूमिका निभाई। भारतीयता के प्रतीक गोवंश के महत्व को साहित्य व पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से प्रस्तुत करके उन्होंने गोरक्षा की भावना को प्रकट किया।

लाला जी जहां एक प्रखर स्वाधीनता सेनानी, हिन्दी के अनन्य प्रचारक, निष्काम समाजसेवी, स्वदेशी के निष्ठावान समर्थक व परम गोभक्त थे वहीं उन्होंने 'ग्राम सेवक' व 'गोधन' का अनेक वर्षों तक सफल सम्पादन करके यह सिद्ध किया कि वे एक यशस्वी व निर्भीक सम्पादक भी हैं। इसी प्रकार उन्होंने एक दर्जन से ज्यादा पुस्तकों की रचना भी की जिनसे उनके अथाह अध्ययन तथा सरल लेखन शैली का पता चलता है।

लाला जी ने स्वराज्य व स्वदेशी भावना के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से सन 1936 में 'ग्राम सेवक' पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। वह 'ग्राम सेवक' में निर्भीकतापूर्वक विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा ग्रामों के करघे पर बनी खादी का प्रयोग करने, अंग्रेजी की जगह बच्चों को हिन्दी पढ़ाने, धार्मिक व नैतिक संस्कार की शिक्षा देने की प्रेरणा देने वाले लेख प्रकाशित करते थे।

सन 1942 में लाला जी 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में सत्याग्रह करते हुए जेल भेजे गए तो 'ग्राम सेवक' को बन्द करना पड़ा।

उन्होंने बाद में हिसार से 'कामधेनु' व 'सेवक' नाम से पत्रिकाओं का प्रकाशन व सम्पादन किया।

सन् 1954 में लालाजी ने भारत गो सेवक समाज की ओर से 'गोधन' (मासिक) पत्रिका का प्रकाशन शुरू कराया। वे इसके पहले सम्पादक थे। वे प्रत्येक अंक में सामयिक विषय पर तथ्यों से परिपूर्ण सम्पादकीय लेख लिखा करते थे।

'ग्राम सेवक' में प्रकाशित उनके लेख, आलेख तथा सम्पादकीय टिप्पणियां उनके एक मननशील चिंतक व दूरदर्शी सम्पादक होने का ज्वलन्त प्रमाण हैं।

लाला जी की सुविख्यात गोभक्त मनीषी महात्मा रामचन्द्र 'वीर' महाराज के प्रति अनन्य श्रद्धा-भावना थी। सन 1954 में वीर जी महाराज ने कोलकाता में महाजाति सदन के निकट एक धर्मशाला में गोहत्या एवं पशु बलि के विरुद्ध अनशन किया। इस लम्बे अनशन से पूरे देश में तहलका मच गया था। लाला जी वीर जी के जीवन को दुर्लभ समझते थे। वे कोलकाता पहुंचे। उन्होंने तथा भाई हनुमानप्रसाद पोद्दार ने वीर जी से प्रार्थना की कि अभी आपको गोरक्षा अभियानों का मार्गदर्शन करना है अत: अनशन त्याग दें। लाला जी के हाथों से सन्तरे का रस ग्रहण कर उन्होंने अनशन त्यागा। अभा कृषि गो सेवा संघ (वाराणसी) के मंत्री श्री किशन काबरा उस समय उपस्थित थे। वे बताते हैं कि कलकत्ता में रहने वाले हरियाणावासियों ने एक समारोह में लाला जी का भव्य अभिनन्दन किया था।

वीर जी महाराज ने भागलपुर व हैदराबाद में गोहत्या बन्दी के लिए अनशन किए तो लाला जी वहां पहुंचे तथा वीर जी के अनशन का सार्वजनिक रूप से समर्थन किया।

महात्मा वीर के उत्तराधिकारी आचार्य श्री धर्मेन्द्र जी द्वारा गोवंश के महत्व पर लिखित पुस्तक 'भारत की आत्मा' की भूमिका लाला जी ने लिखी थी।

लाला जी को तथ्यों के साथ पता लगा कि पंजाब व राजस्थान से भारी संख्या में गाय बैलों की तस्करी कर उन्हें पाकिस्तान के कसाईखानों में भेजा जाता है। इस जानकारी ने उन्हें उद्वेलित कर दिया।

लाला जी ने 31 जुलाई 1956 को प्रतिनिधि मंडल के साथ राष्ट्रपति भवन जाकर राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद से भेंट कर उन्हें गायों की तस्करी कर पाकिस्तान ले जाए जाने तथा देशभर में प्रतिदिन लाखों गायों की हत्या किए जाने की जानकारी दी। प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति से खादी कमीशन की तरह गोरक्षा के लिए अलग से संवैधानिक बोर्ड का गठन कर देश भर में गोहत्या पर रोक लगाने का मार्ग प्रशस्त किए जाने का सुझाव दिया। शिष्टमंडल में सेठ गोविन्ददास (संसद सदस्य), पं. ठाकुरदास भार्गव, सत्गुरु प्रतापसिंह, संत तुकाराव, जे.एन. मानकर तथा आनन्दराज सुराणा थे।

राजेन्द्र बाबू लालाजी के त्याग तपस्यामय जीवन से प्रभावित थे। उन्होंने आश्वासन दिया कि वे गोरक्षा के लिए यथासंभव प्रयास करेंगे। आगे चलकर जब राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद गोभक्ति की भावना से ओतप्रोत होते हुए भी गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने में सफल नहीं हो पाए तो लाला जी के हृदय को भारी आघात लगा। वह निर्भीकता की मूर्ति थे। वे गोस्वामी तुलसीदा जी के : 'जाके प्रिय न राम वैदेही,तजिए ताहि कोटि वैरी सम जद्यपि परम सनेही' वचन का उद्धरण देते हुए कहा करते थे- 'मैं ऐसे किसी भी बड़े से बड़े व्यक्ति को सहन करने को तैयार नहीं हूं जो भारतीय होते हुए भी गोवंश के विनाश के दौरान मूकदर्शक बनकर पदों का आनन्द उठा रहा है। राजेन्द्र बाबू यदि वास्तव में गोभक्त हैं तो उन्हें गोरक्षा के प्रश्न पर अविलम्ब राष्ट्रपति पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए'।

राष्ट्रपति को गाय का घी भेजते थे

इस मतभेद के बावजूद डा. राजेन्द्र प्रसाद जी से लाला जी का सौहार्द अंत तक बना रहा। लाला जी अपने सहयोगी चौ. रामस्वरूप कागदाना के हाथों अपने गांव सातरोद से उनके लिए गाय का शुद्ध घी राष्ट्रपति भवन भेजा करते थे।

मेरे पिताश्री भक्त रामशरणदास जी को जिन महापुरुषों के सान्निध्य में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ उनमें पूज्य लालाजी भी थे। पूज्य लाला जी समय-समय पर पिलखुवा स्थित हमारे निवास स्थान पर पधारने की कृपा करते थे। मुझे वे पुत्रवत स्नेह करते थे। मैं समय-समय पर दिल्ली जाकर उनके दर्शनों व सत्संग से लाभान्वित होता रहता था। मैंने यह अनुभव किया कि लालाजी वास्तव में एक ऐसे सद्गृहस्थ संत थे जिन्होंने अपना सर्वस्व राष्ट्र की स्वाधीनता, उसकी समृद्धि, लोक कल्याण तथा गोमाता की रक्षा के लिए पूर्णरूपेण समर्पित किया हुआ था। उनकी कथनी व करनी पूरी तरह एक थी। सादगी, सात्विकता, सरलता की वे त्रिमूर्ति थे। उन जैसा विलक्षण महापुरुष दुर्लभ ही होता है।

(लेखक की सद्य प्रकाशित पुस्तक 'विलक्षण विभूति लाला हरदेव सहाय' के अंश, प्रकाशक- भारतगोसेवक समाज, 3, सदर थाना रोड, दिल्ली-110006, मूल्य-200 रु., पृ.-120)

'लाला हरदेव सहाय जी पुरानी पीढ़ी के अग्रणी तपस्वी राष्ट्रनायक व परम गोभक्त थे। यह अत्यन्त दुर्भाग्य की बात है कि लालाजी के गोहत्या बन्दी के सपने को गोभक्त अब तक साकार नहीं करा पाए हैं। यदि सभी एकजुट होकर गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाए जाने की जोरदार मांग करें तो किसी की भी ताकत नहीं है कि यह कार्य पूरा न हो। गोवंश हमारी संस्कृति का मेरुदण्ड है। उसकी रक्षा होनी ही चाहिए।'

 -श्री श्री रविशंकर

साभार : लेखक श्री शिव कुमार गोयल जी, पांचजन्य