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Tuesday, May 19, 2020

Aparajita Bhushan - अपराजिता भूषण

Ramayan Mandodri Aparajita Bhushan Biography in Hindi

Ramayan's Mandodari Aparajita Bhushan Speaks About Her Role ...

अपराजिता भूषण जी का जन्म 09 नवम्बर 1954 को मुंबई में हुआ था। भारत भूषण जी की दो बेटियां थी। बड़ी बेटी का नाम अनुराधा था और अपराजिता जी इनकी छोटी बेटी हैं। अपराजिता जी से ज्यादा लगाव उन्हें अपनी बड़ी बेटी अनुराधा जी से था। क्योंकि अनुराधा जी एब्नॉर्मल चाइल्ड थी। भारत भूषण जी को हमेशा लगता था की उनके ना रहने के बाद अनुराधा जी का जीवन कैसे गुजरेगा। हालाँकि अपराजिता जी की बहन अनुराधा जी को इस दुनिया को अलविदा कहे हुए करीब 10 से 15 साल हो गए हैं। अपराजिता जी कभी एक्ट्रेस नहीं बनना चाहती थी। उनका लगाव शिक्षा और अद्ध्यात्म में ज्यादा रहा। उनकी शादी हो गयी और उस शादी से उनके एक बेटा और एक बेटी हुई। 

भारत भूषण जी उनके पिता थे। इसलिए उनका बचपन किसी राजकुमारी जैसा गुजरा। गाडी, बंगला, नौकर- चाकर सब थे उनके पास। किन्तु किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। भारत भूषण जी का फ़िल्मी करियर ढलान पर आने लगा। भारत भूषण जी की बाहरी लोगों के साथ उठक बैठक कम ही थी। ज्यादातर उनका समय किताबों और संगीत में जाता था। निराशा कभी उनके चेहरे पर नहीं झलकी। और इसी का असर था की उनकी बेटी अपराजिता भूषण जी को उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। जब भारत भूषण जी का करियर ढलान पर आया उसी दौरान अपराजिता जी के पति का देहांत हो गया। इधर पिता जी का समय ठीक नहीं था उधर उनके पति का यूँ चले जाना। बच्चे साथ थे, आखिरकार परिवार तो चलाना ही था। 

इन्होने फिल्मो और धारावाहिकों में डबिंग का काम करना शुरू किया। एक दिन जब ये रामानंद सागर जी के उमर गाँव स्टूडियो में रामायण में डबिंग का काम कर रही थी। तब इन्हे रामानंद सागर जी ने मंदोदरी का किरदार सौंप दिया। इन्हे एक्टिंग नहीं आती थी। इसलिए इन्हे रामानंद सागर जी ने कला के छेत्र में काफी कुछ सिखाया। मंदोदरी के किरदार से इनके जीवन में धनात्मक रूप से परिवर्तन आया। यहाँ से उनकी फ़िल्मी दुनिया में पहचान बन गयी और उन्हें अनेकों फिल्मो और धारवाहिकों में किरदार करने के मौके मिले। 

इन्होने करीब 40 से 50 टेलीविज़न धारावाहिकों और फिल्मों में काम किया। हत्या इनके करियर की पहली फिल्म थी। इन्होने काला बाजार, विश्वात्मा, हत्या, ब्रह्मचारी, महाराज और गुप्त जैसी सुपरहिट फिल्मों में काम किया। वैसे तो ज्यादातर किरदार इन्होने पॉजिटिव ही निभाए। नेगेटिव किरदार की बात करें तो इन्होने दूरदर्शन पर प्रसारित हुए इम्तिहान धारावाहिक में नेगेटिव किरदार निभाया था। वहीँ इन्होने कुछ भोजपुरी फिल्मों में काम तो किया ही और साथ ही साथ कुछ गुजराती फिल्मों में भी काम किया। इसी दौरान उन्होंने पुणे में अपना रहने का ठिकाना बनाया। 

उन्हें कभी अपने नाम की फ़िक्र नहीं हुई और ना ही सोहरत की। वर्ष 1997 में उनकी आखिरी फिल्म गुप्त आयी थी। इस फिल्म के बाद वो वापस पुणे में अपने परिवार के साथ रहने लगी। उनका बेटा कॉर्पोरेट इंडस्ट्री में है तो वहीँ उनकी बेटी एक व्यवसाय चलती हैं। वर्तमान में उनके दोनों बच्चे अच्छे से सेटल्ड हैं। दोनों बच्चों की शादी भी हो चुकी है। 

जैसा हमने पहले बताया की उनकी रूचि पढाई और अद्ध्यात्म में शुरू से रही है। इसलिए जब वो फ़िल्मी दुनिया से पूरी तरह दूर हुई तो उन्होंने स्वतंत्र लेखन में हाथ आजमाया। अगर आपने टाइम्स ऑफ़ इंडिया और नवभारत टाइम्स अख़बार पढ़े होंगे। तो उसमे आपने एक कॉलम देखा होगा स्पीकिंग ट्री का। स्पीकिंग ट्री एक टाइम्स ग्रुप की धार्मिक वेबसाइट है। जहाँ विभिन्न धर्मगुरुओं के लेख आपको मिलते हैं जैसे ओशो, सद्गुरु आदि। उन्ही में से कुछ लेख इनके भी हैं। साथ ही साथ वो कैंप लगा कर उन लोगों की भी मदद करती हैं जो मानसिक रूप से परेशान हैं। फिलहाल उनकी फ़िल्मी दुनिया में कोई रूचि नहीं है। उन्हें अपने लेखन में ही संतुष्टि मिलती है। 

इनके जीवन से हम सबको प्रेरणा लेनी चाहिए की कोई भी घडी हो कितना भी संकट का समय हो हार नहीं मान नई चाहिए। मेहनत करते रहो एक ना एक दिन जरूर मंजिल मिलेगी। 

साभार: biographies.lekhakkilekhni.in/2020/04/ramayan-mandodri-aparajita-bhushan-biography-in-hindi.html

AGROHA A GREAT CITY - "अग्रोहा - खोई हुई सभ्यता और उसका अग्रवालों से संबंध"

"अग्रोहा - खोई हुई सभ्यता और उसका अग्रवालों से संबंध"

भारत में तथ्य और मिथक के बारे में अंतर करना मुश्किल होता है। कभी कभी इतिहास और किवदन्तियां दोनों कभी कभी एक दूसरे से ऐसे गुथे हुए होते हैं, खासकर जब चर्चा समुदायों की चल रही हो। ऐसी ही एक विस्मयकारी किवदंती है सरस्वती नदी के तट पर बसी एक प्राचीन रहस्यमयी नगरी की और जो की भारत के सर्वश्रेष्ठ व्यापारिक समुदायों में से एक अग्रवालों से जुड़ी हुई है।

लेकिन इस मामले में पुरातत्ववेत्ताओं ने किवदंतियों के आधार पर इस खोई हुई नगरी को ढूंढा।


अग्रवाल भारतीय व्यापार पर एकाधिकार सा रखते हैं- छोटे व्यापारियों से लेकर बजाज, जिंदल, रुइया और मित्तल जैसे घरानों तक और नए युग के उद्यमी जैसे ओला के भाविश अग्रवाल और ओयो के रितेश अग्रवाल भी.. और ये सूची लंबी है। अग्रवालों की उत्पत्ति के बारे में एक किवदंती महाभारत काल में महाराज अग्रसेन और उनके गणराज्य अग्रोहा से जुड़ी हुई है।

इस किवदंती के अनुसार आजसे लगभग 5000 वर्ष पर महाराज अग्रसेन आग्रेय गणराज्य, जिसकी राजधानी अग्रोदक थी, पर राज करते थे। वो एक दयालु और प्रजापालक सम्राट थे उन्होंने राज्य में नियम बनाया था की आग्रेय में बसने वाले नवांगतुक को आग्रेय गणराज्य की तरफ से 1 स्वर्ण मुद्रा और एक ईंट दी जाएगी। उस समय अग्रोदक की जनसंख्या 1 लाख थी तो नवांगतुक के पास 1 लाख स्वर्ण मुद्रा और पर्याप्त ईंट हो जाते थे जिससे वो अपना व्यापार स्थापित करे और अपना घर बनाये। अग्रोहा जल्द ही व्यापारियों का समृद्ध राज्य बन गया। कुछ मतों के अनुसार आगरा जिसका प्राचीन नाम अग्रवती था और दिल्ली की अग्रसेन की बावड़ी दोनों महाराज अग्रसेन द्वारा स्थापित हैं।

इस किवदंती के अनुसार महाराज अग्रसेन के 18 पुत्र थे और इन्हीं पुत्रों के 18 गोत्र आज अग्रवाल समाज के 18 गोत्र हैं। गर्ग, गोयल, मित्तल, जिंदल, सिंघल, बंसल, धारण आदि अग्रवालों के गोत्र हैं। महाराज अग्रसेन का राज्य शताब्दियों तक समृद्ध रहा फिर इसका बाहरी आक्रमणों के कारण पतन हुआ जिसके कारण अग्रवाल अपनी जन्मभूमि से निकल कर पूरे विश्व में फैले। 

लेकिन ये सिर्फ एक मौखिक इतिहास था जो पीढ़ियों से अग्रवाल परिवार अपने वंशजों को बताते आरहे थे, इसे प्रसिद्धि तब मिली जब आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक कहे जाने वाले भारतेंदु हरिचंद्र, जो स्वयं भी अग्रवाल थे, उन्होंने सन् 1871 में अपनी पुस्तक अग्रवालों की उत्पत्ति में इसका जिक्र किया। इस ग्रंथ से लोगों में अग्रवाल समुदाय के प्राचीन इतिहास के बारे में लोगों की रुचि जगी और इस किवदंती के बारे में पुरात्व शोध शुरू हुए।

शुरुवात में इस बात का अनुमान नहीं था की ये नगरी कहाँ है? कुछ लोगों का दावा था की ये राजस्थान या पंजाब में है तो कुछ लोगों का दावा था की ये आगरा का प्राचीन नाम है। सन 1888-89 में Archaelogical Survey of India (ASI) को हरयाणा के हिसार शहर में अग्रोहा के पास 650 एकड़ में फैली हुक एक दबी हुई सभ्यता के अवशेष मिले। ये विलुप्त हो चुकी घग्गर नदी के तट पर थी। इस टीले की खुदाई तीन स्टेजेज में हुई 1888-89, 1838-39 और अंतिम बार 1879-85. 

पुरातत्वविदों ने जो पाया, वह वास्तव में आश्चर्यजनक था। यह था, जैसे कि प्रत्येक उत्खनन के साथ, टीले ने सबूतों ने उस प्राचीन किवदंती को सही साबित किया। उन कीमती कलाकृतियों से पता चला, कि पुरातत्वविदों और इतिहासकारों ने मिलकर जो सोचा था वो अग्रोदक नामक महान व्यापारिक शहर कैसा रहा होगा। खुदाई से एक अच्छी तरह से नियोजित शहर के अस्तित्व का पता चला, जिसमें एक खाई, ऊंची दीवारें और चौड़ी सड़कें थीं। यहां लोगों के निवास करने के संकेत 4-5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 15 वीं शताब्दी तक मिलते हैं। सदियों से, यह एक महान व्यापारिक शहर था, जो सरस्वती नदी के तट पर, तक्षशिला और मथुरा के बीच एक महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग पर स्थित था।

वास्तव में, उत्खनन से इसकी प्राचीनता साबित हुई थी। ऐसा लगता था कि अग्रोदका पूर्व-हड़प्पा काल से पनप रहा था। इसमें कहानी, ग्रे पॉटरी और बहुत बाद में बौद्ध स्तूप के अवशेष और साथ ही कई मौर्य और शुंग मूर्तियां थीं। साइट के निरंतर कब्जे ने उन समयों के दौरान इसके महत्व को प्रकट किया। अग्रोहा में कई सिक्के पाए गए हैं, जिनमें शिलालेख 'अगोदक अगाका जनपदसा' या 'सिक्कों में अगाका जनपद के सिक्के' हैं। यह अग्रवाल पौराणिक राज्यों के रूप में, अग्रस के एक संपन्न जनपद को प्रकट करता है।

यह क्षेत्र कुषाण के हाथों में पड़ गया और इसके बाद गुप्त शासन आया। इस समय के दौरान, हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और साथ ही जैन धर्म यहाँ संपन्न हुआ। शहर का अंतिम ज्ञात संदर्भ 14 वीं शताब्दी में तुगलक शासनकाल से है। मोरक्को के यात्री इब्न-बतूता ने अपने यात्रा  वृत्तांत में खुरासान के छात्रों द्वारा बताई गई एक कहानी दोहराई कि कैसे मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में अकाल के दौरान, उन्होंने अग्रोहा शहर को छोड़ दिया। उन्होंने एक घर में अपना रास्ता बना लिया, जहाँ उन्होंने देखा कि एक आदमी एक मानव पैर खा रहा था जिसे उसने आग पर भुना हुआ था। जियाउद्दीन बरनी ने तारिख-ए-फ़िरोज़ शाही ’में उल्लेख किया कि फ़िरोज़ शाह तुगलक ने अग्रोहा में परित्यक्त इमारतों और मंदिरों को ध्वस्त कर दिया और हिसार के नए शहर के निर्माण के लिए सामग्री का उपयोग किया। 

इन सबूतों से पता चला की इस लॉस्ट सिटी के वास्तविक निवासी  अग्रवाल थे जो अपनी स्मृति में इस सुंदर और भव्य शहर को बसाये हुए थे। आज अग्रोहा वापस अपनी समृद्धि की ओर बढ़ रहा है। यहां अग्रवालों द्वारा स्थापित महाराज अग्रसेन और देवी महालक्ष्मी के भव्य मंदिर, स्कूल और कॉलेज हैं।

लेख साभार: राष्ट्रीय अग्रवाल सभा, प्रखर अग्रवाल जी 

Wednesday, May 13, 2020

PRAN - प्राण - प्रसिद्द खलनायक

PRAN - प्राण - प्रसिद्द खलनायक 



बात बुलंद आवाज और ख़ास अंदाज की चले तो अपने विशेष तेवर के लिए विख्यात अभिनेता प्राण (Pran) का नाम खासतौर पर सामने आता है | दिल्ली में कलवार वैश्य परिवार में जन्मे  प्राण (Pran) का पूरा नाम प्राण कृष्ण सिकंद था और उनके पिता लाला केवल कृष्ण सिकंद एक सरकारी ठेकेदार थे | प्राण खुद भी कम आकर्षक नही थे लेकिन उनकी दिली ख्वाहिश कैमरे के पीछे रहकर फोटोग्राफी करने की ही थी | लाहौर में उन्होंने बतौर फोटोग्राफर भी काम किया लेकिन ये संयोग था कि कैमरे को शायद उनकी शक्लो-सुरत ज्यादा पसंद आ गयी और वो कैमरे के आगे आ गये |

सन 1940 में उन्हें “यमला जट” नाम की पंजाबी फिल्म में पहली बार अभिनय करने का मौका मिला | आवाज ,अंदाज और तेवर के मालिक प्राण की उपस्थिति इतनी सराही गयी की उन्हें लगातार काम मिलता गया | लाहौर में उन्हें ज्यादातर नकारात्मक किरदार ही मिलते थे लेकिन पहली बार दलसुख पंचोली ने हिंदी फिल्म “खानदान” में बतौर नायक मौका दिया | इस फिल्म में उस दौर की मशहूर अदाकारा और गायिका नूरजहाँ उनके संग नायिका बनी थी |

आजादी से पहले तक प्राण (Pran) ने लाहौर में करीब 22 फिल्मो में काम किया लेकिन आजादी और बंटवारे के बाद वो मुम्बई आ गये | यहा संघर्ष का नया सिलसिला शुरू हुआ | चूँकि इससे पहले उनकी छवि खल नायक के तौर पर स्थापित हो चुकी थी लिहाजा उनके पास खलनायक के ही ज्यादातर ऑफर आते गये और वो सबको कुबूल करते गये | इस दौरान उन्होंने ये नही सोचा कि खलनायक का किरदार नफरत करने वाला होता है या प्यार करने वाला | बस किरदार की जिन्दगी को संजीदगी से जीने में विशवास करते लगे |

यही वो खासियत थी कि उनकी अदायगी धीरे धीरे परवान चढती गयी और उनकी तल्लीनता के दर्शक मुरीद होते गये | प्राण जिस किरदार को निभाते उसमे वो पुरी तरह डूब जाते थे | कहते है कि शूटिंग में ब्रेक के दौरान भी वो अपनी ड्रेस नही बदलते थे क्योंकि उनका मानना था कि जब तक ड्रेस में रहना होता है तक तक उस किरदार को वो दिल से महसूस करते रहते है | यह भावना कैमरे के आगे उस चरित्र को निभाने में सहायता पहुचाती है |

प्राण (Pran) के साथ कई फिल्मो में अभिनय कर चुके रजा मुराद के शब्द है “मै समझता हु कि उनके जितना मेहनती , लगनशील और वक्त का पाबन्द कोई इन्सान नही देखा , वे मेकअप करके सुबह नौ बजे ही सेट पर आकर बैठ जाते थे | चूँकि उस समय स्टूडियो सेंट्रली एयर कंडीशन नही होते थे | बहुत गर्मी और उमस होती थी फिर भी प्राण साहब ढाढी .मूंछ लगाकर अपने मोटे costume के समय पर सेट पर पहुच जाते थे | एक शिकन नही होती थी चेहरे पर” |

बाद के दौर उनकी शैली को ओर भी कई कलाकारो ने भी अपनाने की कोशिश की | आंकड़ो के मुताबिक़ प्राण ने करीब 400 फिल्मो में काम किया था | “राम और श्याम” फिल्म में उन्होंने ऐसी चतुर और क्रूर खलनायकी दिखाई कि लोगो ने प्राण से घृणा करना शुरू कर दिया लेकिन सच्चाई तो यह है कि उनके किरदार से की गयी घृणा या नफरत , उनकी अभिनय क्षमता की सफलता की पहचान बनी | प्राण जब तक खलनायक का किरदार निभाते रहे , तब तक उतने ही मशहूर रहे जितने कि चरित्र अभिनेता का किरदार निभाकर |

सबसे पहले राजकपूर ने प्राण को पारम्परिक खलनायकी के घेरे से बाहर निकालने का प्रयास किया था फिल्म “जिस देश में गंगा बहती है (1960) ” से | इस फिल्म में प्राण ने राका डाकू का किरदार निभाया था | प्राण की कडकती आवाज ने राका डाकू का किरदार तो पसंद किया लेकिन दर्शको का प्यार नही मिल सका | इसके बाद मनोज कुमार ने प्राण को “उपकार (1968)” में मंगल चाचा का किरदार देकर खलनायकी के घेरे से पुरी तरह आजाद करा दिया |

मंगल चाचा के किरदार को प्राण (Pran) ने अपने अभिनय कौशल से अमर बना दिया | मनोज कुमार की ज्यादातर फिल्मो में प्राण खलनायक से कही ज्यादा चरित्र भूमिका निभाते थे मसलन “शहीद” , “पूरब और पश्चिम” , “बेईमान” , “सन्यासी” , “दस नम्बरी” , “पत्थर के सनम” आदि | 1973 में एक फिल्म आयी जंजीर | अमिताभ बच्चन की इस पहली हिट फिल्म में शेर खा का किरदार प्राण के निभाये चरित्र किरदारों में सबसे बेहतरीन किरदार माना जाता है | आगे चलकर अमिताभ बच्चन के साथ उनकी कई फिल्मे सफल हुई मसलन “डॉन” , “अमर अकबर अन्थोनी” , “मजबूर” , “दोस्ताना” , “नास्तिक” , “कालिया ” और “शराबी” |

प्राण (Pran) इतने लोकप्रिय थे कि फिल्मो में कास्टिंग के दौरान पर्दे पर सबसे आखिरी में “and PRAN” लिखा आता था ताकि दर्शको को यह नाम अलग से दिखाई दे | कोई संयोग नही कि उनकी इसी अहमियत को देखते हुए उनके जीवन पर पुस्तक का नाम भी “एंड प्राण” रखा गया जिसके लेखक बन्नी रुबेन है | प्राण अकेले ऐसे कलाकार थे जिन्होंने कपूर खानदान की सभी पीढियों के कलाकारों के साथ अभिनय किया है | प्राण अपने दौर के सभी चर्चित नायको चाहे वह दिलीप कुमार हो , देव आनन्द हो या फिर राज कपूर , अपनी खलनायकी के दमखम पर उन्हें बराबरी की टक्कर देते थे |

कई बार तो वो दृश्यों में अभिनेताओ पर भारी पड़ जाते थे | नब्बे के दशक में बाद उन्होंने फिल्म अभिनय के प्रस्ताव अस्वीकार करना शुरू कर दिया | हिंदी सिनेमा में अहम योगदान के लिए 2001 में उन्हें भारत सरकार के पद्म भूषण सम्मान से नवाजा गया | साथ ही साल 1997 में उन्हें फिल्म फेयर के लाइफ टाइम अचीवमेंट खिताब से सम्मानित किया गया | अपने लम्बे फ़िल्मी करियर और शानदार सफलता को देखते हुए साल 2012 का दादा साहब फाल्के सम्मान दिया गया | 12 जुलाई 2013 को इस शानदार अभिनेता ने प्राण त्यागे |

फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार

1973 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार - बेईमान

1970 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार - आँसू बन गये फूल

1968 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार - उपकार

लेख साभार: biographyhindi.com/pran-biography-in-hindiRajkumar Mali

Tina Munim Ambani- टीना मुनीम अम्बानी

Tina Munim Ambani- टीना मुनीम अम्बानी 

बाहरी दिखावे से परे टीना के भीतर गज़ब का आत्मविश्वास है जो उन्हें सबसे अलग, सबसे बेहतर बनाता है!

मुंबई। 11 फरवरी 1957 को जन्मीं पूर्व अभिनेत्री टीना मुनीम शादी के बाद टीना अंबानी हो गईं! कभी अभिनेत्री टीना मुनीम की पहचान उनकी फ़िल्मों से थी।1975 में एक अंतर्राष्ट्रीय सौन्दर्य प्रतियोगिता में जीत हासिल करने के बाद देवानंद साहब की नज़र उन पर पड़ी और 'देस-परदेस' फ़िल्म से 1978 में टीना ने फ़िल्म जगत में अपना पहला कदम रखा।

टीना एक ऐसे गुजराती वैश्य  परिवार से आती थीं जिसका फ़िल्मों से दूर तक कोई नाता न था और न ही वो खुद फ़िल्मों में दिलचस्पी रखती थीं। मगर देवानंद जैसे महान अभिनेता का प्रस्ताव कोई कैसे ठुकरा सकता था और फिर उनका फ़िल्मी सफ़र बड़े सुन्दर मकाम हासिल करता 1987 तक चलता रहा जब तक कि वो कॉलेज अटेंड करने कैलिफ़ोर्निया नहीं चली गयीं। इस बीच उन्होंने 30-35 फ़िल्मों में काम किया जिनमें संजय दत्त के साथ 'रॉकी' सुपर हिट रही।


बासु चटर्जी के साथ उन्होंने दो फ़िल्में दीं- 'बातों-बातों में',और 'मनपसंद'। हालांकि वे खुद 'अधिकार' को अभिनय की दृष्टि से सबसे बेहतरीन फ़िल्म मानती हैं। 1991 में जब टीना 31 वर्ष की थीं तब उन्होंने अनिल अंबानी से विवाह किया। टीना के फ़िल्मी जीवन में बेशक उनके सम्बन्ध अभिनेताओं से जोड़े गए,ख़ास तौर पर राजेश खन्ना के साथ। पर विवाह के पश्चात टीना अंबानी परिवार की बेहतरीन बहु, अच्छी पत्नी और मां साबित हुईं हैं।

टीना बार बार अपने साक्षात्कारों में ये कहती रही हैं कि उनके पति अनिल ने उन्हें आज तक किसी भी चीज़ के लिए मना नहीं किया और ऐसा कुछ भी नहीं उनके जीवन में जो वे पाना चाहती हों और पा न सकी हों। परियों की कथा सी है टीना की कहानी....सब कुछ सुनहरा...चमचमाता...चमत्कारी !

 टीना-अनिल के दो बेटे हैं जय अनमोल अंबानी और जय अंशुल अंबानी।


टीना मुंबई की चमक-धमक से दूर रहना पसंद करती हैं, शोभा डे की पत्रिका “हेल्लो” के अप्रेल 2012 के संस्करण में टीना फिर लम्बे अंतराल के बाद कवर पेज पर दिखीं। इसी पत्रिका के लिए दिए एक साक्षात्कार में टीना ने शोभा डे को बताया कि आम सोशलाइट औरतों की तरह वे ब्रांडेड कपड़ों, ब्यूटी पार्लरों में अपना अपना वक्त ज़ाया नहीं करतीं,वे जब ज़रुरत पड़े कमर्शियल फ्लाइट का इस्तेमाल करती हैं, पति के चार्टर्ड प्लेन के होते हुए भी। बाहरी दिखावे से परे टीना के भीतर गज़ब का आत्मविश्वास है जो उन्हें सबसे अलग, सबसे बेहतर बनाता है।

साभार: दैनिक जागरण 

SIMPAL KAPADIA - सिंपल कपाडिया

सिंपल कपाडिया 


Simple Kapadia (15 August 1958 – 10 November 2009) was a Bollywood actress and costume designer, who was active in her professional career from 1987 until her death in 2009.

Early and personal life

Simple was born on 15 August 1958  to parents Chunnibhai and Betty Kapadia. She was raised alongside 3 siblings - elder sister Dimple Kapadia, younger sister Reem Kapadia (who died of drug overuse) and Suhail (Munna) Kapadia.

She had a son Karan Kapadia with a Sikh whom she quickly divorced, and was the aunt of Twinkle Khanna and Rinke Khanna.

Simple Kapadia made her acting debut in 1977 at the age of 18 in the role of Sumitha Mathur in the film Anurodh, with her brother-in-law, actor Rajesh Khanna. Her career as an actress spanned for almost 10 years. She starred in Shaaka in 1981 opposite Jeetendra. 

She had secondary roles in movies including Jeevan Dhara, Hum Rahe Na Hum and Dulha Bikta Hai. In 1985 she starred in alternate cinema movie Rehguzar opposite Shekhar Suman. After more than 20 movies, her final role was an item song for the movie Parakh in 1987.

Costume design

After her final acting gig, she then became a costume designer, and designed for actors including Sunny Deol, Tabu, Amrita Singh, Sridevi and Priyanka Chopra.

In 1994 she won a National Award for her costume design in Rudali. She later designed for Bollywood movies including Rok Sako To Rok Lo and Shaheed.

Filmography

As an actress

Year  Title

1977 Anurodh
1978 Chakravyuha
1979 Ahsaas
1979 Kizakkum Merkum Sandhikarana
1980 Man Pasand
1980 Lootmaar
1981 Shakka
1981 Zamaane Ko Dikhana Hai
1981 Parakh
1982 Dulha Bikta Hai
1982 Jeevan Dhaara
1982 Tumhare Bina
1984 Hum Rahe Na Hum
1985 Rehguzar
1986 Pyaar Ke Do Pal

As a costume designer

Year Title

1987 Insaaf
1989 Shehzaade
1990 Drishti
1990 Lekin...
1991 Ajooba
1993 Darr
1993 Aaj Kie Aurat
1993 Rudaali
1995 Barsaat
1996 Ghatak: Lethal
1996 Jaan
1996 Uff Yeh Mohabbat
1996 Ajay
1998 Chachi 420
1998 Jab Pyaar Kisise Hota Hai
1999 Yeh Hai Mumbai Meri Jaan
2001 Indian
2001 Pyaar Zindagi Hai
2001 Kasam
2002 23rd March 1931: Shaheed
2004 Rok Sako to Rok Lo
2005 Socha Na Tha
2006 Naksha
2006 Gafla

Simple Kapadia was diagnosed with cancer in 2006, but continued working despite the pain. She died in a hospital in Andheri, Mumbai on 10 November 2009, aged 51.

Dimple Kapadia - डिम्पल कपाडिया

डिम्पल कपाड़िया

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डिम्पल कपाड़िया (जन्म: 8 जून, 1957) एक गुजराती वैश्य परिवार में हुआ था हिन्दी फ़िल्मों की एक अभिनेत्री है जिनके पति राजेश खन्ना थे। इनकी बेटी भी एक अभिनेत्री है। जिनका नाम ट्विंकल खन्ना है और दामाद अक्षय कुमार है। उन्हें राज कपूर द्वारा 16 साल की उम्र में फिल्मों में लिया गया था। उन्होंने उनकी रूमानी फ़िल्म बॉबी (1973) में शीर्षक भूमिका निभाई थी। उसी वर्ष उन्होंने भारतीय अभिनेता राजेश खन्ना से शादी की और अभिनय से संन्यास ले लिया। राजेश से अलग होने के बाद, डिम्पल ने 1984 में फिल्म उद्योग में लौट आईं। उस दौर की उनकी एक फ़िल्म सागर (1985) थी। बॉबी और सागर दोनों ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार उन्हें जिताया। वह 1980 के दशक में खुद को हिन्दी सिनेमा की अग्रणी अभिनेत्रियों में से एक के रूप में स्थापित करने लगीं।

व्यक्तिगत जीवन

डिम्पल कपाड़िया गुजराती उद्यमी चुन्नीभाई कपाड़िया और बैटी के चार बच्चों में सबसे बड़ी हैं। परिवार मुम्बई के सांता क्रूज़ में रहता था। उन्होंने 1973 में अपनी पहली फिल्म बॉबी की रिलीज से छह महीने पहले अभिनेता राजेश खन्ना से शादी की। उन्होंने अपनी दो बेटियों ट्विंकल (जन्म: 1974) और रिंकी (जन्म: 1977) की परवरिश करने के लिए बारह साल के लिए अभिनय से संन्यास ले लिया।

फिल्मी सफर

उन्हें राज कपूर ने 1973 के रूमानी फिल्म बॉबी से फिल्मों में उताराअ था। जबकि इस फिल्म में राज कपूर के बेटे ऋषि कपूर की पहली प्रमुख भूमिका थी, डिम्पल को गोआ की मध्यमवर्गीय ईसाई लड़की बॉबी ब्रागांज़ा की शीर्षक भूमिका दी गई थी। बॉबी प्रमुख व्यावसायिक और आलोचनात्मक सफलता थी और डिम्पल कपाड़िया को उनके प्रदर्शन के लिए सराहना मिली। इससे उन्होंने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार जीता (अभिमान के लिए जया भादुड़ी के साथ वह बराबरी पर रही थी)। इसके बाद उन्होंने अपने बच्चों को पालने के लिए फिल्म उद्योग छोड़ दिया।

1982 में राजेश खन्ना से अलग होने के बाद, वह अभिनय में वापसी करने की इच्छुक थीं और उन्होंने अंततः 1984 में ऐसा किया। अगले दशक तक, वह श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित, मीनाक्षी शेषाद्री और जया प्रदा के साथ बॉलीवुड की शीर्ष पाँच व्यावसायिक सफल अभिनेत्रियों में से एक बन गईं। उनकी सबसे पहली फिल्म ज़ख्मी शेर (1984) रही। इसके बाद सागर (1985) आलोचनात्मक सफलता रही थी और अंततः उसे उस वर्ष के लिये ऑस्कर में भारत की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में चुना गया था।

प्रमुख फिल्में

वर्ष      फ़िल्म         चरित्र  टिप्पणी
2001 दिल चाहता है तारा जायसवाल 
1994 क्रान्तिवीर कलम वाली बाई 
1993 रुदाली शनिचरी 
1992 दिल आशना है 
1991 प्रहार किरण 
1991 नरसिम्हा अनीता रस्तोगी 
1989 राम लखन 
1985 सागर मोना डी सिल्वा 
1973 बॉबी बॉबी 

पुरस्कार
फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार
1993 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार - आलोचक - रुदाली

Saturday, May 9, 2020

DHAVAL SHAH, DHARMIL SHETH

DHAVAL SHAH, DHARMIL SHETH
Founders, PharmEasy

Over the last year, PharmEasy expanded its business to 700 cities, from five a year ago, and quadrupled its headcount to 1,000. Close to a million customers have registered for the online pharmacy’s services till date, says Sheth. PharmEasy is also using a lot of automation in its services to let registered customers purchase medicines easily by automatically replenishing their stock. The company raised $17 million in a Series B funding from Bessemer Venture Partners and Orios Venture Partners in January 2017.

The Forbes India Impact: “A lot of people, till last year, were not aware of PharmEasy and it was a challenge for us to convince regulators, investors and customers. The recognition from Forbes India has given confidence to all stakeholders,” says Sheth.

KAMINI JINDAL - कामिनी जिंदल



 राजस्थान चुनाव की बात होते ही राजा-महाराजा और जमींदारों की बात भी चलने लगती है. चुनाव नामांकन में जमा एफिडेबिट पर सबसे ज्यादा किसी का ध्यान दो कॉलम पर जाता है. पहला जुर्म और दूसरा संपत्ति. साल 2018 के चुनाव में संपत्ति कॉलम पर नजर डालने पर सबसे ज्यादा चर्चा जमींदार पार्टी की प्रत्याशी कामिनी जिंदल की हो रही है. आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो पाते हैं कि राजस्थान की 200 सीटों पर जितने प्रत्याशी उतरे हैं, उसमें कामिनी की संपत्ति सबसे ज्यादा है.

चुनाव आयोग को दी गई जानकारी में कामिनी अपनी संपत्ति 287 करोड़ 40 लाख की बताती हैं. यह संपत्ति राजस्थान की सीएम वसुंधरा राजे के 4 करोड़ 9 लाख 82 हजा 689 रुपये से कहीं ज्यादे है. खास बात ये है कि उनकी ये संपत्ति 5 साल में 93 करोड़ रुपये बढ़ी है. साल 2013 में जब उन्होंने गंगानगर सीट से नामांकन किया था तो उनकी संपत्ति 194 करोड़ रुपये बताई गई थी.

पिता ने बनाई है पार्टीएक आईपीएस अफसर की पत्नी कामिनी अपने पिता बिजनेसमैन बीडी अग्रवाल द्वारा बनाई गई पार्टी ‘जमींदार पार्टी’ से चुनाव लड़ती हैं. बीडी अग्रवाल ने ये पार्टी साल 2013 के चुनाव से ठीक पहले बनाई थी. बाद के दिनों में ये चर्चा शुरू हो गई थी कि जमींदार पार्टी, आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन कर लेगी. ये भी कहा जा रहा था कि केजरीवाल की एक रैली में कामिनी जाएंगी, लेकिन कामिनी वहां न जाकर सारे कयासों पर विराम लगा दीं.

2013 में हुई थी शादीकामिनी के पति गगनदीप सिंगला साल 2010 राजस्थान कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं. वह अभी जोधपुर में डिप्टी कमिश्नर ट्रैफिक के पद पर तैनात हैं. साल 2013 में दोनों की शादी हुई थी.

कामिनी की साल 2013 तक संपत्ति

चल-2.66 करोड़. नकदी-2.65 लाख. गाड़ियां-78 लाख की. सोना-2.3 किलो. चांदी-14.49 किलो. अचल संपत्ति की बात करें तो श्रीगंगानगर, जोधपुर, बरनाला, पंचकूला में जमीनें, मकान, जयपुर-जोधपुर हाईवे पर 1218 एकड़ जमीन, जिसकी कुल कीमत 194 करोड़ है. इसके अतिरिक्त बरनाला में 6 हजार, चक दो एमएल में 17550 स्क्वेयर फीट भूखंड, 13 एलएनपी में 16386 हेक्टेयर और जोधपुर में 83.2 बीघा जमीन है.

कामिनी की साल 2018 में संपत्ति

चल-2.32 करोड़. नकदी-3.10 लाख. गाड़ियां-36 लाख की. सोना-2.3 किलो. चांदी-23 किलो. अचल संपत्ति की बात करें तो श्रीगंगानगर, जोधपुर, बरनाला, पंचकूला में जमीनें, मकान, जयपुर-जोधपुर हाईवे पर 1218 एकड़ जमीन, जिसकी कुल कीमत अब 287 करोड़ हो गई है. इसके अतिरिक्त बरनाला में 6 हजार, चक दो एमएल में 17550 स्क्वेयर फीट भूखंड, 13 एलएनपी में 16386 हेक्टेयर और जोधपुर में 83.2 बीघा जमीन है.

साभार: india.com/hindi-news/special-hindi/richest-candidate-of-rajasthan-elections-kamini-jindal

NANDKISHOR CHAUDHRY - पिता से लिए थे 5000 उधार, आज है 150 करोड़ की कंपनी के मालिक

पिता से लिए थे 5000 उधार, आज है 150 करोड़ की कंपनी के मालिक


Nand Kishore Chaudhary Jaipur Rugs : मारवाड़ी परिवार में जन्मे इस उद्यमी को बुनकरों के साथ काम करने के चलते समाज से बाहर होना पड़ा. सामाजिक भेदभाव और छुआछूत के चलते घर पर नहाने के बाद प्रवेश मिलता था.

अपने पिता की जूतों की दुकान पर मन नहीं लगा तो पढाई के बाद बैंक में कैशियर की नौकरी में चयनित हो गए. इसी बीच एक विदेशी कलाकार से उनकी मुलाकात होती है और उन्होंने नौकरी करने के बजाय खुद का व्यवसाय करने का निर्णय लिया.

1978 में पिता से 5000 रुपये उधार लेकर दो हथकरघों के साथ 10 बुनकरों को लेकर अपना काम शुरू किया. शुरुआत में कुछ दिकक्तों के बाद उनका बिज़नेस चल निकला. इसी बीच अपने भाई के साथ उन्होंने बिज़नेस को आगे बढ़ाने की योजना बनाई और खुद अपने परिवार के साथ गुजरात के वलसाड में शिफ्ट हो गए.

1989 में गुजरात शिफ्ट होने के बाद वलसाड़ जिले में आदिवासी लोगों के पास पहुंचे. वहां आदिवासी लोगों के बीच काम शुरू करने की ठानी तो लोगों ने डराया भी. काम शुरू किया तो छोटी जाति के लोगों के साथ काम करने के कारण रिश्तेदारों और दोस्तों ने छोटी जाति के लोगों के साथ काम करने के कारण हाथ मिलाना तक बंद कर दिया और किनारा करने लगे.

बच्चों के साथ नंदकिशोर चौधरी | Photo Credits : Nandkishore Chaudhary Facebook Page

इसके बाद भी उन्होंने काम जारी रखा और सतत प्रयास के बाद अपने काम में सफल हुए. उनके साथ काम करने वाले लोगो को अपने परिवार का सदस्य माना. बुनकरों को नए यंत्रो के साथ ही कच्चे माल के झंझट से बचाकर प्रशिक्षण देकर उन्हें दक्ष बनाया.

आज उनसे लगभग 40,000 बुनकर एवं उनके परिवार जुड़े हुए है. इनमे से 80 % से ज्यादा महिलाये उनके लिए काम करती है. सामाजिक और महिला सशक्तिकरण का इससे अच्छा उदाहरण कहीं पर भी देखने को नहीं मिलेगा.

उनके कार्य की प्रशंसा देश और विदेश में फ़ैल चुकी है तथा उनके बिज़नेस मॉडल को देखने के लिए बड़े-बड़े बिज़नेस संस्थान और लीडर्स केस स्टडी के रूप में पढ़ते है. राजस्थान के चूरू जिले से निकले और कारपेट्स बनाने वाली कंपनी ‘जयपुर रग्स (Jaipur Rugs) ‘ के संस्थापक नंदकिशोर चौधरी ( Nand Kishore Chaudhary ) की कहानी किसी फिल्म से कम नहीं है.

5000 से शुरू हुई उनकी कंपनी आज 150 करोड़ का व्यापार करती है तथा राजस्थान, गुजरात, झारखण्ड, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के लगभग 40,000 बुनकर एवं आदिवासी परिवारों को रोज़गार देने का काम करती है. इनकी कंपनी के उत्पादों की अमेरिका के साथ ही यूरोप , आस्ट्रलिया, मिडिल-ईस्ट में भारी मांग रहती है.

Jaipur Rugs Team | Photo Credits : Jaipur Rugs Facebook Page

इनकी कंपनी कच्चे माल की आपूर्ति बुनकरों को करती है तथा उनसे कारपेट्स, दरी और हेंडीक्राफ्ट आइटम्स आदि खरीद कर विदेशों में बेचती है. औसतन एक बुनकर इनकी कंपनी से 4500 रुपये प्रतिमाह कमा लेते है.

दक्ष एवं कम समय में अच्छा काम करने वाले बुनकर 10-12 हज़ार प्रतिमाह कमाते है. इनकी कंपनी नए बुनकरों और घरेलु महिलाओ को जोड़ने के लिए ट्रेनिंग प्रोग्राम भी चलाती है.

जयपुर रग्स पांच राज्यों के 600 गाँवो से आने वाले 40,000 बुनकरों को दुनियाभर के उपभोक्ताओं से जोड़ने का काम कर रही है.

आज उनके बेटे-बेटिया जयपुर रग्स के काम को संभाल रहे है . नयी पीढ़ी के बाद जो परिवर्तन आया उसके बाद आज सोशल एंटरप्राइज के रूप में उनकी कंपनी विश्व में विख्यात है।

साभार:  bepositive.online/nand-kishore-chaudhary-jaipur-rugs

DILIP & ANAND SURANA - छोटी सी कंपनी को 3000 करोड़ की फार्मा कंपनी बना दी है दो भाइयो ने

अपने पिता की छोटी सी कंपनी को 3000 करोड़ की फार्मा कंपनी बना दी है दो भाइयो ने


अपने पिता की छोटी सी कंपनी जिसकी शुरुआत 1973 में हुई थी, को आज भारत की बड़ी फार्मा कंपनी बनाने के पीछे दोनों भाइयों का कठिन संघर्ष और मेहनत रही है. एक मैन्युफैक्चरिंग प्लांट से शुरू हुई इनकी कंपनी आज भारत के 6 राज्यों में मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स लगा चुकी है.

भारत के साथ ही 20 से ज्यादा देशों में इनकी दवाइयां निर्यात होती है. अपने पिता के सपने को पूरा करने वाले है दिलीप (Dilip Surana) और आनंद सुराणा (Anand Surana). इन्होने माइक्रो लैब्स लिमिटेड (Micro Labs Limited) को देश के फार्मा क्षेत्र में टॉप में पहुँचाने का काम किया है.

माइक्रो लैब्स की शुरुआत बहुत ही सामान्य रही है. चेन्नई की फारमेसी दुकान पर उनके पिता G C सुराणा (Ghevar Chand Surana) दवाइया सप्लाई करते थे. मुलत: राजस्थान के मारवाड़ी परिवार से आने वाले GC सुराणा ने अपनी समझ और मेहनत के बलबूते सफलता की सीढिया चढ़ना शुरू किया.

उन्होंने दिल्ली की एक फार्मा कंपनी से साउथ इंडिया में डिस्ट्रीब्यूशन की बड़ी डील की. जिसके तहत उन्हें कर्नाटक, तमिलनाडु, आँध्रप्रदेश के साथ ही केरल में अपना व्यापार करने का मौका मिला.

दिलीप और आनंद सुराणा फोर्ब्स की देश के टॉप 100 अमीरों की लिस्ट में शामिल है.

डिस्ट्रीब्यूशन में सफल होने के बाद GC सुराणा ने 1973 में खुद की फार्मा कंपनी बनाने की योजना बनाई. खुद फार्मा मार्केट में कई वर्षों से कार्य कर रहे थे अतः उन्हें ज्यादा दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा. और इसी तरह माइक्रो लैब्स लिमिटेड की नींव रखी गयी. माइक्रो लैब्स की शुरुआत GC सुराणा ने मद्रास से की.

अपने परिवार के साथ सुराणा बंधू

उत्तम गुणवत्ता और कठिन मेहनत के बलबूते माइक्रो लैब्स ने फार्मा क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना शुरू कर दिया. अस्सी के दशक में दवाइयों की बढ़ती मांग और माइक्रो लैब्स के गुणवत्ता पूर्वक दवाइयों की पूर्ति के लिए GC सुराणा ने 1982 में तमिलनाडु के होसुर में दूसरे मैन्युफैक्चरिंग प्लांट की नींव रखी.

पिता के साथ बेटे भी लग गए व्यापार में . .

गिरते स्वास्थ्य की वजह से GC सुराणा सक्रिय रूप से माइक्रो लैब्स से दूर होने लगे लेकिन उनकी दूरदर्शिता और विज़न को आगे ले जाते हुए अगली पीढ़ी यानि दिलीप और आनंद सुराणा ने माइक्रो लैब्स की कमान अपने हाथ में ली.

दोनों भाइयों ने कड़ी मेहनत और पिता के मार्गदर्शन का फायदा उठाते हुए माइक्रो लैब्स को आगे बढ़ाने में जुट गए. समय के साथ माइक्रो लैब्स बैंगलोर और मद्रास से बाहर निकलकर पुरे भारत में फ़ैल गयी. होसुर के बाद उन्होंने बैंगलोर में एक बंद पड़ी यूनिट को ख़रीदा और उसे व्यापारिक कुशलता से जल्द ही प्रॉफिट में ले आये.

साउथ इंडिया से निकलकर बन गए ग्लोबल ब्रांड . .

इसके बाद विश्वस्तरीय मानकों से सुसज्जित मैन्युफैक्चरिंग यूनिट की शुरुआत बैंगलोर में की. इसके बाद उन्होंने अपना हेडक्वार्टर भी बैंगलोर में स्थापित कर दिया. बढ़ती डिमांड को पूरी करने के लिए गोवा, हिमाचल प्रदेश ,पॉन्डिचेरी और सिक्किम में भी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट लगानी पड़ी. इसके बाद माइक्रो लैब्स भारत के फार्मा इंडस्ट्री में स्थापित हो गया.

माइक्रो लैब्स का सिक्किम स्थित मैन्युफैक्चरिंग प्लांट

2004 के आसपास माइक्रो लैब्स ने विदेशी फार्मा कंपनी के साथ करार किया और रिसर्च और डेवेलपमेंन्ट में भारी निवेश किया. अंतराष्ट्रीय मानकों से सुसज्जित उनकी यूनिट्स ने मार्केट की डिमांड के अनुसार प्रोडक्शन जारी रखा. फार्मा कंपनी के बड़े प्लेयर्स ने माइक्रो लैब्स को खरीदने की कोशिश की लेकिन सुराणा बंधुओं ने मना कर दिया.

एक भाई ने संभाला घरेलू तो दूसरे ने विदेशी बाजार . .

आज दिलीप सुराणा जहाँ भारतीय मार्केट को देखते है और कंपनी का 60 % रेवेन्यू भारत से ही होता है. उन्होंने मैन्युफैक्चरिंग यूनिट के साथ ही शानदार डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क तैयार किया है. आज उनके 20,000 से ज्यादा डिस्ट्रीब्यूटर्स पुरे देश में फैले हुए है.

राजस्थान के मरुस्थल से लेकर हिमालय के पहाड़ों में स्थित छोटे से गांवों में भी माइक्रो लैब्स के प्रोडक्ट्स बिकते है. देश केफार्मा सेक्टर में माइक्रो लैब्स को पहचान दिलाने में दिलीप सुराणा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है.

वही दूसरे भाई आनंद सुराणा ने माइक्रो लैब्स को अंतराष्ट्रीय पहचान दिलाने का काम किया है. फार्मा प्रोडक्ट के निर्यात की सारी जिमेदारी आनंद सुराणा के कन्धों पर है. आज माइक्रो लैब्स के प्रोडक्ट्स अमेरिका , यूरोप, अफ्रीका और अरब देशों में बिकते है.

एक अवार्ड समारोह के दौरान दिलीप सुराणा

इसी के साथ इनके जेनेरिक दवाइयों की डिमांड ऑस्ट्रेलिया , न्यूज़ीलैंड और अन्य पूर्वोत्तर देशों में भी है. माइक्रो लैब्स के कुल रेवेन्यू का 40% हिस्सा निर्यात से आता है. माइक्रो लैब्स को ग्लोबल ब्रांड बनने के पीछे आनंद सुराणा की मेहनत और सूझबूझ है.

नित नए आयाम छूती माइक्रो लैब्स . .

1973 में एक छोटी सी कंपनी से शुरुआत करने वाली माइक्रो लैब्स आज ग्लोबल ब्रांड बन चुकी है. मारवाड़ी बिज़नेस के अतुल्य तरीके ने इसे भारत की टॉप फार्मा कंपनी बना दिया है.

आज माइक्रो लैब्स 20 से ज्यादा देशों में अपने प्रोडक्ट्स निर्यात करती है. माइक्रो लैब्स में आठ हज़ार से ज्यादा कर्मचारी काम करते है और उनका रेवेन्यू पिछले वित्त वर्ष में 3000 करोड़ रुपये के आसपास रहा है.

माइक्रो लैब्स को आज इस मुकाम पर पहुंचाने के लिए GC सुराणा के विज़न और मार्गदर्शन के साथ ही सुराणा बंधुओं की कठिन मेहनत रही है.

आज उनके पास विश्वस्तरीय रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेण्टर के साथ ही मजबूत डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क है, जिसके बलबूते वो देश की टॉप फार्मा कंपनी बनने की ओर अग्रसर है.

साभार: bepositive.online/dilip-and-anand-surana-micro-labs

ARVIND PODDAR - साइकिल टायर बनाने से शुरुआत करके 4000 करोड़ का बिज़नेस खड़ा करने वाले उद्यमी

साइकिल टायर बनाने से शुरुआत करके 4000 करोड़ का बिज़नेस खड़ा करने वाले उद्यमी





साइकिल टायर के निर्माण से शुरू हुआ उनका सफर आज भारत के दूसरे सबसे बड़े टायर निर्माता के रूप में पहुँच चूका है. बिज़नेस फॅमिली से आने वाले इस उद्यमी ने अपने पिता से विरासत में मिले टायर, पेपर और टेक्सटाइल बिज़नेस को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया है.

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि कभी ऑटो और साइकिल के लिए टायर बनाने वाली कंपनी आज भारी उद्योगों में काम आने वाले टायर बना रही है. JCB और John Dere जैसे बड़े नामों के साथ जुडी हुई है. देश के नंबर दो टायर ब्रांड का नाम है : BKT टायर (BKT Tyres) और इस कंपनी को इस मुकाम तक पहुँचाने वाले उद्यमी है : अरविन्द पोद्दार (Arvind Poddar).

पोद्दार परिवार की टेक्सटाइल मार्केट में खास पहचान रही है और सियाराम ब्रांड इसी परिवार ने खड़ा किया. टेक्सटाइल से शुरू हुआ सफर पेपर उद्योग में पहुंचा और उसके बाद टायर इंडस्ट्री में कदम रखे. भारत में MRF टायर्स ने टायर इंडस्ट्री में अपनी खास पहचान बना रखी है. लेकिन माइनिंग और अन्य कंस्ट्रक्शन बिज़नेस में काम आने वाले उपकरणों एवं मशीनों के लिए काम आने वाले टायर में BKT टायर वर्ल्ड लीडर बन चूका है.

अरविन्द पोद्दार ने अपने रणनीतिक कौशल एवं व्यापारिक समझ से BKT टायर को भारत ही नहीं अपितु अमेरिका, कनाडा , ब्रिटैन और इटली जैसे देशों में भी स्थापित किया है. आज उनकी कंपनी विश्व के सौ से ज्यादा देशों में टायर का निर्यात करती है. भारत में भले ही इनका इतना नाम न हो लेकिन विदेशों में इस कंपनी ने अपनी विशिष्ट पहचान बना ली/

BKT टायर के कुल रेवेन्यू में से अस्सी फीसदी हिस्सा निर्यात से आता है जबकि बीस फीसदी घरेलू मार्केट से. BKT टायर ने वर्ष 2017 में कुल 3700 करोड़ के लगभग टर्नओवर किया है. वो भारत की दूसरी सबसे बड़ी टायर कंपनी है.

BKT Sponsorship : क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया के साथ BKT टायर्स के राजीव पोद्दार | Image Source : BKT Tyres Facebook Page

एक छोटी सी फैक्ट्री से शुरू हुआ उनक सफर आज भारत के साथ ही अमेरिका में भी पांच से ज्यादा मैन्युफैक्चरिंग प्लांट है. इनके साथ लगभग 8000 कर्मचारी काम करते है.

अरविन्द पोद्दार का जन्म एक बिज़नेस घराने में हुआ और उनके पिता पहले से ही टेक्सटाइल इंडस्ट्री में काम कर रहे थे. अपनी कॉलेज की पढाई ख़त्म करने के बाद उन्होंने अपने पिता के साथ बिज़नेस करना शुरू कर दिया.

1987 में उन्होंने साइकिल टायर निर्माण के लिए बालकृष्ण इंडस्ट्रीज (Balkrishna Industries Ltd) की नींव रखी. टायर बिज़नेस में क्वालिटी और वाजिब दाम के चलते उन्हें जल्द ही सफलता मिल गयी. इसके बाद उन्होंने ऑटो और कार के टायर बनाना शुरू किया. इस सेगमेंट में MRF , अपोलो और CEAT टायर्स के साथ कड़ा संघर्ष देखने को मिला.

अरविन्द पोद्दार ने मार्केट लीडर से संघर्ष करने के बजाय अन्य क्षेत्रों में विकल्प ढूढने की कोशिश की . इसके चलते उन्होंने पहले ट्रेक्टर टायर बनाने का निर्णय किया लेकिन उनका टारगेट हैवी मशीनरी के टायर बनाने का था. अतः उन्होंने खेती-बाड़ी के साथ ही कंस्ट्रक्शन, माइनिंग और ट्रांसपोर्ट में काम आने वाली मशीन के टायर बनाना उचित समझा.

इस फील्ड में भारत से तब तक कोई भी कंपनी नहीं थी और हैवी मशीनरी कमपनीज़ भी विदेशी कंपनियों का विकल्प ढूंढ रही थी. इस अवसर को BKT ने दोनों हाथों से लिया और जल्द ही OTR (ऑफ द रोड़) केटेगरी की लीडिंग टायर निर्माता कंपनी बन गयी. समय के साथ तकनीक के इस्तेमाल और अपने मैन्युफैक्चरिंग यूनिट का भी विस्तार करने से BKT ने मार्केट में बढ़ी डिमांड को संभाल लिया.

एक ऑटो शो के दौरान अपने प्रोडक्ट्स शो करते BKT टायर्स
भारत में OTR में सफलता के बाद अरविन्द पोद्दार ने अमेरिका और यूरोप में अपने कदम बढ़ाने की योजना पर काम किया. इसके लिए उन्होंने अमेरिका में अपना मैन्युफैक्चरिंग प्लांट के साथ ही सेल्स ऑफिस खोला जबकि इटली के जरिये पुरे यूरोपियन मार्केट को साधने की कोशिश की.


विदेश में अपनी ब्रांड इमेज बनाने के लिए अरविन्द पोद्दार ने स्पोर्ट्स और आक्रामक रणनीति का सहारा लिया. उन्होंने हैवी ट्रक रेसिंग के प्रसिद्द इवेंट मॉन्स्टर जैम (Monster JAM) की स्पोंसरशिप ली और इटली में फूटबाल टीम के मुख्य प्रायोजक बने. इसके चलते लोगों में उनके ब्रांड के प्रति गहरी समझ बनी.

भारत में भी उन्होंने TV विज्ञापन और स्पोर्ट्स स्पॉन्सरशिप के जरिये रिटेल मार्केट में अपनी पहचान बनाई. ट्रेक्टर और ट्रक टायर में MRFऔर अपोलो का विकल्प बनने की कोशिश की. आज उनकी कंपनी भारत का एक वैश्विक ब्रांड बन चुकी है और मारवाड़ी बिज़नेस घराने की व्यापरिक समझ ने उन्हें देश-विदेश में सफलता दिलाई.

पोद्दार परिवार की अगली पीढ़ी भी BKT से जुड़ चुकी है और अरविन्द के बेटे राजीव पोद्दार (Rajeev Poddar) भी अपने पिता के साथ मिलकर बिज़नेस को आगे बढ़ाने में जुटे हुए है .

साभार: bepositive.online/arvind-poddar-bkt-tyres

HALDIRAM - हल्दीराम अग्रवाल की सफलता की कहानी


हल्दीराम की सफलता की कहानी | Haldiram’s Inspiring Story or success Story in hindi


हल्दीराम की सफलता की कहानी (Haldiram’s Inspiring Story or Success Story Of Vishan Ji Agrawal Who Started Haldirams in hindi) 

हर सफल कहानी के पीछे बहुत सारी मेहनत छुपी होती है और हर सफल व्यापार के पीछे भी किसी व्यक्ति विशेष का विशेष योगदान जुड़ा होता है. किसी भी बड़ी कंपनी की शुरुआत बहुत छोटे लेवल पर ही होती है और किसी परिवार का कोई व्यक्ति ही आने वाली पीढ़ियों को कोई खास विरासत देकर जाता है. इसी तरह की एक कहानी भारतीय प्रसिध्द फूड ब्रांड हल्दीराम की भी है, हल्दीराम भुजियाँ सेव, हल्दीराम की सोहन पपड़ी और अन्य कई प्रकार के नमकीन और स्नेक्स का स्वाद हमारी जुबान पर चढ़ा हुआ है. परंतु यह शुरुआत से ही इस तरह का मशहूर ब्रांड नहीं था, बल्कि यह भारत के एक शहर बीकानेर में एक छोटे से व्यापारी द्वारा शुरू की गई एक छोटी सी दुकान थी, जिसने आज परिवार के सदस्यों की मेहनत की बदोलत ना केवल खुद करोड़ो का व्यापार स्थापित किया, बल्कि अन्य कई लोगों को भी रोजगार दिया. हमारे इस आर्टिकल में हम हल्दीराम के इतिहास, उसके विकास की कहानी और वर्तमान स्थिति के संबंध में संपूर्ण जानकारी आप तक पंहुचाने की कोशिश कर रहे है, जिससे आप भी इससे प्रोत्साहन प्राप्त कर सके.


हल्दीराम का इतिहास (Haldiram’s History) – 

हल्दीराम जो आज एक प्रमुख मिठाई और नमकीन निर्माता कंपनी है, मुख्यतः नागपुर में स्थापित है. हल्दीराम के आज की तारीख में 100 से अधिक उत्पादो का निर्माता और विक्रेता है, परंतु इसकी कहानी भारतीय आजादी के पूर्व साल 1937 में शुरू हुई थी, इस समय गंगाविशन अग्रवाल नामक एक व्यक्ति ने अपने शहर बीकानेर राजस्थान में एक नाश्ते की दुकान शुरू की थी. यह वास्तव में इनके पिता श्री तनसुखदास जी के द्वारा शुरू किया गया भुजियाँ सेव का व्यापार था, परंतु इसका नाम इनके बेटे गंगाविशन जी के इसी छोटे से सेटअप के जरिये बना. इस व्यापार को इसके आगे बढ़ाने का श्रेय तनसुख जी के छोटे बेटे रामेश्वर जी को जाता है, इन्होने ही इस भुजियाँ सेव के व्यापार को आगे बढ़ाते हुये  कलकत्ता में हल्दीराम भुजियावाला के नाम से एक दुकान शुरू करी. और यह नाम और दुकान हल्दीराम की सफलता की कहानी के लिए महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ.

वर्तमान में हल्दीराम के मैन्यूफेक्चरिंग प्लांट नागपुर, कोलकाता, दिल्ली और बीकानेर आदि जगह पर स्थित है. इसके अलावा हल्दीराम के स्वयं के रीटेल चेन स्टोर और कई रेस्टोरेंट नागपुर और दिल्ली में भी है. भारत के अलावा अब इस कंपनी के उत्पाद अन्य कई देशो जैसे यूनाइटेड किंगडम, श्रीलंका, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, संयुक्त अरब अमीरटेस, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजिलेंड, जापान और थायलैंड आदि देशो में भी निर्यात होते है. 

हल्दीराम ने अपना पहला मेन्यूफेक्चरिंग प्लांट कलकत्ता में डाला था, इसके बाद साल 1970 में कंपनी का अन्य और बड़ा प्लांट दिल्ली में स्थापित किया गया. इसके बाद भारत की राजधानी दिल्ली में इसका एक अन्य प्लांट डाला गया, 1990 में दिल्ली में स्थापित हल्दीराम का यह प्लांट एक रीटेल स्टोर भी है. साल 2003 में हल्दीराम ने अपने उपभोक्ताओं के लिए कनविनियन्स फूड बनाने की प्रक्रिया शुरू की.

साल 2014 में ट्रस्ट रिसर्च एडवाइजरी द्वारा तैयार की गई, एक रिपोर्ट के मुताबिक हल्दीराम भारत की सबसे भरोसेमंद ब्राण्ड्स में 55 वे नंबर पर था.

हल्दीराम के उत्पाद (Haldiram’s Products) –

हल्दीराम के अलग-अलग तरह के कुल 400 उत्पाद है, इस तरह एक छोटे से शहर मे भुजियाँ सेव से शुरू करके सैकड़ो उत्पाद की रेंज को अपनी ब्रांड में शामिल करना एक दिन का काम नहीं इसके लिए इस परिवार को कई साल लग गए. इन सैकड़ो उत्पादो में नमकीन, वेस्टर्न स्नेक्स, भारतीय मिठाईया, कूकिस, पापड़ और आचार शामिल है. साल 1990 से कंपनी ने तैयार खाद्य उत्पादो (रेडी-टु-ईट फूड) का उत्पादन भी शुरू किया. आलू से निर्मित पदार्थो को बनाने के लिए विदेश से मशीनरी मँगवाई गई और इस क्षेत्र में भी कंपनी द्वारा बेहतर उत्पाद दिये गए.

हल्दीराम के विवाद (Haldiram’s Controversy) – 

साल 2015 में कंपनी का बुरा वक़्त तब आया, जब संयुक्त राज्य अमेरिका में फूड एंड ड्रग विभाग द्वारा इसके उत्पादो में कीटनाशक की अधिक मात्रा होने के कारण इसे अपने देश में बेन कर दिया गया. इस प्रकार इस वक़्त कंपनी की छवि धूमिल हुई, परंतु बाद में एक व्यापक निरीक्षण के बाद महाराष्ट्र शासन द्वारा कंपनी को क्लीन चिट दी गई. इसके लिए कंपनी के विभिन्न उत्पादों का परीक्षण किया गया और पाया गया, कि इसमें सभी उत्पाद सीमा के अंदर है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं है.

हल्दीराम प्रोडक्टस की मार्केटिंग (Haldiram’s Products Marketing)–

हल्दीराम हिंदुस्तान का एक बहुत बड़ा ब्रांड है, ये अपने प्रोडक्टस की मार्केटिंग के लिए ट्रेडीशनल तरीके ही उपयोग करता है. आपको हल्दीराम के प्रोडक्टस विभिन्न बेकरी और रीटेल स्टोर पर आसानी से मिलते है. इसके अलावा हल्दीराम खुद को मार्केटिंग के आधुनिक तरीको से लेस करते हुये अपने प्रोडक्टस को ऑनलाइन भी उपलब्ध करवाता है. इसके अलावा इस कंपनी के प्रॉडक्ट की कीमत भी अन्य कंपनी की तुलना में कम है. आप विभिन्न होर्डिंग, बैनर और एडवरटाइजिंग के जरिये हल्दीराम का विज्ञापन आसानी से देख सकते है. परंतु हम यह बात भी यकीन से कह सकते है, कि आधुनिक भारत में हल्दीराम एक बहुत बड़ा नाम है, जिसे हर कोई जानता है.

हल्दीराम का रेवेन्यू / मूल्यांकन (Haldiram’s Revenue or Haldiram valuation) – 

साल 2018 में हल्दीराम ने अपने रेवेन्यू में 13 प्रतिशत की वृद्धि कर इस बार 4000 करोड़ के आकडे को पार किया है. हल्दीराम कंपनी तीन विभिन्न क्षेत्रों में अपना व्यापार करती है, जिसमें हल्दीराम स्नेक एंड एथनिक फूड, नागपूर बेस्ड हल्दीराम फूड इंटरनेशनल और हल्दीराम भुजिया वाला शामिल है, इन तीनों क्षेत्रों के क्रमशः रेवेन्यू 2136 करोड़, 1613 करोड़ और 298 करोड़ है. इस तरह से यह आकडे यह प्रदर्शित करते है, कि अच्छा भारतीय खाना विदेशी कंपनियो को पछाड़ देता है.

इसके अलावा अन्य कई विशेषज्ञो के मुताबिक रीटेल व्यापार में हल्दीराम का लगभग 5000 करोड़ से ज्यादा का व्यापार है. इतने वर्षों की लागत सेवा के बाद हल्दीराम ने अपना एक स्टेंडर सेट किया है. जब कंपनी के द्वारा रेस्टोरेंट कि शुरुआत की गई थी, तब इसके रेवेन्यू का 80 प्रतिशत पैक फूड से ही आता था. परंतु हल्दीराम ने इस क्षेत्र में भी कई देशी और विदेशी कंपनीस को पीछे छोड़ते हुये स्वयं को स्थापित किया.

आज हल्दीराम जैसी कंपनीयां युवाओं के लिए उदाहरण है, कि कैसे एक शुरुआत करके खुद को सेट किया जा सकता है. और पहले तो फिर भी मार्केटिंग के आधुनिक तरीके उपलब्ध नहीं थे, लोगो तक पंहुचना और उन तक अपनी बात पंहुचाना आसान नहीं था, परंतु आज के आधुनिक युग में सब संभव है. अगर युवा चाहे, तो बहुत कम समय में अधिक मेहनत करके खुद को स्थापित कर सकते है. 

साभार: businessideashindi.com/haldiram-inspiring-success-story-hindi-हल्दीराम





BIKANERWALA - बाल्टी में भरकर रसगुल्ला बेचने वाला आज हैं 2000 करोड़ टर्नओवर का मालिक

बाल्टी में भरकर रसगुल्ला बेचने वाला आज हैं 2000 करोड़ टर्नओवर का मालिक


परिवार में 130 सदस्य और सारे एक ही पारिवारिक कारोबार में... सुनने में हैरानी होती है लेकिन यह सच है। और इतने बड़े परिवार को एक साथ बांधने का जिम्मा उठा रखा है काका जी के नाम से मशहूर 83 साल के लाला केदारनाथ अग्रवाल ने। केदारनाथ मशहूर मिठाई और रेस्तरां चेन 'बीकानेरवाला' के मुखिया हैं। केदारनाथ 1955 में राजस्थान के बीकानेर से बड़े भाई सत्यनारायण अग्रवाल के साथ दिल्ली आए थे और बस दिल्ली के होकर रह गए। 

खास बात यह है कि आज की तारीख में काका जी के परिवार में 130 सदस्य हैं और सभी लोग परिवार के पुश्तैनी बिजनस से जुड़े हुए हैं। बीच में काका जी के एक पोते ने लंदन जाकर आईटी सेक्टर में कुछ समय के लिए जॉब जरूर की थी। लेकिन जॉब ज्यादा दिन तक उन्हें बांध नहीं पाई और वह दिल्ली लौटकर परिवार के बिजनस में शामिल हो गए। 

काका जी के पांच भाई और एक बहन है। अपने भाइयों में वह सबसे छोटे हैं। बड़े पांचों भाई भगवान को प्यारे हो चुके हैं। दो भाइयों के बच्चों को छोड़ दें तो बाकी चार भाइयों के बच्चे इसी एक बिजनस में हैं। इस बिजनस की नींव 1955 में रखी गई थी, जब वह और भाई सत्यनारायण कोलकाता और मुंबई से होते हुए पुरानी दिल्ली आए थे। 

शुरुआत में बाल्टी में भरकर रसगुल्ले बेचे 

केदारनाथ बताते हैं, 'पुरानी दिल्ली में हम दोनों भाई संतलाल खेमका धर्मशाला में रुके थे। उस वक्त सिर्फ तीन दिनों के लिए ही धर्मशाला में ठहरा जा सकता था। लेकिन हम बीकानेर से एक जानकार से एक महीने तक धर्मशाला में रुकने की सिफारिशी चिट्ठी लिखवाकर लाए थे। शुरुआत में हम दोनों भाइयों ने बाल्टी में भरकर बीकानेरी रसगुल्ले और कागज की पुड़िया में बांध-बांधकर बीकानेरी भुजिया और नमकीन बेची। 

जल्द ही दिल्ली ने हमारा हाथ पकड़ लिया और परांठे वाली गली में हमने एक दुकान किराये पर ले ली। फिर कारीगर भी बीकानेर से बुला लिए। इसके बाद नई सड़क पर एक अलमारी मिल गई। वहां हमने दिल्लीवालों को सबसे पहले मूंग की दाल का हलवा चखाया। शुद्ध देसी घी से बने इस हलवे को लोगों ने खूब पसंद किया। फिर मोती बाजार, चांदनी चौक में ही एक दुकान किराए पर मिल गई। उसी वक्त दिवाली आ गई और हमारी मिठाई और नमकीन की खूब सेल हुई। हालत यह हो गई थी कि रसगुल्लों की तो हमें राशनिंग यानी लिमिट तक तय करनी पड़ी। एक बार में एक शख्स को 10 से ज्यादा रसगुल्ले नहीं बेचे जाते थे। ग्राहकों की लाइनें लग जाती थीं। 

तो ऐसे पड़ा 'बीकानेरवाला' नाम 

शुरू में हमारा ट्रेड मार्क था BBB यानी बीकानेरी भुजिया भंडार। लेकिन कुछ ही दिनों बाद सबसे बड़े भाई जुगल किशोर अग्रवाल दिल्ली आए तो उन्होंने कहा कि यह क्या नाम रखा है। हमने तो तुम्हें यहां बीकानेर का नाम रोशन करने के लिए भेजा था। इसके बाद नाम रखा गया 'बीकानेरवाला' और 1956 से आज तक 'बीकानेरवाला' ही ट्रेड मार्क बना हुआ है।' काका जी के परिवार में तीन बेटे और तीन बेटियां हैं। सब शादीशुदा हैं और सबके बच्चे हैं। बेटों में सबसे बड़े राधेमोहन अग्रवाल (59), दूसरे नंबर पर नवरत्न अग्रवाल (55) और तीसरे नंबर पर रमेश अग्रवाल (52) हैं। सभी इसी बिजनस में लगे हुए हैं। 

दिल्ली में नई सड़क से शुरू किया नया काम 

'बीकानेरवाला' का दिल्ली में सबसे पहला ठिकाना 1956 में नई सड़क पर हुआ। 1962 में मोती बाजार में एक दुकान खरीदी। इसके बाद करोल बाग में 1972-73 में वह दुकान खरीदी, जो अब देश-दुनिया में बीकानेरवाला की सबसे पुरानी दुकान के रूप में पहचानी जाती है। काका जी बताते हैं कि जब वे लोग चांदनी चौक में रहते थे, तब उन्होंने एम्बैसेडर कार खरीदी थी। 

पूरी पुरानी दिल्ली में इक्का-दुक्का लोगों के पास ही कारें थी। इसके बाद जब फिएट का जमाना आया तो यह कार ली। यानी वक्त के साथ कदमताल करने की कोशिश की। परिवार को घूमने का भी खूब शौक है। नवरत्न अग्रवाल बताते हैं कि वह पूरी दुनिया घूम चुके हैं। वैसे, परिवार में हर बड़ा फैसला पिताजी यानी काका जी के ग्रीन सिग्नल मिलने के बाद ही लिया जाता है। 

आज बीकानो के 200 से ज्यादा आउटलेट्स 

आज देश और दुनिया में 'बीकानेरवाला' और 'बीकानो' के नाम से 200 से ज्यादा आउटलेट हैं। अमेरिका, दुबई, न्यू जीलैंड, सिंगापुर, नेपाल आदि देशों में भी 'बीकानेरवाला' पहुंच गया है। काका जी बताते हैं कि आज दो हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का टर्नओवर है। 

नवरत्न अग्रवाल का कहना है कि सभी आउटलेट्स में एक हजार से अधिक स्टाफ रखा हुआ है। 130 लोगों का हमारा यह परिवार करोल बाग, पंजाबी बाग, राजौरी गार्डन, पीतमपुरा, हैदराबाद, अहमदाबाद और दुबई में घर बनाकर रहता है। लेकिन परिवार की खास बात यह है कि हर होली इनकी साथ मनती है जीटी करनाल वाले फार्म हाउस में जहां परिवार के तमाम लोग जमकर गुलाल और रंग खेलते हैं। परिवार में 40 से ज्यादा कारें और नौकरों की पूरी पलटन है लेकिन सादगी से जिंदगी जीना इन्हें अच्छा लगता है। 

साभार: specialcoveragenews.in/lifestyle/bikanerwala-kedarnath-1108184