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Saturday, July 20, 2024

HANYA SHAH - GOLD MEDALIST

HANYA SHAH - GOLD MEDALIST


श्रीलंका के केलुटारा में आयोजित Western Asian Youth Chess Championships 2024 प्रतियोगिता में अहमदाबाद,गुजरात की हन्या शाह ने शतरंज में एक स्वर्ण पदक,एक रजत और एक कांस्य पदक प्राप्त किया।साथ ही साथ हन्या ने प्रतियोगिता ट्रॉफी भी अपने नाम की।


हन्या शाह को बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएं और उज्जवल भविष्य की कामना।भगवान श्री नृसिंह महाराज का आशीर्वाद आप पर हमेशा बना रहे।

Friday, July 19, 2024

DINESH AGRAWAL - INDIA MART

DINESH AGRAWAL - INDIA MART

यूपी के शख्स ने कुछ हजार लगाकर कमा लिए करोड़ों, अब 9 कंपनियों में हिस्सेदारी, कुल दौलत 50 अरब

यूपी के इस शख्स ने लगाई 'बनिया बुद्धि'! मात्र ₹40,000 से शुरुआत की, और बना ली ₹5000 करोड़ की निजी दौलत

उत्तर प्रदेश के रहने वाले दिनेश अग्रवाल का नाम आज बिजनेस जगत में चमक रहा है. वे अमेरिका में नौकरी करते 


बात 1995 की है. इधर, तब के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने भारत में इंटरनेट के आगमन की घोषणा की, और उधर अमेरिका में नौकरी कर रहे दिनेश अग्रवाल (Dinesh Agarwal) ने इस्तीफा दे दिया. दिनेश अग्रवाल एचसीएल (HCL) में एक बढ़िया जॉब कर रहे थे. वे भारत लौट आए. शुरुआत में उन्हें यह मालूम नहीं था कि भारत में उन्हें करना क्या है, मगर इतना तय था कि इंटरनेट की लहर पर सवार होने जा रहे भारत के साथ इसी क्रांति का हिस्सा बनना है. दिनेश अग्रवाल इंटरनेट क्रांति की लहर पर ऐसे सवार हुए कि आज भारत के बड़े बिजनेसमैन हैं. उनकी कंपनी का मार्केट कैप 17,244.01 (2 मई 2024 तक) करोड़ रुपये है. कंपनी का नाम है इंडियामार्ट (IndiaMart).

इंडियामार्ट के संस्थागत दिनेश अग्रवाल 19 फरवरी 1969 में पैदा हुए. कानपुर के हारकोर्ट बटलर टेक्नोलॉजिकल इंस्टीट्यूट से कंप्यूटर साइंस की डिग्री लेने के बाद उन्होंने कुछ कंपनियों के साथ जुड़कर इसी फील्ड में अनुभव हासिल किया. उनका करियर सीएमसी कंपनी से शुरू हुआ था, जिसे कि बाद में टाटा की कंपनी टीसीएस ने खरीद लिया. सीएमसी में दिनेश ने भारत का पहला ‘रेलवे रिजर्वेशन सिस्टम’ डेवलप किया. यहीं से पता चल गया था कि वे जिंदगी में कुछ बहुत बड़ा अचीव करने वाले हैं.

बनाया भारत का पहला डिजिटल टेलीफोन एक्सचेंज

सीएमसी कंपनी छोड़ने के बाद उन्होंने सैम पित्रोदा (Sam Pitroda) की टीम में जॉइन किया. यहां वे सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ टेलीमेटिक्स के लिए काम कर रहे थे. मौजूदा जानकारियों के मुताबिक, यहां उन्होंने भारत की पहली डिजिटल टेलीफोन एक्सचेंज बनाने के लिए काम किया. फिर 1992 में उन्होंने अमेरिका में बड़ी टेक् कंपनी एचसीएल (HCL) को जॉइन कर लिया और वहां सेवाएं देने लगे. एचसीएल में काम करते हुए ही उन्होंने अमेरिका में इंटरनेट को बढ़ते देखा. यहीं से उन्होंने अंदाजा लगा लिया था कि भारत के लोगों पर भी इंटरनेट का क्या असर पड़ सकता है.

इस लेख की शुरुआत हमने सन् 1995 से की थी. तो उसी वक्त में लौटते हैं. 1995 के अगस्त का महीना था, जब दिनेश अग्रवाल भारत लौट आए. उनकी पत्नी और बच्चे भी उनके साथ थे. वे भारत में कोई नौकरी करने के इरादे से नहीं आए थे. उनके इरादे और हौसले बड़े थे.

ऑनलाइन-ऑफलाइन हाइब्रिड मॉडल से हिट हुआ इंडियामार्ट

भारत लौटने के बाद उन्होंने पाया कि वे भारतीय एक्सपोर्ट करने वालों के लिए एक वेबसाइट बनाई जा सकती है. वे निर्यातकों और विक्रेताओं की एक ऑनलाइन डायरेक्टरी बनाना चाहते थे. मगर, इस बाबत सरकार से परमिशन नहीं मिली. बाद में उन्होंने एक फ्री लिस्टिंग फॉर्म बनाया और सभी सेलर्स को भेज दिया. इस तरह उनकी अनुमति लेकर उन्होंने सेलर्स की जानकारी सार्वजनिक करने में कामयाबी पाई. इसी समय इंडियामार्ट का जन्म हुआ. इंडियामार्ट की शुरुआती टैगलाइन भी यही थी – द ग्लोबल गेटवे टू इंडियन मार्केटप्लेस. अग्रवाल ने यह कंपनी केवल 40,000 रुपये के निवेश से शुरू की थी.

शुरुआत में इंडियामार्ट ने केवल एक्सपोर्ट करने वालों पर फोकस किया. एक इंटरव्यू में दिनेश अग्रवाल ने बताया, “1997 से लेकर 2001 तक, हमने हर एक्सपोर्ट की फ्री में लिस्टिंग की. उन बिजनेस के बारे में जब हमें रोज इंक्वायरी मिलती थीं, हम उन्हें शाम में छापते थे और रातों-रात फैक्स के जरिए भेजते थे. और अगले दिन, उन्हीं इंक्वायरीज़ को पोस्ट से भेजते थे.” इसी ऑनलाइन-ऑफलाइन हाइब्रिड मॉडल ने इंडियामार्ट को भारतीय एक्सपोर्ट बिजनेस की दुनिया में एक बड़ा नाम बना दिया.

आर्थिक संकट ने बना दिया इंडिया B2B का किंग

2007-08 में अमेरिका एक बड़े आर्थिक संकट में घिर गया. दुनियाभर में मंदी का असर दिखने लगा. एक्सपोर्ट का काम भी धीमा पड़ने लगा. इसी दौरान दिनेश और उनके कजिन बृजेश ने इंडियामार्ट का फोकस एक्सपोर्ट से भारत में बीटूबी (B2B) मार्केट पर शिफ्ट कर दिया. मतलब थोक विक्रेता और रिटेलर एक ही प्लेटफार्म पर आ गए. वे अपनी जरूरतों के हिसाब से इंक्वायरी डाल सकते थे और माल खरीद सकते थे. उधर, दोनों का (थोक विक्रेता और रिटेल विक्रेता) काम बहुत आसान हो गया, और इधर इंडियामार्ट का भी काम चल निकला. इसके बाद जो हुआ, वह तो सब जानते हैं.

बिजनेस तेजी से बढ़ा. कंपनी ने 2010 में 52 सप्ताहों के अंदर 52 ऑफिस खोल दिए. मतलब हर हफ्ते एक नया ऑफिस खोला. बात करें दिनेश अग्रवाल की नेट वर्थ की तो यह 5,000 करोड़ रुपये से अधिक हो चुकी है. ट्रेंडलाइन के अनुसार, 31 मार्च 2024 तक दिनेश अग्रवाल के पास 9 कंपनियों में हिस्सेदारी है. इन्हीं के आधार पर उनकी नेट वर्थ 5,316.9 करोड़ रुपये हो जाती है.

दिनेश अग्रवाल ने न केवल इंडियामार्ट को बड़ा किया, बल्कि कई और स्टार्टअप्स में भी निवेश किया. उनके पोर्टफोलियो में क्यूरोफाई (Curofy), विशबेरी (Wishberry), सिल्वरपुश (SilverPush), मनीऐप (MoneyyApp), और इन्नरशेफ (InnerChef) जैसी कंपनियां भी शामिल हैं. इन सबमें दिनेश अग्रवाल का पैसा लगा हुआ है.

MAHAJANI - महाजनी

MAHAJANI - महाजनी

मग्य काल में सम्पूर्ण भारत की अर्थव्यवस्था में महाजनों की भूमिका विशेष थी। तत्कालीन समाज में ये महाजन बैंक का काम करते थे। दूसरे शब्दों में यह एक अन्तरप्रान्तीय संगठन था जो संचार एवं परिवहन के साधनों के अल्प विकसित राज्य में भी आर्थिक लेन-देन को सुचारू रूप से संचालित करता था। भू-राजस्व, कृषि एवं दैनिक आवश्यकताओं तथा व्यापारिक वस्तुओं की खरीद-बिक्री और उसके आयात-निर्यात पर कर की नकद वसूली के फलस्वरूप महाजनी व्यवस्था विकसित हुई। 18वीं शताब्दी के अन्तिम दशक तक लगभग 200 महाजन एवं सराफ वाराणसी के बैंकिंग व्यवसाय से जुड़े हुए थे। सामान्यतया ये महाजन वैश्य, अग्रवाल खत्री आदि बनिया वर्ग के होते थे, तथापि अन्य वर्गों के लोग भी इस व्यवसाय से जुड़े हुए थे। इस्लामी व्यवहार में सूदखोरी के निषेध के कारण मुसलमान इसमें संलग्न नहीं थे। 1733 ई. में बनारस में टकसाल की स्थापना से इस स्थान का आर्थिक महत्व बढ़ गया और कुछ और रईस यहाँ के व्यवसाय से जुड़ गए। महाजनों ने न केवल वाराणसी, बल्कि सम्पूर्ण भारत की अर्थव्यवस्था में सक्रिय भूमिका निभाई। व्यापार और कृषि में वित्तीय ऋण उपलब्ध कराने तथा राजकीय राजस्व की वसूली में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। कंपनी के साथ वित्तीय कारोबार के विकास के साथ-साथ यहां महाजनों की स्थिति मजबूत होती गई। 18वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में बंगाल में यूरोपीय शैली के बैंकों पर राजकीय नियंत्रण स्थापित हो जाने के बाद महाजन व्यापार और उद्योग के वित्तीय प्रबंधक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण स्थिति बनाए रखने में सफल रहे, यद्यपि इससे यहां की वित्तीय व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। वाराणसी की स्थायी बंदोबस्त के समय इनमें से कुछ महाजन आमिलों के जमानतदार बन गए। इसके बाद वे तहसीलदारी में शामिल हो गए। स्थायी बंदोबस्त के बाद के 50 वर्षों में 18वीं शताब्दी की व्यापारिक और उदार संस्थाओं के सदस्यों ने भू-संपत्ति भी खरीदी। प्रस्तुत आलेख में यह जानने का प्रयास किया गया है कि 18वीं शताब्दी में बनारस में बैंकिंग व्यवस्था किस प्रकार संगठित थी, किसानों और व्यापारियों की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति कौन करता था, भू-राजस्व के भुगतान में महाजनों की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण थी।

Everyone Is A Vaishya

Everyone Is A Vaishya

India’s business communities, ever in the forefront, now see their role evolving

Can we discuss Indian entrepreneurship exclusively in terms of caste and community? Can it be claimed that Indian business has broken loose of its traditional social moorings and is much more inclusive? Are caste and community affiliations still of some consequence, despite the transformed economic context? And, can we be dismissive of the weight of history in shaping the social trajectory of entrepreneurial development in contemporary India? These are key concerns we face in trying to make sense of this complex conundrum of business communities. While there are no short answers, laying bare the broader historical context could throw some light.

The rise of an indigenous entrepreneurial class in pre-independence India, despite the overbearing presence of foreign capital, is exceptional and has few parallels in the rest of the Third World. It was a product of colonial commercialisation during the 19th century. As a colonial economy, India was required to absorb the manufactured goods of Britain as well as meet the ever-growing demand for primary products from British and European industry. The development of commodity markets provided the necessary impetus for the Indian merchant class to grow and flourish.

Old-timers Traditional Marwari traders in Sadasukh Katra in Burra Bazaar, Calcutta. (Photograph by Sandipan Chatterjee)

The financing of the export trade in primary products from the hinterland to the ports in principal commodities such as opium, raw cotton and jute, oil seeds, among others—as well as the distribution of the imported manufactured goods from the ports to the hinterland—was almost exclusively in the hands of merchants from distinct business communities, at least as far as the two major nodes of trade—Bombay and Calcutta—were concerned. These communities/ castes included the Parsis, the Gujarati Banias/ Jains, the Marwaris, the Multanis or Shikarpuris of Sindh, Kutchi Bhatias and the Nattukottai Chettiars.

These communities stood out by virtue of the sheer scale of their commercial and financial operations, extending over large tracts within and outside the country. Their presence in the ‘bazaar’ economy was pronounced and critical in lubricating the wheels of commerce. The intra-caste credit and trade networks which were developed by them greatly facilitated the process of wealth generation within the community.

The ability to mobilise capital with relative ease in a situation of underdeveloped capital markets, access to market intelligence on investment opportunities, and a natural propensity for risk-bearing swung things in favour of the merchants from these traditional communities. It enabled them to move into industry with great alacrity when opportunities arose. The flow of some Parsi and Gujarati Bania capital into textiles, and the brash entry of Marwari capital into a range of consumer industries later, is illustrative of this trend.

In contrast, communities like the Chettiars and the Shikarpuris of Sindh were more conservative. They didn’t find the returns on investment in industry sufficiently alluring and chose to remain largely bankers and traders. The same applies to the Khojas and Memons, the two Muslim business communities from the Gujarat region. Ironically, after some of them shifted to Pakistan following Partition, they had a free run and ended up controlling most of their major industries well till the 1970s. But even among them, it was only a few who could effect the transition from trade to industry.

Business communities, as an organisational structure, were critical in facilitating wealth generation by the family firms in the initial phase of their growth, in a given historical context. But with the growing economic distance between family firms over time, community structures became less relevant. The rise of interest groups in the form of chambers of commerce and trade associations is a manifestation of this trend. Furthermore, these communities were not really similar in their social mores, cultural practices or even business organisations. Yet they seemed to share one common trait: a keen market sensibility.

Even within these business communities, only a few could effect the transition from trader to industrialist.

By 1947, entrepreneurs from across a few traditional business communities were in firm control of the then modern Indian corporate sector. So conspicuous was their control that it even provoked D.R. Gadgil, the noted economist and keen industry watcher, to suggest in 1950 that the uniquely Indian form of entrepreneurship could be best understood only through the prism of business community. Gadgil’s analysis, based on his observations of the more visible nodal centres of commerce and industry, had a pervasive influence on subsequent writings on Indian entrepreneurship. An unfortunate fallout was the exclusion of alternate social routes of entrepreneurship outside the business community frame. The nascent trends of this were discernable as far back as the 1920s. It is only now, following the remarkable growth story of the south, that there is a growing recognition of inter-regional variations in sources of entrepreneurship.

Outside the Bombay-Ahmedabad-Calcutta axis, the entrepreneurial scenario was distinctly different. South India started its journey towards industrialisation later than western/eastern India and remained a poor cousin well till the 1970s. However, the social basis of private investment was more broad-based. The presence of merchant capitalists was not as pronounced as in the north. By choosing to move to greener pastures in the south and Southeast Asia during the late 19th and early 20th centuries as purveyors of credit, the Chettiars—the traditional business community of Tamil Nadu—ended up creating an economic environment in south India (especially in the Tamil region) that allowed other players from non-ethnic and non-commercial castes to venture into commercial enterprise. In short, there were no strict entry barriers like in north India.

First families Mittal, Premji, Birla, Mallya, India Inc big guns at a global investors meet. (Photograph by AFP, From Outlook 01 October 2012)

Significantly, commencing roughly from the 1920s, and gaining momentum after independence, sections of prosperous agriculturists/landowners (Kammas, Gounders, Reddys, Rajus, Syrian Christians, Tamil Brahmins and Goud Saraswats), upper echelons of artisanal castes (Kaikollars or Senguntha Mudaliars, Devangas) and other occupational castes from the socially marginal sections of south Indian society (Nadars, Ezhavas, Thiyyas) channelised investment into trade, organised finance and industry. Similarly, there was a movement of Patidar capital into industry and other commercial enterprises in Gujarat and of the Khatris in Punjab.

New opportunities for private investment in the Nehruvian period were mostly seized by traditional business families.

The new opportunities for private investment in the Nehruvian period were mostly seized by business houses from the traditional business communities. By virtue of their sheer size and by using the tough licensing system to their advantage, they created barriers for the entry of new capital, right through the ’70s. The 1980s economic reforms were a game-changer. With the expansion of the market and incomes, the number of claimants seeking licences for setting up industries increased exponentially. Science and technology-driven education and government policy provided a fillip to the new groups who were investing in emerging industries, be it electronics, communications, IT, pharma or biotech. Many of them were first-generation entrepreneurs, though a good number from traditional merchant families have also entered the field. A broadening of the social base of entrepreneurship has been evident from the late 1980s.

The diversified social base has not necessarily resulted in a weakening of caste and community influences. Though it may not have as much meaning as in the past, in myriad new forms it continues to play an important role in shaping the new entrepreneurial initiatives. This is particularly true at the lower and middle levels of enterprise. The recent, exceptional story of the Tiruppur garment cluster and of the ‘Gounder’ enterprise is a good example of the effectiveness of caste as a means for consolidation and weathering competition. The case of the diamond cutting and polishing industry of Surat and of the Palanpuri Jains is broadly illustrative of the same trend.

The recent rise of a nascent entrepreneurial class from the Dalit community, drawn largely from UP, Maharashtra and Punjab, and the promotion of community-based Dalit chambers of commerce reinforces the continuing importance of caste in a certain historical context. The entry of new entrepreneurs from the Marwari and Bania communities (but operating in a globally competitive market) suggests that the caste dimension operates in far more subtle ways than earlier. The benefit of being part of a traditional business community is the immense advantage in terms of networks and information flows and, above all, of the unquantifiable asset of an inherent business sensibility. The ethical dimension of trust, critically integral to any enterprise, also serves to strengthen caste structures in certain situations.

The import of the reassertion of caste in the wider social and political sphere was not lost on business. Business and politics are often intertwined and mediated through caste affiliation, with each sphere reaping not inconsequential gains from this relationship, as cases in Andhra and Tamil Nadu demonstrate so starkly. While caste and community are no longer central to the story involving large corporate houses, they remain critical to enterprises at the regional level, but in ways very different from the past. The success of certain castes in business in the past has become a beacon for others to use the same route.

क्या हम भारतीय उद्यमिता पर विशेष रूप से जाति और समुदाय के संदर्भ में चर्चा कर सकते हैं? क्या यह दावा किया जा सकता है कि भारतीय व्यवसाय अपने पारंपरिक सामाजिक बंधनों से मुक्त हो गया है और कहीं अधिक समावेशी हो गया है? क्या बदले हुए आर्थिक संदर्भ के बावजूद, जाति और सामुदायिक संबद्धताएं अभी भी कुछ परिणाम दे रही हैं? और, क्या हम समकालीन भारत में उद्यमशीलता विकास के सामाजिक प्रक्षेप पथ को आकार देने में इतिहास के महत्व को खारिज कर सकते हैं? व्यावसायिक समुदायों की इस जटिल पहेली को समझने की कोशिश में हमारे सामने ये प्रमुख चिंताएँ हैं। हालाँकि इसका कोई संक्षिप्त उत्तर नहीं है, व्यापक ऐतिहासिक संदर्भ उजागर करने से कुछ प्रकाश डाला जा सकता है।

विदेशी पूंजी की अत्यधिक उपस्थिति के बावजूद, स्वतंत्रता-पूर्व भारत में स्वदेशी उद्यमशील वर्ग का उदय असाधारण है और तीसरी दुनिया के बाकी हिस्सों में इसकी कुछ समानताएँ हैं। यह 19वीं शताब्दी के दौरान औपनिवेशिक व्यावसायीकरण का एक उत्पाद था। एक औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के रूप में, भारत को ब्रिटेन के निर्मित माल को अवशोषित करने के साथ-साथ ब्रिटिश और यूरोपीय उद्योग से प्राथमिक उत्पादों की बढ़ती मांग को पूरा करने की आवश्यकता थी। कमोडिटी बाज़ारों के विकास ने भारतीय व्यापारी वर्ग को बढ़ने और फलने-फूलने के लिए आवश्यक प्रोत्साहन प्रदान किया।

अफ़ीम, कच्ची कपास और जूट, तेल के बीज जैसी प्रमुख वस्तुओं जैसे भीतरी इलाकों से बंदरगाहों तक प्राथमिक उत्पादों के निर्यात व्यापार का वित्तपोषण - साथ ही बंदरगाहों से भीतरी इलाकों तक आयातित विनिर्मित वस्तुओं का वितरण - कम से कम जहाँ तक व्यापार के दो प्रमुख केन्द्रों - बंबई और कलकत्ता - का संबंध था, लगभग विशेष रूप से अलग-अलग व्यापारिक समुदायों के व्यापारियों के हाथों में था। इन समुदायों/जातियों में पारसी, गुजराती बनिया/जैन, मारवाड़ी, मुल्तानी या सिंध के शिकारपुरी, कच्छी भाटिया और नट्टुकोट्टई चेट्टियार आदि वैश्य बनिया थे।

ये समुदाय देश के भीतर और बाहर बड़े पैमाने पर फैले अपने वाणिज्यिक और वित्तीय संचालन के विशाल पैमाने के आधार पर खड़े हुए। 'बाज़ार' अर्थव्यवस्था में उनकी उपस्थिति स्पष्ट थी और वाणिज्य के पहियों को चिकना करने में महत्वपूर्ण थी। उनके द्वारा विकसित किए गए अंतर-जातीय ऋण और व्यापार नेटवर्क ने समुदाय के भीतर धन सृजन की प्रक्रिया को काफी सुविधाजनक बनाया।

अविकसित पूंजी बाजारों की स्थिति में अपेक्षाकृत आसानी से पूंजी जुटाने की क्षमता, निवेश के अवसरों पर बाजार की जानकारी तक पहुंच और जोखिम उठाने की स्वाभाविक प्रवृत्ति ने इन पारंपरिक समुदायों के व्यापारियों के पक्ष में चीजों को झुका दिया। इसने उन्हें अवसर आने पर बड़ी तत्परता के साथ उद्योग में आगे बढ़ने में सक्षम बनाया। कपड़ा क्षेत्र में कुछ पारसी और गुजराती बनिया पूंजी का प्रवाह, और बाद में उपभोक्ता उद्योगों की एक श्रृंखला में मारवाड़ी पूंजी का बेतहाशा प्रवेश, इस प्रवृत्ति का उदाहरण है।

इसके विपरीत, सिंध के चेट्टियार और शिकारपुरी जैसे समुदाय अधिक रूढ़िवादी थे। उन्हें उद्योग में निवेश पर रिटर्न पर्याप्त आकर्षक नहीं लगा और उन्होंने बड़े पैमाने पर बैंकर और व्यापारी बने रहना चुना। यही बात गुजरात क्षेत्र के दो मुस्लिम व्यापारिक समुदायों खोजा और मेमन पर भी लागू होती है। विडंबना यह है कि विभाजन के बाद उनमें से कुछ के पाकिस्तान चले जाने के बाद, उन्हें खुली छूट मिल गई और 1970 के दशक तक उन्होंने अपने अधिकांश प्रमुख उद्योगों को नियंत्रित कर लिया। लेकिन उनमें से भी, केवल कुछ ही ऐसे थे जो व्यापार से उद्योग में परिवर्तन को प्रभावित कर सकते थे।

व्यावसायिक समुदाय, एक संगठनात्मक संरचना के रूप में, किसी दिए गए ऐतिहासिक संदर्भ में, पारिवारिक फर्मों द्वारा उनके विकास के प्रारंभिक चरण में धन सृजन की सुविधा प्रदान करने में महत्वपूर्ण थे। लेकिन समय के साथ पारिवारिक फर्मों के बीच बढ़ती आर्थिक दूरी के साथ, सामुदायिक संरचनाएं कम प्रासंगिक हो गईं। वाणिज्य मंडलों और व्यापार संघों के रूप में हित समूहों का उदय इस प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति है। इसके अलावा, ये समुदाय वास्तव में अपने सामाजिक रीति-रिवाजों, सांस्कृतिक प्रथाओं या यहां तक ​​कि व्यापारिक संगठनों में भी समान नहीं थे। फिर भी उनमें एक समान गुण दिखाई देता है: गहरी बाज़ार संवेदनशीलता।

यहां तक ​​कि इन व्यापारिक समुदायों के भीतर भी, केवल कुछ ही लोग व्यापारी से उद्योगपति में परिवर्तन को प्रभावित कर सकते हैं।

1947 तक, कुछ पारंपरिक व्यापारिक समुदायों के उद्यमियों का तत्कालीन आधुनिक भारतीय कॉर्पोरेट क्षेत्र पर दृढ़ नियंत्रण था। उनका नियंत्रण इतना स्पष्ट था कि इसने डी.आर. को भी उकसाया। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और उद्योग जगत पर गहन नजर रखने वाले गाडगिल ने 1950 में सुझाव दिया था कि उद्यमिता के विशिष्ट भारतीय स्वरूप को केवल व्यापारिक समुदाय के चश्मे से ही सबसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। वाणिज्य और उद्योग के अधिक दृश्यमान नोडल केंद्रों की उनकी टिप्पणियों के आधार पर गाडगिल के विश्लेषण का भारतीय उद्यमिता पर बाद के लेखन पर व्यापक प्रभाव पड़ा। एक दुर्भाग्यपूर्ण नतीजा यह हुआ कि व्यावसायिक समुदाय के दायरे से बाहर उद्यमिता के वैकल्पिक सामाजिक मार्गों का बहिष्कार हो गया। इसकी उभरती प्रवृत्तियाँ 1920 के दशक में ही देखी जा सकती थीं। दक्षिण की उल्लेखनीय विकास गाथा के बाद अब उद्यमिता के स्रोतों में अंतर-क्षेत्रीय विविधताओं की पहचान बढ़ रही है।

बॉम्बे-अहमदाबाद-कलकत्ता धुरी के बाहर, उद्यमशीलता परिदृश्य स्पष्ट रूप से अलग था। दक्षिण भारत ने पश्चिमी/पूर्वी भारत की तुलना में औद्योगीकरण की दिशा में अपनी यात्रा देर से शुरू की और 1970 के दशक तक एक गरीब रिश्तेदार बना रहा। हालाँकि, निजी निवेश का सामाजिक आधार अधिक व्यापक था। व्यापारी पूँजीपतियों की उपस्थिति उत्तर की तरह स्पष्ट नहीं थी। 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में ऋण के वाहक के रूप में दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में हरे-भरे चरागाहों की ओर जाने का विकल्प चुनकर, चेट्टियार-तमिलनाडु का पारंपरिक व्यापारिक समुदाय-ने अंततः दक्षिण भारत (विशेषकर में) में एक आर्थिक वातावरण तैयार किया। तमिल क्षेत्र) जिसने गैर-जातीय और गैर-व्यावसायिक जातियों के अन्य खिलाड़ियों को वाणिज्यिक उद्यम में उद्यम करने की अनुमति दी। संक्षेप में कहें तो वहां उत्तर भारत की तरह कोई सख्त प्रवेश बाधाएं नहीं थीं।

गौरतलब है कि मोटे तौर पर 1920 के दशक से शुरू होकर, और आजादी के बाद गति पकड़ते हुए, समृद्ध कृषकों/जमींदारों (कम्मा, गाउंडर्स, रेड्डी, राजू, सीरियाई ईसाई, तमिल ब्राह्मण और गौड़ सारस्वत) के वर्ग, कारीगर जातियों के ऊपरी वर्ग (कैकोल्लार या सेनगुंथा मुदलियार), देवांगस) और दक्षिण भारतीय समाज के सामाजिक रूप से सीमांत वर्गों (नादर, एझावा, थियास) की अन्य व्यावसायिक जातियों ने व्यापार, संगठित वित्त और उद्योग में निवेश को बढ़ावा दिया। इसी तरह, गुजरात में पाटीदारों की पूंजी का उद्योग और अन्य वाणिज्यिक उद्यमों में और पंजाब में खत्रियों की पूंजी का प्रवाह हुआ।

नेहरू काल में निजी निवेश के नए अवसरों को ज्यादातर पारंपरिक व्यापारिक परिवारों ने जब्त कर लिया।

नेहरू काल में निजी निवेश के नए अवसरों को ज्यादातर पारंपरिक व्यापारिक समुदायों के व्यावसायिक घरानों ने जब्त कर लिया। अपने विशाल आकार के आधार पर और अपने लाभ के लिए कठिन लाइसेंसिंग प्रणाली का उपयोग करके, उन्होंने '70 के दशक के दौरान नई पूंजी के प्रवेश के लिए बाधाएं पैदा कीं। 1980 के दशक के आर्थिक सुधार एक गेम-चेंजर थे। बाजार और आय के विस्तार के साथ, उद्योग स्थापित करने के लिए लाइसेंस मांगने वाले दावेदारों की संख्या तेजी से बढ़ी। विज्ञान और प्रौद्योगिकी-संचालित शिक्षा और सरकारी नीति ने नए समूहों को बढ़ावा दिया जो उभरते उद्योगों में निवेश कर रहे थे, चाहे वह इलेक्ट्रॉनिक्स, संचार, आईटी, फार्मा या बायोटेक हो। उनमें से कई पहली पीढ़ी के उद्यमी थे, हालांकि पारंपरिक व्यापारी परिवारों से भी बड़ी संख्या में लोग इस क्षेत्र में आए हैं। 1980 के दशक के उत्तरार्ध से उद्यमिता के सामाजिक आधार का विस्तार स्पष्ट हुआ है।

विविध सामाजिक आधार के परिणामस्वरूप जरूरी नहीं कि जाति और समुदाय का प्रभाव कमजोर हुआ हो। हालाँकि इसका अतीत जितना अर्थ नहीं है, असंख्य नए रूपों में यह नई उद्यमशीलता पहल को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। यह उद्यम के निचले और मध्यम स्तर पर विशेष रूप से सच है। तिरुपुर परिधान क्लस्टर और 'गाउंडर' उद्यम की हालिया, असाधारण कहानी समेकन और प्रतिस्पर्धा को कम करने के साधन के रूप में जाति की प्रभावशीलता का एक अच्छा उदाहरण है। सूरत के हीरा काटने और पॉलिश करने के उद्योग और पालनपुरी जैन का मामला मोटे तौर पर उसी प्रवृत्ति का उदाहरण है।

हाल ही में दलित समुदाय से एक उभरते उद्यमी वर्ग का उदय, जो मुख्य रूप से यूपी, महाराष्ट्र और पंजाब से आया है, और समुदाय-आधारित दलित चैंबर्स ऑफ कॉमर्स को बढ़ावा देना एक निश्चित ऐतिहासिक संदर्भ में जाति के निरंतर महत्व को मजबूत करता है। मारवाड़ी और बनिया समुदायों (लेकिन विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी बाजार में काम कर रहे) से नए उद्यमियों के प्रवेश से पता चलता है कि जाति आयाम पहले की तुलना में कहीं अधिक सूक्ष्म तरीकों से संचालित होता है। पारंपरिक व्यवसाय समुदाय का हिस्सा होने का लाभ नेटवर्क और सूचना प्रवाह के संदर्भ में और सबसे ऊपर, अंतर्निहित व्यावसायिक संवेदनशीलता की निर्विवाद संपत्ति के मामले में बहुत बड़ा लाभ है। विश्वास का नैतिक आयाम, जो किसी भी उद्यम का महत्वपूर्ण अभिन्न अंग है, कुछ स्थितियों में जाति संरचनाओं को मजबूत करने का भी काम करता है।

व्यापक सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में जाति की पुनः पुष्टि का महत्व व्यवसाय पर नहीं पड़ा। व्यापार और राजनीति अक्सर जाति संबद्धता के माध्यम से एक दूसरे से जुड़े होते हैं और मध्यस्थ होते हैं, प्रत्येक क्षेत्र को इस रिश्ते से कोई महत्वहीन लाभ नहीं मिलता है, जैसा कि आंध्र और तमिलनाडु के मामले स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करते हैं। जबकि जाति और समुदाय अब बड़े कॉर्पोरेट घरानों से जुड़ी कहानी के केंद्र में नहीं हैं, वे क्षेत्रीय स्तर पर उद्यमों के लिए महत्वपूर्ण बने हुए हैं, लेकिन अतीत से बहुत अलग तरीकों से। अतीत में व्यवसाय में कुछ जातियों की सफलता दूसरों के लिए भी उसी मार्ग का उपयोग करने के लिए एक प्रेरणा बन गई है।

Source: Harish Damodaran, author of India's New Capitalists (Permanent Black)

ELUR CHETTY VAISHYA - TAMILNADU

ELUR CHETTY VAISHYA - TAMILNADU

एलूर चेट्टी (जिसे एलूर चेट्टू या एज़ूर चेट्टी या एज़ूर चेट्टी भी कहा जाता है) दक्षिण भारत में एक [तमिल/मलयालम] भाषी हिंदू समुदाय है । ऐसा कहा जाता है कि वे तंजावुर जिले के कावेरीपूमपट्टनम से चले गए और कन्याकुमारी जिले में बस गए । वे चेट्टी के सामान्य नाम के अंतर्गत आते हैं जिसमें अन्य समुदाय शामिल हैं जैसे कि कोट्टार चेट्टी, परक्का चेट्टी, वेल्लालर चेट्टी, पथिरा चेट्टी, वलयाल चेट्टी, पुदुकोट्टई वल्लानट्टू चेट्टी, नट्टुक्कोट्टई चेट्टी आदि। वे एक समय एक व्यापारिक समुदाय थे और अन्य चेट्टी से अलग थे। समुदाय. बाद में कोट्टार , तिरुवनंतपुरम , थेरुसनमकोप्पु , नागरकोइल , चेन्नई , थालक्कुलम, एरानिएल (मेलाथेरू), तिरुचिरापल्ली , कोयंबटूर और मदुरै ।
यह नाम "एझु ऊरु" से लिया गया है जिसका अर्थ है "सात शहर"। ये सात शहर भारत के दक्षिणी तमिलनाडु में कन्याकुमारी जिले में और उसके आस-पास थे, जिनके नाम थे एरानिएल , थिरुवितनकोड , पद्मनाभपुरम , कोलाचेल , गणपतिपुरम , मिडलम और परक्कई । इन्हें कीझाथेरु चेट्टी कहा जाता है।

एझुर चेट्टी समुदाय मूल रूप से चोल साम्राज्य के हिस्से कावेरीपूमपट्टिनम के निवासी थे और समुद्री व्यापार में शामिल एक समृद्ध समुदाय थे। यह प्राचीन शहर 79 अगस्त 23/24 के आसपास सुनामी से नष्ट हो गया था और इस घटना के बाद समुदाय के सदस्य दूसरे इलाकों में पलायन करने लगे।

व्यापारी समुदाय ने अपनी संपत्ति और समृद्ध जीवन छोड़ दिया, अपने परिवार के देवताओं (विनायक और नागरमन) की मूर्तियों को ले लिया, चोल साम्राज्य को छोड़ दिया और कावेरी नदी के पार पांडिया और चेरा साम्राज्यों में चले गए । कुछ पलायन करने वाले लोग कराईकुडी, देवकोट्टई, थिरुप्पुर, कोविलपट्टी, तजायुथु, वल्लियुर और कोट्टार सहित लगभग 93 स्थानों पर बस गए। कोट्टार पहुंचे लोगों ने विनायक मूर्ति की पूजा की। पूजा के बाद, जब उन्होंने मूर्ति को हटाने की कोशिश की, तो वे असफल रहे। कोट्टार में रहने वाले लोगों को कोट्टार चेट्टी कहा जाता है । बाद में कोट्टार पिल्लयार मंदिर का निर्माण वहाँ किया गया।

बाकी लोग वल्ली नदी के तट के पास एरानिएल (पूर्व में हिरण्यसिंहनल्लूर) पहुँचे। वह दिन तमिल कैलेंडर के चिथिरई महीने का आखिरी रविवार था, जो आयिलियम नक्षत्र का दिन था। उन्होंने नागरमन ( साँप देवी ) की मूर्ति और थंगम्मई और थयम्मई की मूर्तियाँ भी वहाँ रखीं। उस रात, उन्होंने कच्चे चावल के आटे, केले (मट्टी) फल, इलायची, सूखे अदरक, नारियल और गुड़ के मिश्रण से निवेद्यम (भगवान के लिए एक मीठा प्रसाद) बनाया। इस मिश्रण को दबाकर एक ठोस आयताकार आकार (ईंट की तरह) बनाया गया, जिसे फिर केले और नारियल के पत्तों का उपयोग करके ढक दिया गया और कैथाई (एक पौधा जो बहुत सुगंधित फूल पैदा करता है) की जड़ का उपयोग करके बांध दिया गया। इसे नारियल के छिलके का उपयोग करके पकाया गया और भगवान को परोसा गया। इसे 'ओडुप्पाराई कोलुक्कट्टई' के रूप में जाना जाता हैअरुलमिगु थंगम्माई-थयम्माई

इसके बाद समुदाय के सदस्यों ने चेरा राजा से मुलाकात की और व्यापार करने की अनुमति मांगी। इसके बाद एरानिएल को आधार बनाकर व्यापार शुरू हुआ, जिसमें गणपतिपुरम (पझाया कडाई), परक्कई, कोलाचेल, मिडलम, तिरुवितनकोड और पद्मनाभपुरम शामिल थे। इसलिए उन्हें एज्हुर (जिसका अर्थ है '7 शहर') चेट्टी समुदाय कहा जाता था।

एरानिएल में बसने वाले समुदाय के सबसे पहले ज्ञात लोग उमयम्माई और पिचा पिल्लई (उन्नामलाई के वंशज) थे। उनकी संतानें कोलप्पा पिल्लई, सुब्रमोनिया पिल्लई और सिवथानु पिल्लई हैं।

मंडल आयोग के अनुसार एलुर चेट्टी को तमिलनाडु [2] (कन्याकुमारी जिले में) और केरल [3] में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया था

ओडुप्पराई नागरमन मंदिर एलुर चेट्टी समुदाय का सामुदायिक मंदिर है। यह मंदिर एरानिएल ( हिरण्यसिंह नल्लूर ) के पास स्थित है। तमिल कैलेंडर के आखिरी रविवार को मासिक पूजा की जाती है ।

कोट्टार देसिया विनयगर मंदिर कोट्टार चेट्टी समुदाय का सामुदायिक मंदिर है। यह मंदिर चेट्टीकुलम में नागरकोइल शहर के केंद्र में स्थित है और इसका प्रबंधन देसिया विनयगर देवस्थानम के ट्रस्टियों द्वारा किया जाता है और ट्रस्टियों का चुनाव कोट्टार चेट्टी के पुरुष सदस्यों द्वारा किया जाता है। ट्रस्टियों द्वारा दैनिक और विशेष पूजा की जाती है। मंदिर के पास नागरकोइल शहर में बहुत सारे ज़मीन और संपत्तियाँ हैं।

इतिहास

एझुर चेट्टी समुदाय मूल रूप से चोल साम्राज्य के हिस्से कावेरीपूमपट्टिनम के निवासी थे और समुद्री व्यापार में शामिल एक समृद्ध समुदाय थे। यह प्राचीन शहर 79 अगस्त 23/24 के आसपास सुनामी से नष्ट हो गया था और इस घटना के बाद समुदाय के सदस्य दूसरे इलाकों में पलायन करने लगे।

व्यापारी समुदाय ने अपनी संपत्ति और समृद्ध जीवन छोड़ दिया, अपने परिवार के देवताओं (विनायक और नागरमन) की मूर्तियों को ले लिया, चोल साम्राज्य को छोड़ दिया और कावेरी नदी के पार पांडिया और चेरा साम्राज्यों में चले गए। पलायन करने वाले कुछ लोग कराईकुडी, देवकोट्टई, थिरुप्पुर, कोविलपट्टी, थझायुथु, वल्लियुर और कोट्टार सहित लगभग 93 स्थानों पर बस गए। कोट्टार पहुंचे लोगों ने विनायक की मूर्ति की पूजा की। पूजा के बाद, जब उन्होंने मूर्ति को हटाने की कोशिश की, तो वे असफल रहे। कोट्टार में रहने वाले लोगों को कोट्टार चेट्टी कहा जाता है। बाद में वहां कोट्टार पिल्लयार मंदिर बनाया गया।

बाकी लोग वल्ली नदी के तट के पास एरानिएल (पूर्व में हिरण्यसिंहनल्लूर) पहुँचे। वह दिन तमिल कैलेंडर के चिथिरई महीने का आखिरी रविवार था, जो आयिल्यम नक्षत्र का दिन था। उन्होंने नागरमन (साँप की देवी) की मूर्ति और थंगम्माई और थायम्माई की मूर्तियाँ वहाँ स्थापित कीं। उस रात, उन्होंने कच्चे चावल के आटे, केले (मट्टी) के फल, इलायची, सूखे अदरक, नारियल और गुड़ के मिश्रण से निवेद्यम (भगवान के लिए एक मीठा प्रसाद) बनाया। इस मिश्रण को दबाकर एक ठोस आयताकार आकार (ईंट की तरह) बनाया गया, जिसे फिर केले और नारियल के पत्तों का उपयोग करके ढक दिया गया और कैथाई (एक पौधा जो बहुत सुगंधित फूल पैदा करता है) की जड़ का उपयोग करके बाँध दिया गया। इसे नारियल के छिलके का उपयोग करके पकाया गया और भगवान को परोसा गया। इसे 'ओडुप्परै कोलुक्कट्टई' के रूप में जाना जाता है। तब से, ओडुप्परै नागरमन मंदिर समारोह आज तक आयोजित किए जा रहे हैं और परिवार और समुदाय एक साथ मिलते हैं।

इसके बाद समुदाय के सदस्यों ने चेरा राजा से मुलाकात की और व्यापार करने की अनुमति मांगी। इसके बाद एरानिएल को आधार बनाकर व्यापार शुरू हुआ, जिसमें गणपतिपुरम (पझाया कडाई), परक्कई, कोलाचेल, मिडलम, तिरुवितनकोड और पद्मनाभपुरम शामिल थे। इसलिए उन्हें एज्हुर (जिसका अर्थ है '7 शहर') चेट्टी समुदाय कहा जाता था।

एरानिएल में बसने वाले समुदाय के सबसे पहले ज्ञात लोग उमयम्माई और पिचा पिल्लई (उन्नामलाई के वंशज) थे। उनकी संतानें कोलप्पा पिल्लई, सुब्रमोनिया पिल्लई और सिवथानु पिल्लई हैं। इन नामों का इस्तेमाल पीढ़ियों से होता आ रहा है। इनका संदर्भ ओडुप्पराई मंदिर की चट्टानों पर लिखी लिपियों में पाया जा सकता है।

Thursday, July 18, 2024

AYYAR VAISHYA - तमिलनाडु अय्यर वैश्य

AYYAR VAISHYA - तमिलनाडु अय्यर वैश्य

नागरथा या नागरता / नागरम / नागरकुलम / नागरथर दक्षिण भारत की एक हिंदू जाति है जो व्यापारी या कृषिविद है । नागरथा आम तौर पर एक सुशिक्षित, आर्थिक रूप से पर्याप्त उन्नत समुदाय है , और इस तरह आरक्षण लाभ , भारतीय सकारात्मक कार्रवाई के लिए पात्र नहीं हैं । परंपरागत रूप से नागरथा व्यापारी और कभी-कभी खेत के मालिक होते थे जो अपनी ज़मीन पर काम नहीं करते थे। अब, व्यापारी होने के अलावा, नागरथा बैंकर भी हैं और निजी क्षेत्र में काम करते हैं ।

नागरथा दक्षिणी कर्नाटक के मैसूर , बैंगलोर , कोलार और तुमकुर जिलों में तथा उत्तरी तमिलनाडु के सलेम, इरोड, धर्मपुरी, कृष्णगिरि, नमकल, कोयंबटूर और तिरुपुर जिलों में रहते हैं। अधिकांश नागरथा शहरी क्षेत्रों में रहते हैं।

नागरथ खुद को वैश्य मानते हैं । इस कारण से वे ब्राह्मण विवाह और अंतिम संस्कार की रस्में निभाते हैं। वे सख्त शाकाहारी हैं और शराब पीने से परहेज करते हैं । उनके व्यक्तिगत नामों में जोड़ा गया सम्मानजनक प्रत्यय सेट्टी है ।

नागरथ इंडो आर्यन से संबंधित हैं और यजुर्वेद से संबंधित हैं

उप विभाजनों

नागरथ दो मुख्य संप्रदायों और कई छोटे संप्रदायों में विभाजित हैं। नामधारी संप्रदाय भगवान विष्णु की पूजा करते हैं और शिवचार या लिंगधारी शिव की पूजा करते हैं । शिवचार लिंगम पहनते हैं ।

परंपरागत रूप से नागरथ संस्कृति में अंतर्विवाह प्रथा है, और विवाह विशिष्ट संप्रदाय के भीतर होते हैं, सिवाय इसके कि एक शिवचार पुरुष एक नामधारी महिला से विवाह कर सकता है जो फिर अपने परिवार और संस्कृति को त्याग देती है। शिवचार महिलाओं के लिए नामधारी पुरुष से विवाह करना सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य नहीं था। आधुनिक प्रथाएँ अधिक लचीली हैं, विशेष रूप से शिवचार और नामधारी अंतर्विवाह के बीच। नामधारी केवल ब्राह्मणों के घरों में खाते हैं और शिवचार केवल जंगम और आराध्य ब्राह्मणों के घरों में खाते हैं।

नागरथ को कभी-कभी अयोध्यानगरदावरु के नाम से भी जाना जाता था क्योंकि वे बहुत समय पहले अयोध्या से दक्षिण भारत में चले गए थे , हालाँकि अब इसका प्रयोग बहुत कम होता है। कन्नड़ भाषी कर्नाटक में उन्हें नामधारी नागरथ के नाम से जाना जाता है, तमिल भाषी तमिलनाडु में उन्हें अयिरवैश्यार के नाम से जाना जाता है, और बड़े पैमाने पर तेलुगु भाषी आंध्र प्रदेश में छोटी आबादी को बेरी नागरथ/ नागरकुलम के नाम से जाना जाता है । नागरथ को सविरा गोत्रदवरु भी कहा जाता है ।

तमिलनाडु में अय्यरवैश्यार उप-समुदायों की सूची

वदुंबर, समयपुरथार, अक्रिरापक्कम, सोलिया चेट्टी, कसुकारा चेट्टी, नगरम, बेरी चेट्टी, नाडु मंडलम, थोगमलाई चेट्टी, मुंजापुथुर, साधु चेट्टी, शैव चेट्टी, वेल्लन, वनियार, कोंगु मंडलम आदि। 

तमिलनाडु में चेत्तियार्स के बारे में विवरण

चेट्टियार या चेट्टी शब्द दक्षिण भारत में विभिन्न व्यापारिक वैश्य जातियों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला एक शीर्षक है , खासकर तमिलनाडु और केरल राज्यों में । तमिलनाडु में, 14% आबादी चेट्टियार है

भारत में वैश्यों के बारे में विवरण

भारत में वैश्य समुदाय के लोगों की संख्या 25 करोड़ है।

निजी क्षेत्र से सरकारी खजाने में आने वाले राजस्व का 76 प्रतिशत हिस्सा वैश्य समुदाय से आता है।

84 प्रतिशत दान-कार्य जैसे स्कूल, अस्पताल, सराय, कुएं और धर्मशालाएं बनवाना आदि वैश्य समुदाय द्वारा दिए गए धन से किए जाते हैं।

निजी क्षेत्र में 66 प्रतिशत रोजगार वैश्य समुदाय द्वारा सृजित किया जाता है।

क्या आप जानते हैं कि भारतीय जनसंख्या में वैश्य समुदाय का प्रतिशत कितना है? केवल 16 प्रतिशत।

सामाजिक स्थिति

चेट्टियार समुदाय हिंदू समाज में वैश्य (व्यापारी) वर्ण का दावा करते हैं। चेट्टियार कुलीन बैंकर हैं । चेट्टियार को देश में संगठित बैंकिंग के अग्रदूतों में से एक माना जाता है। उन्हें डबल एंट्री बहीखाता पद्धति , तमिल में 'पट्टु वरवु' की अवधारणा को शुरू करने का श्रेय भी दिया जाता है, जिसे आमतौर पर डेबिट और क्रेडिट के रूप में जाना जाता है। तमिलनाडु के दक्षिण से इस समुदाय ने विनिर्माण से लेकर बैंकिंग, उर्वरक और फिल्मों तक हर चीज पर अपनी मूक छाप छोड़ी है।

CHETTIYAR VAISHYA WEDDING - तमिलनाडु चेट्टियार वैश्य विवाह की रस्में

CHETTIYAR VAISHYA WEDDING - तमिलनाडु चेट्टियार वैश्य विवाह की रस्में

तमिलनाडु चेट्टियार विवाह की रस्मेंतमिल चेट्टियार 700 ई. से ही गौरव, फैशन, प्रगति, वैश्वीकरण, संस्कृति और विरासत के प्रतीक और प्रतीक रहे हैं। मूल रूप से, यह एक व्यापारिक समुदाय है और सैकड़ों वर्षों से अपनी गहरी व्यापारिक समझ, सामाजिक प्रतिष्ठा और परोपकारी उपक्रमों में योगदान और अपने उत्साह के लिए प्रसिद्ध है। इस समुदाय का सांस्कृतिक इतिहास अत्यधिक समृद्ध है और उनकी सफलता को सर्वश्रेष्ठ रूप में दर्शाता है। तमिल चेट्टियार विवाह एक विस्तृत समारोह होता है जिसमें कई समारोह और अनुष्ठान होते हैं और आमतौर पर यह छह दिनों का होता है। चेट्टियार विवाह के अनिवार्य खंडों में से एक जोड़े को उपहार देना है जिसमें झाड़ू या घर का सबसे छोटा सामान से लेकर सात के गुणकों में महंगे हीरे तक शामिल हो सकते हैं। हालाँकि, अधिकांश नगराथर अपने पैतृक गाँव से दूर रहते हैं, लेकिन वे अपने गाँव नागरा में विवाह समारोह आयोजित करना पसंद करते हैं।

लेकिन, विवाह समारोह शुरू होने से पहले, नगराथर विवाह को दूल्हे के संबंधित मंदिर से स्वीकृति लेनी होती है। विवाह की स्वीकृति के संकेत के रूप में, मंदिर के अधिकारी जोड़े के लिए माला विवाह स्थल पर पहुंचाते हैं।

वली वानगुथलदूल्हे के माता-पिता और कुछ अन्य करीबी रिश्तेदार दुल्हन और उसके परिवार से मिलने एक आम जगह पर जाते हैं। आजकल, जैसे-जैसे परंपराएं बदल रही हैं, दूल्हा भी दुल्हन से मिलने के लिए अपने परिवार के साथ जाता है। दुल्हन का परिवार नारियल, केला, सुपारी और पान के पत्तों से भरी चांदी की बाल्टी चढ़ाता है। अगर दूल्हे के परिवार को दुल्हन पसंद आती है, तो वे दुल्हन को अपने परिवार में स्वीकार करने के प्रतीक के रूप में चांदी की बाल्टी स्वीकार करते हैं। एक बार जब सभी लोग दुल्हन को स्वीकार कर लेते हैं तो वे अपनी पुष्टि दिखाने के लिए सुपारी और पान के पत्तों का आदान-प्रदान करते हैं। फिर जोड़े के माता-पिता ज्योतिषियों से परामर्श करने के बाद उनकी शादी की तारीख तय करते हैं। मपिल्लई अझाइपु

दूल्हे

का परिवार शादी के दिन वास्तविक "मुहूर्तम" से पहले दुल्हन के घर पहुंचता है, लेकिन वे घर में प्रवेश नहीं करते हैं। वे एक सामुदायिक हॉल या मंदिर में प्रतीक्षा करते हैं जैसे ही दूल्हा दुल्हन के घर पहुंचता है, उसे दरवाजे पर आने के लिए कहकर दुल्हन को दिखाया जाता है। हालांकि, उन्हें बात करने या साथ में कुछ समय बिताने का मौका नहीं मिलता। थिरुपूतुथल इस अनुष्ठान में जोड़े के मामा शादी के स्वागतकर्ता बनते हैं। वे मामाकारा पट्टू पहनते हैं, जो एक गुलाबी फ्लोरोसेंट रेशमी तौलिया है जिसे वे अपने शरीर के चारों ओर लपेटते हैं। दुल्हन के मामा उसे दूल्हे के पास लाते हैं जो मनल में बैठा होता है। दूल्हा दुल्हन के गले में चेट्टियार थाली या कालूथिरु बांधता है, जिसे वह शादी में पहनती है। इसके बाद, नियमित उपयोग के विकल्प के रूप में एक सोने की थाली दी जाती है। वैवु इराक्कुथल इस समारोह में दुल्हन का परिवार अपनी संपत्ति सब्जियों और अनाज के रूप में साझा करता है। इसे दुल्हन के मामा द्वारा ले जाया जाता है और दूल्हे के परिवार को सौंप दिया जाता है पू मानम छोरीधाल यह समारोह आशीर्वाद देने के लिए होता है और दूल्हा-दुल्हन को पैर मोड़कर बैठाया जाता है। परिवार के पुरुष बुजुर्ग अपने हाथों को पंखुड़ियों से भरे कटोरे में डुबोते हैं और कुछ पंखुड़ियाँ निकालकर जोड़े के मुड़े हुए पैरों पर रख देते हैं। ये पंखुड़ियाँ जोड़े के कंधों पर भी रखी जाती हैं और अंत में उनके पीछे फेंक दी जाती हैं। यह समारोह जोड़े को बड़ों द्वारा दिए गए आशीर्वाद का प्रतीक है। मंजल नीरू अदुथल इस समारोह में जोड़े के चचेरे भाई-बहन भाग लेते हैं और उनके पैरों को मंजल नीर (शुद्ध जल) से धोते हैं। माना पेन सोल्ली कोल्लुथल

यह एक भावनात्मक समारोह है जहां दुल्हन अपने माता-पिता और परिवार को अलविदा कहती है। यह दुल्हन के लिए बेहद भावनात्मक और कठिन क्षण होता है क्योंकि उसे अपने परिवार के प्यार और बचपन के दिनों की यादों को फिर से जीना होता है क्योंकि वह एक महिला बनने के लिए अपना घर छोड़ती है और अपने नए परिवार की ज़िम्मेदारियाँ उठाती है।

कट्टू सोरु उन्नुथल

यह बहुत पुरानी परंपरा है, जहां दूल्हे के परिवार को दुल्हन को वापस घर ले जाने के लिए पैक किए गए खाद्य पदार्थों के साथ एक दिन की यात्रा करनी पड़ती है। पैक किए जाने वाले भोजन में आमतौर पर चावल होता था, और अपनी यात्रा के दौरान वे एक तालाब या टैंक के पास आराम करते थे, और अपना भोजन करते थे। अधिकांश नगरथार विवाह आज भी इस परंपरा का पालन करते हैं।

पेन अज़लप्पु

इस कार्यक्रम में, दुल्हन का दूल्हे के घर में औपचारिक रूप से स्वागत किया जाता है और उसे परिवार के सदस्य की तरह गले लगाया जाता है। दूल्हे के घर आमंत्रित किए जाने से पहले जोड़े को आमतौर पर उनके पैतृक गांव के एक मंदिर में ले जाया जाता है इस समारोह में बहुत सारी मौज-मस्ती होती है और जोड़े को कई तरह के खेल खेलने को कहा जाता है, जिससे यह तय होता है कि शादी के बाद उनका जीवन कैसा होगा और घर में कौन सी जिम्मेदारी कौन लेगा।

Wednesday, July 17, 2024

ADYA GUPTA CHESS CHAIMPION

ADYA GUPTA CHESS CHAIMPION

श्रीलंका के केलुटारा में आयोजित Western Asian Youth Chess Championships 2024 प्रतियोगिता में दिल्ली की आद्या गुप्ता ने शतरंज में दो स्वर्ण पदक प्राप्त किए।इस बेहतरीन प्रदर्शन के लिए आद्या को वुमेन फिड मास्टर खिताब भी मिला।


आद्या गुप्ता को बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएं और उज्जवल भविष्य की कामना।भगवान श्री नृसिंह महाराज का आशीर्वाद आप पर हमेशा बना रहे।

Tuesday, July 16, 2024

AYODHYA VASI VAISHYA - अयोध्या वासी वैश्य

AYODHYA VASI VAISHYA - अयोध्या वासी वैश्य 

अयोध्यावासी वैश्य कौन-  एक उपजाति अयोध्या नगरी में निवास करती थी यह काफी समृद्ध और वैभवशाली थी। श्री ज्वाला प्रसाद मिश्र कृत जाति भास्कर ग्रंथ ( पृष्ठ 320 ) के अनुसार - "अयोध्या में निवास करने के कारण यह अयोध्यावासी वैश्य कहलाए, युक्त प्रदेश के अनेक स्थान और बिहार प्रांत में इनका निवास है।" इनके संदर्भ में पंडित छोटे लाल शर्मा वैश्य जयपुर फुलेरा अपने ग्रन्थ 'जाति अन्वेषण' प्रथम भाग के पृष्ठ 224 पर लिखते हैं - यह एक व्यस्त जाति है इन्हें अवधी बनिया कहते हैं । यह जाति बिहार तथा युक्त प्रदेश में है । हिंदुओं को सप्त पुरी में अयोध्या भी एक पुरी है । प्राचीन इतिहास व पुराणों में अयोध्यापुरी की बड़ी महिमा है। भगवान राम के समय जो वैश्य थे उन पर मुसलमानी अत्याचार हुआ। औरंगजेब ने अयोध्या का नाश किया वहीं मंदिरों की मस्जिद बनवाई। तब यह व्यस्त जाति भी विपत्ति बस इधर-उधर भाग निकली और दूर दूर जाकर अवधी बनिया और अयोध्यावासी बनिया कहे जाने लगे ।

जैसा कि स्पष्ट हो चुका है कि अयोध्यावासी वैश्य, वैश्य समाज का ही एक अंग है , और अयोध्या के आदि निवासी होने के कारण अयोध्यावासी कहलाए । किंतु इनका प्रथक से से भी पूर्ण इतिहास है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अयोध्यावासी वैश्य का संपूर्ण भारत में विस्तार कैसे हुआ अयोध्यावासी वैश्य महासभा के तत्कालीन महामंत्री श्री दुर्गा प्रसाद गुप्ता द्वारा प्रकाशित विवरण अनुसार

हिंदू समाज व्यवस्था में वैश्य वर्ण का विशेष महत्व है वैश्य वर्ण अपने स्थान वंश व व्यवसाय आदि कारणों से विभिन्न वर्गों मैं विभाजित हो गया यथा अग्रवाल ओमर दोसर माथुर आदि इन्हीं रूपों में से एक उप वर्ग है अयोध्यावासी वैश्य। अयोध्यावासी वैश्य का विस्तार रामायण काल से प्रारंभ होता है रामचरितमानस में उल्लेखनीय है

जहां राम तहाँ सबुई समजू।

बिनु रघुबीर अवध नहीं काजू ।।

और रामचंद्र जी के वन गमन पर

सहि न सके रघुवीर बिरहागी ।

चले लोग सब ब्याकुल भागी ।।

चलत राम लखि अवध अनाथा ।

निकल लोग सब लागे साथा ।।

अयोध्या नगर निवासी तमसा नदी के तट तक आए। एक रात जब अवध निवासी निद्रा लीन थे तभी रामबन चले गए । जाग्रत अवस्था में वह रामचंद्र जी को न पाकर बहुत दुखी हुए। रामचंद्र जी किधर गए:

"राम राम कहि चहुँ दिशि धावहिं ।"

अंत में अधिकांश नर-नारी अयोध्या वापस लौट आए।

यह विधि करत प्रलाप कलापा।

आये अवध भरे परितापा ।।

परंतु वैश्य समाज नहीं लौटा। रामचरितमानस में उल्लिखित यह चौपाई हमारा प्रमाण है:

'भयहु विकल बड़ बनिक समाजू' और इस प्रकार वैश्य वर्ण कि लोग वापस घर नहीं लौटे,चित्रकूट के निकटवर्ती स्थानों एवं मध्य प्रदेश महाराष्ट्र बिहार आदि प्रदेशों में फैल गए। वैश्योचित कर्म कृषि व्यापार एवं उद्योग से संबंधित कार्यों में लग गए। मूलतः अयोध्या के निवासी होने के कारण अयोध्यावासी वैश्य कहलाए।

यह तो था महासभा द्वारा प्रकाशित विवरण अनुसार विस्तार का कारण जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि बांदा इत्यादि क्षेत्रों में अयोध्यावासी वैश्य का बाहुल्य क्यों है ? (भगवान राम चित्रकूट में बनवास करते थे) किंतु दक्षिण भारतीय क्षेत्रों (महाराष्ट्र, गुजरात) में अयोध्यावासी वैश्यों के पहुंचने के संदर्भ में अन्वेषण जारी रहा। क्योंकि भगवान राम जब रात्रि में उठकर बनवास गए थे तभी सभी लोग अनुमान से ही चारों दिशाओं में उन्हें खोजने गए थे फलस्वरूप वह चारों दिशाओं में अन्य स्थानों पर पहुंचते गए क्योंकि उनका राम प्रेम इतना अधिक था कि वे बिना राम के अयोध्या लौटना ही नहीं चाहते थे फलस्वरुप वह वहीं पर निवास करने लगे इसी कारण न केवल अयोध्या एवं बांदा एवं चित्रकूट के समीपवर्ती क्षेत्रों में वरन संपूर्ण भारत में अयोध्यावासी वैश्य निवास करते हैं।

इस संदर्भ में ब्रह्म पुराण में वर्णित चक्षुस्तीर्थ महात्मय में उल्लिखित राम के परम भक्त मणि कुंडल का उल्लेख किया जाना आवश्यक है। भगवान राम को ढूंढते - ढूंढते श्रेष्ठ अयोध्यावासी वैश्य मणिकौशल एवं उनका पुत्र मणिकुण्डल गोदावरी नदी के तट पर अवस्थित भौवन नगर पहुंचे और वहीं पर निवास करने लगे। भौवन नगर पर उस समय महाराज भौवन राज्य करते थे । उसी नगर के एक वृद्ध ब्राह्मण कौशिक के पुत्र गौतम से मणि कुंडल की मित्रता हो गई। ब्राह्मण पुत्र गौतम ने मणि कुंडल को विदेश व्यापार हेतु सहमत किया। मणि कुंडल और गौतम जब विदेश व्यापार पर गए तो एक स्थान पर मणिकुंडल से अनावश्यक विवाद कर उसका धन हरण कर लिया तथा दोनों हाथ काटने के उपरांत उसकी दोनों आंखें भी फोड़ कर मणि कुंडल को वहीं पर छोड़ गया । संयोगवश उधर से विभीषण निकले । सदाचारी मणिकुंडल ने भगवान राम के वनवास के कारण अयोध्या छोड़ने से लेकर गौतम द्वारा किए गए छल का पूरा कथानक कह सुनाया। उस की ऐसी दशा देखकर व सुनकर एवं यह जानकर कि यह अयोध्यावासी वैश्य हैं, वैभीषणि ने अपने पिता विभीषण के सहयोग से शुक्ल पक्ष एकादशी को विशल्यकरणी महौषधि (केवल चक्षुस्तीर्थ में प्राप्त) द्वारा उसे सर्वांग सुंदर रूप पुनः प्रदान किया । तदोपरांत महापुर के राजा महाबली की एकमात्र पुत्री का उपचार मणि कुंडल जी ने उसी विशल्यकरणी महौषधि द्वारा किया जिससे प्रसन्न होकर अपने वचन अनुसार महाराजा ने अपनी पुत्री का विवाह मणि कुंडल से कर उसे राज्य दे दिया । तत्पश्चात मणिकुंडल के राज्य (सौराष्ट्र- महाराष्ट्र) में प्रश्रय एवं सुविधाएं मिलने के कारण अन्य अयोध्यावासी वैश्य भी वही जाकर बस गए और आज भी निवास कर रहे हैं (देखे संदर्भ ब्रह्मपुराण 170/1 से 170/85)

गोत्र परम्परा पर कई किवदंतियां प्रचलित है:

गोत्र परम्परा

अयोध्यावासी वैश्य में गोत्र परंपरा भी मौजूद है गोत्र के प्रश्न पर अयोध्यावासी वैश्यो के समाज मनीषियों के प्रमुख विचार आगे उल्लिखित होंगे किंतु यहां पर इतना स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूं

अयोध्यावासी वैश्यो में दो गोत्र प्रचलित हैं

1> कौशल गोत्र 2> कश्यप गोत्र

1> कौशल गोत्र

अधिकांश अयोध्यावासी वैश्य अपना गोत्र कौशल मानते हैं और उनमें से कुछ प्रतिशत नाम के साथ कौशल लिखते भी हैं । कौशल गोत्र प्रवर्तन के संदर्भ में एकमत निम्नानुसार है जिसे चार्ट द्वारा व्यक्त किया जा रहा है।

कमल भैया जी के इसी मत के समर्थन में अयोध्या के स्वजातीय समाजसेवी स्वर्गीय पाटेश्वरी प्रसाद जी अपनी कौशल गोत्र अयोध्यावासी वैश्य पुस्तक में लिखते हैं "जब वशिष्ठ जी अवध प्रदेश के राजगुरु थे । वे राजधानी अयोध्या में रहते थे। महाराज रघु के शासनकाल में उन्होंने उसका नाम अपने सबसे छोटे पुत्र कौशल ऋषि के नाम पर कर दिया तब से वह कौशल राज्य कहलाने लगा। कौशल ऋषि से हम सब का प्रादुर्भाव होने व अयोध्या में निवास करने के कारण अयोध्यावासी वैश्य व कौशल गोत्र प्रसिद्ध हो गया।"

2> कश्यप गोत्र

अन्य वैश्य उपवर्ग के समान - अयोध्यावासी वैश्य में कुछ लोगों की मान्यता है कि गोत्र कश्यप है ।

उनकी मान्यता है कि सभी वैश्य कश्यप जी की संतान हैं । कौशल भी उनमें से एक थी इसलिए हम लोगों का गोत्र कश्यप ही है । इसे संक्षेप में इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं।

ब्रम्हा ---> मनु---->कश्यप-----> कौशल

सभी मत अपने अपने दृष्टिकोण से सर्वथा उचित है किंतु गहन अध्ययन एवं शोध के अभाव में विशेष जानकारी प्राप्त न हो सकी । किंतु ब्रह्म पुराण, मनुस्मृति, अग्रवंश का इतिहास, जाति भास्कर ग्रंथ वैश्याणाम गौरवः, जाति अन्वेषण, वैश्य समुदाय का इतिहास इत्यादि ग्रंथों के अध्ययन के उपरांत मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि यह मत कुछ उचित लगता है कि "जब वशिष्ठ जी अवध प्रदेश के राजगुरु थे । वे राजधानी में रहते थे । महाराजा रघु के शासनकाल में उन्होंने उसका नाम अपने सबसे छोटे पुत्र कौशल ऋषि के नाम पर कर दिया तब से वह कौशल राज्य कहलाने लगा। कौशल ऋषि से प्रादुर्भाव होने व अयोध्या में निवास करने के कारण अयोध्यावासी वैश्य कौशल गोत्र प्रसिद्ध हो गया"। किंतु इसमें भी यह जानकारी इस विवाद में पड़े बिना कि कौशल ऋषि वशिष्ठ के वंशज थे अथवा कश्यप के जोड़ना चाहूंगा कि-

यह कौशल ऋषि वही थे जिन्होंने महाराजा अग्रसेन के 18 पुत्रों में से एक कानचंद्र को शिक्षा प्रदान की थी इन्हीं कौशल ऋषि के शिष्यत्व के नाम पर ही अग्रवाल बंधुओ में कौशल/ कंसल /कासल /कासिल गोत्र का प्रवर्तन हुआ है । हम उन्हीं महापुरुष कौशल ऋषि की संतान हैं। और चूँकि कश्यप ऋषि वैश्यों के प्रवर्तक हैं अतएव हमें इस मतभेद को नजरअंदाज करना चाहिए और समाज सेवा में इसी तरह जुटे रहना चाहिए।

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मणिकुंडल महाराज

ध्यानम्:

सुगौरवर्णम्, धर्मावतरम्, सिंहासनारूढ़ किरीट भूषितम्।

पीतवस्त्रावृता मुखतेजवरणम् करबद्धमुद्रे अर्धोन्मीलित नेत्रम्।।

कर्णाभ्याम् कुण्डले, कंकणे हस्ताभ्याम् शोभितम्।

वन्दे ध्यानस्थ रामभक्तम् मणिकुण्डलम् नमामि।।

सुन्दर, गोरे रंग के, धर्म के अवतार स्वरूप मणिकुण्डल जी सिर पर मुकुट धारण कर सिंहासन पर विराजमान हैं। वे शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए है, दोनों हाथ प्रणाम की मुद्रा में है। प्रभु के प्रति भक्तिभाव में निमग्न उनके नेत्र अधखुले है। उनके चेहरे से तेज निकल रहा है। वे कानों में कुण्डल और हाथों में कंकण पहने हुए ध्यान मुद्रा में बैठे हैं। ऐसे प्रभु श्री राम के भक्त मणिकुण्डल जी का ह्रदय में स्मरण करते हुए उन्हें नमस्कार करता हूँ।

महाराजा मणिकुंडल महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय:

श्री अयोध्यावासी वैश्य वंश प्रवर्तक महाराजा मणिकुंडल महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय दिया जा रहा है जिससे समाज बंधुओं को जानकारी मिल सके।

सृष्टि काल से मानव धर्म को गौरवान्वित वाले महामानव समय-समय पर जन्म लेकर राष्ट्र एवं समाज को सही दिशा देते रहे हैं । वैश्य समाज में भी मनु काल से ही ऐसे महामानव अवतरित होते रहे हैं जिन्होंने सत्य,धर्म, परोपकार एवं आदर्श पथ का अनुगमन करने हेतु अपना सर्वस्व त्याग दिया किंतु क्षण मात्र के लिए भी पथ भ्रमित नहीं हुए ऐसे श्री अयोध्यावासी वैश्य वंश प्रवर्तक महाराज मणि कुंडल महाराज हैं ।

महाराज मणिकुंडल जी सौम्य व्यक्तित्व के धनी सदाचारी युगपुरुष प्रातः स्मरणीय महाराज जी का जन्म त्रेता युग में महाराजा दशरथ के शासनकाल में मणिकौशल जी की धर्मपत्नी शाकम्भरी के गर्भ से पौष पूर्णिमा को हुआ था । मणिकौशल जी अयोध्या के प्रमुख व्यापारियों में गिने जाते थे । जिस समय महाराजा दशरथ की आज्ञा अनुसार भगवान राम वन जा रहे थे उस समय मणिकौशल जी के नेतृत्व में अयोध्या के वणिकों ने भगवान राम को रोकने का काफी प्रयास किया । अंत में प्रयास निष्फल हो जाने पर वे सभी उनके साथ चल दिये ।

भगवान राम ने जब यह देखा कि अयोध्यावासी वन में भी मेरे साथ जाने हेतु दृढ़ प्रतिज्ञ है तो एक रात्रि जब सभी लोग निद्रामग्न थे, भगवान राम अपनी पत्नी सीता एवं अनुज लक्ष्मण के साथ तमसा तट पर आए और चित्रकूट पहुंच गए ।

प्रातः काल जब परिजनों ने देखा कि भगवान राम वहां से जा चुके हैं तो शोकाकुल होकर उनमें से कुछ अयोध्या वापस लौट गए इसके विपरीत कुछ लोग अपने अपने अनुमान से विभिन्न दिशाओं में चल दिए ।

जो लोग चित्रकूट की ओर गए उन्हें तो श्रीराम मिल गए अतेएव वह सब वामदा अब बांदा नामक स्थान पर प्रवास करने लगे जो कालांतर में नगर के रूप में विकसित होकर उनका स्थाई निवास बन गया । अयोध्यावासियों की कई टोलियां इधर-उधर अन्य दिशाओं में भ्रमित हो गई । नगर श्रेष्टि मणिकौशल अपने पुत्र मणिकुंडल के साथ दक्षिण दिशा की ओर चल दिए । काफी समय तक यत्र तत्र भटकने के उपरांत उनके भौवन नगर जो गोदावरी नदी के तट पर अवस्थित है, एक समृद्ध नगर था, में निवास करने की जानकारी मिलती है ।

राम वन गमन के समय मणि कौशल जी के साथ अयोध्या से चले बालक मणिकुंडल जी ने भौवन नगर में युवावस्था को प्राप्त किया । यहां पर उनकी मित्रता कई अन्य युवकों से हो गई जो विभिन्न जाति वर्ग एवं विचारधाराओं के थे । मणिकुंडल जी एक धर्म परायण, सत्यवादी, सिद्धांतवादी, पुण्य आत्मा, आस्तिक नवयुवक थे । वे अपने व्यापार में भी छल कपट एवं बेईमानी से दूर रहते थे । धर्म एवं साहित्य के कार्यों में यथेष्ट दान इत्यादि भी करते थे । उनकी उदार वृत्तियों के कारण उन्हें व्यापार में भी अत्यधिक लाभ हुआ और आर्थिक समृद्धि उनके चतुर्दिक निवास करने लगी ।

मणिकुण्डल जी के पास धन एवं आर्थिक संपन्नता देखकर उनके एक पड़ोसी कोशिक के पुत्र गौतम के मन में श्री मणिकुंडल जी का धन हरण करने का विचार आया था । उसने उन्हें विदेश व्यापार में अत्यधिक लाभ का आकर्षण दिखाकर संपूर्ण धन लेकर अन्यत्र चलने का परामर्श दिया श्री मणिकुंडल जी बातों में आ गए ।

विदेश व्यापार करते समय एक स्थान पर गौतम ने अनावश्यक विवाद करने के लिए मणि कुंडल जी से पाप, अधर्म एवं असत्य के मार्ग की प्रशंसा की इसी पर मणिकुंडल जी ने इसे निम्न प्रवृत्ति बतलाते हुए सत्य, धर्म एवं पुण्य के कार्य करने का परामर्श दिया । किंतु गौतम क्यों मानने वाला था, उसे तो विवाद का बहाना चाहिए था । मणिकुंडल जी की बातों पर गौतम क्रोधित हो गया उसने मणिकुंडल जी पर प्रहार कर उनके दोनों हाथ पैर काट दिए, इतने पर भी उसे संतोष ना हुआ, उसने उनकी दोनों आंखें फोड़ दी और श्री मणिकुंडल जी को तड़पता छोड़ कर संपूर्ण धन लेकर चला गया ।

गोदावरी नदी के किनारे उक्त स्थान पुराणों में चक्षुस्तीर्थ के नाम से वर्णित है वहां प्रत्येक शुक्ल पक्ष एकादशी को विभीषण भगवान योगेश्वर के दर्शन करने आते थे । कहते हैं कि नियमित दर्शन के कारण वे लंका के राजा बने । वहां पर हाथ, पैर और नेत्रों से विहीन मणिकुंडल जी जब ऐसी मरणासन्न स्थिति में थे उसी समय शुक्ल एकादशी होने के कारण लंकाधिपति विभीषण अपने पुत्र वैभीषणि के साथ वहां पर पधारे । तड़पते कलपते मणिकुंडल जी की करुण दशा से द्रवित हो वैभीषणि ने मणिकुंडल जी से उनकी दशा का कारण पूछा तब मणिकुंडल जी ने राम वन गमन के कारण, अयोध्या छोड़ने से लेकर, गौतम द्वारा किए गए छल तक का पूर्ण कथानक कह सुनाया ।

यह जानकर कि यह धर्म परायण अयोध्यावासी वैश्य है, और राम का भक्त है और उन्होंने अपने पिता श्री विभीषण के सहयोग से चक्षुस्तीर्थ नामक पावन स्थल में प्राप्त विशल्यकरणी महौषधि जो हनुमान जी द्वारा लक्ष्मण बूटी ले जाते समय पर्वत से गिर गई थी और वहां पर पुनः उग आई थी, के द्वारा मणिकुंडल जी को सर्वांग सुंदर रूप प्रदान किया तत्पश्चात राम नाम को सर्वत्र प्रसारित करते हुए मणि कुंडल जी देश विदेश का भ्रमण करने लगे भ्रमण करते हुए एक बार मणिकुंडल जी महापुर नमक राज्य में पहुंच गए ।

वहां के महाराजा महाबली की एकमात्र पुत्री मरणासन्न स्थिति में थी । सभी वैद्य, राज वेद्म, तांत्रिक एवं पंडितों ने जवाब दे दिया था । मानव कल्याण की भावना से वे राजदरबार गए, और राजकुमारी को स्वस्थ कर देने का आश्वासन दिया । चक्षुस्तीर्थ का महत्व कहें या राम नाम की महिमा कि विभीषण से प्राप्त दिव्य मंत्रों के साथ विशल्यकरणी देते ही राजकुमारी स्वस्थ हो गई । प्रसन्न होकर राजा ने आधा राज्य देने का प्रस्ताव मणिकुंडल जी के समक्ष रखा, मणि कुंडल जी ने कहा कि मैंने राज्य या इनाम के लोभ में राजकुमारी को स्वस्थ नहीं किया वरन् यह तो मानव होने के नाते मेरा कर्तव्य था । इस प्रकार के विस्तृत वार्तालाप से प्रभावित हो महाबली ने पूर्ण राज्य मणिकुंडल जी को दे दिया । मणिकुंडल जी ने महारूपा से विवाह कर राज्यकार्य संभाल लिया ।

महाराजा होने के बाद भी मणिकुंडल जी के विचारों प्रवृत्तियों अथवा प्रकृति में कोई परिवर्तन नहीं आया । उसी सत्य, निष्ठा, धर्मपरायणता, न्यायप्रियता के आदर्श आप जीवन के अंत तक व्यवहार् किए रहे । आपकी चर्चा सुनकर अन्यत्र बसे अयोध्यावासी वैश्य भी आपके राज (वर्तमान सौराष्ट्र महाराष्ट्र) आकर बस गए ।(वर्तमान में अयोध्यावासी वैश्य समाज के लोग पूरे भारत में एवं विदेशों में भी निवासरत है) आपका जीवन सत्य, असत्य, धर्म, अधर्म, पाप, पुण्य, के संघर्ष एवं उदात्त्वृत्तियों के विजय का प्रतीक है ।

हम सभी को इस बात पर गर्व करना चाहिए कि ऐसे महापुरुष हमारे पूर्वज थे । हममें उन्हीं महापुरुषों का रक्त संचारित है । वस्तुत: गौरवमय अतीत की नींव पर वर्तमान का भवन निर्मित होता है, जिसमें उन्नत भविष्य की संभावना बलवती होती है । आप संपूर्ण वैश्य समाज ही नहीं वरन भारत देश की निधि है । हमें ऐसे युग पुरुष की जयंती प्रत्येक वर्ष पौष पूर्णिमा को मनानी चाहिए, तथा उनके जीवन से सद्कर्मों की प्रेरणा लेकर अपने जीवन को कृतार्थ करना चाहिए एवं समाज तथा राष्ट्र के नैतिक उत्थान में सहभागी होना चाहिए ।

Monday, July 15, 2024

VAISHYA GATHA - वैश्य गाथा

VAISHYA GATHA -  वैश्य गाथा 

धनिकों से नफरत भारतीय संस्कृति में कब रही? क्या धनिकों को बिना राष्ट्र निर्माण संभव है? वामपंथी विचारधारा से प्रभावित नव हिंदुओं में ही यह सोच देखी जा सकती है.. वरना धनिकों को श्रेष्ठी और महाजन अर्थात जनों में महान और श्रेष्ठ कहने की परंपरा रही है..

वैश्य का तो धर्म ही है धनसंचय ...

महाभारत में स्वयं भीष्म पितामह कहते हैं -

वैश्यस्यापि हि यो धर्मस्तं ते वक्ष्यामि शाश्वतम् ।
दानमध्ययनं यज्ञः शौचेन #धनसंचयः ॥

अब वैश्यका जो सनातन धर्म है, वह तुम्हें बता रहा हूँ। दान, अध्ययन, यज्ञ और धनका संग्रह ये वैश्यके कर्म हैं
- महाभारत शान्तिपर्व 60.21

इसी धन संशय से करोड़ों लोगों की आजीविका चलती है सैलरी के रूप में.. इसी टैक्स के पैसे से राज्य के सैनिकों का वेतन दिया जाता है.. सड़क आदि infrastructure का निर्माण होता है.. इसी से सेना के लिए हथियार खरीदे जाते हैं.. विदेशी मुद्रा देश में आती है.. आज संपूर्ण विश्व में भारत का बोलबाला है क्युकी हम तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं...

देश को ISRO, HAL, Agni Missiles, Air India, Bombay Stock Exchange, आदि सभी महान संस्थाएं और देश को तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था यह उद्योगपतियों ने ही बनाई है.. देश के निर्माण के कर्णधार हैं..

क्या श्रीकृष्ण के पिता नंदलाल वैश्य जो 9 लाख गायों के स्वामी बताए गए हैं वो दरिद्र थे? या भगवती सीता के पिता जिन्हे विदेह कहा जाता है? जिनके पास ऋषि भी ब्रह्मज्ञान लेने आते थे वे दरिद्र थे? अगर दरिद्र थे तो रामायणों में वर्णित लाखों हाथी और अरबों का सोना उन्होंने श्रीराम को दहेज में कैसे दिया? युधिष्ठिर जो स्वयं धर्मराज के ही अवतार थे उनके खजाने के बारे में महाभारत में पढ़ेंगे तो आंखें चौंधिया जायेंगी... 🙏🏻

अखंड भारत की कल्पना को साकार करने वाले आचार्य चाणक्य ने अपनी नीति सूत्र के पहले ही अध्याय में कहा है -
#धनिकःश्रोत्रियोराजानदवैिद्यस्तुपंचमः ॥
पंचयत्रनविद्यतेन तत्रदिवसंवसेत् ॥
अर्थात - धनिक, वेदकाज्ञाता-ब्राह्मण, राजा, नदी, और पांचवां वैद्य ये पांच जहां विद्यमान नर नहीं हैं तहां एकदिनभी वास नहीं करना चाहिये ॥ ❤️
चाणक्य नीति 1.9

लक्ष्मी नारायण की पूजा हमारी संस्कृति है.. दरिद्र नारायण तो गांधी का कॉन्सेप्ट था... ❤️🙏🏻

साभार : प्रखर अग्रवाल 

Saturday, July 13, 2024

AMIT SHAH - INDIAN HOME MINISTER

AMIT SHAH - INDIAN HOME MINISTER


मोदी सरकार 3.0 में फिर शामिल हुए अमित शाह, दूसरी बार बने केंद्रीय गृह मंत्री

अमित शाह को दूसरी बार मोदी सरकार में गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी मिली है. पिछली सरकार में उनके पास गृह और सहकारिता मंत्रालय की जिम्मेदारी निभाई थी. शाह के गृहमंत्री रहते हुए ही जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाई गई थी और सीएए कानून लागू किया गया था.

मोदी सरकार 3.0 में अमित शाह को फिर से गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई है. इससे पहले वह मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में गृह और सहकारिता मंत्री की जिम्मेदारी निभा चुके हैं. अमित शाह के अलावा राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, शिवराज सिंह चौहान, पीयूष गोयल, मनोहर लाल खट्टर ने भी कैबिनेट मंत्री पद की शपथ ली है. बीजेपी की 2019 में जब 303 सीटें आईं तो अमित शाह सरकार में शामिल हो गए थे और उन्होंने गृह मंत्रालय अपने पास रखा था. उन्हीं के गृह मंत्री रहते जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को निरस्त कर दिया गया था और जम्मू-कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया था.

इसके अलावा जब अमित शाह नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजनशिप (NRC) लेकर आए तो देशभर में विरोध प्रदर्शन हुए थे. हालांकि अब देश में CAA लागू किया जा चुका है और इस कानून के जरिए कई लोगों को भारत की नागरिकता भी दी जा चुकी है. मोदी सरकार 2.0 में अमित शाह के इन दो बड़े फैसलों को हमेशा याद रखा जाएगा. अपने फैसलों की वजह से अमित शाह को बेहद कड़ा गृह मंत्री माना जाता है.

2013 में अमित शाह बने थे यूपी प्रभारी

जब 2013 नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी का प्रधानमंत्री कैंडिडेट घोषित किया गया था तो उस समय उनकी नजर यूपी पर थी क्योंकि यहां सबसे ज्यादा लोकसभा की 80 सीटें थीं. इसीलिए अमित शाह यूपी के प्रभारी बने थे और बीजेपी ने यूपी में बहुत शानदार प्रदर्शन करते हुए 71 सीटें जीती थीं, जबकि दो सीटों पर उसकी सहयोगी अपना दल (एस) ने जीत हासिल की थी. यूपी की बदौलत बीजेपी ने केंद्र में 282 सीटों पर जीत हासिल की थी. हालांकि मोदी के पहले कार्यकाल में अमित शाह सरकार में शामिल नहीं हुए थे और उन्होंने पार्टी की जिम्मेदारी संभाली थी. इस सरकार में राजनाथ सिंह गृहमंत्री और वित्त मंत्री अरुण जेटली बने थे.

गुजरात के गृहमंत्री थे अमित शाह

जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, उस समय अमित शाह गृहमंत्री थे. उन्होंने सरखेज विधानसभा से पहली बार उपचुनाव लड़ा था और इसमें करीब 25 हजार वोटों से जीत हासिल की थी. उसके बाद नारणपुरा से वह साल 2012 तक लगातार जीतकर आते रहे. शाह उस समय चर्चा में आए, जब गैंगस्टर सोहराबुद्दीन, उसकी बीबी कौसर बी और सहयोगी तुलसी प्रजापति का एनकाउंटर हुआ. इस मामले में सीबीआई ने अमित शाह को गिरफ्तार भी कर लिया था. हालांकि बाद में इस मामले में सभी आरोपियों को कोर्ट ने बरी कर दिया था.

7 लाख से ज्यादा वोटों से जीते अमित शाह

इस बार के चुनाव की बात करें तो अमित शाह ने गांधीनगर सीट से कांग्रेस प्रत्याशी सोनल रमनभाई पटेल को करीब साढ़े सात लाख वोटों से हराया है. जहां अमित शाह को 10 लाख 10 हजार 972 वोट मिले. वहीं कांग्रेस प्रत्याशी सोनल को दो लाख 66 हजार 256 लोगों ने ही वोट दिया. पिछले चुनाव में अमित शाह ने कांग्रेस के चतुरसिंह चावड़ा को करीब साढ़े पांच लाख वोटों से हराया था. अमित शाह को आठ लाख 94 हजार वोट मिले थे, वहीं कांग्रेस प्रत्याशी को तीन लाख 37 हजार वोट हासिल हुए थे.

THE GREAT VAISHYA - PM NARENDRA MODI - वैश्य शिरोमणि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी


THE GREAT VAISHYA - PM NARENDRA MODI - वैश्य शिरोमणि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी 







OM BIRLA - LOKSABHA CHAIRMEN

 OM BIRLA - LOKSABHA CHAIRMEN





SHRIPAD NAIK - CENTRAL MINISTER

SHRIPAD NAIK - CENTRAL MINISTER