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Monday, October 7, 2024

Ramgarh Shekhawati: रामगढ़ शेखावटी को कहते हैं ओपन आर्ट गैलरी

Ramgarh Shekhawati: रामगढ़ शेखावटी को कहते हैं ओपन आर्ट गैलरी, मारवाड़ और शेखावाटी के बनियों की हवेलिया 

200 साल से वीरान होने के बाद भी कम नहीं हुआ आकर्षण


भारत के शहरों को किसी न किसी राजा-महाराजा ने बसाया था। मगर राजस्थान के सीकर जिले का एक छोटा-सा शहर है रामगढ़ शेखावाटी जिसे किसी राजा ने नहीं मारवाड़ी व्यापारियों ने बसाया। उन्होंने यहां बड़ी-बड़ी हवेलियां बनवाईं थीं। 19वीं शताब्दी तक यह जगह भारत के सबसे अमीर शहरों में शुमार होती थी। यहीं से सबसे ज्यादा व्यापार होता था। मगर आज वो हवेलियां सुनसान पड़ी हैं।

कई हवेलियों के वारिस कई पीढ़ियों से यहां आए ही नहीं। देखरेख का अभाव, फिर भी सजीव है यहां की चित्रकारी।
यहीं से निकलकर देश-दुनिया में बसे हैं कई उद्योगपति।

स्थापत्य और कला यानी आर्ट और आर्किटेक्चर में भी रामगढ़ का कोई दूसरा शहर सानी नहीं था। मगर, आज यह जगह वीरान पड़ी करीब 125 बड़ी-बड़ी हवेलियों की वजह से अपनी पहचान रखती है। देश की धरोहर में आज हम बात करेंगे रामगढ़ शेखावटी की।

कहते हैं कि एक समय ऐसा था कि जब यहां एक से बढ़कर एक धनी व्यापारी परिवार रहा करते थे। वे अपनी धन-संपत्ति का प्रदर्शन करने के लिए न सिर्फ शानदार हवेलियां बनवाते थे, बल्कि उसके एक-एक कोने में चित्रकारी भी करवाते थे।

इसी वजह से इस शहर को दुनिया की सबसे बड़ी ओपन एयर आर्ट गैलरी के नाम से भी जाना जाता है। वजह है यहां बनी दर्जनों हवेलियों पर बने भित्ति चित्र। शानदार छतरियां और मारवाड़ी समुदाय की बनाई गई एक से बढ़कर एक हवेलियां लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती हैं।


जो एक बात रामगढ़ के बारे में कही जाती है, वह यह है कि एक समय में यहां इतने सेठ रहा करते थे कि इसे सेठों का रामगढ़ कहा जाता था। यह देश का सबसे संपन्न सबसे अमीर क्षेत्र हुआ करता था। - डॉ. रीमा हूजा, इतिहासकार

चुरू से जुड़ी है रामगढ़ के बनने की कहानी

ओटीटी प्लेटफॉर्म डिस्कवरी प्लस के शो एकांत में बताया गया है कि राजस्थान का चुरू एक समृद्ध शहर हुआ करता था। वहां ऊन का व्यापार करने वाले कई धनी पोद्दार परिवार रहा करते थे। उन्होंने इससे होने वाली कमाई से बड़ी-बड़ी हवेलियां बनवाई थीं और चित्रों से सजाई थीं। उस समय चुरू के ठाकुरों की स्थिति ठीक नहीं थी।
लिहाजा, उन्होंने ऊन से अच्छी कमाई करने वाले पोद्दारों पर टैक्स बहुत बढ़ा दिया। इस बात से नाखुश एक पोद्दार ने विद्रोह कर दिया। कहा कि वह चुरू से दूर कहीं नया शहर बसाएंगे। वहां बड़ी-बड़ी हवेलियां बनाएंगे और उसे चुरू से भी ज्यादा संपन्न बनाएंगे।

इसके बाद वे रामगढ़ पहुंचे। यहां उन्होंने सीकर के राजा देवी सिंह की मदद से 1791 में यह शहर बसाया। उन्होंने कई परिवारों को यहां बसने का न्योता दिया। इसके बाद पोद्दार परिवारों ने यहां व्यापार को बढ़ाया और बड़ी-बड़ी हवेलियां बनवाईं। इसके बाद इस बात को सच भी कर दिखाया।


दान-धर्म में पीछे नहीं थे सेठ

स्थानीय लोगों के अनुसार, यहां रहने वाले सेठ दान-धर्म में भी पीछे नहीं थे। कहते हैं कि सेठ होने के लिए चार चीजें होनी जरूरी थीं। स्कूल, धर्मशाला, गोशाला और मंदिर। इसी वजह से यहां के सेठों ने शहर में कई स्कूल, धर्मशालाएं और मंदिरों का निर्माण कराया।

यहां के स्कूल की इतनी ख्याति हुआ करती थी कि देश के कोने-कोने से पढ़ने के लिए छात्र आया करते थे। यहां फ्री में शिक्षा और खाना भी दिया जाता था। उन्हीं में से कई लोग बाद में बड़े पदों पर गए या शिक्षक बनकर ज्ञान का प्रकाश फैलाने लगे। इसी वजह से इस जगह को छोटी काशी के रूप में भी पहचान मिली, जो शिक्षा का अद्वितीय केंद्र रहा।

पुराना रामगढ़ 3 किमी के दायरे में बसा हुआ है। इस रामगढ़ के चारों ओर चार दरवाजे बने हुए हैं। बीकानेर जाने के लिए बीकानेरिया दरवाजा, इसके ठीक सामने दिल्ली जाने के लिए दिल्ली दरवाजा, बाईं तरफ फतेहपुर जाने के लिए फतेहपुरिया दरवाजा और उसके सामने चुरू जाने के लिए चुरू दरवाजा बना है।

हवेलियों की यह है खासियत

यहां निचली मंजिलों पर दुकान और गोदाम होते थे। ऊपर की मंजिलों पर सेठों का परिवार रहा करता था। हवेलियां इतनी बड़ी होती थीं कि उसमें 100 से ज्यादा परिवार रह सकते थे। रामगढ़ की सबसे बेहतरीन हवेली और छतरी है रामगोपाल पोद्दार की छतरी।

यहां की बाकी हवेलियों की तुलना में रामगोपाल पोद्दार की छतरी बेहतर हालत में है। एकांत के शो में स्थानीय निवासी आनंद ने बताया कि वह 1872 में यहां के अमीर और मशहूर व्यापारी हुआ करते थे। उनकी छतरी में 500 से ज्यादा पेंटिंग्स बनी हैं। इसमें रामायण, कृष्ण लीला और रागमाला के अलावा महाभारत के सीन के साथ ही भगवान शिव, गणेश जी, विष्णु अवतार अदि के चित्र भी बनाए गए हैं।


संपत्ति का प्रदर्शन करने की होड़ में बने चित्र

जानकार बताते हैं कि विभिन्न मारवाड़ी परिवारों के बीच भव्य हवेलियां और चित्रित इमारतें बनाकर अपनी संपत्ति का प्रदर्शन करने की होड़ थी। इसी के चलते इन जगहों पर इतनी सुंदर कलाकारी की गई है। इन्हें रंगने के लिए रंग जर्मनी से मंगाए जाते थे। 200 साल से ज्यादा का समय होने के बाद भी उनकी रंगत बरकरार है।
अब सूनसान पड़ी हैं हवेलियां

मगर, अफसोस की बात यह है कि अब इन हवेलियों में कोई रहने वाला नहीं है। ये सूनसान खाली पड़ी हैं। यहां बनी छतरियां देखरेख के अभाव में बदहाल हालत में हैं। दरअसल, इनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। ये निजी संपत्तियां हैं, जिसके चलते सरकार इनका रखरखाव नहीं करती है।

वहीं, इन हवेलियों के कई वारिसों को तो पता भी नहीं है कि रामगढ़ शेखावटी में उनकी कोई हवेली भी है। पीढ़ी दर पीढ़ी ये हवेलियां यूं ही खाली चली आ रही हैं। यहां रहने वाले लोग देश-दुनिया में व्यापार कर रहे हैं और तीन से चार पीढ़ियों से यहां लौटे ही नहीं हैं।

आनंद ने बताया कि एस्सार ग्रुप के शशि और रवि रुइया, डनलप टायर के ओनर पवन रुइया के अलावा सुरेखा ग्रुप, बीएम खेतान ग्रुप के मालिक भी रामगढ़ से हैं। आज ये सारे बिजनेसमैन दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और भारत के बाहर कई जगहों पर बस चुके हैं।


रामगढ़ शेखावाटी में घूमने की जगहें

रामगढ़ शेखावाटी में कई हवेलियां देखने लायक हैं, जिन्हें मारवाड़ी परिवारों ने बनवाया था। हालांकि, इनमें से कई अब भी सुनसान पड़ी हैं। कई हवेलियां तो ऐसी हैं, जिनकी तीन से चार पीढ़ियां तक यहां लौटकर वापस नहीं आई हैं। कई लोग तो ऐसे हैं, जिन्हें पता ही नहीं है कि उनकी हवेलियां भी यहां हैं।

इस शहर में आपको रुइया की हवेली, पोद्दार की हवेली, प्रहलादका की हवेली, संवलका की हवेली, खेतान की हवेली देखने को मिलेगी। यहां बनी खेमका की हवेली को अब टूरिस्ट होटल में बदल दिया गया है।

रामगढ़ शेखावाटी कैसे पहुंचें

रामगढ़ शेखावाटी शहर रेल और सड़क दोनों से जुड़ा हुआ है। चुरू-सीकर-जयपुर रेलवे लाइन इस शहर से होकर गुजरती है। यहां का सबसे करीबी हवाई अड्डा जयपुर में है, जो यहां से करीब 125 किमी दूर है।

डिस्क्लेमरः डिस्कवरी प्लस ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज हुए शो ‘एकांत’ और राजस्थान सरकार की पर्यटन वेबसाइट से जानकारी ली गई है।

sabhar - dainik jagran

Friday, October 4, 2024

मारवाड़ियों के बारे में वे बातें जो आप जानना चाहते थे और नहीं जानते थे कि किससे पूछें

मारवाड़ियों के बारे में वे बातें जो आप जानना चाहते थे और नहीं जानते थे कि किससे पूछें

मारवाड़ियों के बारे में वे बातें जो आप जानना चाहते थे और नहीं जानते थे कि किससे पूछें

ऐसी बातें जो आप मारवाड़ी लोगों के बारे में जानना चाहते थे और नहीं जानते थे कि किससे पूछें

ऐसा कहा जाता है कि राजस्थान में मारवाड़ी जैसे कोई लोग नहीं हैं; प्रवासी व्यापारिक समुदाय - राजस्थानी वैश्यों का एक समूह - मारवाड़ी तभी बनता है जब वे चले जाते हैं। 'मारवाड़ी' हिंदुओं और जैन दोनों को वर्गीकृत करने के लिए एक छत्र शब्द है। मारवाड़ी पूर्वी राजस्थान से उत्पन्न हुए और इस शब्द का इस्तेमाल 1901 की जनगणना में नृवंशविज्ञान वर्गीकरण के रूप में किया गया था। यह राजपुताना के एक व्यापारी का वर्णन करता है और इसमें अग्रवाल, माहेश्वरी, ओसवाल और सेरावगी जैसे प्राथमिक समूह शामिल हैं। बाद में इसमें खंडेलवाल और पोरवाल जैसी अन्य राजस्थानी व्यापारिक जातियां भी शामिल हो गईं। अधिकांश मारवाड़ी मारवाड़ जिले से नहीं आते हैं लेकिन मारवाड़ का सामान्य उपयोग पुराने मारवाड़ साम्राज्य का संदर्भ हो सकता है। ऐनी हार्डग्रोव के अध्ययन, समुदाय और सार्वजनिक संस्कृति, ने औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की बदलती प्रकृति, कृषि के व्यावसायीकरण, बदलती भूमि नीतियों और नियमित कर के भुगतान द्वारा सुगमतापूर्वक एक व्यापारिक वर्ग के रूप में उनके उदय को श्रेय दिया। एक जाति समूह के रूप में मारवाड़ी विवाह और रिश्तेदारी संबंधों के माध्यम से औपनिवेशिक भारत के एक बड़े हिस्से में ऋण और व्यापार नेटवर्क बनाने में सक्षम थे।

लेकिन राजस्थान से इस व्यापारिक समुदाय के प्रवास का इतिहास 17वीं शताब्दी के अंत तक जाता है और मारवाड़ी मुगलों के लिए बैंकर और वित्तपोषक के रूप में काम करते थे। 1757 में प्लासी की लड़ाई में सिराजुद्दौला पर ब्रिटिश जीत में अपनी भूमिका के लिए कुख्यात जगत सेठ का नाम वास्तव में एक मुगल उपाधि थी जिसका अर्थ था दुनिया का बैंकर।

'मारवाड़ी', जातीय लेबल व्यक्तिपरक है और अक्सर एक गाली के रूप में इस्तेमाल किया जाता है जो व्यापारियों को 'बाहरी', 'अन्य' के रूप में परिभाषित करता है जो आपको ठग रहे हैं, क्योंकि वे भाषा और स्थानीय पहचान के सामुदायिक संबंधों को साझा नहीं करते हैं। कई मारवाड़ी खुद इस शब्द को अपमानजनक मानते हैं और इसके बजाय, अपनी उपजाति से खुद को पहचानना पसंद करते हैं। मारवाड़ियों और उनकी आर्थिक गतिविधियों की आलोचनाएँ ऐतिहासिक रूप से दुनिया के अन्य हिस्सों में अल्पसंख्यक व्यापारिक समूहों द्वारा झेली गई आलोचनाओं से तुलनीय हैं।

हम सभी के पास मारवाड़ियों को 'जानने' का अपना अनुभव है। आवश्यक/रूढ़िवादी विशेषताएँ हैं वाणिज्य से उनका जुड़ाव, महानगर के सभी महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों पर रिश्तेदारों और चचेरे भाइयों का एक नेटवर्क, घर से 'निर्वासन' और घर पर नियमित रूप से आने-जाने के बावजूद स्थानीय भाषा के साथ-साथ अपनी मूल भाषा भी धाराप्रवाह बोलना। मारवाड़ी एकीकृत नहीं होते हैं और माना जाता है कि उन्होंने लंबे समय तक भारत के विभिन्न हिस्सों में रहने के बावजूद अपनी विशिष्टता और 'घर' से जुड़ाव बनाए रखा है। सुजीत सराफ हरिलाल एंड संस स्पीकिंग टाइगर, 2016

समीक्षाधीन पुस्तक, सुजीत सराफ द्वारा लिखित हरिलाल एंड संस, मारवाड़ियों द्वारा प्रवास शुरू करने के बाद से की गई महाकाव्य यात्रा की एक असाधारण कहानी है। हरिलाल, एक बारह वर्षीय लड़का, 1899 में छप्पनिया (विक्रम संवत/हिंदू कैलेंडर में 1956) के महान अकाल के बाद शेखावती राजस्थान छोड़ देता है, जैसा कि इसे कहा जाता है। हरिलाल कलकत्ता या कलकत्ता, जैसा कि वे इसे कहते हैं, एक ऐसे परिवार के सहायक के रूप में चला जाता है, जो उसी गांव से आता है और जिसने कलकत्ता में अपना भाग्य बनाया है। उपन्यास हरिलाल के जीवन का अनुसरण करता है क्योंकि वह एक प्रशिक्षु के रूप में व्यापार सीखता है, पहले कलकत्ता के बुर्राबाजार में, फिर आज के बांग्लादेश के बोगरा शहर में, और अंत में अपने जीवन के अंत में, हरिलाल खुद को स्वतंत्र भारत में राजस्थान के अपने गांव रामपुरा में पाता है। आधी सदी की अवधि में, हरिलाल दो पत्नियों से नौ बच्चों के पिता बन गए और उनका व्यवसाय, जिसका नाम हरिलाल एंड संस है, इतना सफल रहा कि उन्होंने अपने प्रत्येक बेटे के लिए कुछ न कुछ छोड़ दिया और रामपुरा में एक हवेली बनवाई।

हरिलाल के कलकत्ता प्रवास का उद्देश्य छप्पनिया के इर्द-गिर्द बना है, जिसके परिणामस्वरूप मारवाड़ियों का कलकत्ता में प्रवास की एक बड़ी लहर आई। अलका सरोगी ने अपने उपन्यास कलिकाथा: वाया बाईपास में 'छप्पन' के अकाल का जिक्र करते हुए लिखा है '...कलकत्ता का बुर्राबाजार इलाका सभी उम्र के प्रवासियों से भरा हुआ है...'।

सराफ भी अकाल को पूर्व की ओर पलायन से जोड़ते हैं, क्योंकि '...क्रूर शेखावटी, झाड़ियों और रेत और खेजड़ा के पत्तों की यह भूमि...हम प्रतिदिन इस बंगाल के बारे में सुनते हैं, जो पूर्व में एक हजार मील दूर है; हमें बताया जाता है कि यह हरा-भरा, समृद्ध और आम के बागों से भरा हुआ है;...शेखावटी में किसने कभी आम देखा है?'

घर की बंजर भूमि और बंगाल की समृद्धि के बीच का अंतर बहुत ही भावपूर्ण है और यह न केवल उपजाऊ भूमि और भरपूर बारिश को दर्शाता है, बल्कि आर्थिक अवसर को भी दर्शाता है। सरोगिस की पुस्तक में, पात्र कलकत्ता के बारे में एक मारवाड़ी कहावत को याद करता है, 'चावल चांदी की तरह, दाल सोने की तरह, क्या स्वर्ग इससे बेहतर हो सकता है?' पलायन के लिए प्रेरित करने वाले कारक के रूप में अकाल के साथ-साथ आकर्षण कारक भी था, जो कि पूर्व में आने वाले मारवाड़ियों की सफलता थी, जिनमें बिड़ला भी शामिल थे।

उपन्यास लगभग 72 वर्षों तक फैला हुआ है और इस अवधि में यह ब्रिटिश भारत में होने वाले परिवर्तनों को देखता है। हरिलाल एंड संस नायक के जीवन के व्यक्तिगत विवरण पर टिकी हुई है, लेकिन हम अपनी आजीविका की तलाश में औपनिवेशिक साम्राज्य के दूर-दराज के कोनों में की गई कई प्रवासी यात्राओं में बड़े मारवाड़ी अनुभव को समझ सकते हैं। एक प्रसिद्ध कहावत जो काफी हद तक बताती है, वह है, जहाँ न जाए रेलगाड़ी वहाँ जाए मारवाड़ी (मारवाड़ी वहाँ भी जाता है जहाँ रेल नहीं जा सकती) जो दक्षिण एशिया के विभिन्न हिस्सों में मारवाड़ी उपस्थिति से जुड़ी है। यदि हम 19वीं शताब्दी में इस व्यापारिक समुदाय की पूर्वोत्तर भारत, नेपाल, बर्मा और अन्य स्थानों की यात्राओं की कल्पना कर सकें, तो मारवाड़ी अनुभव मेजबान समाज के सभी पहलुओं पर एक आकर्षक अध्ययन बन जाएगा।

व्यवसायी होने के नाते, अर्थव्यवस्था के केंद्र में, और बाहरी लोगों के रूप में भी, उनके पास अपने संबंधित स्थानों में राजनीतिक और सामाजिक विकास और विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं के अनुभव को देखने के लिए एक उत्कृष्ट दृष्टिकोण होगा। जब हरिलाल को उनके गुरु द्वारा बोगरा जाने के लिए निर्देशित किया जाता है, जो उस समय पूर्वी बंगाल था, व्यापार करने के लिए, पहले तो स्थानीय समाज द्वारा भयभीत किया जाता है और समय के साथ अपनी नई दुनिया को समझना सीखता है। जब उसके खिलाफ़ अपशब्दों का इस्तेमाल किया जाता है तो वह घबराता नहीं है या सौदेबाजी करने में शर्मिंदा होता है या आम तौर पर अधिक अस्थिर परिवेश में अपना सिर नीचे रखता है। इस प्रकार का अनुभव मारवाड़ी अनुभव की सामूहिक चेतना का हिस्सा है और महत्वपूर्ण घटनाओं का एक आकर्षक रिंगसाइड दृश्य प्रस्तुत करता है।

यह पुस्तक इस बात में आश्चर्यजनक है कि यह कैसे मारवाड़ी दुनिया के अंतरंग पहलुओं को उजागर करती है, जैसे कि सट्टेबाजी और वायदा कारोबार के साथ उनका जुड़ाव, शायद शेखावटी में बारिश के इंतजार की असहायता से विकसित हुआ। कलकत्ता में अपने पहले कुछ दिनों में, हरिलाल को बुर्राबाजार में बारिश के इर्द-गिर्द सट्टेबाजी का पता चलता है और हमें खैवाल, लगायवाल जैसे शब्दों से परिचित कराया जाता है और साथ ही ब्रिटिश वाणिज्यिक दुनिया से भी परिचित कराया जाता है, जिसमें मारवाड़ियों को बरगद और गुमास्ता के रूप में नियुक्त किया जाता था, जो बिचौलिए थे जो इसे आधार प्रदान करते थे।

जैसा कि विवरण में बताया गया है, हरिलाल एंड संस एक विस्तृत कथा है, जो घटनाओं और स्थानों के संदर्भ में समृद्ध है, जिसे यह समीक्षा संभवतः न्याय नहीं दे सकती। हम हरिलाल एंड संस को सामाजिक इतिहास या नीचे से इतिहास के रूप में भी देख सकते हैं, जिसका ध्यान सामान्य लोगों के जीवन पर है न कि भव्य सिद्धांत या साम्राज्यों और उनकी नीतियों के इतिहास पर।

हरिलाल एंड संस को प्रकाशक ने काल्पनिक के रूप में वर्गीकृत किया है। हालाँकि, पुस्तक के अंत में, लेखक एक नोट में अपने दादा हीरालाल सराफ के बारे में लिखते हैं, जिनके जीवन के वर्ष हरिलाल (चरित्र) के जीवन के वर्षों से मिलते जुलते हैं। सराफ लिखते हैं कि उन्हें अपने दादा और परिवार की कहानी की कल्पना, पुनर्निर्माण और स्थिति बनानी थी। हरिलाल के जीवन की शानदार पुनर्रचना के लिए सराफ की प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जा सकता, जो एक विलक्षण और अनुशासित कथा भी है। हरिलाल एंड संस 500 से अधिक पृष्ठों की एक लंबी पुस्तक है, लेकिन यह एक पुरस्कृत अनुभव है और साहित्य की शक्ति का सुझाव देती है कि वह मानव जीवन की कठिनाइयों और क्लेशों को व्यक्त करे और हमें, पाठकों को सहानुभूति करने की अनुमति दे।

OBC BANIYA CASTE LIST - बनिया ओबीसी जातियों की राज्यवार सूची

OBC BANIYA CASTE LIST - बनिया ओबीसी जातियों की राज्यवार सूची

बनिया समुदाय अनेक उपजातियों/उपवर्गों में विभाजित है. इन सभी उप जातियों में आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और राजनीति में भागीदारी आदि पहलुओं पर भिन्नता देखी गई है. यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि बनिया किस कैटेगरी में आते हैं. तो आइए जानते हैं.
बनिया किस कैटेगरी में आते हैं

आरक्षण एक प्रकार की व्यवस्था है जिसके माध्यम से सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों के पिछड़ेपन को दूर करने तथा उन्हें आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक हर तरह से सशक्त बनाने के लिए आरक्षण देने का प्रावधान है.

आरक्षण का उद्देश्य केंद्र और राज्य में सरकारी नौकरियों, कल्याणकारी योजनाओं, चुनाव और शिक्षा के क्षेत्र में हर वर्ग की हिस्सेदारी सुनिश्चित करना है ताकि समाज के हर वर्ग को आगे बढ़ने का अवसर मिल सके. आरक्षण का वितरण किस तरह से हो यानी कि आरक्षण किसे मिले, इसके लिए पिछड़े वर्गों को तीन कैटेगरी अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) में बांटा गया. अब हम अपने मूल प्रश्न पर आते हैं कि आरक्षण व्यवस्था के अंतर्गत बनिया किस कैटेगरी में आते हैं. बनिया समुदाय की कई जातियों/उपजातियों को आरक्षण व्यवस्था के अंतर्गत अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के रूप में सूचीबद्ध किया गया है. बनिया ओबीसी जातियों की राज्यवार सूची नीचे दी गई है-

•बिहार

सूड़ी, हलवाई, रौनियार, पंसारी, मोदी, कसेरा, केसरवानी, ठठेरा, पटवा, सिंदूरिया-बनिया, महुरी-वैश्य, अवध-बनिया, अग्रहरी-वैश्य, कलवार, सोनार, सुनार, नागर वैश्य, लहेरी वैश्य, कानू, तेली और कलाल, आदि.

•चंडीगढ़

तेली, सोनी, सुनार और स्वर्णकार

•छत्तीसगढ़

कलार, कलाल, कसेरा, ठठारा, ठटेरा, कसार, कसेरा, तमेरा, तांबत्कर/ताम्रकार तामेड़, सोनार, स्वर्णकार, सोनी (स्वर्णकार), पटवा लखेड़ा/लखेर और कचेरा/कचेर

•दिल्ली

भारभुंजा/ भुर्जी, कानू, लखेरा, कलवार, तेली, तेली-मलिक, सुनार, कसेरा और तमेरा.

•गोवा

तेली

•गुजरात

घांची, तेली, मोध घांची, तेली-साहू, तेली-राठौड़ और कलाल.

•हरियाणा

भारभुंजा, लखेरा, कचेरा, सुनार, सोनी और तेली.

•हिमाचल प्रदेश

भारभुंजा

•झारखंड

कानू, लहेरी, सोनार, सुनार, तामरिया, सुड़ी, हलवाई, रौनियार, पंसारी, मोदी, कसेरा, केसरवानी, ठठेरा, पटवा, सिंदूरिया- बनिया, महुरी-वैश्य, अवध-बनिया/अद्रखी, अग्रहरी-वैश्य और कलवार.

•मध्य प्रदेश

सोनार, सुनार, स्वर्णकार, लखेड़ा/लखेर, कचेरा/कचेर ठठेरा, कसार/कसेरा, तमेरा तांबत्कर/ताम्रकार तामेर, कसेर, कलार, कलाल और तेली.

•महाराष्ट्र

कलाल, कलार, जैन और लखेरा.

•पंजाब

भारभुंजा, सोनी, सुनार स्वर्णकार और तेली.

•राजस्थान

घांची, ठठेरा, कंसारा, भरवा तेली, स्वर्णकार, सुनार और पटवा.

•उत्तर प्रदेश

तेली, तेली मलिक, तेली साहू, तेली राठौर, काचेर, लखेर, लखेरा, चुरिहार, हलवाई, पटवा, कलाल, कलवार, कसेरा, ठठेरा, ताम्रकर और उनाई साहू.

•उत्तराखंड

भारभुंजा/भुर्जी, कंदू, उनाई साहू, तेली, तेली साहू, तेली राठौर, सोनार, सुनार, पटवा, कचेर, लखेर, लखेरा, कसेरा, ठठेरा, ताम्रकार, कलाल, कलवार और कलाल.

•पश्चिम बंगाल

वैश्य कपाली, स्वर्णकार, तेली, लखेरा और लहेरा.

यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि संसद में गरीबों सवर्णों को 10 परसेंट आरक्षण देने वाला विधेयक पास हो जाने के बाद आरक्षण का लाभ केवल हिंदू सवर्णों को नहीं मिलेगा. बल्कि इसके दायरे में मुस्लिम, सिख और क्रिश्चियन समुदाय के लोग भी आएंगे. इसके तहत वैश्य/बनिया समुदाय की निम्नलिखित जातियों/ उपजातियों को भी आरक्षण का लाभ मिलेगा-

बर्णवाल, गहोई, रस्तोगी, वार्ष्णेय, पूर्वी उत्तरप्रदेश में साहू, केशरी, जायसवाल, अग्रवाल, बनिया, गुप्ता, खण्डेवाल, लोहाना, माहेश्वरी, पौद्दार, रस्तोगी, शाह, श्रीमाली, वशिष्ट, मारवाड़ी, ओसवाल, बनोर, भवसर, धाकड़ जायसवाल, खण्डेलवाल, माहेश्वरी, मारवाड़ी, मथेरा, मीवाड़ा, ओसवाल, परवार, कोरवल, बाफना, सरौगी, कोठारी, इत्यादि.

SHOURYA MAHESHWARI BHAWAN - AYODHYA

SHOURYA MAHESHWARI BHAWAN - AYODHYA


 

Tuesday, October 1, 2024

How Marwaris succeed in their life

How Marwaris succeed in their life

How Marwaris succeed in their life : – आज मैं आप सभी को इस लेख में बताऊंगा आप अपना बिजनेस शुरू करने के लिए बिना निवेश किए करोड़ों का बिजनेस कैसे शुरू कर सकते हैं। इस लेख में आप सभी को मैं एक कहावत के तरीके से समझा रहा हूं कहते हैं कि –
Marwari Business Secret Why Marwari Success

“जहां न पहुंचे घोड़ा गाड़ी, वहां पर पहुंचे रेलगाड़ी।
और जहां न पहुंचे रेलगाड़ी,वहां पर पहुंचे मारवाड़ी।।”

मारवाड़ी सब जगह पहुंच जाते हैं और धंधे में बहुत ही तेज होते हैं, जैसे कि राजस्थान में रहने वाला राजस्थानी, पंजाब में रहने वाला पंजाबी,गुजरात में रहने वाले को गुजराती, बिहार में रहने वाले को बिहारी ठीक उसी तरह से मारवाड़ में रहने वाला मारवाड़ी चाहे वह किसी भी जाति से हो बनिया हो, ब्राह्मण हो, ठाकुर हो या किसी भी जाति से हो मारवाड़ में रहने वाले को मारवाड़ी कहते है।

एक कहावत है कि “पूत के पांव पालने में दिख जाते है।” बहुत सारी ऐसी चीजें हैं जो हमें जन्मजात से मिल जाती है या हमारे ब्लड में होती हैं।


महत्वपूर्ण बिन्दू

Low Margin High Number of Customers (कम मार्जिन ग्राहकों की अधिक संख्या)

मारवाड़ी हमेशा यह सोचता है कि मैं इतना मार्जन लू जिसके कारण कस्टमर हमेशा मेरे साथ रहे और हमेशा निरंतर कस्टमर बढ़ता रहे मारवाड़ी का अपना पूरा Focus ज्यादा से ज्यादा ग्राहक तक अपना प्रोडक्ट अपने सर्विसेज को पहुंचाने पर होता है। एक कहावत है कि-
“मीठा बोलो दिल से तोलो और ले लो और ले लो”

मैं आप सभी को बता दूं कि दो शॉप की दुकान एक ही मोहल्ले में था उसमें एक मारवाड़ी था और एक दूसरे देश का व्यक्ति था दोनों के दुकान में एक ही जैसे प्रोडक्ट थे और दोनों का रेट भी सेम था लेकिन उसके बावजूद भी मारवाड़ी की दुकान पर ज्यादा भीड़ लगती थी और जो दूसरे देश के व्यक्ति थे उनके दुकान पर बिल्कुल भी भीड़ नहीं लगती थी।

तो इसको एक सर्वे किया गया है कि इसके पीछे क्या कारण है कि जो दूसरे देश का व्यक्ति था उसके पास अगर कोई व्यक्ति 1 किलो चावल लेने आता है तो वे व्यक्ति अपने बैग में बहुत सारे चावल रखकर तराजू पर रख देता है।

और 1 किलो चावल देने के लिए जो एक्स्ट्रा चावल होता है उसको और निकाल लेता है और निकाल लेता है ऐसे तीन चार बार निकलता है जिसकी वजह से ग्राहक को लगता है कि यह तो मेरे चावल में से निकलता जा रहा है।

लेकिन मारवाड़ी बहुत ही चलाक था वे पहले से ही 7 से 800 ग्राम चावल भर कर लाता है और तराजू पर रख देता है और वह अपनी लड़के से कहता है कि बेटा और डाल, और डाल ऐसो तीन चार बार करता है और ग्राहक को लगता है कि मुझे और ज्यादा चावल मिल रहा है।

इसी पर यह कहावत कहा गया है कि “मीठा बोलो दिल से तोलो और ले लो और ले लो”

और जब वे 1 किलो चावल उनको दे देता है और लास्ट में बोलता है कि एक मुठा और चावल ले लो इसी वजह से ग्राहक को लगता है कि वह बहुत ही ज्यादा एक्स्ट्रा दे रहा है।

इसी वजह से मारवाड़ी की दुकान पर बहुत ही ज्यादा भीड़ लगी रहती हैं जिसके कारण आप भी इस गुड को अपना सकते हैं।

तीसरा गुड होता है कि जो मारवाड़ी के अंदर कुटकुट करके भरा होता है वह होता है। “नौ नगद न तेरा उधार” मतलब की चीज महंगी बिक सकती है लेकिन उधार नहीं बिक सकती है लेकिन वह कहता है कि भैया नौ नगद दे दे, मुझे 13 में नहीं बेचनी नौ नगद दे दे नगद गनने का जो व्यापार है उसमें कभी घाटा नहीं होगा।

9 में देगा तो प्रॉफिट मार्जिन कभी नहीं होगा उसके पास ग्राहक बार-बार आएगा और ग्राहक जब बार-बार आएगा तब वह ग्राहक लंबे समय तक आपको प्रॉफिट बार-बार देता रहेगा एक बार आपने जब उधार दे दिया वह भाग गया तो आपका नुकसान हो जाएगा ।

इसलिए उसके दुकान पर आपने कई बार लिखा हुआ देखा होता है “नौ नगद न तेरा उधार” या “आज नगद कल उधार परसों फ्री मेरे यार” कई बार तो यह मीठा बोलने में बहुत ही तेज होते हैं और वहां पर लिखा होता है ग्राहक तो राजा होता है और राजा कभी उधार नहीं मांगता।

मतलब की आपको उधार मांगने के लिए वह मना भी कर दिया और आपका सम्मान करके आपको राजा भी बना दिया यह सभी गौरव मारवाड़ी के अंदर होता है और इस गुड को आपको जरूर अपनाना चाहिए।

महत्वपूर्ण बाते-
मारवाड़ी युवा जानता है कि जब मैं लो मार्जन लूंगा तो मेरा ग्राहक लंबे समय तक मेरे साथ जुड़ा रहेगा मतलब कि वह लॉन्ग बिजनेस प्लैनिंग करता है और निरंतर जो व्यापार में वही ग्राहक आते हैं नए ग्राहक जुड़ते जाते हैं और पुराने जो ग्राहक हैं वह भी जुड़े रहते हैं।

जिसके कारण उनका ग्राहक बहुत ही ज्यादा बढ़ जाते हैं और उनका बिजनेस बहुत बड़ा होने की वजह से आजीवन बेहतरीन प्रॉफिट कमाते हैं और आपने कभी भी किसी समय लोगों के मुंह से एक बात और सुना होगा जो मारवाड़ी होता है न वह कंजूस और मक्खी चूस होता है।

लेकीन मारवाड़ी के अंदर ऐसा बिल्कुल नहीं है मारवाड़ी हमेशा जानते हैं कि उनको अपने पैसे का पूरा मूल्य कैसे लेना है और हमेशा खर्चे हुए पैसों से मिलने वाला लाभ भी पुरा लेना चाहते हैं।

Spend Money Wisely (सोच समझकर पैसा खर्च करें)

मारवाड़ी अपने पैसों को बहुत ही ज्यादा सोच समझकर ही खर्चा करता है कहीं भी ऐसी जगह खर्चा नहीं करता जहां पर उसको मिलने वाला रिटर्न खर्चे से कम हो जाए वह बराबर की टक्कर की वजह से वह देखता है कि किस में पैसा लगाने से फायदा होगा और किस में नुकसान होगा इसलिए मारवाड़ी को कई बार कंजूस मक्खीचूस कहा जाता है लेकिन मारवाड़ी ऐसा बिल्कुल नहीं होता है।

आप देखे होंगे कि मारवाड़ी शादी करते हैं आलीशान तरीके से या उनका घर बना होता है आलीशान तरीके से और खाते पीते हैं तो बढ़िया खाते हैं पहनते हैं तो बढ़िया पहनते हैं लेकिन वह कभी भी यैसा पैसा खर्चा नहीं करते जहां पर वे उनको लगता है यह तो ज्यादा खर्चा है।

Wide Network (वाइड नेटवर्क)

मारवाड़ी आपको विश्व के किसी भी देश में मिल जाएगा क्योंकि मारवाड़ी अपने नेटवर्क को इतना बड़ा किया है काम की खोज में वह एक राज्य से दूसरे राज्य एक शहर से दूसरे शहर और दूसरे शहर से पूरे विश्व का भ्रमण कर लेते हैं इसलिए मारवाड़ी गाने बहुत ही स्ट्रांग होता है। आप मारवाड़ी का नेटवर्क कहीं भी देख सकते हैं।
Trend Family For Business Growth (व्यापार विकास के लिए रुझान परिवार)

मारवाड़ी अपने बिजनेस ग्रोथ के लिए अपने फैमिली को अपने बच्चे को बचपन से ट्रेंड करते हैं अपने वाइफ को भी इंवॉल्व करते हैं वह अपने बच्चों को काम में बचपन से जरूर इंवॉल्व करते हैं और साथ ही साथ उनके एक्सपीरियंस को बढ़ाने के लिए जो भी उनका बिजनेस है उसमें दो चार साल कि नौकरी जरूर कराते हैं।

क्योंकि नौकरी करने से ग्राउंड रियलिटी का पता लगता है ग्राउंड रियलिटी का पता होने से वे व्यापार कभी मार नहीं खाते।

Staff Is Family (स्टाफ परिवार है)

व्यापार में हमेशा अपने स्टाफ मेंबर को अपने इंप्लाइज को अपने साथियों को अपने घर परिवार की तरह रखते हैं मारवाड़ी उनके हर सुख दुख के साथी होते हैं क्योंकि वह मानते हैं कि जीवन का बहुत बड़ा समय अपने व्यापार में निकलता है अपने स्टाफ के साथ निकलता है इसलिए आप खुद भी खुश रहिए और उनको भी खुश रखिए।

आप खुद भी खुश रहेंगे तो आगे बढ़ेंगे और मिलकर खुश रहेंगे तो भी आगे बढ़ेंगे ऐसी सिचुएशन में मारवाड़ी अपने स्टाफ मेंबर को फैमिली की तरह समझते हैं और मिलकर एक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए लगातार प्रयास करते हैं।

मारवाड़ी को Active Income और Passive Income दोनों तरह के इनकम पर काम करते हुए देखा जा सकता है Active Income मतलब कि बिजनेस कर रहा है। Passive income का मतलब होता है कहीं भी पैसा इन्वेस्ट कर रहा है उससे भी इनकम आनी चाहिए।

बिजनेस से जो पैसा कम आएगा उसको इन्वेस्ट करेगा उस इन्वेस्टमेंट से भी इनकम Resive होगी चाहे वो इंटरेस्ट के रूप में हुई चाहे वह प्रॉपर्टी खरीद बेच होने वाली Profit के रूप में हो जब तक वह बिक नहीं रही अब तक उसको रेंट पर उठाकर उसको रेंट के रूप में काम आता है।

मतलब कि हर वह मौका जहां से पैसा कमाया जा सकता है मारवाड़ी हमेशा पैसा कमाने का प्रयास करते हैं।


Negotiation Skills (बातचीत का कौशल)

एक मारवाड़ी किसी भी सामान को खरीदते समय मोल भाव ना करे ऐसा कभी हो ही नहीं सकता है मारवाड़ी हर चीज में मोलभाव हमेशा करता है आप ध्यान में रखें कि जो मोलभाव करता है उसको वह चीज उसकी Actual Cost से वह सामान कम में भी मिल जाता है।

आपको भी मोलभाव करने की स्ट्रेटजी आनी चाहिए आप सामने वाले व्यक्ति को देखकर समझ जाइए कि वह कितना और घटा सकता है इसके मामले में मारवाड़ी बहुत ही तेज होते हैं वह चेहरा देखकर समझ लेता है कि अभी तो और इसमें घटेगा, अभी तो और इसमें घटेगा और घटा के बिल्कुल वह लास्ट कास्ट पर लाता है।

तब वह किसी भी सामान को खरीदता है जिससे उसको मिलने वाला प्रोजेक्ट उसके लाइफ में हमेशा उसको आगे बढ़ाता है।
Business Partnership (व्यापारिक साझेदारी)

मारवाड़ी अगर अपने काम में पैसा कमा रहा है लेकिन उसके बावजूद दूसरे व्यक्ति के काम में उसको इंटरेस्ट आता है तो वहां पर वह मारवाड़ी बिजनेस पार्टनरशिप करने के लिए तैयार हो जाता हैं।

हर तरीके से चाहे वह पैसा लगा के यहां लेबर लगा के चाहे वह अपने लगाकर और चाहे अपना समय खर्चा करके हर तरह से मारवाड़ी पैसा कमाने के लिए पार्टनरशिप के लिए तैयार हो जाता हैं।

मारवाड़ी कहते हैं कि मेरी कई शोरूम गुजरात में है कई शोरूम मारवाड़ महल मे तो वहां मैंने देखा कि यह लोग एक दूसरे के साथ कैसे पार्टनरशिप करते हैं किसी को Working Partner बना लेते है किसी को Capital Partner बना लेते है, किसी को Management partners बना लेते है।

किसी को Security Partner बना लेते हैं। मारवाड़ी के जैसे भी जो आदमी पार्टनरशिप बन सकता है उससे मिलकर उसके साथ में काम करते हैं।

आज के समय में बिजनेस के बहुत सारे एग्जांपल बन चूका हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि मारवाड़ी community ने बिजनेस में भी अपना परचम लहराया है अर्थात अपना झंडा गाड़ दिया है और वह बिजनेस के तरीके कौन-कौन से हैं वह है Business Reliance, Flipkart, Mantra, Snapdeal, OYO, OLA, Zomato .
अब मै आपको बताऊंगा मारवाड़ीयो का वह गुड़ जो करोड़ों का बिजनेस बिना इन्वेस्टमेंट के करने के लिए तैयार हो जाता है। मारवाड़ी कहता है कि Investment तो मेरे पास है।

मुझे तो वो लग जाएगी जिसके अंदर योग्यता है जिसके अंदर वह काबिलियत है। अगर आप सभी को आज का यह हमारा लेख How Marwaris succeed in their life पसंद आया हो तो आप सभी अपने दोस्तों के साथ जरूर शेयर कीजिए।

चतुर बनिया…..

चतुर बनिया…..

अकबर और बीरबल के बीच विवाद खड़ा हुआ…….अकबर का कहना था कि मुल्ला ही सबसे चतुर है…. जबकि बीरबल का कहना था कि मारवाड़ी को चतुराई में कोई मात नहीं कर सकता…….. अकबर ने कहा साबित करो….
बीरबल ने मुल्ला नसरुद्दीन को बुलाया और कहा कि बादशाह को आपकी दाढ़ी-मूंछ चाहिए……. बदले में जो भी कीमत मांगो… चुका देंगे…. आगे कहा गया कि यदि उसने दाढ़ी-मूंछ कटवाने से इनकार किया तो उसकी गर्दन उड़ा दी जाएगी…..
मुल्ला ने पहले तो बड़ी दलीलें दीं और गिड़गिड़ाए कि दाढ़ी-मूंछ न काटी जाए, महाराज…. मैं मुल्ला हूं, धर्मगुरु हूं, दाढ़ी-मूंछ कट गई तो मेरे धंधे को बड़ा नुकसान पहुंचेगा…… दाढ़ी-मूंछ कट गई तो कौन मुझे मुल्ला समझेगा….?
इस पर ही तो मेरा सारा कारोबार ही टिका है…….
बीरबल ने कहा कि फिर गर्दन कटवाने के लिए तैयार हो जा…….
मुल्ला ने भी सोचा कि दाढ़ी-मूंछ की बजाय गर्दन कटवाना तो महंगा सौदा है…. इससे तो दाढ़ी-मूंछ ही कटवा लो, फिर उग आएगी….. दो-चार महीने कहीं छिप जाएंगे हिमालय की गुफा में…. घबड़ाहट के मारे उसने कोई कीमत भी मांगना उचित नहीं समझा, कि जान बची लाखों पाए…… जल्दी से उसने दाढ़ी कटवाई और भाग गया जंगल की तरफ….
बीरबल ने फिर धन्नालाल मारवाड़ी को बुलवाया…… दाढ़ी-मूंछ कटवाने की बात सुन कर पहले तो वह कांप उठा, परंतु फिर सम्हल कर उसने कहा: हुजूर, हम मारवाड़ी नमकहराम नहीं होते….. आपके लिए दाढ़ी-मूंछ तो क्या, गर्दन कटवा सकते हैं…..
बीरबल ने पूछा: क्या कीमत लोगे…? मारवाड़ी ने कहा: एक लाख अशर्फियां….
सुनते ही अकबर तो गुस्से से उबल पड़ा…. एक दाढ़ी-मूंछ की इतनी कीमत…? मारवाड़ी ने कहा: हुजूर, पिता की मृत्यु पर पिंडदान और सारे गांव को भोज करवाना पड़ता है… मूंछ-दाढ़ी के इन बालों की खातिर…. मां के मरने पर बड़ा दान-पुण्य करना पड़ा…. मूंछ-दाढ़ी की खातिर…. दाढ़ी की इज्जत के लिए क्या नहीं किया…. हुजूर, शादी करनी पड़ी….. नहीं तो लोग कहते थे कि क्या नामर्द हो….? आज बच्चों की कतार लगी है, उनका खाना-पीना, भोजन-खर्चा, हर तरह का उपद्रव सह रहा हूं…. मूंछ-दाढ़ी की खातिर…… फिर बच्चों की शादी, पोते-पोती, इन पर खर्च करना पड़ा….. मूंछ-दाढ़ी की खातिर….. और अभी पत्नी की जिद्द के कारण हमारी शादी की पचासवीं सालगिरह पर खर्च हुआ….. मूंछ-दाढ़ी की खातिर….
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अकबर कुछ ना कह पाया और कीमत चुका दी…. अगले दिन अकबर ने नाई को मारवाड़ी के घर दाढ़ी-मूंछ कटवाने के लिए भेजा, तो मारवाड़ी ने उसे भगा दिया और कहा: खबरदार अगर बादशाह सलामत की दाढ़ी को हाथ लगाया….. नाई ने अकबर से शिकायत की तो अकबर का गुस्सा आसमान छूने लगा…. तुरंत मारवाड़ी को बुलाया गया…. बीरबल ने पूछा कि जब दाढ़ी बिक चुकी है तो अब उसे कटवाने क्यों नहीं देता…… मारवाड़ी ने कहा: हुजूर, अब यह दाढ़ी-मूंछ मेरी कहां है…… यह तो बादशाह सलामत की धरोहर है….. इसको अब कोई नाई छूने की मजाल नहीं कर सकता……. किसी की क्या मजाल, गर्दन उड़ा दूंगा….. यह मेरी नहीं, बादशाह की इज्जत का सवाल है…… इसे मुंड़वाना तो खुद बादशाह की दाढ़ी-मूंछ मुंडवाने के बराबर होगा….. यह मैं जीते-जी नहीं होने दूंगा……. आप चाहे मेरी गर्दन कटवा दें, पर इस कीमती धरोहर की रक्षा करना अब मेरा और मेरे परिवार का फर्ज है…….
अकबर हैरान…. और बीरबल मुस्कुराता रहा….. महीने भर बाद अकबर के नाम मारवाड़ी का पत्र आया, जिसमें उसने दरखास्त की थी कि दाढ़ी-मूंछ की रक्षा करने तथा इसकी साफ-सफाई रखने पर महीने में सौ अशर्फियां मिलती रहें…….

लष्मीकांत वर्शनय

Marwari Pre Wedding Rituals

 Marwari Pre Wedding Rituals 

मारवाड़ी शादी से पहले होती हैं कई रस्में, इन प्री-वेडिंग रस्मों के बारे में जानें

मारवाड़ी शादी में पीठी दस्तूर, गणपति स्थापना और महफिल जैसी रस्में होती हैं.
संस्कृति, परंपरा और रीति-रिवाजों के कारण खास होती है मारवाड़ी शादियां.

मारवाड़ी संस्कृति पारंपरिक रीति-रिवाजों को लेकर काफी मशहूर कही जाती है. मारवाड़ी शादियों में कई रोचक परंपराएं और रीति-रिवाज देखने को मिलते हैं. मारवाड़ी शादी के रीति-रिवाज कई दिनों तक चलते हैं. शादी के पहले और बाद भी कई नियम होते हैं. सगाई से शुरू होकर पीठी दस्तूर, गृह शांति और माहिरा जैसी कई रस्में मारवाड़ी विवाह में वर और वधू पक्ष के घर में शादी के पहले होती है.

मारवाड़ी शादियां काफी भव्य तरीके से संपन्न होती है जो पहली नजर में किसी उत्सव की तरह लगती है. अपनी भव्यता और खास रीति-रिवाजों के कारण मारवाड़ी शादियां आकर्षण का केंद्र मानी जाती है. आचार्य गुरमीत सिंह जी से जानते हैं मारवाड़ी विवाह में शादी के पहले होने वाली प्री-वेडिंग रस्मों के बारे में.
मारवाड़ी शादी की प्री-वेडिंग रस्में

सगाई:सगाई या इंगेजमेंट वैसे तो हर धर्म और जाति में होती है लेकिन मारवाड़ी शादियों में सगाई की रस्म अलग तरीके से संपन्न होती है. यह समारोह दूल्हे के घर पर होता है. इसमें वधू के घर से पुरुष सदस्य वर के घर पर आते है. वधू का भाई वर के माथे पर ‘तिलक’ करता है और उसे तलवार, कपड़े और मिठाई आदि भेंट दी जाती है. इस रस्म में आमतौर पर महिलाएं भाग नहीं लेती.

गणपति स्थापना: शादी की तिथि तय हो जाने पर विवाह से कुछ दिन पूर्व घर पर ‘गणपति स्थापना’ की जाती है. इसके बाद से विवाह से संबंधित सभी शुभ कार्य शुरू किए जाते हैं. कहा जाता है कि गणपति स्थापना के बाद विवाह में बाधा की आशंकाएं दूर होती है.

पीठी दस्तूर: सगाई समारोह और गणपति स्थापना के बाद पीठी दस्तूर की रस्म होती है. इसे आप हल्दी की रस्म भी कह सकते हैं. इसमें वर और वधू दोनों शामिल होते हैं. इस समारोह में वर और वधू को पीढ़े यानी किसी लकड़ी की पीठ पर बैठाकर हल्दी और चंदन से बना पेस्ट लगाया जाता है. इस रस्म के बाद वर और वधू घर से बाहर नहीं निकलते हैं. इस रस्म को ही पीठी कहा जाता है.

Monday, September 30, 2024

"सनातन मारवाड़ियों का इतिहास"

"सनातन मारवाड़ियों का इतिहास"

मारवाड़ी भारत में राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र के लोग हैं। हालाँकि मारवाड़ी शैली की उत्पत्ति एक स्थान के नाम से हुई है, लेकिन मारवाड़ी लोग भारत के कई क्षेत्रों और यहाँ तक कि पड़ोसी देशों में भी फैल गए हैं, क्योंकि उन्होंने अपने व्यापार और व्यापार नेटवर्क का विस्तार किया है। कई स्थानों पर, समय के साथ मारवाड़ी आप्रवासियों (और, आमतौर पर कई पीढ़ियों को शामिल करते हुए) ने क्षेत्रीय संस्कृतियों के साथ घुलमिल गए हैं।
मारवाड़ क्षेत्र में राजस्थान के मध्य और पश्चिमी भाग शामिल हैं। माना जाता है कि मारवाड़ शब्द संस्कृत शब्द मरुवत से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'रेगिस्तान'। हवेलियों पर भित्तिचित्रों का विकास मारवाड़ियों के इतिहास से जुड़ा हुआ है।

विषय सूची:

1 समुदाय

2 "राजस्थानी" और "मारवाड़ी"

3 धर्म और जाति

4 भाषा

5 प्रवासी

6 जनसांख्यिकी

7 आधुनिकता पर बातचीत

8 इतिहास

9 मारवाड़ी समुदाय में महिलाएँ

10 प्रसिद्ध और प्रभावशाली मारवाड़ी

11 मारवाड़ी घर

12 20वीं सदी की शुरुआत साहित्य और संदर्भ

समुदाय

मारवाड़ राजस्थान का सबसे बड़ा क्षेत्र है, जो मध्य और पश्चिमी क्षेत्रों में स्थित है। मारवाड़ क्षेत्र के निवासियों को, जाति के बावजूद, मारवाड़ी कहा जाता है। 'मारवाड़ी' शब्द का भौगोलिक अर्थ है। तो एक मारवाड़ी बनिया और एक मारवाड़ी राजपूत आदि हो सकते हैं। मारवाड़ी वैश्य/बनिया/व्यापारी जाति के कई लोग व्यापार के लिए दूर राज्यों में गए और सफल और प्रसिद्ध हुए। इसलिए, छोटी भाषा बोलने की मानवीय प्रवृत्ति के कारण, मारवाड़ के व्यवसायी को संदर्भित करने के लिए भारत के अन्य राज्यों में "मारवाड़ी" शब्द प्रचलित हो गया। यह प्रयोग गलत है। राजस्थान से अन्य जातियाँ इतनी अधिक संख्या में पलायन नहीं करती थीं, इसलिए अन्य राज्यों में उनके बारे में जागरूकता कम है।

मारवाड़ी वे लोग हैं जो मूल रूप से राजस्थान के थे, विशेष रूप से जोधपुर, पाली और नागौर के आसपास के क्षेत्र; और कुछ अन्य निकटवर्ती क्षेत्र।

मारवाड़ियों का थार और हिंदू धर्म की परंपरा और संस्कृति से गहरा संबंध है। वे मृदुभाषी, विनम्र और शांत स्वभाव के होते हैं। वे संयुक्त परिवार में एक साथ रहना पसंद करते हैं। उन्हें खाने में विभिन्न प्रकार के व्यंजन पसंद हैं। वे अधिकतर शाकाहारी होते हैं।

"राजस्थानी" और "मारवाड़ी"

राजस्थानी एक शब्द है जो स्वतंत्र भारत के एक राज्य राजस्थान के नाम से लिया गया है। राजस्थान के किसी भी निवासी को राजस्थानी (क्षेत्रीय दृष्टिकोण से) कहा जाता है, जबकि मारवाड़ी एक शब्द है जो मारवाड़ क्षेत्र (जो स्वतंत्रता के बाद राजस्थान राज्य का हिस्सा बन गया) के नाम से लिया गया है। इसलिए, मारवाड़ क्षेत्र के निवासी मूल रूप से मारवाड़ी हैं। इसलिए,सभी मारवाड़ी राजस्थानी हैं लेकिन सभी राजस्थानी मारवाड़ी नहीं हैं।
यद्यपि एक शैली के रूप में मारवाड़ी की उत्पत्ति एक स्थान के नाम से हुई है, हाल के समय में मारवाड़ी शब्द का प्रयोग अक्सर मारवाड़ क्षेत्र के व्यापारिक वर्ग के लिए किया जाता है।

धर्म और जाति

मारवाड़ी मुख्य रूप से हिंदू हैं, और बड़ी संख्या में जैन भी हैं। हालांकि, उनके संबद्धता की परवाह किए बिना, चाहे हिंदू या जैन, मारवाड़ी सामाजिक रूप से एक-दूसरे के साथ घुलमिल जाते हैं। कुछ मामलों में वे वैवाहिक संबंध और पारंपरिक अनुष्ठान एक साथ साझा करते हैं। लगभग एक सदी पहले मौजूद वर्जनाएं काफी हद तक गायब हो गई हैं, जबकि अभी भी गौरवशाली मारवाड़ी परंपरा को बरकरार रखा गया है।
वैश्य, या व्यापार और वाणिज्य, मारवाड़ियों के बीच सबसे प्रसिद्ध जाति है। मारवाड़ी बनिया अपने व्यापार और व्यवसाय कौशल के लिए प्रसिद्ध हैं। इनमें अग्रवाल, माहेश्वरी, ओसवाल, खंडेलवाल, (सरवागी आदि) पोरवाल, सीरवी शामिल हैं

भाषा


गहरा हरा रंग राजस्थान में मारवाड़ी भाषी गृह क्षेत्र को दर्शाता है, हल्का हरा रंग अतिरिक्त बोली क्षेत्रों को दर्शाता है जहाँ वक्ता अपनी भाषा को मारवाड़ी के रूप में पहचानते हैं। मारवाड़ी भी इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की इंडो-आर्यन शाखा के संस्कृत उपसमूह से संबंधित एक भाषा है। मारवाड़ी, या मारुभाषा, जैसा कि मारवाड़ी इसे कहते हैं, मारवाड़ी जातीयता की पारंपरिक, ऐतिहासिक, भाषा है। हालाँकि आज बहुत से मारवाड़ी मारवाड़ी नहीं बोल सकते हैं, और उन्होंने अन्य भारतीय भाषाओं, मुख्य रूप से हिंदी और अंग्रेजी को अपना लिया है, फिर भी कई लोग थोड़ी बहुत मारवाड़ी बोलते हैं। बड़ी संख्या में, विशेष रूप से राजस्थान में, अभी भी मारवाड़ी में धाराप्रवाह बातचीत करते हैं। भाषा की विभिन्न बोलियाँ पाई जाती हैं, जो बोलने वालों के मूल क्षेत्र, समुदाय आदि के साथ बदलती रहती हैं।

प्रवासी
मारवाड़ी बनिया भारत के कई क्षेत्रों और यहाँ तक कि पड़ोसी देशों में भी फैल गए, क्योंकि उन्होंने अपने व्यापार और व्यापार नेटवर्क का विस्तार किया। कई स्थानों पर, समय के साथ मारवाड़ी आप्रवासियों ने (और, आमतौर पर कई पीढ़ियों को शामिल करते हुए) क्षेत्रीय संस्कृति को अपनाया, या उसमें घुलमिल गए। उदाहरण के लिए, पंजाब में मारवाड़ियों ने पंजाबी और गुजरात में गुजराती आदि को अपनाया। कोलकाता के बड़ा बाजार इलाके में मारवाड़ी वैश्यों की एक बड़ी संख्या रहती है और वे वहां व्यापार में अग्रणी हैं। मुंबई में भी बड़ी संख्या में मारवाड़ी रहते हैं। मारवाड़ियों ने पड़ोसी नेपाल में, खासकर बीरगंज, विराटनगर और काठमांडू में व्यवसाय स्थापित किए हैं।

मारवाड़ी बनिया अपने व्यापारिक कौशल के साथ देश के कई अलग-अलग हिस्सों और दुनिया के अन्य देशों में प्रवास कर गए हैं। भारत के पूर्वी हिस्से में, वे कोलकाता, सिलीगुड़ी, असम, मेघालय, मणिपुर आदि में पाए जाते हैं, जहाँ मारवाड़ी प्रमुख व्यवसायियों में से हैं।

मारवाड़ी समुदाय के सामाजिक-आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्य और अंतःक्रियाएँ भूमध्य सागर और यूरोप के यहूदी व्यापारिक समुदायों से काफी मिलती-जुलती हैं।

मारवाड़ियों ने 17वीं सदी से लेकर 19वीं सदी के प्रारंभ तक अपने भारतीय वित्तीय और वाणिज्यिक नेटवर्क की पहुंच और प्रभाव को फारस और मध्य एशिया तक बढ़ाया।

जनसांख्यिकी
मारवाड़ी अब कई सामाजिक समूहों का गठन करते हैं जो पूरे भारत और पाकिस्तान और दुनिया भर में फैले हुए हैं, जिनमें कई दूरदराज के इलाके भी शामिल हैं। दुनिया भर में कुल जनसंख्या को मापना मुश्किल है और मारवाड़ी कौन है यह परिभाषित करने के लिए धर्मनिरपेक्ष, भाषाई, सांस्कृतिक और अन्य मापदंडों के अधीन है। हालाँकि उनकी संख्या के बारे में उपयोगी अनुमान उपलब्ध नहीं हैं, फिर भी कुछ क्षेत्रीय अनुमान लगाए गए हैं। उदाहरण के लिए, एक अनुमान बताता है कि उनकी संख्या "बंगाल में उनकी उपस्थिति के किसी भी चरण में 200,000 से ऊपर कभी नहीं पहुंची।"

आधुनिकता से समझौता
मारवाड़ी पारंपरिक रूप से बहुत पारंपरिक रहे हैं, आधुनिक शिक्षा के खिलाफ। वे व्यवसाय में व्यावहारिक ज्ञान को प्राथमिकता देते हैं। शहरी मारवाड़ी शिक्षा को महत्व देते हैं हालाँकि प्राथमिक ध्यान अभी भी वाणिज्य और वित्त पर केंद्रित है, मारवाड़ी उद्योग, संचालन, सामाजिक सेवाओं, राजनीति, कूटनीति, कठिन विज्ञान और कला में भी आगे बढ़ चुके हैं।

इस विविधीकरण और भारत के तेजी से हो रहे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के साथ, मारवाड़ी एक अनोखे तरीके से आधुनिकता से समझौता कर रहे हैं। एक ओर, इसने उन्हें विचारधाराओं की एक विस्तृत श्रृंखला के संपर्क में लाया है, जिससे उन्हें अपने पारंपरिक आधारों को नए सिरे से समझने और संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया है। दूसरी ओर, इसने सामाजिक तनावों की एक अंतर्निहित धारा पैदा की है, जो कि काफी हद तक पितृसत्तात्मक, सामंती और एकात्मक सामाजिक संरचना थी।

फिर भी, चाहे वे कट्टरपंथी प्रगतिशील हों या रूढ़िवादी परंपरावादी, मारवाड़ी बदलती परिस्थितियों के अनुकूल ढलने की अपनी क्षमता पर गर्व करते हैं। एक विशेषता जिसे वे अपने उद्यमों की सफलता और अपनी सामाजिक पहचान को बनाए रखने में सहायक मानते हैं, साथ ही जिस मेजबान संस्कृति में वे प्रवास करते हैं, उसे समायोजित करते हैं। यह मारवाड़ी में हर जगह दिखाई देता है। एक शिक्षित मारवाड़ी को या तो/या के लेबल का विरोध नहीं करना पड़ता है। वह अपनी मारवाड़ी पहचान को राज्य, देश या सांस्कृतिक जनसांख्यिकी के संदर्भ में स्पष्ट करने की अधिक संभावना रखते हैं, जिसमें वे पले-बढ़े या रह रहे हैं। पुष्टि करने के लिए, वे लेबल के बजाय समामेलन की पेशकश करने की अधिक संभावना रखते हैं।

यह मिश्रित पहचान आधुनिकता के प्रति मारवाड़ी प्रतिक्रिया को एक अद्वितीय वर्ग में रखती है। चूँकि मारवाड़ी को (मुख्य रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश राज के दिनों में ब्रिटिश सर्वेक्षणकर्ताओं द्वारा राजनीतिक रूप से पक्षपाती रिपोर्टिंग और पवित्र कथाओं के कारण) "बाहरी व्यक्ति" के रूप में माना जाता है, इसलिए उन्होंने मूल-जन्मे "अंदरूनी लोगों" के दृष्टिकोण से बातचीत करने और समझौता करने की क्षमता विकसित की है। मारवाड़ियों का प्रवास, अधिकांश प्रवासियों की तरह, आर्थिक बेहतरी के लिए था - क्योंकि वे मूल रूप से रेगिस्तानी क्षेत्र से आते हैं। हालाँकि, उनका जारी रहना सांस्कृतिक उन्नति की स्वयं की महसूस की गई आवश्यकता के कारण रहा है। मजे की बात यह है कि मारवाड़ी संस्कृति को एक ऐसी कलाकृति के रूप में नहीं देखते हैं जिसे बाहरी रूप से गढ़ा जा सके। बल्कि, यह एक ऐसी प्रक्रिया बन गई है जिसके द्वारा परिवार और समुदाय "बाहरी" और "अंदरूनी" दोनों स्थिति में रह सकते हैं।

इन प्रेरणाओं और परिस्थितियों के साथ, मारवाड़ियों ने समुदाय के भीतर एक बहस आधारित संस्कृति और दूसरों के साथ अपने व्यवहार में एक सेवा आधारित संस्कृति की व्यवस्था करना चुना है। व्यवसाय और वाणिज्य, अस्पताल, स्कूल, पशु आश्रय, धर्मार्थ संस्थान और धार्मिक पूजा के स्थान सेवा आधारित संस्कृति के अंतर्गत आते हैं।

जहाँ आधुनिकता के प्रति प्रारंभिक प्रतिक्रिया अस्तित्व की थी, वहीं आधुनिक मारवाड़ी की आधुनिकता के प्रति प्रतिक्रिया उन समुदायों में भागीदारी और सह-स्वामित्व की है जिनमें वे रहते हैं।

इतिहास

सबसे पहला दर्ज विवरण मुगल साम्राज्य के समय से शुरू होता है। मुगल काल (16वीं शताब्दी-19वीं शताब्दी) के समय से, विशेष रूप से अकबर (1542-1605) के समय से, मारवाड़ी उद्यमी मारवाड़ और राजस्थान और आसपास के क्षेत्रों की अपनी मातृभूमि से अविभाजित भारत के विभिन्न भागों में जा रहे हैं। मुगल काल के दौरान पहली लहर का प्रवास हुआ और कई मारवाड़ी बनिए भारत के पूर्वी भागों में चले गए, जिसमें वर्तमान में पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा और झारखंड के भारतीय राज्य और बांग्लादेश शामिल हैं मुर्शिदाबाद दरबार के वित्त को नियंत्रित करने वाले जगत सेठ ओसवाल थे, जो मारवाड़ियों के कई उप-समूहों में से एक था। गोपाल दास और बनारसी दास के व्यापारिक घराने, जो ओसवाल मारवाड़ी भी थे, ने बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक और बैंकिंग गतिविधियाँ कीं।

ब्रिटिश राज द्वारा स्थायी बंदोबस्त शुरू किए जाने के बाद, कई मारवाड़ी बनियों ने भारत के पूर्वी भाग, खासकर बंगाल में बड़ी-बड़ी जागीरें हासिल कीं। उनमें दुलालचंद सिंह (उर्फ दुलसिंग) शामिल थे, जो एक पोरवाल मारवाड़ी थे, जिन्होंने ढाका के आसपास कई ज़मींदारी हासिल की थीं, जो वर्तमान में बांग्लादेश की राजधानी है, साथ ही बाकरगंज, पटुआखली और कोमिला में भी, जो सभी स्थान वर्तमान में बांग्लादेश का हिस्सा हैं। इन ज़मींदारियों का प्रबंधन और सह-स्वामित्व ढाका के ख्वाजा के पास था। दुलालचंद सिंह परिवार भी जूट व्यापार को नियंत्रित करने वाले एक व्यवसायी के रूप में उभरा।

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857-58) के बाद, जब सामाजिक और राजनीतिक अशांति कम हो गई, तो मारवाड़ियों के बड़े पैमाने पर पलायन की एक और लहर चली और 19वीं शताब्दी की शेष अवधि के दौरान, कई छोटे और बड़े मारवाड़ी व्यापारिक घराने उभरे। मारवाड़ी समुदाय ने भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वी हिस्सों के एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र की सभी प्रमुख व्यावसायिक गतिविधियों को नियंत्रित किया। वर्तमान म्यांमार और बांग्लादेश में एक बड़ी उपस्थिति के साथ, उन्होंने वर्तमान में भारतीय राज्यों पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा और झारखंड में शामिल क्षेत्रों में प्रमुख व्यापारिक और वाणिज्यिक गतिविधियों को नियंत्रित किया। उनका स्वदेशी बैंकिंग, वित्त और हुंडी पर भी लगभग पूरा नियंत्रण था। वे हुंडी व्यवसाय को उन क्षेत्रों में ले गए जहाँ यह प्रणाली अज्ञात थी, जिसमें चटगाँव, खुलना, नौगाँव, मैमनसिंह और अराकान शामिल थे। उन्होंने इन क्षेत्रों में चेट्टियारों के साथ सफलतापूर्वक प्रतिस्पर्धा की जो लंबे समय से इस क्षेत्र में स्थित थे। मारवाड़ी समुदाय की महिलाएँ
मारवाड़ी अपने रूढ़िवादी स्वभाव के लिए जाने जाते हैं। हालाँकि, उनकी महिलाएँ आमतौर पर वहीं होती हैं जहाँ उनकी अधिकांश रूढ़िवादिता प्रदर्शित होती है। वे अपनी बेटियों की शादी जल्द से जल्द कर देते हैं। आमतौर पर, 18-21 साल की उम्र के बीच। शादी के बाद, लड़की अपने ससुराल वालों के प्रति पूरी तरह से जिम्मेदार होती है। महिलाएं आमतौर पर शिक्षित नहीं होती हैं और अगर होती भी हैं, तो वे शादी के बाद काम नहीं करती हैं। उन्हें बहुत सारे गहने और कपड़े देकर बहुत लाड़-प्यार किया जाता है। हालाँकि, उन्हें कोई स्वतंत्र व्यवहार करने या दिखाने की अनुमति नहीं है। बेटियों को व्यवसाय नहीं सिखाया जाता है और न ही पारिवारिक व्यवसाय के रहस्य बताए जाते हैं, ताकि वे शादी के बाद उन्हें उजागर न करें। बहू के रूप में, पारिवारिक व्यवसाय में उनका योगदान बुनियादी संगठनात्मक कार्यों तक ही सीमित होता है। आमतौर पर महिलाओं को कभी भी वित्तीय मदद नहीं दी जाती है।

प्रसिद्ध और प्रभावशाली मारवाड़ी
अग्रवाल परिवार अनु अग्रवाल, बॉलीवुड अभिनेत्री भगेरिया परिवार भारत भूषण, बॉलीवुड अभिनेता, ट्रेजडी किंग के रूप में प्रसिद्ध बिजॉय सिंह नाहर, संसद सदस्य बिमल जालान, अर्थशास्त्री और भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर भूतोरिया परिवार चंदनमल बैद, परोपकारी और हीरा व्यापारी द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, प्रसिद्ध कवि, उत्तर प्रदेश में पूर्व शिक्षा निदेशक डालमिया, अरबपति उद्योगपति दीप सिंह नाहर, फोटोग्राफर गनेरीवाला परिवार गौरव लीला, अरबपति उद्योगपति गौतम सिंघानिया अरबपति उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला, अरबपति उद्योगपति गोयनका परिवार अरबपति उद्योगपति हर्ष गोयनका, प्रसिद्ध आरपीजी समूह के। इंदर कुमार सराफ, बॉलीवुड अभिनेता जगमोहन डालमिया, अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद के पूर्व अध्यक्ष, क्रिकेट के लिए दुनिया की सर्वोच्च शासी संस्था जटिया परिवार झुनझुनवाला परिवार अरबपति उद्योगपति कैलाश सांखला कनोरिया परिवार खेमका परिवार केतन परिवार कुमार मंगलम बिड़ला, अरबपति उद्योगपति लक्ष्मी निवास मित्तल, आर्सेलर-मित्तल के अरबपति उद्योगपति लोढ़ा परिवार मखारिया परिवार मंडेलिया परिवार मनोज सोंथालिया मोडा परिवार नियोटिया परिवार नेवतिया परिवार पीरामल परिवार अरबपति उद्योगपति पोद्दार परिवार अरबपति उद्योगपति प्रखर बिड़ला, डिनिट सॉफ्टवेयर्स के सीईओ और संस्थापक अरबपति उद्योगपति पूरनमल लाहोटी, प्रथम राज्यसभा के सदस्य और स्वतंत्रता सेनानी राहुल बजाज अरबपति उद्योगपति राज दुगर, उद्यम पूंजीपति राजन वोरा, संसद सदस्य (एमपी), लोकसभा राजू कोठारी, सीईओ फोनकारो.कॉम, राम मनोहर लोहिया रमेश चंद्र लाहोटी, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रेव किरण सांखला रामकृष्ण डालमिया, आधुनिक भारत के अग्रणी उद्योगपति डालमिया, प्रसिद्ध शेफ, अरबपति उद्योगपति रुइया परिवार अरबपति उद्योगपति रूंगटा परिवार सहारिया परिवार सरला माहेश्वरी, पूर्व उपाध्यक्ष, राज्यसभा (भारतीय संसद का ऊपरी सदन) सेकशरिया परिवार शिवांग कागजी, फोर्ब्स के शीर्ष 50 अरबपति, द इकोनॉमिस्ट, एफटी और टाइम मैगज़ीन कवर पर आने वाले सबसे कम उम्र के उद्यमी सोहनलाल डुगर, परोपकारी, चांदी व्यापारी, सट्टेबाज सुभाष सेठी, सुभाष प्रोजेक्ट्स के सुनील मित्तल अरबपति उद्योगपति ताराचंद घनश्याम दास परिवार थिरानी परिवार, उद्योगपति, व्यापारिक घराने तरुण अग्रवाल, सबसे अमीर कपड़ा उद्योगपति वैद परिवार वेणुगोपाल एन धूत, अरबपति उद्योगपति

,कुछ प्रसिद्ध और प्रमुख मारवाड़ी व्यापारिक, वाणिज्यिक और औद्योगिक घराने इस प्रकार हैं: अग्रवाल, अग्रवाल, अग्रवाल, अग्रवाल, अजमेरा, बगला, बागड़ी, बागरिया, बागरेचा, बाहेती, बैद, बजाज, बाजला, बाजोरिया, बालोदिया, बम्ब, बांगड़, बंसल, बांठिया, बावलिया, भदोरिया, भगेरिया, भरतिया, भगत, भालोटिया, भंडारी, भांगड़िया, भरतिया, बेदमुथा, भट्टड़, भूत, भुटोरिया, भुवालका, बिंदल, बिड़ला, बियानी, बुचासिया, चमरिया, चांडक, चोरारिया, दवे डागा , धूत, डालमिया, डालमिया, देवपुरा, देवरा, धानुका, धोखरिया, डिडवानिया, डिंगलीवाल, दुदावेवाला, दुजारी, धूत, डुगर, गाडिया, गांध, गांधी, गनेरीवाल, गाड़ोदिया, गर्ग, गारोदिया, गोल, गोयनका, गोयल, गोयानाका, गुप्ता , ज्ञानका, हेडा, जयपुरिया, जाजोदिया, जाजू, रोड, जांगड़ा, झाझरिया, झंवर, झुनझुनवाला, झुंझुनूवाला, काबरा, कांकरिया, कनोडिया, कंसल, करवा, कौंटिया, केडिया, केजरीवाल, खेतान खंडेलवाल, खेमका, खेतान, कोठारी, कोठारी, कठोतिया, लाड्डा, लाहोटी, लाहोटी, लाखोटिया, लोहिया, लोयालका, मालू, मालानी, मालपानी, मालू, मंडेलिया, मस्कारा, मिस्त्री, मित्तल, मजारिया, मोदी, मूंदड़ा, मोडा, मोहनका, मोहट्टा, मोकाती, मौर, मुरारका, नेवतिया, ओसवाल, परसरामपुरिया, पटोदिया, पटवा, पोद्दार, प्रह्लादका, पूरणमलका, राजपुरोहित, राठी, राठी, राठौड़, रुईया, रूंगटा, रूपरामका, साबू, सहरिया, सांघी, सराफ, सरावगी, सरावगी, सारदा, सेकसरिया, सेखसरिया, सेठ, शाह, शर्मा, सिंघल, सिंघानिया, सिंघी, सिंघवी, सिसौदिया, सोधानी, सोमानी, सोंथालिया, सुहासरिया सुल्तानिया, सुराणा, सुरेका, टांटिया, तापरिया, तायल, टेकरीवाल थिरानी, ​​तोदी, तोशनीवाल, तोतला, त्रिवेदी, वैद, व्यास, बांगुर, भोलूसरिया, जोशी, सोंखिया का
सांखला।20वीं सदी के प्रारंभिक साहित्य और संदर्भ आरवी रसेल की 1916 में प्रकाशित "भारत के मध्य प्रांतों की जनजातियाँ और जातियाँ" में मारवाड़ी का वर्णन इस प्रकार किया गया है:

मारवाड़ का निवासी या राजपूताना का रेगिस्तानी इलाका; मारवाड़ का प्रयोग जोधपुर राज्य के नाम के रूप में भी किया जाता है। अधीनस्थ लेख राजपूत-राठौर देखें। मारवाड़ी नाम आमतौर पर मारवाड़ से आने वाले बनियों के लिए प्रयोग किया जाता है। बनिया लेख देखें। बहना, गुराओ, कुम्हार, नाई, सुनार और तेली की एक उपजाति।
हालाँकि, अपनी शब्दावली में रसेल एक अन्य संबंधित समुदाय का संदर्भ देते हैं:

मरोरी: मारवाड़ के अपमानित राजपूतों की एक छोटी जाति जो भंडारा और छिंदवाड़ा जिलों और बरार में भी पाई जाती है। यह नाम मारवाड़ी का स्थानीय रूप से अपभ्रंश है, और उनके पड़ोसी उन्हें यह नाम देते हैं, हालांकि इस जाति के कई लोग इसे स्वीकार नहीं करते और खुद को राजपूत कहते हैं। छिंदवाड़ा में वे छतरी के नाम से जाने जाते हैं, और तिरोरा तहसील में उन्हें अलकारी के नाम से जाना जाता है, क्योंकि वे पहले रंग के लिए अल या भारतीय मजीठ उगाते थे, हालांकि अब इसे बाजार से बाहर कर दिया गया है। वे कुछ पीढ़ियों से मध्य प्रांतों में रह रहे हैं, और हालांकि उन्होंने अपनी पोशाक की कुछ खासियतों को बरकरार रखा है, जो उनके उत्तरी मूल को दर्शाती हैं, लेकिन कई मामलों में उन्होंने राजपूतों की जातिगत प्रथाओं को त्याग दिया है। उनकी महिलाएँ मराठा चोली या छाती के कपड़े की जगह पीछे की ओर धागे से बंधी हिंदुस्तानी अंगिया पहनती हैं और उत्तरी फैशन के अनुसार अपनी साड़ियाँ पहनती हैं। वे अपनी भुजाओं पर राजपूतों के आकार के आभूषण पहनती हैं और अपनी शादियों में मारवाड़ी गीत गाती हैं। उनके राजपूत सप्तम नाम हैं, जैसे परिहार, राठौर, सोलंकी, सेसोदिया और अन्य, जो बहिर्विवाही समूह बनाते हैं और उन्हें कुली कहा जाता है। इनमें से कुछ दो या तीन उपविभागों में विभाजित हो गए हैं, जैसे, उदाहरण के लिए, पाथर (पत्थर) पंवार, पांधरे या सफेद पंवार और धतूरा या कांटेदार सेब पंवार; और इन विभिन्न समूहों के सदस्य आपस में विवाह कर सकते हैं। ऐसा लगता है कि इसका कारण यह है कि यह माना जाता था कि लोग एक ही पंवार समूह के थे जो एक दूसरे के रक्त संबंधी नहीं थे, और उनके बीच विवाह का निषेध एक छोटे समुदाय में एक गंभीर असुविधा थी। उनके पास वशिष्ठ, बत्सा और ब्राह्मणवादी प्रकार के अन्य गोत्र भी हैं, लेकिन ये बहिर्विवाह को प्रभावित नहीं करते हैं। उनकी संख्या की कमी और स्थानीय प्रचलन के प्रभाव ने उन्हें राजपूतों द्वारा पालन किए जाने वाले विवाह नियमों को शिथिल करने के लिए प्रेरित किया है। महिलाएँ बहुत दुर्लभ हैं, और आमतौर पर दुल्हन के लिए चालीस से लेकर सौ रुपये तक की कीमत चुकाई जाती है, हालाँकि वे दुल्हन-मूल्य की स्वीकृति से जुड़ी गिरावट को बहुत गहराई से महसूस करते हैं। विधवा-विवाह की अनुमति है, निस्संदेह उन्हीं कारणों से, और किसी अन्य जाति के पुरुष के साथ गलत व्यवहार करने वाली लड़की को समुदाय में फिर से शामिल किया जा सकता है। तलाक की अनुमति नहीं है, और एक बेवफा पत्नी को छोड़ा जा सकता है; फिर वह जाति में दोबारा शादी नहीं कर सकती। पहले, बारात के आने पर, दुल्हन और दूल्हे के पक्ष एक दूसरे के खिलाफ़ आतिशबाजी करते थे, लेकिन अब यह प्रथा बंद हो गई है। जब दूल्हा विवाह मंडप के पास पहुँचता है, तो दुल्हन बाहर आती है और आटे की एक गेंद से उसके सीने या माथे पर वार करती है, उनके बीच एक चादर होती है; दूल्हा उसके ऊपर मुट्ठी भर चावल फेंकता है और नंगी तलवार से मंडप की मुंडेर पर वार करता है। विधवा से विवाह करने वाले कुंवारे को पहले एक अंगूठी पहनानी होती है, जिसे वह उसके बाद अपने कान में पहनता है, और अगर वह खो जाती है तो अंतिम संस्कार की रस्में असली पत्नी की तरह ही की जानी चाहिए। महिलाओं के हाथों पर ही टैटू गुदवाए जाते हैं। बच्चों के पाँच नाम होते हैं, एक सामान्य उपयोग के लिए,और अन्य अनुष्ठानिक प्रयोजनों और विवाह की व्यवस्था के लिए। यदि कोई व्यक्ति गाय या बिल्ली को मारता है तो उसे सोने से बनी जानवर की एक छोटी मूर्ति बनवानी चाहिए और अपने पाप के प्रायश्चित के लिए उसे ब्राह्मण को देना चाहिए।

मारवाड़ी समाज : एक तथ्यात्मक विवेचन

मारवाड़ी समाज : एक तथ्यात्मक विवेचन


आस्ट्रेलिया की मीडियाकास्ट कम्पनी को मारवाड़ी समाज पर एक टेलीचित्र तैयार करना था। इस सिलसिले में शोधकर्ता एवं लेखक श्री कीथ एडम भारत आये हुए थे। टेलीचित्र के प्रोड्यूसर डायरेक्टर श्री बिथवन सिरो एवं उनकी कैमरा टीम भी साथ थी। जो टेलीचित्र उन्होंने तैयार किया, वह आजकल डिस्कवरी चैनल पर दिखाया जा रहा है। चूंकि टेलीचित्र मारवाड़ी समाज पर तैयार होना था- उन्होंने मेरे साथ कई बैठकें कीं। उन्होंने अमेरिकी विश्वविद्यालयों से प्रकाशित कुछ शोधपत्रों को पढ़ा था। टिमबर्ग की पुस्तक 'मारवाड़ी समाज-व्यवसाय से उद्योग में` का भी अध्ययन किया था। पर कहने लगे कि बातें स्पष्ट नहीं हो पा रही हैं। मारवाड़ी शब्द का आशय किसी समाज से है या समूह से, यह जाति है या मात्र एक वर्ग है! कोई व्यक्ति मारवाड़ी है, यह कैसे पहचाना जाता है? उसके कर्म से या उस क्षेत्र से, जहां से वह आया है, या उसकी भाषा और संस्कृति से! मारवाड़ी समाज द्वारा व्यापार एवं उद्योग के क्षेत्र में की गई उल्लेखनीय प्रगति के कारणों की व्याख्या करते हुए टिमबर्ग तथा टकनेत आदि लेखकों ने साहसिकता, संयुक्त परिवार प्रणाली, नैतिकता, मितव्ययिता, व्यावहारिकता और व्यापारिक प्रशिक्षण, धार्मिक और जाति भावना सरीखे गुणों की तरफ ध्यान आकर्षित किया है। परंतु श्री कीथ का प्रश्न था कि ये सभी गुण इसी जाति में क्यों आये- इसके पीछे क्या कारण रहे हैं- क्या इस पर कोई शोध हुआ है? मैंने कहा- प्रथम कारण था, हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की सहोदरा गणेश्वरी सभ्यता जो कि शेखावाटी तथा मारवाड़ की धरती पर फली-फूली थी। सिंधु घाटी के नगरों में तांबे के जो बर्तन और औजार मिले हैं, वे खेतड़ी तथा सिंघाना स्थित खानों से निकाले गये तांबे से बनाये जाते थे। भारतीय इतिहास की सोवियत विशेषज्ञ ए. कोरोत्सकाया लिखती हैं कि प्राचीन काल से ही अनेक सार्थ मार्ग राजस्थान से होकर गुजरते थे और ऊंटों की लम्बी कतारें लम्बी दूरियां तय करती थीं। इनसे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण कारण रहा था राजस्थानी भाषा का साहित्य। पौ फटने से बहुत पहले ही घर की औरतों को चक्की पीसने, दही बिलौने, कुएं से पानी निकालने जैसे कई श्रम-साध्य कार्य करने पड़ते थे। श्रम की थकान का पता नहीं चले, इसलिये वे राजस्थानी लोक-काव्य को सरस धुनों में गाती थीं। यह सब सोये हुए बच्चों के कानों में स्वत: जाता रहता था। वह सब उसके खून में रच-बस जाता था। इसी तरह रात में बच्चों को सुलाने के लिए भी मां और दादी लोरियां सुनाती थीं- 'जणणी जणै तो दोय जण, कै दाता के शूर।` बच्चों को साहसिकता का पाठ अलग से पढ़ाने की जरूरत नहीं होती थी। यह उनको घूंटी में ही मिलते थे। ये ही बातें उनके जीवन की प्रवृत्ति बन जाती थी। इसी कारण युद्ध और व्यापार के क्षेत्र में वहां के लोगों ने नये कीर्तिमान स्थापित किये। श्री कीथ ने पूछा- क्या आज के मारवाड़ी परिवारों में भी बच्चों को इस तरह की लोरियां सुनाई जाती हैं? यदि नहीं तो आगामी सदी के व्यापार और उद्योग क्षेत्र में इनका वर्चस्व कायम रह सकेगा? मुझे संदेह है, पर चाहता हूं कि मेरा संदेह गलत हो। चूंकि हम बीसवीं सदी पार कर चुके हैं, मारवाड़ियों से सम्बन्धित यह विषय गंभीर चर्चा की अपेक्षा रखता है।

मारवाड़ी समाज और भ्रान्तियां :
सही है कि मारवाड़ी समाज के इतिहास में औद्योगिक घरानों और कोलकाता शहर का अहम् स्थान है। पर सही यह भी है कि जिस किसी ने भी मारवाड़ी समाज पर लिखने की कोशिश की, ये दोनों मुद्दे उसके लेखन पर इस कदर हावी हो गये कि वह विस्तार से अन्य कुछ देख भी नहीं पाया। वरना यह भी तो लिखा जाना चाहिये था कि कोलकाता के महाजाति सदन की दीवारों पर लगे हुए क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता संग्रामियों के सौ से भी अधिक तैल-चित्रों में बीस-बाईस चित्र मारवाड़ी समाज के लोगों के भी हैं। ये वे लोग थे, जिन्होंने शचीन्द्र सान्याल से लेकर रासबिहारी बोस तक को गोला-बारूद उपलब्ध कराया था, रोडा हथियार कांड में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और सन १९४७ तक हर आंदोलन में जेल के सींखचों के भीतर रह कर भी आजादी की जंग लड़ी थी। सुप्रसिद्ध विचारक राममनोहर लोहिया को इसी समाज ने पैदा किया था और इसी समाज की साहसिक पुत्री थी इन्दु जैन, जिन्होंने कोलकाता की प्रथम महिला स्वतंत्रता सेनानी के रूप में गिरताराी दी थी। मारवाड़ी समाज के इतिहास में कानून विशेषज्ञ हरबिलास शाारदा, सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ एवं संपादक पंडित झाबरमल्ल शर्मा, प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. दौलतसिंह कोठारी का जिक्र भी आना चाहिये। नोबल पुरस्कार की तैयारी करने वाले डॉ. सी.वी. रमन को वैज्ञानिक उपकरणों के लिए और शांति निकेतन हेतु धन इकट्ठा करने के लिए स्वयं मंच पर उतरते को उद्धत कविगुरु टैगोर को जरूरी धनराशि मुहैया कराने वाले घनश्याम दास बिड़ला मारवाड़ी थे। शांतिनिकेतन का हिन्दी भवन, वनस्थली का महिला विद्यापीठ, कोलकाता की भारतीय भाषा परिषद मारवाड़ी समाज के लोगों की ही देन हैं। रूपकंवर सतीी कांड के विरुद्ध बंगाल का पहला प्रतिवाद जुलूस मारवाड़ी समाज के युवकों ने ही निकाला था। मात्र बड़ाबाजार में ही नहीं, धर्मतल्ला तक की सड़कों पर खुद की भाषा राजस्थानी की संवैधानिक मान्यता के लिए मारवाड़ियों ने सड़क पर जुलूस निकाले हैं।

ये सब तथ्य जब लेखों में उभरकर नहीं आते हैं, तो मारवाड़ी समाज मात्र औद्योगिक समूह बनकर रह जाता है। इतर समाज के लोग मानने लगते हैं कि इस समाज के पास भाषा, साहित्य, संस्कृति ओर कला के स्तर पर कुछ भी नहीं है। पैसा कमाना ही इसका कर्म है, धर्म है।

सुप्रसिद्ध इतिहासकार निशीध रंजन रे इकोनोमिक टाइम्स के किसी विशेषांक के लिए एक लेख भेज रहे थे, जिसमें इसी तरह की अवधारणा थी। परंतु एक निजी मुलाकात में जब उनसे मारवाड़ी समाज के ऐतिहासिक और सामाजिक सन्दर्भों में बात हुई तो उन्होंने खुद के पास उपलब्ध जानकारियों को अधूरा माना। उन्होंने लेख का अन्त इस वाक्य से किया- It will be absorbing interest to know and ascertain the origin & nature of the forces of physical, environmental and otherwise, which marked out the Marwari as an uncommon community in India.परिभाषा

टिमबर्ग के शोध का एक विशेष विषय था। इसलिए उन्होंने अपनी पुस्तक का नाम From Traders to Industrialist दिया। पर मारवाड़ी को मात्र व्यापारी मानने की भ्रांति को इससे अनजाने में ही सहारा मिला। मारवाड़ नाम से प्रकाशित बहुत मंहगी, चिकने कागजों पर परिवारों तथा व्यक्तियों के बहुरंगी चित्रों के साथ छपने वाली पत्रिका ने अपने प्रवेशांक में मारवाड़ी की परिभाषा देते हुए मारवाड़ी समाज की प्रगति यात्रा को किसान से उद्योगपति होने का करिश्मा बता दिया ाहै। गलती पुख्ता होती गई, जब अमेरिका के कुछ विश्वविद्यालयों में मारवाड़ी समाज की औद्योगिक प्रगति पर तैयार किये गये मोनोग्रास् को ही मारवाड़ी समाज का इतिहास माने जाने लगा। खुद मारवाड़ी समाज के कुछ लोगों ने कर्म की समानता को मारवाड़ी होने की पहचान बताना चालू कर दिया। रही सही कमी पांचवें दशक के रूसी विचारक डाइकोव ने कर दी, जिसने पूरे मारवाड़ी समाज को बुर्जुवा की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। श्री द्विजेन्द्र त्रिपाठी ने लिखा- मारवाड़ी समुदाय नहीं, समूह है। अन्य किसी के लिए क्या कहें, अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन इसको सम्पूर्ण रूप से परिभाषित नहीं कर पाया था। सन् १९५८ में छपे नये संविधान में इसे ठीक ढंग से परिभाषित किया गया। 'राजस्थान, हरियाणा, मालवा तथा उसके निकटवर्ती भू-भागों के रहन-सहन, भाषा तथा संस्कृति वाले सभी लोग जो स्वयं अथवा उनके पूर्वज देश या विदेश के किसी भू-भाग में बसे हों, मारवाड़ी हैं। यह परिभाषा आज तक मानक रूप में स्वीकार्य है।

मारवाड़ी शब्द को लेकर भी अजीब उलझन पैदा की जाती है। किसी से आप पूछते हैं कि आप कहां से आये हैं, तो स्वाभाविक है कि व्यक्ति अपने शहर या प्रांत का नाम बतायेगा। पर आप पूछें कि आप कौन हैं, तो वह अपनी भाषा के आधार पर खुद का परिचय देगा। मसलन कर्नाटक का व्यक्ति कहेंगा, वह कन्नड़ हैं। आन्ध्र का कहेगा, वह तेलगु है। इसी तरह राजपूताने के विभिन्न इलाकों से आने वाले व्यक्ति मारवाड़ी इसलिए कहलाये कि उनकी भाषा मारवाड़ी थी। वे अपने आप को मारवाड़ी कहते थे। जहां तक मारवाड़ और मारवाड़ी शब्द के सम्बन्ध का प्रश्न है, यह सही है कि मारवाड़ से आने वाले लोग मारवाड़ी कहलाने के अधिकारी हैं। कहा जाता है कि बंगाल में पहले-पहल मारवाड़ के लोग ही आये थे। वे चाहे सन् १५६४ में सुलेमान किरानी की सहायता के लिए भेजी गई अकबर की फौज के राजपूती सिपाही हों, चाहे टोडरमल और राजा मानसिंह के साथ सन् १५८५ से सन् १६०५ तक आई मुगल फौज की रसद व्यवस्था करने वाले कारिन्दें। बंगाल के संदर्भ में कहा जाता है कि ये लोग मारवाड़ से आये थ, सो मारवाड़ी कहलाये। पर देश का कोई ऐसा प्रान्त नहीं हैं, जहां मारवाड़ी नहीं गया हो या आज भी नहीं बसा हो। इन बसे हुए लोगों में एक बहुत बड़ी संख्या ऐसी है, जिसका मारवाड़ से कोई ताल्लुक नहीं है। प्रश्न उठता है कि वे मारवाड़ी क्यों कहलाये? उत्तर बहुत स्पष्ट है। वे सभी लोग मारवाड़ी बोलते थे। और जहां भी गये,, उन्होंने अपना परिचय मारवाड़ी के नाम से दिया। इसीलिए राजस्थान से आने वाला हर व्यक्ति मारवाड़ी कहलाया। चार सौ वर्ष पहले राजस्थान और राजस्थानी शब्द नहीं बने थे। अत: खुद के परिचय के लिए राजस्थानी शब्द की जगह मारवाड़ी शब्द का प्रयोग किया गया। सन् १९६१ की जनगणना का आकड़ा देखने पर हैरानी होती है। इसके अनुसार राजस्थानी बोलने वालों की संख्या केवल १.४९ करोड़ आंकी गई, जिसमें आन्ध्र में ५.७ लाख, मध्य-प्रदेश में १६.११ लाख, महाराष्ट्र में ६.२९ लाख, कर्नाटक में ३.०५ लाख, बंगाल में ३.७२ लाख और दिल्ली में २.९२ लाख हैं। संख्या निश्चित रूप से कम है। पर कुछ बातें काफी स्पष्ट हैं। चूंकि आन्ध्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश में बसे लाखों व्यक्ति केवल व्यवसायी नहीं हैं, वे जीवन के हर क्षेत्र में कार्यरत हैं। ये लोग केवल मारवाड़ से नहीं, बल्कि राजस्थान के अन्य जनपद से भी आये हैं।

उद्यमशीलता की पृष्ठभूमि
इन बातों को ध्यान में रखते हुए मारवाड़ी समाज की विभिन्न प्रवृत्तियां एवं आर्थिक समृद्धि के इतिहास का अध्ययन किया जाये तो कुछ नये तथ्य सामने आते हैं। हमें इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होगा कि अंग्रेजी राज के पहले तक भारतवर्ष बहुत ही समृद्ध देश रहा है। यहां पाई जाने वाली विभिन्न तरह की जलवायु, उर्वरा मिट्टी, नदी और पहाड़, सपाट मैदान इसके प्रमुख कारण थे। ग्रीक, कुशाण, हूण, मंगोल सभी लोग समृद्धि के कारण यहां आये थे और इसीलिए पुर्तगीज डच, फ्रेंच तथा अंग्रेज लोगों ने यहां कोठियां बना कर व्यापार करने की मंजूरी ली थी। जाहिर है, केवल राजसत्ता ही नहीं, यहां के व्यापारियों के व्यापारिक मार्गों का इतिहास भी बहुत रोमांचक रहा है, महत्त्वपूर्ण रहा है। यह अलग बात है कि इस पर अधिक लिखा नहीं गया है। सही है कि व्यापार के बड़े केन्द्र बंदरगाह हुआ करते थे। परन्तु चीन, काबुल, कश्मीर, कंधार आदि का माल गुजरात के बंदरगाहों तक पहुंचाने के लिए जो महत्त्वपूर्ण मार्ग थे, वे राजस्थान से होकर गुजरते थे। इसीलिए यहां के निवासियों की व्यापार-पटुता आज भी शोध-कर्त्ताओं के लिए अध्ययन का विषय बनी हुई है। मुगल शासन के प्रारम्भ काल मंे जब इन मार्गों पर सुरक्षा की अच्छी व्यवस्था थी, तो उत्तर में कश्मीर और काबुल तथा दक्षिण में मालाबार तक इन्होंने अपनी शाखायें खोली। पंजाब और बिहार में तो इनका व्यापार पहले से ही था। स्वयं सेठ लोग शेखावाटी में रहेू ओर वहीं से लाखों रुपये की हुंडिया भुनाते रहे, लाखों रुपये की इंश्योरेंश भी लेते रहे, ताकि छोटे व्यापारियों को कार्य करने में ज्यादा नुकसान का डर नहीं रहे।

शायद यह पहली जाती है, जिसने व्यापार को गति प्रदान करने के लिए व्यापारिक लिपि मुड़िया ईजाद ही नहीं की, उसका व्यापारिक स्तर पर प्रयोग भी किया। पढ़ने के लिए बारहखड़ी सिखाते थे तो व्यापार-पटु होने के लिए स्कूल में रोजमर्रा की महारणी संख्याओं की गिनती एवं जोड़-भाग कंठस्थ करवाया जाता था। महाजनी की पुस्तक उस समय कम्प्यूटर थी। मात्र अंगुलियों पर मुश्किल से मुश्किल व्यापारिक सौदे का हिसाब कर दिया जाता था। अफीम का बहुत बड़ा व्यापार होता था। रोजमर्रा के भाव की जानकरी जरूरी थी और डाक व्यवस्था नहीं थी तो इन लोगों ने चिलका डाक ईजाद की थी- बड़ी पहाड़ियों पर शीशा का प्रयोग कर के सही भाव पहुंचा दिये जाते थे। इन बातों का प्रभाव वहां की कला-संस्कृति, भाषा-वास्तुशिल्प पर भी पड़ा। श्रीमती कोरोत्सकारया लिखती हैं कि राजस्थान जैसे नगर भारत में कहीं नहीं मिले। ये नगर जिनमें अधिकांशत: वैदेशिक व्यापार से मालामाल हुए व्यापारी और महाजन रहते थे, बहुत बातों में इटली के पुनर्जागरण कालीन नगरों की याद दिलाते हैं। जर्मन विद्वान रायटर आस्कर लिखते हैं कि भारत के और सभी नगरों की अपेक्षा संभवत: वे ही अपनी संरचना में और आवासीय भवनों की भव्यता में इतालवी नगरों से सबसे ज्यादा साम्य रखते हैं। कहने का तात्पर्य है कि राजस्थान के बाहर जो मारवाड़ी समाज गया, उसकी यह पृष्ठभूमि रही है। ऐसा ही नहीं है कि यहां के सभी लोग समृद्ध थे, परन्तु मध्यम वर्ग के लोगों में भी विकास की गहरी संभावनाएं थी और जब उनको १८२० के बाद व्यापार के अवसर मिले तो समाज के कुछ समृद्ध लोगों की तरह वे खुद भी बड़ी संख्या में समृद्ध बनने में सफल सिद्ध रहे।
मारवाड़ से आए हुए जगत सेठ की समृद्धि से बहुत लोग परिचित हैं। बंगाल के वस्त्र उद्योग एवं समुद्री व्यापार से होने वाली आय, सिक्के ढालने का मिला हुआ एकाधिकार उनकी आर्थिक प्रगति के प्रमुख कारण थे। धन इतना था कि डच सरकार समझ नहीं पाई कि इतने पैमाने पर रुपयों का लेन-देन उस समय की डच कम्पनी किस सरकार या बैंक के साथ कर रही है! कोई एक घराना इतना धनाढ्य हो सकता है, यह विश्वास के बाहर की चीज थी। इसीलिए तो दिल्ली के बादशाह ने उन्हें जगत सेठ का खिताब दिया था।

गुजरात तो बंगाल से भी बड़ा व्यापारिक केन्द्र था। प्रश्न यह उठता है कि उस समय दिल्ली एवं बंगाल में दोनों जगह शासन नवाबी-मुगलों का था, फिर सहूलियत ओर अधिकार एक मारवाड़ी को क्यों दिये गये? उस समय दक्षिणी प्रदेशों का सारा धन गोलकुंडा में आकर इकट्ठा होता था। सूरत मंडी में खोजा एवं बोरा लोगों को अधिकार दिये गये थे। बीरजी बोरा दुनिया का सबसे धनी व्यक्ति माना जाता था। गोलकुंडा में यह अधिकार मोहम्मद सईद आर्दितानी को था, जो बाद में हीरों की खानों का मालिक भी बन गया था। गोलकुंडा का ही नहीं,, वह दिल्ली का भी मीर जुमला बना। इस तथ्य का जिक्र मात्र इसलिए किया गया है कि मारवाड़ी जाति के लोग ही हैं, जो उस समय से आज तक व्यापार में कामयाबी प्राप्त करते रहे हैं। कोलकाता स्टॉक एक्सचेंज के पूर्व सभापति चिरंजीलाल झुंझुनवाला कहते थे- हम लोगों में 'सिक्स्थ सेंस` था। अफीम की तेजी-मंदी का अंदाज जितनी जल्दी मारवाड़ी व्यावसायियों को हुआ, उसकी कोई मिसाल नहीं है। बहुत धन कमाया अफीम के व्यापार में। बलदेवदास दूधवेवाला बताते थे कि जब वे स्टॉक एक्सचेंज में घुसते थे तो उन्हें गंध-सी आती थी कि ये शेयर घटेंगे और ये शेयर बढ़ेंगे। कहने की जरूरत नहीं है कि प्रथम महायुद्ध के समय शेयर बाजार में सेना की जरूरतों को पूरा करने के व्यापार में मारवाड़ी समाज ने अकूत दौलत कमाई। सुप्रसिद्ध अमेरिकी लेखक सेलिंग एस हरीसन ने अपनी पुस्तक 'इंडियाज मोस्ट डेंजरस डिकेड्स` में इसका कारण मारवाड़ी के सर्वदेशीय फैलाव को माना है। अन्य लोगों को व्यापारिक कार्यों में भुगतान के लिए सम्पर्क सूत्र खोजने पड़ते थे। पर इस जाति के लोग छोटे-छोटे गांव में भी मिल जाते थे, जिससे व्यापार करने में सहूलियत होती थी।

सर्वदेशीय फैलाव
एक प्रश्न यह भी उठता है कि यह जाति अपना स्थान छोड़ कर पूरे भारत में क्यों फैली? रण और व्यापार के मैदान इस जाति के कार्य के प्रमुख केन्द्र रहे हैं। बहुत पहले से ही ये लोग नदी के किनारे के शहरों एवं इससे सटे दूर-दराज के गांवों-कस्बों में सीमित संख्या में बाहर जाते रहते थे। खुर्जा, मिर्जापुर, भागलपुर, इंदौर आदि की व्यापारिक मंडियों में लोगों ने अपनी पहचान बना रखी थी। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मराठा और पिंडारियों की लूटपाट के कारण राजस्थान के व्यापारिक मार्ग सुरक्षित नहीं रहे, इसलिए इन लोगों को दूसरे स्थानों पर जाना पड़ा। सबसे बड़ा कारण १८२० में देशी रियासतों और ब्रिटिश सरकार के बीच हुई संधि थी, जिसके तहत वहां टैक्स की दरों में बढ़ोतरी और कोलकाता जैसी अंग्रेजी बस्तियों में व्यापार को ज्यादा सहज बना दिया गया था। सैंकड़ों और हजारों की संख्या में शेखावाटी से व्यापारियों के प्रवसन का यह सबसे बड़ा कारण था।

१८१३ में इंग्लैण्ड में पारित किये गये एक्ट के अंतर्गत वहां की प्राइवेट कंपनियों को अधिकार मिल गये कि वे भारत में व्यापार कर सकती हैं। अत: बड़ी संख्या में वहां की कम्पनियों ने कोलकाता में ऑफिस खोला। इन लोगों को एजेण्ट एवं बनियनों की जरूरत थी। इस तरह ये दोनों संयोग मिले और मारवाड़ी समाज के लोगों ने अपना कारोबार बढ़ाया। उस समय आई हुई अंग्रेजी कम्पनियों ने बंगाली और खत्री समाज के लोगों को प्रारम्भ में एजेण्ट तथा बनियन बनाया था। परन्तु व्यापार कुशल नहीं होने के कारण वे लोग संतोषजनक कार्य नहीं कर सके। जबकि मारवाड़भ् समाज के लोगों ने इसे बहुत सफलता के साथ सम्पन्न किया। यदि वे इसमें खरे नहीं उतरते तो निश्चित रूप से ब्रिटिश कम्पनियां मद्रास या सूरत को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाती और बंगाल राष्ट्र के आर्थिक मानचित्र में प्रथम स्थान प्राप्त नहीं कर सकता था। बंगाल को मारवाड़ी समाज की यह बहुत बड़ी देन है, जिसका सही मूल्यांकन नहीं किया गया। यह मूल्यांकन इसलिए नहीं हुआ कि व्यापारिक गतिविधियों में यह समाज जरूरत से ज्यादा खोया रहा और खुद की भाषा, साहित्य, संस्कृति, कला और इतिहास के प्रति उदासीनता की नींद में सोया रहा। इस स्थिति में भी शिक्षा-साहित्य सेवाओं तथा जन-कल्याण के कार्यों में जितना काम इस समाज ने किया है, वह अपने आप में शोध का कार्य है। उसे भी अब तक लिपिबद्ध कर के इतर समाज के समक्ष नहीं लाया गया है। इसीलिए आज इस समाज का युवा वर्ग अपने गौरवपूर्ण इतिहास के बारे में बहुत कुछ अनभिज्ञ है।

स्पष्ट है, मारवाड़ी समूह नहीं, समाज है। दो शताब्दी तक राष्ट्र के आर्थिक जगत में इसका सर्वोपरि स्थान रहा है। डॉ. हजारी की मोनोपाली रिपोर्ट से ले कर गीता पीरामल द्वारा तैयार की गई विभिन्न पुस्तकों और लेखों के अनुसार सन १९९० तक के प्रथम दस शीर्षस्थ व्यापारिक घरानों की पूंजी के ७० प्रतिशत भाग का मालिक मारवाड़ी समाज था। पर अब ऐसा नहीं है। सन् १९९८ में बिजनेस इंडिया ने देश के प्रथम ५० औद्योगिक घरानों का अध्ययन किया, यह देखने के लिए कि इनमें से कितने घराने इक्कीसवीं सदी में अपना वजूद कायम रख सकेंगे। इन पचास लोगों की सूची में मुश्किल से ८-१० नाम मारवाड़ी घरानों के हैं। इक्कीसवीं सदी में वजूद रख सकेंगे, ऐसे मात्र दस घराने हैं और मारवाड़ी समाज का तो केवल एक घराना! ध्यान में रखने की बात यह है कि यह सूची छ: वर्ष पुरानी हो चुकी है, जिसमें इन्फॉरमेशन टेक्नोलोजी उद्योग प्राय: शामिल ही नहीं है। आज यह सूची बने तो आठ-दस आई.टी. उद्योगों को शामिल करना पड़ेगा। तब निश्चित रूप से मारवाड़ी समाज का अनुपात और कम हो जायेगा। मारवाड़ी समाज के लिए यह चिंता का विषय है। अफसोस हे कि सामूहिक स्तर पर न कोई चिंतन है और नही चिंता। प्रसिद्ध विचारक एवं लेखक विल ड्यूरेट ने प्रव्रजनशील या प्रवासी जाति की विशेषताओं का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि ऐसी जातियों या समुदायों में पतन के लक्षण कोई डेढ़ सौ वर्षों में दिखलाई पड़ने लगते है और दो से ढाई सौ वर्षों में उनका पूर्ण पतन हो जाता है।

क्या मारवाड़ी समाज पतनोन्मुख है?
प्रोक्टर एंड गेंबल के पूर्व अधिकर्त्ता गुरुचरण दास ने मारवाड़ी समाज के संदर्भ में नोबल पुरस्कार प्राप्त जर्मन लेखक टॉमस मान की पुस्तक के हवाले से केनेडी और रॉकफेलर परिवार का उदाहरण दे कर कहा है कि किस तरह चार-पांच पीढ़ियों के बाद व्यापारिक घरानों का हा्रस होता है। शादियों-उत्सवों के खर्च, दिखावा, आरामतलब की जिंदगी उकने जीवन के अंग बन जाते हैं। मारवाड़ी समाज के साथ ऐसा ही कुछ हो रहा है। टैक्नीकल एवं वैज्ञानिक शिक्षा के अभाव की कमियां साफ नजर आने लगी हैं। समय रहते कुछ निर्णायक कदम नहीं उठाये गये, सोच और कर्म के स्तर पर कुछ बुनियादी तब्दीलियां नहीं हुई तो संभव है कि इतिहास ग्रंथों में दर्ज किया जाये कि बीसवीं सदी के ढलते-ढलते मारवाड़ी समाज की आर्थिक समृद्धि का सूरज भी ढलने लगा था।


कलकत्ते के मारवाड़ी परिवारोंमें उस वक्त पढाई के लिये कोई खास उत्साह नहीं होता था .पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे ,गद्दी ,दुकान ,दलाली ,बिजनेस ,सप्लाई ,खूब हुआ तो छोटीमोटी कारखाने नुमा इकाई - बस यही सपना होता था .हाँ पढाई का मतलब तब भी कलकत्ते में सी ए बनना था , कमो बेस मारवाड़ी परिवारों में आज भी वही .चार्टर्ड अकाउंटेंट , कास्ट अकाउंटेंट , सी एस ,सी ऍफ़ ए .बस वहीं तक . मारवाड़ी परिवार अभी भी फ़ौज के किसी भी पद के लिये उत्साहित नजर नहीं आते .अब ग्रामीण इलाके के मारवाड़ी परिवार में डाक्टर ,इंजीनियर बन रहे हैं .ये लोग क्रमशःबड़े शहरों में पहुंच कर आश्चर्यजनक सफलता अर्जित कर रहे हैं ,सेवा के क्षेत्र में ,अनुसन्धान के क्षेत्र में नयी तकनीक के उपयोग के क्षेत्र में .पर अस्पतालों में आपको या तो मारवाड़ी डाक्टर मिलेंगे या अकाउंटेंट ,कैशियर और मेनेजर मिल जायेंगे पर पारा मेडिकल स्टाफ नहीं , नर्सिंग स्टाफ नहीं , सिक्युरिटी स्टाफ नहीं . उसी प्रकार उच्च तकनीक संस्थाओं में बड़े पदों पर या बड़े पदों की शुरुआती पायदान पर आपको तीक्ष्ण बुद्धि प्रवीण अध्येता तकनीक ज्ञान से भरेपूरे ,बड़े उत्साही बड़ी बड़ी डीग्री धरी मारवाड़ी नौजवान मिल जायेंगे पर असिस्टेंट ग्रेड पर नहीं मिलते . मारवाड़ी नौजवान यदि अपनी बौद्धिक क्षमता सामान्य पाता है तो वह करियर के रूपमे ट्रेड ,इंडस्ट्री ,कामर्स को ही तरजीह देता है .