Pages

Friday, March 13, 2020

दिल्ली_की_नींव_में_कुछ_अंश_अग्रवाल_समाज_के

दिल्ली_की_धरोहर_अग्रवाल_समाज

दिल्ली के इतिहास की परतों को पलटेंगे तो उस पर अग्रवाल समाज का गौरवशाली इतिहास सजा नजर आएगा। एक के बाद एक शासक तो दिल्ली की सत्ता हासिल करने की लालसा रही लेकिन अग्रवाल समाज ने दिल्ली को हर तरह समृद्ध, संपन्न व सम्मानित किया। 
--------------
दिल्ली का बुनियादी विकास हो या धर्म, कर्म, कला, साहित्य, राजनीति और चिकित्सा हर जगह अग्रवाल समाज की उपस्थिति एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में दिखी। सामाजिक सरोकार से जुड़ी दिखी। तभी दिल्ली की गलियों में आज भी इनके किस्से सुनाए जाते हैं। सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि उप्र, बिहार तक में विकास कार्यों में जिम्मेदारी निभाई। मंदिरों का निर्माण और पुनरुद्धार करवाया।

#अग्रोतक_होती_थी_राजधानी :

दिल्ली में अग्रवाल समाज का लिखित इतिहास 900 साल पुराना पता चलता है। अग्रवाल जाति के लोग भगवान अग्रसेन के वंशज हैं। इनकी राजधानी अग्रोतक थी, जिसका वर्तमान नाम अग्रोहा है। यह हरियाणा के हिसार में स्थित है। मुहम्मद गोरी के आक्रमण के बाद अग्रवाल यहां से निकलने शुरू हुए और आसपास के क्षेत्रों में निवास स्थान बनाए। निकटवर्ती दिल्ली, हरियाणा के ही विविध हिस्सों, पश्चिमी उप्र और राजस्थान समेत पंजाब में भी गए। अग्रवालों की प्रारंभिक बस्तियां इन्हीं इलाकों में मिलती हैं। दिल्ली में उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार जब राजपूत काल चल रहा था तो पृथ्वीराज चौहान के नाना अनंगपाल तोमर के एक मंत्री नट्टल साहू थे। इन्होंने तत्कालीन प्रसिद्ध कवि विबुद्ध श्रीधर से पाश्र्वनाथ चरित्र की रचना करवाई। नट्टल साहू अग्रवाल जैन थे। यह अपभ्रंश भाषा में लिखी गई है। इसी में सबसे पहले हरियाणा स्थित दिल्ली का वर्णन किया गया है, जिससे पता चलता है कि दिल्ली, हरियाणा का भाग था और उसकी राजधानी भी। राजपूत काल, सल्तनत काल, मुगल काल में प्रशासन, राजनीति, समाज सुधार, उद्योग, धार्मिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में अग्रवालों का अनुपम योगदान रहा है। नट्टल साहू पहले ज्ञात अग्रवाल मंत्री हैं। सल्तनत काल में भी कई अग्रवाल मंत्री बने। मुगल काल में राय रामप्रताप मंत्री बने। ये एरण गोत्र के थे। ये पहले थे जिन्हें मुगलों ने जनाना महल का मंत्री बनाया। अकबर द्वितीय ने इन्हें आली खानदान की उपाधि दी थी। राम प्रताप मूलरूप से गुडग़ांव अब गुरुग्राम के रहने वाले थे। इनकी वंश परंपरा को राय की भी उपाधि मिली थी। इन्हीं की पीढ़ी से राय इंद्रमणि हुए। जिन्हें बिहार में दीवान पद सुशोभित किया। इन्हें बाद में वहां राजा भी बनाया गया। इंद्रमणि के बाद इनके परिवार के ख्याली राम थे। जो गुप्तचर विभाग के अध्यक्ष थे। इनके बाद पटनिमल का जिक्र आता है। इनके नाम से पुरानी दिल्ली के पहाड़ी धीरज में पटनिमल गली और खिड़की है। ये बादशाहों के खजांची ज्यादा थे शाहजहां के समय में खंजाची बनने शुरू हुए थे और ब्रिटिश काल में भी खजांची थेे।

#सोने_के_छत्र_वाला_मंदिर :

पुरानी दिल्ली स्थित धर्मपुरा में एक 200 साल पुराना मंदिर है। जिसे अग्रवाल जैनियों ने बनवाया था। इसे नया मंदिर भी कहते है। यह मंदिर उस समय 8 लाख रुपये में बनवाया गया था। इसमें गर्भ गृह की छत सोने की है। हरसुख राय के लड़के थे सुगन राय। ये बादशाह के खजांची थे। इन्होंने 7 लाख रुपये तो खुद दिए जबकि 1 लाख समाज के लोगों से चंदा इक्ट्ठा किया गया था। इसे बनवाने के पीछे की कहानी भी दिलचस्प है। दरअसल, उस समय मुगल मंदिर नहीं बनाने देते थे, खासतौर पर शिखर वाले मंदिर। चूंकि ये खजांची थे तो इन्होंने बादशाह से विशेष अनुमति लेकर मंदिर निर्माण शुरू करवाया। सात लाख रुपये खर्च हो जाने के बाद भी जब मंदिर का निर्माण पूरा नहीं हुआ तो फिर एक लाख रुपये चंदा एकत्र किया गया। मंदिर निर्माण पूरा होने के बाद इसे पंचायती घोषित कर दिया गया था। इसमें कहीं भी लाइङ्क्षटग नहीं है। मंदिर दिन में एक बार सिर्फ सुबह खुलता है। राजा हरसुख राय और सगुन चंद्र ने देशभर में 52 जैन मंदिरों का निर्माण करवाया। अकेले दिल्ली में सात मंदिर थे। जिसमें धर्मपुरा, पटपडग़ंज, जयसिंहपुरा स्थित मंदिर हैं। इसके अलावा बाकि मंदिर उप्र, राजस्थान और हरियाणा में थे। इसी तरह राजा पटनिमल ने कालकाजी मंदिर में भी सेवा कार्य किया। 1810 में 50 हजार रुपये दिए थे। इन्हें अकबर द्वितीय ने राजा का खिताब दिया था।

ख्याली राम शाहजहां के समय में गुप्तचर रहे :

इसी तरह एक सेठ सीताराम थे जो मुहम्मद शाह रंगीला के समय खजांची थे। इनके नाम पर #सीताराम_बाजार है। सीताराम ने मुहम्मद शाह रंगीला को 5 लाख रुपये उधार दिए थे। दरअसल नादिरशाह के हमले के बाद बादशाह का खजाना पूरी तरह खाली हो चुका था। उस समय सेठ ने मदद की थी। बदले में बादशाह ने इनके निवास स्थान को सीताराम और इनके दो भाइयों के नाम पर कूचा घासी राम, कूचा पातीराम नाम रखा। ये ऐरन गोत्रीय थे। इन्होंने भिवानी के पास स्थित चरखी दादरी में एक लाख रुपये से एक 50 फीट गहरा तालाब बनवाया। हरियाणा सरकार ने इसके सुंदरीकरण पर 10 करोड़ खर्च किए। मुगल काल में #दिल्ली_में_पांच_ऐसे_स्थान_हैं_जो_अग्रवालों_के_नाम_पर_हैं। कूचा पाती राम, घासी राम, सीताराम बाजार, पटनिमल खिड़की व गली, कूचा ख्याली राम। ख्याली राम शाहजहां के समय में गुप्तचर विभाग के प्रमुख थे।

#अग्रसेन_की_बावली

दिल्ली में अग्रवाल समाज की पुरानी विरासतों का जिक्र करें तो अग्रसेन की बावली सर्वप्रथम आती है। बाराखंभा स्थित यह बावली 800 साल से ज्यादा पुरानी है। बलुआ पत्थर, चूने के पत्थरों से बनी यह बावली व्हेल के आकार की है। इसमें 108 सीढिय़ां हैं। कहते हैं समय के साथ इसमें बहुत से बदलाव किए गए हैं। नट्टल साहू ने इस बावली का पुनरुद्धार करवाया था। 1990 तक यह पानी से भरी थी लेकिन अब सूख चुकी है।

#कई_बड़े_कॉलेज_भी_इनकी_देन :

अग्रवाल समाज ने दिल्ली में शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया है। जामा मस्जिद इलाके में स्थित इंद्रप्रस्थ गल्र्स स्कूल के संस्थापकों में रहे। सोसायटी के सेक्रेटरी लाला युगल किशोर थे। वे दिल्ली में 1928 में सनातन धर्म सभा के भी अध्यक्ष रहे। मारवाड़ी पुस्तकालय का जिक्र भी जरूरी है। यह दिल्ली के मारवाड़ी अग्रवाल द्वारा स्थापित है, जिसके केदारनाथ गोयनका संस्थापक थे। पुरानी दिल्ली में ही एक बनवारी लाल आयुर्वेद औषधालय भी था। कोतवाल वाले खानदान ने इसे स्थापित किया था। यहां के पढऩे वालों को वैद्यराज की उपाधि दी जाती थी। 1938 तक इससे पढ़कर 1500से अधिक वैद्य निकले थे। लाला श्रीराम की मेहनत और लगन की मिसाल आज तक दी जाती है। इन्होंने दिल्ली कमर्शियल कॉलेज की स्थापना की थी जो आजकल श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स के नाम से प्रसिद्ध है। एक लेडी श्री राम कॉलेज भी है जो उनकी पत्नी के नाम पर है। इन्होंने एक इंडस्ट्रियल रिसर्च इंस्टीटयूट भी बनवाया था। 1899 में हिन्दू कॉलेज की स्थापना कृष्णदास गुड़वाले द्वारा की गई थी। इसमें सुल्तान ङ्क्षसह जैन भी शामिल थेे।

#पहले_स्पीकर_चरती_राम_गोयल_बने :

जिस समय दिल्ली में विधानसभा नहीं थी, उस समय दिल्ली पंजाब का हिस्सा थी। 1910 में पंजाब की विधान परिषद थी। उसमें सुल्तान ङ्क्षसह जैन, राय बहादुर, देशबंधु गुप्ता, प्यारेलाल सदस्य बने। दिल्ली की पहली विधानसभा में लाला जगन्नाथ, देशबंधु गुप्ता सदस्य थे। अंग्रेजों द्वारा शुरू की गई नगर पालिका में भी अग्रवाल लगातार सदस्य बने। रामलाल खेमका 3 बार सदस्य बने। श्यामनाथ मार्ग से दिल्ली के लोग गुजरते हैं। लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि वो लाल श्यामनाथ के नाम पर है। दिल्ली में विधानसभा के पहले महानगर परिषद होती थी। उसका प्रमुख चीफ काउंसलर होता था। जो वर्तमान सीएम के बराबर होता था। इस पद को राधा रमण अग्रवाल ने सुशोभित किया था। विधानसभा बनी तो पहले स्पीकर भी चरती राम गोयल बने।

#धनवानों_में_दिल्ली_के_अग्रवालों_का_दबदबा

उसमें धनवानों का जिक्र भी आता है। लाला सुल्तान सिंह की चालीस हजार गज से ज्यादा जमीन कश्मीरी गेट पर थी। अपने समय के बहुत बड़े धनवान थे। अंग्रेज अधिकारी भी इनके यहां आते थे। 1920 में इनके बेटे लाला रघुबीर सिंहने मार्डन स्कूल की स्थापना की। स्कूल अब 100 साल का सफर पूरा करने वाला है। दिल्ली के सबसे बड़े धनवान व नगर श्रेष्ठि गुड़वाले थे। रामदास जी गुड़वाले मालीवाड़ा में रहते थे। 1857 के पहले भारत के चार सर्वाधिक धनी व्यक्तियों में इनकी गिनती थी। 1857 के पहले बादशाह बहादुर शाह जफर के विश्वास पात्रों में से एक थे। रामदास के पूर्वजों के नाम के साथ गुड़वाले शब्द जुडऩे का भी दिलचस्प किस्सा है। दरअसल, ये लोग बहुत दानी थे। यात्रियों के लिए जगह जगह पानी और गुड़ की व्यवस्था करते थे। इसलिए गुड़वाले नाम से ही प्रसिद्ध हो गए थे। ये हुंडी पर्ची का काम करते थे। हुंडी पर्ची को दिखाकर पूरे देश में कैश कराया जा सकता था। बादशाह हर दिवाली, ईद इनके आवास पर आते थे और ये, उन्हें एक लाख अशर्फी उपहार में देते थेे। इनकी हवेली इतनी बड़ी थी कि उसमें 12 दरवाजे थे। कहते हैं कि 1857 के विद्रोह के दौरान बादशाह को इन्होंने 3 करोड़ रुपये उधार दिए थेे। विद्रोह विफल होने के बाद लाला रामदास पर अंग्रेजों ने कुत्ता छोड़ दिया, उनकी मौत हो गई। जब बाद में अंग्रेजों को अपनी गलती का एहसास हुआ तो इनके बेटे को मजिस्ट्रेट, दिल्ली नगर परिषद का सदस्य बनवाया। उनके पास बादशाह का फरमान भी है। रामदास जी किस कदर शक्तिशाली थे इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उस समय के जारी कई शाही सिक्कों पर एक तरफ बादशाह तो दूसरी तरफ उनके चित्र थेे। गुड़वाले के नाम पर करोल बाग में एक गुड़वाली गली भी है। दिल्ली ट्राम चलाने वाली कंपनी में इसी गुड़वाले के खानदान के लाला श्रीदास डायरेक्टर भी रहे थे।

#कोतवालों_का_खानदान

लाला श्रीराम का परिवार कोतवालों के खानदान के रूप में प्रसिद्ध है। इनके पूर्वज दिल्ली के कोतवाल थे। बाद में फिरोजपुर गए एवं फिर दिल्ली वापस आए। 1882 के आसपास गुड़वाले, कोतवालों के खानदान  और चुनामल के खत्री परिवार ने मिलकर साझेदारी में दिल्ली क्लॉथ मिल की स्थापना की। जो उत्तर भारत की सबसे बड़ी क्लॉथ मिल थी। यह 37 एकड़ में फैली हुई थी। कोतवालों का परिवार दिल्ली में ही रहता था। 1857 में लाला बद्रीदास दिल्ली और फिरोजपुर के कोतवाल बने। 1865- 84 तक ये बैंक ऑफ बंगाल, लाहौर के मुख्य कार्यालय के खजांची भी रहे। फिरोजपुर छावनी भी इन्होंने ही बसाई। इन्हीं के समय में कोतवालों का खानदान कहना शुरू हुआ।

#मुगल_बादशाह_के_खजांची_शाहदीप_चंद :

ये मुगल बादशाह शाहजहां के समय में खजांची थे। ये #हिसार से दिल्ली आए थे। इन्हें दरीबाकलां में 5 बीघा जमीन दी गईं थी ताकि इनका परिवार रह सके। कहते हैं, उस समय दरबार में सात तरह के सम्मान से नवाजा जाता था। जामा मतलब गाउन, पाजामा, चद्दर, पगड़ी, कलतुर्रें वाली कली आदि। शाहदीप को इन सातों से नवाजा गया था।

#दिल्ली_के_पुराने_अग्रवाल_संगठन

1-प्राचीन श्री अग्रवाल दिगंबर जैन पंचायत

यह बहुत बड़ी पंचायत है। जिसमें दिल्ली, पानीपत, हिसार की पंचायतें हैं, यह 250 साल पुरानी है। अग्रवाल जैन इसके सदस्य थे। यह पंचायत 22 मंदिरों का प्रबंधन है। जिसमें दिल्ली के भी कई मंदिर हैं।

2-बड़ी पंचायत

1890 के आसपास इस संस्था की स्थापना हुई। यह निगमबोध घाट का प्रबंधन देखती है। यहां विकास कार्य, मूर्तियां समेत अन्य काम करवाते हैं। सीताराम बाजार में इसका ऑफिस है।

3-दिल्ली अखिल भारतीय अग्रवाल सम्मेलन

यह 1976 से चल रहा है। अग्रवालों के बीच मेल जोल बढ़ाने, समाज में बेहतर कार्य करना मकसद है।

#प्रमुख_कारोबारी

वर्तमान में जयपुरिया परिवार, जिंदल ग्रुप, डीसीएम ग्रुप, बिकानेर, हल्दीराम, हेवेल्स, राजधानी बेसन वाले सरीखे बड़े कारोबारी इसी समाज के हैं।

दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री श्री अरविंद केजरीवाल भी अग्रवाल समाज से आते हैं।

साभार: दैनिक जागरण, संजीव कुमार मिश्र 

Friday, March 6, 2020

SHEKHAWATI - शेखावटी - भारत के आद्योगिक राजधानी

शेखावटी - भारत के आद्योगिक राजधानी

#शेखावटी को आमेर राजघराने के कुंवर महाराव #शेखा जी ने बसाया था. शेखा जी कच्छवाह राजपूत थे. कछवाहा अर्थात श्री राम के पुत्र कुछ के वंशज. इन्हीं राव शेखा जी के नाम पर शेखावत वंश चला.

शेखावटी में वैसे तो राजपूतो का वर्चस्व रहा है और है लेकिन यहां की वैश्य याने बनिया या अग्रवाल जिन्हें मारवाड़ी भी कहते है, इन्होंने दुनिया भर में अपने व्यापारिक कला के दम पर राज किया।इनको व्यापारिक कार्य कुशलता से ज्यादा कुछ कर दिखाने की ललक ने इन्हें विश्वपटल पर पहचान दिलाने में बड़ी भूमिका निभाई। भारत के टॉप 10 सबसे अमीर आद्योगिक घरानों में 3 (मित्तल, बिड़ला और रुइया) तो अकेले शेखावटी अंचल से हैं।

आज शेखावाटी विश्व के बड़े धनी क्षेत्रो में से एक आता है, यहां गरीबी ना के बराबर है, आज से 200-300 साल पहले यहां की सम्रद्धि क्या थी, यह यहां के मारवाड़ी बणियों की हवेलियां ही बता देती हैं।

#अग्रवालों की जन्मभूमि #अग्रोहा जरूर थी लेकिन शेखावटी के अग्रवालों ने देश-धर्म और भारत की अर्थव्यवस्था के लिए जो किया वो मिसाल है. #गीताप्रेस जो हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी धार्मिक प्रेस के उसके संस्थापक #जयदयालगोयनका जी और #हनुमानप्रसादपोद्दार जी दोनों शेखावटी के लाल थे. इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के खिलाफ सबसे तीव्र स्वर में आंदोलन चलाने वाले और प्रेस के आजादी के पुरोधा इंडियन एक्सप्रेस के मालिक #रामनाथगोयनका जी हों, या भारत के कॉटन किंग कहे जाने वाले #गोविंदरामसेकसरिया, या विश्व के स्टील किंग #लक्ष्मीनिवासमित्तल, या महान प्रखर गांधीवादी और स्वतंत्रता सेनानी #जमनालालबजाज हों, सभी शेखावटी के अग्रवाल हैं. शेखावटी का रामगढ़ जिला जो अपने समय का सबसे बड़ा आद्योगिक जोन था उसके संस्थापक पोद्दार और रुइया भी बंसल गोत्र के अग्रवाल थे। #माहेश्वरीयों का #बिड़लाघराना भी शेखावटी के झुंझुनू जिले के हैं. इसी झुंझुनू में अग्रवाल कुलावतंस #राणीसतीदादी जी का भव्य मंदिर है. सिंघानिया से लेकर डालमिया घराने तक तमाम आद्योगिक घराने शेखावटी से ही निकले हैं जिन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूती दी.

सिर्फ व्यापार जगत में ही नहीं बल्कि वीरता में भी शेखावटी ने अपना लोहा मनवाया है. इसके बाद इस शेखावाटी क्षेत्र को फ़ौज की फैक्ट्री भी माना जाता है । राजस्थान में अब तक सभी जिलों में मिलाकर 1550 जवान वीरगति को प्राप्त हुए है, उसमें से 760 जवान तो मात्र शेखावाटी के है. राजस्थान का हर दूसरा शहीद शेखावाटी से होता है. राजस्थान का पहला परमवीर चक्र शेखावटी अंचल के #मेजरपिंटूसिंह_शेखावत जी को मिला था।

शेखावटी के वीर राजपूतो ने जहाँ देश के माटी की रक्षा की वही यहां के व्यापारियों ने देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में अपना अमूल्य योगदान दिया...

साभार: प्रखर अग्रवाल की फेसबुक वाल 

MAHARAJA AGRASEN - अग्रवाल राजवंश की ज्योति : सम्राट अग्रसेन

अग्रवाल राजवंश की ज्योति : सम्राट अग्रसेन

भारतीय इतिहास के अनेक अध्याय अभी अलिखित हैं और लिखित के भी अनेक पृष्ठ अपठित।भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के उत्थान में जिन महापुरुषों ने अपना योगदान दिया इतिहास के पन्नो में उनका नाम तो स्वर्णाक्षरों से अंकित है किंतु उनमे से कुछ ऐसे भी हैं जिनके बारे में विस्तार से बताने में इतिहासकार प्रायः मौन हो जाते हैं। ऐसे ही महापुरुषों में एक हैं अग्रोहा नरेश सम्राट अग्रसेन। अग्रवाल एवं राजवंशी समुदाय के आदि पुरुष साम्राट अग्रसेन उन चक्रवती  राजाओं में से एक हैं, जिन्होंने अपने क्षत्रियोचित पराक्रम से ना केवल एक विशाल गणराज्य की स्थापना की बरन अपने विजित विशाल साम्राज्य को " एक मुद्रा- एक ईट" जैसे अभूतपूर्व समाजवादी सिद्धांत द्वारा एक सूत्र में पिरोकर समाजवाद की एक आदर्श मिशाल प्रस्तुत की। एक ऐसा समाजवादी सिद्धांत जो न पहले कहीं सुना गया था न बाद में किसी राज्य में दिखाई पड़ा। सच्चे अर्थों में सम्राट अग्रसेन समाजवाद के जनक थे।
सम्राट अग्रसेन के जन्म, वंश एवं विवाह को लेकर इतिहासकारों में काफी मत भिन्नताएं हैं पर विभिन्न ऐतिहासिक अभिलेखों, उत्खनन से प्राप्त मुद्राओं , शिलालेखों, पौराणिक आख्यानों , जनसमुदाय में प्रचलित किवदंतियों , भाट चरणों की विरुदवालियों आदि के आधार पर कुछ तथ्य स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आये है जिनके अनुसार ये सरस्वती नदी के किनारे आबाद वैदिक कालीन "आग्रेय-गण" के राजा थे, जो सूर्यवंशी क्षत्रियों की एक शाखा थी।यह काल सिंधु-सरस्वती सभ्यता का उद्गम काल था। नगरीय सभ्यता का प्रसार हो रहा था।धीरे धीरे राजतंत्रात्मक शाशन पद्धति प्रचलन में आ रही थी किन्तु यह अभी शैशवावस्था में थी । बड़े नगरों का विकाश शुरू हो चूका था। गणों के बीच साम्राज्यवादी विस्तार की होड़ मची हुई थी। बड़े गण छोटे गणों को जीत कर राजतन्त्र में परिवर्तित हो रहे थे। पहले राजा का चुनाव होता था किंतु राजतन्त्र में राजपद वंशानुगत होने लगा। महाराजा अग्रसेन ने भी अपने आसपास आबाद सत्रह अन्य गणों को जीत कर एक सशक्त गणराज्य की नींव रखी जो आगे चलकर  इनके नाम पर आग्रेय गणराज्य कहलाया। महाराजा अग्रसेन ने भी राजतंत्रात्मक शासन पद्धति को अपनाया किन्तु राजतन्त्र में गणतंत्र का एक नया प्रयोग किया। इन्होंने अपने राज्य को 18 गणों में विभाजित कर जीते हुवे गणों की आतंरिक संरचना में कोई परिवर्तन ना करते हुवे उस गण के मुखिया को उस गण का अधिपति राजा बना दिया। इस प्रकार आग्रेय गणराज्य 18 गणों का एक विशाल राज्य बन गया जिसके प्रत्येक गण का अधिपति उसी कबीले का मुखिया था और केंद्रीय शक्ति महाराजा अग्रसेन के हाथों में थी। महाराजा अग्रसेन ने अपने राज्य के बीचोंबीच एक अत्यंत रमणीय एवं वैभवशाली "अग्रोदक" नगर की स्थापना कर उसे अपने राज्य की राजधानी बनाया। अग्रोदक राज्य की कुलदेवी महालक्ष्मी थीं। महाराज अग्रसेन ने राज्य के मध्य में एक भव्य श्रीपीठ की स्थापना करवाई थी। जिसमें वेद पारंगत ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मंत्रों से हरिप्रिया लक्ष्मी की स्तुति होती थी। राज्य की खुशहाली के लिए इन्होंने 18 राजसू यज्ञ किये जिनमे 17 तो पूर्ण हो गए किन्तु 18वें में पशुबलि से इन्हें घृणा हो गयी। वह यज्ञ अधूरा रह गया। इन्होंने अपने राज्य में तत्काल पशुवध पर रोक लगा दी और पशुपक्षियों पर होने वाली हिंसा को राज अपराध घोसित कर दिया इसके साथ ही यह घोषणा भी की कि सम्पूर्ण आग्रेय गण वाशी एक कुटुंब की तरह रहेंगे और प्रत्येक व्यक्ति अपने पितृ पक्ष- मातृ पक्ष के गण को छोड़कर शेष अन्य गणों के मध्य ही वैवाहिक संबंध कायम करेगा ताकि रक्त वर्ण की शुद्धि बनी रहे। इन्होंने अपने राज्य में "एक मुद्रा- एक ईंट " की रीति चलायी जिसमे राजधानी अग्रोदक नगरी में आकर बसने वाले प्रत्येक गरीब परिवार को संपूर्ण अग्रोदक वाशी एक एक मुद्रा और एक एक ईंट देंगे ताकि वह अपना निवास बना कर अपना व्यवसाय करने लगे। सहकारिता की यह भावना पुरे विश्व में कहीं देखने सुनने को नही मिलती। यही कारण है कि अग्रोदक की गिनती उस उस वक्त के प्रमुख बड़े व्यापारिक नगरों में होती थी। इस प्रकार महाराजा अग्रसेन समाजवाद के पुरोधा थे जिन्होंने जनमानस में सहकारिता की भावना विकसित की और देश को समाजवाद की राह दिखायी। पौराणिक उपाख्यानों के अनुसार इनका जन्म अश्वनी शुक्ल प्रतिपदा को हुआ था और इनका विवाह नागवंशी राजा महीधर की कन्या राजकुमारी  माधवी के साथ हुआ था। ईसापूर्व की चौथी शताब्दी तक आग्रेय गण एक शक्तिशाली गणराज्य रहा जिस पर अग्रवालों का एकक्षत्र साम्राज्य रहा। ईसापूर्व की छठी शताब्दी आते आते सभी जनपद व गणराज्य साम्राज्यवादी विस्तार में लग गये। बड़े जनपद अपनी सीमाओं का विस्तार कर महाजनपद बन गये।पूर्ववर्ती काल में पांचाल एवं कुरु जनपद ने एवं परवर्ती काल में मगध जनपद ने सबसे अधिक साम्राज्यवादी विस्तार किया। महाभारत युद्ध के पूर्व कौरवों के दिग्विजय प्रसंग में राजा कर्ण द्वारा इस राज्य को नीति पूर्वक अपने अधीन करने का उल्लेख महाभारत महाकाव्य के वनपर्व में आया है। महाभारत युद्ध के बाद हुयी राजनैतिक उथल पुथल से महाजनपदों ने मांडलिक राज्यों का रूप ले लिया एवं अनेक अन्य छोटे छोटे नये राज्यों का भी उदय हुआ। ये राज्य आपस में लड़ते रहते थे। आग्रेय गण को भी लगातार आक्रमणों का सामना करना पड़ रहा था जिससे उसकी आतंरिक शक्ति दिन प्रति दिन कमजोर होती जा रही थी और अंततः इसा पूर्व 326 में हुवे यूनानी सम्राट सिकंदर के आक्रमणों को अग्रेय गण नही झेल पाया। हालाँकि अग्रेय वीरों ने सिकंदर का डटकर सामना किया किन्तु यवनों की विशाल सेना के आगे ये ज्यादा देर तक टिक न सके और अंततः अग्रोदक नगर पर सिकंदर का अधिकार हो गया। यूनानी इतिहास्कार लिखते हैं कि विश्वविजय का सपना ले के निकले सम्राट अलेक्जेंडर ( सिकंदर) को असकेनिय/ अग्लोनिकाय ( अग्रश्रेणी/ अग्रेय गण) के लोगों ने कड़ी टक्कर दी। उनके साथ हुवे युद्ध में सिकंदर घायल भी हुआ पर कूटनीति का प्रयोग कर अंततः सिकंदर की सेना विजयी हो गयी। सिकंदर की गुस्साई सेना ने इनके प्रमुख नगर अग्रोदक( अग्रोहा) को आग के हवाले कर दिया था। इस प्रकार अग्रेय गणराज्य का अस्तित्व हमेशा के लिए समाप्त हो गया। वहां से निष्क्रमण कर ये अग्रेयवंशी भारत के विभिन्न भागों में फैल गये और आजीविका के लिए तलवार त्याग कर तराजू पकड़ लिये। ये जहाँ भी जाते अपना परिचय अग्रेय वाले के रूप में देते। यही अग्रेयवाले शब्द भाषाभेद एवं स्थानभेद से "अग्रवाले" होता हुवा "अग्रवाल" पड़ गया। वहीँ इनकी एक शाखा सामंत राजाओं के रूप में बड़े साम्राज्यों के अधीन छोटे छोटे भूभाग पर शासन करती रही और आगे चलकर " गुप्त साम्राज्य" जैसा बड़ा राज्य स्थापित किया।  ईसवीं की छठी शताब्दी आते आते इनके राज्याधीन प्रान्तों पर जाटों एवं राजपूतों का अधिकार हो गया और अग्रवाल जाति पूरी तरह से राज्यच्युत हो गयी। अठारह कुलों का यह समूह आज संपूर्ण विश्व में " अग्रवाल" नाम से जाना जाता है। ये अठारह कुल आज इनके गोत्र कहलाते है। राज्य छिन जाने पर राजपूत काल में अग्रवाल पूरी तरह से व्यापार व व्यवसाय पर आश्रित हो गए और दसवीं शताब्दी आने तक इनकी गणना क्षत्रिय वर्ण होते हुवे भी वणिक जातियों(वैश्य वर्ण या बनियों) के साथ होने लगी। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी अग्रवाल समुदाय की प्रमुख भूमिका थी। गरमदल के प्रमुख लाल बाल पाल तिगड़ी के लाला लाजपत राय, गांधी युग के  भामशाह जमनालाल बजाज, रामजीदास गुड़वाला, हिसार के लाला हुकुमचंद जैन जी का नाम इनमें अग्रणी है। अग्रवाल आज भले ही किसी साम्राज्य के शासक न हो पर इन्हें व्यावसायिक जगत का सम्राट माना जाता है। देश के अधिकांश औद्योगिक समूह इसी समाज के हाथों में है। इसके अतिरिक्त धर्म- संप्रदाय- जाति भावना से ऊपर उठकर समाजसेवा के मामले में भी इस समुदाय का कोई सानी नही है।  इनके द्वारा बनवाये हुवे मंदिर एवं धर्मशालाएं देश के कोने कोने में देखने को मिल जाते हैं। हिन्दू धर्म की संजीवनी गीताप्रेस गोरखपुर मारवाड़ी अग्रवालों की देन थी। महाराजा अग्रसेन के सिद्धांत आज भी इस समाज के हर व्यक्ति की रगों में दौड़ते हैं।  वैसे महापुरुषों को किसी एक जाति या समाज से बांध कर नही रखा जा सकता वो तो संपूर्ण राष्ट्र की धरोहर होते हैं। ऐसे ही महाराजा अग्रसेन भी संपूण भारतवर्ष की धरोहर हैं। उनके समाजवाद और अहिंसा के सिद्धांत संपूर्ण देशवाशियों के लिए अनुकरणीय हैं।उनके बताये हुवे रास्ते पर चलना ही इन पौराणिक महापुरुष के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

      जय अग्रोहा- जय अग्रसेन

OYO RITESH AGRAWAL - रितेश अग्रवाल


साभार:  दैनिक भास्कर 

Wednesday, March 4, 2020

RAMGARH SETHAN - वैश्य महाजनों की कर्मभूमि

रामगढ़ शेखावटी : #अग्रवाल_हेरिटेज

रामगढ़ सेठान बंसल गोत्र के अग्रवाल महाजनों ने बसाया था। ये अपने समय के सबसे अमीर नगरों में से एक था। वैसे तो शहर अपने राजा के नाम से जाने जाते हैं लेकिन राजस्थान का #रामगढ़_सेठान या रामगढ़ सेठोका जाना जाता है अपने सेठों की वजह है । इसके इतिहास से एक बहुत ही दिलचस्प कहानी जुड़ी हुई है । पोद्दार चुरू , राजस्थान में व्यापार करते थे । वो बहुत ही सम्पन्न व्यापारी थे । उनके आलीशान हवेलियां उसमे की गई नक्काशी उनके रुतबे को दर्शाती थीं । अब वहाँ के राजा को इनकी अमीरी देख के जलन हुई उन्होंने इनपे टैक्स बड़ा दिए और वो टैक्स इतने ज्यादा थे कि सेठों ने कहा ये गलत है और इसका विरोध किया । और विरोध इतना ज्यादा बढ़ गया कि पोद्दारों ने कहा "हम चुरू छोड़ के जा रहे हैं और जहाँ भी जाएंगे वहाँ इससे भव्य और आलीशान नगर बसायेंगे ।"


रामगढ़ 1791 में सेठान #रामदासपोद्दार परिवार ने बसाया था । ये राजस्थान के #सीकर जिले में पड़ता है । रामदास पोद्दार ने #राजस्थानी कि इस कहावत 'गांव बसायो #बाणियों ,पार पडे़ जद जाणियों ' को असत्य सिद्ध कर दिया । उस समय दूसरे शहरों से संपन्न सेठ वहां आकर बसे । फतेहपुर के बंसल वहां आकर बसे जिनका रुई का व्यवसाय होने के कारण रुईया कहलाये । वहां के सेठ ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ व्यवसाय करने लगे ।1860 ई. के आसपास रामगढ़ के पोद्दारों की प्रथम पंजीकृत कम्पनी 'ताराचंद- घनश्याम ' 'थी ।उसी कम्पनी के साथ पिलानी की शिवनारायण बिड़ला (घनश्याम दास बिड़ला के दादा )ने नाममात्र की हिस्सेदारी के साथ प्रथम बार स्वतंत्र व्यापार में प्रवेश किया ।घनश्यामदास बिड़ला की जीवनी 'मरुभूमि का वह मेघ' में कंपनी का नाम 'चेनीराम जेसराज 'लिखा है ।वे बंबई में अफीम का व्यवसाय चीन के साथ करते थे । ध्यातव्य है कि शिवनारायण के पिता शोभाराम तो पूर्णमल गनेडी़वाले सेठों की गद्दी पर अजमेर में 7 रुपये महीने पर नौकरी करते थे । रामदास पोद्दार #बंसलगोत्र का #अग्रवाल महाजन था । उनके पूर्वज शासन में पोतदार (खजांची )थे ।अतः वे पोद्दार कहलाए ।प्राचीन भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था जन्म से नहीं थी ।वर्ण का निर्धारण जन्म से नहीं बल्कि कर्म से होता था। वैदिक युग में वैवस्वत मनु के पुत्र नाभानिर्दिष्ट की कथा प्रसिद्ध है । जिन्होंने अपने पिता के क्षत्रिय वर्ण को छोड़ कर वैश्य वर्ण का वरण कर लिया था । #अग्रवाल, #महेश्वरी आदि कुल के #महाजन पहले #क्षत्रिय थे परंतु उनके पूर्वज क्षत्रीय कर्म छोड़कर वैश्य कर्म करने लगे ।अतःवैश्य कहलाए । वह अपने क्षत्रीय अतीत को याद रखते हुए अपनी व्यवसाय पीठ को आज भी गद्दी कहते हैं। #शेखावाटी में बसने से पहले उनका #पंजाब और हरयाणा क्षेत्र में व्यवसाय था । पंजाब और #हरयाणा प्रारंभ से ही क्षेत्र सिंचित क्षेत्र होने के कारण संपन्न थे वहां व्यापार वाणिज्य खूब फला फूला । वहां के व्यापारियों के अफ़गानिस्तान ,चीन ,फारसआदि से व्यापारिक रिश्ते थे ।वह 'बलदां खेती' घोड़ा राज 'का जमाना था ।काबुल के व्यापारी घोड़े ,पिंडखजूर आदि लेकर के आते थे ।#रवींद्रनाथटैगोर की सुप्रसिद्ध कहानी 'काबुलीवाला' कहानी का कथानक भी यही है। काबुल के घोड़े बड़े प्रसिद्ध होते थे । कहा भी है -केकाण(घोड़े) काबुल भला । महाराणा प्रताप का घोडा़ चेटक (अर्थ-सेवक) भी काबुल का ही था ।कालांतर में उत्तर की ओर से विदेशी हमले होने लगे तो उन्होंने किसानों की आबादी से घिरे दुर्गम, शांत व असुन्दर स्थानों को अपने बसने के लिए चुना । इसी क्रम में शेखावाटी में आबाद हुए ।मरुभूमि का मतलब मृतभूमि होता है परंतु यहां के वीरों -दानवीरों ने इसे अमृतभूमि बना दिया । #कन्हैयालालसेठिया ने इसीलिए लिखा -आ तो सुरगां ने सरमावै, इण पर देव रमण ने आवै ,धरती धोरां री -----।उन्होंने यहां स्थापत्य कला में बेजोड़ हवेलियां बनाई जो सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत होने के साथ-साथ रहने के लिए भी काफी अच्छी थी । रामगढ़ सेठान की हवेलियां भी बडी़ चित्त -आकर्षक हैं । सीकर के राजमहल में रामगढ़ के सेठों का बड़ा सम्मान था। एकबार किसी गांव के एक गांववाले ने सीकर के महाराज से शिकायत की आप रामगढ़ वालों पे इतना ज्यादा ध्यान क्यों देते हैं । राजा ने उनकी परीक्षा ली कहा कि तुमलोग 1 करोड़ रुपये का प्रबन्द करो अभी । और पूरे सीकर में । लोगों ने मना कर दिया कहा ऐसा नहीं हो सकता है । फिर राजा ने अपने मंत्रियों से कहा कि रामगढ़ जाओ और सेठों को बोलो की महाराज को इस समय एक करोड़ रुपये चाहियें (इस समय के करीब अरबों में ) । मंत्री गए और सेठों को बताया । सेठों ने कहा कि राजा से पूछो की रुपये ,अन्ना ,पैसे किसमे चाहिए ? मंत्री आये और राजा को बताया । राजा ने कहा अब समझे मैं रामगढ़ सेठान का इतना ध्यान क्यों रखता हूँ ।

1835 के रामगढ़ की एक झलक #लेफ्टिनेंटबोइलू की डायरी में मिलती है ।जिसने मरू प्रदेश की उस वर्ष यात्रा की उसने रामगढ़ को एक समृद्ध सीमा स्थित कस्बे के रूप में जो स्वच्छता के साथ साथ घेरे के अंदर स्थित है और साहूकारों से भरा हुआ बताया है जिनकी कमाई पर अब तक किसी को न बक्शने वाली कैंची नहीं पड़ी है। सीकर ठिकाने के सीनियर अफसर कैप्टन वेब जो 1934 से 38 तक सीकर ठिकाने का सीनियर अफसर रहा ,ने 'सीकर की कहानी 'नामक अंग्रेजी में पुस्तक में अपने प्रवास के दौरान सीकर ठिकाने के संस्मरण लिखें हैं ।उसमें #कैप्टनवेब ने रामगढ़ के सेठों को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी बताया है है ।इसी कारण राज दरबार में भी उन्हें पूरा सम्मान मिलता था तथा विशेष कुर्सी रामगढ़ के क्षेत्रों को उपलब्ध करवाई जाती थी ।

मेरे मित्र जनकवि रामेश्वर बगड़िया ने मुझे कहा कि रामगढ़ को गर्भ को देखने चलें ।अतः 7 जनवरी, 2019 को हम दोनों रामगढ़ सेठान गए ।रामगढ़ में पुरातन वस्तुओं के संग्रहालय कई व्यक्तियों ने बना रखे हैं ।उनके माध्यम से वह अपना व्यवसाय करते हैं ।देश -विदेश के पर्यटक उन्हें देखने व खरीदने आते हैं ।ऐसे ही एक संग्रहालय व फैक्ट्री के मालिक श्री मनोज जौहरी हैं । हम उनकी फैक्ट्री में गए ।उन्होंने हमें फैक्ट्री व उनके संग्रहालय में पुरातन वस्तुएं दिखाई ।पुरातन शैली में नवनिर्मित वस्तुएं भी देखी ।उसके बाद वे हमें रामगढ़ की हवेलियां दिखाने ले गए ।श्री मनोज ने हमें बताया की हर वैश्य सेठ नहीं कहलाता है ।सेठ एक पदवी है जो विभिन्न जनहितार्थ एवं संस्थाओं के निर्माण करने के बाद ब्रहमपुरी करके पंडितों द्वारा दी जाती है ।वे हैं , हवेली, बैठक, नोहरा ,बगीचा ,बगीची, कुआ ,बावड़ी ,तालाब प्याऊ ,पाठशाला आदि का बनवाना आवश्यक था । उन हवेलियों एवं सेठों से जुड़ी कई दंत कथाएं हैं ।एक हवेली के बारे में हमें श्री मनोज ने बताया कि यह मस्जिद वाली हवेली कहलाती है । इसके अंदर मजार बनी हुई है ।हम उसे देखने के लिए गए। हवेली में एक कमरे के नीचे सीढ़ियां उतर रही थी। श्री मनोज ने कहा ,इसी के नीचे मजार है ।श्री रामेश्वर बगड़िया, हम दोनों के मना करने पर भी उसमें टॉर्च लेकर उतर गए । उन्होंने कहा यह कोई मजार नहीं है बल्कि एक छोटा कमरा है ।दरअसल वह तहखाना था । लोगों को भ्रमित करने के लिए शायद सेठ ही ऐसा प्रचार कर देते थे ।दूसरी हवेली में हमने रंग महल देखा बहुत ही सुंदर चित -आकर्षक चित्र उस रंग महल में बने हुए थे जो आज भी मुंह बोल रहे थे ।हवेली में बादल महल,हवामहल ,पोल़ी,रसोई आदि बने हुए थे । उन्हें देख कर लगा कि 'खंडहर कह रहे हैं,इमारत कभी बुलंद थी '।वह हवेलियां आज इतनी विरान हैं कि वहां चमगादड़ भी नहीं रहते हैं ।उनसे जुड़ी हुई कई दंत कथाएं आज भी क्षेत्रीय बुजुर्गों की जुबान पर हैं । प्राचीन समय में रामगढ़ छोटी काशी के नाम से ख्यात था ।वहां अनेक पाठशालाएं थी ।

मैंने लिखा -

हवेली पहेली चित्र, लघु काशी पहचान ।

रामगढ़ सेठान विगत, शेखावाटी शान ।।

वहां के सेठों के बारे में भी अनेक दंत कथाएं हैं। एक सेठ ने सर्दियों में सियार बोलते हुए सुने तो मुनीम से पूछा सियार क्यों बोल रहे हैं तो मुनीम ने कहा यह सर्दी में ठिठुर रहें हैं ,इसलिए बोल रहे हैं ।सेठ ने दूसरे ही दिन सियारों के लिए रजाइयों की व्यवस्था कर दी । रूस के सुप्रसिद्ध लेखक रसूल हमजातोव ने अपनी मातृभूमि 'मेरा दागिस्तान ' पर एक पुस्तक लिखी है ।मुझे शेखावाटी के गर्भ को देखकर' मेरा दागिस्तान'का वर्णन याद आ गया । उन्होंने भारत के बारे में लिखा है कि वहां की पुरातन संस्कृति, उसके दर्शन में मुझे किसी रहस्यमय कंठ की ध्वनि सुनाई देती है ।रामगढ़ की उन वीरान हवेलियों में हमें भी रहस्यमय कंठ ध्वनियाँ सुनाई दे रही थी ।

शेखावाटी के बारे में राजस्थानी के कवि सुमेरसिंह शेखावत ने लिखा है --

#शेखाजीकीशेखावाटी, डीघा डुंगर बाल़ू माटी ।

बुध री भूर #बाणियां बांटी,जण में जाट जंगलां जांटी ।।

अर्थात बुद्धि शेखावाटी के हिस्से में आई उसे तो बणियों ने ही आपस में बांट लिया । किसी का भी शासन हो सेठों ने अपनी तराजू के बल पर तख्त से सांठगांठ रखी । मुगल काल में शेखावाटी मे बनाए सेठों के कुएं के ऊपर उन्होंने मीनारें बना दी ताकि मुस्लिम शासक मस्जिद की मीनारों की तरह ही उन्हें भी पवित्र मानते हुए पानी को प्रदूषित नहीं करें ।व्यापारिक दक्षता उनमें बहुत अच्छी रही इसलिए राजस्थानी में एक कहावत है 'बिणज करेला वाणिया और करेला रीस'। #गीता में कहा है -'कृषिगौरक्षदाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्' ।

यहां के धन्ना सेठ धोरों से हिलोरों तक गये परंतु मातृभूमि के प्रति भाव हिलोरें हमेशा उनके ह्रदय में उमड़ती रही ।कहा है #जननीऔरजन्मभूमिस्वर्गसेभीबढ़करहोतहैं उन्होंने अपनी जन्मभूमि को स्वर्ग माना । हर साल वे जन्म भूमि की तीर्थ यात्रा पर आते । उनकी भावनाओं को दर्शाने वाला एक गीत है 

'देश ने चालो जी ढोला मन भटके, काकड़ी मतीरा खास्यां खूब डटके ।'

वे दिन चले गए, वे लोग चले गये परन्तु रेत पर सुकेत बना अमिट हस्ताक्षर छोड़ गये ।आज सातवीं -आठवीं पीढ़ी सेठों की अपनी मातृभूमि को भूलते जा रही है। हवेलियां तो आज भी 'पधारो म्हारे देश' का आह्वान कर रही हैं ।इसी को वर्णित करते हुए एक कवि ने लिखा है ।

सेठ बस #कोलकाता ,#मुंबई #डिब्रूगढ़ #आसाम ।

जाकर ठाड़े बैठ्या, काटे उम्र तमाम ।।

कुण सूं मुजरो करे #हवेलियां ,बरसां मिले न #राम ।

बाटड़ली जोवे आवण री,गोखे बैठी शाम ।

साभार: प्रखर अग्रवाल की फेसबुक वाल 

BHAVISH AGRAWAL - OLA CAB

DR. YOGI ARON - डॉ. योगी एरान


दिल्ली प्रदेश के नवनिर्वाचित वैश्य विधायक

No photo description available.

RADHAKRISHNA DAMANI MARKET KING




MAHARAJA AHIRBARN - महाराज अहिबरन जी बरनवाल

महाराज अहिबरन जी बरनवाल जाती के आदि पुरुष और शहर बरन ( बुलंदशहर ) के जन्म दाता का संक्षिप्त परिचय :-

बरनवाल जाती के आदि पुरुष महाराज अहिबरन सुर्यवंश की २१वीं पीढ़ी में होने वाले चक्रवर्ती सम्राट महाराज मान्धाता के तृतीय पुत्र राजा अम्बरिस के वंशज थे , जिन्होंने चन्द्रावती में राज्य स्थापित किया था | राजा अम्बरिस के वंशज राजा धर्मपाल की सातवी पीढ़ी में राजा समाधिर के दो पुत्र राजा गुणाधि व राजा मोहनदास हुए | मोहनदास की दशवी पीढ़ी में अग्रवाल जाती के आदि पुरुष महाराज अग्रसेन पैदा हुए और अपना अलग राज्य स्थापित किया बड़े पुत्र गुणाधि अपने प्राचीन राज्य के स्वामी रहे | उनके दो लड़के राजा धर्मदत व राजा सुभंकर थे | राजा धर्मदत की संतानों ने अपना अलग-२ राज्य स्थापित किया जिनकी संताने आजकल वैश्य राजपूत कहलाती है | इन्हीं के वंश में एतिहशिक ख्याति प्राप्त राजा हर्षवर्धन हुए थे |

भारतेंदु हरिश्चंद्र की 1871 ई० में प्रकाशित पुस्तक ‘ अग्रवालो की उत्पत्ति ‘ मे जनश्रुतियों एवं प्राचीन से संग्रहित वंशावली परम्परा का वर्णन है जिसका विशेष भाग श्री महालक्ष्मी व्रत कथा से लिया गया है | प्रस्तुत वंश परम्परा मे समाधी के दो पुत्रों यथा गुणाधीश से बरन ( बरंवालो के पूर्व पुरुष ) तथा मोहन से अग्रसेन ( अग्रवालों के पूर्व पुरुष ) कि उत्पत्ति दिखाई गयी है |


ज्येष्ठ पुत्र सुभंकर की संतान अपने पैत्रिक राज्य चन्द्रावती में राज्य करती रही | इन्हीं की संतान राजा तेंदुमल तथा इनके वंशज महाराज वाराक्ष हुए जो महाभारत के युद्ध में धर्म का पक्ष ले पांड्वो के पक्षपाती बनकर वीरगति को प्राप्त हुए | शेष लोग चन्द्रावती में तूफ़ान आ जाने के कारण चन्द्रावती छोड़कर उतर भारत चले आये | महाराज वाराक्ष के वंशजो ने हाश्तिनापूर के सम्राट की अधिन्स्थता में ‘ अहार ‘ नामक स्थान में अपने राज्य की नीव डाली | महाराज वाराक्ष की पीढ़ी में राजा परमाल हुए | राजा परमाल से महाराज अहिबरन हुए | महाराज अहिबरन का विवाह अन्तव्रेदी में इक्षुमती नदी के पशिमी भाग में स्थित वरण वृक्षों के सघन वन में निवास करने वाले खाण्डवो की पुत्री वरणावती से हुआ |

राज्याभिषेक के पश्चात् आर्य नरेश महाराज अहिबरन ने खाण्डव वन को कटवा कर ‘ वरण ‘ नाम का नगर बसाया | इक्षुमती नदी को तब से वरणावती नदी कहा जाने लगा | वरणावती नदी के पश्चिम वरण वृक्षों का सघनक्षेत्र वरणाः जनपद कहलाने लगा | इसे ही अपनी राजधानी बनाकर महाराज अहिबरन ने चन्द्रावती राज्य का विस्तार किया फिर चन्द्रावती से वरणावती तक और वर्तमान काली नदी से भद्रावती तक का क्षेत्र ‘ बरन ‘ नगर नामक राजधानी से संचालित होता था | बरनवाल वंश के अग्रज राजा परमाल ने एक नया शहर आबाद किया था जिसके अंश अबतक बुलंदशहर जेलखाने के १५०गज की दूरी पर देखे जा सकते है | काली नदी के आस पास की भूमि से वह स्थान काफी ऊँचा था अतैव साधारण जन समुदाय ने उस समय ऊँचा नगर ( कोट ) के नाम से प्रशिद्ध हो गया |

मुग़ल शासन काल में बरन शहर का फारशी नाम बुलंदशहर कर दिया गया किन्तु अदालत में आज भी बरन शहर ही लिखा जाता है | महाराज अहिबरन ने उस समय एक दुर्ग किला भी बनवाया था | जहाँ वर्तमान समय में कलेक्टर साहेब की कोठी बनी है |

शहर ‘ बरन ‘ ( बुलंदशहर ) में महाराज अहिबरन की संतानो ने 3800 सौ वर्षो तक राज्य किया | दशवीं शताब्दी के अन्त में समय ने पलटा खाया | हिन्दुओ में चहुँदिशि द्वेषानल प्रज्ज्वलित हो उठी जिसका अंतिम परिणाम हिन्दू राज्यों का पतन हुआ |मुग़ल के प्रबलय तथा तैमुर लंग द्वारा निर्ममता से बध कराये जाने एवं क्रूरतापूर्वक धर्म परिवर्तन कराये जाने से बाध्य होकर धर्म एवं मान – सम्मान की रक्षा हेतु वंश के कुछ लोगो ने अपना सर्वस्व वही छोड़कर देश के अन्य भागो में विशेषकर पूर्व की तरफ वह भी सुदूर देहाती क्षेत्रो में विस्थापित होने को विवश हुए और सब कुछ अपना छुट जाने के कारण तराजू उठाने को मजबूर होना पड़ा और इन्हें समाज द्वारा वैश्य कहा जाने लगा | अपने ही वंश के जिन लोगो ने इश्लाम धर्म को कुबूल कर लिया वे अपने को बरनि मुश्ल्मान कहते है | जिनके वंशज आज भी बुलंदशहर में देखे जा सकते है |

कुछ काल के पश्चात् शांति होने पर आस पास के छिपे बरनवाल ( बरन शहर के निवासी ) बंधु पुनः वापस चले आये और कुछ राज्य कर्मचारी बन गए तथा कुछ वाणिज्य कार्य में लग गए जिनकी एक अच्छी संख्या बुलंदशहर में है |

डा० प्रेम प्रकाश बरनवाल वैसे तो महाराज अहिबरन जी के सन्दर्भ में हमारे स्वजातीय बंधुओ स्वर्गीय श्री जगदीश प्रसाद जी बरनवाल ‘ कुंद ‘ आजमगढ़ , डा० उमेशपाल पूर्व प्रध्यापक बगिया नवाबपुरा (मुरादाबाद) , अमरनाथ बरनवाल पत्रकार खमरिया ( भदोही ) आदि ने काफी प्रयास कर उनके इतिहास को लिपिबद्ध किया है |
आदरणीय ‘ कुंद ‘ जी ने चौबीस विभिन्न पुस्तकों का , पत्र – पत्रिकाओ , गजेटियर्स , प्राचीन भारतीय इतिहास आदि का विशेष अध्यन कर महाराज जी की वंशावली ( जातीभाष्कर ) पर विश्तृत प्रकाश डाला है , जो श्री भारत वर्षीय बरनवाल वैश्य महासभा द्वारा प्रकाशित ‘ बरनवाल चन्द्रिका न्यास निदेशिका द्वितीय संस्करण वर्ष 2002 में उल्लेखित है | यह पुस्तक प्रायः हर बरनवाल परिवार में उपलब्ध है जिसका अवलोकन किया जा सकता है फिर भी एक संक्षिप्त परिचय यहाँ देना समीचीन है |

साभार: संकलित : शिवानन्द बरनवाल, वाराणसी

MOHIT GOYENKA - गोरखपुर के मोहित गोयनका की बड़ी उपलब्धि, बने याहू के डायरेक्‍टर

गोरखपुर के मोहित गोयनका की बड़ी उपलब्धि, बने याहू के डायरेक्‍टर 


गोरखपुर के मोहित गोयनका ने यूनाइ‍टेड स्‍टेट ऑफ अमेरिका में कामयाबी के झंडे गाड़ दिए हैं। उन्‍होंने अपने नाम बड़ी उपलब्धि दर्ज कराई है। 24 फरवरी को उन्‍होंने याहू डॉट इन (yahoo.in) के डायरेक्‍टर के पद पर ज्‍वाइन किया। उनकी इस उपलब्धि पर उनके परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई है। 

मोहित के पिता किशन गोयनका का शुक्रवार को दिल्‍ली के एक अस्‍पताल में मोतियाबिंद का ऑपरेशन हुआ। ऑपरेशन के बाद हुई 'हिन्‍दुस्‍तान' से हुई बातचीत में मोहित की इस उपलब्धि पर उन्‍होंने खुशी जाहिर करते हुए कहा कि यह सिर्फ उनकी नहीं सारे शहर की उपलब्धि है। मोहित की माता जी ने बताया कि वह 2009 में अमेरिका गए थे। इसके पहले वह सीनियर इंजीनियरिंग मैनेजर थे। 24 फरवरी को उन्‍होंने डायरेक्‍टर के रूप में ज्‍वाइन किया।  अमेरिका में कैलि‍फोर्निया की सिलिकान वैली से मोहित याहू डॉट इन की यह महत्‍वपूर्ण जिम्‍मेदारी सम्‍भालेंगे। 

दसवीं में मिला था गोल्‍ड मेडल 

मोहित शुरू से मेधावी छात्र रहे हैं। कक्षा दस में उन्‍होंने गोल्‍ड मेडल हासिल किया था। कक्षा पांच तक की पढ़ाई गोरखनाथ रोड स्थित स्प्रिंगर स्‍कूल से हुई। कक्षा छह से 12 तक की पढ़ाई धर्मपुर के लिटिल फ्लावर स्कूल से हुई। उन्‍होंने कैलिफोर्निया के यूनिवर्सिटी ऑफ सदर्न से एमएस (मास्‍टर ऑफ साइंस) की डिग्री हासिल की। उनका चयन 2012 में 'याहू डॉट इन' में इंजीनियर के पद पर हुआ। 2018 में वह सीनियर इंजीनियर बने। अब उन्‍हें डायरेक्‍टर के रूप में महत्‍वपूर्ण जिम्‍मेदारी मिली है। 

पिता का साहबगंज में है कपड़े का व्‍यवसाय

मोहित के पिता किशन गोयनका का गोरखपुर के साहबगंज में कपड़े का व्‍यवसाय है। उन्‍होंने बताया कि बेटे को उच्‍च और अच्‍छी शिक्षा दिलाना उनका सपना था। वह खुद बीकॉम करने के बाद कपड़े के व्‍यवसाय में आ गए थे। आगे की शिक्षा जारी न रख पाने का उन्‍हें मलाल था। बेटे ने आज यह मलाल दूर कर दिया। 

GAHOI VAISHYA - गहोई वैश्य

इतिहास गहोई समाज

गहोई वैश्य जाति का उदभव और विकास

सृष्टि में मानवीय सभ्यता संस्कृति का जन्म और विकास की श्रंखला तो लाखों करोड़ो वर्ष पुरानी है। प्रारंभ में मनुष्यो को केवल चार वर्णों को तीन गुणों (सत,रज,तम) के आधार पर बांटा गया था- यह भारत में सबसे पहले आर्य संस्कृति के उद्भव और विकास की कहानी है। इस प्रकार सतगुण प्रधान व्यक्ति “ब्राहम्ण“ सत्व तथा रज गुण प्रधान व्यक्ति “क्षत्री“, रज तथा तम गुण प्रधान व्यक्ति “वैश्य“ और तम गुण प्रधान व्यक्ति “शुद्र“ कहलाता था अपने वर्ण की पहचान के लिये ब्राहम्ण का “शर्मा“, क्षत्री को “वर्मा“, वैष्य को “गुप्ता“ और शुद्र को “दास“ की उपाधि दी गई थी। वर्ण के अनुसार ही सबके स्वाभाविक कर्म भी नियत किये गये थे। इस सम्बंध में विस्तृत और प्रामाणिक इतिहास “मनुस्मृति“ हैं। जैसे जैसे मानव संख्या बढती गई स्थानीय समुदाय अपनी विशेष पहिचान और परम्पराओ के साथ जीने के आदी हो गये। जिनका वैश्य वर्ण था उनकी एक शाखा “गहोई वैश्य“ मुख्यतः बुंदेलखण्ड क्षेत्र में थी और अधिकांश लोग ग्रामों में रहकर कृषि, व्यवसाय तथा गोपालन का ही कार्य करते थे। अधिकांश वैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षित होकर कंठी धारण करते थे। घुटनो तक धोती, सलूखा, कुर्ता और पगडी इनकी पोशाक विशेषकर यह शाखा वर्तमान झांसी, दतिया, उरई , कालपी, जालौन, सिंध किनारा के समीपवर्ती क्षेत्रो में ही थी जिनकी स्थानीय पंचायतें होती थी- उनका कोई एक वयोवृद्ध व्यक्ति पंच होता था और परंपराये भी निर्धारित थी। गहोईयों के विशेष पुरोहित होते थे जो इनके विवाह और अन्य धार्मिक अनुष्ठान कराते थे। विवाह के समय, भांवरो के पश्चात वर वधू के पुरोहित एक विशेष स्वस्तिवाचन मंत्र पड़ कर वर वधू को आर्शीवाद देते थे जिसे “शंखोच्चार“ कहा जाता था। इस शाखोच्चार में इस जाति के प्रथम कडी के रूप में “ वैश्रवन कुबेर“ का नाम लिखा जाता था और आखरी कडी के रूप में वर के बाबा का नाम लेकर आर्शीवाद वाचन किया जाता था। यह मन्त्र इस प्रकार है " स्वस्ति श्री मंत धनवंत गुण ज्ञानवंत धनपति कुबेर कोषाध्यक्ष भवानी गोरी शिव भगवंत दासानुदास द्वादस शाखा प्रख्यात विविध रत्नमणि माणिक्य पावन कुल वैश्रवन उदभूत शाखानुशाख सर्व प्रथम अलकापुरी मध्य सानंद षट ऐश्वर्य भोगमान पुनश्च त्रतीय आवास धायेपुरे प्राप्तवान सर्व सम्पति भोगवान गोत्रस्य (वर का गोत्र ) नाम उच्चार सप्रवर गौ ब्रह्मण के प्रति पालक (वर के पिता का नाम तथा निवास ) ग्रामे अद्ध्य वर्त्तमान तस्य प्रपोत्र विवाहे सर्व कर्म सिद्वी ॐ वृद्वि: ॐ वृद्वि: ॐ वृद्वि:" | यह मंत्र तथा जाति का कोई इतिहास लिखित रूप में नही था परन्तु कालान्तर में जब यह प्रथा समाप्त हो गई, गहोई वैश्य जाति समय के साथ बुंदेलखण्ड तक ही सीमित न रहकर पूरे भारत में दूर दूर तक फैल गई तो यह परम्परा लुप्त हो गई। गहोई वैश्य जाति के परंपरागत पुरोहित भी नही रहे, वैज्ञानिक विकास के साथ अन्य जातियो से भी सम्पर्क होता गया परंपराये भी बदलती गई और राष्ट्रीय स्तर पर जातीय संगठन बनने लगे तब पुराने इतिहास की खोज की जाने लगी और अपनी अपनी जाति विशेष के प्रथम कडी के महापुरूषो की घोषणाये भी की गई।

समय और घटनाओ के इस लम्बे प्रवाह में वैश्य वर्ण भी अनेक उपजातियो में विभाजित हो चुका था। इनमें अग्रवाल, माहेश्वरी, जैन आदि कुछ जातियां विशेष रूप से अग्रिणी रही सन 1914 में राष्ट्रीय स्तर पर गहोई वैश्य जाति को भी नरसिंह पुर के एक गहोई वैश्य श्री नाथूराम रेजा ने, गहोई वैश्यों का एक संगठन “गहोई वैश्य महासभा“ के नाम से तैयार किया जिसका प्रथम अधिवेशन नागपुर में उनके ही एक संबंधी श्री बलदेवप्रसाद मातेले के सहयोग से सम्पन्न हुआ तब से यह संगठन “महासभा“ के नाम से बराबर चला आ रहा है जो सन् 2014 मे अपना शतक पूर्ण कर लेगा। चुंकि गहोई वैश्य जाति में 12 गोत्र प्रचलित है जो 12 ऋषियों के नाम पर है अतः इन्हे ही द्वादश आदित्य मान लिया। आदित्य सूर्य को कहते है अतः खुर्देव बाबा को सूर्यावतार मान कर और उनके द्वारा गहोई वंश के एक बालक की रक्षा कर बीज रूप में बचा लिया जिससे गहोई वंश की वृद्धि होती गई तो बहुत भाव तक खुर्देव बाबा की पूजा भी प्रचलित हुई शायद इसी आधार पर हमने अपने ध्वज पर सूर्य को अंकित किया है और सूर्यवंशी भगवान राम से भी इस आधार पर अपना संबंध जोड़ा है क्योकि राम जानकी विवाह की परंपराये गहोई जाति में होने वाले विवाहोत्सव पर भी अपनायी जाती रही तथा उस समय महिलाओ द्वारा गाये जाने वाले गीतों में वर के रूप में राम और वधू के रूप में सीता का नाम भी लिया जाता रहा है। इसलिए प्रतिवर्ष जनवरी 14 संक्रांति को “गहोई दिवस“ घोषित कर दिया जो सूर्य उपासना का एक महान पर्व है।

सन् 2000 में जबलपुर से श्री फूलचंद सेठ द्वारा “गहोई सुधासागर“ नाम से विस्तृत ग्रंथ प्रकाशित किया गया जिसमें अब तक गहोई जाति के उदभव विकास के रूप में प्रचारित सभी विवरण अंकित है और “कुबेर“ के बारे में भी प्रचलित “शाखोच्चार“ का उल्लेख है परन्तु इस ग्रंथ में प्रामाणिक रूप से किसी एक को मान्यता देने का निर्णय नही लिया गया है।

इस संबंध में एक पौराणिक कथा शिवपुराण में अंकित है। यह पूरी कथा शिव पुराण में अध्याय 13 से 20 तक है और इस कथा में “गहोई“ शब्द का भी उल्लेख है। जो भगवान शिव के द्वारा वैकावण को यह आर्शीवाद दिया गया है। “तुम गुहोइयों के अधिपति होगे“। कुबेर की उपाधि दी और विश्व की समस्त सम्पत्ति का अधिपति बनाकर उन्हे अपना सखा घोषित किया तथा कैलाश के समीप अलकापुरी उनका निवास स्थान बनाकर दिया और कुबेर की मान्यता श्रेष्ठ तथा पूज्य देवो में की गई। गीता में भगवान ने उसे अपनी विभूति में गिनाया है श्री वद्रीनारायण तीर्थ में जो मूर्ति है वहाँ कुबेर की भी एक मूर्ति है। दिवाली के दो दिन पूर्व धनतेरस को कुबेर यंत्र की स्थापना करने और उनकी उपासना करने के बाद ही अमावस्या को लक्ष्मीपूजन किया जाता है अतः पूज्य कुबेर को जो धनाध्यक्ष है हम वैश्य वर्ण के लोग कैसे उपेक्षित कर सकते है जब कि वह शिव के वरदान से गहोईयो के अधिपति“ कहे गये है। इस सम्बन्ध में जो पोराणिक कथा है उसके पूरा उल्लेख रामस्वरूप ब्रजपुरिया द्वारा सन 2005 में प्रकाशित पुस्तक गहोई सूत्र में है । 

जिसको निज जाति निज देश पर, नहीं हुआ अभिमान | वह नर नहीं, नर पशु निरा है, और है मृतक समान || 

उक्त पंक्तियाँ पढ़ते ही दद्दा का नाम से विख्यात स्व श्री मैथलीशरण गुप्त को स्मरण करने मात्र से ही गहोई उपजाति के कौशल को भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में विभिन्न क्षेत्रों में अपनी दक्षता का कौशल प्रर्दशित करते समस्त गहोई बंधूजन आज भी गौरव का अनुभव करते हैं | 

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि स्व श्री मैथलीशरण गुप्त का राष्ट्र कवि होना गहोई उपजाति नहीं वरन सम्पूर्ण वैश्य जाति का माथा गर्व से ऊपर उठा देता है | दद्दा कि उपजाति का संछिप्त परिचय इसी लेख का हिस्सा है | गहोई उपजती की देश व विदेश में लगभग प्रत्येक क्षेत्र में महान विभूतियाँ रही हैं परन्तु निर्विवादित रूप से राष्ट्रकवि की पदवी से सम्मानित श्री मैथलीशरण गुप्त का नाम सबसे प्रथम स्थान पर लिया जाता है | 

हिन्दू धर्म - चार युग - वर्ण व्यवस्था व जाति प्रथा :

हिन्दू धर्म के अनुसार चार युगों सतयुग ( १७२८००० वर्ष), त्रेतायुग ( १२९६००० वर्ष), द्वापरयुग (८६४००० वर्ष) के उपरांत हम वर्तमान में कलयुग (४३२००० वर्ष) में हैं, जिसमें से अभी ५००० से अधिक वर्ष व्यतीत हुए हैं | वेद और गीता भारतीय आर्यों के प्राचीनतम एवं अति महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं | 

गीता में भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार " चातुर्वन्य मया सृष्टा गुण कर्म विभागश:" से स्पष्ट है की कर्मानुसार ही वर्ण व्यवस्था महाभारतकाल से पूर्व ही उत्तर वैदिक काल में भी वर्ण व्यवस्था थी | कालांतर में वर्ण व्वयस्था ही जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गयी | दोनों में प्रमुख रूप का यह अंतर है की वर्ण का निश्चय व्यवसाय अथवा कर्म से होता था परन्तु जाति का निश्चय जन्म से अथवा कुल से होने लगा | समय बीतने के साथ ही जाती व्यवस्था का वर्ण व्यवस्था पर भारीपन आम व्यक्ति के व्यवहार व सामाजिक ताने बाने के रूप में परिलक्षित होने लगा था | एक वर्ण के लोग एक ही व्यवसाय करते थे परन्तु एक ही जाति के लोग अनेकों व्यवसाय कर सकते थे | 

वर्ण व्यवस्था में सहभोज, यहाँ तक की विवाहों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था, अपितु जाती व्यवस्था में सहभोज व अंतरजातीय विवाह भी प्रतिबंधित हैं | 

वर्ण व्यवस्थ व जाती प्रथा के अंतर को समझने के लिए दोनों के बीच मौलिक अंतर समझना जरूरी है | 

जाती व्यवस्था की जटिलताओं के चलते समाज में संकीर्णताएं आती गयीं एवं अनेक उपजातिओं नें भी जन्म ले लिया | जाने माने लेखक श्री नेत्र पाण्डेय की "भारत वर्ष का सम्पूर्ण इतिहास" नामक पुस्तक के अनुसार भी भारत में जाति प्रथा को २००० वर्ष से अधिक प्राचीनतम माना गया है | 

वैश्य जाति की उपजातियों में अग्रवाल, गहोई, खंडेलवाल, पुरवार, बाथम, गुलहरे, ओमरे, डिढोमर, कोसर, ओसवाल व खारव्वापुर्वर आदि प्रमुख हैं | वैसे भी उपजातियों के गोत्र व आंकनों में कालांतर के साथ हुए उप्भ्रंशों के बाद भी समानताएं स्पस्ट रूप से परिलक्षित होती हैं | 

वैश्य जाति की प्रमुख उपजाति 'गहोई' के बारे में सटीकतम व तथ्य परक अवधारणाओं को सूक्ष्म एवं रुचिपरक विधि से यहाँ पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है | 

गहोई वैश्य कौन हैं ??

परिचय 

वर्तमान समय में विभिन् क्षेत्रों में अपनी काबलियत का डंका बजाने वाले भारतीयों में वैश्य वर्ग की एक उपजाति 'गहोई वैश्य' के बारे में संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है | 

गहोई समाज में प्रचलित परिपाटियों के आधार पर यह स्थापित है की प्राचीनकाल से गहोई वैश्य महाराज दशरथ के मंत्री श्री सुमंत जी के वंसज हैं | हिन्दू धर्म में विवाह के समय मंडप, तेल चढ़ना, कंगन बांधना व खुलना जैसे प्रमुख नेग प्रचलित हैं | विभिन्न वैश्य वर्गों में यह नेग लड़के वाला अपने ही घर पर करने के बाद ही बारात ले जाता है | केवल गहोई वैश्यों के उपरोक्त नेग-संस्कार वधु पक्ष के घर पर ही संपन्न होते हैं | तथ्य परक है की प्रभु श्री रामचन्द्र जी के विवाह वर्णनअनुसार, भगवान श्री राम का मुन्ड़प, तेल चढ़ना, कंगन बंधना, व खुलना आदि संस्कार / नेग राजा जनक के द्वार पर ही हुए थे एवं उन्ही नेग / संस्कारों का अनुकरण श्री सुमंत्र जी नें अपने वंश में अपना लिया था | 

इस सम्बन्ध में स्व. श्री राधेश्याम गुप्त (झुंदेले), सेंथल, बरेली उ.प्र. द्वारा लिखित उपलब्ध लेखों का उपसगाहर भी मानने योग्य है की "गहोई वैश्य, वैदिक वर्ण व्यवस्था युग की वैश्य जाति है | गहोई शब्द किसी संस्कृत वैदिक शब्द से बना है एवं कालांतरवश, वर्तमान में अपभ्रंश रूप में गहोई बोला जाता है | 

श्री राधेश्याम गुप्त लिखित " जातीय इतिहाश और वंशावली सम्बन्धी आवश्यक द्रष्टव्य नोट्स" में ही उक्त संस्कृत वैदिक शब्द 'गुहा' के बारे में भी काफी प्रकाश डाला है | इसके अतिरिक्त विद्वान मनीषियों में प्रमुख श्री जानकी प्रसाद जी गुप्त (झुंदेले), सेंथल नें भी गहोई विषयों के जातीय इतिहास में "गहोई शब्द की मूल खोज" नामक शीर्षक में गहोई शब्द के संदर्भ में महाभारत के अंतर्गत विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र में भगवान विष्णु के नामों में " करणं कारणं कर्ता विकार्तांग हनो गुह: गुह्यो गभीरो गहनों गुप्तश्च्चक गधाधर:" पाठ पढने का भी उल्लेख किया गया है | 

गहोई समाज के प्रमुख लेखक एवं विद्वान मनीषियों - गहोई समाज के इतिहास व गोत्रों इत्यादि के बारे में लेखक अथवा संकलनकर्ता के रूप में अपनी कृतियों को प्रकाशित करवाने वाले मुख्य विद्वान मनीषीगण निम्नानुसार हैं: 

श्री गोपीलाल (गोपीनाथ) जी सेठ, जबलपुर, म.प्र. 
श्री जानकी प्रसाद जी गुप्त (झुंदेले), सेंथल, बरेली, उ.प्र. 
श्री पन्ना लाल जी पहारिया, कोंच, उ.प्र. 
श्री राधेश्याम गुप्ता (झुंदेले), सेंथल, बरेली, उ.प्र. 
श्री झुंडीलाल जी मिसुरह, उरई, जालौन, उ.प्र. 
श्री नारायण दास जी कनकने, लश्कर, ग्वालियर, म.प्र. 
श्री गोविन्द दास जी सेठ, (झाँसी वाले), कोलकत्ता, प. बं. 
श्री राम दास जी नीखरा, झाँसी, उ.प्र. 
श्री मुक्ता प्रसाद जी तरसौलिया, कानपुर, उ.प्र. 

श्री झुंडीलाल जी की पुस्तक "गहोई वैश्य जाति का सचित्र इतिहास".में गहोई जाति की जन्मभूमि, गोत्र, आंकने, गहोई जाति के जैनियों से सम्बन्ध, वेशभूषा, प्रमुख संपत्तियां व ट्रस्ट, गहोई सती स्थान व शिक्षा प्रसार समितियों आदि विषयों पर तथ्य परक विवरण दिया है | इन्होनें सन् १९२० ई. में वकालत की परीक्षा पास करने के उपरांत वकालत के साथ साथ सन् १९२१ ई. में सामाजिक विकास की कड़ी में जुड़ते हुए " गहोई वैश्य के सेवक " नाम से मासिक पत्र भी निकला | आज के समय में यह जानकार आश्चर्य ही होगा की श्री झुंडीलाल जी नें श्री रासिकेंद्र जी को साथ लेकर आजादी से २४ वर्ष पूर्व, १९२४ में कालपी में ' महासभा का राष्ट्रीय अधिवेशन' आहूत किया था | 

राष्ट्रीय स्तर पर संचालित होने वाले गहोई महासभा को वर्ष १९१४ ई. में जन्म देने वाले श्री नाथूराम रेजा को समस्त गहोई समाज की ओर से ननम प्रेषित करने का प्रयास कर रहा हूँ | गहोई महासभा के वर्तमान कार्य शैली, पदाधिकारियों का विवरण एवं सूक्ष्म संविधान भी पाठकों को उपलब्ध कराने का प्रयास रहेगा | 

महासभा के वर्ष १९२४ ई. में कालपी में हुए विराट अधिवेशन से ही समाज एवं संगठन में एक नई स्फूर्ति का संचार हुआ था | उल्लेखनीय है की सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के प्रयास उसी समय प्रारंभ किये गए थे एवं इसी कारण गहोई उपजाति के वर्तमान विकास का श्रेय उनके पूर्वजों को ही जाता है | 

वर्ष १९२४ ई. में हुए अधिवेशन में लिए गए क्रांतिकारी निर्णय आज की पीढी को अवगत करने हेतु कृम्बद्ध रूप का PTO लिखा है 

गहोई उपजाति के गोत्र व आंकने:

गोत्र व आंकने के सन्दर्भ में "जाति भास्कर" नामक पुस्तक के अतिरिक्त अन्य प्रमुख लेखकों द्वारा गोत्र व आंकनों के विवरणिका निम्नानुसार ही प्रतीत होती है | क्षेत्रानुसार उच्चारण व प्रचिलित लेखन में कालातर में हुए अपभ्रंश के कारण अश्पष्ठ्ता की श्तिति में निकटतम शब्द को चुनना ही उचित प्रतीत होता है | 
गहोई जाति जन्म स्थान, कर्म भूमि एवं वर्तमान मुख्य निवास स्थान:

प्रत्येक मनुष्य को अपनी जन्मभूमि पर गर्व होना तो स्वाभाविक है | निर्विवादित रूप से गहोई वैश्यों की उत्पत्ति बुंदेलखंड में ही रही है | गहोई जाति के पूर्वज यहीं जन्मे एवं तदुपरांत यहीं से ही अन्यत्र स्थानों को गए | 

आज पूरे भारतवर्ष में फैले गहोई परिवार कालांतर में बुंदेलखंड से जाकर ही वहाँ बसे हैं | बुंदेलखंड का विस्तार मध्य भारत के उत्तरी भाग में है | गहोई जाति का उत्पत्ति स्थल बुंदेलखंड होने के कारण ही इस जाति के महाराज दशरथ के मंत्री श्री सुमंत जी के वंसज होने के तर्क को और बल मिलता है | यह तो निर्विवादित ही है की वनवास को जाते समय भगवान् श्रीराम को अयोध्या की सीमापार कर चित्रकूट तक श्री सुमंत जी ही विदा करने गए थे | ऐसा भी माना जाता है की चित्रकूट के निकट श्री सुमंत के परिजन निवास करते थे एवं सामने न रहकर भी प्रभु श्रीराम नें सेवाभाव से अभिभूत होकर वनवास का अधिकतम समय चित्रकूट में ही काटा था | 

गहोई जाति के शिरोमणी कवि सम्राट श्री मैथिलीशरण गुप्त (कनकने), एवं प्रख्यात कवि श्री द्वारका प्रशाद जी रासिकेंद्र की जन्मभूमि एवं क्रीडा स्थली बुंदेलखंड ही रही है | इसी कड़ी में लगभग ४०० वर्ष पूर्व श्री सुखदेव बडेरिया (भांडेर निवासी) की 'वनिक प्रिया' नाम की पुस्तक अपने समय की श्रेष्ठतम रचनाओं में गिनी जाती थी | 
"कृषि, वाणिज्य, गो-रक्षा वैश्य कर्म स्वभावजय" को मानने वाली गहोई जाति के वीरों का इतिहास में खूब बखान किया गया है | गहोई वीरों में लाला हरदौल, चिरस्मरणीय श्री हरजूमल गहोई (महाराजा छत्रसाल के सर्वाधिक विश्वशनीय सेनापति), श्री गंगाराम चउडा की वीरता के कारण ही बुंदेलखंड के विभिन्न क्षेत्रों में इनके चबूतरे बने हुए हैं एवं घर घर आज भी पूजे जाते हैं | गहोई वीरों की चर्चा हो तो गहोई वीर नवलसिंह गोहद को गहोई समाज के साथ-साथ उस समय के शक्तिशाली महाराजा सिंधिया के परिजन भी सदैव याद रखते हैं | 

महाराजा सिंधिया की फौज से मुकाबला करते समय रण में शीश कर जाने पर गहोई वीर नवलसिंह का रुंद लड़ता रहा था | "ग्वालियर नामे" नामक पुस्तक में लिखे दोहे को पढने मात्र से ही गौरव का अनुभाग होता है : 

" नवल सिंह से सूर जो " लून्वें बीस पचास ते पटेल के काक को करते निपट विनास " 

कृषि क्षेत्र में गाहोई जाति का लोहा मानना पड़ेगा की यहाँ कई अंचल तो ऐसे भी हैं की एक ही गाव की जमीन में सभी प्रकार की फसलें पैदा की जाती हैं | गेहूं, चना, जौ, मटर, मसूर, लाही, अलसी, धान, जीरा, गन्ना, आलू, मूंगफली, शकरकंद, आदि सभी वस्तुएं कई गाओं में पैदा होती हैं | 

कालांतर में व्यवसाय आदि की द्रष्टि से कई गहोई परिवार देश के विभिन्न भागों में पुनर्स्थापित हो गए एवं समस्त भारतवर्ष में अपनी कार्य कुशलता, कृषि एवं व्यापर के क्षेत्र में डंका बजाया | इनमें कलकत्ता, बम्बई, बंगलोर, दिल्ली, नागपुर, इंदौर, कानपुर, आगरा, सीतापुर, बरेली ( सेंथल व नवाबगंज), पूरनपुर, ओयल, लखीमपुर खीरी, मुरादाबाद, फर्रुखाबाद, पटना, मद्रास, सहारनपुर, मेरठ, आदि स्थानों पर कम संख्या में होने के बाद भी गहोई जाति के लोगों नें अपना विशिष्ठ स्थान सदैव स्थापित रखा है | 

वर्तमान में गहोई परिवारों के युवा वर्ग नें शिक्षा के क्षेत्र में ऊंची बुलंदियों को छूने के बाद देश ही नहीं वरन विदेशों में भी विज्ञानं, शिक्षा, कंप्यूटर, तकनीकी, वित्त, चिकित्सा व प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में भी अपने झंडे गाड रखे हैं | 

जिन जिलों में गहोईयों की जनसँख्या अधिक है वहाँ पर ये राजनितिक रूप से भी समर्थ हैं | इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है की उरई, मऊरानीपुर, कटनी, डबरा आदि नगर पालिकाओं के अध्यक्ष समय-समय पर गहोई रहे हैं | 

गहोई उपजाति के " गई वैश्यों" के नाम से मुरादाबाद और आसपास के क्षेत्रों में " गई वैश्यों" के नाम से बसे कई गहोई परिवार सभासदों के रूप में राजनितिक रूप से भी समाज का नेतृत्व करते हैं | 

इस कड़ी में ९५% से अधिल मुस्लिम आबादी वाले क़स्बे - सेंथल (बरेली) में रहने वाले गहोई परिवार पूरे जनपद में एक विशिष्ठ प्रतिष्ठा रखते हैं | उल्लेखनीय है की सेंथल कस्बे में गहोई परिवारों के पूर्वजों नें उच्च न्यायलय में मुकदमा जीतकर मस्जिद के ठीक बराबर में "श्री राधा कृष्ण मंदिर" का निर्माण करवाया था जिसमें आज भी अनवरत रूप से पूजा अर्चना की जाती है | 

इसी प्रकार कलकत्ता, दिल्ली, पटना, नागपुर, व इंदौर में अग्रणी व्यवसाइयों में स्थापित गहोई परिवारों को कौन नहीं जानता | 

विकाशशील देशों के आर्थिक व सामाजिक मामलों के जानकार, भारतीय विदेश सेवा से सेवानिवृत डा. लक्ष्मी नारायण पिपरसैनियाँ की ख्याति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है | डा. पिपरसैनियाँ भी गहोई समाज में वांछित जाग्रति हेतु सदैव अमूल परिवर्तन के कट्टर पक्षधर रहे हैं | वर्तमान में वयोवृद्ध रूप में भी समाज को दिशा देने का इनका प्रयास सतत जारी रहता है |

Monday, March 2, 2020

RITESH AGRAWAL - 26 साल के रितेश अग्रवाल बने दुनिया के दूसरे सबसे युवा अरबपति

Ritesh Agarwal: 26 साल के रितेश अग्रवाल बने दुनिया के दूसरे सबसे युवा अरबपति

रितेश अग्रवाल ओयो रूम्स (OYO Rooms) के फाउंडर हैं और विश्व के दूसरे सबसे युवा सेल्फ मेड बिलिनेयर हैं।


अगर आप कहीं घूमने जाते हैं तो सबसे पहले अपने लिए सही जगह रहने की तलाश करते हैं। पर्यटकों को एक ऐसे होटल की तलाश हमेशा रहती है जो सस्ता हो, लेकिन अच्छा भी हो। ऐसे में आप ओयो रूम्स के बारे में जरूर जानते होंगे। इसकी मदद से आप पहले ही अपने लिए एक सस्ता और शानदार होटल बुक कर लेते हैं। क्या आप इसके फाउंडर रितेश अग्रवाल को जानते हैं जिन्होंने 19 साल की उम्र में इसकी शुरुआत की थी और आज वे बिलिनेयर की लिस्ट में आते हैं।

26 साल उम्र 

 

हुरुन ग्लोबल रिच लिस्ट 2020 के मुताबिक, वे विश्व के दूसरे सबसे युवा सेल्फ मेड बिलिनेयर हैं। अभी उनकी उम्र 26 साल है। नंबर वन पर कायली जेनर हैं, जिनकी उम्र 22 साल है।

ओडिशा के हैं रितेश 

 

रितेश ओडिशा के एक छोटे शहर से आते हैं जो नक्सल प्रभावित है। वह कॉलेज ड्रॉपआउट हैं, जिसकी वजह से 2013 में उन्हें 1 लाख डॉलर का पीटर थाइल फेलोशिप मिला था।

2011 में दिल्ली आ गए 

 

वे 2011 में दिल्ली आ गए और स्टार्टअप शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने इंजिनियरिंग कॉलेज के लिए इंट्रेस परीक्षा भी छोड़ दी थी।

2013 में OYO की शुरुआत 

 

2013 में जब उन्हें 1 लाख डॉलर फेलोशिप की राशि मिली थी, उसी पैसे से उन्होंने बिना देर किए ओयो रूम्स की शुरुआत कर दी।

1 अरब जुटाया 

 

सितंबर 2018 आते-आते ओयो रूम्स ने 1 अरब डॉलर का निवेश जुटाया।

2 अरब डॉलर के शेयर खरीदे 

 

जुलाई 2019 में खबर आई थी कि उन्होंने इस कंपनी में अपनी हिस्सेदारी 3 गुना बढ़ा दी है और इसके लिए उन्होंने 2 अरब डॉलर का शेयर खरीदा था।

साभार: नवभारत टाइम्स