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Sunday, June 21, 2020

ANCHAL GANGWAL - चाय वाले की बेटी बनी फ्लाइंग ऑफिसर

चाय वाले की बेटी बनी फ्लाइंग ऑफिसर

चाय बेचकर पिता ने कराया बेटी का सपना पूरा, अब उड़ाएंगी भारतीय वायुसेना का फाइटर प्लेन

मध्य प्रदेश के नीमच की 24 वर्षीय आंचल गंगवाल ने भारतीय वायुसेना की उड़ान शाखा में चयन पाकर घरवालों का नाम रौशन कर दिया है। आंचल के पिता नीमच बस अड्डे पर चाय की दुकान चलाकर जीवन यापन करते हैं और बेटी की इस उपलब्धि पर गौरवान्वित हैं।

भारतीय वायुसेना की उड़ान शाखा में चयन पाने वाली आंचल गंगवाल अपने माता-पिता के साथ। (फोटो सोर्स- एएनआई) 

मध्य प्रदेश के नीमच की 24 वर्षीय आंचल गंगवाल ने भारतीय वायुसेना की उड़ान शाखा में चयन पाकर घरवालों का नाम रौशन कर दिया है। आंचल के पिता नीमच बस अड्डे पर चाय की दुकान चलाकर जीवन यापन करते हैं और बेटी की इस उपलब्धि पर गौरवान्वित हैं। आंचल के चयन का परिणाम बीते 7 जून के आया था लेकिन मीडिया में उस वक्त आंचल सुर्खियों में छा गईं जब उनकी पारिवारिक स्थिति और पिता सुरेश गंगवाल की चाय की दुकान के बारे में पता चला। आंचल की ट्रेनिंग 30 जून से शुरू होगी और उनका भारतीय वायु सेना का फाइटर प्लेन उड़ाने का सपना पूरा हो जाएगा। आंचल ने जिस प्रकार और जिन परिस्थितियों में आत्म विश्वास बनाए रखते हुए सफलता हासिल की है वह देश की करोड़ों बेटियों के लिए प्रेरणा का काम कर सकता है। आंचल की सफलता इसलिए भी बड़ी है क्योंकि जिस परीक्षा से होकर वह गुजरी हैं उसके लिए देशभर से 6 लाख से ज्यादा आवेदन किए गए थे और महज 22 लोगों का चयन किया गया। आंचल उन्हीं 22 लोगों में से हैं और मध्य प्रदेश से अकेली चयन पाने वाली हैं।

पांच फुट सात इंच कद की आंचल ने अपनी कहानी मीडिया से जाहिर की। आंचल ने बताया कि जब वह 12वीं में थीं तब उत्तराखंड में बाढ़ आई हुई थी। उस दौरान बाढ़ प्रभावितों को बचाने के लिए सशस्त्र बलों का काम देखकर वह खासी प्रभावित हुई थीं और सेना में जाने का मन बना लिया था। आंचल कहती हैं कि तब उनकी पारिवारिक स्थिति अनुकूल नहीं थी लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। आंचल ने बताया कि वह नीमच के मेट्रो एचएस स्कूल में कैप्टन थीं और क्लास की टॉपर थीं। उन्होंने उज्जैन की विक्रम यूनिवर्सिटी में दाखिले के लिए स्कॉलरशिप जीती, वहां वह बास्केटबॉल टीम में शामिल हुईं और 400 मीटर रेस का भी हिस्सा बनीं।

वह कहती हैं कि उन्हें पता था कि उनके अंदर कुछ था जिससे लगता था कि सपना पूरा होगा। इसी बीच उन्होंने कॉम्पटीटिव एग्जाम्स देने शुरू कर दिए। पुलिस सब-इंस्पेक्टर की परीक्षा में पास हो गईं लेकिन ट्रेनिंग ऐसी थी कि आगे की तैयारी के लिए समय नहीं बच रहा था, तभी लेबर इंस्पेक्टर का रिजल्ट आया और उसमें वह तैयारी के लिए समय निकाल पाईं। उन्होंने बताया कि एयर फोर्स कॉमन एडमिशन टेस्ट दिया लेकिन आसान नहीं था। पांच बार साक्षात्कार बोर्ड का सामना किया लेकिन छठीं दफा में वह अकेली पास हुईं। आंचल की तारीफ में राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी कसीदे पढ़े। आंचल की सफलता पर पिता सुरेश गंगवाल की खुशी का ठिकाना नहीं है और उनसे जज्बात संभालते नहीं बनते हैं।

साभार: jansatta.com/rajya/madhya-pradesh-aanchal-gangwal-daughter-of-tea-seller-selected-in-the-flying-branch-of-the-indian-air-force/694838

Saturday, June 20, 2020

SOUMYA GUPTA - सौम्य गुप्ता

साभार: दैनिक भास्कर 

Bhanu Gupta

Bhanu Gupta


Bhanu Gupta was an Indian guitarist and harmonist who is mostly known for this contribution in the Indian film industry. He has been associated with multiple music directors, including R. D. Burman, one of the seminal music directors of Indian film.

Early life

Bhanu Gupta was born in 1930 in Rangoon, Burma and learnt to play the harmonica from British sailors. As he could read and write Japanese, Bhanu at the age of 12, worked as an English interpreter in the Japanese army, at a monthly salary of ₹400. During these times he also witnessed the World War II at close quarters. He and his family worked closely with the Indian National Army and Subhas Chandra Bose. At 15, Gupta received a plastic harmonica as a gift he learned to play it on his own. The first tune he learnt to play was the Indian National Anthem. In the 1950s his family moved to Kolkata, as the war in Burma was at its peak and lived in the Baidyabati area of Hooghly in West Bengal. While in Kolkata he studied oil technology and later worked with Caltex. Bhanu was an avid sportsman. He would swim across the Irrawaddy River, play boxing and cricket. At the age of 18, he started playing First Division Cricket in Calcutta League and played with the likes of Bapu Nadkarni, Pankaj Roy, and the West Indian pacer Roy Gilchrist. His name is still mentioned in the Kalighat club in Kolkata as one of their prolific players.



Career

While in Kolkata, Bhanu used to perform playing the harmonica in nightclubs and cabarets frequently. He was a regular at Trinca's, a famous restaurant in Park Street, Kolkata. It was during these days that Bhanu had a tough decision to make; whether to be a sportsman or to be a musician. But since there no career path for a sportsman in those days, he chose to be a musician. Finally in 1959 after living in Kolkata for nine years, Bhanu quit his job and set off for Mumbai with Rs 600 to make it big as a harmonica player much against the wishes of his family. His first break came with the film Paigham from music director C Ramchandra. Soon he started playing for Bipin Dutta and later with Salil Chowdhury and came to be popularly known as the Hindu harmonica player because most of the harmonists in those days were Christian. During one of his recordings for Salil Chowdhury, he chanced upon an old Edusonia guitar (made by Braganzas of Free School Street, Kolkata), lying in the state of neglect, fixed it and started to practice on it. During these days he used to live next door to music director duo Sonik Omi where the popular Madan Mohan used to frequent. During one of such visits he heard Bhanu practice and got familiarised with him. An impressed Madan Mohan picked Bhanu to play for him in 1963. Around that time the legendary music director R. D. Burman was looking for a guitarist for a couple of songs. Bhanu Gupta was called in and this association with R. D. Burman continued up to the composer's death in 1994. Post 1994, he played for various music directors Anu Malik, Nadeem Shravan and Bappi Lahiri among others.


Notable works


Dekhiye Sahibon – Teesri Manzil
Suno Kaho – Aap Ki Kasam
Chingari Koi Bhadke – Amar Prem
Ek Main Aur Ek Tu – Khel Khel Mein
Mehbooba Mehbooba – Sholay
Ek Chatur Naar – Padosan
Kya Yahi Pyaar Hai – Rocky
Yaadon ki Baraat – Yaadon Ki Baraat
Aisa Na Mujhe Tum Dekho – Darling Darling
Tere Bina Zindagi – Aandhi
Yeh Kori Karari – Samundar
Kuch Na Kaho – 1942 A Love Story
The Guitar Theme – Sholay


Harmonica theme in Sholay where Amitabh Bachchan plays the harmonica as Jaya Bhaduri lights the lamp.


Currently

Bhanu Gupta lived in Mumbai but had shifted to Kolkata to pursue a musical career. He moved back to Mumbai post his recovery from severe illness. He died on January 28, 2018, after battling health issues.

साभार: विकिपीडिया 

RANAKPUR JAIN MANDIR - रणकपुर जैन मंदिर

रणकपुर जैन मंदिर



राजस्थान राज्य के पाली जिले में अरावली पर्वत की घाटियों के मध्य स्थित रणकपुर में ऋषभदेव का चतुर्मुखी जैन मंदिर है। चारों ओर जंगलों से घिरे इस मंदिर की भव्यता देखते ही बनती है।

राजस्थान में अनेकों प्रसिद्ध भव्य स्मारक तथा भवन हैं। इनमें माउंट आबू तथा दिलवाड़ा के विख्यात जैन मंदिर भी शामिल हैं। रणकपुर मंदिर उदयपुर से 96 किलोमीटर की दूरी पर है। भारत के जैन मंदिरों में संभवतः इसकी इमारत सबसे भव्य तथा विशाल है।

मंदिर इमारत

यह परिसर लगभग ४०,००० वर्ग फीट में फैला है। करीब ६०० वर्ष पूर्व १४४६ विक्रम संवत में इस मंदिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ था जो ५० वर्षों से अधिक समय तक चला। इसके निर्माण में करीब ९९ लाख रुपए का खर्च आया था। मंदिर में चार कलात्मक प्रवेश द्वार हैं। मंदिर के मुख्य गृह में तीर्थंकर आदिनाथ की संगमरमर से बनी चार विशाल मूर्तियाँ हैं। करीब ७२ इंच ऊँची ये मूतियाँ चार अलग दिशाओं की ओर उन्मुख हैं। इसी कारण इसे चतुर्मुख मंदिर कहा जाता है। इसके अलावा मंदिर में ७६ छोटे गुम्बदनुमा पवित्र स्थान, चार बड़े प्रार्थना कक्ष तथा चार बड़े पूजन स्थल हैं। ये मनुष्य को जीवन-मृत्यु की 84 योनियों से मुक्ति प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रेरित करते हैं।

मंदिर के सैकड़ों खम्बे इसकी प्रमुख विशेषता हैं। इनकी संख्या करीब १४४४ है। जिस तरफ भी दृष्टि जाती है छोटे-बड़े आकारों के खम्भे दिखाई देते हैं, परंतु ये खम्भे इस प्रकार बनाए गए हैं कि कहीं से भी देखने पर मुख्य पवित्र स्थल के 'दर्शन' में बाधा नहीं पहुँचती है। इन खम्भों पर सुंदर नक्काशी की गई है।

मंदिर की छतपर की गई उत्कृष्ट नक्काशी

मंदिर के निर्माताओं ने जहाँ कलात्मक दो मंजिला भवन का निर्माण किया है, वहीं भविष्य में किसी संकट का अनुमान लगाते हुए कई तहखाने भी बनाए हैं। इन तहखानों में पवित्र मूर्तियों को सुरक्षित रखा जा सकता है। ये तहखाने मंदिर के निर्माताओं की निर्माण संबंधी दूरदर्शिता का परिचय देते हैं। मंदिर के उत्तर में रायन पेड़ स्थित है। इसके अलावा संगमरमर के टुकड़े पर भगवान ऋषभदेव के पदचिह्न भी हैं। ये भगवान ऋषभदेव तथा शत्रुंजय की शिक्षाओं की याद दिलाते हैं।

साभार: विकिपीडिया 

NALANDA MAHAVIHAR - नालन्दा महाविहार

नालन्दा महाविहार



नालंदा के प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष।


यह प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में पटना से ८८.५ किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से ११.५ किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। अनेक पुराभिलेखों और सातवीं शताब्दी में भारत के इतिहास को पढ़ने आया था के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। यहाँ १०,००० छात्रों को पढ़ाने के लिए २,००० शिक्षक थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने ७ वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र' का जन्म यहीं पर हुआ था।

कुछ रोचक पहलू: 1. यहां की लाइब्रेरी में हजारों किताबों के साथ 90 लाख पांडुलिपियां रखी हुई है। यहां पर बख्तियार खिलजी ने आक्रमण कर आग लगा दी थी जिसे बुझाने में 6 महीने से ज्यादा का वक़्त लगा था।

2. तक्षशिला के बाद नालंदा को दुनिया की दूसरी सबसे प्राचीन यूनिवर्सिटी माना जाता है। ये 800 साल तक अस्तित्व में रही।

3. यहां पर विद्यार्थियों का चयन मेरिट के आधार पर होता था और निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। इसके साथ उनका रहना और खाना भी पूरी तरह निःशुल्क था।

4. इस यूनिवर्सिटी में 10 हजार से ज्यादा विद्यार्थी और 2700 से ज्यादा अध्यापक थे।

5. यूनिवर्सिटी में सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, ईरान, ग्रीस, मंगोलिया समेत कई दूसरे देशो के स्टूडेंट्स भी पढ़ाई के लिए आते थे।

6. नालंदा यूनिवर्सिटी की स्थापना 5वीं शताब्दी में वैश्य वंशीय गुप्त वंश के शासक सम्राट कुमारगुप्त ने की थी। नालंदा में ऐसी कई मुद्राएं भी मिली है जिससे इस बात की पुष्टि भी होती है।

7. नालंदा की स्थापना का उद्देश्य ध्यान और आध्यात्म के लिए स्थान बनाने से था। ऐसा भी कहा जाता है कि गौतम बुद्ध ने कई बार यहां की यात्रा की और रुके भी।

8. यूनिवर्सिटी में ‘धर्म गूंज’ नाम की लाइब्रेरी थी। इसका मतलब ‘सत्य का पर्वत’ से था। लाइब्रेरी के 9 मंजिलों में तीन भाग थे जिनके नाम ‘रत्नरंजक’, ‘रत्नोदधि’, और ‘रत्नसागर’ थे।

9. उस दौर में यहां लिटरेचर, एस्ट्रोलॉजी, साइकोलॉजी, लॉ, एस्ट्रोनॉमी, साइंस, वारफेयर, इतिहास, मैथ्स, आर्किटेक्टर, भाषा विज्ञानं, इकोनॉमिक, मेडिसिन समेत कई विषय पढ़ाएं जाते थे।

10. नालंदा यूनिवर्सिटी में हषवर्धन, धर्मपाल, वसुबन्धु, धर्मकीर्ति, आर्यवेद, नागार्जुन के साथ कई अन्य विद्वानों ने पढ़ाई की थी।



स्थापना व संरक्षण

इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय  वैश्य वंशीय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ४५०-४७० को प्राप्त है। इस विश्वविद्यालय को  कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग मिला। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। इसे महान वैश्य सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानीय शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से भी अनुदान मिला।


स्वरूप


यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब १०,००० एवं अध्यापकों की संख्या २००० थी। सातवीं शती में जब ह्वेनसाङ आया था उस समय १०,००० विद्यार्थी और १५१० आचार्य नालंदा विश्वविद्यालय में थे। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त थी।


परिसर

अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे। प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी।


प्रबंधन

समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे। कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखती थी और द्वितीय समिति सारे विश्वविद्यालय की आर्थिक व्यवस्था तथा प्रशासन की देख-भाल करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय की देख-रेख यही समिति करती थी। इसी से सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े तथा आवास का प्रबंध होता था।


आचार्य

इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे। ७ वीं सदी में ह्वेनसांग के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे।


प्रवेश के नियम


प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और उसके कारण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे। उन्हें तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था। यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है। शुद्ध आचरण और संघ के नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक था।


अध्ययन-अध्यापन पद्धति

इस विश्वविद्यालय में आचार्य छात्रों को मौखिक व्याख्यान द्वारा शिक्षा देते थे। इसके अतिरिक्त पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी। शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के हर पहर में अध्ययन तथा शंका समाधान चलता रहता था।


अध्ययन क्षेत्र

यहाँ महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत थे। नालंदा की खुदाई में मिली अनेक काँसे की मूर्तियो के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था। यहाँ खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था।


पुस्तकालय

नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक विराट पुस्तकालय था जिसमें ३ लाख से अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था।[5] इस पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें थी। यह 'रत्नरंजक' 'रत्नोदधि' 'रत्नसागर' नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था। 'रत्नोदधि' पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। इनमें से अनेक पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने साथ ले गये थे।


छात्रावास

यहां छात्रों के रहने के लिए ३०० कक्ष बने थे, जिनमें अकेले या एक से अधिक छात्रों के रहने की व्यवस्था थी। एक या दो भिक्षु छात्र एक कमरे में रहते थे। कमरे छात्रों को प्रत्येक वर्ष उनकी अग्रिमता के आधार पर दिये जाते थे। इसका प्रबंधन स्वयं छात्रों द्वारा छात्र संघ के माध्यम से किया जाता था।


छात्र संघ

यहां छात्रों का अपना संघ था। वे स्वयं इसकी व्यवस्था तथा चुनाव करते थे। यह संघ छात्र संबंधित विभिन्न मामलों जैसे छात्रावासों का प्रबंध आदि करता था।


आर्थिक आधार

छात्रों को किसी प्रकार की आर्थिक चिंता न थी। उनके लिए शिक्षा, भोजन, वस्त्र औषधि और उपचार सभी निःशुल्क थे। राज्य की ओर से विश्वविद्यालय को दो सौ गाँव दान में मिले थे, जिनसे प्राप्त आय और अनाज से उसका खर्च चलता था।


अवसान

१३ वीं सदी तक इस विश्वविद्यालय का पूर्णतः अवसान हो गया। मुस्लिम इतिहासकार मिनहाज़ और तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के वृत्तांतों से पता चलता है कि इस विश्वविद्यालय को तुर्कों के आक्रमणों से बड़ी क्षति पहुँची। तारानाथ के अनुसार तीर्थिकों और भिक्षुओं के आपसी झगड़ों से भी इस विश्वविद्यालय की गरिमा को भारी नुकसान पहुँचा। इसपर पहला आघात हुण शासक मिहिरकुल द्वारा किया गया। ११९९ में तुर्क मुसलमान  आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया।


ऐतिहासिक उल्लेख

प्रसिद्ध चीनी विद्वान यात्री ह्वेन त्सांग और इत्सिंग ने कई वर्षों तक यहाँ सांस्कृतिक व दर्शन की शिक्षा ग्रहण की। इन्होंने अपने यात्रा वृत्तांत व संस्मरणों में नालंदा के विषय में काफी कुछ लिखा है।[5][क] ह्वेनत्सांग ने लिखा है कि सहस्रों छात्र नालंदा में अध्ययन करते थे और इसी कारण नालंदा प्रख्यात हो गया था। दिन भर अध्ययन में बीत जाता था। विदेशी छात्र भी अपनी शंकाओं का समाधान करते थे। इत्सिंग ने लिखा है कि विश्वविद्यालय के विख्यात विद्वानों के नाम विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर श्वेत अक्षरों में लिखे जाते थे।


प्राचीन अवशेषों का परिसर

इस विश्वविद्यालय के अवशेष चौदह हेक्टेयर क्षेत्र में मिले हैं। खुदाई में मिली सभी इमारतों का निर्माण लाल पत्थर से किया गया था। यह परिसर दक्षिण से उत्तर की ओर बना हुआ है। मठ या विहार इस परिसर के पूर्व दिशा में व चैत्य (मंदिर) पश्चिम दिशा में बने थे। इस परिसर की सबसे मुख्य इमारत विहार-१ थी। आज में भी यहां दो मंजिला इमारत शेष है। यह इमारत परिसर के मुख्य आंगन के समीप बनी हुई है। संभवत: यहां ही शिक्षक अपने छात्रों को संबोधित किया करते थे। इस विहार में एक छोटा सा प्रार्थनालय भी अभी सुरक्षित अवस्था में बचा हुआ है। इस प्रार्थनालय में भगवान बुद्ध की भग्न प्रतिमा बनी है। यहां स्थित मंदिर नं. ३ इस परिसर का सबसे बड़ा मंदिर है। इस मंदिर से समूचे क्षेत्र का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। यह मंदिर कई छोटे-बड़े स्तूपों से घिरा हुआ है। इन सभी स्तूपों में भगवान बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में मूर्तियां बनी हुई है।


अन्य स्थल नालंदा पुरातात्विक संग्रहालय 

विश्वविद्यालय परिसर के विपरीत दिशा में एक छोटा सा पुरातात्विक संग्रहालय बना हुआ है। इस संग्रहालय में खुदाई से प्राप्त अवशेषों को रखा गया है। इसमें भगवान बुद्ध की विभिन्न प्रकार की मूर्तियों का अच्छा संग्रह है। इनके साथ ही बुद्ध की टेराकोटा मूर्तियां और प्रथम शताब्दी के दो मर्तबान भी इस संग्रहालय में रखा हुआ है। इसके अलावा इस संग्रहालय में तांबे की प्लेट, पत्थर पर खुदे अभिलेख, सिक्के, बर्त्तन तथा १२वीं सदी के चावल के जले हुए दाने रखे हुए हैं।

साभार: विकिपीडिया 

MAHROULI IRON PILLER - लौह स्तंभ

दिल्ली का लौह स्तम्भ

दिल्ली का लौह स्तम्भ

दिल्ली का लौह स्तम्भ, दिल्ली में क़ुतुब मीनार के निकट स्थित एक विशाल स्तम्भ है। यह अपनेआप में प्राचीन भारतीय धातुकर्म की पराकाष्ठा है। यह कथित रूप से राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (राज ३७५ - ४१३) से निर्माण कराया गया, किन्तु कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पहले निर्माण किया गया, सम्भवतः ९१२ ईपू में। इस स्तम्भ की उँचाई लगभग सात मीटर है और पहले हिन्दू व जैन मन्दिर का एक भाग था। तेरहवीं सदी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने मन्दिर को नष्ट करके क़ुतुब मीनार की स्थापना की। लौह-स्तम्भ में लोहे की मात्रा करीब ९८% है और अभी तक जंग नहीं लगा है।

परिचय

लौह स्तम्भ का दूसरा दृष्य

लगभग १६०० से अधिक वर्षों से यह खुले आसमान के नीचे सदियों से सभी मौसमों में अविचल खड़ा है। इतने वर्षों में आज तक उसमें जंग नहीं लगी, यह बात दुनिया के लिए आश्चर्य का विषय है। जहां तक इस स्तंभ के इतिहास का प्रश्न है, यह चौथी सदी में बना था। इस स्तम्भ पर संस्कृत में जो खुदा हुआ है, उसके अनुसार इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। चन्द्रराज द्वारा मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। इस पर गरुड़ स्थापित करने हेतु इसे बनाया गया होगा, अत: इसे गरुड़ स्तंभ भी कहते हैं। 

इस स्तंभ की ऊंचाई ७३५.५ से.मी. है। इसमें से ५० सेमी. नीचे है। ४५ से.मी. चारों ओर पत्थर का प्लेटफार्म है। इस स्तंभ का घेरा ४१.६ से.मी. नीचे है तथा ३०.४ से.मी. ऊपर है। इसके ऊपर गरुड़ की मूर्ति पहले कभी होगी। स्तंभ का कुल वजन ६०९६ कि.ग्रा. है। १९६१ में इसके रासायनिक परीक्षण से पता लगा कि यह स्तंभ आश्चर्यजनक रूप से शुद्ध इस्पात का बना है तथा आज के इस्पात की तुलना में इसमें कार्बन की मात्रा काफी कम है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मुख्य रसायन शास्त्री डॉ॰ बी.बी. लाल इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस स्तंभ का निर्माण गर्म लोहे के २०-३० किलो को टुकड़ों को जोड़ने से हुआ है। माना जाता है कि १२० कारीगरों ने  इस स्तम्भ का निर्माण किया। आज से सोलह सौ वर्ष पूर्व गर्म लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की उक्त तकनीक भी आश्चर्य का विषय है, क्योंकि पूरे लौह स्तम्भ में एक भी जोड़ कहीं भी दिखाई नहीं देता। सोलह शताब्दियों से खुले में रहने के बाद भी उसके वैसे के वैसे बने रहने (जंग न लगने) की स्थिति ने विशेषज्ञों को चकित किया है। इसमें फास्फोरस की अधिक मात्रा व सल्फर तथा मैंगनीज कम मात्रा में है। स्लग की अधिक मात्रा अकेले तथा सामूहिक रूप से जंग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा देते हैं। इसके अतिरिक्त ५० से ६०० माइक्रोन मोटी (एक माइक्रोन = १ मि.मी. का एक हजारवां हिस्सा) आक्साइड की परत भी स्तंभ को जंग से बचाती है।

लौह स्तन्भ में वर्णित राजा चन्द्र की पहचान

इतिहासकारों ने महरौली के लोह स्तंभ को वैश्य सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय के काल में रखा है और लोह स्तंभ में वर्णित राजा चंद्र को चंद्रगुप्त द्वितीय से जोड़ दिया है।

कुछ इतिहासकार मानते है कि उस लोह स्तंभ में जो लेख है वो वैश्य गुप्त लेखो की शैली का है और कुछ कहते है कि वैश्य चंद्रगुप्त द्वितीय के धनुर्धारी सिक्को में एक स्तंभ नज़र आता है जिसपर गरुड़ है ,पर वह स्तंभ कम और राजदंड अधिक नज़र आता है।

लोह स्तंभ के अनुसार वैश्य राजा चंद्र ने वंग देश को हराया था और सप्त सिंधु नदियों के मुहाने पर वह्लिको को हराया था।

जेम्स फेर्गुससनजैसे पश्चिमी इतिहासकार मानते है कि यह लोह स्तंभ वैश्य गुप्त वंश के चंद्रगुप्त द्वितीय का है।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह स्तंभ  वैश्य सम्राट अशोक का हैं  जो उन्होंने अपने दादा चंद्रगुप्त मौर्य की याद में बनवाया था। इस संबंध में एक तथ्य और है कि राजा "चंद्र" शब्द की पहचान सूर्यवंशी राजा रामचंद्र से भी है। जिनका साम्राज्य लंका के समुद्र तट तक था।

स्तम्भ-लेख

लौह स्तम्भ पर अंकित सन्देश

स्तम्भ पर अंकित सन्देश का हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद

स्तम्भ की सतह पर कई लेख और भित्तिचित्र विद्यमान हैं जो भिन्न-भिन्न तिथियों (काल) के हैं। इनमें से कुछ लेख स्तम्भ के उस भाग पर हैं जहाँ पर पहुँचना अपेक्षाकृत आसान है। फिर भी इनमें से कुछ का व्यवस्थित रूप से अध्ययन नहीं किया जा सका है। इस स्तम्भ पर अंकित सबसे प्राचीन लेख 'चन्द्र' नामक राजा के नाम से है जिसे प्रायः  वैश्य गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा लिखवाया गया माना जाता है। यह लेख 33.5 इंच लम्बा और 10.5 इंच चौड़े क्षेत्रफल में है। यह प्राचीन लेखन अच्छी तरह से संरक्षित है है क्योंकि यह स्तम्भ जंग-प्रतिरोधी लोहे से बना है। किन्तु उत्कीर्णन प्रक्रिया के दौरान, लोहे का कुछ अधिक भाग कटकर दूसरे अक्षरों से मिल गया है जिससे कुछ अक्षर गलत हो गए हैं।

यस्य ओद्वर्त्तयः-प्रतीपमुरसा शत्त्रुन् समेत्यागतन् वङ्गेस्ह्वाहव वर्त्तिनोस्भिलिखिता खड्गेन कीर्त्तिर् भुजे

तीर्त्वा सप्त मुखानि येन समरे सिन्धोर् ज्जिता वाह्लिकायस्याद्य प्यधिवास्यते जलनिधिर् व्विर्य्यानिलैर् दक्षिणाः

खिन्नस्य एव विसृज्य गां नरपतेर् ग्गामाश्रितस्यैत्राम् मूर्(त्)या कर्म्म-जितावनिं गतवतः कीर्त्(त्)या स्थितस्यक्षितौ

शान्तस्येव महावने हुतभुजो यस्य प्रतापो महान्नधया प्युत्सृजति प्रनाशिस्त-रिपोर् य्यत्नस्य शेसह्क्षितिम्

प्राप्तेन स्व भुजार्जितां च सुचिरां च ऐकाधिराज्यं क्षितौ चन्द्राह्वेन समग्र चन्द्र सदृशीम् वक्त्र-श्रियं बिभ्राता

तेनायं प्रनिधाय भूमिपतिना भावेव विष्नो (ष्नौ) मतिं प्राणशुर्विष्णुपदे गिरौ भगवतो विष्णौर्धिध्वजः स्थापितः अंग्रेजी अनुवाद 

जे एफ फ्लीट (J. F. Fleet) ने उपरोक्त श्लोकों का 1888 में निम्नलिखित अनुवाद प्रस्तुत किया है-

(Verse 1) He, on whose arm fame was inscribed by the sword, when, in battle in the Vanga countries (Bengal), he kneaded (and turned) back with (his) breast the enemies who, uniting together, came against (him); – he, by whom, having crossed in warfare the seven mouths of the (river) Sindhu, the Vahlikas were conquered; – he, by the breezes of whose prowess the southern ocean is even still perfumed; –

(Verse 2) He, the remnant of the great zeal of whose energy, which utterly destroyed (his) enemies, like (the remnant of the great glowing heat) of a burned-out fire in a great forest, even now leaves not the earth; though he, the king, as if wearied, has quit this earth, and has gone to the other world, moving in (bodily) from to the land (of paradise) won by (the merit of his) actions, (but) remaining on (this) earth by (the memory of his) fame; –

(Verse 3) By him, the king, attained sole supreme sovereignty in the world, acquired by his own arm and (enjoyed) for a very long time; (and) who, having the name of Chandra, carried a beauty of countenance like (the beauty of) the full-moon,-having in faith fixed his mind upon (the god) Vishnu, this lofty standard of the divine Vishnu was set up on the hill (called) Vishnupada.

साभार: विकिपीडिया 

महाराज अग्रसेन का "एक मुद्रा और एक ईंट" का सिद्धान्त"

अपने बाल सखा ब्राह्मण मित्र शाकुन्त की प्रेरणा से महाराज अग्रसेन ने "एक मुद्रा और एक ईंट" का सिद्धान्त दिया था

अग्रोदक में सब कुछ सामान्य गति से चल रहा था। सुख-समृद्धि- स्वास्थ्य की दृष्टि से सम्पन्न अग्रोदक राज्य अपराध विहीन था। ऐसे में एकबार महाराज अग्रसेन के मन में विचार आया की - "राज्य में अपराध हैं ही नहीं तो कारागार की क्या आवश्यकता है ?" इस संख्या के समाधान के विचार से महाराज अग्रसेन कारागार का निरीक्षण करने गए।

महाराज अग्रसेन को इतने विशाल कारागार में एक बंदी दिखाई पड़ा। उसको देखने जब महाराज अग्रसेन बंदीगृह के द्वार पर पहुंचे तो हतप्रभ राह गए की ये तो उनका बालसखा शाकुन्त है। महाराज अग्रसेन ने शाकुन्त को पूछा - 'हे मित्र शाकुन्त! ऐसी क्या विवशता थी को तुम पाप कर्म करने को उदृत हुए? तुमने ऐसा कौन सा पाप किया है मुझे भी बतलाओ।'

महाराजा अग्रसेन के प्रेमयुक्त वचनों से दृवित होकर दुखी शाकुन्त ने धीमे स्वर में अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए बताया की - "उदर क्षुधा से पीड़ित होकर अर्थाभाव में पाप कर्म करने को प्रेरित हुआ और पकड़े जाने पर दंड भोग रहा हूँ। हे राजन! वैभव हीन होने पर याचक बनकर लोगों के अपशब्द और ताने सुनकर पाप कर्म को प्रेरित होने से मृत्यु स्वीकार करना पुरुषार्थ हो सकता है।"

बाल सखा ब्राह्मण पुत्र शाकुन्त द्वारा कहे गए ये वचन बार-बार महाराज अग्रसेन के कानों में गूंज रहे थे -" महाराज मनुष्य वैभव हीन होकर तो जी सकता है किन्तु उसके अपने परिवेश में उसको बार बार लज्जित करने वालों के कारण वह पुरुषार्थ हीन होकर पाप कर्म की ओर प्रवृत होता है। अस्तु उसके साथ उसे लज्जित करने वाले भी दण्ड के भागीदार हैं।"

महाराज अग्रसेन इस चिंता में मग्न विचाररत थे की यदि राजा प्रजा के पालन में असमर्थ है तब ही कोई अधर्म कर्म को प्रेरित होता है अतः पाप का भागी तो मैं भी हूँ।

महाराज अग्रसेन से पूरी घटना का विवरण जानकर कुलगुरु महर्षि गर्ग ने कहा - "हे राजन! अपनी श्रेष्ठ मेधा (बुद्धि) को संयत रखकर प्रतिकूल परिस्थिति में भी सही निर्णय लिया जा सकता है।"

शाकुन्त के विषय में चिंतित महाराज अग्रसेन ने सभासदों औए पुत्रों से विचार विमर्ष किया तो निष्कर्ष यह निकला की स्वाभिमानी व्यक्ति तो दान भी स्वीकार नहीं करेगा। ऐसे में दंड और अपराध की प्रक्रिया धूप छांव की तरह चलती रहेगी। इस प्रकार तो राष्ट्र भी कमजोर होगा।

अंत में विचार पूर्वक महाराज अग्रसेन ने यह निर्णय दिया - "साधन-हीन व्यक्ति को दान देने के निरंतर उपक्रम से अच्छा उपाय यह होगा की ऐसे व्यक्ति को राज्य का प्रत्येक परिवार एक प्रचलित मुद्रा और एक ईंट देकर सहयोग करेगा तो वह व्यक्ति उस सहायता से उपकृत होकर सभी से प्रेम बंधन में बंधेगा व अपराध कर्म की ओर प्रवृत भी नहीं होना पड़ेगा।"

महाराज अग्रसेन ने इस निर्णय को से राज्यवासियों को अवगत करते हुए शाकुन्त को दोष मुक्त घोषित किया और सर्वप्रथम उसे एक मुद्रा और एक ईंट दिलवाकर राज्य में एक नई प्रथा का श्रीगणेश किया।


स्रोत - "विभिन्न अग्रसमाज के ग्रंथों के आधार पर", साभार: प्रखर अग्रवाल 

सेठ जयदयाल गोयनका जी का गीता के प्रचार का कारण

"सेठ जयदयाल गोयनका जी का गीता के प्रचार का कारण"


गीताप्रेस का मुख्य उद्देश्य ईश्वरप्रेम, सत्य, सदाचार और सद्भावों के प्रचार-हेतु मानव-सेवार्थ सद्‍ग्रन्थोंका प्रकाशन करना है।

गीताप्रेस की स्थापनाके पूर्व गीताजीकी पुस्तक मिलनी दुर्लभ थी। मिलती भी तो पाठ शुद्ध नहीं होता था और मूल्य भी दे पाना सर्वसाधारणके लिये सुलभ नहीं था।

महर्षि वेदव्यासके द्वारा प्रणीत महाभारतके भीष्मपर्वके अध्याय २५ से लेकर अध्याय ४२ तक जो भगवान् की वाणी है, वह स्वतन्त्र रूपसे गीताके रूपमें एक अलौकिक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थको पढ़नेवाला अपनी सभी समस्याओंका निराकरण तथा भगवत्प्राप्तिका साधन इस छोटेसे ग्रन्थमें पा ही जाता है। मात्र ७०० श्लोक हैं और अत्यन्त सरल संस्कृतमें लिखे हुए हैं। इन्हीं गीताजीका स्वाध्याय करते-करते भगवत्प्रेरणासे एक बार सेठजीकी दृष्टि गीताजीके १८वें अध्यायके ६८-६९ श्लोकोंपर रुक गयी—

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय:॥ ६८॥

जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्रको मेरे भक्तोंमें कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा—इसमें कोई संदेह नहीं है।

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि॥ ६९॥

उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें कोई भी नहीं है; तथा पृथ्वीभरमें उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्यमें होगा भी नहीं।

इन श्लोकोंसे सेठजीके मनमें यह भाव जागृत हुआ कि बहुत स्थानोंपर बहुत-से लोगोंको भगवान् ने अपना प्रियतम बताया है, किन्तु गीता-प्रचारकके लिये कहा है कि उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला न कोई है, न भविष्यमें होगा, भविष्यमें भी उससे बढ़कर मेरा प्रिय नहीं होगा ऐसी बात कहीं अन्यत्र नहीं मिली। अत: भगवान् की प्रसन्नता प्राप्त करनेके लिये गीता-प्रचारसे उत्तम कोई कार्य नहीं है। इन श्लोकोंने उनके मनपर ऐसा प्रभाव डाला कि उनका सम्पूर्ण जीवन ही गीता-प्रचारके लिये अर्पित हो गया।

इन दोनों श्लोकोंमें भगवान् ने जो निर्देश दिया है उस निर्देशको सेठजीने अपना जीवन-व्रत बना लिया। मानव-मात्रको जीवन्मुक्त होना गीताजीसे सुलभ है, जो सत्संग, भजन इत्यादिमें नहीं आ-जा सकते, उनके पास गीता अवश्य हो। इस उद्देश्यसे सेठजीने अथक परिश्रम करके शुद्ध और सस्ते मूल्यपर गीता उपलब्ध कराने हेतु गीताप्रेसकी स्थापना गोरखपुरमें की तथा गीताजीका प्रचार होने लगा। एक बार कोई सज्जन आकर सेठजीसे बोले कि अब तो गीताजीका काफी प्रचार हो गया है। इसपर सेठजीने कहा कि जब जन्मते ही बच्चे रोनेकी जगह गीता-गीता बोलें तब मैं मानूँगा कि गीताजीका कुछ प्रचार हुआ है। सेठजीका लक्ष्य था कि गीताजीका लाभ जन-जनको मिले।



साभार: प्रखर अग्रवाल 

अखिल भारतीय मारवाड़ी अग्रवाल जातीय कोष का इतिहास

अखिल भारतीय मारवाड़ी अग्रवाल जातीय कोष का इतिहास

अखिल भारतीय अग्रवाल जाती कोष कोरोना काल में 50 लाख रुपये से जरूरतमंदों को सहायता करने के कारण चर्चा में है। आइये जानते हैं इस महान संस्था का इतिहास।

स्वतंत्रता की चिंगारी जंगल की आग की तरह फैल रही थी, लाखों क्रांतिकारी शहीद हुए थे और हज़ारों परिवार निराश्रित हुए। ऐसे कठिन समय में पूरे देश के दानवीर, उद्योगपति, व्यापारी, राजनेता और समाज के शुभचिंतक जो किसी महान उद्देस्य के लिए जन्मे थे वो मुम्बई में अखिल भारतीय मारवाड़ी महासभा के दूसरे अधिवेशन में आये। इस अधिवेशन को महात्मा गांधी संबोधित कर रहे थे और इसकी अध्यक्षता हैदराबद के रामलाल गनेड़ीवाल कर रहे थे। उस समय महात्मा गांधी की सलाह पर, जमनालाल बजाज, सेठ रामनारायण रुइया, ताराचंद घनश्यामदास पोद्दार, खेमराज कृष्णदास आदि अग्रवाल समाज के अग्रणी लोगों ने क्रांतिकारियों की मदद के लिए अग्रवाल जातीय कोष की स्थापना की थी।

मुगल साम्राज्य के पतन के बाद, भारत पर अंग्रेजों का शासन हो गया था। भारतीयों का हर प्रकार के अन्याय का सामना करना पड़ रहा था। हर तरफ निराशा थी, बाल विवाह, पर्दा प्रथा आदि कुरीतियां बढ़ रहीं थीं। अखिल भारतीय मारवाड़ी अग्रवाल जातीय कोष का मुख्य उद्देश्य क्रांतिकारियों को हर तरह की आर्थिक और स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना था। इसका दूसरा उद्देश्य नई पीढ़ी को शिक्षा उपलब्ध करवाना।

सन् 1919 में अग्रवाल जातीय कोष की स्थापना हुई और उसी समय समाज के विकास के लिए निधि की भी स्थापना की गयी। पहले ही दिन में 6 लाख से भी ज्यादा का धन अग्रवाल समाज के दानवीरों ने दान किया था।

1923 में इस ट्रस्ट का पंजीकरण सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के अंतर्गत हुआ । राजपुताना शिक्षा मंडल की स्थापना अग्रवाल जातीय कोष की तरफ से हुई। इस संस्था ने पूरे राजस्थान में गुरुकुल, स्कूल और कॉलेज की स्थापना की।

विधवाओं, स्वतंत्रता सेनानियों और समाज के अन्य जरूरतमंद लोगों को वित्तीय और चिकित्सा सहायता दी जा रही थी। इस उद्देश्य के लिए, शिक्षा सहायता समिति, चिकित्सा और अन्य सहायता समिति और गुप्त दान समिति जैसी कुछ उप समितियों का गठन किया गया था। विशेष रूप से सहायता राजस्थान से शुरू हुई और पूरे भारत में विस्तारित हुई।

राम मनोहर लोहिया और सत्यकेतु विद्यालंकार जैसी विभूतियाँ भी इस संस्था की लाभार्थी रहीं।

1932 में गरीब लोगों को सस्ते घर दिलवाने के उद्देश्य से दादर में 6 इमारतों में 136 प्लाट बनाये गए। इस सोसाइटी का नाम दिया गया अग्रवाल नगर जो की जरूरतमंदों को सस्ते घर उपलब्ध करवाती थी।

1950-51 तक सभी स्वतंत्रता संग्राम से सामाजिक कार्य आराम से होते रहे फिर उसके बाद इस संस्था ने जरूरत मंदो की मदद करने को अपना मूल उद्देश्य बना लिया।

साभार: ~ प्रखर अग्रवाल

MANOJ MODI - मनोज मोदी

अंबानी फैमिली के बाहर का यह शख्स रिलायंस के लिए बना ट्रंप कार्ड, फेसबुक समेत कई कंपनियों से कराई बिग डील


फेसबुक के साथ रिलायंस की डील में मनोज मोदी की थी अहम भूमिका

फेसबुक समेत दुनिया भर की 8 दिग्गज कंपनियों के साथ रिलायंस जियो की चर्चित डील्स कराने वाले शख्स मनोज मोदी लो प्रोफाइल रहने वाले व्यक्ति हैं। लेकिन, रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड में उनकी साख एक बड़े डीलर के तौर पर है। एशिया के सबसे रईस शख्स मुकेश अंबानी की लगभग सभी कारोबारी डील्स में मनोज मोदी की अहम भूमिका रहती है। चर्चाओं से परे रहने वाले मनोज मोदी को मुकेश अंबानी का राइट हैंड माना जाता है। रिलायंस के करीबी सूत्रों के मुताबिक वह मनोज मोदी ही थे, जिन्होंने रिलायंस जियो में फेसबुक को 43,574 करोड़ रुपये के बड़े निवेश के लिए राजी किया था। जानकारी के मुताबिक मनोज मोदी ने रिलायंस अंबानी के साथ ही मुंबई के Hill Grange School से पढ़ाई की थी।

कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट के चलते लंबे समय से ऑइल मार्केट में अस्थिरता का दौर है और इसके चलते मुकेश अंबानी अपने ग्रुप को पेट्रोकेमिकल्स की बजाय इंटरनेट टेक्नोलॉजी कंपनी के तौर पर स्थापित करना चाहते हैं। मुकेश अंबानी की इन कोशिशों को अमलीजामा पहनाने का काम मनोज मोदी ही कर रहे हैं। अह तक रिलायंस जियो में फेसबुक, विस्टा, जनरल अटलांटिक समेत कई दिग्गज कंपनियां 97,000 करोड़ रुपये तक का निवेश कर चुकी हैं।

हालांकि मनोज मोदी अपनी स्किल्स को लेकर कहते हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं है। उन्होंने कहा कि दरअसल मैं कोई डील नहीं करता। मोदी ने कहा कि मेरी कोई रणनीतिक समझ नहीं है। उन्होंने कहा कि मैं रिलायंस के आंतरिक लोगों से ही डील करता हूं। उन्हें कोचिंग देता हूं और गाइड करता हूं कि वे कैसे कोई काम कर सकते हैं।

रिलायंस की वर्किंग स्टाइल को लेकर मनोज मोदी कहते हैं, ‘हमारा सिद्धांत बेहद सरल है। जब तक आपके कारोबार से जुड़कर कोई भी पैसा कमाने की स्थिति में नहीं आ जाता है, तब तक आप अपने कारोबार को स्थायी नहीं कह सकते।’ चार अलग-अलग स्टार्टअप्स के मुखिया ने बताया कि रिलायंस इंडस्ट्रीज की ओर से किसी भी डील में मनोज मोदी अहम होते हैं। उन्होंने कहा कि यदि किसी डील में मनोज मोदी के साथ मीटिंग फिक्स होती है तो उसका अर्थ यह होता है कि जल्दी ही फाइनल अप्रूवल मिल जाएगा।

आकाश अंबानी और मनोज मोदी की जोड़ी रहती है पर्दे के पीछे ऐक्टिव: रिलायंस से जुड़े दो करीबी सूत्रों ने बिजनेस इनसाइडर से बातचीत में कहा, ‘फेसबुक से रिलायंस जियो की डील कराने में आकाश अंबानी की अहम भूमिका रही है। फेसबुक समेत सभी डील्स में उनकी राय भी अहम रही है। उन्होंने ही फेसबुक को पहले इन्वेस्टर के तौर पर शामिल करने का फैसला लिया था क्योंकि वह कंपनी इंस्टाग्राम और वॉट्सऐप के साथ भारत आई है।’ आकाश अंबानी और मनोज मोदी अकसर बड़ी डील्स में अहम भूमिका अदा करते हैं।

साभार:
jansatta.com/business/mukesh-ambanis-right-hand-manoj-modi-behind-big-deals-for-reliance-jio-know-about-him/1435948

अग्रवंशी , से श्री गुप्त ,गुप्त साम्राज्य का उदय व वैश्य धर्म,

अग्रवंशी , से श्री गुप्त ,गुप्त साम्राज्य का उदय व वैश्य धर्म,


अग्रवंशी कहूं कि सूर्यवंशी सरकार
जो दृढ़ राखे धर्म को सोही राखे करतार,
जय अग्र सरकार जय सूर्यवंश सरकार

महाराजा अग्रसेन ने बली प्रथा पर रोक लगाते हुए विरोध किया, तभी बहुत से क्षत्रियों ने यह कहके इंकार कर दिया बलि प्रथा शुरू रहेगी, जब कि महाराजा अग्रसेन निर्दोष जीवो की हत्या के खिलाफ थे, उनका मानना था कि बलि अपनी एक इच्छा की दी जाती है, अगर ईश्वर के प्रति आपका विश्वास है और आपकी मनोकामना पूर्ण होती हैं तब आप अपनी एक चीज जो जरूरी भी हो और ना भी का त्याग करें,

जब विरोध मे बाकी क्षत्रियों का साथ ना पा कर महाराज अग्रसेन ने अपना अलग ही वर्ण धारण कर लिया जो था #वैश्य धर्म, उन्होंने यज्ञ के दौरान अपने 18 पुत्रों का अभिषेक करवाया और वंश और धर्म को आगे बढ़ाने के नियम और कानून बनाये,

अग्रवाल समाज के 18 गोत्र ~

१. गर्ग

2. गोयल

३. कुच्छल

4. मंगल

5. बिदंल

6. धारण (गुप्तवंश)

7. सिघंल

8. जिंदल

9. मित्तल

10. गोयन

11. ऐरण

12. ईँदल

13. मधुकल

14. नाँगल

15. बंसल

16. तायल

17. कंसल

18. तिँगल

अग्रवाल समाज के धर्म ग्रथो के अध्ययन से मालूम होता है कि इनका राज्य इतना धनी था, जो इन्होंने अपने राज्य के हर एक व्यक्ति को एक सोने की मुद्रा और एक सोने की ईंट देकर व्यापार करने का नियम लागू किया,
इनके राज्य मे एक भी गरीब इंसान या परिवार नही था,

राजपुताना उर्फ राजस्थान के 1८ राजकुमार ने वैश्य धर्म अपनाया , जिन्हें महाराजा अग्रसेन ने अपना नाम ही नही सनातन धर्म के मुताबित चलना रहना और वैश्य धर्म का पालन करना सिखाया,

#धारण_गोत्री_श्री_गुप्त

वैस्य समाज अग्रवालों की एक गोत्र का उदय इस तरह हुआ कि सम्राट #समुद्र_गुप्त ने समूचे भारत को अपनी तलवार पर तोल दिया। साम्राज्ञी प्रभावती गुप्त ने पूना अभिलेख में स्वयं को धारण गोत्रीय बताया है।

गुप्त राजवंश

यह एक प्राचीन भारतीय साम्राज्य था, जिसका उदय प्रयाग के निकट कौशाम्बी में हुआ था, जो लगभग 240 से लगभग 605 सीई तक अपने चरम पर मौजूद था और भारतीय उपमहाद्वीप में से अधिकांश को कवर किया था...........इनका पहला प्राचीन राजा श्री गुप्त हुए थे, जिन्होंने 240 से 320ई. तक राज किया, इन्होंने #महाराजाधिराज की उपाधि धारण की,

उसके बाद

#घटोत्कच

#चंद्रगुप्त प्रथम

#कुमार_देवी

#समुंदर_गुप्त

#कुमार_गुप्त

#चंद्रगुप्त_विक्रमादित्य

जिन्होंने विक्रमदित्या की उपाधि धारण की,

# स्कन्दगुप्त

# चन्द्रगुप्त द्वितीय 

आदि महान योद्धाओ का जन्म हुआ इस राजवंश मे,

श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कच गद्दी पर बैठा। २८० ई. से 320 ई. तक गुप्त साम्राज्य का शासक बना रहा। इसने भी महाराजा की उपाधि धारण की थी।प्रभावती गुप्ता के पूना एवं रिद्धपुर ताम्रपत्र अभिलेखों में घटोत्कच को गुप्त वंश का प्रथम राजा बताया गया है,इसका राज्य सम्भवतः मगध के आस-पास तक ही सीमित था



सन् ३२० में चन्द्रगुप्त प्रथम अपने पिता घटोत्कच के बाद राजा बना। चन्द्रगुप्त गुप्त वंशावली में पहला स्वतन्त्र शासक था। इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। बाद में लिच्छवि को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इसका शासन काल (320 ई. से 335 ई. तक) था।

पुराणों तथा हरिषेण लिखित प्रयाग प्रशस्ति से चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्य के विस्तार के विषय में जानकारी मिलती है। चन्द्रगुप्त ने [[लिच्छवि]] के सहयोग और समर्थन पाने के लिए उनकी राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह किया। स्मिथ के अनुसार इस वैवाहिक सम्बन्ध के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों का राज्य प्राप्त कर लिया तथा मगध उसके सीमावर्ती क्षेत्र में आ गया। कुमार देवी के साथ विवाह-सम्बन्ध करके चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली राज्य प्राप्त किया। चन्द्रगुप्त ने जो सिक्के चलाए उसमें चन्द्रगुप्त और कुमारदेवी के चित्र अंकित होते थे। लिच्छवियों के दूसरे राज्य नेपाल के राज्य को उसके पुत्र समुद्रगुप्त ने मिलाया।

हेमचन्द्र राय चौधरी के अनुसार अपने महान पूर्ववर्ती शासक बिम्बिसार की भाँति चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह कर द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की। उसने विवाह की स्मृति में राजा-रानी प्रकार के सिक्‍कों का चलन करवाया। इस प्रकार स्पष्ट है कि लिच्छवियों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य को राजनैतिक दृष्टि से सुदृढ़ तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बना दिया। राय चौधरी के अनुसार चन्द्रगुप्त प्रथम ने कौशाम्बी तथा कौशल के महाराजाओं को जीतकर अपने राज्य में मिलाया तथा साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित की।

चन्द्रगुप्त ने महाराजाधिराज की उपाधि प्राप्त की थी

प्रभावती गुप्त के पूना ताम्रपत्र अभिलेख में इसे 'आदिराज' कहकर सम्बोधित किया गया है श्रीगुप्त ने गया में चीनी यात्रियों के लिए एक मंदिर बनवाया था जिसका उल्लेख चीनी यात्री इत्सिंग ने ५०० वर्षों बाद सन् ६७१ से सन् ६९५ के बीच में किया पुराणों में ये कहा गया है कि आरंभिक गुप्त राजाओं का साम्राज्य गंगा द्रोणी, प्रयाग, साकेत (अयोध्या) तथा मगध में फैला था...

श्रीगुप्त के समय में महाराजा की उपाधि सामन्तों को प्रदान की जाती थी, चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार मगध के मृग शिखावन में एक मन्दिर का निर्माण करवाया था। तथा मन्दिर के व्यय में २४ गाँव को दान दिये थे

चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद 335 ई. में उसका तथा कुमारदेवी का पुत्र समुद्रगुप्त राजगद्दी पर बैठा। सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास में महानतम शासकों के रूप में वह नामित किया जाता है। इन्हें परक्रमांक कहा गया है। समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। इस साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। समुद्रगुप्त ने 'महाराजाधिराज' की उपाधि धारण की।

समुद्रगुप्त एक असाधारण सैनिक योग्यता वाला महान विजित सम्राट था। विन्सेट स्मिथ ने इन्हें नेपोलियन की उपाधि दी। उसका सबसे महत्वपूर्ण अभियान दक्षिण की तरफ़ (दक्षिणापथ) था। इसमें उसके बारह विजयों का उल्लेख मिलता है।

समुद्रगुप्त एक अच्छा राजा होने के अतिरिक्त एक अच्छा कवि तथा संगीतज्ञ भी था। उसे कला मर्मज्ञ भी माना जाता है। उसका देहान्त 380 ई. में हुआ जिसके बाद उसका पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय राजा बना। यह उच्चकोटि का विद्वान तथा विद्या का उदार संरक्षक था। उसे कविराज भी कहा गया है। वह महान संगीतज्ञ था जिसे वीणा वादन का शौक था। इसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुबन्धु को अपना मन्त्री नियुक्‍त किया था।

हरिषेण, समुद्रगुप्त का मन्त्री एवं दरबारी कवि था। हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति से समुद्रगुप्त के राज्यारोहण, विजय, साम्राज्य विस्तार के सम्बन्ध में सटीक जानकारी प्राप्त होती है।

काव्यालंकार सूत्र में समुद्रगुप्त का नाम 'चन्द्रप्रकाश' मिलता है। उसने उदार, दानशील, असहायी तथा अनाथों को अपना आश्रय दिया। वैदिक धर्म के अनुसार इन्हें धर्म व प्राचीर बन्ध यानी धर्म की प्राचीर कहा गया है

आज भी अग्रवंशी वैश्य समाज के लोग द्वापर युग से लेकर आज तक देश की अर्थ व्यवस्था का भार अपने कंधे पर उठाए आ रहे है, बिना व्यपार के बिना पैसे के ना किसी का राज्य चल सकता है ना ही गणराज्य, ऐसे बहुत से राजवंशों ने इन वेस्यो को अपने राज्य में व्यापार करने की अनुमति दी थी, क्योकि किसान का अनाज व्यापारी खरीदते और राजा को कर व्यापारी देते,

लाखो लोगो को रोजगार यही अग्रवंश के लोग देते आ रहे हैं,

जिनमें से

1- शेखावटी का रामगढ़ सेठान जो अपने समय का सबसे बड़ा उद्योगिक जोन था जिसमे पूरे राजस्थान के रोजगारों को रोजगार दिया जाता था, उसको बसाने वाले पोद्दार और रुइया जी बंसल गोत्र के अग्रवाल ही थे..

2- हिसार को हरयाणा की स्टील सिटी बनाने वाला जिंदल घराना भी अग्रवाल है।

3 वेदांता के अनिल अग्रवाल, पहले उद्योगपति जिन्होंने कोरोना आपदा में आगे आकर 1 करोड़ की सहायता राशि प्रदान की।

4- भारत में ऑनलाइन स्टार्टअप्स को शुरुवात अग्रवालों ने की थी - फ्लिपकार्ट, स्नैपडील से लेकर ओला,ओयो और जोमाटो तक

5 - 1857 की क्रांति के भामाशाह ~ सेठ रामजीदास गुड़वाला

6- डालमिया

7- डालमियानगर , मोदी नगर जैसे टाउनशिप जैसे इंडस्ट्रीज

8- प्रेस की आजादी के पुरोधा इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका जी

9- भारत के कॉटन किंग गोविंद राम केक्सरिया जी

10- विश्व के स्टील किंग लक्ष्मी निवास मित्तल जी

11- शेखवाटी, गुजरात के अग्रवाल

12 - जमनालाल बजाज गांधी युग के भामाशाह

यही ही नही जब नालन्दा विश्व विद्यालय को जला कर राख कर दिया गया, जब हर भारत वासी अपने धर्म और इतिहास से वंचित था तब इसी समाज ने इरिहास और धर्म शास्त्रों की रक्षा करते हुए उन्हें सुद्धिकर्ण में स्थापित किया

गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक श्री जयदयाल गोयनका जी जिन्होंने धर्म शास्त्रों को बचाया ही नही बल्कि हमे मूल रूप मे प्राप्त भी हुआ,

हिंदुओं के स्वाभिमान राम जन्मभूमि आंदोलन अशोक सिंघल जी द्वारा खड़ा किया था जो अग्रवालों द्वारा पोषित था। रामलला के लिए बलिदान देने में अग्रवालों ने अग्रणी भूमिका निभाई।

आज भी देश के 70 मंदिरों में इन्ही लक्ष्मीपति पूंजीपतियो का बोल बाला है, व्यापार में कंजूसी कर सकता है, पर कभी धर्म के मामले में नही क्योकि लगभग ब्राह्मणों के घर इन्ही पूंजीपतियो से चलते हैं और ये सचाई है जी की

कर्म कांड में अग्रवंशी सबसे आगे है ,

लेख साभार- राजेश्वर सिंह हुकुम,  राष्ट्रीय अग्रवाल सभा