अपने बाल सखा ब्राह्मण मित्र शाकुन्त की प्रेरणा से महाराज अग्रसेन ने "एक मुद्रा और एक ईंट" का सिद्धान्त दिया था
अग्रोदक में सब कुछ सामान्य गति से चल रहा था। सुख-समृद्धि- स्वास्थ्य की दृष्टि से सम्पन्न अग्रोदक राज्य अपराध विहीन था। ऐसे में एकबार महाराज अग्रसेन के मन में विचार आया की - "राज्य में अपराध हैं ही नहीं तो कारागार की क्या आवश्यकता है ?" इस संख्या के समाधान के विचार से महाराज अग्रसेन कारागार का निरीक्षण करने गए।
महाराज अग्रसेन को इतने विशाल कारागार में एक बंदी दिखाई पड़ा। उसको देखने जब महाराज अग्रसेन बंदीगृह के द्वार पर पहुंचे तो हतप्रभ राह गए की ये तो उनका बालसखा शाकुन्त है। महाराज अग्रसेन ने शाकुन्त को पूछा - 'हे मित्र शाकुन्त! ऐसी क्या विवशता थी को तुम पाप कर्म करने को उदृत हुए? तुमने ऐसा कौन सा पाप किया है मुझे भी बतलाओ।'
महाराजा अग्रसेन के प्रेमयुक्त वचनों से दृवित होकर दुखी शाकुन्त ने धीमे स्वर में अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए बताया की - "उदर क्षुधा से पीड़ित होकर अर्थाभाव में पाप कर्म करने को प्रेरित हुआ और पकड़े जाने पर दंड भोग रहा हूँ। हे राजन! वैभव हीन होने पर याचक बनकर लोगों के अपशब्द और ताने सुनकर पाप कर्म को प्रेरित होने से मृत्यु स्वीकार करना पुरुषार्थ हो सकता है।"
बाल सखा ब्राह्मण पुत्र शाकुन्त द्वारा कहे गए ये वचन बार-बार महाराज अग्रसेन के कानों में गूंज रहे थे -" महाराज मनुष्य वैभव हीन होकर तो जी सकता है किन्तु उसके अपने परिवेश में उसको बार बार लज्जित करने वालों के कारण वह पुरुषार्थ हीन होकर पाप कर्म की ओर प्रवृत होता है। अस्तु उसके साथ उसे लज्जित करने वाले भी दण्ड के भागीदार हैं।"
महाराज अग्रसेन इस चिंता में मग्न विचाररत थे की यदि राजा प्रजा के पालन में असमर्थ है तब ही कोई अधर्म कर्म को प्रेरित होता है अतः पाप का भागी तो मैं भी हूँ।
महाराज अग्रसेन से पूरी घटना का विवरण जानकर कुलगुरु महर्षि गर्ग ने कहा - "हे राजन! अपनी श्रेष्ठ मेधा (बुद्धि) को संयत रखकर प्रतिकूल परिस्थिति में भी सही निर्णय लिया जा सकता है।"
शाकुन्त के विषय में चिंतित महाराज अग्रसेन ने सभासदों औए पुत्रों से विचार विमर्ष किया तो निष्कर्ष यह निकला की स्वाभिमानी व्यक्ति तो दान भी स्वीकार नहीं करेगा। ऐसे में दंड और अपराध की प्रक्रिया धूप छांव की तरह चलती रहेगी। इस प्रकार तो राष्ट्र भी कमजोर होगा।
अंत में विचार पूर्वक महाराज अग्रसेन ने यह निर्णय दिया - "साधन-हीन व्यक्ति को दान देने के निरंतर उपक्रम से अच्छा उपाय यह होगा की ऐसे व्यक्ति को राज्य का प्रत्येक परिवार एक प्रचलित मुद्रा और एक ईंट देकर सहयोग करेगा तो वह व्यक्ति उस सहायता से उपकृत होकर सभी से प्रेम बंधन में बंधेगा व अपराध कर्म की ओर प्रवृत भी नहीं होना पड़ेगा।"
महाराज अग्रसेन ने इस निर्णय को से राज्यवासियों को अवगत करते हुए शाकुन्त को दोष मुक्त घोषित किया और सर्वप्रथम उसे एक मुद्रा और एक ईंट दिलवाकर राज्य में एक नई प्रथा का श्रीगणेश किया।
स्रोत - "विभिन्न अग्रसमाज के ग्रंथों के आधार पर", साभार: प्रखर अग्रवाल
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