पटवों की हवेली, जैसलमेर
19 वीं शताब्दी में बना पाँच हवेलियों का समूह जिसे सेठ गुमन चंद पटवा ने अपने पाँच बेटों के लिए बनवाया था । इसे बनाने में 50 साल लग गए थे और तब इसका पूरा खर्च 10 लाख रुपये आया था ।
छियासठ झरोखों से युक्त ये हवेलियाँ निसंदेह कला का सर्वेतम उदाहरण है। ये कुल मिलाकर पाँच हैं, जो कि एक-दूसरे से सटी हुई हैं। ये हवेलियाँ भूमि से ८-१० फीट ऊँचे चबूतरे पर बनी हुई है व जमीन से ऊपर छः मंजिल है व भूमि के अंदर एक मंजिल होने से कुल ७ मंजिली हैं। पाँचों हवेलियों के अग्रभाग बारीक नक्काशी व विविध प्रकार की कलाकृतियाँ युक्त खिंकियों, छज्जों व रेलिंग से अलंकृत है। जिसके कारण ये हवेलियाँ अत्यंत भव्य व कलात्मक दृष्टि से अत्यंत सुंदर व सुरम्य लगती है। हवेलियों में प्रवेश करने हुतु सीढियाँ चढ़कर चबूतरे तक पहुँचकर दीवान खाने (मेहराबदार बरामदा) में प्रवेश करना पड़ता है। दीवान खाने से लकंी की चौखट युक्त दरवाजे से अंदर प्रवेश करने पर प्रथम करमे को मौ प्रथम कहा जाता है। इसके बाद चौकोर चौक है, जिसके चारों ओर बरामदा व छोटे-छोटे कमरे बने हुए हैं। ये कमरे ६'x ६' से ८' के आकार के हैं, ये कमरे प्रथम तल की भांति ही ६ मंजिल तक बने हैं। सभी कमरें पत्थरों की सुंदर खानों वाली अलमारियों व आलों ये युक्त हैं, जिसमें विशिष्ट प्रकार के चूल युक्त लकंी के दरवाजे व ताला लगाने हेतु लोहे के कुंदे लगे हैं। प्रथम तल के कमरे रसोइ, भण्डारण, पानी भरने आदि के कार्य में लाए जाते थे, जबकि अन्य मंजिलें आवासीय होती थ। दीवान खानें के ऊपर मुख्य मार्ग की ओर का कमरा अपेक्षाकृत बङा है, जो सुंदर सोने की कलम की नक्काशी युक्त लकंी की सुंदर छतों से सुसज्जित है। यह कमरा मोल कहलाता है, जो विशिष्ट बैठक के रूप में प्रयुक्त होता है।
प्रवेश द्वारो, कमरों और मेडियों के दरवाजे पर सुंदर खुदाई का काम किया गया है। इन हवेलियों में सोने की कलम की वित्रकारी, हाथी दांत की सजावट आदि देखने को मिलती है। शयन कक्ष रंग बिरंगे विविध वित्रों, बेल-बूटों, पशु-पक्षियों की आकृतियों से युक्त है। हवेलियों में चूने का प्रयोग बहुत कम किया गया है। अधिकांशतः खाँचा बनाकर एक दूसरे को पिघले हुए शीशे से लोहे की पत्तियों द्वारा जोङा गया है। भवन की बाहरी व भीतरी दीवारें भी प्रस्तर खंडों की न होकर पत्थर के बंे-बंे आयताकार लगभग ३-४ इंच मोटे पाटों (स्लैब) को एक दूसरे पर खांचा देकर बनाई गई है, जो उस काल की उच्च कोटि के स्थापत्य कला का प्रदर्शन करती हैं।
पटवों की हवेलियाँ अट्ठारवीं शताब्दी से सेठ पटवों द्वारा बनवाई गई थीं। वे पटवे नहीं, पटवा की उपाधि से अलंकृत रहे। उनका सिंध-बलोचिस्तान, कोचीन एवं पश्चिम एशिया के देशों में व्यापार था और धन कमाकर वे जैसलमेर आए थे। कलाविद् एवं कलाप्रिय होने के कारण उन्होने अपनी मनोभावना को भवनों और मंदिरों के निर्माण में अभिव्यक्त किया। पटुवों की हवेलियाँ भवन निर्माण के क्षेत्र में अनूठा एवं अग्रगामी प्रयास है।
साभार: विकिपीडिया
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