अग्रवंशी , से श्री गुप्त ,गुप्त साम्राज्य का उदय व वैश्य धर्म,
अग्रवंशी कहूं कि सूर्यवंशी सरकार
जो दृढ़ राखे धर्म को सोही राखे करतार,
जय अग्र सरकार जय सूर्यवंश सरकार
महाराजा अग्रसेन ने बली प्रथा पर रोक लगाते हुए विरोध किया, तभी बहुत से क्षत्रियों ने यह कहके इंकार कर दिया बलि प्रथा शुरू रहेगी, जब कि महाराजा अग्रसेन निर्दोष जीवो की हत्या के खिलाफ थे, उनका मानना था कि बलि अपनी एक इच्छा की दी जाती है, अगर ईश्वर के प्रति आपका विश्वास है और आपकी मनोकामना पूर्ण होती हैं तब आप अपनी एक चीज जो जरूरी भी हो और ना भी का त्याग करें,
जब विरोध मे बाकी क्षत्रियों का साथ ना पा कर महाराज अग्रसेन ने अपना अलग ही वर्ण धारण कर लिया जो था #वैश्य धर्म, उन्होंने यज्ञ के दौरान अपने 18 पुत्रों का अभिषेक करवाया और वंश और धर्म को आगे बढ़ाने के नियम और कानून बनाये,
अग्रवाल समाज के 18 गोत्र ~
१. गर्ग
2. गोयल
३. कुच्छल
4. मंगल
5. बिदंल
6. धारण (गुप्तवंश)
7. सिघंल
8. जिंदल
9. मित्तल
10. गोयन
11. ऐरण
12. ईँदल
13. मधुकल
14. नाँगल
15. बंसल
16. तायल
17. कंसल
18. तिँगल
अग्रवाल समाज के धर्म ग्रथो के अध्ययन से मालूम होता है कि इनका राज्य इतना धनी था, जो इन्होंने अपने राज्य के हर एक व्यक्ति को एक सोने की मुद्रा और एक सोने की ईंट देकर व्यापार करने का नियम लागू किया,
इनके राज्य मे एक भी गरीब इंसान या परिवार नही था,
राजपुताना उर्फ राजस्थान के 1८ राजकुमार ने वैश्य धर्म अपनाया , जिन्हें महाराजा अग्रसेन ने अपना नाम ही नही सनातन धर्म के मुताबित चलना रहना और वैश्य धर्म का पालन करना सिखाया,
#धारण_गोत्री_श्री_गुप्त
वैस्य समाज अग्रवालों की एक गोत्र का उदय इस तरह हुआ कि सम्राट #समुद्र_गुप्त ने समूचे भारत को अपनी तलवार पर तोल दिया। साम्राज्ञी प्रभावती गुप्त ने पूना अभिलेख में स्वयं को धारण गोत्रीय बताया है।
गुप्त राजवंश
यह एक प्राचीन भारतीय साम्राज्य था, जिसका उदय प्रयाग के निकट कौशाम्बी में हुआ था, जो लगभग 240 से लगभग 605 सीई तक अपने चरम पर मौजूद था और भारतीय उपमहाद्वीप में से अधिकांश को कवर किया था...........इनका पहला प्राचीन राजा श्री गुप्त हुए थे, जिन्होंने 240 से 320ई. तक राज किया, इन्होंने #महाराजाधिराज की उपाधि धारण की,
उसके बाद
#घटोत्कच
#चंद्रगुप्त प्रथम
#कुमार_देवी
#समुंदर_गुप्त
#कुमार_गुप्त
#चंद्रगुप्त_विक्रमादित्य
जिन्होंने विक्रमदित्या की उपाधि धारण की,
# स्कन्दगुप्त
# चन्द्रगुप्त द्वितीय
आदि महान योद्धाओ का जन्म हुआ इस राजवंश मे,
श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कच गद्दी पर बैठा। २८० ई. से 320 ई. तक गुप्त साम्राज्य का शासक बना रहा। इसने भी महाराजा की उपाधि धारण की थी।प्रभावती गुप्ता के पूना एवं रिद्धपुर ताम्रपत्र अभिलेखों में घटोत्कच को गुप्त वंश का प्रथम राजा बताया गया है,इसका राज्य सम्भवतः मगध के आस-पास तक ही सीमित था
सन् ३२० में चन्द्रगुप्त प्रथम अपने पिता घटोत्कच के बाद राजा बना। चन्द्रगुप्त गुप्त वंशावली में पहला स्वतन्त्र शासक था। इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। बाद में लिच्छवि को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इसका शासन काल (320 ई. से 335 ई. तक) था।
पुराणों तथा हरिषेण लिखित प्रयाग प्रशस्ति से चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्य के विस्तार के विषय में जानकारी मिलती है। चन्द्रगुप्त ने [[लिच्छवि]] के सहयोग और समर्थन पाने के लिए उनकी राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह किया। स्मिथ के अनुसार इस वैवाहिक सम्बन्ध के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों का राज्य प्राप्त कर लिया तथा मगध उसके सीमावर्ती क्षेत्र में आ गया। कुमार देवी के साथ विवाह-सम्बन्ध करके चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली राज्य प्राप्त किया। चन्द्रगुप्त ने जो सिक्के चलाए उसमें चन्द्रगुप्त और कुमारदेवी के चित्र अंकित होते थे। लिच्छवियों के दूसरे राज्य नेपाल के राज्य को उसके पुत्र समुद्रगुप्त ने मिलाया।
हेमचन्द्र राय चौधरी के अनुसार अपने महान पूर्ववर्ती शासक बिम्बिसार की भाँति चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह कर द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की। उसने विवाह की स्मृति में राजा-रानी प्रकार के सिक्कों का चलन करवाया। इस प्रकार स्पष्ट है कि लिच्छवियों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य को राजनैतिक दृष्टि से सुदृढ़ तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बना दिया। राय चौधरी के अनुसार चन्द्रगुप्त प्रथम ने कौशाम्बी तथा कौशल के महाराजाओं को जीतकर अपने राज्य में मिलाया तथा साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित की।
चन्द्रगुप्त ने महाराजाधिराज की उपाधि प्राप्त की थी
प्रभावती गुप्त के पूना ताम्रपत्र अभिलेख में इसे 'आदिराज' कहकर सम्बोधित किया गया है श्रीगुप्त ने गया में चीनी यात्रियों के लिए एक मंदिर बनवाया था जिसका उल्लेख चीनी यात्री इत्सिंग ने ५०० वर्षों बाद सन् ६७१ से सन् ६९५ के बीच में किया पुराणों में ये कहा गया है कि आरंभिक गुप्त राजाओं का साम्राज्य गंगा द्रोणी, प्रयाग, साकेत (अयोध्या) तथा मगध में फैला था...
श्रीगुप्त के समय में महाराजा की उपाधि सामन्तों को प्रदान की जाती थी, चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार मगध के मृग शिखावन में एक मन्दिर का निर्माण करवाया था। तथा मन्दिर के व्यय में २४ गाँव को दान दिये थे
चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद 335 ई. में उसका तथा कुमारदेवी का पुत्र समुद्रगुप्त राजगद्दी पर बैठा। सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास में महानतम शासकों के रूप में वह नामित किया जाता है। इन्हें परक्रमांक कहा गया है। समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। इस साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। समुद्रगुप्त ने 'महाराजाधिराज' की उपाधि धारण की।
समुद्रगुप्त एक असाधारण सैनिक योग्यता वाला महान विजित सम्राट था। विन्सेट स्मिथ ने इन्हें नेपोलियन की उपाधि दी। उसका सबसे महत्वपूर्ण अभियान दक्षिण की तरफ़ (दक्षिणापथ) था। इसमें उसके बारह विजयों का उल्लेख मिलता है।
समुद्रगुप्त एक अच्छा राजा होने के अतिरिक्त एक अच्छा कवि तथा संगीतज्ञ भी था। उसे कला मर्मज्ञ भी माना जाता है। उसका देहान्त 380 ई. में हुआ जिसके बाद उसका पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय राजा बना। यह उच्चकोटि का विद्वान तथा विद्या का उदार संरक्षक था। उसे कविराज भी कहा गया है। वह महान संगीतज्ञ था जिसे वीणा वादन का शौक था। इसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुबन्धु को अपना मन्त्री नियुक्त किया था।
हरिषेण, समुद्रगुप्त का मन्त्री एवं दरबारी कवि था। हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति से समुद्रगुप्त के राज्यारोहण, विजय, साम्राज्य विस्तार के सम्बन्ध में सटीक जानकारी प्राप्त होती है।
काव्यालंकार सूत्र में समुद्रगुप्त का नाम 'चन्द्रप्रकाश' मिलता है। उसने उदार, दानशील, असहायी तथा अनाथों को अपना आश्रय दिया। वैदिक धर्म के अनुसार इन्हें धर्म व प्राचीर बन्ध यानी धर्म की प्राचीर कहा गया है
आज भी अग्रवंशी वैश्य समाज के लोग द्वापर युग से लेकर आज तक देश की अर्थ व्यवस्था का भार अपने कंधे पर उठाए आ रहे है, बिना व्यपार के बिना पैसे के ना किसी का राज्य चल सकता है ना ही गणराज्य, ऐसे बहुत से राजवंशों ने इन वेस्यो को अपने राज्य में व्यापार करने की अनुमति दी थी, क्योकि किसान का अनाज व्यापारी खरीदते और राजा को कर व्यापारी देते,
लाखो लोगो को रोजगार यही अग्रवंश के लोग देते आ रहे हैं,
जिनमें से
1- शेखावटी का रामगढ़ सेठान जो अपने समय का सबसे बड़ा उद्योगिक जोन था जिसमे पूरे राजस्थान के रोजगारों को रोजगार दिया जाता था, उसको बसाने वाले पोद्दार और रुइया जी बंसल गोत्र के अग्रवाल ही थे..
2- हिसार को हरयाणा की स्टील सिटी बनाने वाला जिंदल घराना भी अग्रवाल है।
3 वेदांता के अनिल अग्रवाल, पहले उद्योगपति जिन्होंने कोरोना आपदा में आगे आकर 1 करोड़ की सहायता राशि प्रदान की।
4- भारत में ऑनलाइन स्टार्टअप्स को शुरुवात अग्रवालों ने की थी - फ्लिपकार्ट, स्नैपडील से लेकर ओला,ओयो और जोमाटो तक
5 - 1857 की क्रांति के भामाशाह ~ सेठ रामजीदास गुड़वाला
6- डालमिया
7- डालमियानगर , मोदी नगर जैसे टाउनशिप जैसे इंडस्ट्रीज
8- प्रेस की आजादी के पुरोधा इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका जी
9- भारत के कॉटन किंग गोविंद राम केक्सरिया जी
10- विश्व के स्टील किंग लक्ष्मी निवास मित्तल जी
11- शेखवाटी, गुजरात के अग्रवाल
12 - जमनालाल बजाज गांधी युग के भामाशाह
यही ही नही जब नालन्दा विश्व विद्यालय को जला कर राख कर दिया गया, जब हर भारत वासी अपने धर्म और इतिहास से वंचित था तब इसी समाज ने इरिहास और धर्म शास्त्रों की रक्षा करते हुए उन्हें सुद्धिकर्ण में स्थापित किया
गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक श्री जयदयाल गोयनका जी जिन्होंने धर्म शास्त्रों को बचाया ही नही बल्कि हमे मूल रूप मे प्राप्त भी हुआ,
हिंदुओं के स्वाभिमान राम जन्मभूमि आंदोलन अशोक सिंघल जी द्वारा खड़ा किया था जो अग्रवालों द्वारा पोषित था। रामलला के लिए बलिदान देने में अग्रवालों ने अग्रणी भूमिका निभाई।
आज भी देश के 70 मंदिरों में इन्ही लक्ष्मीपति पूंजीपतियो का बोल बाला है, व्यापार में कंजूसी कर सकता है, पर कभी धर्म के मामले में नही क्योकि लगभग ब्राह्मणों के घर इन्ही पूंजीपतियो से चलते हैं और ये सचाई है जी की
कर्म कांड में अग्रवंशी सबसे आगे है ,
लेख साभार- राजेश्वर सिंह हुकुम, राष्ट्रीय अग्रवाल सभा
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