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Thursday, February 16, 2017

Vikas Agarwal is member of making Space rocket team



पिछले साल तक किराने की दुकान चलाते थे विकास। अब स्पेस रॉकेट मेकिंग टीम के हैं मेंबर।

रायपुर.छत्तीसगढ़ के छोटे से शहर कोरबा के गांव में किराने की दुकान चलाने वाले एक युवक ने मेहनत के दम पर ऊंची उड़ान भरने का सपना देखा। इसके लिए उसने इसरो का एग्जाम दिया और पांचवीं रैंक हासिल कर साइंटिस्ट बने। बुधवार को इसरो ने जिस रॉकेट से 104 सैटेलाइट भेजकर रिकार्ड बनाया, उसे बनाने में इस युवक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

-काेरबा शहर के बालगी इलाके में पुश्तैनी किराना दुकान चलाने वाले विकास अग्रवाल ने मेहनत के दम पर ऊंची उड़ान भरी है।

-6वीं कक्षा से किराना दुकान में लोगों को सामान बेचते हुए खाली समय में सेल्फ स्टडी करने वाले विकास ने साइंटिस्ट बनने का सपना देखा था।

-लगातार कड़ी मेहनत के दम पर पिछले साल वो सपने को हकीकत में बदलने में कामयाब रहे। अब वे इसरो में साइंटिस्ट हैं।

-इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) ने बुधवार को एक साथ 104 उपग्रह लॉन्च कर वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया। पीएसएलवी 37 के तहत यह उपग्रह लॉन्च किए गए।

-देश की साख बढ़ाने वाले इस मिशन में प्रदेश के 26 साल के यंग साइंटिस्ट विकास अग्रवाल का भी कॉन्ट्रीब्यूशन रहा है।

-विकास इन दिनों इसरो के त्रिवेंद्रम सेंटर में हैं। यहां सैटेलाइट को लेकर जाने वाले रॉकेट तैयार किए जाते हैं।

-सिक्योरिटी रीजंस के चलते विकास ने अपना एक्जेक्ट वर्क शेयर करने से असमर्थता जताई।

-इस मिशन में विकास का रोल ऐसे समझ सकते हैं कि रॉकेट का वो ऊपरी हिस्सा जहां सैटेलाइट कैरी किया जाता है उसे तैयार करने के प्रोजेक्ट में वे शामिल थे।

इसरो ने अपनी धमक और मजबूत कर ली

-विकास ने बताया कि सभी उपग्रहों को लेकर पीएसएलवी 37 ने श्री हरिकोटा के सतीश धवन स्पेस सेंटर से उड़ान भरी।

-इसके करीब 17 मिनट बाद रिमोट-सेंसिंग कार्टोसेट-2 को कक्षा में स्थापित कर दिया गया।

-इसरो ने करीब 28 मिनट के अंदर सभी 104 सैटेलाइट को अपनी-अपनी कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया।

-इसी के साथ वर्ल्ड स्पेस साइंस में इसरो ने अपनी धमक और मजबूत कर ली।

ऐसे पहुंचे इसरो तक

-दुकान में मिलने वाले खाली समय के अलावा विकास रोज देर रात तक पढ़ाई करते। नतीजतन, 12वीं में 89 परसेंट लाने में कामयाब रहे।

-इसी दौरान उन्होंने ग्रेजुएट एप्टीट्यूड टेस्ट इन इंजीनियरिंग यानी गेट दिया। देशभर में 1600 रैंक आई, लेकिन घरवालों ने दूर रहकर पढ़ने की अनुमति नहीं दी।

-घरवालों से कुछ भी शेयर किए बिना विकास साइंटिस्ट बनने की तैयारियों में जुटे रहे। इसरो के एग्जाम के बारे में पता चला और भर दिया फॉर्म।

-साल 2014 में इसरो का टेस्ट दिया, मगर कामयाबी नहीं मिली। निराश होने के बजाय खामियां सुधारकर दोगुने जोश से तैयारी की और साल 2015 में फिर एग्जाम दिया।

-अक्टूबर 2015 में हुए रिटन एग्जाम में देशभर से शामिल दो लाख युवाओं में विकास ने ऑल इंडिया टॉप -5 रैंक हासिल की।

-साइंटिस्ट की इस पोस्ट के लिए विकास सहित 300 लोगों को फरवरी 2016 में इंटरव्यू के लिए बुलाया गया, जिसमें विकास चुन लिए गए।

साभार दैनिक भास्कर 




Monday, February 13, 2017

History Of Nema Samaj “नेमा समाज” का इतिहास

“मनु-स्मृति”में वर्णित है कि सृष्टि के निर्माण के पूर्व ही ब्रम्हाजी ने मनुष्य जाति के लिए कुछ जीवन मूल्यों को निर्धारित करके उपदेश के रूप में महाराज मनु को प्रदान किया, जिसे महर्षि भृगु ने उन्हीं के शब्दों में धर्मशास्त्र के रूप में अन्य ऋषियों को प्रदान किया। सात्विक जीवन यापन एवं स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था हेतु एक नियमावली तय की गई थी जिसमे कहा गया था…..

धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह
धी विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्

धृतिः – धैर्य; प्रतिकूल परिस्थितियों में धैर्य न खोना।

क्षमा – बिना बदले की भावना से किसी को भी क्षमा करना।

दमो – मन को नियंत्रित कर मन का स्वामी बनना।

अस्तेय – किसी अन्य के स्वामित्व की वस्तुओं एवं सेवा का

उपयोग न करना या चोरी न करना।

शौचं – विचार, शब्द और कार्य में पवित्रता।

इन्द्रिय निग्रह- इन्द्रियों को नियंत्रित करके स्वतंत्र होना।

धी। – विवेक, जो कि मनुष्य को सही एवं गलत में

अंतर बताये।

विद्या – भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान।

सत्य – जीवन के हर क्षेत्र में सत्य का पालन करना।

अक्रोधो- क्रोध न करना क्योंकि क्रोध से हिंसा पैदा होती है।

यही वे दस नियम थे जिनका अक्षरशः नियम से पालन करने के कारण हम ‘नेमा’कहलाये।

(2)हमारी गौत्र व्यवस्था………..

“नेमा” और “नीमा” वैश्य समुदाय की उपजातियाँ हैं जो मुख्यतः भारत के मध्यप्रदेश में पायी जाती हैं।कहते हैं यह नाम हमें हमारे पूर्वज राजा “निमी” से प्राप्त हुआ है।पौराणिक कथाओं के अनुसार जब महिर्षि परशुराम क्षत्रियों का नाश कर रहे थे, तब महिर्षि भृगु ने लगभग 30 क्षत्रियों को अपने आश्रम में पनाह दी और अपने गुरुकुल में उन्हें स्वयं की रक्षा करने के लिए वणिक जाति के गुणधर्मों की शिक्षा-दीक्षा दी।भृगु ऋषि ने अपने इन शिष्यों को 14 ऋषियों में नियोजित किया और इन्हीं ऋषियों के नाम के अनुसार नेमाओं को 14 गोत्रों में वर्गीकृत किया गया है………

1. सेठ मोरध्वज

2. पटवारी कैलऋषि

3. मलक रघुनंदन

4. भौंरिया वासन्तन

5. खिरा बालानंदन

6. ड्योढ़िया शांडिल्य

7. चंदरेहा संतानी तुलसीनंदन

8. ट्योंठार गर्ग

9. रावत नंदन

10. भंडारी विजयनंदन

11. खंडेरेहा सनकनंदन

12. चौसहा शिवनंदन

13. किरमनिया कौशलनंदन

14. औगान वशिष्ठ

नीमा और नेमाओं की अन्य उपाधियों में लगभग एक समान गोत्रों का ही प्रचलन है जिसका उपयोग वैवाहिक परिप्रेक्ष्य में किया जाता है। मध्यभारत में ज्यादातर लोग नाम के साथ ‘नेमा’ कुलनाम प्रयोग करते हैं जबकि यही मालवा एवं गुजरात में ‘नीमा’ शब्द से उच्चारित किये जाते हैं।

(3) ऐतिहासिक पृष्ठभूमी………

इतिहासकारों ने जितनी सजगता एवं तत्परता राजवंशों के लेखन में दिखायी है उतनी जातीय इतिहास लेखन में नहीं। यही कारण है कि जातीय एवं उपजातीय इतिहास विशुद्ध रूप से सामने नहीं आ पाया।नेमा मुख्यतः व्यापार एवं वाणिज्य के लिए जाने जाते रहे हैं। राजवंशों के शासनकाल में जब विभिन्न प्रकार की मुद्राओं का चलन था तब ये ‘सेठ’ और ‘महाजन’ कहे जाते थे।अलग-अलग व्यवसाय के अनुसार आड़त का धंधा करने वाले आड़तिया, सोने-चाँदी का धंधा करने वाले सराफ, मंडी में क्रय विक्रय की मध्यस्थता करने वाले ठडवाल, औषधि विक्रेता महाजन पंसारी कहलाते थे। राज्य तथा जागीरों की प्रशासनिक व्यवस्था से सम्बद्ध महाजनों को वेतन के बदले भूमि दी जाती थी तो कुछ कृषि कार्य भी करने लगे थे। वैश्यो की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। जागीरों की प्रशासन व्यवस्था चलाने, सामंतों को ऋण प्रदान करने में, ब्रिटिश सरकार को खिरज चुकाने तथा राजपूतों को अपनी सामाजिक रूढ़ियों और गौरव का निर्वाह करने के लिए समय समय पर सेठ साहूकारों की शरण लेना पड़ता था। इससे वैश्य महाजनों का सामाजिक और राजनितिक रुतबा भी था।

(4)मूल निवास और पलायन……………

नेमाओं की उत्पत्ति जयपुर,राजस्थान रियासत मानी जाती है।18 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध से ब्रिटिश संरक्षण की स्थापना तक अंतरराज्यीय युद्धों, उत्तराधिकार संघर्ष, महाराणा और उसके सामंतो के पारस्परिक संघर्ष के चलते राज्य की आर्थिक स्थिति अस्तव्यस्त हो गयी थी और पारंपरिक व्यवसाय करना पहले जैसी मर्यादा न रह गया था। प्रमाण मिलता है कि राजपूतों के पतन के बाद खिन्न,एक विशाल वैश्य समुदाय पलायन करके मध्यभारत आ गया। ये लोग शांतिपूर्ण एवं खुशहाल जीवन जीना चाहते थे तो इन्होंने गोंडवाना के उपजाऊ क्षेत्र, जो कि नर्मदा और उसकी सहायक नदियों के आसपास थे को चुना और आकर बस गए।उपनिवेशवाद के दौर में विश्व युद्ध के दौरान अंतर्देशीय विद्रोह के बाद कई लोग आफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, मॉरिसस आदि देशों में चले गए।नतीजतन आज नेमा पूरी दुनिया में मौजूद हैं। उन्होंने अपने रहने और भाषा के हिसाब से अपनी संस्कृति को बदला है किन्तु आज भी उनकी विरासत के मद्देनजर कहा जाता है कि नेमा पूरी दुनिया में कहीं भी रहें उनका एक न एक रिश्तेदार नरसिहपुर का अवश्य ही रहता है।

(5) सामाजिक भेद……बीसा, दसा और पचा समाज………

नेमा उपजाति की संख्या 10 से 15 हजार होने का अनुमान है जिसमे अधिकांशतः सागर, दमोह, नरसिंहपुर, सिवनी जिलों में रहते है। कुछ नेमा उपजातियां मध्यभारत के निमार से बुंदेलखंड में आ बसी हैं जो बगैर पानी में पकाया हुआ भोजन करती हैं उन्हें गोलापूर्व बनिया कहा जाता है। ये मुख्यतः हिन्दू हैं,जैनों की मिश्रित जातियां।

अन्य वैश्य समाजों की तरह नेमा भी बीसा, दसा, और पचा शाखाओं में बंटे हुए हैं। राजपूत काल में समाज उपेक्षित जातियों के लोगों ने जैन धर्म अंगीकार कर लिया था। धीरे-धीरे जाति मिश्रण प्रक्रिया के फलस्वरूप इनमें शाखा,प्रशाखा, गौत्र आदि के भेद उत्पन्न हो गए थे। जातिवादी अलगाव की भावना प्रबल होती गयी। ऊँच-नीच का सामाजिक भेद-विभेद विवाह संबंधों में मापा जाने लगा था, जो कि मान्यता स्वरुप आज भी जारी है। बीसा शुद्ध रूप,जबकि दसा अनियमित समुदाय माना जाता है।महाजनों द्वारा अन्य जाति की स्त्रियों से उत्पन्न सदस्य अर्धजातिक होते थे, जिन्हें पंचाल या पांचड़ा(पचा) कहा जाने लगा था। कुछ पीढ़ियों के बाद पूर्वजों का विवरण भुला दिया गया फलतः कुछ पचा भी दसा समाज में मिश्रित हैं।दसा और बीसा एक साथ भोजन तो कर सकते हैं किन्तु आपस में विवाह नहीं कर सकते ऐसी मान्यता बना दी गई थी। यहाँ इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि आज की अपेक्षा हमारे पूर्वज अधिक धार्मिक थे किन्तु वे सामाजिक मामलों में पूर्णतया बुद्धि, विवेक और सिद्धांतवादी थे। आज जैसी संकीर्णता उनमें न थी। उच्च गुण,कर्म, स्वभाव वाली कन्या के लिए वैसा ही वर ढूंढा जाता था। वर्ण में गुणों का मेल होना आवश्यक था, जाति-उपजाति और जो ये शाख़ाएँ हैं, बीसा, दसा, पचा उनमें नहीं।कन्याओं के लिए ही नहीं,लड़कों के लिए भी उच्च गुणों वाली लड़की ढूंढी जाती थी फिर वह भले ही निम्न कुल की क्यों न हो।प्रसन्नता पूर्वक इन विवाहों को सामाजिक मान्यता प्राप्त होती थी और इससे व्यक्ति की सामाजिक वरीयता और प्रतिष्ठा में कोई अंतर नहीं आता था। कहने का तात्पर्य वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आत्म विश्लेषण और सामाजिक विश्लेषण दोनों आवश्यक हैं।

(6) वर्तमान परिदृश्य………..

वर्तमान में नेमा अपनी ईमानदारी, कर्मठता और कर्तव्यनिष्ठा के लिए जाने जाते हैं।आज वे विभिन्न कार्यक्षेत्रों में अग्रणी हैं। वकालत के क्षेत्र में, बैंकिंग में, चिकित्सा के क्षेत्र में, इंजिनियर और साफ्टवेअर प्रोफेशनल के रूप में हर जगह नेमा छाये हुए हैं।कुछ प्रतिष्ठित परिवार है जिन्होंने समाज को प्रभवित किया है जिनमें भोपाल का लहरी परिवार, सागर का चौधरी परिवार, नरसिंहपुर का बड़ा घर, मंझला घर, संझला घर, नन्हा घर,पुरावाले परिवार, नाजर, खिरा एवं खुरपे परिवार,वेदू का चौधरी परिवार जबलपुर का गुप्ता परिवार, सतना का नायक परिवार, करेली के भौंरिया,सेठ एवं मंदिर वाला परिवार, मेख का बाखर परिवार, पनारी का मोदी परिवार इत्यादि। आज नेमा भारत भर में हैं। मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर, जबलपुर, सतना, सिवनी, घंसौर, छिंदवाड़ा, अमरवाड़ा, सागर, भोपाल में ये बहुतायत में निवासरत हैं।

हमारी आज की पीढ़ी को भूतकाल से अवगत कराने के लिए उक्त सभी जानकारियाँ इकट्ठी की गयी हैं। कई जानकारियाँ दोषपूर्ण भी हो सकती हैं किन्तु मुख्य उद्देश्य ये है कि हम हमारी विरासत से कौन सी अच्छी बातों को अपने वर्तमान परिवेश में स्थान दें और भावी पीढ़ी के चरित्र निर्माण और सामाजिक निर्माण में कौन सी बातों का अहम स्थान होना चाहिए इसका विश्लेषण कर सकें, आत्ममंथन कर सकें।समीक्षा अवश्य कीजियेगा, कोई त्रुटि हो तो वो भी अवश्य कहियेगा………

साभार:सिद्धार्थनेमा,  http://nemasamajindia.com


Thursday, February 2, 2017

वैश्य समाज की वैश्विक विरासत

वैश्य समाज की वैश्विक विरासत (विरासत ट्रस्ट द्वारा शोध-परियोजना) 

भारतीय समाज-व्यवस्था में वैश्य समाज का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वैश्य समाज के अन्तर्गत अग्रवाल, माहेश्वरी, खण्डेलवाल, विजयवर्गीय, ओसवाल, जायसवाल, बरनवाल, जैन, केसरवानी, माथुरवैश्य, गहोईवैश्य, राजवंशी, रस्तोगी, रौनियार, वाष्र्णेय आदि अनेक घटक हैं। 

वैश्य समाज का प्राचीनकाल से वैश्विक स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण अवदान रहा है। यह अवदान परम्परागत विरासत के रूप में वर्तमान वैश्विक पीढ़ी को प्राप्त हुआ है तथा भावी पीढि़यों को प्राप्त होता रहेगा।

यूनानी शासक सेल्यूकस के राजदूत मैगस्थनीज ने वैश्य समाज की विरासत की प्रशंसा में लिखा है-‘कि देश में भरण- पोषण के प्रचुर साधन तथा उच्च जीवन-स्तर, विभिन्न कलाओं का अभूतपूर्व विकास और पूरे समाज में ईमानदारी, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तथा प्रचुर उत्पादन वैश्यों के कारण है।' 

डाॅ. दाऊजी गुप्त वैश्य समाज की विरासत को रेखांकित करते हुए लिखते हैं- ‘वणिकों की आश्चर्यजनक प्रतिभा का प्रथम दिग्दर्शन हमें हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में प्राप्त होता है। उस समय जैसे वैज्ञानिक ढंग से बसाए गए व्यवस्थित नगर आज संसार में कहीं नहीं हैं।आज के सर्वश्रेष्ठ नगर न्यूयार्क, पेरिस, लंदन आदि से हड़प्पा सभ्यता के नगर कहीं अधिक व्यवस्थित थे। ललितकला शिल्पकला और निर्यात-व्यापार पराकाष्ठा पर थे। इनकी नाप-तौल तथा दशमलव-प्रणाली अत्यन्त विकसित थी। भारतीय वणिकों ने चीन, मिश्र, यूनान, युरोप तथा दक्षिणी अमेरिका आदि देशों में जाकर न केवल अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ाया अपितु उन देशों की अर्थव्यवस्था को भी सुधारा। ईसा से 200 वर्ष पूर्व कम्बोडिया, वियतनाम, इण्डोनेशिया, थाईलैण्ड आदि देशों में जाकर बस गए। वहाँ उनके द्वारा बनवाए गए उस काल के सैंकड़ों मन्दिर आज भी विद्यमान हैं। उसी काल में वे व्यापारी भारत से बौद्ध संस्कृति को अपने साथ वहाँ ले गए। वणिकों ने भारतीय धर्म, दर्शन और विज्ञान से सम्बन्धित लाखों ग्रन्थों का अनुवाद कराया जो आज भी वहाँ उपलब्ध हैं।'

वैश्य समाज की समाजसेवा प्रवृत्ति की प्रशंसा में राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने दिल्ली में 22 फरवरी 2009 को भाषण के दौरान कहा था कि ‘इस समाज का प्रेम और सद्भाव देश को मंदी के दौर से उबारने में सक्षम है। समाज लोगों की मदद में जुटा हुआ है। सामान्य हैसियत वाला वैश्य बन्धु भी जनसेवा में पीछे नहीं है। ऐसा समाज ही देश को सुदृढ बनाने की क्षमता रखता है।'

राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने 2 जनवरी 2009 को हैदराबाद में विचार प्रकट करते हुए कहा था कि ‘वैश्य समाज ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में बहुत बड़ा योगदान दिया । स्वतन्त्रता के बाद भी राष्ट्र निर्माण में वैश्य समाज की भूमिका सराहनीय रही। वैश्य समाज ने अपने वाणिज्यिक ज्ञान और व्यापारिक निपुणता का लोहा देश में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में मनवाया है। वैश्य समाज ने देश को बहुत से चिकित्सक, इंजीनियर, वैज्ञानिक समाजसेवी आदि दिए हैं तथा आर्थिक प्रगति और विकास कार्य में हमेशा भरपूर योगदान किया है।

22 जुलाई 1998 को भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति कृष्णकान्त ने वैश्य समुदाय को समाज का महत्त्वपूर्ण घटक बताते हुए कहा था - ‘भारत का सांस्कृतिक इतिहास बताता है कि व्यापार संस्कृति के प्रसार में भी बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है। भारत के गणित खगोलशास्त्र आदि का ज्ञान धर्म-प्रचारकों के अलावा व्यापारियों द्वारा ही अरब और मध्य- एशिया के देशों में पहुँचा था और वहाँ से फिर यूरोप में। वैश्य प्राचीन समय से देश की अर्थव्यवस्था की रीढ रहे हैं।' 

किन्तु वैश्य समाज की महनीय विरासत को इतिहास में उचित स्थान नहीं मिला। इतिहासकारों की संकुचित प्रकृति ही इसका कारण है। किसी देश व समाज का समग्र इतिवृत्त ही इतिहास का विषय होता है, पर प्रायः राजवंशों के उत्थान-पतन के साथ ही इतिहास के आरोह-अवरोह का संगीत चलता रहा है। राजवंशों का इतिहास दरबारी इतिहासकारों पर निर्भर रहा। ऐसे इतिहासकार पूर्ण सत्य का दर्शन न करा सके, फलस्वरूप अपूर्ण इतिहास केवल राजाओं के जन्म, राज्यारोहण, मृत्यु, युद्ध और सुधार के कार्यों में ही चक्कर काटता रहा।

भारतीय समाज की संरचना अनेक जातीय समाजों के योग से हुई है। प्रत्येक जातीय समाज की विशिष्ट मौलिक सांस्कृतिक-विरासत एवं राष्ट्रीय अवदान है। सभी जातीय समाजों के समग्र-विकास में ही भारतीय समाज का समग्र विकास निहित है। प्रखर राष्ट्रवादी चिन्तक दादाभाई नौरोजी ने कहा है कि सब जातीय समाज संगठित होकर कुरीति-निवारण, शिक्षा प्रसार आदि सामाजिक कार्यों में संलग्न रहें तो भारत एक सशक्त और अखण्ड राष्ट्र बना रहेगा- 

“If every caste and community formed its individual association and sincerely worked to eradicate social evils,to remove illiteracy and to spread education, aal the communities will ere long become national minded. Unity in various communities will automatically lead to converting All india communities without distinction of caste, creed and colour into one strong united Nation.” 

भारत की संविधान परिषद् के सदस्य डाॅ. सच्चिदानन्द सिन्हा ने जातीय समाजों की राष्ट्रीय विकास में भूमिका की सराहना करते हुए कहा था कि कोई समाज अपने अंगों की प्रगति से ही उत्कर्ष के शिखर पर पहुँचता है-

Societies advance as their component parts advance. As long Hindu Society was divided into castes, whose rules of behaviour of the progress were accepted by their members,social advance had to be a function of the progress made by each caste component. Before there can be a true spirit of nationality in our country each component part of the people must realise that its individualisation has realised a point in self-expression when it is desirable in the interest of further advanceor progress to merge its of with other groups or communities.

अतः वैश्य समाज की वैश्विक विरासत को उजागर करने के लिए अनुसन्धान की महती आवश्यकता है। इतिहास के शोधाश्रित पुनर्लेखन से ही पूर्ण सत्य प्रकाशित हो सकेगा तथा भावी पीढियाँ वास्तविक इतिहास को जान सकेंगी। पूर्व राष्ट्रपति श्री शंकरदयाल शर्मा का यह कथन सर्वथा यथार्थ है- ‘हमारे राष्ट्र में जितने भी समाज हैं उनका गहराई और विस्तार से अध्ययन किया जाना चाहिए, ताकि उनकी सांस्कृतिक विरासत के तत्त्वों को आने वाली पीढी के सामने रखा जा सके।

साभार : 
virasattrustsikar.blogspot.in/2014/07/blog-post.html