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Saturday, December 2, 2023

ABHINAV GUPTA - DGP UTTRAKHAND

ABHINAV GUPTA - DGP UTTRAKHAND 

अभिनव_कुमार_गुप्ता बने देवभूमि #उत्तराखंड के पुलिस प्रमुख (DGP)...उत्तर प्रदेश में #बरेली जिले के मूल #निवासी अभिनव कुमार गुप्ता 1996 बैच के #आईपीएस ऑफिसर है उनको उत्तराखंड के #पुलिस प्रमुख की जिम्मेदारी दी गई है....



श्री  अभिनव गुप्ता जी को  सर्व वैश्य समाज की ओर से हार्दिक शुभकामनाएं एवं बहुत बहुत बधाई और उज्जवल भविष्य की कामना।

Monday, November 6, 2023

THE SECRET OF SUCCESS OF #BANIYA MARWADI COMMUNITY IN BUSINESS

THE SECRET OF SUCCESS OF #BANIYA MARWADI COMMUNITY IN BUSINESS 

#बनिया (वैश्य) समुदाय, मारवाड़ियों का व्यापार में कुशल और सफल होने का क्या कारण है ? - THE SECRET OF SUCCESS OF BANIYA COMMUNITY, IN BUSINESS :

बनिया समाज में अग्रवाल, माहेश्वरी और जैन (ओसवाल, पोरवाल आदि) लोगों को लिया जाता है - मैं यहाँ पर राजस्थान के इन लोगों के बारे में बताऊंगा, जिनको मारवाड़ी भी कहा जाता है. ये एक अफ़सोस है, कि साम्यवादी लेखकों के निहित लक्ष्यों के कारण मारवाड़ी को हर साहित्य और हर फिल्म में एक लोभी लालची के रूप में दर्शाया जाता रहा है. कोई भी फिल्म देखिये या कोई भी काल्पनिक उपन्यास पढ़िए - कुछ पात्र इस प्रकार लिखे जाएंगे - एक मारवाड़ी होगा जो बहुत लोभी और निर्दयी होगा और एक पठान होगा जो बहुत सहयोगी होगा - ये जानबूझ कर इस समाज को हीनभावना से भरने का षड्यंत्र था.

(हमारी ओर से : पहले तो यह स्पष्ट कर दें, कि 'मारवाड़' राजस्थान का एक क्षेत्र हैं, जिसमें बाड़मेर, जोधपुर, पाली, जालोर और नागौर जिले आते हैं. सही मायने में इस क्षेत्र में रहने वाले सभी लोग, चाहे वोह किसी भी जाति, या धर्म के हों, 'मारवाड़ी' कहलाते हैं, पर व्यवहार में केवल वैश्य/अग्रवालों को ही मारवाड़ी समझा जाता है. हमने इस लेख की मूल भावना को बिना बदले, इसमें कुछ सम्पादन, कुछ अपनी ओर से जोड़ा है).

मारवाड़ी समाज के बारे में कुछ शोध-आधारित सामग्री प्रस्तुत है :
अगर आप फिल्मों में दिए हुए इम्प्रैशन को एक बार के लिए हटाएंगे, तो इसको पढ़ पाएंगे. नहीं तो आप ये ही मान कर चलेंगे - मारवाड़ी यानी .... .परिवर्तन संसार का नियम है और इसका कोई अपवाद नहीं है. हर अगली पीढ़ी को अपनी पिछली पीढ़ी पुरानी, दकियानूसी, पुरातनपंथी और अविकसित नजर आती है. इसी कारण हर अगली पीढ़ी पिछली पीढ़ी की व्यवस्थाओं को बदल देती है और नयी व्यवस्थाएं स्थापित करने का प्रयास करती है. इसी प्रक्रिया में कई परम्पराएं लुप्त हो जाती है और फिर हम चाह कर भी उनको नहीं सहेज सकते हैं. ऐसी ही एक व्यवस्था है मारवाड़ी प्रबंधन शैली.

नयी पीढ़ी ने पाश्चात्य शिक्षा को अपना लिया है और वे अपने आपको मारवाड़ी कहने में भी संकोच करते हैं. जो मारवाड़ी प्रबंध शैली अनेक वर्षों की गुलामी के बाद भी सलामत रह गयी, वो आजादी के बाद उपेक्षा का शिकार हुई और कुछ ही दशकों में लुप्त हो गयी. सरकार या किसी भी प्रबंध संस्थान की तरफ से इस अद्भुत प्रबंध शैली को लिपिबद्ध करने के लिए कोई प्रयास नहीं हुए. भारतीय प्रबंध संस्थानों ने विदेशों की प्रबंध (management) शैलियों को सीखने और समझने में अपना सारा समय लगा दिया और उन्ही प्रबंध शैलियों को आगे बढ़ावा दिया, लेकिन इस अद्भुत प्रबंध शैली को हीन दृष्टि से देखा और उस उपहास के कारण ये व्यवस्था आज लुप्त हो चुकी है. आज का ये फैशन बन गया है, कि प्रबंध सीखना है, तो अमेरिका की कुछ प्रबंध संस्थाओं में जाओ (वो संस्थाएं वाकई महान है), लेकिन अफ़सोस तो ये है की अद्भुत प्रबंध दक्षता रखने वाले मारवाड़ी अपनी नयी पीढ़ी को अपनी प्रबंध दक्षता सिखाने की बजाय इसी फैशन में बह कर विदेश से प्रशिक्षित करवा रहे हैं. आधुनिक शिक्षित लोगों ने ऐसा चश्मा पहना है की उनको भारतीय व्यवस्थाओं में अच्छाइयां ढूंढने से भी नहीं मिलती हैं - शायद उनको मेरे इस लेख में भी कुछ भी कम का न मिले. लेकिन 100 साल बाद पश्चिम से किसी ने भारत पर अध्ययन किया और फिर किसी ने पूछा, कि अद्भुत भारतीय व्यवस्थाओं को समूल नष्ट करने के लिए कौन जिम्मेदार है तो क्या जवाब देंगे ?

एक समय मारवाड़ी व्यावसायिक दक्षता पूरी दुनिया में अपनी अद्भुत पहचान स्थापित कर चुकी थी, लेकिन आज ये कला लुप्त होने के कगार पर है. मारवाड़ी प्रबंध शैली दुनिया में कहीं पर भी पूरी तरह से लिखी हुई नहीं है और ये उन लोगों के साथ ही विदा हो गयी है जो लोग इस कला में मर्मज्ञ थे. लेकिन जैसे ही ये पूरी तरह लुप्त हो जायेगी - वैसे ही हमें अहसास होगा की एक बहुत ही शानदार प्रबंध व्यवस्था हमने खो दी है.

लुप्त हुई मारवाड़ी व्यवस्था का आज कोई जिक्र बेमानी है, लेकिन फिर भी उनकी कुछ व्यवस्थाओं के बारे में मैं अवश्य जिक्र करना चाहूँगा :

1. मौद्रिक प्रबंधन और ब्याज गणना की अद्भुत व्यवस्था :

मारवाड़ी प्रबंध व्यवस्था का आधार मौद्रिक गणना है और इसी कारण ब्याज को नियमित रूप से गिना जाता है, जो कि पैसे के समुचित सदुपयोग के लिए जरुरी है. फिल्मों में मारवाड़ी ब्याज पर बहुत ही उपहास और व्यंग्य नजर आते हैं, लेकिन आज ये ही व्यवस्थाएं आधुनिक बैंकिंग संस्थाएं अपना रही है. बाल्यकाल से ही गणना (गणित) का प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था और इसी कारण बिना केलकुलेटर के भी कोई भी व्यक्ति दशमलव अंकों की गुना-भाग भी आसानी से कर लिया करते थे और गणना में छोटी से छोटी गलती की भी बड़ी सजा मिलती थी. ब्याज जितना होता है, उतना ही लेना सिखाया जाता है - एक पैसा भी हराम का लेना पाप है और इसी प्रशिक्षण के कारण मारवाड़ी ब्याज की गणना भी करता है, लेकिन अपने धर्म का भी पालन करता है. लेकिन अफ़सोस ये है, कि आपने तो फिल्मों में उसको हमेशा लोभी और लालची के रूप में ही देखा है. आप जब तक मारवाड़ी परिवारों में रह कर ये सब नहीं देखोगे, विश्वास नहीं करोगे. मैंने तो बचपन से ये सब देखा भी है और बार बार आजमाया भी है. कई बार जान बुझ कर ज्यादा भुगतान कर के भी देखा और एक एक पाई वापिस लेनी पड़ेगी, क्योंकि हराम का नहीं लेना बचपन से सिखाया जाता है - बचपन से ये ही प्रशिक्षण मिलता है, कि सही नियत रखिये और सही गणना करिये.

2. जीवन पर्यन्त की प्रबंध कारिणी - यानी मुनीम व्यवस्था :

मारवाड़ी व्यवस्था में मुनीम को बहुत ही अधिक महत्त्व दिया जाता था. मुनीम को आधुनिक व्यवस्था के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के सामान इज्जत और सम्मान दिया जाता था और उसके ऊपर पूरा विश्वास किया जाता था. उसको पारिवारिक सदस्य की तरह सम्मान मिलता था. उसको जीवन पर्यन्त के लिए व्यवसाय का प्रबंधक नियुक्त कर दिया जाता था. उसके परिवार की जिम्मेदारियां भी उठाई जाती थी, ताकि उसके परिवार को कोई परेशानी न हो.

3. पड़ता व्यवस्था :

मारवाड़ी निर्णय का आधार पड़ता यानी शुद्ध लाभ. शुद्ध लाभ की गणना का ये तरीका अद्भुत था. इसमें सिर्फ अस्थायी आय और अस्थायी खर्चों के आधार पर हर निर्णय से मिलने वाले शुद्ध लाभ या हानि पर चिंतन कर के ये निर्णय लिया जाता था, कि मूल्य क्या रखा जाए.

4. संसाधन बचत :

मारवाड़ी अपने हर निर्णय में संसाधनों का कमसे कम इस्तेमाल कर के अधिक से अधिक बचत करने का प्रयास करते थे और इस प्रकार पर्यावरण की बचत में योगदान देते थे. मारवाड़ी एक दूसरे को चिठ्ठी भी लिखते थे, तो उसमे कम से कम कागजों का इस्तेमाल करते हुए अधिक से अधिक जानकारियां प्रेषित करते थे.

5. बदला व्यवस्था :

मारवाड़ी अपने सौदों को भविष्य में स्थानांतरित करने के लिए बदला व्यवस्था काम में लेते थे, जिसके तहत सौदों को आगे की तारीख पर करने के लिए निश्चित दर से ब्याज की गणना होती थी. (ऐसी ही कुछ व्यवस्था विकसित करने के लिए दो अर्थशास्त्रियों को हाल ही में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, लेकिन मारवाड़ियों की इस व्यवस्था को रोक दिया गया था). शेयर बाजार में भी यह व्यवस्था लम्बे समय तक चलती रही.

6. हुंडी व्यवस्था :

आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था के शुरू होने से अनेक वर्ष पहले से मारवाड़ी व्यापारी हुंडी व्यवस्था को चलाते आ रहे हैं, जिसको अंग्रेजों ने पूरी तरह से रोक दिया और फिर आजादी के बाद आधुनिक सरकार ने पूरी तरह से ख़तम कर दिया था. ये हुंडी व्यवस्था आज की आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था से कम लागत पर मुद्रा के स्थानांतरण का माध्यम था, जिसमे बिना तकनीक या बिना इंटरनेट के भी आज की तरह ही एक जगह से दूसरी जगह पर मुद्रा का आदान प्रदान होता था.

7. पर्यावरण अनुकूल निर्णय :

मारवाड़ी हमेशा पर्यावरण अनुकूल निर्णय लिया करते थे - जिसमे वे स्थानीय पर्यावरण को नुक्सान पहुंचाए बिना ही व्यापार और व्यवसाय को बढ़ावा देने का प्रयास करते थे.

8. धार्मिक और आध्यात्मिक चेतना :

व्यापार शुरू करने से पहले वे मंदिर बनाते थे और 'शुभ-लाभ' लिखते थे. शुभ, यानी हर व्यक्ति का कल्याण लाभ से पहले लिखते थे, ताकि हर निर्णय को सबके कल्याण के लिए ले सकें. हर निर्णय को धर्म और अध्यात्म के आधार पर जांचा जाता था. तकनीक के देवता विश्वकर्मा की पूजा की जाती थी, तो धन के देवता गणेश और लक्ष्मी को आराध्य माना जाता था. सभी निर्णय सिद्धांतों पर आधारित होते थे और सबसे बड़ा सिद्धांत ये था, कि जो भी निर्णय हो, वो जीवन को जन-कल्याण और आत्मकल्याण की तरफ ले जाए. जीवन का मकसद था - केवल ज्ञान की तरफ जाना और इसी लिए हर निर्णय को पुण्य का अवसर के रूप में देखा जाता था, पाप से बचने के प्रयास किये जाते थे. ऐसी तकनीक नहीं अपनायी जाती थी, जिससे जीवों का नाश हो. शुरुआत करते समय से ही सकल भ्रमांड के कल्याण को आदर्श के रूप में रखा जाता था.

9. देवों को अर्पण :

हर व्यापारिक निर्णय श्री गणेश और रिद्धि सिद्धी की आराधना के बाद किया जाता है. श्री गणेश विघ्नहर्ता हैं तो उनकी पत्नियां ऋद्धि-सिद्धि यशस्वी, वैभवशाली व प्रतिष्ठित बनाने वाली होती है. आय का कुछ हिस्सा देवों को अर्पित कर दिया जाता था, जो किसी न किसी रूप में समाज के कल्याण के काम में आता था. व्यापार की आम्दानी का कुछ भाग गोशाला या ऐसी ही अन्य किसी संस्था को देने से ये माना जाता था, कि देवताओं का हिस्सा उनको अर्पित कर दिया गया है. प्राचीन भारत में इसी कारण मंदिरों में प्रचुर संपति दान में आती थी, जो किसी न किसी रूप में समाज के कल्याण हेतु अर्पित की जाती थी.

10. गद्दियों की व्यवस्था :

आधुनिक तड़क भड़क की जगह मारवाड़ी अपने व्यापारिक प्रतिष्ठानों में गद्दियों की व्यस्था रखते थे, जो बहुत ही आरामदायक, आत्मीयता पूर्ण और स्वच्छता पर आधारित माहौल बनाती थी. ये मेहमानों के ढहरने के लिए भी काम आती थी. किसी मेहमान को जरुरत के समय इन्हीं गद्दियों में रुकने के लिए पर्याप्त व्यवस्था कर दी जाती थी, ताकि अनावश्यक होटल का खर्च भी नहीं होता था. आधुनिक एयर कंडीशन ऑफिसों से तुलना करके पर्यावरण के ज्यादा अनुकूल क्या है, ये आप स्वयं तय कर सकते हैं.

11. बचत और उत्पादकता पर जोर :

मारवाड़ी व्यवस्था में बचत और उत्पादकता पर बहुत अधिक जोर दिया जाता था और इसी कारण विषम परिस्थितियों में भी मारवाड़ियों ने व्यापार कर के अपने आप को सफल बनाया. आधुनिक कंपनियों की जगह पर मारवाड़ियों ने बचत और उत्पादकता के क्षेत्र में शानदार कार्य किया और वैश्विक व्यापार स्थापित किया. रविवार की जगह पर अमावस्या की छुट्टी होती थी (यानि महीने में सिर्फ एक दिन की छुट्टी). सामान्य दिनों में भी कार्य के घंटे बहुत ज्यादा होते थे, लेकिन हर कर्मचारी को साल में एक महीने अपने गांव जाने की छुट्टी दी जाती थी.

12. जरुरत पड़ने पर राज्य की मदद :

मारवाड़ी व्यवसायी उस समय के राजा की जरुरत के समय आर्थिक मदद किया करते थे और इसी कारन अनेक शहरों में मारवाड़ी व्यापारियों को नगर-शेठ की उपाधि दी जाती थी. कई बार देश हित में व्यापार और उद्यम की बलि भी चढ़ा दी जाती थी. भामा शाह द्वारा महाराणा प्रताप के लिए अपने खजाने खोल देने की ऐतिहासिक घटना को हम सब जानते ही है !

13. स्थानीय लोगों की भागीदारी :

मारवाड़ी जहाँ पर भी व्यापार करने के लिए जाते थे, वहां के स्थानीय लोगों को अपने व्यापार और उद्योगों से लाभान्वित करने का प्रयास करते थे और इसी कारण उनको स्थानीय लोगों से पर्याप्त सहयोग और सम्मान मिलता था.

14. शांतिपूर्ण ढंग से विरोध को सहना :

मारवाड़ियों को अन्य भारतियों की तरह सत्ता पक्ष से विरोध का समना करना पड़ा. डाकुओं, लुटेरों और अनेक अधिकारियों को मारवाड़ी सरल लक्ष्य नजर आते थे, जिन पर वे अपने अत्याचार आसानी से कर लेते थे. सत्ताधारी उनसे मनमाना टैक्स वसूलते थे. ब्याज की सूक्ष्म गणना किसी को भी अच्छी नहीं लगती थी. लोग मारवाड़ियों से पैसे तो उधार लेना चाहते थे, लेकिन ब्याज नहीं देना चाहते थे, लेकिन मारवाड़ियों की सफलता का आधार ही उनकी सूक्ष्म गणना थी, जिस के कारण वे पैसे के सही इस्तेमाल पर जोर देते थे. अंग्रेजों और उनके इतिहासकारों ने मारवाड़ियों को सूदखोर के रूप में प्रचारित किया, क्योंकि अंग्रेजों को मारवाड़ियों की व्यवस्था बैंकिंग व्यवस्था से बेहतर नजर आयी और वे आधुनिक बैंकिंग को बढ़ावा देने के लिए मारवाड़ियों को हटाना चाहते थे. हालाँकि, मारवाड़ी खुद बैंकिंग व्यवस्था के समर्थक थे और बैंकें भी मारवाड़ियों की तरह चक्रवर्ती ब्याज लेती थी. मारवाड़ी किसानों को जरुरत के समय पर ऋण प्रदान करदेते थे और इसी कारण अनेक वर्षों से मारवाड़ियों ने किसानों के साथ मिल कर हर जगह पर कृषि को सफल बनाने में योगदान दिया था, लेकिन ये आधुनिक व्यवस्था में नकारात्मकता के माहौल में तब्दील हो गया. अंग्रेजों के बाद में आधुनिक भारत में मारवाड़ियों के योगदान और उद्यमिता को पूरी तरह से विरोध का सामना करना पड़ा और उसी के कारण मारवाड़ियों ने परम्परागत व्यवस्थाओं को बदल दिया और नयी प्रोफेशनल प्रबंधन पर आधारित व्यवस्थाओं को अपना लिया, ताकि उनका विरोध न हो. आधुनिक मीडिया द्वारा मारवाड़ियों का पूरी तरह से नकारात्मक चित्रण हुआ और इस प्रकार उनकी उद्यमिता को लगाम लग गयी. मारवाड़ियों की नयी पीढ़ी अपने आपको मारवाड़ी कहने में भी हिचकिचाने लगी.

15. सामाजिक उद्यमिता :

मारवाड़ी उद्यमी अपनी आय में से कुछ राशि बचा कर के समाज के लिए कुछ करना चाहते थे और इसी क्रम में उन्होंने प्याऊ, गोशालाएं, मंदिर, शिक्षण संस्थाएं, अस्पताल और धर्मशालाओं का निर्माण किया. उनके प्रयासों से राजस्थान में विकट परिस्थितियों में भी लोगों को रहने में दिक्कत नहीं आयी. आजादी से पहले अनेक शिक्षण संस्थाएं मारवाड़ियों ने इस प्रकार स्थापित की, ताकि भारतीय संस्कृति भी सलामत रहे और युवा पीढ़ी भी शिक्षित हो सके.

16. विपणन की व्यक्तिगत शैली : आधुनिक विज्ञापन आधारित व्यवस्था की जगह पर मारवाड़ी व्यवसायी व्यक्तिगत संपर्क और व्यक्तिगत सेवा पर आधारित विपणन व्यवस्था अपनाते थे, जिसमे एक व्यक्ति को ग्राहक बनाने के बाद पूरी जिंदगी उसकी जरूरतों के अनुसार उत्पाद उसको प्रदान करते थे. व्यापारिक रिश्तों को पूरी जिंदगी निभाया जाता था और व्यापारिक सम्बन्ध मधुर व्यवहार, वैयक्तिक संबंधों और आपसी विश्वास पर आधारित होते थे. "अच्छी नियत" के आधार पर ही सारे निर्णय लिए जाते थे, ताकि पूरी जिंदगी व्यापारिक सम्बन्ध बना रहे और इसी लिए आपसे मेलजोल, जमाखर्च, लेनदेन और आपसी खातों के मिलान पर बहुत अधिक जोर दिया जाता था.

17. दीर्धजीवी उत्पाद :

मारवाड़ी ऐसे उत्पाद विकसित करते थे, जो दीर्ध समय तक सलामत रह सके और इस प्रकार निवेश करते थे, ताकि दीर्ध काल तक कोई दिक्कत न आये. आधुनिक कम्पनियाँ ऐसे उत्पाद बनाती है, जो अलप काल में ही नष्ट हो जाएं. वे पैकेजिंग और विज्ञापन पर अत्यधिक अपव्यय करती है लेकिन मारवाड़ी लोग इस प्रकार के अपव्यय को बचाते थे.

18. साख पर बल:

मारवाड़ी अपने व्यापर में साख बनाने पर सबसे अधिक जोर देते थे और साख पर किसी भी हालत में आंच नहीं आने देते थे. इसी कारण "गुडविल" शब्द के आने से बहुत पहले से साख और "नाम" जैसे शब्द मारवाड़ी व्यापारिक जगत में काम आते थे.

19. कार्य विभाजन व् युवाओं को मार्गदर्शन :

मारवाड़ी व्यापर में बुजुर्ग लोग नीतिगत निर्णय लेते हैं, लेकिन युवा रोज का काम देखते हैं. इस प्रकार सभी लोगों में काम बंटे रहते थे और आपसी तालमेल भी बना रहता था. सबसे बड़ा पुरुष व्यक्ति 'करता' कहलता था और वो सभी नीतिगत निर्णय लेता था. परिवार के युवा उससे मार्गदर्शन ले कर रोजमर्रा के निर्णय लेते थे, उसको एक एक पैसे का हिसाब देते थे. पूरे घर में एक ही रसोई होती थी और अन्न का एक दाना भी व्यर्थ में नहीं बहाया जाता था. अन्न का सबसे पहला टुकड़ा गाय, फिर अन्य प्रमुख जानवरों जैसे कुत्तों आदि के लिए निकला जाता था, फिर घर के लोग खाना कहते थे. भोजन सामान्य लेकिन होता था, लेकिन बड़े प्यार से मिल कर खाने में अलग ही आनंद होता था. थाली में एक भी दाना व्यर्थ नहीं छोड़ा जाता था. थाली में सबसे पहले कर्ता भोजन की शुरुआत कर्ता था और आखिर में भी वो ये ही देखता था, कि कोई भी भूखा नहीं रह गया है और सबसे आखिरी दाना (अगर कुछ बच जाए) गृह स्वामिनी उठाती थी. आज की बड़ी कंपनियों की पांच सितारा संस्कृति की तुलना में बहुत कम भोजन व्यर्थ जाता था. भोजन के समय ही अच्छे उद्यमियों और अच्छे सामाजिक आदर्शों का वृत्तांत सुनाया जाता था, जो युवाओं को श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए प्रेरित करता था. ऐसा माना जाता था, कि साथ में भोजन करने से आपसी प्रेम बढ़ता है. साल में कम से कम एक बार पूरा परिवार तीर्थयात्रा के लिए या सत्संग के लिए जाता था, जो परिवार के लोगों को जीवन मूल्यों से जोड़ देता था. व्यवसाय का केंद्र परिवार था. परिवार का आपसी प्रेम व्यापारिक संबंधों में भी परिलक्षित होता था.

20. प्रेम भरा संवाद :

मारवाड़ी लोगों ने अनेक व्यवस्थाएं की थी, जिनमे आपसी मधुर संवाद हो सके. सब पुरुष लोग एक साथ भोजन करते थे और सब महिलायें एक साथ भोजन करती थी. इस प्रकार भोजन के दौरान आपस में मधुर संवाद स्थापित हो जाता था. रात्रि में युवा वर्ग बुजुर्गों के पैर दबाता था और उसी दौरान बुजुर्ग लोग युवाओं को व्यापारिक सीख भी दिया करते थे, दिन भर के समाचार भी पूछ लेते थे. उसी समय वे उनको व्यावसायिक नीतियों और परम्पराओं की शिक्षा भी प्रदान करते थे. इसी प्रकार, मारवाड़ी उद्यमी अपने कर्मचारियों से भी प्रेम से बात करते थे और एक सौहार्द-पूर्ण माहौल बनाया करते थे.

21. सुव्यवस्थित खाते और सुव्यवस्थित वार्षिक विवरण : मारवाड़ी उद्यमी दिवाली से दिवाली अपने व्यापार के बही-खाते रखते थे. बहीखाते बहुत ही सुन्दर अक्षरों में लिखे जाते थे, जिनमे कभी भी कोई त्रुटि नहीं होती थी. हर विवरण बहुत ही सहेज कर रखा जाता था. हर दिवाली को नयी पुस्तकों में खाते-बही की पूजा कर के शुरुआत की जाती थी. हर खाता पूरी तरह से व्यवस्थित होता था. उस जमाने में कम्प्यूटर नहीं था, अतः सारे खाते वर्षों तक सुरक्षित रखे जाते थे.

पूरी दुनिया जानती है, किस प्रकार बजाज, बिरला, सिंघानिया, पीरामल, लोहिया, दुगड़, गोलछा, संघवी, मित्तल, पोद्दार, रुइया, और बियानी आदि घराने अपने व्यापारिक कौशल से आगे बढे हैं. बिरला समूह तो इस बात के लिए जाना जाता है, कि वो फैक्ट्री बाद में लगाता है - पहले वहां लक्ष्मी नारायण का मंदिर बनाता है, लोगों को रहने के लिए मकान देता है. है न अद्भुत बात ! भामा शाह ने राणा प्रताप को दिल खोल कर मदद की, तो जमनालाल बजाज ने गाँधी जी को दिल खोल कर मदद की. इन्हीं नीतियों के कारण अंग्रेजों के आने से पहले भारत में लाखों गुरुकुल, उपासरे, पोशालाएँ, धर्मशालाएं, भोजनशलायें कार्यरत थी और उस समय की शिक्षा मूल्य-परक थी. उस समय में हर घर में श्रवण कुमार जैसे पुत्र होते थे, जो अपने व्यापार से ज्यादा अपने माँ-बाप और देश की सेवा को तबज्जु देते थे. मारवाड़ी व्यवस्था में कमियां निकालना बहुत आसान है, लेकिन उसकी जो अच्छाइयां हैं, उनको अगर आज का उद्यमी अपनाता है, तो वो निश्चित रूप से पर्यावरण के अनुकूल प्रबंध व्यवस्था स्थापित कर पायेगा और इससे उसका और इस दुनिया का दोनों का भला ही होगा. लेकिन लुप्त हो रही इस व्यवस्था से सीखना और इसको आगे बचाना अब तो मुश्किल ही है. अमेरिका की आधुनिक प्रबंध शिक्षा हो सकता है, अधिक आर्थिक सफलता प्रदान कर दे, लेकिन जो सुकून और पर्यावरण से जो जुड़ाव भारतीय व्यवस्थाओं ने स्थापित किया था, वो तो अब लुप्त ही हो गया है और इसके लिए वर्तमान पीढ़ी ही जिम्मेदार है.

साभार : श्री त्रिलोक कुमार जैन, मणिपाल विश्वविद्यालय जयपुर

LALA LAJPAT RAY - हिंदुस्तान के महान स्वतंत्रता सेनानी की वह विरासत जो आज पड़ोसी मुल्क में है"

#LALA LAJPAT RAY - हिंदुस्तान के महान स्वतंत्रता सेनानी की वह विरासत जो आज पड़ोसी मुल्क में है"हिंदुस्तान के महान स्वतंत्रता सेनानी की वह विरासत जो आज पड़ोसी मुल्क में है"


सन् १९३८ में अग्रवाल नवरत्न गरमदल के महान स्वतंत्रता सेनानी #लाला_लाजपत_राय जी ने यह भव्य परिसर करांची में महालक्ष्मी के नाम से बनाया था। वह #महालक्ष्मी के अनन्य #भक्त थे। पंजाब केसरी के नाम से मशहूर लाला लाजपत राय वह जब बोलते थे तो उनका स्वर सिंह के समान गूंजता था जिससे ब्रिटिश अफसरों के दिल की धड़कने तेज हो जाति थीं.. भारत के विभाजन के पूर्व अखंड भारत की सबसे ऊंची इमारत होने का गौरव प्राप्त था। इसके ऊपर 18 फीट ऊंची समृद्धि और सौभाग्य की देवी महालक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित थी। इसके आर्किटेक्ट Maysers D H Daruwala & Co. ने इसे Art Deco style में बनाया था। यह जयपुर के लाल पत्थरों से बनी थी और इसके मालिक लाहौर के लाला लाजपत राय थे। इसका उत्घाटन #सरोजनी_नायडू ने किया था। अपने उत्कृष्ट आर्किटेक्चर, क्लॉक टावर और आयरन एलिवेटर के लिए यह भवन पूरे शहर में प्रसिद्ध था।

लेकिन भारत की आजादी के बाद मल्लेच्छों ने इस भवन का नाम बदल दिया और हमारी प्यारी माता की मूर्ति भी तोड़ दी... और अपने हाथों से ही अपने देश की गरीबी और बदहाली लिख ली... चलिए #मल्लेच्छो ने #करांची की तो लक्ष्मी बिल्डिंग का नाश कर दिया... लेकिन लाला लाजपत राय जी ने १९३८ में ही भारत #मुंबई में भी लक्ष्मी बिल्डिंग का निर्माण करवाया था जिसके ऊपर आजतक भगवती लक्ष्मी विराजमान हैं.. और इस बिल्डिंग का उद्घाटन स्वयं नेताजी #सुभाष_चंद्र_बोस ने किया था. 

लाला लाजपत राय जी ने #लाहौर में #लक्ष्मी_मैंशन का भी निर्माण करवाया था जिसके चौक का नाम भी माता लक्ष्मी के नाम पर लक्ष्मी चौक हो गया... लाला लाजपत राय ने ही #जिन्ना की मुस्लिम लीग के विरोध में पंजाबी हिंदू महासभा बनाई थी जो आगे जाकर #मालवीय जी की #हिंदू_महासभा की नींव पड़ी.. लाला जी हिंदू महासभा के अध्यक्ष पद पर भी लंबे समय तक रहे.. उन्होंने महामारी के वक्त जब #क्रिश्चियन मिशनरी अछूतों का धर्मांतरण करवा रहीं थी तब अछूतोद्धार आंदोलन चलाकर हरिजनों को हिंदू धर्म से जोड़ने और उनके लिए आवास और रोजगार का प्रबंध भी किया था। 

हमारे महान स्वतंत्रता सेनानी और सभी क्रांतिकारियों के प्रिय नेता लाला लाजपत राय जी की अनमोल विरासत है .. लाला लाजपत राय जी ने अपने प्राण देश के नाम न्योछावर किए थे थे और उनके अपमान का ही बदला लेने के लिए भगत सिंह सुखदेव राजगुरु आदि हंसते हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए थे। 

महालक्ष्मी हम अग्रवालों की कुलदेवी हैं... #महालक्ष्मी ने #महाराजा अग्रसेन को आज से ५१०० वर्ष पूर्व ही वरदान दिया था की हे अग्र ! जिस कुल में युगों युगों तक मेरी नित्य पूजा होगी ऐसा तुम्हारा अग्रवंश होगा... लाला लाजपत राय भी इसी #अग्रवंश के अनमोल रत्न हैं

SABHAR : PRAKHAR AGRAWAL

Monday, October 2, 2023

ASHA PAREKH - जिओ तो आशा पारेख जैसे

#ASHA PAREKH - जिओ तो आशा पारेख जैसे 

डिप्रेशन में सुसाइड के बारे में सोचने लगी थीं आशा पारेख, सिंगल रहकर खुद के दम पर बदली


हिंदी सिनेमा पर कई दशकों तक राज करने वालीं एवरग्रीन एक्ट्रेस आशा पारेख को भला कौन नहीं जानता। चार दशक से भी लंबे करियर तक फिल्मी दुनिया पर राज करने वालीं आशा पारेख पर हर कोई फिदा था। हीरो भी आशा पारेख पर जान छिड़कते थे। लेकिन आशा पारेख निजी जिंदगी में अकेली ही रह गईं। उन्होंने अपनी शर्तों पर जिंदगी जी, और उन महिलाओं के लिए मिसाल कायम की, जो अकेलेपन में निराश हो जाती हैं और हिम्मत हार जाती हैं। आशा पारेख की जिंदगी में भी एक ऐसा मोड़ आया था, जब वह डिप्रेशन में डूब गई थीं, और उन्हें आत्महत्या करने के ख्यालों ने घेर लिया था। पर एक्ट्रेस ने उन विचारों के भंवर जाल को तोड़ खुद को बाहर निकाला। एक मजबूत महिला बनकर हर किसी के लिए प्रेरणा बनीं। आशा पारेख का 2 अक्टूबर को 81वां बर्थडे है। इस मौके पर 'मंडे मोटिवेशन' सीरीज में उनकी यही इंस्पायरिंग कहानी बता रहे हैं।

दो अक्टूबर 1942 को गुजराती  बनिया जैन परिवार में एक ऐसी लड़की का जन्म हुआ, जो आने वाले वक्त में हिंदी सिनेमा की तस्वीर बदलने वाली थी। कहावत है कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। आशा पारेख के साथ भी ऐसा ही था। मां सुधा यानी सलमा पारेख ने जब देखा कि नन्हीं सी आशा पारेख को डांस का शौक है, तो उन्हें क्लासिकल डांस की ट्रेनिंग दिलवानी शुरू कर दी। इस तरह छोटी सी उम्र से ही आशा पारेख ने डांस की बारीकियां सीख लीं, और आज अपनी डांस अकेडमी चलाती हैं।


Monday Motivation Asha Parekh:81 साल की उम्र के पड़ाव पर आशा पारेख भले ही निजी जिंदगी में अकेली हैं। भले ही उन्होंने शादी नहीं की और बच्चा भी गोद नहीं लिया, पर अकेलेपन को उन्होंने कमजोरी बनाने के बजाय ताकत बनाया। दुनिया को दिखा दिया कि एक अकेली औरत चाहे तो क्या कुछ नहीं कर सकती। आशा पारेख एक महान एक्ट्रेस और डांसर ही नहीं बल्कि आज उनके नाम से मुंबई में एक हॉस्पिटल चलता है और वह डांस भी सिखाती हैं।

हीरोइन बनने चलीं तो हुईं रिजेक्ट, कहा गया- स्टार मटीरियल नहीं

आशा पारेख ने अपने एक्टिंग करियर की शुरुआत चाइल्ड आर्टिस्ट के रूप में की थी। उनकी पहली फिल्म 1952 में आई थी, जिसका नाम 'मां' था। कुछ और फिल्मों में आशा पारेख ने बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट काम किया, और फिर स्कूल के कारण एक्टिंग छोड़ दी। लेकिन जब आशा पारेख 16 साल की हुईं, तो उन्होंने बतौर लीड एक्ट्रेस करियर शुरू करने के बारे में सोचा। पर पहले ही पड़ाव पर उन्हें रिजेक्शन का सामना करना पड़ा।


रिजेक्शन के 8 दिन बाद ही रातोंरात बनीं स्टार

डायरेक्टर ने यह कहकर आशा पारेख को 'गूंज उठी शहनाई' में साइन करन से मना कर दिया कि वह स्टार मटीरियल नहीं हैं। हीरोइन बनने के लायक नहीं हैं। पर आशा पारेख ने खुद को टूटने नहीं दिया। हिम्मत रखी और 8 दिन बाद ही उन्हें डायरेक्टर नासिर हुसैन ने 'दिल देके देखो' ऑफर की। इस फिल्म ने आशा पारेख को रातोंरात स्टार बना दिया और 60 के दौर की टॉप हीरोइनों में ला खड़ा किया।


जब डिप्रेशन में गईं आशा पारेख, सुसाइड के बारे में लगीं सोचने

आशा पारेख फिल्मी करियर में दिन दोगुनी और रात चौगुनी तरक्की कर रही थीं। लेकिन निजी जिंदगी में बहुत उथल-पुथल से गुजरीं। आशा पारेख की जिंदगी में सबसे बुरा दौर तब आया, जब उन्होंने मां-बाप को खो दिया। उस दौर के बारे में एक्ट्रेस ने 'इंडियन एक्सप्रेस' को दिए इंटरव्यू में किया था। आशा पारेख ने कहा था कि वह उनकी जिंदगी का सबसे काला और बुरा दौर था। वह बिल्कुल अकेली पड़ गई थीं और डिप्रेशन में चली गई थीं। आशा पारेख के मुताबिक, उनके मन में सुसाइड के ही ख्याल आते। वह मौत को गले लगाने के बारे में सोचतीं। पर आशा पारेख हिम्मत रखे हुए थीं। उन्होंने उससे उबरने में डॉक्टरों की भी मदद ली। और देखो, आज वही आशा पारेख हैं, जो 81 साल की उम्र में भी हमारे सामने डटकर खड़ी हैं, और काम कर रही हैं। उम्र के इस पड़ाव पर भी वह डांस अकेडमी और एक हॉस्पिटल चला रही हैं। वाकई उनकी कहानी किसी मिसाल से कम नहीं है।

HIMANSHU GUPTA - A MOUNTAINEER

 

#HIMANSHU GUPTA - A MOUNTAINEER


Sunday, October 1, 2023

SHARK TAINK JUDGES - सारे के सारे पुरुष जज वैश्य समाज से

#SHARK TAINK JUDGES - सारे के सारे पुरुष जज वैश्य समाज से 


 

Tuesday, September 26, 2023

ANUSH AGRAWAL -ASIAN GAMES GOLD WINNER

#ANUSH AGRAWAL -ASIAN GAMES GOLD WINNER

Asian Games 2023: भारत को गोल्ड दिलाने वाले अनुष अग्रवाला ने 7 साल की उम्र में संभाल ली थी घोड़े की लगाम

हांगझू एशियन गेम्स के घुड़सवारी ड्रेसेज टीम इवेंट में भारत को 41 साल बाद स्वर्ण पदक जिताने वाली टीम के सदस्य कोलकाता के अनुष अग्रवाला जब पहली बार घोड़े पर चढ़े थे तब उनकी उम्र महज सात साल थी। तभी से उन्हें घुड़सवारी से अटूट प्रेम हो गया था। मां प्रीति अग्रवाल छोटे से अनुश को अक्सर अपने साथ टालीगंज क्लब ले जाया करती थीं।



हांगझू एशियन गेम्स के घुड़सवारी ड्रेसेज टीम इवेंट में भारत को 41 साल बाद स्वर्ण पदक जिताने वाली टीम के सदस्य कोलकाता के अनुष अग्रवाला जब पहली बार घोड़े पर चढ़े थे, तब उनकी उम्र महज सात साल थी।

तभी से उन्हें घुड़सवारी से अटूट प्रेम हो गया था। मां प्रीति अग्रवाल छोटे से अनुश को अक्सर अपने साथ टालीगंज क्लब ले जाया करती थीं। एक दिन वहां खड़े एक घोड़े को देखकर अनुश ने उसपर चढ़ने की जिद कर डाली और बिना डरे उसकी पीठ पर बैठ गए और कसकर लगाम संभाल ली।

Friday, September 15, 2023

PAYAL GUPTA - OCEAN GLOB RACER

#PAYAL GUPTA - OCEAN GLOB RACER

देहरादून,उत्तराखंड की पायल गुप्ता समुद्र पर 27000 मिल की दूरी ओशन ग्लोब रेस(ओसीआर) से पूरी करेंगी।उनके साथ उनकी टीम मेडेन फैक्टर की 12 अन्य सदस्य भी होगी।भारतीय नौसेना ने 50 साल बाद ओशन ग्लोब रेस में हिस्सा लिया है,पायल गुप्ता सदियों पुराने तरीके से दुनिया घूमेंगी।पायल गुप्ता ने समुद्र की गहराईयां पढ़ने में महारत हासिल है।उनके नाम पर कई रेकॉर्ड दर्ज हैं और भारतीय नौसेना में इतिहास भी लिखा है।अब भारतीय नौसेना की लेफ्टिनेंट कमांडर पायल ओशन ग्लोब रेस के लिए ब्रिटेन के साउथेम्प्टन से रवाना हुईं।




देहरादून की पायल गुप्ता 'सॉल्ट इन माई वेन्स'-नौका मेडन की सभी महिला चालक दल का हिस्सा है।इतना ही नहीं चालक दल किसी भी आधुनिक नेविगेशन तकनीक की सहायता के बिना नौकायन कर रहा है।जैसा कि नाविक सदियों पहले किया करते थे।टीम अपनी यात्रा में ग्रहों और सितारों की स्थिति का उपयोग करके पोत की स्थिति की गणना करने के लिए सेक्सटेंट और खगोलीय नेविगेशन का उपयोग कर रही है।जहाज पर कोई जीपीएस,कोई उपग्रह सहायता और कोई कंप्यूटर नहीं है।रेस 10 सितम्बर को साउथम्प्टेन से शुरू होगी।रेस में हिस्सा लेने वाली सभी नौकाएं 1988 से पहले की तकनीक से निर्मित है।
 
यह रेस कुल पांच चरणों में पूरी होगी-
पहले चरण-10 सितंबर 6650 समुद्री मील
दूसरा चरण-5 नवंबर 6650 मील
तीसरा चरण-14 जनवरी 8370 मील
चौथा चरण-5 मार्च 5430 मील
समापन-10 अप्रैल

पायल गुप्ता इस काम के लिए नई नहीं हैं।वह दुनिया भर में यात्रा करने वाली भारत की पहली महिला चालक दल का हिस्सा थीं।यह उपलब्धि उन्हें मई 2018 में हासिल की हुई थी।उस यात्रा की तरह, ओशन ग्लोब रेस में आठ महीने की यात्रा की आवश्यकता होती है।यह दौड़ गोल्डन ग्लोब रेस की तरह है।पायल गुप्ता ने 2014 में भारतीय नौसेना की पांच अन्य महिला सदस्यों संग स्वदेशी निर्मित पल नौका तारिणी के जरिए 254 दिनों में 40000 समुद्री मील की दूरी तय कर दुनिया का चक्कर लगाने का रिकॉर्ड भी कायम किया था।पायल ने इस रेस के लिए विदेश में अपने दल के साथ विभिन्न चरणों की तैयारी कर ली है।
 
ओशन ग्लोब रेस मूल व्हिटब्रेड राउंड द वर्ल्ड रेस को फिर से बनाने का एक प्रयास है।प्रतियोगिता में 300 नाविकों के साथ 14 नौकाएं हैं।दुनिया भर में 27,000 मील की यात्रा में अप्रैल 2024 में साउथेम्प्टन में वापस समाप्त होने से पहले नौकाओं को दक्षिणी महासागर और केप टाउन, ऑकलैंड और पुंटा डेल एस्टे में स्टॉपओवर के साथ तीन ग्रेट कैप को पार करते हुए देखा जाएगा।पायल गुप्ता नौसेना में एक शिक्षा अधिकारी हैं, लेकिन पानी के साथ उनकी पहली यात्रा के कारण उन्हें आईएन एस मंडोवी में तैनात किया गया, जहां उन्होंने नाविका सागर परिक्रमा अभियान के लिए प्रशिक्षण लिया।

यह दौड़ अलग है क्योंकि पायल गुप्ता पचास वर्षों में इस प्रतियोगिता में भाग लेने वाली पहली भारतीय हैं।'दिसंबर में नौसेना से सेवानिवृत्त होने के कारण पायल गुप्ता समुद्री नौकायन को एक अंतिम मौका देना चाहती थीं।पायल कहती हैं कि नौकायन एक प्रकार की स्वतंत्रता है पायल बताती हैं'मैं खुद को कंप्यूटर के सामने बैठकर कॉर्पोरेट नौकरी करते हुए नहीं देखती।

पायल ने कहा कि उन्होंने कहा, "मैंने नौकायान को बहुत याद किया और यही कारण है कि मैं समुद्र में वापस आई।मैं तीन साल तक समुद्र से दूर थी और मैंने सोचा कि मुझे वापस जाना चाहिए और अपने कौशल का थोड़ा और उपयोग करना चाहिए।उन कौशलों की कड़ी परीक्षा ली जा रही है क्योंकि पायल को दुनिया की परिक्रमा करनी है।वर्ष 2018 में पायल को राष्ट्रपति द्वारा तेनज़िंग नोरगे नेशनल एडवेंचर अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था।

SABHAR: NARSINGH ZEMS

Wednesday, September 13, 2023

Anupriya Goenka Struggle Story

#Anupriya Goenka Struggle Story

Anupriya Goenka Struggle Story; Tiger Zinda Hai | Padmavati And War

कॉलेज के साथ कॉल सेंटर में काम किया, रोज 12 ऑडिशन देती थीं अनुप्रिया गोयनका,  

बिजनेस डूबा तो 14 कमरे का बंगला छोड़ना पड़ा:कॉलेज के साथ कॉल सेंटर में काम किया, रोज 12 ऑडिशन देती थीं अनुप्रिया गोयनका


फिल्म टाइगर जिंदा है में एक्ट्रेस अनुप्रिया गोयनका का एक डायलॉग था- मेरी मां को बोलना, मैंने हार नहीं मानी, मैंने कोशिश करनी नहीं छोड़ी। ये डायलाॅग भले ही अनुप्रिया पर रील में फिल्माया गया था, लेकिन उन्होंने इसे रियल लाइफ में भी जिया है।


ये सीन फिल्म 'टाइगर जिंदा है' का है। फिल्म में अनुप्रिया ने पूर्णा नाम की लड़की का किरदार प्ले किया था। लीड रोल में सलमान खान और कटरीना कैफ थीं।

उनके इसी संघर्ष को करीब से जानने के लिए मैं कई दिनों से अनुप्रिया से मुलाकात करने की कोशिश कर रही थी। बिजी शेड्यूल के कारण मुलाकात तो नहीं हो सकी, लेकिन हमारी बात टेलिफोनिक हुई।

बात शुरू होते ही उन्होंने देरी के लिए माफी मांगी। थोड़ी औपचारिकता के बाद मैंने उनके बचपन के बारे में जानना चाहा।

वो कहती हैं, कानपुर के एक सम्पन्न मारवाड़ी परिवार में मेरा जन्म हुआ। पापा का गारमेंट एक्सपोर्ट बिजनेस था। हम 4 भाई-बहन हैं। हमारा परिवार 14 कमरों वाले बंगले में रहता था। 4-5 गाड़ियां थीं। नौकर-चाकर भी थे। कभी किसी ने नहीं सोचा था कि ये सब कुछ एक झटके में हमसे छिन जाएगा।

मैं लगभग 8 साल की थी। पापा के बिजनेस में गिरावट आ गई। धीरे-धीरे बहुत कुछ हमसे छिनता चला गया। ज्यादा बड़ी तो नहीं थी, लेकिन इस बात का आभास जरूर था कि चीजें सही नहीं चल रही हैं। स्थिति में जब सुधार आने की सारी उम्मीदें खत्म हो गईं, तब पापा पूरे परिवार के साथ दिल्ली शिफ्ट हो गए।

वो कहते हैं ना कि बुरा समय भी अपने साथ कुछ अच्छा ही लेकर आता है। कानपुर में हम बड़े घर में रहते थे। हमारी देख-रेख करने के लिए अलग से लोग रखे गए थे। जब हम दिल्ली आए तो यहां पर सिर्फ एक कमरे में पूरा परिवार रहता था। बाकी दो कमरों को ऑफिस में तब्दील कर दिया गया था। एक कमरे में रहने से हम पहले से ज्यादा करीब आ गए। मां और बहन के साथ ज्यादा वक्त बिताने को मिला।

मुझे याद है, जब मैं 10वीं में थी तभी से एक तरह से मैं पापा के बिजनेस में आ गई थी। इस वक्त मैं स्कूल के बाद फैक्ट्री जरूर जाया करती थीं। 12वीं के बाद पूरा बिजनेस ही मैं देखने लगी।

पापा की मदद के लिए बिजनेस के साथ मैंने काॅल सेंटर में भी काम करना शुरू कर दिया था। मम्मी की सख्त हिदायत थी कि बिजनेस तो देखना ही है। मम्मी का कहना टाल भी नहीं सकती थी। यही कारण था कि दिन में ऑफिस जाती और रात में कॉल सेंटर। बहुत मुश्किल से 3-4 घंटे ही सो पाती।

इन कामों में इतना व्यस्त रहती थी कि 12वीं के बाद सिर्फ पेपर देने ही काॅलेज गई। पढ़ाई भी ज्यादा नहीं कर पाई। मगर इसे कभी भी अपनी कमजोरी नहीं बनने दी।

समय बीतता जा रहा था, लेकिन बिजनेस उस मुकाम तक नहीं पहुंच सका जैसा कानपुर में था। नतीजतन, मुझे इस बिजनेस को बंद करना पड़ा। दिल्ली थोड़ा खर्चीला शहर है, इसलिए मां-पापा को कुछ समय के लिए राजस्थान शिफ्ट किया।

एक सांस में अनुप्रिया ने ये सारी बातें बताईं। मैंने उनसे सवाल किया कि वो मुंबई कैसे पहुंची?

बिजनेस तो बंद कर दिया था, लेकिन उससे रिलेटेड थोड़े काम थे, जिनको पूरा करना बाकी था। कोर्ट से जुड़े मामलात भी थे। सब कुछ मुझे ही देखना पड़ता था। इसी दौरान मेरा मुंबई जाना हुआ। ये शहर मुझे बहुत अच्छा लगा। पूरे परिवार को यहां शिफ्ट कराने का फैसला किया। उस वक्त तो नौकरी भी नहीं थी। फिर भी मैंने जुटाए हुए पैसों से एक फ्लैट खरीदा, फिर वहीं के एक काॅल सेंटर में नौकरी करनी शुरू की। धीरे-धीरे फ्लैट के सारे लोन भी चुका दिए।

काम अच्छा था तो प्रमोशन होता गया। इसी दौरान एक दोस्त की एक सलाह मेरे लिए लकी साबित हुई। उसने मुझसे कहा कि मैं एग्जीक्यूटिव असिस्टेंट बन जाऊं। काम का अनुभव था ही जिसकी बदौलत इस पोजिशन पर नौकरी मिल गई। सैलरी भी बेहतर हो गई।

क्या कभी सोचा था कि एक्ट्रेस बनेंगीं?
सच बताऊं तो मन में कभी ख्याल भी नहीं आया था। एक बार मैंने 12वीं की गर्मी की छुट्टी में दो महीने NSD की वर्कशाॅप अटेंड की थी। ये बस मैंने शौक में किया था। मैं काॅर्पोरेट लाइफ में बहुत खुश थी, इसलिए कभी एक्टिंग को प्रोफेशन बनाने के बारे में सोचा नहीं।

सब अच्छा चल ही रहा था, पर एक वक्त आया कि मैंने इस काम से ब्रेक लेने के बारे में सोचा। बिजनेस से संबंधित कुछ काम भी बाकी थे और मैं थोड़ा क्रिएटिव फील्ड में वक्त गुजारना चाहती थी। क्रिएटिव फील्ड में सबसे पहले ऑप्शन था थिएटर करना। ये मेरी लाइफ का सबसे बड़ा डिसीजन था।

मैंने ऑफिस में बात की और बताया कि मुझे 2-3 महीने का ब्रेक चाहिए। उन्होंने मुझसे पूछा कि अगर मैं टीम स्विच करना चाहती हूं तो कर सकती हूं, लेकिन ब्रेक लेना बड़ी बात है। उस वक्त मेरी सैलरी भी अच्छी-खासी थी। ऐसा करना किसी रिस्क से कम नहीं था। हालांकि मैंने अपना इरादा नहीं बदला। वहां अरसे से काम कर रही थी तो 2-3 महीने बाद वापस जाकर काम दोबारा शुरू कर सकती थी।

काम से ब्रेक लेने के बाद मैंने बिजनेस रिलेटेड काम पर फोकस किया। 3 महीने में काम नहीं बना और ऐसे ही डेढ़ साल बीत गया। इस दौरान मैं छोटे-मोटे नाटक में काम करती रही। समय के अंतराल पर मैंने नौकरी भी की। मैं कन्फ्यूज थी कि काॅर्पोरेट और एक्टिंग लाइन में से क्या चुनूं। इसी उथल-पुथल में एक-एक दिन बीत रहा था।

इसी दौरान मैंने नीरज कबीर के साथ एक्टिंग वर्कशाॅप की। उनके साथ 10 दिन की इस वर्कशॉप ने पूरी जिंदगी ही बदल दी। इन 10 दिनों में, मुझे एक्टिंग से प्यार हो गया।

अब सामने समस्या ये भी थी कि मैं कॉर्पोरेट लाइफ के साथ थिएटर मैनेज नहीं कर सकती थी। मतलब मुझे अगर एक्टिंग करनी हो तो इसी को अपना प्रोफेशन बनाऊं जिससे कमाई हो सके। बहुत विचार करने के बाद एक्टिंग को करियर के तौर पर चुना।

एक्टिंग की शुरुआत में संघर्ष कैसा रहा?
ये दुनिया दूर से देखने पर बहुत खूबसूरत है, लेकिन यहां हर कदम पर संघर्ष है। इस संघर्ष से मैं भी अछूती नहीं रही। जब मैं जाॅब छोड़ थिएटर कर रही थी, तब कई नाटक नहीं चले, जिनमें मैंने एक्ट किया था। कुछ शुरू होने से पहले ही बंद हो गए।

आम स्टार्स की तरह मैंने भी बहुत ऑडिशन दिए। एक दिन में 12-12 ऑडिशन देती थी। बहुत मुश्किल से 12 ऑडिशन में से एक में मेरा सिलेक्शन होता था। ये चीजें मुझे अंदर से तोड़ती थीं और परेशान भी करतीं। कुल जमा ये रिस्क भरा सफर था।


मुझे याद है, पहली फिल्म करने के बाद YRF प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले मैंने एक बड़े प्रोजेक्ट के लिए ऑडिशन दिया था। पहली बार पता चला था कि ऑडिशन का सही प्रोसेस क्या होता है। मैंने इसे खूब इंजॉय किया था। YRF की कास्टिंग डायरेक्टर शानू शर्मा ने मेरी बहुत मदद की थी। सिलेक्शन हो जाने की उम्मीद भी थी।

प्रोजेक्ट की सभी स्टार कास्ट से मुलाकात भी हुई थी। फिर कुछ दिन बाद शानू शर्मा मुझसे मिलीं और उन्होंने बताया कि कुछ वजहों से मैं इस फिल्म का हिस्सा नहीं बन सकती। इस फिल्म का हिस्सा ना होने पर बहुत बुरा लगा था। पर एक रिजेक्शन को लेकर हम बैठ तो नहीं सकते, आगे बढ़ेंगे तभी कुछ बेहतर कर पाएंगे। मैंने भी यही किया। ठोकरों से कभी खुद को टूटने नहीं दिया।

टाइगर जिंदा में काम कैसे मिला?
मैं पूर्णा का रोल प्ले करना चाहती थी। मैंने ये बात अली अब्बास को बताई थी, जब YRF की ऑफिस में मेरी उनसे मुलाकात हुई थी। उस वक्त तो उन्होंने कुछ नहीं बोला था। इस बात को कुछ ही दिन बीते थे कि मेरे पास शानू शर्मा की काॅल आई और उन्होंने बताया कि मैं इस रोल के लिए सही हूं। मैंने ऑडिशन दिया और सिलेक्शन हो गया।

फिल्म पद्मावत का हिस्सा कैसे बनीं?
संजय लीला भंसाली का कास्ट करने का तरीका थोड़ा अलग है। सबसे पहले मेरी उनसे मुलाकात हुई। जब उन्हें लगा कि मैं इस रोल के लिए परफेक्ट हूं तब मेरा ऑडिशन हुआ और फाइनली मैं इस फिल्म का हिस्सा बनी।


ये सीन फिल्म पद्मावत का है। इसमें अनुप्रिया ने रानी नागमति का किरदार निभाया था। लीड रोल में दीपिका पादुकोण, शाहिद कपूर और रणवीर सिंह थे।

एक्टिंग लाइन में आने पर परिवार का क्या रिएक्शन था?
मैं ऐसे परिवार में पैदा हुई थी, जहां पर इन चीजों को लेकर कुछ पता नहीं था। मगर जब माली हालत बिगड़ी तो कम उम्र में ही मुझे जिम्मेदारियां उठानी पड़ीं। इसके बाद मां-पापा को पता था कि मैं कुछ ना कुछ करके परिवार की जिम्मेदारियां संभाल लूंगीं।

जब मैंने एक्टिंग में आने का फैसला किया था, तो ये बात बिल्कुल क्लियर थी कि अगर इस फील्ड में काम नहीं बना और लगा कि अगले महीने खाने के पैसे नहीं रहेंगे तो मैं उसी वक्त एक्टिंग करना छोड़ दूंगी। खाली बैठने का तो कोई सवाल ही नहीं पैदा होता।

मां-पापा को मुझ पर बहुत भरोसा था। उनका ये भरोसा हमेशा बना रहा। उन्हें पता ही नहीं था कि मैं एक्ट करती हूं। उन दोनों को लगता था कि इंडस्ट्री में कुछ कर रही हूं, लेकिन क्या, ये बिल्कुल नहीं पता था।

फिल्मों में आने से पहले मैंने भारत निर्माण का ऐड किया था, जिसे प्रदीप सरकार ने डायरेक्ट किया था। इस ऐड को लोगों ने बहुत पसंद किया। टाइम्स ऑफ इंडिया में ये खबर पब्लिश भी हुई। पहली बार मैं अखबार में दिखी। इसे देखकर रिश्तेदारों ने मां-पापा को कॉल किया और बताया कि ऐड के सिलसिले में अखबार में मेरी तस्वीर छपी है। तब जाकर दोनों को पता चला कि मैं एक्टिंग कर रही हूं।

क्या स्किन कलर रिजेक्शन का कारण बना?
अगर किसी फिल्म के लिए मैं रिजेक्ट हुई तो कभी ये नहीं जानना चाहा कि रिजेक्शन का आधार क्या रहा। हां कभी-कभी ऐसा हुआ है कि लोगों ने कहा कि आप बहुत सुंदर हैं इसलिए फिल्म का हिस्सा नहीं बन सकतीं।

मैं अलग-अलग तरह के रोल करना चाहती हूं। गांव की छवि पर बनी फिल्म में भी मैं काम करना चाहती हूं, मगर कोई इस रोल में कास्ट ही नहीं करता। मेकर्स का कहना है कि इस तरह के रोल के हिसाब से मेरे फीचर काफी शार्प है। मैं उन्हें कैसे बताऊं कि मैं उस रोल को भी परफेक्ट तरीके से कर सकती हूं।

जहां तक स्किन कलर की बात है, मुझे अपना रंग बेहद पसंद है। सांवली रंग की तो काजोल, शबाना आजमी, स्मिता पाटिल सभी हैं, जो बेस्ट एक्ट्रेस का उदाहरण हैं। जब मैं नई-नई फिल्मों में आई थी, तभी मेकअप आर्टिस्ट को बता दिया था कि मेरी स्किन को एक शेड भी मेकअप से गोरा ना करें। मैं इसी रंग के साथ पर्दे पर आना चाहती हूं।

एक बार स्किन डॉक्टर के पास गई थी। उन्होंने फेयर कलर के लिए एक दवा के बारे में बताया। मैंने उनसे कहा कि मुझे इसकी जरूरत नहीं है। मैं जैसी हूं वैसी ही दिखना चाहती हूं। मैंने इन चीजों का कभी उपयोग नहीं किया, जिससे मेरा रंग निखर जाए। वैसे कभी जरूरत भी नहीं पड़ी और ना करना है। सिर्फ परफेक्ट एक्टिंग करना ही एकमात्र उद्देश्य है।

साभार दैनिक भास्कर 

Tuesday, September 12, 2023

SWATI VARSHNEYA - THE INTERNATIONAL SKY DIVER

#SWATI VARSHNEYA - THE INTERNATIONAL SKY DIVER

Skydiving:2025 में रिकॉर्ड बनाएंगी भारतीय-अमेरिकी वैज्ञानिक स्वाति वार्ष्णेय; समताप मंडल से लगाएंगी छलांग -


भारतीय-अमेरिकी वैज्ञानिक स्वाति वार्ष्णेय साल 2025 में एक कीर्तिमान बनाने की तैयारी में हैं। वे पृथ्वी से 42.5 किमी की ऊंचाई पर समताप मंडल(stratospheric) से पहली स्काइ डाइविंग करके विश्व रिकॉर्ड तोड़ने की तैयारी कर रही हैं। वे ऐसा करने वाली वे विश्व की पहिला महिला होंगी। एक गैर-लाभकारी संगठन राइजिंग यूनाइटेड की हेरा राइजिंग पहल के एक हिस्से के रूप में वे ये स्काई डाइविंग करेंगी।

इस स्काई डाइविंग का आयोजन एक गैर-लाभकारी संगठन राइजिंग यूनाइटेड करेगा। संगठन ने इसके लिए तीन युवा महिला खोजकर्ताओं को चुना है। समताप मंडल पृथ्वी के वायुमंडल की दूसरी परत है जो पृथ्वी की सतह से लगभग 12 से 50 किलोमीटर (7 से 31 मील) की ऊंचाई तक है। समताप मंडल में न्यूनतम तापमान लगभग माइनस 80 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है।

इस ऐतिहासिक उपलब्धि को हासिल करने की तैयारी कर रही अन्य दो फाइनलिस्ट में कोलंबियाई मूल की एलियाना रॉड्रिक्वेज़ और कोस्टा रिकान मूल की डायना वेलेर एन जिम नेज हैं। इन तीनों लोगों को 18 महीने के कठोर प्रशिक्षण से गुजरना होगा। ट्रेनिंग के बाद इनमें से केवल एक ही ऐतिहासिक छलांग लगाएगा, जबकि अन्य दो खोजकर्ता जमीनी समर्थन और शैक्षिक आउटरीच के लिए टीम में रहेंगे।इस ऐतिहासिक छलांग को लेकर एनजीओ ने कहा कि हम महिलाओं को आगे बढ़ाने और एसटीईएएम शिक्षा में युवा महिलाओं की रुचि को प्रेरित करने के लिए रिकॉर्ड और सीमाओं को तोड़ते हुए एक ऐतिहासिक यात्रा शुरू कर रहे हैं।

बता दें कि भारतीय-अमेरिकी वैज्ञानिक स्वाति वार्ष्णेय ने मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से मैटेरियल साइंस में पीएचडी की है। उन्होंने बताया कि उनके करियर की यात्रा स्काइ डाइविंग के करीब रही है। स्वाति ने वर्टिकल फ्रीफॉल में विशेषज्ञता के साथ 1,200 से अधिक बार स्काई डाइविंग की है।

SURYAKANT AGRAWAL - VRIKSH MITRA

 

#SURYAKANT AGRAWAL - VRIKSH MITRA




THE GREEN MAN - PROF. S.L.GARG

THE GREEN MAN - PROF. S.L.GARG


 

GUJARAT MAYOR ELECTION-BOTH MAYOR FROM VAISHYA COMMUNITY

GUJARAT MAYOR ELECTION-BOTH MAYOR FROM VAISHYA COMMUNITY


 

BANIA ATTACKS ZAMINDAR

 #BANIA ATTACKS ZAMINDAR


घटना सिंध में 1934 की है जब एक बनिया महानुभाव अपने उधार लेन देन का हिसाब चुकता करने मुस्लिम जमींदार के पास गये।


मुस्लिम जमींदार ने कहा या तो उसका बही खाता जला दो या फिर उसके आंगन में बंधी गाय को तलवार से काट दो।
अब हिंदू मन और चेतन, अघन्या मां स्वरूपिणी गौ की हत्या तो दूर उनके ऐसे अवस्था की कल्पना भी कैसे करे।
बहुत कहा लेकिन जमींदार नही माना अंत में बनिया जी ने तलवार उठायी और गोमाता की तरफ दिखाते हुये, उस मुस्लिम जमींदार के शरीर के आरपार कर दिया।
उन्होनें वही किया जो वेद निहित है शास्त्र सम्मत है।
गौ हत्या की कल्पना करने वाले और हत्यारे का संहार किया जाये।
यदि नो गां हंसि यद्यश्वम् यदि पूरुषं
तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नो सो अवीरहा

अर्थववेद 1।16

हमारे पुरखे धर्मरक्षा के लिए ना हथियार उठाने से चूके ना मस्तक कटाने से। सनातन के मानबिन्दुओं गौ, गंगा और गायत्री पर आंच नही आने दी।
इसी कड़ी में गीता प्रेस के संस्थापक स्वर्गीय श्री जयदयाल गोयनका और संचालकों को कैसे भूल सकते हैं जिनकी वजह से गीता, रामायण, उपनिषदों, पुराणों, आदि के भाष्य व अन्य धर्मावलंबी पुस्तकें कम कीमत उपलब्ध है और सर्वसाधारण के लिए सुलभ है। जिन्होंने आज हिंदू सिद्धांत घर घर तक पहुंचाया है।

Monday, September 11, 2023

MOURYA VANSHYA - A VAISHYA DYNESTY - मौर्य वंश के वैश्य होने के प्रमाण

 MOURYA VANSHYA - A VAISHYA DYNESTY - मौर्य वंश के वैश्य होने के प्रमाण 

मौर्य वंश महान भारत के महान राजवंशो में से एक हैं. यह वंश भारत का पहला सबसे बड़े राज्य का  राजवंश था. इस वंश का पहला सबसे प्रतापी सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य था. सम्राट अशोक, बिन्दुसार, सम्राट सम्प्राती इसी वंश के थे. ओर  भारत के सबसे महान सम्राटो में से एक थे. आज की तिथि में कई ओर  जातिया अपने आप को मौर्य वंश का वंशज बताने लगी हैं.  उनका नाम यंहा पर लेना बेकार हैं. और  सबको पता हैं वो कौन जातिया हैं. मैं नीचे मौर्य वंश के वैश्य होने के कुछ प्रमाण दे रहा हूँ.

१. सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का असली नाम चन्द्रगुप्त हैं. गुप्त उपनाम आदि काल से केवल और केवल वैश्य समुदाय के लिए प्रयुक्त किया जाता रहा हैं. मुरा चन्द्रगुप्त की माता का नाम था. मुरा के नाम पर ही चाणक्य ने मुरा का बेटा मौर्य उपनाम दिया था. चन्द्र गुप्त के पिता का नाम सूर्य गुप्त था. जो की नन्द वंश के समय में एक छोटे राज्य के राजा थे. जिन्हें घनानंद ने मरवा दिया था. और उनके राज्य में कब्जा कर लिया था. 

२. चन्द्रगुप्त के बहनोई का नाम पुश्प् गुप्त था. जो की उस समय में सौराष्ट्र के राज्यपाल थे. उनका शिलालेख आज भी वंहा पर हैं जिसमे उनके वैश्य पुष्प गुप्त कहा गया हैं.

३. अपने अंतिम समय में चन्द्रगुप्त जैन पंथ का पालन करने लगा था. जैन १०० प्रतिशत वैश्य होते हैं.

४. सम्राट अशोक की धर्मपत्नी महारानी विदिशा के एक वैश्य नगर सेठ की पुत्री थी.

५. अशोक के पौत्र सम्राट सम्प्रति भी जैन हो गए थे. 

६. अधिकतर इतिहास कारो, और आर्य मंजुश्री कल्प और विष्णु पुराण  ने भी इस वंश को वैश्य बताया हैं. 

७. वैश्य तेली समुदाय भी मौर्य वंश को अपना पूर्वज होने का दवा करता हैं.

८. बिहार में एक वैश्य जाति माहुरी चन्द्रगुप्त मौर्य की वंशज होने का दावा करती हैं.

९. सम्राट चाहे किसी भी वर्ण का हो पर उसे क्षत्रिय ही कहा जाता था. 

इससे ज्यादा और क्या प्रमाण चाहिए.

Friday, September 8, 2023

SUDI, SODI, SOUNDIK VAISHYA

SUDI, SODI, SOUNDIK VAISHYA

उत्पत्ति: 

सुंडी या सुनरी लोगों को शौंडिका, सुंडिका और शाहा या साहू के नाम से जाना जाता था  यह एक वैश्य बनिया जाति हैं सुंडी संस्कृत शब्द शौंडिका का व्युत्पन्न हो सकता है जिसका अर्थ है "आत्मा विक्रेता" वर्ष 1891 में, श्री एच.एच. रिस्ले ने उल्लेख किया था कि सुनरी, शौंडिका और सुंदिका एक बड़ी और व्यापक रूप से फैली हुई जाति है जो पूरे बिहार, बंगाल और उड़ीसा के अधिकांश जिलों में पाई जाती है। ऐसा माना जाता था कि उनका पेशा आध्यात्मिक मदिरा का निर्माण और बिक्री था। इनका कुछ उल्लेख विभिन्न पुराणों में भी मिलता है। लेकिन विवरण अभी उपलब्ध नहीं है।

प्रवासी: 

उनमें से कुछ अतीत में बिहार और बंगाल से, विशेष रूप से उड़ीसा और आंध्र के उत्तरी हिस्सों में चले गए हैं, 1981 की जनगणना के अनुसार बिहार और बंगाल में उनकी जनसंख्या 20, 52, 331 थी। वे मुख्य रूप से ग्रामीण आधारित समुदाय थे। नाक का आकार और "मेसोसेफेलिक" प्रकार। 

व्यापार: 

इसके कई सदस्यों ने व्यापारिक गतिविधियों को अपना लिया, जिन्हें शाहा या साहू की उपाधि से बुलाया जाता था और उन लोगों के साथ सभी संबंधों को अस्वीकार कर दिया, जो अभी भी जाति के अपने विशिष्ट व्यवसाय का पालन करते थे। बिहार और बंगाल में साहा या साहू नामक सुंडियों के एक वर्ग ने खुद को "साधु बनिक" होने का दावा करते हुए 1931 की जनगणना के दौरान खुद को अलग से सूचीबद्ध कराया। उन्होंने वैश्य होने का दावा किया। साहू की सामाजिक स्थिति के इस उत्थान ने सुंडियों को प्रेरित किया, विशेष रूप से उन लोगों को, जो अब उच्चतर की आकांक्षा करने के लिए अपनी पारंपरिक जाति का पालन नहीं करते थे। स्थिति।

भोजन की आदतें: 

सुंडी या सोंडी पूरी तरह से मांसाहारी हैं, लेकिन गोमांस या सूअर का मांस नहीं खाते हैं। पहले सुंडी महिलाओं को चिकन-मटन लेने से मना किया जाता था. उन्हें केवल मछली और मछली उत्पाद खाने की अनुमति थी। यह इस विशेष समुदाय में ही एक अजीब प्रथा थी। लेकिन वर्तमान समय में वह प्रतिबंध हटा दिया गया और महिलाओं को मटन, चिकन और मछली खाने की भी अनुमति दे दी गई। इनका मुख्य अनाज चावल है। उनके कुछ पुरुष सदस्य नियमित रूप से एल्कोलिक, पेय पदार्थ लेते हैं, बीड़ी, सिगार, सिगरेट पीते हैं और जर्दा के साथ पान चबाते हैं।

उपनाम:

SUNDIS को मोटे तौर पर दो व्यावसायिक रूप से विशिष्ट उप समूहों में विभाजित किया गया था, अर्थात् SAHA (आसवन से जुड़ा नहीं) और साहू। वे एक समय अंतर्विवाही थे, लेकिन अब अंतर्विवाहित हैं। वे कई बहिर्विवाही कुलों में विभाजित थे जैसे सांडिल्य, कश्यप, गर्ग ऋषि आदि, पहले उनका केवल एक उपनाम था "साहु या साहू" लेकिन, अब उड़ीसा और आंध्र में बदली हुई परिस्थितियों के कारण, कई लोगों ने उपरोक्त राज्यों में निम्नलिखित उपनाम अपना लिए हैं . साहा या साहू. साहूकार या साहूकारी।

The word Sahugaru, is pronounced as 

SAHUKARU, SAHUKARA, SAHUKARI in ANDHRA.Ratnala

Labhala
Nalla
Nallana
Pandava
Senapathi
Paridala
Gajavilli/Gajarao
Mogilipuri / Mogili
Nemalipuri
Pumshottam
Bangaru / Bangarambandi
Bisoi
Kamsu
Kadambala
Loya
Das
Thulala/Tulo
Theegala
Uttarakawata / Uttarala
Patruni
Nilagiri
Behara
Sunnamudi

“Nageswara Gotram” is common to this clan.

विवाह रीति-रिवाज बिहार और बंगाल में सुंडी जाति पांच पीढ़ियों के भीतर विवाह को छोड़कर सामुदायिक अंतर्विवाह का अभ्यास करती थी। लड़कियों की शादी की उम्र 15 से 20 साल और लड़कों की 25 से 28 साल थी। बातचीत साथी प्राप्त करने का प्राथमिक तरीका था और "मोनोगैमी" विवाह का रूप था। दहेज नकद और वस्तु दोनों रूप में दिया जाता था। विवाह दूल्हे के निवास पर संपन्न हुआ। विवाह की मुख्य रस्में आशीर्वाद, पाणिग्रहण, सम्प्रदान और बाउ-भात थीं। शंख की चूड़ियाँ और सिन्दूर महिलाओं के लिए सुहाग के प्रतीक थे। विवाह के बाद, महिलाओं का निवास "पितृ-स्थानीय" था, पुरुषों और महिलाओं के लिए पुनर्विवाह की अनुमति थी। तलाक की अनुमति थी, लेकिन इसकी घटना बहुत कम थी। उनके समाज में महत्वपूर्ण परिवर्तन विवाह की आयु में वृद्धि, दहेज की शुरूआत, एकल परिवारों का प्रसार हैं। महिलाएं आर्थिक गतिविधियों में अपने पुरुषों की मदद करती हैं। SUNDIS गर्भवती महिलाओं की आवाजाही पर प्रसव पूर्व प्रतिबंधों का पालन करता है और प्रसव पूर्व अनुष्ठान "साध-बक्शना" किया जाता था। प्रसव के बाद, जन्म प्रदूषण देखा गया और वे शांतिपूजा करते हैं। उन्होंने पहला चावल खाने का समारोह (अन्नप्रासन) मनाया। परिणाम: SUNDIS या SONDIS अपने मृतकों का दाह संस्कार करते हैं। वे मृत्यु के बाद ग्यारह दिनों तक मृत्यु और शरद संस्कार का पालन करते हैं, उड़िया प्रथा के अनुसार, वे मृत्यु के दसवें दिन की मध्यरात्रि में "झोल-जियोला I भूमि" चढ़ाते हैं और उनके बेटे उस बड़े बर्तन को दफनाने के लिए ले जाते हैं - गिउंड या किसी दूर एकांत स्थान या टैंकबंड में जाकर बड़े-बर्तन को वहीं समाप्त कर देते हैं और फिर उसी अंधेरे में घर लौट आते हैं। उनके ब्राह्मण पुजारी और नाई और धोबी के साथ पारंपरिक संबंध हैं जो हर औपचारिक अवसर पर उनकी सेवा करते हैं।

धर्म 

 सुंडी हिंदू धर्म को मानते हैं और कई लोग शैव आस्था को अपनाते हैं। वे निम्नलिखित देवताओं से प्रार्थना करते हैं। धार्मिक देवता शिव, दुर्गा, काली, बासुमति। पारिवारिक देवता लक्ष्मी, नारायण, चंडी आदि। ग्राम देवता:अम्मावरु, मनासा त्योहारों 1) दीपावली 2) दशहरा और 3) संक्रांति -दीपावली या दिवाई सुंडियों का प्रमुख त्योहार है। प्रत्येक सुंडी या सोंडी परिवार रोशनी के इस त्योहार को अनिवार्य रूप से बहुत भक्ति के साथ मनाता है। उस दिन, वे अपने मृत माता-पिता, दादा और परदादा को याद करते हैं और एक ब्राह्मण पुजारी के माध्यम से पूजा करते हैं और उन आत्माओं के लिए वार्षिक भोजन के रूप में मृत पूर्वजों की याद में अनुष्ठान में उन्हें "पोथरा" वस्तुएं चढ़ाते हैं। सामान्य हालाँकि, उनका पारंपरिक व्यवसाय गाँवों और छोटे शहरों में शराब का आसवन है, लेकिन वे सभी अब इसमें संलग्न नहीं हैं। आंध्र में शराबबंदी लागू होने के बाद, उन्होंने अपना पेशा खो दिया और आजीविका से बाहर कर दिए गए। अब, उनमें से अधिकांश जो बड़े कस्बों और शहरों में चले गए हैं वे व्यापार, रक्षा सेवा, सरकारी सेवा, निजी सेवा और स्वरोजगार में कार्यरत हैं। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में अच्छी प्रगति की। विदेशों में भी उच्च योग्य प्रविष्टियाँ काम कर रही हैं। परिवार कल्याण उपायों को वे अच्छी तरह से स्वीकार करते हैं और आम तौर पर वे दो या तीन बच्चे पैदा करना पसंद करते हैं। वे स्वदेशी और आधुनिक मेडिकेयर दोनों का उपयोग करते हैं। वे डाकघर और बैंकों में बचत और जमा करते हैं। वे अब हर क्षेत्र में विकास की राह पर हैं।