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Friday, December 24, 2021

ANURADHA GUPTA - A GREAT PAINTER

ANURADHA GUPTA - A GREAT PAINTER

कानपुर की #वैश्य_परिवार की बेटी #अनुराधा_गुप्ता जी को अनंत बधाई एवं शुभकामनाएंअनुराधा गुप्ता जी का नाम #इंडियन_रिकॉर्ड_बुक में शामिल किया जाएगा अनुराधा गुप्ता जी ने अपने परिवार का ही नहीं समस्त वैश्य समाज का नाम रोशन किया हैं

Tuesday, December 21, 2021

BHAKTIVEDANT SWAMI PRABHUPAD - अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद

BHAKTIVEDANT SWAMI PRABHUPAD - अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अगले दिन दुनियाभर में स्वामी प्रभुपाद का जन्मदिन मनाया जाता है , स्वामी प्रभुपाद वही दिव्य आत्मा थी जिन्होंने पूरे विश्व में हरे कृष्णा मिशन को पहुंचाया है।अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत 

हज़ारों मुश्किलों के बावजूद 70 साल की उम्र में पूरी दुनिया में पहुँचाया हरे कृष्णा मिशन. श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अगले दिन दुनियाभर में स्वामी प्रभुपाद का जन्मदिन मनाया जाता है , स्वामी प्रभुपाद वही दिव्य आत्मा थी जिन्होंने पूरे विश्व में हरे कृष्णा मिशन को पहुंचाया है। जन्माष्टमी के इस पावन अवसर पर दुनियाभर के इस्कॉन मंदिरों को दुल्हन की तरह सजाया जाता है। तो आइए जानते कैसे देवो की भूमि भारत से कैसे एक 70 साल के इंसान ने कठिन परिश्रम और भक्ति भाव के बल पर दुनिया के हर देश को “हरे कृष्णा हरे रामा” जपने पर मजबूर कर दिया।


अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (1 सितम्बर 1896 – 14 नवम्बर 1977) जिन्हें स्वामी श्रील भक्तिवेदांत प्रभुपाद के नाम से भी जाना जाता है,सनातन हिन्दू धर्म के एक प्रसिद्ध गौडीय वैष्णव गुरु तथा धर्मप्रचारक थे। आज संपूर्ण विश्व की हिन्दु धर्म भगवान श्री कृष्ण और श्रीमदभगवतगीता में जो आस्था है आज समस्त विश्व के करोडों लोग जो सनातन धर्म के अनुयायी बने हैं उसका श्रेय जाता है अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को, इन्होंने वेदान्त कृष्ण-भक्ति और इससे संबंधित क्षेत्रों पर शुद्ध कृष्ण भक्ति के प्रवर्तक श्री ब्रह्म-मध्व-गौड़ीय संप्रदाय के पूर्वाचार्यों की टीकाओं के प्रचार प्रसार और कृष्णभावना को पश्चिमी जगत में पहुँचाने का काम किया। ये भक्तिसिद्धांत ठाकुर सरस्वती के शिष्य थे जिन्होंने इनको अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से वैदिक ज्ञान के प्रसार के लिए प्रेरित और उत्साहित किया। इन्होने इस्कॉन (ISKCON) की स्थापना की और कई वैष्णव धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशन और संपादन स्वयं किया।

पूरा नाम - अभय चरणारविन्द भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

अन्य नाम - अभय चरणारविन्द, अभय चरण डे, प्रभुपाद

श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों की प्रामाणिकता, गहराई और उनमें झलकता उनका अध्ययन अत्यंत मान्य है। कृष्ण को सृष्टि के सर्वेसर्वा के रूप में स्थापित करना और अनुयायियों के मुख पर "हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे" का उच्चारण सदैव रखने की प्रथा इनके द्वारा स्थापित हुई।

स्वामी प्रभुपाद का आरंभिक जीवन भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपाद का जन्म 1896 ईं में कोलकाता के एक सुवर्ण वनिक वैश्य बिज़नेसमैन के घर में हुआ था,उनके पिता ने बेटे अभय चरण का पालन पोषण एक कृष्ण भक्त के रूप में किया जिससे उनकी श्रद्धा बचपन से ही श्री कृष्ण में बढ़ती ही चली गई थी। स्वामी प्रभुपाद बचपन में बच्चों के साथ खेलने के बजाए मंदिर जाना पसंद करते थे,उनको मंदिर जाकर बहुत अधिक सुकून मिलता था। जब ये 14 साल के थे तभी इनकी माता का देहांत हो गया, जिसके बाद वो बिलकुल अकेले पड़ गए थे। स्वामी प्रभुपाद ने Scottish Church College से पढ़ाई की वो बचपन से ही पढ़ने में काफी तेज़ तरार थे और उनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। इन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए चलाए जाने वाले असहयोग आंदोलन में भी गांधी जी का साथ दिया।


स्वामी प्रभुपाद का गृहस्थ जीवन 22 साल की उम्र में पिता ने इनका विवाह करा दिया,उस समय इनका प्रयागराज इलाहाबाद में खुद का फार्मेसी का व्यवसाय था। अपने काम के साथ ही स्वामी प्रभुपाद अलग अलग गुरुओं से मिलते रहे और सन 1922 में इनकी मुलाकात एक प्रसिद्घ दार्शनिक भक्ति सिद्धांत सरस्वती से हुई, जो 64 गौडीय मठ के संस्थापक थे। सिद्धांत सरस्वती उन्हें देखते ही समझ गए प्रभुपाद की अंग्रेजी इतनी ज्यादा अच्छी है कि विदेश के लोग भी जल्दी समझ नहीं पाएंगे, इसलिए सिद्धांत सरस्वती ने उन्हें समझाया कि वे अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ज्ञान का प्रसार करें। उन्होंने कहा - प्रभुपाद आप तेजस्वी हो, कृष्ण के बहुत बड़े भक्त हो इसलिए कृष्ण भक्ति को विदेश तक पहुंचना है। क्योंकि दूसरे देशों का ज्ञान तो हमारे देश मे आ रहा है, लेकिन हमारे देश का ज्ञान कही और नही जा रहा। स्वामी प्रभुपाद ने अपने गुरु की आज्ञा मानते हुए श्रीमद भगवद गीता को अंग्रेज़ी में लिखना शुरू कर दिया, वो दिन - रात मेहनत के साथ ट्रांसलेट करने में लगे रहे और लगभग 1 साल के भीतर उन्होंने श्रीमद भगवद गीता को अंग्रेजी में लिख डाली। एक दिन स्वामी प्रभुपाद जब घर आए और उन्होंने अंग्रेजी में लिखे हुए पन्नों को नहीं देखा तो वो घबरा गए,उन्हें लगने लगा एक साल ही मेहनत बर्बाद हो गई। फिर उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा, क्या तुमने वो पन्ने रखें है क्या? इसके बाद उनकी पत्नी ने जो बातें कही उसे सुनकर दंग रह गए। उनकी पत्नी बोली- चाय खरीदने के लिए वो पन्ने कबाड़ी को बेच दिए। 54 साल की आयु में स्वामी प्रभुपाद ने गृहस्थ जीवन से अवकाश लेकर वानप्रस्थ ले लिया ताकि वो अपने लेखन को अधिक समय दें सके। फिर कुछ समय बाद वो वृन्दावन चले गए और वहां जाकर अनेकों साल तक गंभीर अध्ययन और लेखन में सलंग्न रहे।

श्रीमद् भागवत पुराण का अंग्रेजी में अनुवाद - हरे कृष्णा मिशन

1959 में उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया और श्री राधा-दामोदर मंदिर में ही अठारह हजार श्लोक संख्या के श्रीमद् भागवत पुराण का अनेक खंडों में अंग्रेजी में अनुवाद और व्याख्या की। श्रीमद् भागवत के प्रारंभ के तीन खंड प्रकाशित करने के बाद श्री प्रभुपाद सितंबर 1965 ई. में कुछ किताबें, कपड़े और साथ 7 डॉलर लेकर मालवाहक जहाज से अमेरिका पहुंचे। 32 दिन के यात्रा के दौरान उन्हें 2 बार हार्ट अटैक भी आया।

जब यह न्यूयॉर्क शहर पहुंचे तो उस समय वियतनमी और न्यूयॉर्क का युद्ध चल रहा था। उस वक़्त हिप्पी लोग नंगे रोडों पर घूमते, एवं नशा करते थे, इन सब से वहां की सरकार परेशान हो गयी थी। तभी स्वामी जी ने सोचा क्यों ना इन्हीं से शुरुआत की जाए, स्वामी जी ने इनके लिए कीर्तन शुरू किए लेकिन हिप्पी लोग इनका लगातार अपमान करते थे, उन्हें परेशान करते थे, लेकिन फिर भी स्वामी जी इनके लिए सुबह शाम भोजन बनाते थे, और कथा सुनाते थे। अनजान देश में पहुंचकर श्रीमद् भागवत को दूसरों तक पहुंचाना और समझाना बेहद ही कठिन था, क्योंकि अमेरिका में उन्हें उस वक़्त पहचानने वाला कोई न था, लेकिन उन्होंने अपनी प्रयास जारी रखी।

उन्हें खुद पर यकीन था कि एक न एक दिन विदेश में श्रीमद् भागवत को दूसरों तक पहुंचाने में सफल हो जाएंगे। स्वामी प्रभुपाद की मेहनत रंग लाई और धीरे धीरे ये लोग परिवर्तित होने लगे और भगवत गीता का पाठ करने लगे और अमेरिकन सरकार भी इनसे खुश हो गयी थी। यहां लगभग उनके 10,000 शिष्य बन गये थे, जिनको स्वामी जी ने प्रचार के लिए विश्व के भिन्न स्थानों पर उपदेश एवं ज्ञान देने के लिए भेजा। इन्होंने लगभग 5.5 करोड़ किताबें इस दौरान अन्य भाषाओं में ट्रांसलेट की। इन्होंने आध्यामिकता में ध्यान दिया न कि किसी धर्म विशेष को प्रोत्साहित किया।

अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ ISKCON की स्थापनाअत्यंत कठिनाई भरे क़रीब एक वर्ष के बाद जुलाई, 1966 में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ ISKCON की स्थापना की। 1966 में इस्कॉन को स्थापित करने के समय उन्हें सुझाव दिया गया था कि शीर्षक में "कृष्ण चेतना" के बजाए 'भगवान चेतना' बेहतर होगा, उन्होंने इस सिफारिश को खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि कृष्ण के नाम में भगवान् के सभी रूप और अवधारणाएं शामिल हैं। 1967 में सैन फ्रांसिस्को में एक और केंद्र शुरू किया गया और वहां से उन्होंने पूरे अमेरिका में अपने शिष्यों के साथ यात्रा की। सड़क पर चलते हुए चिंतन, पुस्तक वितरण और सार्वजनिक भाषणों के माध्यम से आंदोलन को लोकप्रिय बनाया गया। सन 1966 से 1977 के बीच लगभग 11 वर्षो में उन्होंने विश्व भर का 14 बार भ्रमण किया तथा कृष्णभावना के वैज्ञानिक आधार को स्थापित करने के लिए उन्होंने भक्तिवेदांत इंस्टिट्यूट की भी स्थापना की। यह अपने जीवन काम के मात्र 2 घंटे आराम करके 22 घंटे काम करते थे।

श्रील प्रभुपाद की पुस्तकेंहालांकि, श्रील प्रभुपाद का सबसे महत्वपूर्ण योगदान उनकी किताबें हैं। अकादमिक समुदाय द्वारा उनकी प्रामाणिकता, गहराई और स्पष्टता के लिए अत्यधिक सम्मानित, इन्हें कई कॉलेजों में मानक पाठ्यपुस्तकों के रूप में उपयोग किया जाता है। उनके लेखन का ग्यारह भाषाओं में अनुवाद किया गया है। भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट, जिसे 1972 में स्थापित किया गया था, जो विशेष रूप से उनके कार्यों को प्रकाशित करने के बनाया गया है, इस प्रकार भारतीय धर्म और दर्शन के क्षेत्र में पुस्तकों का दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाशक बन गया है।


अपने जीवन के आखिरी दस वर्षों में, बुढ़ापे के बावजूद, श्रील प्रभुपाद ने पूरे विश्व की बारह बार यात्रा की। इस तरह के थकान भरे कार्यक्रम के बावजूद, श्रील प्रभुपाद ने प्रचुर रूप से लिखना जारी रखा। उनके लेखन वैदिक दर्शन, धर्म, साहित्य और संस्कृति के एक वास्तविक पुस्तकालय का गठन करती हैं। श्रील प्रभुपाद अपने पीछे वैदिक दर्शन और संस्कृति का एक वास्तविक पुस्तकालय छोड़ गये। भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट 50 से अधिक भाषाओं में उनकी पुस्तकें प्रकाशित करता है।

1966 से, जब तक उन्होंने 1977 में अपनी आखिरी सांस ली; श्रील प्रभुपाद ने दुनिया भर में यात्रा की, विश्व के नेताओं से मुलाकात की, व व्याख्यान और साक्षात्कार देकर वैदिक दर्शन को समझने के लिए लोगों को भावना प्रदान की।

श्री प्रभुपाद जी का निधन (निर्वाण) श्री प्रभुपाद जी का निधन 14 नवंबर, 1977 में प्रसिद्ध धार्मिक नगरी मथुरा के वृन्दावन धाम में हुआ। कहा जाता है कि जब यह मृत्यु शैय्या पर लेटे हुए थे, तब भी यह गीता ज्ञान के उपदेश को रिकॉर्ड कर रहे थे। पूरी दुनिया में अरबों की प्रॉपर्टी होने के बावजूद उन्होंने सारा पैसा उन्होने समाज की सेवा में लगाया। स्वामी प्रभुपाद ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अकेले ही पूरे विश्व मे भगवत गीता के ज्ञान को पूरे जोश से फैलाया। अपने आप को कम न आंककर, ईश्वर द्वारा प्रदत्त प्रतिभाओं को उपयोग में लाकर अपने गुरु द्वारा दिए गए आदेश का पालन किया।

प्रेरक के रूप में Srila Prabhupada Quoteस्वामी जी ने कहा था –

मैं अकेला हूँ, और मैं सब कुछ नही कर सकता, इसका मतलब यह नही है, कि मैं कुछ भी नही कर सकता।क्योंकि मैं कुछ कर सकता हूँ, तो कुछ करूँगा, और कुछ कुछ कर कर के कुछ भी कर दूँगा।इन्होंने अकेले ही पूरे विश्व मे भगवत गीता के ज्ञान को पूरे जोश से फैलाया। अपने आप को कम न आंककर, ईश्वर द्वारा प्रदत्त प्रतिभाओं को उपयोग में लाकर अपने गुरु द्वारा दिये गए आदेश का पालन किया।दोस्तों श्री भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद थे भारत के एक ऐसे स्वामी जिन्होंने विषम परिस्थितियों में भी हार नही मानी और लगातार प्रयास करके अपना एक कीर्ति मान कायम किया और पूरे विश्व मे अपने नाम और काम का डंका बजवाया।

साभार : janamkatha.com/2020/08/swami-prabhupad-jivani.html

Sunday, December 19, 2021

NEENA GUPTA - प्रोफेसर नीना गुप्ता बनीं रामानुजन पुरस्कार प्राप्त करने वाली तीसरी महिला

प्रोफेसर नीना गुप्ता बनीं रामानुजन पुरस्कार प्राप्त करने वाली तीसरी महिला

पहली बार किसी भारतीय महिला को, गणित का नोबल पुरस्कार कहे जाने वाले रामानुज अवार्ड मिला है।
नीना गुप्ता जी को
बधाई
इसके पूर्व अबतक सिर्फ 3 भारतीय पुरुष ने ये अवार्ड जीता था... मुझे हैरानी है कि कहीं मीडिया में इस खबर की चर्चा तक नही है ,इस बेटी ने दुनियां को गणित में भारत का लोहा मनवाया है।
पर दुर्भाग्य इस देश में नीना गुप्ता जैसी बेटियां जो देश का नाम रोशन करती है उन्हें मीडिया कवरेज नही मिलता।
नीना गुप्ता जी पर पूरा देश को गर्व महसूस करना चाहिए। जय हिन्द
हमारे देश में शिक्षा, कला, विज्ञान, मनोरंजन और समाजकार्यों के लिए पद्म सम्मान दिए जाते हैं। जिसमें उन लोगों का नाम शामिल होता है, जिन्होंने इनमें से किसी भी क्षेत्र में अपना विशेष योगदान तो दिया ही है। साथ ही, जिन्होंने अपनी कुछ अलग पहचान भी बनाई है। इस क्रम में गणितज्ञ में सफलता हासिल करने वालों को रामानुजन पुरस्कार से दिया जाता है। हाल ही में, कोलकाता की भारतीय सांख्यिकी संस्थान में प्रोफेसर और गणितज्ञ नीना गुप्ता को रामानुजन पुरस्कार से नवाजा गया है।



गणितज्ञ नीना गुप्ता को रामानुजन पुरस्कार से नवाजा गया है। साथ ही, वह रामानुजन पुरस्कार प्राप्त करने वाली चौथी भारतीय गणितज्ञ बन गई हैं।
हमारे देश में शिक्षा, कला, विज्ञान, मनोरंजन और समाजकार्यों के लिए पद्म सम्मान दिए जाते हैं। जिसमें उन लोगों का नाम शामिल होता है, जिन्होंने इनमें से किसी भी क्षेत्र में अपना विशेष योगदान तो दिया ही है। साथ ही, जिन्होंने अपनी कुछ अलग पहचान भी बनाई है। इस क्रम में गणितज्ञ में सफलता हासिल करने वालों को रामानुजन पुरस्कार से दिया जाता है। हाल ही में, कोलकाता की भारतीय सांख्यिकी संस्थान में प्रोफेसर और गणितज्ञ नीना गुप्ता को रामानुजन पुरस्कार से नवाजा गया है।
उन्हें यह पुरस्कार एफाइन बीजगणितीय ज्यामिति और कम्यूटेटिव बीजगणित में उत्कृष्ट कार्य करने के लिए दिया है। बता दें कि नीना गुप्ता कोलकाता के भारतीय सांख्यिकी संस्थान में गणितज्ञ प्रोफेसर हैं, जिन्होंने अपनी पढ़ाई भी कोलकाता से पूरी की है। हालांकि, नीना गुप्ता चौथी भारतीय भारतीय गणितज्ञ हैं, जिन्हें रामानुजन पुरस्कार से नवाजा गया है, तो चलिए जानते हैं नीना गुप्ता से जुड़े कुछ रोचक तथ्यों के बारे में...
नीना गुप्ता का सफर
नीना गुप्ता कोलकाता के भारतीय सांख्यिकी संस्थान में गणितज्ञ प्रोफेसर हैं। उन्होंने 2006 में कोलकाता के बेथ्यून कॉलेज से गणित ऑनर्स से स्नातक किया था। फिर इसके बाद नीना गुप्ता ने भारतीय सांख्यिकी संस्थान से स्नातकोत्तर किया था। इसके बाद, नीना गुप्ता ने बीजगणितीय ज्यामिति में डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी (पीएचडी) की। इसी दौरान इन्होंने वर्ष 2014 में ज़ारिस्की की 'रद्दीकरण समस्या पर शोध किया था, जो प्रकाशित भी हुआ।
पहले भी मिल चुके हैं ये पुरस्कार
रामानुजन पुरस्कार विजेता नीना गुप्ता को 2014 में भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी से 'यंग साइंटिस्ट अवॉर्ड' मिला से भी नवाजा गया था। साथ ही, उनके काम की सरहाना करते हुए बीजगणितीय ज्यामिति में अब तक किए गए सर्वश्रेष्ठ कार्यों में से एक बताया गया था। इसके बाद, नीना गुप्ता को2019 में 35 वर्ष की आयु में 'शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार' दिया गया। इसी के साथ नीना गुप्ता सबसे कम उम्र में यह पुरस्कार प्राप्त करने वाली महिला बन गईं। उन्होंने 70 साल पुरानी गणित की पहेली - ज़ारिस्की की रद्दीकरण समस्या को सफलतापूर्वक हल कर लिया है।
रामानुजन पुरस्कार क्या है?
यह पुरस्कार प्रतिवर्ष एक प्रख्यात गणितज्ञ को दिया जाता है, जिसकी आयु उस वर्ष के 31 दिसंबर तक 45 वर्ष से कम है, और उसने विकासशील देशों में उत्कृष्ट शोध किया है। रामानुजन पुरस्कार पहली बार 2005 में प्रदान किया गया था और इसे विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी), भारत सरकार और अंतरराष्ट्रीय गणितीय संघ के साथ संयुक्त रूप से सैद्धांतिक भौतिकी के लिए अब्दुस सलाम इंटरनेशनल सेंटर द्वारा प्रशासित किया जाता है।
यह पुरस्कार नीना गुप्ता से पहले भारतीय गणितज्ञ रामदोराई सुजाता को 2006, अमलेंदु कृष्णा को 2015 और रीताब्रत मुंशी को 2018 में सम्मानित किया जा चुका है।

Tuesday, December 14, 2021

RAJA TODARMAL - राजा टोडरमल

RAJA TODARMAL - राजा टोडरमल

अग्रवंशी सेठ और अकबर के नवरत्न राजा टोडरमल अग्रवाल ने सन् 1585 में भव्य विश्वनाथ मंदिर का निर्माण काशी में करवाया था ..

भगवान विश्वनाथ का ज्योतिर्लिंग द्वादश ज्योतिर्लिंग में आदिलिंग अर्थात प्रथम माना जाता है। ये अनादि काल से अस्तित्व में है। काशी विश्वनाथ के महत्व को समझाते हुए गोस्वामी जी ने राम चरित मानस में लिखा है - "बिनु छल विस्वनाथ पद नेहु, राम-भगत कर लच्छन एहू" अर्थात बिना किसी छल कपट के प्रभु विश्वनाथ के चरण कमलों में प्रीति रखना ही राम भक्त का लक्षण है।
लेकिन देश मे विदेशी आक्रांताओं ने आक्रमण करके इसे बार बार विखंडित किया और धर्म परायण हिंदुओं ने इसका पुनर्निर्माण करवाया। -ऐसे ही एक घटना का जिक्र है-


आपने  टोडरमल का नाम तो सुना ही होगा ये अकबर के नवरत्न थे लेकिन फिर भी अभिमानी नहीं थे और विप्रशिरोमणि गौस्वामी की रामकथा से बहुत प्रभावित थे। जब तुलसीदास जी का कुछ काशी के पंडो ने अपमान किया और ये काशी छोड़ कर जाने लगे तब टोडरमल जी ने उनके लिए काशी में एक अखाड़े का निर्माण करवाया था।

राजा टोडरमल अग्रवाल परम धार्मिक और सात्विक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। सन् पंद्रह सौ पचासी ई. में राजा टोडरमल अग्रवाल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। डॉ. एएस भट्ट ने अपनी किताब 'दान हारावली' में इसका जिक्र किया है कि टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण पंद्रह सौ पचासी में करवाया था।
एकबार तुलसीदास जी मथुरा यात्रा पर गए थे लेकिन जब वो वापस काशी लौटे तो काशी टोडरविहीन हो चुकी थी। काशी विश्वनाथ मंदिर पुनःनिर्माण करवाने की वजह से मलेच्छ इनके शत्रु हो गए थे इसी कारण इनकी हत्या कर दी गयी थी। टोडरमल जी ऐसे मानव रत्न हैं लेकिन इनका जिक्र आज बहुत कम सुनाई देता है।

साभार: राष्ट्रीय अग्रवाल महासभा

वैश्य कंजूस नहीं दानवीर होता है

वैश्य कंजूस नहीं दानवीर होता है 

"बनियों की कंजूसी"...

दोस्तों ये दिल्ली के 'चांदनी चौक' प्रसिद्ध गौरी शंकर मन्दिर है। ये लगभग 800 साल पुराना मन्दिर है।इसके बारे में कहते है।जब क्रूर, बेरहम, औरंगजेब ने इस मंदिर को तोड़ने का आदेश अपने सिपाहियों को दिया तो, ये बात लाला भागमल जी को पता चली, जो बहुत बड़े व्यापारी थे।


उन्होंने औरंगजेब की आंखों में आंखे डालकर ये कह दिया था कि तू अपना मुह खोल जितना खोल सकता है, बता तुझे कितना जजिया कर चाहिए?????
औरंगजेब तू बस आवाज़ कर, लेकिन मन्दिर को कोई हाथ नही लगाएगा, मन्दिर की घण्टी बजनी बन्द नही होगी,
कहते है उस वक़्त औरंगजेब ने औसत जजिया कर से 100 गुना ज्यादा जजिया कर हर महीने मांगा था, ओर लाला भागमल जी ने हर महीने, बिना माथे पर शिकन आये जजिया कर औरंगजेब को भीख के रूप में दिया था, लेकिन लाला जी ने किसी भी आततायी को मन्दिर को छूने नही दिया।
आजतक मन्दिर की घण्टियाँ ज्यों की त्यों बजती है।
मैने कन्वर्ट मुस्लिमो में लगभग हर जाति को हिन्दू से मुस्लिम कन्वर्ट पाया है, बनिये भी हो सकता है हों, लेकिन मुझे 'बनिया समाज' के लोग कन्वर्ट आजतक नही मिले।
मैने देखा है,बनिया लोग जहां भी जाकर बसते है, सबसे पहले वहां आसपास जितना जल्दी हो सके, एक भव्य मंदिर का निर्माण दिल खोलकर करते है।
महाराणा प्रताप जी भी जब महल छोड़कर जंगल चले गए थे, तो उन्हें नई सेना बनाने के लिए, हथियारों घोड़ो, हाथियों के लिए, अकबर से युद्ध के लिए नई सेना का गठन करना था, उस समय भी बनिया समाज से हम राजपुतों के आदरणीय रहे, स्वर्गीय श्री भामाशाह जी ने अकूत धनराशि से महाराणा प्रताप जी को भरपूर सहयोग किया था।
ऐसे ये दो नही अनगिनत...अनगिनत...अनगिनत.... किस्से है मेरे पास, जहां बनियों ने अपना सर्वस्व न्योछावर करके अपने धर्म की रक्षा की,
ओर बहुत से लोग इन्हें कंजूस कहकर इनका उपहास उड़ाते है, जो उपहास उड़ाते है, वो लोग उपहास उड़ाने से पहले, अपने गिरेबाँ में झांक कर, अपने त्याग और बनियों के त्याग में अंतर कर लेना।
सोशल मीडिया पर भी ओर मेरे घर के आसपास भी मै जब भी किसी धार्मिक अनुष्ठान के कार्य को होता देखता हूँ, तो पूरे श्रद्धा भाव से सबसे पहले बनिया, जैन लोगो का हाथ अपनी जेब मे जाता है।
सनातन धर्म की नींव बचाने के लिए बनिया समाज का समस्त हिन्दू धर्म सदैव ऋणी रहेगा।
कल ऑफिस में गौरी शंकर मन्दिर को लेकर यूँही एक चर्चा चल रही थी, तब ये बातें सामने आयी, तो सोचा बनियों की कंजूसी की असलियत लिख दूँ। जो लोगो को पता नही है।
साभार: कुंवर संजू सिंह
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Saturday, December 11, 2021

तापडिया हवेली - जसवंतगढ़

तापडिया हवेली - जसवंतगढ़ 

राजस्थान में ऐसा कोई शहर या कस्बा नही जिसमे कोई पुरानी हवेली या छोटा बड़ा किला ना हो और शेखावाटी की तो बात ही अलग है ये हवेली 100 साल पहले बनी थी (वही के स्थानीय सेठ ने बनवाई थी ) और आज भी वैसी ही खड़ी है हालांकि रंगाई पुताई का काम इसपे हो चुका है लेकिन दिखने में काफी सही है पुरानी हवेली ओर किलो को देख के मन में एक ही सवाल आता है कि यार ये बनाते कैसे थे इन हवेलियों को बिना आधुनिक मशीनों के बिना ओर गढ़ तो सारे पहाड़ियों पर ही है अगर आपको भी पुरानी हवेलिया देखने का सोख के तो पधारो महारी शेखावाटी में एक से बढ़ कर एक हवेली है शेखावाटी मैं





अग्रवालो की गोत्र परंपरा

अग्रवालो की गोत्र परंपरा 


 

Monday, December 6, 2021

DEVASHEESH GOYAL - OHLOCAL

DEVASHEESH GOYAL - OHLOCAL

मेरठ के देवाशीष ने स्थानीय और छोटे दुकानदारों के लिए ऐप लॉन्च किया, पहले ही साल 2 करोड़ का बिजनेस

पिछले कुछ सालों में ऑनलाइन मार्केटिंग की डिमांड बढ़ी है। गांवों में भी लोग ऑनलाइन शॉपिंग कर रहे हैं। कई मायनों में इसके फायदे भी हैं, लेकिन दूसरी तरफ इससे स्थानीय दुकानदारों को नुकसान भी हो रहा है। धीरे-धीरे उनके कस्टमर कम हो रहे हैं। इसको लेकर मेरठ के रहने वाले देवाशीष गोयल ने एक पहल की है।

उन्होंने एक ऐप लॉन्च किया है जिसके जरिए स्थानीय दुकानदार आसानी से ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों ही प्लेटफॉर्म से मार्केटिंग कर सकते हैं। इतना ही नहीं ग्राहकों को भी एक दिन के भीतर उनकी पसंद का प्रोडक्ट मिल जाएगा। एक साल के भीतर उन्होंने 2 करोड़ रुपए से ज्यादा का बिजनेस किया है।

28 साल के देवाशीष इंजीनियरिंग के बाद एक स्टार्टअप से जुड़ गए। उन्होंने करीब 5 साल तक स्टार्टअप के लिए काम किया। इससे उन्हें टेक्नोलॉजी के साथ मार्केटिंग को भी समझने का मौका मिला। इसके बाद उन्होंने तय किया कि अब वे खुद का कोई स्टार्टअप करेंगे।

ऑनलाइन मार्केटिंग में गैप बहुत है

देवाशीष कहते हैं कि अलग-अलग ट्रेंड्स को लेकर रिसर्च के बाद हमें पता चला कि अभी ऑनलाइन मार्केटिंग का जमाना है। लोग तेजी से ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की तरफ शिफ्ट हो रहे हैं। इस वजह से स्थानीय और छोटे दुकानदारों को घाटा हो रहा है। उनके ग्राहक कम हो रहे हैं। कुछ स्थानीय दुकानदार ऑनलाइन शिफ्ट भी होना चाहते हैं तो उन्हें सही प्लेटफॉर्म नहीं मिलता है।


28 साल के देवाशीष ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है। लंबे वक्त तक उन्होंने स्टार्टअप के साथ काम भी किया है।

वे कहते हैं कि कोरोना के दौरान बड़ी कंपनियां ऑनलाइन मार्केटिंग कर रही थीं, लेकिन छोटे दुकानदारों का धंधा बंद हो गया था। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर उनकी मौजूदगी थी नहीं और दुकान पर ग्राहक आ नहीं रहे थे। तभी हमने इसको लेकर प्लानिंग करना शुरू किया।

जनवरी 2021 में शुरू किया स्टार्टअप

अगस्त 2020 में जब लॉकडाउन की पाबंदी हटी तो देवाशीष ने छोटे और स्थानीय दुकानदारों से कॉन्टैक्ट करना शुरू किया। उन्होंने उनकी दिक्कतें समझी और उनके सहूलियत के मुताबिक ऐप बनाने की तैयारी शुरू कर दी। करीब 6 महीने की मेहनत के बाद जनवरी 2021 में उन्होंने Ohlocal नाम से अपना स्टार्टअप लॉन्च किया।

देवाशीष कहते हैं कि ऐप लॉन्च करने, स्टार्टअप शुरू करने और ऑफिस के लिए सेटअप जमाने में उनके 10 से 15 लाख रुपए खर्च हुए। जो उन्होंने अपनी सेविंग्स से खर्च की। इस दौरान उन्हें कई शहरों में जाना पड़ा। अभी भी लगातार वे फील्ड विजिट करते हैं। इसमें अच्छी खासी रकम खर्च होती है।

वे कहते हैं कि जैसे-जैसे लोगों को हमारे बारे में जानकारी मिली, वे हमसे जुड़ने लगे। कुछ ही महीनों में हमने मेरठ से होते हुए गुरुग्राम, नोयडा जैसे शहरों में अपनी पहुंच बना ली। वहां के लोकल दुकानदारों को अपने साथ जोड़ लिया। इसी तरह कस्टमर्स की भी संख्या बढ़ने लगी।

किफायती डर में अपने ही शहर से ऑनलाइन शॉपिंग


देवाशीष बताते हैं कि हमारी टीम हर दुकान का वैरिफिकेशन करती है। उसके बाद ही हम अपने ऐप पर उसे लिस्ट करते हैं।

देवाशीष कहते हैं कि मेरठ, नोयडा, गुरुग्राम सहित कई शहरों में हमने स्थानीय दुकानदारों को अपने साथ जोड़ा है। अभी 200 के करीब दुकानदार हमसे जुड़े हैं। ये सभी इलेक्ट्रॉनिक और होम अप्लायंसेज से संबंधित हैं। इसी तरह 4 हजार से ज्यादा हमारे साथ कस्टमर्स भी जुड़े हैं।

वे बताते हैं कि मान लीजिए आप मेरठ में हैं। आपको एक फ्रीज या कूलर की जरूरत है। आपको यह जानकारी नहीं है कि मेरठ में ये प्रोडक्ट कहां मिलते हैं और उनकी कितनी कीमत है। या किस दुकान पर किफायती रेट है। ऐसे में आप क्या करेंगे?

देवाशीष कहते हैं कि आप हमारे ऐप के जरिये आसानी से इसकी न सिर्फ जानकारी ले सकते हैं, बल्कि स्थानीय दुकान से ऑनलाइन शॉपिंग के जरिये घर पर प्रोडक्ट भी मंगा सकते हैं। वो भी किफायती रेंज में। इसी तरह दुकानदार भी अपना प्रोडक्ट आसानी से बिना किसी अतिरिक्त कमीशन के बेच पाएंगे। इसमें वक्त की भी काफी ज्यादा बचत होगी।

कैसे करते हैं काम? क्या है बिजनेस मॉडल?


देवाशीष कहते हैं कि हमारे ऐप पर दूसरे ऐप के मुकाबले हर प्रोडक्ट की कीमत कम होगी और वह प्रोडक्ट स्थानीय ही होगा।

अगर कोई कस्टमर Ohlocal के जरिये शॉपिंग करना चाहता है तो वह सबसे पहले ऐप या वेबसाइट के जरिये लॉगइन करता है। फिर अपना लोकेशन सिलेक्ट करता है। इसके बाद जो प्रोडक्ट उसे खरीदना है उसकी क्वायरी करता है। जिसकी जानकारी संबंधित लोकेशन पर मौजूद दुकानदारों के पास फौरन पहुंच जाती है।

इसके बाद दुकानदार उस प्रोडक्ट की बेस्ट प्राइस मेंशन करते हैं। जिसके आधार पर कस्टमर उस दुकानदार से कॉन्टैक्ट करके शॉपिंग कर सकता है। वह चाहे तो सीधे उस दुकान पर जाकर खरीदी कर सकता है या ऑनलाइन अपने घर भी बुला सकता है। देवाशीष का दावा है कि उनके ऐप के जरिये एक घण्टे में प्रोडक्ट की डिलीवरी हो जाती है।

अपने रेवेन्यू को लेकर देवाशीष कहते हैं कि हम कस्टमर्स से कोई चार्ज नहीं लेते हैं। दुकानदारों को भी रजिस्ट्रेशन के लिए फीस नहीं देनी है। हम हर ट्रांजेक्शन पर एक फिक्स अमाउंट चार्ज करते हैं, जो बेहद कम होता है। इसके अलावा हमने दुकानदारों के लिए ऐडवर्टाइजिंग प्लेटफॉर्म भी लॉन्च किया है। वे आसानी से हमारे ऐप के जरिये अपने बिजनेस का प्रमोशन कर सकते हैं। इसके लिए भी हम मिनिमम चार्ज उनसे कलेक्ट करते हैं। फिलहाल हमारा रेवेन्यू मॉडल यही है।


फिलहाल देवाशीष की टीम में 12 लोग काम करते हैं। जल्द ही वे अपनी टीम मेंबर्स की संख्या बढ़ाएंगे।

अभी देवाशीष इलेक्ट्रॉनिक और होम अप्लायंसेज को लेकर काम कर रहे हैं। उनके साथ 12 लोगों की टीम है। जल्द ही वे शहरों की भी संख्या बढ़ाने वाले हैं और ज्यादा से ज्यादा कैटेगरी भी ऐड करने वाले हैं। इसको लेकर उन्होंने प्लानिंग भी शुरू कर दी है।

अगर इस तरह के स्टार्टअप को लेकर आप भी प्लानिंग कर रहे हैं तो यह स्टोरी आपके काम की है

मान लीजिए आप किसी शहर में नए हैं, आपको अपनी लोकेशन के हिसाब से कपड़े की दुकान, मॉल, होटल या मेडिकल की जरूरत है। तो आप क्या करेंगे? आमतौर पर हम इसके लिए गूगल करते हैं। कई बार हमें जानकारी मिल जाती है, कई बार ऐसा भी होता है कि उस जगह पर मौजूद छोटी दुकानों के बारे में गूगल पर जानकारी उपलब्ध नहीं होती। इतना ही नहीं, अगर आप खुद का छोटा-मोटा बिजनेस, स्टार्टअप या दुकान चलाते हैं, लेकिन आपकी अच्छी कमाई नहीं हो पाती है, कस्टमर्स तक आपके प्रोडक्ट की जानकारी नहीं पहुंच पाती है।

इस परेशानी को दूर करने के लिए झारखंड के चाईबासा के रहने वाले सत्यजीत पटनायक ने एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की शुरुआत की है। उनके ऐप के जरिए देश के 40 शहरों में करीब 4 हजार छोटे-बड़े बिजनेस जुड़े हैं। महज 6 महीने में ही उन्होंने 3 करोड़ से ज्यादा का बिजनेस किया है।

साभार: दैनिक भास्कर 

PUNEET GUPTA - ASTROTALK

PUNEET GUPTA - ASTROTALK

कैसे एक ज्योतिषी ने इस इंजीनियर को 32 लाख रुपये प्रतिदिन का व्यवसाय बनाने में मदद की


जब एस्ट्रोटॉक (AstroTalk) की शुरुआत हुई थी तब यह ज्योतिषियों के द्वारा वीडियो परामर्श की सेवा ही प्रदान करता था। इसकी शुरुआत अच्छी हुई लेकिन जब टीम ने ग्राहकों से बात की तो ग्राहकों ने ऑडियो कॉल विकल्प का भी अनुरोध किया।

भविष्य में क्या होगा, कब होगा और क्यों होगा यह सोचना आमतौर पर हमें हर समय सतर्क रखने में मदद करता है। और "आज का आनंद लें" यह कहावत वास्तव में हर समय मददगार नहीं होती है, वह भी तब जब हमें भी नहीं पता होता कि हमारा जीवन हमें कहाँ ले जा रहा है। जितना अधिक हम चाहते हैं, हमारा जीवन उतना ही अनिश्चित हो जाता है। हालांकि, एक ऐप ऐसा भी है जो हमारे भविष्य से जुड़े सभी सवालों के जवाब देकर इस अनिश्चितता को कम करता है, वह है - एस्ट्रोटॉक (AstroTalk)।

क्या आपने इससे पहले ऐप पर ज्योतिष के बारे में सुना है? यह काफी दिलचस्प स्टार्टअप है, जो 24*7, ग्राहकों से बात करने के लिए ज्योतिषियों को एक ऐप पर एक साथ लाता है। लेकिन, एस्ट्रोटॉक के बारे में सबसे दिलचस्प बात यह है कि एक समय ऐसा था जब एस्ट्रोटॉक के संस्थापक पुनीत गुप्ता ने ज्योतिष में विश्वास नहीं किया और एक ज्योतिष भविष्यवाणी ने उनके जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया। यहाँ वह हमारे साथ उस घटना को साझा कर रहे हैं:

एस्ट्रोटॉक को एक ज्योतिष भविष्यवाणी के परिणामस्वरूप लॉन्च किया गया था!
पुनीत मुंबई में एक इन्वेस्टमेंट बैंक के साथ काम कर रहे थे, जब उन्होंने एक आईटी कंपनी शुरू करने के लिए अपनी नौकरी छोड़ने का विचार किया। 2015 में स्टार्टअप करने के लिए नौकरी छोड़ने से पहले, पुनीत ने पहले भी यही कोशिश की थी, लेकिन वह दिवालिया हो गए और उन्हें नौकरी पर लौटना पड़ा। इसलिए, उनके लिए दोबारा नौकरी छोड़ना बहुत आसान नहीं था।

सौभाग्य से, एक दिन उनके वरिष्ठ सहकर्मी ने पुनीत से पूछा कि वह चिंतित क्यों हैं और पुनीत ने उन्हें बताया कि वह इस्तीफा तो देना चाहता है, लेकिन उनकी हिम्मत नहीं हो रही है। उनकी यह सहकर्मी ज्योतिष का अभ्यास करती थीं और उन्होंने ज्योतिष के द्वारा भविष्यवाणी के माध्यम से मदद करने की पेशकश की।

पुनीत को ज्योतिष में कोई विश्वास नहीं था और इसलिए उन्होंने उनका मजाक उड़ाते हुए उनके विचार को पूरी तरह से खारिज कर दिया कि “एक इन्वेस्टमेंट बैंक में काम करने वाला कोई ज्योतिष जैसे मिथकों पर कैसे विश्वास कर सकता है।”

सहकर्मी मदद करने के लिए काफी अडिग थीं और खुद को सही साबित करना चाहती थीं, इसलिए वह (पुनीत) आखिरकार राजी हो गए। वरिष्ठ सहयोगी ने भविष्यवाणी की कि पुनीत इस्तीफा दे सकते हैं, क्योंकि 2015 से 2017 तक उनका समय बेहद सहायक रहेगा, लेकिन उनका स्टार्टअप अप्रैल 2017 के बाद बंद हो जाएगा, क्योंकि स्टार्टअप में जो उनका सहयोगी है वह उनका साथ छोड़ देगा। उन्होंने यह भी कहा कि पुनीत को चिंता करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह 2017-18 में फिर से कुछ शुरू करेंगे और वह बहुत सफल होगा।

हालाँकि, पुनीत को इन भविष्यवाणियों पर कोई विश्वास नहीं था, लेकिन अपने सहयोगी की बातों को सुनकर उन्हें सकारात्मक महसूस हुआ, इसलिए उन्होंने आखिरकार इस्तीफा दे दिया। उनके स्टार्टअप ने वास्तव में काफी अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन भविष्यवाणी के अनुसार, उनका साथी मार्च 2017 में साथ छोड़कर चला गया, और कारोबार में हानि होने का सिलसिला शुरू हो गया।

कोई, जो ज्योतिष में कभी विश्वास नहीं करता था, 2 साल पहले बताई गई भविष्यवाणी ने सब कुछ साफ कर दिया। और उसी समय पुनीत ने अपनी पुराने सहकर्मी को फोन किया और बताया कि कैसे उनके द्वारा की गई भविष्यवाणी सच हो गई। उनसे बात करते हुए, पुनीत को ज्योतिष के क्षेत्र में एक ऐप शुरू करने का विचार आया और इस तरह एस्ट्रोटॉक (AstroTalk) ऐप का विचार आया। जब उन्होंने उनसे एस्ट्रोटॉक की सफलता के बारे में पूछा, तो उनके सहकर्मी ने कहा कि यह 2018 में शुरू होगी और 2026 तक तेजी से बढ़ेगी।

एस्ट्रोटॉक का उदय

अपने लॉन्च के 4 वर्षों के भीतर, एस्ट्रोटॉक आज लोगों के साथ ज्योतिषियों से बातचीत करने के माध्यम को बदल दिया है। पुनीत ने साझा किया कि, "मैं एक ही समय में आभार और गर्व दोनों महसूस करता हूँ, कि हमें केवल 4 वर्षों में 2 करोड़ से अधिक लोगों के जीवन में सकारात्मक रूप से बदलाव लाने का मौका मिला है।"

संस्थापक के अनुसार, दो चीजें ऐसी होती हैं जो उनके पक्ष में काम करती हैं:

वास्तविक ज्योतिषियों को साथ लाना, जो सटीक भविष्यवाणी कर सकें और लोगों की व्यक्तिगत समस्याओं को समझने और हल करने के लिए काफी तत्पर रहें।

सर्वोत्तम तरीके से ग्राहक की सेवा करने का जुनून। फिर चाहे वह सबसे अच्छा ऐप बनाने का काम हो या सबसे मददगार ग्राहक सहायता टीम बनाने का काम हो।

चुनौतियां

शुरू से ही सबसे बड़ी चुनौती वास्तविक ज्योतिषियों को खोजने की रही है और यह अभी भी जारी है। हमें पूरे भारत से हजारों प्रोफाइल प्राप्त होते हैं, लेकिन 5% से भी कम हमारे साथ आने के लिए क्वालिफाई कर पाते हैं। बाजार में बहुत सारे स्वघोषित ज्योतिषी भी हैं, इसलिए सही ज्योतिषी की पहचान करने में लगभग 5-7 इंटरव्यू लग जाते हैं।

एक ऐसे व्यवसाय के लिए, जिसमें लोग साल में 27 से ज्यादा बार आते हैं, हमारे लिए ऐप पर सर्वश्रेष्ठ ज्योतिषियों का होना बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे ग्राहक कभी भी हमारा साथ नहीं छोड़ेंगे, यदि सही ज्योतिषी उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने में सक्षम हैं।

सीख

जब एस्ट्रोटॉक (AstroTalk) की शुरुआत हुई थी, तब यह ज्योतिषियों के द्वारा वीडियो परामर्श की सेवा ही प्रदान करता था। इसकी शुरुआत अच्छी हुई लेकिन जब टीम ने ग्राहकों से बात की, तो ग्राहकों ने ऑडियो कॉल विकल्प का भी अनुरोध किया। एक बार ऑडियो कॉल का विकल्प खुलने के बाद, व्यवसाय में सकारात्मक वृद्धि हुई क्योंकि लोग निजी तौर पर बात करने में अधिक सहज थे।

फिर से जब टीम एस्ट्रोटॉक (AstroTalk) ग्राहकों के पास पहुंची, तो उन्होंने ज्योतिषियों की सूची दिखाने का अनुरोध किया ताकि वह उस व्यक्ति को चुन सकें जिससे वह बात करना चाहते हैं, और जब वह सुविधा शुरू हुई, तब व्यवसाय फिर से सकारात्मक दिशा की ओर चलने लगा।

उस सीख का उपयोग करते हुए, हमने ‘ज्योतिष के साथ बातचीत’ सेवा की शुरुआत भी की। एक बार जब यह सुविधा शुरू हुई, तब हम इस ऐप को शुरू करने के लिए तैयार हो गए। एस्ट्रोटॉक को आगे बढ़ाते समय हमें यही सीख मिली है कि सर्वोत्तम ऐप बनाने का एकमात्र तरीका ग्राहकों से बात करना और उनके लिए सर्वोत्तम कार्य करते रहना है।

सफलता का मंत्र

पुनीत कहते हैं कि "अपने ग्राहकों से बात करें,"। उनके अनुसार, ग्राहकों की ठीक से सेवा करने से, उनकी समस्याओं को सुनने से और उन्हें हल करने से बढ़कर कुछ नहीं है। वह यह भी कहते हैं कि "यदि आप ग्राहकों की समस्याओं का समाधान करते हैं, तो वह भी आपके व्यवसाय को बहुत आगे लेकर जाएंगे।"

एस्ट्रोटॉक का प्रस्ताव

एस्ट्रोटॉक (AstroTalk) भारत में सबसे तेजी से बढ़ने वाले स्टार्टअप्स में से एक है। पुनीत गुप्ता कहते हैं, ''हम प्रति दिन 32 लाख रुपये से अधिक का व्यापार कर रहे हैं। वर्तमान में, ऐप के पैनल में 1500 से अधिक ज्योतिषी हैं, जो कॉल और चैट पर हर दिन लगभग 1,40,000 मिनट ज्योतिष परामर्श दे रहे हैं। जिसमें से लगभग 68,000 मिनट का परामर्श- प्रेम, संबंध और विवाह से संबंधित प्रश्नों पर होता है। और लगभग 32,000 मिनट/दिन नौकरी, करियर और व्यवसाय से संबंधित है।

कैसे एस्ट्रोटॉक अपनी सेवा के साथ लोगों के जीवन मदद या नयी आकृति प्रदान करने में सक्षम रहा है?

जब सभी स्टार्टअप लोगों को सुविधा प्रदान करने पर काम कर रहे हैं, उस समय एस्ट्रोटॉक (AstroTalk) सुकून प्रदान कर रहा है। काम पर बढ़ते तनाव और व्यक्तिगत संबंधों में समस्याओं के साथ, लोग सही कार्य-जीवन में संतुलन बनाए रखने के लिए संघर्ष करते हैं। और उस समय एस्ट्रोटॉक, लोगों की समस्याओं को सुनकर और भविष्यवाणियों के आधार पर समाधान पेश करके उनकी मदद करने में एक प्रमुख भूमिका निभाता है।

विस्तार की योजनाएं क्या हैं?

आगे विस्तार के बारे में पुनीत कहते हैं, "हम पहले से ही भारत में अच्छा कारोबार कर रहे हैं और अंतरराष्ट्रीय बाजारों से भी उपयोगकर्ता हमारे साथ जुड़े हुए हैं। इसके अलावा, हम अंतरराष्ट्रीय बाजारों पर अपना ध्यान बढ़ाने और अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, जापान, मलेशिया, संयुक्त अरब अमीरात, आदि जैसे देशों में विस्तार करने की योजना बना रहे हैं। इसके अलावा, हम 2022 के अंत तक 10,000 अन्य ज्योतिषियों को शामिल करने की उम्मीद कर रहे हैं। और तेजी से विस्तार के लिए हम सभी नए ग्रहकों को ज्योतिषियों के साथ उनकी पहली चैट मुफ्त दे रहे हैं, वह इसलिए ताकि वह हमारी सेवाओं को आजमा सकें और देख सकें कि हमने उनके लिए क्या तैयार किया है। आपको बता दें कि अधिकांश लोगों को वह सत्र पसंद आता है और वह सभी एक सप्ताह के भीतर ही हमारे साथ वापस जुड़ जाते हैं।”

साभार: दैनिक जागरण 

Sunday, December 5, 2021

PARAG AGRAWAL - पराग अग्रवाल अकेले नहीं हैं, IIT में बनियों ने ब्राह्मण वर्चस्व को हिला दिया है

PARAG AGRAWAL - पराग अग्रवाल अकेले नहीं हैं, IIT में बनियों ने ब्राह्मण वर्चस्व को हिला दिया है

ट्विटर के सीईओ पराग अग्रवाल

पराग अग्रवाल के ट्विटर के सीईओ बनने पर missmalini.com की संस्थापक मालिनी अग्रवाल ने ये ट्वीट किया कि ये बनिया पावर का प्रतीक है. @missmalini ट्विटर पर एक लोकप्रिय हैंडल है, जिसके 26 लाख फॉलोवर हैं, तो जैसा कि होता है कि इस पर ढेर सारी प्रतिक्रियाएं आईं और अंत में मालिनी अग्रवाल ने अपना ट्वीट डिलीट कर लिया और ये कहते हुए माफी मांग ली कि उनका ऐसा कोई इरादा नहीं था और उन्होंने इस प्रकरण से सीखा है.

भारत में और भारतीयों के साथ जैसा कि होता है, अपनी जाति के किसी व्यक्ति की कामयाबी को उस जाति के लोग अपनी कामयाबी के तौर पर ले लेते हैं. इसलिए मालिनी अग्रवाल ने जो किया, वह बहुत भारतीय बात थी. फिर उनके ट्वीट पर इतनी उग्र प्रतिक्रियाएं क्यों आईं?

शायद इसलिए कि जाति गौरव का जैसा प्रदर्शन ब्राह्मण या ठाकुर करते हैं, वह स्वाभाविक माना जाता है. बाकी जातियां जब अपने गौरव का प्रदर्शन करती हैं, तो अटपटा लगता है. बहरहाल मालिनी अग्रवाल को पता चल गया होगा कि वे रैना या जडेजा की तरह जाति गौरव का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं कर सकतीं. वैसे भी वैश्य समुदाय के बारे में अक्सर ये माना जाता कि वे अपनी कामयाबी या संपदा का खुलकर प्रदर्शन करने से बचते हैं.

अब पेचीदा मामले पर बात करते हैं. सवाल ये है कि क्या सचमुच बनिया पावर जैसी कोई चीज है, खासकर ज्ञान और प्रोफेशनल दुनिया में. मेरा तर्क है कि बनिया पावर एक हकीकत है. बेशक बनियों ने अभी तक ज्ञान और ज्ञान से संबंधित व्यवसाय के क्षेत्र में ब्राह्मणों को पीछे न छोड़ा हो लेकिन इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं जो साबित करते हैं कि वे ब्राह्मणों को कड़ी टक्कर दे रहे हैं.

पराग अग्रवाल की कामयाबी के मायने

पराग अग्रवाल का शिखर पर पहुंचना कोई संयोग नहीं है. पिछले दस से पंद्रह साल में आईटी और आईटी से जुड़े बिजनेस में बनिया प्रोफेशनल्स ने अच्छी कामयाबी हासिल की है. पराग अग्रवाल का शिखर पर पहुंचना शायद एक ऐसी लहर की पूर्वसूचना है जो बता रही है कि ये क्षेत्र अभी और बदलने वाला है. एक समय जिस सेक्टर में ब्राह्मणों का असीमित वर्चस्व था, वह शायद अब टूटने वाला है.

हालांकि ये कहा जाता है कि विज्ञान और टेक्नोलॉजी जाति और धर्म निरपेक्ष होती है लेकिन भारत के लिए ये सच नहीं है क्योंकि यहां ज्ञान तक हर समूह की पहुंच बराबर नहीं रही है. भारत में हुई आईटी क्रांति का नेतृत्व आईआईटी के ग्रेजुएट्स और पोस्ट ग्रेजुएट्स ने किया और उनमें ब्राह्मणों की संख्या ज्यादा थी.

समाजशास्त्री कैरोल उपाध्याय ने अपने शोध के दौरान जब बेंगलुरू में आईटी प्रोफेशनल्स का सामाजिक डेटा जुटाया तो उन्हें 132 लोगों के जवाब मिले. उनमें से 48% ब्राह्मण थे. उनमें से 80% के पिता के पास ग्रेजुएशन या उससे ऊपर की डिग्री थी. यही नहीं, 56% तो ऐसे थे, जिनकी मां भी ग्रेजुएट या उससे ज्यादा शिक्षित थीं.

जाहिर है कि भारत की आईटी क्रांति मुख्य रूप से दूसरी या तीसरी पीढ़ी के पढ़े-लिखे सवर्णों के नेतृत्व में हुई, जिनमें बहुलता ब्राह्मणों की थी.

कैरोल उपाध्याय कहती हैं, ‘इस क्षेत्र में ब्राह्मणों की बहुलता आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि उच्च शिक्षा और संगठित क्षेत्र की नौकरियों में उनका हमेशा से वर्चस्व था, खासकर दक्षिण भारत में.’

अब हालात बदल रहे हैं. अगर हम पिछले कुछ वर्षों में आईटी आधारित प्रमुख स्टार्टअप (जिनमें कई अब बड़ी कंपनियां बन चुकी हैं) को देखें तो उनके संस्थापकों और संचालकों में उत्तर भारतीय बनिया प्रोफेशनल्स खासी संख्या में और प्रमुख भूमिकाओं में नजर आएंगे.

फ्लिपकार्ट (सचिन और बिनी बंसल), OYO रूम्स (रितेश अग्रवाल), Ola कैब्स (भावीश अग्रवाल), जोमैटो (दीपेंदर गोयल), पॉलिसी बाजार (आलोक बंसल), लेंसकार्ट (पीयूष बंसल), bOAT (अमन गुप्ता), Dream11(हर्ष जैन, भावित शेठ), अर्बन कंपनी (वरुण खेतान), लीसियस (विवेक गुप्ता) और ब्राउजरस्टैक (नकुल अग्रवाल)- ऐसी कंपनियां हैं जो अच्छा कर रही हैं और ये साबित कर रही हैं कि आईटी के क्षेत्र में वह दौर बीत गया जब क्रिस गोपालकृष्णनों और नारायणमूर्तियों का ही बोलबाला हुआ करता था.

ज्ञान, सत्ता और ब्राह्मण वर्चस्व

ऐतिहासिक रूप से भारत में ज्ञान प्राप्ति का जाति और वर्ण की ऊंच-नीच वाली व्यवस्था के साथ जुड़ाव रहा है. परंपरागत रूप से किसान, कारीगर, पशुपालक और अछूत करार दी गई जातियों की गुरुकुल की शिक्षा तक पहुंच नहीं थी. न वे वेद पढ़ सकते थे और न ही संस्कृत. ज्ञान प्राप्ति की यह व्यवस्था धर्म शास्त्रों के अनुरूप है और इसका उल्लंघन करके अगर कोई शिक्षा या ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश करता, तो उसके लिए शिरोच्छेद से लेकर जीभ काटने और कानों में पिघली हुई धातु डाल देने का विधान था. इस बारे में इस लेख में विस्तार से बताए जाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इस बारे में पहले ही काफी लिखा जा चुका है. जाति व्यवस्था और ज्ञान के संबंधों में बारे में जानने के लिए ज्योतिबा फुले से लेकर डॉ. बी.आर. आंबेडकर का लिखा हुआ पढ़ सकते हैं.

बहरहाल, इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि भारत में मुसलमान शासकों और फिर ब्रिटिश शासन के मिलाकर लगभग सात सौ साल के लंबे अंतराल के बावजूद ज्ञान पर जाति आधारित नियंत्रण कायम रहा. मुसलमान शासकों का मकसद सिर्फ अपनी सत्ता कायम रखना था और हिंदुओं की सामाजिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करने से उन्होंने परहेज किया. गांव और कस्बे जैसे चलते थे, चलते रहे. उन्होंने भारतीय समाज व्यवस्था को नहीं छेड़ा. अंग्रेजों ने शुरुआती दौर में समाज सुधार की कुछ कोशिशें कीं. जैसे सती प्रथा का उन्मूलन, विधवा विवाह की मंजूरी, सभी जातियों के लिए शिक्षा के दरवाजे खोलना, सभी जातियों को नौकरियों और सेना में भर्ती करना आदि. लेकिन 1857 में जब इन सबके खिलाफ विद्रोह हो गया, तो उन्होंने भी समाज सुधार वगैरह में हाथ डालना बंद कर दिया.

इसका नतीजा ये हुआ कि सैकड़ों साल से जो वर्ग प्रभावशाली थे और शिक्षा तक जिनकी पहुंच थी, उनका शिक्षा पर दबदबा अंग्रेजों के शासन में भी बना रहा. अंग्रेजी शिक्षा और फिर सरकारी नौकरियों में ब्राह्मण सबसे ज्यादा आए. शिक्षा और नौकरी के सिलसिले में विदेश जाने वालों में भी ज्यादातर वही रहे.

भारत के प्रमुख समाजशास्त्री आंद्रे बेते ने रजनी कोठारी द्वारा संपादित किताब Caste and Indian Politics में तमिलनाडु में जाति की राजनीति के बारे में लिखा है, ‘1892 और 1904 के बीच यहां से इंडियन सिविल सर्विस में 16 कैंडिडेट सफल हुए, उनमें से 15 ब्राह्मण थे, 128 में से 93 जिला मुंसिफ ब्राह्मण थे. यही नहीं, 1914 में मद्रास यूनिवर्सिटी के निकले 650 ग्रेजुएट्स में से 452 ब्राह्मण थे.’ इस आंकड़े को दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग यानी मंडल कमीशन ने भी अपनी रिपोर्ट में शामिल किया है. इससे पता चलता कि ब्रिटिश शासन में ब्राह्मणों के वर्चस्व को कोई चुनौती नहीं मिली.

इंजीनियरिंग की शिक्षा और जाति

इंजीनियरिंग एजुकेशन में भी प्रारंभ से ही ब्राह्मण वर्चस्व रहा है. हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र की प्रोफेसर अजंता सुब्रमण्यन ने अपने शोध Caste of Merit में इस बारे में विस्तार से लिखा है, ‘इंजीनियरिंग को शुरुआती दौर में कारीगरी और श्रम से जुड़ा माना जाता था और इनका ज्यादा प्रयोग निजी क्षेत्र में होता था. ब्रिटिश भारत में इसे क्लासरूम में सीखा जाने वाले ज्ञान मान लिया गया और ये सरकारी सर्विस में जाने का माध्यम बन गया. शुरुआत में इंजीनियर अंग्रेज हुआ करते थे. बाद में सस्ते इंजीनियरों की जरूरत और भारतीय राष्ट्रवादियों के दबाव के कारण इंजीनियरिंग में भारतीयों, खासकर उच्च वर्णीय लोगों को भी प्रवेश मिला.’

कारीगर और श्रम करने वाली जातियों में तकनीकी ज्ञान ज्यादा था लेकिन जब बात इंजीनियरिंग एजुकेशन की आई तो उसमें साक्षर सवर्ण जातियों को ही स्थान मिला.

आजादी के बाद, विज्ञान और तकनीकी शिक्षा के नए केंद्र स्थापित करने के क्रम में खड़गपुर (1951), बंबई (1958), मद्रास (1959) और दिल्ली (1961) में आईआईटी की स्थापना की गई. इनके लिए विदेशों से सहयोग लिया गया और बड़ी संख्या में विदेशों से टीचर भी बुलाए गए. इन संस्थानों को अपार धन दिया गया और फीस काफी सस्ती रखी गई.

1973 तक आईआईटी में कोई आरक्षण नहीं था. इस साल वहां एससी और एसटी के लिए 22.5% सीटें रिजर्व की गईं. 2008 में जाकर आईआईटी में 27% ओबीसी आरक्षण लागू हुआ. लंबे समय तक किसी भी तरह का आरक्षण न होने के कारण ये संस्थान सवर्ण वर्चस्व का केंद्र बन चुके थे और जब आरक्षण लागू हुआ भी तो इन संस्थानों ने बेमन से और आधे-अधूरे तरीके से ही उन्हें लागू किया. शिक्षक पदों पर आरक्षण लागू करने को लेकर आईआईटी अब भी काफी प्रतिरोध दिखाते हैं.

2003 में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, आईआईटी में एससी-एसटी आरक्षण आधा ही लागू किया जा रहा था. एनडीए शासन के दौरान आईआईटी दिल्ली के डायरेक्टर की अध्यक्षता में बनी एक कमेटी ने आईआईटी में शिक्षक पदों की नियुक्ति में आरक्षण लागू न करने की सिफारिश की. विरोध के बाद, सरकार ने कहा कि ये सिफारिश लागू नहीं की जाएगी.

ब्राह्मण वर्चस्व को बनिया समुदाय की चुनौती

आरक्षण की व्यवस्था के बावजूद, आईआईटी पर ब्राह्मण वर्चस्व कायम रहता, अगर 1990 के दौर में लागू उदारीकरण के बाद आईआईटी में बनिया कैंडिडेट की बड़े पैमाने पर आमद न होती. बनिया पावर आईआईटी में अब एक हकीकत है.

जेईई एडवांस के 2020 के रिजल्ट को देखें तो सात अलग-अलग जोन के 35 टॉपर्स में 12 कैंडिडेट ऐसे हैं, जिनके सरनेम- अग्रवाल, गुप्ता, डालमिया, जैन, केजरीवाल- को देखने से ही जाहिर हो जाता है कि वे बनिया समुदाय से हैं. ये तब है जबकि सभी लोग सरनेम नहीं लगाते. यानी बनियों की संख्या यहां और भी ज्यादा हो सकती है. कम से कम 30% टॉपर्स तो बनिया हैं ही.

2019 में भी, 35 जोनल टॉपर्स में से 10 कैंडिडेट के सरनेम बनियों के हैं. रुड़की जोन में तो पांच टॉपर्स में से 4 बनिए थे.

क्या ये आंकड़ा किसी निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए काफी है? शायद नहीं, इस बारे में दरअसल और आंकड़ों की जरूरत है. लेकिन नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) बहुत गुपचुप तरीके से काम करती है और सभी कैंडिडेट की मेरिट लिस्ट वेबसाइट पर नहीं डालती. इसलिए इस बारे में आकड़ा संग्रह करना आसान नहीं है.

अगर दूसरे स्रोत की बात करें तो भारत की प्रमुख कोचिंग संस्थानों के विज्ञापनों में टॉपर्स की लिस्ट को देखा जा सकता है. रिजल्ट आने के बाद कोचिंग इंस्टिट्यूट टॉपर्स के नाम और रैंक विज्ञापनों में दिखाते हैं, ताकि और स्टूडेंट्स कोचिंग में आएं.

इन विज्ञापनों के अध्ययन के आधार पर मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि बनियों का इंजीनियरिंग एडमिशन में दबदबा अब एक स्थापित तथ्य है. वैसे ये जानना भी दिलचस्प होगा कि 2019 (कार्तिकेय गुप्ता) और 2021 (मृदुल अग्रवाल) के जेईई एडवांस के टॉपर्स वैश्य समुदाय से हैं. इसके साथ इस तथ्य को भी देखना चाहिए कि उत्तर भारत, खासकर कोटा के लगभग सभी प्रमुख कोचिंग इंस्टिट्यूट के मालिक वैश्य हैं. कोटा फैक्ट्री बनियों की है.

इन तथ्यों पर अभी अकादमिक तरीके से काम होना है. आईआईटी में ब्राह्मण वर्चस्व पर Caste of Merit समेत कई किताबें आ चुकी हैं. आईआईटी मे ब्राह्मण वर्चस्व टूटने और बनियों की दखल बढ़ने पर रिसर्च और किताबें लिखे जाने का समय आ गया है.

इस बदलाव की कुछ वजहें ये हो सकती हैं:

1. आईआईटी एडमिशन में सामाजिक बदलाव 2002 और फिर 2005 में एग्जाम पैटर्न में आए परिवर्तन के बाद हुआ है. हो सकता है कि इन दो बातों में कोई संबंध हो. इस बारे में और अध्ययन की जरूरत है.

2. 1990 से पहले भारत में शहरी मध्य वर्ग का निर्माण मुख्य रूप से सरकारी नौकरियों के माध्यम से हो रहा था. इन नौकरियों में सवर्णों और उनमें भी ब्राह्मणों का वर्चस्व था. उदारीकरण के बाद, मध्य वर्ग के निर्माण का केंद्र बदलकर निजी क्षेत्र की नौकरियां और एंटरप्रिन्योरशिप हो गईं. हो सकता है कि अर्थव्यवस्था में आए इस बदलाव ने बनियों को शहरी क्षेत्र में मजबूत किया और इस वर्ग ने भविष्य में तरक्की करने के उद्देश्य से इंजीनियरिंग एजुकेशन को अपना लिया.

3. कोचिंग का इंजीनियरिंग एडमिशन में महत्व निर्विवाद है. कोचिंग अब छठी और सातवीं क्लास से शुरू हो रही है. आर्थिक संपन्नता और शिक्षा पर निवेश करने की समझ के कारण ये संभव है कि बनिया समुदायों के बच्चे ज्यादा संख्या में कोचिंग लेने आ रहे हैं.

4. आईटी का प्रोफेशनल बनना और आईटी को आधार बनाकर बिजनेस करना दो अलग बातें हैं. हो सकता है कि इनमें से जो दूसरा क्षेत्र है, उसमें बनियों ने अपना दबदबा आसानी से कायम कर लिया हो.

5. पूंजी दरअसल तीन तरह की होती है– आर्थिक (रुपया, पैसा, जायदाद), सांस्कृतिक (संस्कार, पहचान आदि) और सामाजिक (जान-पहचान, नेटवर्क). इन तीनों में से अगर कोई एक पूंजी किसी के पास है, तो बाकी दो पूंजी वह हासिल कर सकता है.

फ्रांसीसी समाज विज्ञानी पियरे बॉर्द्यू ने इनमें से सांस्कृतिक और सामाजिक पूंजी को ज्यादा महत्व दिया है. भारत के संदर्भ में भी एक समय तक ये दो पूंजी ज्यादा अहम हुआ करती थी. लेकिन उदारीकरण के बाद, ऐसा लगता है कि अगर किसी के पास आर्थिक संपदा है तो वह न सिर्फ सांस्कृतिक बल्कि सामाजिक पूंजी भी आसानी से हासिल कर सकता है. ऐसा लगता है कि बनियों ने अपनी आर्थिक पूंजी से वह सब हासिल कर लिया जो जाति श्रेष्ठता के कारण अब तक ब्राह्मणों को ही हासिल थे.

मेरा मानना है कि आर्थिक पूंजी के दम पर बनियों ने ज्ञान के मंदिर के गर्भगृह से ब्राह्मणों को बेदखल करना शुरू कर दिया है. जरूरी नहीं है कि ये टकराव की शक्ल ले. ये काम सहमति से भी संभव है.

आखिर राजनीति में मोढ घांची (तेल विक्रेता समुदाय के) नरेंद्र मोदी और जैन व्यापारी समुदाय के अमित शाह ने पंडित नेहरू और पंडित पंत का दौर खत्म कर ही दिया और मोहन भागवत इस बदलाव का मार्गदर्शन कर ही रहे हैं.

इसके बावजूद, जन्म आधारित और शास्त्रसम्मत असमानता अगर पैसे की वजह से और पैसे की ताकत से टूटती है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

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Friday, December 3, 2021

Parag Agarwal, twitter CEO

 Parag Agarwal, twitter CEO

Who is Parag Agarwal, twitter CEO: आईआईटी बॉम्बे से की है पढ़ाई, इतनी है संपत्ति... जानिए इनके बारे में

बेहद लोकप्रिय माइक्रोब्लॉगिंग वेबसाइट ट्विटर के नेतृत्व में सोमवार को बड़ा परिवर्तन हुआ। कंपनी के सह संस्थापक जैक डॉर्सी ने सीईओ के पद से इस्तीफा दे दिया। अब कंपनी का सीईओ भारतीय-अमेरिकी पराग अग्रवाल को बनाया गया है। इस रिपोर्ट में जानिए आईआईटी बॉम्बे से पढ़ाई करने वाले पराग अग्रवाल के बारे में...



ट्विटर के नए सीईओ पराग अग्रवाल - फोटो : ट्विटर

पराग अग्रवाल 2011 में ट्विटर के साथ जुड़े थे। इससे पहले वह याहू और माइक्रोसॉफ्ट जैसी दिग्गज कंपनियों के साथ काम कर चुके हैं। अग्रवाल आईआईटी बॉम्बे के पूर्व छात्र हैं। इसके अलावा उन्होंने अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी से कंप्यूटर साइंस में पीएचडी की है।

ऐड्स इंजीनियर के तौर पर ट्विटर से जुड़े अग्रवाल को अक्तूबर 2017 में कंपनी का मुख्य प्रौद्योगिकी अधिकारी (सीटीओ) बनाया गया था। वह कंपनी की टेक्निकल स्ट्रैटेजी का काम संभालते आए हैं। पीपलएआई के अनुसार पराग की कुल आय 1.52 मिलियन डॉलर है।

अपने इस्तीफे के साथ-साथ जैक डॉर्सी ने पराग अग्रवाल की खूब तारीफ की। उन्होंने कहा कि मुझे सीईओ के तौर पर पराग पर विश्वास है। पिछले 10 वर्षों में यहां उनका काम बेहद शानदार रहा है। वह कंपनी और इसकी जरूरतों को बहुत अच्छी तरीके से समझते हैं।वहीं, अग्रवाल ने अपनी नियुक्ति के बाद एक बयान में कहा कि आज के इस समाचार पर लोग अलग-अलग विचार प्रदर्शित करेंगे। क्योंकि वो ट्विटर और हमारे भविष्य की परवाह करते हैं। यह संकेत है कि हमारे काम का महत्व है। आइए दुनिया को ट्विटर की पूरी क्षमता दिखाएं