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Tuesday, September 20, 2022

TAILLIK VAISHYA - TELI BANIA - तेली बनिया

TAILLIK VAISHYA - TELI BANIA - तेली बनिया

“तेली बनिया” शब्द सुनकर आपके मन में पहला प्रश्न यह आता होगा कि -क्या तेली भी बनिया हैं? तो आइए इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने का प्रयास करते हैं और जानते हैं तेली बनिया के बारे में-
तेली बनिया

भारत में हजारों जातियां और उपजातियां हैं जो वैदिक काल से अस्तित्व में हैं. तेली जाति का उल्लेख प्राचीन ग्रंथो और प्रचलित कथाओं में मिलता है जिससे पता चलता है की यह हिन्दुओ की अति प्राचीन जाति है. तेली भारत, पाकिस्तान और नेपाल में निवास करने वाली एक जाति है. इनका पारंपरिक व्यवसाय तेल पेरना और बेचना रहा है. तेली शब्द की उत्पत्ति के बारे में कहा जाता है तिल से तेल और तेल से तेली बना है. तेली संस्कृत के शब्द ‘तैलिक:’ से आया है जो “खाद्य तेल बनाने” के उनके पेशे के कारण है.

तेली-बनिया जाति की परिभाषा

वैदिक वर्ण व्यवस्था के अनुसार; कर्म के आधार पर; मनुष्यों, जातियों और जातियों की उपजातियों को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र. वर्ण स्थिति की बात करें तो तेली को हिंदू धर्म में वैश्य वर्ण से संबंधित माना जाता है. यानी कि तेली तेल पेरने और बेचने वाली वैश्य/बनिया जाति है. तेली खुद को साहू वैश्य (Sahu Vaishya) भी कहते हैं. वैश्य वर्ण में व्यापारी, खेतिहर या पशुपालक वर्ग को रखा गया है. “तेली-बनिया” तेली जाति का एक समूह या उपजाति है जिसने आजीविका के लिए दुकानदारी (shopkeeping) को अपना लिया. इसीलिए तेली जाति के इस उपवर्ग को “तेली बनिया” के नाम से जाना जाता है.वैसे समुदाय में बनिया, तेली, सूरी, कलवार, सोनार आदि प्रमुख हैं. सोनार और सूरी को आर्थिक रूप से मजबूत माना जाता है, लेकिन यह जातियां जनसंख्यात्मक रूप से कमजोर हैं. वैश्य समुदाय में तेली जनसंख्यात्मक रूप से मजबूत हैं, लेकिन इनमें आर्थिक संसाधनों की कमी है. जहां तक तेली समुदाय की सामाजिक स्थिति का प्रश्न है भारत के विभिन्न राज्यों में तेली की अलग-अलग समाजिक स्थिति है. बंगाल के तेली सुवर्णबानिक, गंधबानिक, साहा जैसे व्यापारी समुदायों के साथ समान सामाजिक स्थिति साझा करते हैं, जिनमें से सभी को वैश्य या बनिया समुदाय के रूप में वर्गीकृत किया गया है. गुजरात के घांची समुदाय को तेलियों के “समकक्ष” के रूप में वर्णित किया गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी घांची समुदाय से आते हैं, जो गुजरात में अन्य पिछड़ा वर्ग या ओबीसी में सूचीबद्ध हैं. बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे अन्य राज्यों में, घांची के समकक्ष तेली हैं, जिन्हें ओबीसी के रूप में सूचीबद्ध किया गया है. बता दें कि तेली समुदाय का इतिहास अतीत प्राचीन और समृद्ध रहा है. प्राचीन भारत के प्रमुख संस्कृत महाकाव्य में से एक महाभारत में तुलाधार नामक तत्वादर्शी का उल्लेख मिलता है (महाभारत- शांतिपर्व, अ० 261-264) जो तेल के व्यवसायी थे किन्तु इन्हें तेली न कहकर ‘वैश्य’ कहा गया, अर्थात तब तक तेली जाति नहीं बनी थी. पद्म पुराण के उत्तरखण्ड में विष्णु गुप्त नामक तेल व्यापारी की विद्वता का उल्लेख किया गया है. ‌ईसा की पहली सदी में मिले शिला लेखों में तेलियों के श्रेणियों/संघों का उल्लेख मिलता है. प्राचीन भारत में महान गुप्त वंश का उदय हुआ, जिसने लगभग 500 वर्षों तक संपूर्ण भारत पर शासन किया. इतिहासकारों ने गुप्त वंश को वैश्य वर्ण का माना है. गुप्त काल को साहित्य एवं कला के विकास के लिए स्वर्णिम युग कहा जाता है. गुप्त काल में पुराणों एवं स्मृतियों की रचना प्रारंभ हुई. गुप्त वंश के राजा बालादित्य गुप्त के समय में नालंदा विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार पर भव्य स्तूप का निर्माण हुआ. चीनी यात्री ह्वेनसांग ने बालादित्य गुप्त को तेलाधक वंश का बताया है. इतिहासकार ओमेली और जेम्स ने भी गुप्त वंश के तेली होने का संकेत किया है.

SABHAR : SHRAVAN KUMAR, JANKARI TODAY 

Monday, September 19, 2022

BRILLIANTE BANIA COMMUNITY - “अगम बुद्धि बनिया”

BRILLIANTE BANIA COMMUNITY - “अगम बुद्धि बनिया” बनियों के लिए यह कहावत क्यों कहा जाता है?

कहावतें या लोकोक्तियां विश्व की हर भाषा में पाईं जाती हैं. इनके प्रयोग से भाषा में संजीवता और स्फूर्ति आती है, इसीलिए इन्हें “भाषा का श्रृंगार” कहा जाता है. कहावतों और लोकोक्तियों का रूढ़ अर्थ होता है. कहावतें प्रायः सांकेतिक रूप में होती हैं‌ और बेहद कम शब्दों में जीवन के दीर्घकाल के अनुभव को सटीकता के साथ प्रभावी ढंग से कह जाती हैं. राजस्थानी/मारवाड़ी भाषा में भी एक रोचक कहावत है- “अगम बुद्धि बाणियो, पिछम बुद्धि जाट। तुंरत बुद्धि तुर्कड़ो, बामण सम्पट पाट।”

इसमें बनियों के लिए “अगम बुद्धि” का प्रयोग किया गया है. तो आइए विस्तार से जानते हैं “अगम बुद्धि बनिया” का क्या अर्थ होता है?

अगम बुद्धि बनिया का अर्थ

इससे पहले कि हम आगे बढ़ें और इस लेख के मुख्य विषय पर चर्चा करना शुरू करें, सबसे पहले उपर्युक्त कहावत का अर्थ जान लेते हैं. उपर्युक्त कहावत का अर्थ इस प्रकार है- ” बनिया दूरदर्शी होता है. अर्थात, बनिया भविष्य को समझकर योजना बनाता है और फिर उसी के अनुसार कार्य पूरा करता है. जाट को बुद्धि बाद में आती है, मतलब जाट किसी काम को करने के बाद यह सोचता है कि काश इस कार्य दूसरे ढंग से किया जाता तो अच्छा रहता, अर्थात कार्य पूर्ण हो जाने के बाद उसकी योजना बनाता है.‌ मुसलमान तुरंत ताड़ लेता है, अर्थात मुसलमान किसी बात को तुरंत समझ जाता है, भांप लेता है या कोई बात बगैर बताए हुए मालूम कर लेता है. ब्राह्मण बुद्धि के मामले में साफ होता है, अर्थात बुद्धि के मामले में ब्राह्मण बिल्कुल स्पष्ट होते हैं”.रूढ़/पारंपरिक/स्थापित (stereotyped/ Conventional/established) अर्थ की बात करें तो इस कहावत या लोकोक्ति में “अगम बुद्धि बनिया” का अर्थ है “दूरदर्शी बनिया”. अर्थात, बनिया को दूरदर्शी (Visionary) बताया गया है. दूरदर्शिता या दूरदर्शी होने की व्यापक परिभाषा यह है कि वह जो भविष्य की कल्पना कर सकता है या भविष्य को देख सकता है या भविष्य के बारे में सटीकता से अनुमान लगा सकता है.

एक दूरदर्शी प्रौद्योगिकी या सामाजिक / राजनीतिक व्यवस्था या व्यापार जगत से संबंधित व्यक्ति भी हो सकता है जो क्षेत्र विशेष में भविष्य की स्पष्ट और विशिष्ट दृष्टि रखता हो. बनिया जाति के लोग पारंपरिक व्यवसायी हैं. यह अपने व्यापार कौशल के लिए प्रसिद्ध हैं. इस समुदाय के लोगों को व्यापार के क्षेत्र में दूरदर्शी माना जाता है. व्यवसायिक क्षेत्र में भविष्य की स्पष्ट तस्वीर समझने की इनमें अद्भुत क्षमता होती है. भारत में बिजनेस के क्षेत्र में जितने भी नवाचार हुए हैं इसमें बनिया समुदाय के लोगों का अहम योगदान रहा है. अपने समय से आगे जाकर; पैटर्न, प्रवृत्तियों और अवसरों की पहचान करके, व्यवसाय के क्षेत्र में भविष्य की स्पष्ट तस्वीर देख लेने की अद्भुत क्षमता के कारण ही इस समुदाय के लोगों को “अगम बुद्धि बनिया” कहा जाता है.

SABHAR: SHRAVAN KUMAR, JANKARI TODAY

Population of vaishya community - भारत में बनिया समुदाय की जनसंख्या

Population of vaishya community - भारत में बनिया समुदाय की जनसंख्या

बनिया समुदाय के लोग अपनी उत्कृष्ट व्यावसायिक समझ (excellent business sense), व्यावसायिक दक्षता (professional competence), बेहतर व्यावसायिक कौशल (superior business acumen) और उत्कृष्ट प्रबंधन कौशल (excellent management skills) के लिए जाने जाते हैं. आज इस समुदाय की गिनती देश के सबसे समृद्ध समुदायों (most prosperous communities) में होती है. आजादी के आंदोलन में भी इस समुदाय के लोगों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था. लाला लाजपत राय और महात्मा गांधी इसी समुदाय के थे. आजादी के बाद देश के आर्थिक और सामाजिक उन्नति में इस समाज का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. राजनीति के क्षेत्र में भी इस समाज की प्रभावशाली भूमिका रही है. आइए जानते हैं भारत में बनिया समुदाय की जनसंख्या के बारे में

भारत में बनिया समुदाय की जनसंख्या

बनिया भारत में व्यापक रूप से वितरित एक समुदाय है. देश के लगभग सभी राज्यों में इनकी उपस्थिति है. इस समुदाय के लोग पूरे भारत के शहरों, कस्बों और गांवों में पाए जाते हैं. लेकिन उत्तर-पश्चिम भारत में राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र तथा उत्तर प्रदेश में इनकी सघनता है. इतना ही नहीं, बनिया जातियां, विशेष रूप से गुजराती, प्रवासी भारतीयों की आबादी में एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. व्यवसाय के अवसरों को देखकर या व्यवसाय के अवसरों की तलाश में इस समुदाय के लोग सिंगापुर, मलेशिया, फिजी, हॉन्ग कॉन्ग और खाड़ी देशों में जाकर बस गए. यूनाइटेड किंगडम, कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों में भी बनिया समुदाय की आबादी है. जहां तक भारत में बनिया की जनसंख्या की बात है तो इसके बारे में कोई हालिया आंकड़े उपलब्ध नहीं है. अपुष्ट आंकड़ों के अनुसार बनिया जातियां भारत की हिंदू आबादी का अनुमानित 20% या 25% हैं. एक अन्य दावे के मुताबिक, भारत में बनिया समुदाय की कुल आबादी 25 से 30 करोड़ है. यहां यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि आखिरी बार 1931 की जनगणना में जातिगत आंकड़े जुटाए और जारी गए थे. बनिया समुदाय की सही जनसंख्या जाति जनगणना से ही जानी जा सकती है. वैश्य बनिया समुदाय की एक खास बात यह है कि यह अपनी सफलता या धन दौलत का खुलकर प्रदर्शन करने से बचते हैं. बता दें कि भारतीय कंपनियों और कॉर्पोरेट जगत में बनिया जाति के लोगों का वर्चस्व है. भारतीय कंपनियों के बोर्ड और उच्च पदों पर ज्यादातर वैश्य जाति के लोग हैं. 2010 के एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय कॉरपोरेट बोर्डरूम में परंपरागत रूप से व्यापार करने वाली इस जाति का बोलबाला है और भारतीय कंपनियों में आधे बोर्ड मेंबर बनिए हैं. बोर्ड रूम में सबसे ज्यादा सरनेम वाले लोग अग्रवाल और गुप्ता हैं. आईटी और आईटी से जुड़े बिजनेस में बनिया प्रोफेशनल्स ने शानदार अच्छी कामयाबी हासिल की है. जैसे कि टि्वटर के सीईओ पराग अग्रवाल. पिछले कुछ वर्षों में आईटी आधारित प्रमुख स्टार्टअप को देखें तो उनके संस्थापकों और संचालकों में उत्तर भारतीय बनिया प्रोफेशनल्स का दबदबा रहा है. जैसे कि फ्लिपकार्ट (सचिन और बिनी बंसल), OYO रूम्स (रितेश अग्रवाल), Ola कैब्स (भावीश अग्रवाल), जोमैटो (दीपेंदर गोयल), पॉलिसी बाजार (आलोक बंसल), लेंसकार्ट (पीयूष बंसल), bOAT (अमन गुप्ता), आदि.

SABHAR: SHRAVAN KUMAR, JANKARI TODAY

Sunday, September 18, 2022

SETH HANUMAN PRASAD PODDAR - हनुमान प्रसाद पोद्दार: किसी थ्रिलर फिल्म से कम नहीं है इनकी कहानी

SETH HANUMAN PRASAD PODDAR - हनुमान प्रसाद पोद्दार: किसी थ्रिलर फिल्म से कम नहीं है इनकी कहानी


भाई साहब में स्टार संपादक के भी सारे गुर थे. यह उनके संपर्कों का ही कमाल था कि गीता प्रेस लागत मूल्य से भी कम कीमत पर गीता को घर-घर पहुंचा पाया. कल्याण एक अरसे तक हिंदू धर्म, उसके इतिहास, कर्मकांड और आध्यत्म पर विमर्श का प्लेटफार्म बना रहा.

21 जुलाई 1916 को कलकत्ता के मारवाड़ी समुदाय में अफवाहों का बाजार गरम था. उस दिन तड़के पुलिस ने घनश्याम दास बिड़ला के घर पर छापा मारा. कलकत्ता तब भारत में बरतानवी हुकूमत की राजधानी होता था. और, बिड़ला केवल 22 वर्ष के थे. वे तो नहीं मिले, पर बड़ा बाजार और आसपास के इलाकों में बसे मारवाड़ियों के कुछ और घरों पर छापे डालकर पुलिस ने 3 युवकों को गिरफ्तार किया और उनके पास से 31 माउजर पिस्तौलें बरामद की.

इनमें से एक थे, 23-वर्षीय हनुमान प्रसाद पोद्दार, जो बाद में गीता प्रेस और कल्याण से जुड़े. बंगाल तब क्रांतिकारियों का गढ़ होता था. महर्षि अरबिंदो की अनुशीलन समिति की तर्ज पर बिड़ला और पोद्दार भी मारवाड़ी युवकों का एक क्रांतिकारी ग्रुप चलाते थे. बम-पिस्तौल वाले क्रांतिकारी. इस उग्र राष्ट्रवादी ग्रुप ने एक हथियार गोदाम से 50 पिस्तौलें और 46,000 गोलियां गायब कर दी थीं. कुख्यात रौलट एक्ट वाले जस्टिस एसएटी रौलट ने इस सनसनीखेज कांड के बारे में लिखा: “बंगाल में क्रांतिकारी अपराध के विकास में यह सबसे महत्वपूर्ण घटना थी.“ गीता प्रेस के बारे में नई जमीन तोड़ने वाली अपनी पुस्तक, ‘गीता प्रेस एण्ड द मेकिंग ऑफ हिन्दू इंडिया’, में पत्रकार अक्षय मुकुल ने विस्तार से इस घटना का जिक्र किया है.


भाई साहब के नाम से प्रसिद्ध हनुमान प्रसाद पोद्दार का जीवन किसी थ्रिलर की तरह घुमावदार और दिलचस्प था: बम-पिस्तौल वाले क्रांतिकारी, असफल व्यापारी, सफल कथावाचक, महात्मा गांधी के भक्त, हिन्दू महासभा के आधार स्तम्भ, जुनूनी संपादक और धन्ना-सेठ मारवाड़ी परिवारों के पंच. गीता प्रेस और कल्याण का कोई भी जिक्र उनके बिना अधूरा रहेगा. 1926 में कल्याण के शुरू होने से 1971 में अपनी मृत्यु तक वे इसके संपादक थे. अगर वे न होते तो गीता प्रेस और कल्याण शायद कभी उस ऊंचाई को नहीं छू पाता जहां वह पहुंचा.

जुनूनी संपादक
संपादक के रूप में उनकी सफलता इसलिए महत्वपूर्ण है कि कल्याण कमर्शियल नहीं, विशुद्ध आइडियालाजिकल काम था. मिशन था, हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार. इसके बावजूद वहां काम करने वालों और लेखकों की लिस्ट किसी भी संपादक के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है. पहली संपादकीय टीम के एक सदस्य थे नंद दुलारे वाजपेई थे, जो अग्रलेख लिखने के अलावा संपादक के नाम आए पत्रों के जवाब देते थे और रामायण का संपादन करते थे. उन्हे हिंदी जगत में प्रसिद्ध आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल का वारिस माना जाता था.

पहले अंक में अन्य धार्मिक रचनाओं के अलावा महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के लेख थे. गांधी के लेख बाद में भी छपते रहे. नियमित लेखकों में महर्षि अरविंद भी थे और आचार्य नरेंद्रदेव भी, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी थे और एस राधाकृष्णन जैसे विद्वान भी, थिऑसोफिकल सोसाइटी की एनी बेसेंट थीं तो गीता प्रवचन लिखने वाले विनोबा भावे भी थे और दीनबंधु एंड्रयूज भी. उस समय का हुज-हू आप कल्याण के पन्नों पर पा सकते थे: लाल बहादुर शास्त्री, पुरुषोत्तम दास टंडन, पट्टाभि सीतारमैया, केएम मुंशी, बनारसी दास चतुर्वेदी, करपात्री महाराज, सेठ गोविंददास, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, गुरु गोलवलकर, रघुवीर.

भाई साहब में स्टार संपादक के सारे गुर मौजूद थे. बड़े और स्थापित लेखकों के पीछे पड़कर वे उनसे लिखवाकर ही दम लेते थे. प्रेमचंद तक से उन्होंने लिखवा लिया. इस लिस्ट में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पंत भी शामिल हैं. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कल्याण के लिए लिखा भी, और उसके नियमित पाठक भी थे. उन्होंने पोद्दार को पत्र लिखा कि ईश्वर अंक पढ़कर उनकी आंखों में आंसू आ गए: “आप महान हैं, आपका काम महान है.”

कुछ काम तो गीता प्रेस ने वाकई अद्भुत किए थे. उस जमाने में हरिवंश राय बच्चन मधुशाला लिखकर छा गए थे. पोद्दार के सहयोगी राधा बाबा के कहने पर उन्होंने अवधी में गीता का अनुवाद किया, जो जन गीता के नाम से छपी. बाद में बच्चन ने हिन्दी में भी गीता का अनुवाद किया. महान गायक विष्णु दिगंबर पलुस्कर की मानस पर आधारित 89 गीतों की ‘’संगीत रामचरितमानस’ 1956 में छपी. उसमें खयाल भी था, ठुमरी भी थी और दादरा भी था. अपनी पुस्तक में अक्षय मुकुल बताते हैं की उसके म्यूज़िकल नॉटेशन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने तैयार किए थे.

पोद्दार मेहनती और जुनूनी संपादक थे. वार्षिक विशेषांकों के लिए वे हिंदुस्तान के कोने-कोने में विषय के विशेषज्ञों और लेखकों से संपर्क करते थे. कई दफा अंग्रेजी, संस्कृत, बांग्ला, मराठी और गुजराती में लेख आते थे, जिन्हे ट्रांसलेट कर छापा जाता था. उनका आभामंडल ऐसा था कि लोग अच्छी खासी नौकरियां छोड़कर कल्याण में पेट भात पर खटने को तैयार हो जाते थे.

चुंबकीय व्यक्तित्व

बहुत कम ऐसे रसूखदार लोग थे, जिन्हे पोद्दार नहीं जानते थे. गांधीवादी जमनालाल बजाज उन्हे बहुत मानते थे. इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका उनके मित्र थे. उद्योगपति रामकृष्ण डालमिया इतने घनिष्ट थे कि वे अपनी आधा दर्जन बीवियों के बारे में उनसे खुलकर बातें करते थे. अक्षय मुकुल के मुताबिक आर्थिक घोटालों में जेल जाने के बाद जब डालमिया टाइम्स ऑफ इंडिया से हाथ धो बैठे तो पोद्दार ने तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री से डालमिया की सिफारिश की.


मुकुल के मुताबिक, लोग उनसे तरह-तरह के काम के लिए संपर्क करते थे. सीतामऊ के राजा राम सिंह ने ध्यान करने के लिए महल में कमरा बनवाया. उन्होंने पोद्दार से पूछा कि दीवारों का कलर क्या हो! सेठ गोविंददास अपनी फर्म के शेयर एक राजा को बेचना चाहते थे, तो इसके लिए उन्होंने भाईजी को पकड़ा. सर्व सेवा संघ के काका कालेलकर और विमला ठक्कर को डालमिया-जैन ट्रस्ट से 250 रुपए महीने की इमदाद मिलती थी. 1958 में पैसे आने बंद हो गए तो उन्होंने पोद्दार को गुहार लगाई. अगले साल वजीफा बहाल हो गया. आज के संपादक विद्या भास्कर जब नई नौकरी तलाश रहे थे तो रामनाथ गोयनका से उनकी सिफारिश पोद्दार ने ही की.

यह उन संपर्कों का ही कमाल था कि गीता प्रेस लागत मूल्य से भी कम कीमत पर गीता को घर-घर पहुंचा पाया. कल्याण एक अरसे तक हिंदू धर्म, उसके इतिहास, कर्मकांड और आध्यत्म पर विमर्श का प्लेटफार्म बना रहा.

SABHAR: N. K. SINGH

WHO IS MARWADI - मारवाड़ी कौन | सफलता की पहचान और एक व्यापारिक समूह ?

WHO IS MARWADI - मारवाड़ी कौन | सफलता की पहचान और एक व्यापारिक समूह ?

मारवाड़ी’ इस शब्द को सुनते ही, लोगों के मन में इस शब्द के प्रति सवाल पैदा होता है कि “मारवाड़ी कौन होते हैं” ? इस एक मारवाड़ी शब्द में राजस्थान के रेगिस्तानों के वैश्य व्यापारी समूह का इतिहास छुपा है, पहले इसमें अग्रवाल, माहेश्वरी, ओसवाल और सरावगी जैसे वैश्य बनिया प्राथमिक समूह शामिल थे। बाद में इसमें खंडेलवाल और पोरवाल जैसी अन्य राजस्थानी वैश्य व्यापारिक जातियाँ भी शामिल होती गईं। अधिकांश मारवाड़ी मारवाड़ जिले से नहीं आते हैं लेकिन मारवाड़ का सामान्य उपयोग पुराने मारवाड़ साम्राज्य के संदर्भ किया जाता रहा है जो आज भी बदस्तूर जारी है।

मारवाड़ी, राजस्थान के रेगिस्तानों से उठ कर पूरे भारत के भू- भाग पर फैल जाने वाला वो साहसी समुदाय है जो जोख़िम उठाने का साहस रखता है। बल्कि यूँ कहें कि जोख़िम उठा लेने की कला को विकसित कर चुका है।

मारवाड़ी उन्नीसवी सदी में ही भारत के पूर्व, उत्तर, मध्य प्रदेश के गाँवों में रहने लगे थे। भारत के आंतरिक व्यापार को अपने नियंत्रण में इन्होंने इसी सदी में ले लिया था।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद मारवाड़ी विशेषकर कारखानों में निवेश की तरफ़ बढ़ गए और इसके फलस्वरूप वे आज देश के लगभग आधे निजी कारखानों पर अपना आधिपत्य रखते हैं।

उन्नीसवीं सदी के अंत तक व्यापारी समुदायों ने पहला सूती कारखाना मुम्बई और अहमदाबाद में शुरू किया जिनमें पारसी, खोजा, भाटिया और जैन बनिया प्रमुख थे। मारवाड़ी ब्स्निये यूँ तो देर से आए, प्रथम विश्व युद्ध के बाद, लेकिन ये अत्यंत सफ़ल रहे।

मारवाड़ी मारवाड़ से पहुँचे, जो पुराना जोधपुर में है। सफ़ल व्यापारी परिवार छोटे शेखावटी भाग से आया जो पुराना बीकानेर और जयपुर राज्य में है। ये लोग जाति से बनिया होते हैं जो की  जैन या वैष्णव हिन्दू होते है 

सदियों तक मारवाड़ी बैंकर रहे और भूमि व्यापार को आगे बढ़ाने में मज़बूत वित्तीय सहायता करते रहे।

मुगलों के समय में भी इन लोगों ने राजकुमारों को वित्तीय सहायता दी।

ब्रिटिश साम्राज्य में मारवाड़ियों का पलायन अपने चरम पर था जब इन्होंने भारत के हर कोने में स्वयं को स्थापित किया और इसमें रेलवे ने इनके काम को बढ़ावा दिया।

ताराचंद घनशयाम दास जैसे मारवाड़ी कुशल और सफ़ल व्यापारी थे जिनकी व्यापारिक क्षमता असीम थी। बिड़ला भी इनसे जुड़े होने पर गौरवान्वित होते थे। इनकी शाखाएं बॉम्बे और कलकत्ता के बंदरगाहों से लेकर गंगा के किनारों तक विस्तृत थीं।

कलकत्ता में इन्हें बेहतर उपलब्धियां प्राप्त हुईं। उन्हें पता लग चुका था कि यही वो जगह है जहाँ अच्छा पैसा कमाया जा सकेगा। रामदत्त गोयन्का ऐसे ही एक सर्राफ थे, जो कलकत्ता 1850 में आ गए। उन्होंने एक मारवाड़ी फर्म में क्लर्क की नॉकरी कर ली और फिर प्रमुख अंग्रेजी फर्म में उनका हस्तक्षेप होने लगा। इसी तरह नाथूराम सर्राफ रामदत्त गोयन्का के फर्म में पहले क्लर्क की नॉकरी करते हैं और फिर ब्रिटिश कंपनियों में बनिया का काम करने लगते हैं।

वे शेखावटी से आने वाले, पलायन करने वाले लोगों के लिए हॉस्टल खोलते हैं जो मुफ़्त में सुविधाएं देता था। इन हॉस्टल्स पर जी॰ डी॰ बिड़ला कहते थे कि बहुत सारे लोगों के व्यापारिक करियर की शुरुआत इन्हीं हॉस्टल्स से हुई। रात के समय युवा अपरेंटिस इन हॉस्टल्स में अपने व्यापारिक अनुभव साँझा करते, कहानियाँ सुनाते, लाभ और नुकसान की चर्चा होती और ऐसी ही कुछ कहानियाँ यादगार होतीं।

ये वो कहानियाँ थीं, जो कहीं लिखी नहीं गईं, कहीं उध्दृत नहीं हुईं, क्योंकि इस समुदाय के पास कहानियाँ लिखने का समय नहीं था। उनके लिए ये जीवंत अनुभव उनकी थाती थे, जो वे अपनी आने वाली पीढ़ी को दिया करते थे। यह कहानियाँ एक तरह से हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल के केसेस की श्रृंखला रहीं होंगी, जो हार्वर्ड गए बिना भी, अपने समुदाय में अमर हो चुकी हैं।

दिल्ली-कलकत्ता रेलवे ने 1860 में कलकत्ता की तरफ होने वाले पलायन को तेज़ कर दिया और सदी के अंत तक मारवाड़ी जूट और कपास के व्यापार में अग्रणी थे।

मारवाड़ियों की सफलता का कारण उनके समाज में प्रभावी सपोर्ट-सिस्टम का होना है। जब कोई मारवाड़ी व्यापार पर निकलता है, तो उसके पीछे उसका पूरा परिवार उसके बच्चों और पत्नी की सुविधा, स्वास्थ्य का ख्याल रखता है। बाहर, व्यापार की राह में उसे रहने की जगह और भोजन बासा में उपलब्ध हो जाता है, जो उस स्थान पर रहने वाले मारवाड़ी समुदाय का सामूहिक प्रयास होता। जी॰ डी॰ बिड़ला के दादा, शिव नरायन ऐसे ही बासा में रहे, जब वो 1860 में पहली बार बॉम्बे आए।

मारवाड़ी को अगर धन की आवश्यकता होती है, वह दूसरे मारवाड़ी व्यापारी से उधार लेता है, जिसकी यह अलिखित समझ के तहत सांझेदारी रहती है कि आवश्यकता होने पर कर्ज़ चुका दिया जाएगा, फिर भले ही वह आधी रात क्यों न हो। वर्ष के अंत में सारा ब्याज़ समझ लिया जाता। मारवाड़ी के बेटों और भतीजों को दूसरे मारवाड़ी व्यापारी अपने पास रख कर व्यापार के गुर सिखाते, और इस तरह से उनकी व्यापारिक कौशल को धार मिलती जाती।

कलकत्ता के ब्रिटिश व्यापारियों को जी॰ डी॰ बिड़ला फूटी आँख नहीं भाते थे, क्योंकि उन्होंने पूरे पटसन के व्यापार को अपने नियंत्रण में ले लिया था और अपनी इच्छानुसार यूरोपीय मिलों से पटसन की कीमत तय करते थे। इसी प्रकार डालमिया जो 1917 में कलकत्ता आए, उन्होंने लंदन में चाँदी के कीमतों को ऊँचा कर अपने अनेकों अंग्रेज प्रतिद्वंदीवियों को धराशायी किया।

Friday, September 16, 2022

SANT RAMCHARAN MAHARAJ - संत रामचरण जी महाराज

SANT RAMCHARAN MAHARAJ - संत रामचरण जी महाराज

राजस्थान में संत रामचरण जी महाराज रामस्नेही सम्प्रदाय के संस्थापक थे और वो भी सेठ समाज से ही थे।वें स्वामी राम चरण जी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनका मूल नाम रामकिशन विजयवर्गीय था।इनका जन्म माघ शुक्ल 14, विक्रम संवत् 1776 में टोंक जिले में सोडा गाँव में हुआ था।निर्वाण वैशाख कृष्णा 5 विक्रम संवत् 1855 (1799) ईसवीं को शाहपुरा भीलवाड़ा में एक सेठ परिवार में ही हुआ था।ये रामद्वारा शाहपुरा के संस्थापक आचार्य थे।


इनके बचपन का नाम रामकिशन था एवं पिताजी का नाम बख्तराम विजयवर्गीय एवं माता का नाम देवहुति देवी था।इनका विवाह गुलाब कंवर के साथ हुआ।शादी के बाद आमेर के जयसिंह द्वितीय ने जयपुर के मालपुरा के दीवान पद पर नियुक्त किया।

पिताजी की मृत्यु के बाद भौतिकवाद के प्रति राम चरण जी की रूचि कम होने लगी। कुछ समय बाद ही इन्होने संन्यास ग्रहण कर लिया और शाहपुरा के निकट उन्होंने दांतड़ा गाँव में गुरु कृपाराम जी के सम्पर्क में आये और उनके शिष्य बन गए।भीलवाड़ा में मियाचंद जी की पहाड़ी पर उन्होंने तपस्या की।

राम चरण जी ने निर्गुण भक्ति पर जोर दिया लेकिन सगुण का भी इन्होने विरोध नही किया।लोगों को राम राम शब्द बोलने के लिए प्रेरित किया। स्वामी जी ने विशिष्ट अदैवतवाद भक्ति परम्परा का अनुसरण किया।श्रीराम की स्तुति का प्रचार किया। राम की स्तुति के फलस्वरूप इनके द्वारा स्थापित सम्प्रदाय रामस्नेही के रूप में प्रसिद्ध हुआ।

विनतीरामजी द्वारा लिखित जीवन चरित्र पुस्तक में इनके विवाह का उल्लेख किया है।इनका विवाह चांदसेन नामक ग्राम में, एक सम्पन्न परिवार में सेठ गिरधारीलाल खूंटेटा की कन्या गुलाब कंवर बाई के साथ हुआ।इस अवधि के आपके एक पुत्री का जन्म हुआ जिनका नाम जडाव कंवर था। केवल श्री जगन्नाथ जी कृत गुरू लीला विलास में इसका उल्लेख मिलता है।

इन्होने ने जयपुर राज्य के अन्तर्गत किसी उच्च पद पर निष्ठा पूर्वक राजकीय सेवा की।कुछ अन्य लेखकों एवं श्री लालदास जी की परची के अनुसार उन्होंने जयपुर राज्य के दीवान पद पर काम किया।उनके पिता के मोसर के अवसर पर राज्य की ओर से टीका पगडी का दस्तूर आना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि वे किसी सम्मानित पद पर आसीन थे।राम चरण जी की रचनाओं का संकलन वाणी जी ने राम में संकलित है।इसका प्रकाशन शाहपुरा भीलवाड़ा से रामचरण जी महाराज की अभिनव वाणी के नाम से प्रकाशित है।विक्रम संवत् 1817 में राम चरण जी के शिष्य रामजान जी ने चरण जी महाराज के सिद्धांतो के प्रसार की दृष्टि से विशेष प्रयास किया।राम चरण जी महाराज ने कहा कि बिना किसी भेदभाव के कोई भी व्यक्ति रामद्वारा आकर ईश्वर की पूजा कर सकता है। रामस्नेही शब्द का तात्पर्य राम से स्नेह करना है।

इनके गुरु कृपाराम जी महाराज थे जिन्होंने इन्हें राम भक्ति की शिक्षा दी। सं. 1817 में ये भीलवाडा गये और वहीं अपनी अणभैवाणी की रचना की। इनके निवास हेतु वि. सं. 1822 में देवकरण जी तोषनीवाल ने रामद्वारा का निर्माण कराया गया।दीक्षा लेने के बाद इन्होंने कठोर साधना की और अन्त में शाहपुरा में बस गए।इन्होंने यहां पर मठ स्थापित किया तथा राज्य के विभिन्न भागों में रामद्वारे बनवाए।इस प्रकार वे अपने विचारों तथा राम नाम का प्रचार करते रहे।

स्वामीजी रामचरण जी महाराज वैषाख कृष्ण पंचमी गुरूवार सं. 1855 को शाहपुरा में ही ब्रहम्लीन हुए।इनके बारे में अधिकतर जानकारी विनतीरामजी द्वारा लिखित जीवन चरित्र पुस्तक और श्रीजगन्नाथजी कृत गुरु लीला विलास में मिलती है।

SABHAR: NARSINGH SENA 

DINANATH GUPTA - 1961 में INS Vikrant को इंग्लैड से लाए थे दीनानाथ गुप्ता

 DINANATH GUPTA - 1961 में INS Vikrant को इंग्लैड से लाए थे दीनानाथ गुप्ता

1961 में INS Vikrant को इंग्लैड से लाए थे दीनानाथ गुप्ता,अब नए स्वदेशी विक्रांत को देखने जाएंगे।

सरकार ने नौसेना को स्वदेशी युद्धपोत आइएनएस विक्रांत समर्पित कर दिया।इसके बीच आइएनएस विक्रांत को लेकर पुरानी यादें भी ताजा हो गईं।देश का पहला आइएनएस विक्रांत भारत लाने वाली टीम में हिसार के दीनानाथ गुप्ता भी शामिल थे।औरों के लिए भले ही आईएनएस विक्रांत केवल युद्धपोत भर हो,लेकिन हरियाणा के हिसार के सेक्टर-14 निवासी बुजुर्ग दीनानाथ गुप्ता के लिए तो यह एक जीवंत योद्धा (सैनिक) है। जिसे लेने के लिए वह वर्ष 1961 में शादी के छह महीने बाद ही इंग्लैंड रवाना हो गए और एक साल बाद लौटे थे।


दीनानाथ गुप्ता जी ने देहरादून में पढ़ाई के दौरान नेवी ज्वाइन की थी। इसके बाद विशाखापट्नम में डेढ़ साल ट्रेनिंग ली।1960 में भारत सरकार ने जहाज खरीदने का फैसला लिया और 1200 नेवी अफसरों व कर्मचारियों का एक दल इंगलैंड भेजा। उनकी टीम आइएनएस विक्रांत को लाने के लिए काफी उत्साहित थी।उन्होंने बताया कि आइएनएस विक्रांत को भारत लाने के लिए नेवी अफसरों ने एक साल इंगलैंड में रहकर स्टेस्टिंग और ट्यूनिंग की ट्रेनिंग ली थी। तब जाकर भारतीय नौसेना पहला जहाज लेकर भारत पहुंची थी।इस जहाज में दो स्क्वार्डन थी अैर इसमें सी हाक और एलीजे एयरक्राप्ट लगे थे।इसी आइएनएस विक्रांत ने गोवा को पुर्तगालियों से आजाद करवाया था।

अब जब उसका पहला स्वदेशी और उन्नत वर्जन देश में ही तैयार हुआ है तो दीनानाथ व पत्नी सरला गुप्ता इसे नजदीक से देखना चाहते हैं।जल्दी ही बेटे-बहू के साथ अपने खर्च से इस जहाज को देखने कोच्चि जाने की तैयारी है।

देश की आजादी के महज पांच साल बाद ही भारतीय नौ सेना ने अपनी समुद्री सीमा की रक्षा के लिए इंग्लैंड से युद्धपोत आईएनएस हरक्युलिस का सौदा किया।इस जहाज को भारत लाने के लिए जो दल इंग्लैंड भेजा गया, उसे वहां इसके संचालन के तरीके से लेकर मरम्मत तक का प्रशिक्षण भी लेना था।उस टीम में हिसार के सेक्टर-14 निवासी दीनानाथ गुप्ता भी थे।दीनानाथ रडार तकनीक के विशेषज्ञ थे।आईएनएस हरक्युलिस का भारत पहुंचने के बाद नाम बदलकर आईएनएस विक्रांत कर दिया गया था।

पत्नी सरला,बेटा राजेश कुमार गुप्ता और बहू राजरानी गुप्ता के साथ रहने वाले दीनानाथ गुप्ता अपनी एलबम में रखी पुरानी तस्वीरों को निहारते हुए अतीत में खो जाते हैं।एलबम में खोए दीनानाथ गुप्ता ने कुछ पुरानी यादें साझा करते हुए बताया कि जहाज जब मुंबई पोर्ट पर पहुंचा तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू व सेनाध्यक्ष जनरल केएम करियप्पा स्वागत के लिए खड़े थे।दो स्क्वाड्रन की क्षमता वाले उस जहाज से नौसेना को विशेष लगाव था।कोच्चि बंदरगाह से ही उसका संचालन होता था।

पत्नी सरला गुप्ता बताती हैं कि शादी के छह महीने बाद ही पति के इंग्लैंड चले जाने पर उस वक्त घर में काफी नाराजगी थी। जब वापस आए तो कोच्चि चले गए।पत्नी सरला को भी साथ ले गए।बड़े बेटे का वहां जन्म हुआ था।इसके चलते पूरे परिवार को इस जहाज के साथ ही कोच्चि से विशेष लगाव है।एसबीआई के एसोसिएट ऑफिसर और दीनानाथ गुप्ता के पुत्र राजेश कुमार गुप्ता भी माता-पिता की इच्छा को पूरा करने के लिए कोच्चि जा रहे हैं।

आईएनएस विक्रांत की चर्चा वापस होते ही दीनानाथ गुप्ता जी के चेहरे पर रौनक छा गई।कहते हैं कि अब देश नौसेना के मामले में भी आत्मनिर्भर बन रहा है।दीनानाथ गुप्ता ने इस उपलब्धि पर नौसेना को विशेष रूप से बधाई देते हुए कहा कि यह हमारे लिए गौरव की बात है।

दीनानाथ गुप्ता का परिवार विभाजन के समय पाकिस्तान के रावलपिंडी से आकर उत्तरप्रदेश के सहारनपुर जिले के गांव गंगोह में रहने लगा।यहीं से दीनानाथ गुप्ता ने दसवीं की।उत्तराखंड के देहरादून से पढ़ाई के दौरान नेवी ज्वाइन की। इसके बाद शादी के बाद पंजाब के जिला फिरोजपुर में रहने लगे।दीनानाथ गुप्ता ने 1963 में चंडीगढ़ यूनिसर्विटी से ग्रेजुएशन किया था।

RACHIT AGRAWAL A GEAT ACHIEVER - रचित अग्रवाल को मिला सबसे बड़ा पैकेज

RACHIT AGRAWAL A GEAT ACHIEVER - रचित अग्रवाल को मिला सबसे बड़ा पैकेज

कोटा का रचित:2 करोड़ की स्कॉलरशिप पर यूएस में पढ़ा, अब वहीं की कंपनी में ~6 करोड़ का पैकेज




काेटा में ही हुई स्कूलिंग व काेचिंग, फिर यूएस में इंजीनियरिंग डिग्री की।

काेटा के एक युवा काे यूएस की मल्टीनेशनल कंपनी ने 6 कराेड़ से ज्यादा का सालाना पैकेज ऑफर किया है। राजस्थान में किसी युवा काे शुरुआत में ही इतना बड़ा पैकेज पहली बार मिला है।

शहर के शक्तिनगर निवासी रचित अग्रवाल ने यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास से कंप्यूटर साइंस में डिग्री की। डिग्री हाेने के साथ ही अलग-अलग कंपनियाें में आवेदन किए। इस बीच एक बड़ी कंपनी ने उन्हें जाॅब ऑफर किया। निगाेशिएशन के बाद सालाना 8 लाख यूएस डॉलर (6 कराेड़ से ज्यादा) का पैकेज तय हुआ। वे कंपनी के मुख्यालय पहुंच चुके हैं और अगले महीने कंपनी ज्वॉइन करेंगे। पिता राजेश अग्रवाल व्यवसायी हैं। उनका कोटा में फूड पैकेजिंग का काम है। रचित ने ‘भास्कर’ काे बताया कि 4 साल पहले एक टेस्ट में मेरिट बेस पर स्कॉलरशिप के साथ आर्लिंग्टन में यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास में एडमिशन हुआ था। कंप्यूटर साइंस में 4 साल की डिग्री मई में पूरी की। निगेशिएशन के बाद उन्हें ऑफर लेटर मिल चुका है। कंपनी में वे सॉफ्टवेयर कोडिंग टीम का हिस्सा हाेंगे। कंपनी की पाॅलिसी की वजह से कंपनी का नाम सार्वजनिक करने से इन्हाेंने इनकार किया है।

कोडिंग कम्पीटिशन जीते, स्टार्ट अप शुरू किया

रचित ने स्कूली शिक्षा कोटा के एक प्राइवेट स्कूल से पूरी की। कोचिंग में इंजीनियरिंग परीक्षा की तैयारी करते हुए फोकस यूएस में एडमिशन पर लिया। उन्हाेंने स्कॉलेस्टिक एप्टीट्यूड टेस्ट (सेट) दिया, जाे एक स्टेंडर्ड एग्जाम है। यह यूएस के कॉलेज एडमिशन के लिए होता है। इस एग्जाम में मेरिट के आधार पर कई विकल्प मिले। बेहतर स्कॉलरशिप मिलने के चलते यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास ज्वॉइन की। उनकी स्कॉलरशिप वैल्यू करीब 2 करोड़ थी, जिसके लिए चारों साल न्यूनतम मार्क्स मेंटेन करने थे। उन्हाेंने कंप्यूटर साइंस के साथ इकोनॉमिक्स और दर्शन शास्त्र में स्नातक किया। पढ़ाई के दौरान कई कोडिंग प्रतियोगिताएं जीतीं, कई पाठ्यक्रमों में फर्स्ट रैंकर रहे। तीन स्टार्ट अप शुरू किए, उनमें से 2 के लिए धन जुटाया और प्रमुख क्रिप्टो कंपनियों में कुल मिलाकर 5 इंटर्नशिप की। उन्होंने बताया कि उनका कोर्स मई में पूरा हो चुका था। तब से निगोशिएशन चल रहा था। अब उन्हें लेटर मिल गया है।

DR. GIRIRAJ KISHOR GUPTA - ASIA'S LARGEST GANESH PRATIMA

DR. GIRIRAJ KISHOR GUPTA - ASIA'S LARGEST GANESH PRATIMA

उत्तर प्रदेश के संभल जिले के चंदौसी में एशिया की सबसे ऊंची विशालकाय श्री गणेश प्रतिमा का निर्माण कराया गया है।


भगवान श्री गणेश की यह प्रतिमा कुल 145 फिट ऊंची है। प्रख्यात चिकित्सक रहे गिरिराज किशोर गुप्ता ने अपने 16 साल के निरंतर प्रयासों से इस गणेश प्रतिमा का निर्माण करवाया है। नृत्य मुद्रा में भगवान गणपति की इस विराट प्रतिमा को एशिया की सबसे ऊंची प्रतिमा माना जा रहा है। प्रतिमा के निर्माण में 1 करोड़ रूपये से अधिक की धनराशी खर्च हुई है। ख़ास बात यह है कि किसी से भी आर्थिक सहयोग नहीं लिया गया है। भगवान गणेश की इस विराट प्रतिमा का अनावरण नवंबर महीने में प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से कराए जाने की तैयारी है। इसके आलावा भगवान गणेश की सबसे अधिक ऊंची प्रतिमा के तौर पर इसे गिनीज बुक ऑफ रिकार्ड में दर्ज कराए जाने का दावा पेश किया गया है।

Thursday, September 15, 2022

MAHARAJA AGRASEN & AGRAWAL SAMAJ - महाराज अग्रसेन और अग्रवाल समाज

MAHARAJA AGRASEN & AGRAWAL SAMAJ - महाराज अग्रसेन और अग्रवाल समाज


*महाराज अग्रसेन और अग्रवाल समाज*
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* महाराजा अग्रसेन वह राजा हैं जिन्होंने विश्व को प्रथम मानवतावादी"एक ईंट और एक रुपये" का सिद्धान्त दिया था जिससे राज्य में बसने वाले प्रत्येक गरीब को बिना मांगे और बिना किसी के उपकार जताने के इतनी धनराशि मिल जाती थी की वो अपना व्यापार चला सके और अपना घर बना सके।
*अग्रवालों के कुलपिता महाराज अग्रसेन ने मात्र 16 वर्ष की आयु में महाभारत जैसे महायुद्ध में सम्मलित होकर और अपने पिता को खो देने के बाद भी युद्ध में अत्यंत पराक्रम दिखाया और भगवान श्री कृष्ण का आशीर्वाद प्राप्त किया। *आग्रेय गणराज्य और यौधेय गणसंघ ने वर्षों तक विदेशी आक्रमणकारियों को धूल चटाई और सिंकंदर जैसे विश्वविजेता तक की सेना को को युद्ध में गंभीर चोट पहुंचाई। भारत का सर्वप्रथम जौहर और साका आग्रेय गणराज्य के पुरुषों और महिलाओं ने किया था।
*गुप्तवंश के रूप में भारत के सबसे शक्तिशाली और सबसे श्रेष्ठ साम्राज्य की नींव रखी। जिस राज्य को भारतीय शाषन का स्वर्णकाल कहा जाता है जिसने भारत को सोने की चिड़िया बनाया। उन्होंने ही बौद्ध और जैन समय की कुरीतियों को दूर करके विशुद्ध वैदिक हिन्दू राज्य की नींव रखी। नालंदा और तक्षिला जैसे विश्विद्यालयों की नींव रखी और भारत को विश्वगुरु बनाया..
*रोमन साम्राज्य जैसे अनेकों साम्राज्यों को निगलने वाले, विदेशी शकों और हूणों का सामना जब स्कन्दगुप्त से हुआ तो मानों बाजी पलट गयी और स्कन्दगुप्त ने समरांगण में अकेले अपने पराक्रम से हूणों और शकों का सम्पूर्ण नाश किया भारत हिन्द केसरी की उपाधि पायी।
*राज्य भारत में जानें जाते हैं अपने राजा के नाम से लेकिन भारत में एक ऐसा भी राज्य था जो अपने व्यापारियों की वजह से जाना जाता था। उसकी नींव किसी और ने नहीं बल्कि शेखावाटी के अग्रवालों ने रखी थी। जिस राज्य को उसके सेठों के नाम पर रामगढ़ सेठान कहा गया जो अपने समय के सबसे अमीर राज्यों में से एक था और भारत के 50% मारवाड़ी उद्योगपतियों की जन्मभूमि है।
*अनेकों युद्धों की तरह भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अग्रवालों ने क्रांतिकारियों और भामाशाह दोनों तरह की भूमिका निभाई। जहां एकओर रामजी दास गुड़वाला और लाला मटोलचंद अग्रवाल अपनी अरबों की संपत्ति क्रांतिकारियों को लुटा कर फांसी के फंदे पर चढ़े वहीं दूसरी ओर लाला झनकूमल सिंहल और लाला हुकुमचंद जैन अंग्रेजों से लोहा लेते हुए शहीद हुए।
*अग्रवालों ने ही गीताप्रेस गोरखपुर, वेंकेटेश्वर प्रेस, चौखम्बा प्रकाशन जैसी धार्मिक प्रेसों की स्थापना करके वेदों, पुराणों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों को प्रत्येक हिंदुओं के घर-घर पहुंचाया।
*विश्व के सबसे लंबे समय तक चलने वाले रामजन्मभूमि आंदोलन को नेतृत्व, कलम और आर्थिक सहायता अग्रवालों ने ही दी। जस्टिस देवकीनंदन अग्रवाल, डालमिया जी, श्री अशोक सिंहल, हनुमान प्रसाद पोद्दार, जयभगवान गोयल, सीताराम गोयल जैसी महान् हस्तियों ने रामलला के लिए जो बलिदान दिया वो उन्हें भगवान राम का सच्चा वंशज साबित करता है।
*अग्रवालों ने भारत वर्ष में मित्तल, जिंदल, बजाज, डालमिया, सिंघानिया, गनेड़ीवाल आदि आद्योगिक घराने स्थापित करके भारत में आद्योगिक विकास में महान् क्रांति की। मोदीनगर और डालमियानगर जैसी इंडस्ट्रियल टाउनशिप की स्थापना भी अग्रवालों द्वारा की गयी है।
|| जय महाराजा अग्रसेन
|| जय अग्रोहा धाम

PUNAM GUPTA - ASTT. COMMANDER CRPF - पूनम गुप्ता

 PUNAM GUPTA - ASTT. COMMANDER CRPF - पूनम गुप्ता 


HAWALDARI RAM GUPT - मनोहरपोथी के रचयिता

HAWALDARI RAM GUPT -  मनोहरपोथी के रचयिता

माननीय हवलदारी राम गुप्ता मेदिनीपुर डालटनगंज निवासी, मनोहरपोथी के रचयिता #हवलदारी_राम_गुप्ता जी को नमन



पोथी  के रक्त में हिंदी भाषा घुली हुई है कि पता ही नहीं चलेगा लोगों को कि ये धारा गुप्त रूप से गुप्त कुल से मिलकर और भी समृद्ध हो गुप्त गोदावरी की भांति क्यों और किस ऊर्जा से भरपूर, प्रवाहित हो रही है । मनोहर पोथी नाम स्वयं सिद्ध अंतरंग से सम्मानित एक संस्कारित नाम है जिसके स्मरण मात्र से बचपन , बचपना और बोलने लिखने की क्षमता प्रदान कर्ता की स्मृति ताजी हो नई उर्जा से परिपूर्णता का एहसास कराने वाली पूजनीय पोथी के प्रति स्वस्फूर्त सम्मान स्मृति के गर्भ से विस्फोटपूर्ण प्रवाहित होती है.

WHAT IS AGRAWAL - अग्रवाल क्या चीज है ...

WHAT IS AGRAWAL - अग्रवाल क्या चीज है ...

1. जी हमे गोत्र मिला है महान ब्रह्म ऋषियो से ..इसलिये सर्वाधिक सनातन धर्म को मानने वाले दानवीर भी है अनेक तीर्थों मे हमारे समाज द्वारा स्थापित इन्फ्रास्ट्रचर को सहज देखा जा सकता है जो सेवा के छेत्र मे अनुकरणीय है ..
 
2 - हम प्रभू श्री राम के वंशज है इसलिये छेत्रिय है इसमें हमारा वीरोचित भाव छुपा हुवा है हम सभी परम पराक्रमी है भगवान परशुराम जी भी महाराजा अग्रसेन को युद्ध मे पराजित ना कर सके थे ...
महाभारत के युद्ध मे महाराजा अग्रसेन के युद्ध कौशल को स्वयं भगवान कृष्ण ने देखकर युधिष्ठिर से कहा था ...
कृपा विष्टेन मनसा युद्धछेत्रे गतेन च ..
अग्रसेनम् रयं धन्यो ममात्या येन विजयति: ।।
अर्थ यह है कि हे युधिष्ठिर देखो इस बालक अग्रसेन को कैसै ये अपने शत्रुओ पर भी दयालुता से वार कर रहा है उन्हे रण छोडकर भागने का पूरा अवसर दे रहा है ..इस बालक ने मेरे ह्रदय जीत लिया है ...
हमारे विवाह संस्कारों मे आज भी छत्तर लगाया जाता है यह इस बात का प्रमाण है कि समस्त अग्रवाल जाति जन्म से छत्रिय है
 
3- छत्रिय कुल मे जन्म लेने के बाद भी महाराजा अग्रसेन ने पशुवध का निषेध किया था और वैश्य कर्म अपनाया था ..
कर्म की प्रधानता होने से ही हमने वैश्य वर्ण स्विकार किया
वैश्य की विशेषता उसकी तेजस्वी बुद्धि और व्यवसायिक कौशल से ही सहज जानी जा सकती है ..
हमारा समाज इसलि ये सर्वश्रेष्ठ भी है क्युकि हममें पाण्डित्य , वीरता , और बुद्धि चातुर्य के तीनो श्रेष्ठतम गुण विद्यमान है
इसलिये कहा गया है किस्मत वाले होते वो लोग
जिनके मित्र अग्रवाल होते है ...
इसलिये हम धर्मवीर , कर्मवीर और रणवीर है ..
पुरे विश्व की सभी जातियों का आकलन कर ले ये तीनो गुण एक साथ अन्यत्र कही उपलब्ध नही है ...
साथ ही साथ अग्रवाल समाज अनन्य राष्ट्र भक्त है ..
राष्ट्रिय अर्थ तंत्र का हम मजबुत आधार स्तम्भ है देश मे हमारी आबादी २५ करोड़ बनियो में केवल अग्रवालो की ५ करोड़ के लगभग है पर देश के खजाने को हम 25% के लगभग सहयोग प्रदान करते है ...
इतना ही नही लाखो परिवारो की आजीविका हमारे संस्थानो पर निर्भर है ...
धर्म के छेत्र मे हम सर्व श्रेष्ठ जजमान समझे जाते है हर ब्राहमण हमा रे आतिथ्य से प्रसन्न होता है संतुष्ट और तृप्त होकर ही जाता है ..
देश की सभ्यता संसकृति और परम्पराओ के हम महान संरक्छक है ..
साथ ही साथ हमने सामाजिक कुरीतियों का परित्याग किया
संसस्कृति के संरक्छण के साथ ही साथ हम आधुनिक सोच रखने वाला समाज है ...
आजादी के आन्दोलन मे और उसके बाद के कालखण्ड मे भी हमा रे समाज के अनेको देशभक्तो ने मा भारती की सेवा मे अपना जीवन समर्पित कर दिया
सेठ जमनालाल बजाज , लोहिया जी , भारतेन्दु हरिश्चन्द्र लाला लाजपत राय हनुभान प्रसाद पोद्दार के सेवा और बलिदान को कौन नही जानता ..
इसलिये आप स्वयं के अग्रवाल होने पर गर्व कर सकते है
पर हमे सिर्फ गर्व करके ही खुश नही होना चाहिये बल्कि अपने गौरव को और बढाने के लिये देश सेवा मे सर्वस्व समर्पण के भाव से सदा सहयोगी होना चाहिये सेवाभावी होना चाहिये
जय अग्रसेन जय हिन्द 

Thursday, September 8, 2022

A GREAT VAISHYA EMPEOR - चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ (Chandragupta II ‘Vikramaditya’)

A GREAT VAISHYA EMPEOR - चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ (Chandragupta II ‘Vikramaditya’)



समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी दत्तदेवी से उत्पन्न पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय असाधारण प्रतिभा, अदम्य उत्साह एवं विलक्षण पौरुष से युक्त था। गुप्त अभिलेखों से ध्वनित होता है कि समुद्रगुप्त की मृत्यु के उपरांत चंद्रगुप्त द्वितीय गुप्त-सम्राट हुआ था। किंतु इसके विपरीत, अंशरूप में उपलब्ध देवीचंद्रगुप्तम् एवं कतिपय अन्य साहित्यिक तथा पुरातात्त्विक प्रमाणों के आधार पर कुछ विद्वान् रामगुप्त को समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी घोषित करते हैं। रामगुप्त की दुर्बलता और अयोग्यता का लाभ उठाकर चंद्रगुप्त ने उसके राज्य एवं रानी दोनों का हरण कर लिया।

चंद्रगुप्त द्वितीय के इतिहास-निर्माण में पुरातात्त्विक और साहित्यिक दोनों स्रोतों से सहायता मिलती है। इसके काल के कई अभिलेख प्राप्त हुए हैं। इनमें से कुछ तिथियुक्त हैं और कुछ तिथिविहीन।

मथुरा स्तंभलेख पहला अभिलेख है, जिस पर गुप्त संवत् 61 (380 ई.) की तिथि अंकित है। यह लेख उसके शासनकाल के पाँचवें वर्ष में उत्कीर्ण कराया गया था। लेख में चंद्रगुप्त द्वितीय को ‘परमभट्टारक’ कहा गया है। इस अभिलेख से पता चलता है कि इस समय मथुरा क्षेत्र में पाशुपत धर्म का लकुलीश संप्रदाय अधिक लोकप्रिय था। मथुरा से ही इस नरेश के शासनकाल का एक तिथिविहीन शिलालेख भी मिला है जिसमें चंद्रगुप्त के काल तक की गुप्तवंशावली मिलती है।

इसके अतिरिक्त दो अन्य महत्त्वपूर्ण अभिलेख उदयगिरि से प्राप्त हुए हैं। इनमें से एक तिथियुक्त है जिसे गुप्त संवत् 82 (401 ई.) में सनकानीक महाराज ने वैष्णव गुफा की भीतरी दीवार पर उत्कीर्ण कराया था। इस गुफा की दीवाल पर भगवान् विष्णु की प्रतिमा का भी अंकन है। दूसरा तिथिविहीन लेख भी एक गुफा की भीतरी दीवार पर उत्कीर्ण है जो शैव धर्म से संबंधित है। इसे चंद्रगुप्त द्वितीय के संधिविग्रहिक सचिव वीरसेन शैव ने उत्कीर्ण कराया था जो किसी सैन्य-अभियान में चंद्रगुप्त के साथ पूर्वी मालवा आया हुआ था।

इस नरेश का एक अन्य शिलालेख गुप्त संवत् 88 (407 ई.) इलाहाबाद जिले की करछना तहसील के गढ़वा नामक स्थान से मिला है।

तिथिक्रम की दृष्टि से गुप्त संवत् 93 (412 ई.) का साँची शिलालेख इसके शासनकाल का अंतिम अभिलेख है जो साँची के महाचैत्य की वेदिका के पूर्वी तोरण पर उत्कीर्ण है। इस अभिलेख में चंद्रगुप्त का प्रिय नाम ‘देवराज’ मिलता है। लेख से पता चलता है कि आम्रकार्दव नामक सैनिक पदाधिकारी ने साँची में स्थित महाविहार (काकनादबाट श्रीमहाविहार) को ईश्वरवासक ग्राम तथा पच्चीस दीनार दानस्वरूप दिया था। केवल मथुरा शिलालेख को छोड़कर अन्य सभी लेख कर्मचारियों एवं धर्मपरायण व्यक्तियों द्वारा उत्कीर्ण कराये गये थे। इन अभिलेखों से चंद्रगुप्त द्वितीय की उपलब्धियों का प्रमाणिक परिचय मिलता है।


चंद्रगुप्त के शासनकाल में गुप्त मुद्रा-कला का भी विकास हुआ। उसने धनुर्धर, छत्र, पर्यंक, सिंहहंता, अश्वारूढ़, राजारानी, ध्वजधारी एवं चंद्रविक्रम कोटि की मुद्राओं का प्रचलन किया जो उसके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के साथ-साथ उसके साम्राज्य-विस्तार पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालती हैं। सबसे पहले इसी नरेश ने शक-विजय के उपलक्ष्य में रजत मुद्राओं का प्रचलन करवाया जो उसकी शक विजय का सबल प्रमाण हैं। इसके अलावा तत्कालीन ताम्र-मुद्राएँ भी ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं।

साहित्यिक विकास की दृष्टि से भी चंद्रगुप्त का शासनकाल प्रशंसनीय है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार कालीदास जैसे विद्वान् उसके दरबार की शोभा थे और उनकी रचनाओं से तत्कालीन समाज, धर्म और राजनीति का ज्ञान होता है। इसके अलावा भोजकृत श्रृंगारप्रकाश एवं क्षेमेंद्रप्रणीत औचित्यविचारचर्चा भी महत्त्वपूर्ण हैं। फाह्यान नामक चीनी यात्री इसी नरेश के काल में भारत आया था, इसलिए उसका यात्रा-विवरण भी तत्त्कालीन इतिहास के निर्माण में उपयोगी है।

तिथि का निर्धारण: चंद्रगुप्त द्वितीय की तिथि का निर्धारण उनके अभिलेखों के आधार पर किया जा सकता है। गुप्त संवत् 61 (380 ई.) का मथुरा स्तंभलेख चंद्रगुप्त के शासनकाल के पाँचवें वर्ष में उत्कीर्ण कराया गया था (राज्यसंवत्सरे पंचमे)। इसलिए उसका राज्यारोहण गुप्त संवत् (61-5) 56 अर्थात् 375 ई. में हुआ होगा।

तिथिक्रम की दृष्टि से साँची का शिलालेख उसके शासनकाल का अंतिम अभिलेख है जिसकी तिथि गुप्त संवत् 93 (412 ई.) है। इसके पुत्र कुमारगुप्त प्रथम की प्रथम ज्ञाततिथि उसके बिलसद अभिलेख में गुप्त संवत् 96 (415 ई.) प्राप्त होती है। इस आधार पर अनुमान किया जाता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने 375 ई. से 415 ई. तक लगभग चालीस वर्षों तक शासन किया।

नाम और उपाधियाँ

चंद्रगुप्त द्वितीय के अन्य अनेक नाम भी मिलते हैं। साँची लेख में उसका नाम ‘देवराज’ मिलता है (महाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तस्य देवराज इति नाम्नः)। प्रवरसेन द्वितीय की चमक प्रशस्ति में प्रभावतीगुप्ता को महाराजाधिराज देवगुप्त की पुत्री बताया गया है (महाराजाधिराजश्रीदेवगुप्तसुतायां प्रभावतीगुप्तायाम्)। कुछ मुद्राओं पर उसका नाम ‘देवश्री’ व ‘श्रीविक्रम’ भी मिलता है। अभिलेखों और सिक्कों से पता चलता है कि उसने ‘विक्रमांक’, ‘विक्रमादित्य’, ‘सिंहविक्रम’, ‘नरेंद्रचंद्र’, ‘अजीतविक्रम’, ‘परमभागवत’, ‘परमभट्टारक’ आदि उपाधियाँ धारण की थी जो उसकी महानता और राजनीतिक प्रभुता के परिचायक हैं।
चंद्रगुप्त द्वितीय की उपलब्धियाँ (Achievements of Chandragupta II)

चंद्रगुप्त द्वितीय एक बुद्धिमान कूटनीतिज्ञ एवं दूरदर्शी सम्राट था। राज्यारोहण के उपरांत उसने स्वयं को समुद्रगुप्त का ‘पादपरिगृहीत’ घोषित कर अपने उत्तराधिकार को वैधानिक रूप प्रदान किया। तत्त्कालीन शक्तिशाली राजवंशों- नागों, वाकाटकों तथा कदंबों के साथ वैवाहिक-संबंध स्थापित कर चंद्रगुप्त उसने अपनी राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ किया और गुप्त-कुलवधू की ओर कुदृष्टि डालनेवाले म्लेच्छ शकों का उन्मूलन कर गुप्त राजसत्ता का विस्तार किया।

चंद्रगुप्त द्वितीय के वैवाहिक संबंध

गुप्तों के वैवाहिक संबंध उनकी विदेशनीति में अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं। हर्यंकवंशीय बिंबिसार की भाँति चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने भी अपने समकालीन राजवंशों के साथ विवाह संबंध द्वारा अपनी शक्ति का प्रसार किया था।

नाग वंश से संबंध: प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि समुद्रगुप्त ने नागदत्त, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत् तथा नंदि जैसे अनेक नागवंशीय राजाओं को पराजित किया था, किंतु इससे नागवंश का पूर्ण विनाश नहीं हो सका था और नाग अभी भी एक प्रमुख शक्ति के रूप में बने हुए थे। चंद्रगुप्त द्वितीय ने नागों का सहयोग प्राप्त करने के लिए ‘नागकुलसम्भूता’ राजकुमारी कुबेरनागा के साथ विवाह किया, जिससे इस गुप्त नरेश को अपनी नवस्थापित सार्वभौम सत्ता को सुदृढ़ करने में सहायता प्राप्त हुई। इसी वैवाहिक संबंध के परिणामस्वरूप एक कन्या प्रभावतीगुप्ता उत्पन्न हुई जिसका विवाह वाकाटक वंश में किया। अनुमान है कि यह वैवाहिक-संबंध समुद्रगुप्त के काल में ही हुआ रहा होगा क्योंकि चंद्रगुप्त के राज्यारोहण के समय प्रभावतीगुप्ता वयस्क हो चुकी थी। तभी तो वकाटकों का सहयोग लेने के लिए चंद्रगुप्त ने अपने राज्यारोहण के उपरांत प्रभावतीगुप्ता का विवाह रुद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया था।

वाकाटकों से संबंध: दक्षिणापथ में वाकाटकों का शक्तिशाली राज्य था। वाकाटक नरेश के राज्य की भौगोलिक स्थिति ऐसी थी कि वह उज्जयिनी के शक-क्षत्रपों के विरुद्ध किसी भी उत्तरी भारत की शक्ति के लिए उपयोगी तथा अनुपयोगी दोनों ही सिद्ध हो सकता था। यही कारण है कि चंद्रगुप्त ने शकों पर आक्रमण करने से पहले दक्कन में वाकाटकों का सहयोग पाने के लिए अपनी पुत्री प्रभावतीगुप्ता का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया, जिससे गुप्तों और वाकाटकों में मैत्री-संबंध स्थापित हो गया। किंतु इस विवाह के कुछ समय बाद ही तीस वर्ष की आयु में रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु हो गई। उसके दोनों पुत्र- दिवाकरसेन और दामोदरसेन अभी क्रमशः पाँच वर्ष व दो वर्ष के थे, इसलिए राज्य का शासन प्रभावतीगुप्ता ने अपने हाथों में ले लिया। उसने अपने पिता चंद्रगुप्त द्वितीय को शकों के विरुद्ध हरसंभव सहायता की।

कुंतल से संबंध: दक्षिण भारत में कुंतल (कर्नाटक) एक प्रभावशाली राज्य था, जहाँ कदम्बों का शासन था। आज का कनाड़ी जिला प्राचीन कुंतल राज्य का प्रतिनिधित्व करता है। श्रृंगारप्रकाश तथा कुंतलेश्वरदौत्यम् से पता चलता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय का कुंतल नरेश से मैत्रीपूर्ण संबंध था। तालकुंड के स्तंभलेख से ज्ञात होता है कि कुंतल नरेश काकुत्स्थवर्मा नामक कदंबवंशी शासक की कन्या गुप्तवंश में ब्याही गई थी-

गुप्तादि-पार्त्थिव-कुलाम्बुहस्थलानिस्नेहादर-प्रणय-सम्भ्रम-केसराणि।

श्रमन्त्यनेक नृपषट्पद सेवितानि योऽबोधयद्दुहितृदीधितिभिर्नृपाकृकैः।।

संभवतः चंद्रगुप्त द्वितीय के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम्ब राजवंश के काकुत्स्थवर्मा की पुत्री अनंतदेवी से हुआ था। इस वैवाहिक संबंध की पुष्टि भोज के श्रृंगारप्रकाश एवं क्षेमेंद्र की औचित्य-विचारचर्चा से भी होती है जिसके अनुसार चंद्रगुप्त ने कालीदास को अपना दूत बनाकर कुंतल नरेश के दरबार में भेजा था। वहीं रहकर कालीदास ने ‘कुंतलेश्वरदौत्यम्’ नामक ग्रंथ की रचना की थी, जो संप्रति उपलब्ध नहीं है। कालीदास ने लौटकर सम्राट को सूचित किया था कि कुंतल नरेश शासन का भार चंद्रगुप्त के ऊपर डालकर भोग-विलास में लिप्त हैं (पिवति मधुसुगंधीन्याननानि प्रियाणां, त्वयि विनित भारः कुंतलानामधीशः)। संभवतः इस वैवाहिक संबंध के कारण ही चंद्रगुप्त के सौरभ से दक्षिणी समुद्रतट सुवासित होते थे।
चंद्रगुप्त द्वितीय की सैनिक उपलब्धियाँ (Chandragupta II’s Military Achievements)

चंद्रगुप्त द्वितीय ने वैवाहिक संबंधों द्वारा अपनी आंतरिक स्थिति को सुदृढ़ कर सैनिक अभियान किया जिसका उद्देश्य उदयगिरि गुहालेख के अनुसार ‘कृत्स्नपृथ्वीजय’ (संपूर्ण पृथ्वी को जीतना) था। यद्यपि समुद्रगुप्त ने अनेक विदेशी जातियों को अपना आधिपत्य मानने के लिए विवश किया था। किंतु लगता है कि साम्राज्य में व्याप्त अव्यवस्था का लाभ उठाकर कुछ विदेशी शासक गुप्त साम्राज्य के लिए संकट उत्पन्न कर रहे थे। इस समय विदेशी जातियों की शक्ति के दो बड़े केंद्र थे- गुजरात, काठियावाड़ के शक-महाक्षत्रप और गांधार-कंबोज के कुषाण। शक-महाक्षत्रप संभवतः षाहानुषाहि कुषाण राजा के ही प्रांतीय शासक थे, यद्यपि साहित्य में कुषाण राजाओं को भी शक-मुरुंड (शकस्वामी या शकों के स्वामी) कहा गया है।

शक विजय

शक गुजरात, काठियावाड़ तथा पश्चिमी मालवा पर शासन करते थे। इन शकों का उच्छेद कर उनके राज्य को गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित करना चंद्रगुप्त द्वितीय की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। माना जाता है कि रामगुप्त के समय में शकों ने गुप्त साम्राज्य के समक्ष भीषण संकट उत्पन्न कर दिया था और चंद्रगुप्त ने उनके शासक की हत्या कर गुप्त साम्राज्य और उसके सम्मान की रक्षा की थी।

सम्राट बनने पर चंद्रगुप्त द्वितीय ने वाकाटकों के सहयोग से काठियावाड़-गुजरात के शक-महाक्षत्रापों पर आक्रमण कर उन्हें बुरी तरह पराजित किया और अपने प्रतिद्वंद्वी शक शासक रुद्रसिंह तृतीय को मारकर गुजरात और काठियावाड़ का राज्य गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। कहते हैं कि शक-विजय के उपलक्ष्य में चंद्रगुप्त ने ‘शकारि’ तथा ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि को धारण किया था। इसी प्रकार कई शताब्दी पहले सातवाहन शासक गौतमीपुत्र सातकर्णि ने शकों का उच्छेद कर ‘शकारि’ और ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि ग्रहण की थी।

चंद्रगुप्त द्वितीय द्वारा शक-विजय की सूचना देने वाले तीन अभिलेख पूर्वी मालवा से प्राप्त हुए हैं। चंद्रगुप्त के संधि-विग्रहिक वीरसेन शैव के उदयगिरि (भिलसा के समीप) गुहालेख से पता चलता है कि ‘वह समस्त पृथ्वी को जीतने के उद्देश्य से राजा के साथ इस स्थान पर आया था’ (कृत्स्नपृथ्वीजयार्थेन राज्ञेवैह सहागतः)। इसी स्थान से प्राप्त गुप्त संवत् 82 (401 ई.) के वैष्णव लेख से पता चलता है कि भिलसा (पूर्वी मालवा) में सनकानीक महाराज चंद्रगुप्त द्वितीय की अधीनता में शासन कर रहा था। इसकी पुष्टि गुप्त संवत् 93 (412 ई.) के साँची शिलालेख से होती है जिसके अनुसार आम्रकार्दव नामक सैन्याधिकारी ने काकनादबाट श्रीमहाविहार को ईश्वरवासक नामक गाँव एवं पच्चीस दीनार दानस्वरूप दिया था। इन लेखों से मालव प्रदेश में चंद्रगुप्त द्वितीय की दीर्घ-उपस्थिति की सूचना मिलती है जिसका उद्देश्य संभवतः शक-सत्ता का उन्मूलन कर गुप्त साम्राज्य का विस्तार करना ही था।

चंद्रगुप्त की शक-विजय का प्रबल प्रमाण उसकी रजत-मुद्राएँ हैं। शक-मुद्राओं के अनुकरण पर चंद्रगुप्त ने इस क्षेत्र में प्रचलन के लिए अपनी रजत मुद्राओं पर अपना चित्र, नाम, विरुद, गरुड़ एवं मुद्रा-प्रचलन की तिथि को अंकित करवाया। यहाँ से रुद्रसिंह तृतीय के कुछ चाँदी के ऐसे सिक्के प्राप्त हुए हैं जो चंद्रगुप्त द्वारा पुनर्टंकित करवाये गये हैं। यही नहीं, इस शासक की सिंह-निहंता प्रकार की मुद्राएँ भी उसके गुजरात और काठियावाड़ की विजय का प्रमाण हैं जहाँ जंगलों में सिंह बड़ी संख्या में पाये जाते थे।

उदयगिरि के वैष्णव गुहालेख से स्पष्ट है कि गुप्त संवत् 82 (401 ई.) में चंद्रगुप्त द्वितीय का सामंत महाराज सनकानीक पूर्वी मालवा का शासक था। चंद्रगुप्त की रजत मुद्राएँ गुप्त संवत् 90 (409 ई.) की हैं जो पश्चिमी भारत से मिली हैं। इसलिए अनुमान किया जा सकता है कि 409 ई. के पूर्व पश्चिमी भारत में गुप्त सत्ता पूर्ण रूप से स्थापित हो चुकी थी। सौराष्ट्र के इन नव-विजित क्षेत्रों पर शासन करने के लिए चंद्रगुप्त ने संभवतः उज्जयिनी को अपनी दूसरी राजधानी बनाई, इसलिए उसे ग्रंथों में ‘उज्जैनपुरवराधीश्वर’ कहा गया है।

गुजरात और काठियावाड़ की विजय के कारण अब चंद्रगुप्त के साम्राज्य की सीमा पश्चिम में अरब सागर से लेकर पूरब में बंगाल तक विस्तृत हो गई। भड़ौच, सोपारा, खम्भात तथा पश्चिती तट के अन्य बंदरगाहों पर अधिकार के कारण गुप्त साम्राज्य पश्चिमी देशों के संपर्क में आ गया।

गणराज्यों की विजय

गुजरात-काठियावाड़ के शक-महाक्षत्रपों के अतिरिक्त गांधार-कंबोज के शक-मुरुण्डों (कुषाणों) का भी चंद्रगुप्त ने संहार किया था। संभवतः पश्चिमोत्तर भारत के अनेक गणराज्यों ने चंद्रगुप्त की व्यस्तता का लाभ उठाकर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। चंद्रगुप्त द्वितीय का सेनाध्यक्ष आम्रकार्दव अपने साँची अभिलेख में स्वयं को अनेक युद्धों में विजय द्वारा यश प्राप्त करनेवाला (अनेक समरावाप्तविजययशसूपताकः) कहता है। विष्णु पुराण से विदित होता है कि संभवतः गुप्तकाल से पूर्व अवंति पर आभीर इत्यादि शूद्रों या विजातियों का आधिपत्य था और चंद्रगुप्त द्वितीय ने शकों से निपटने के बाद इन गणराज्यों को पुनः विजित कर गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। किंतु वर्तमान स्थिति में उनका विवेचन अप्रमाणित है।
मेहरौली स्तंभ-लेख के ‘चंद्र’ की पहचान (Identification of ‘Chandra’ of Mehrauli)

दिल्ली में मेहरौली के निकट कुतुबमीनार के पार्श्व में स्थित लौह-स्तंभ (विष्णुध्वज) पर किसी ‘चंद्र’ नामक एक प्रतापी सम्राट की विजय-प्रशस्ति उत्कीर्ण है। लेख के अनुसार-

यस्योद्वर्त्तयतः प्रतीपमुरसा शत्रुन्समेत्यागतान्

वंगेष्वाहव वर्त्तिनोऽभिलिखिता खड्गेन कीर्त्तिभुजे।

तीर्त्वा सप्तमुखानि येन समरे सिंधुोर्जिता वाहिकाः,

यस्याद्याप्यधिवास्यते जलनिधिर्वीर्यानिलैर्दक्षिणः।।’

अर्थात् उसने ‘बंगाल के युद्ध क्षेत्र में मिलकर आये हुए अपने शत्रुओं के एक संघ को पराजित किया था; उसकी भुजाओं पर तलवार द्वारा उसका यश लिखा गया था; उसने सिंधु नदी के सातों मुखों को पारकर युद्ध में वाह्लीकों को जीता था; उसके प्रताप के सौरभ से दक्षिण का समुद्रतट अब भी सुवासित हो रहा था।’

अभिलेख के अनुसार जिस समय यह लेख उत्कीर्ण किया गया, वह राजा मर चुका था, किंतु उसकी कीर्ति इस पृथ्वी पर फैली हुई थी। उसने ‘अपने बाहुबल से अपना राज्य प्राप्त किया था तथा चिरकाल तक शासन किया’ (प्राप्तेन स्वभुजार्जितं च सुचिरं चैकाधिराज्यं क्षितौ)। ‘भगवान् विष्णु के प्रति अत्यधिक श्रद्धा के कारण उसने विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्वज की स्थापना की थी (प्रांशुर्विष्णुपदे गिरौ भगवतो विष्णुर्ध्वजः स्थापितः)।’

मेहरौली के इस स्तंभलेख में कोई तिथि अंकित नहीं है। इसमें न तो राजा का पूरा नाम दिया गया है और न ही राजा की कोई वंशावली दी गई है। इसलिए इस ‘चंद्र’ की पहचान प्राचीन भारत के चंद्रगुप्त मौर्य से लेकर चंद्रगुप्त द्वितीय तक के प्रायः समस्त ‘चंद्र’ नामधारी सम्राटों से की जाती रही है।

हरिश्चंद्र सेठ इस चंद्र की पहचान चंद्रगुप्त मौर्य से करते हैं, किंतु वह जैनधर्मानुयायी था और लेख की लिपि गुप्तकालीन है। हेमचंद्र रायचौधरी इसकी पहचान पुराणों में वर्णित नागवंशी शासक ‘चंद्रांश’ से करते हैं, जो मेहरौली के चंद्र जैसा प्रतापी नहीं था। हरप्रसाद शास्त्री इस चंद्र की पहचान सुसुनिया पहाड़ी (पश्चिम बंगाल) लेख के ‘चंद्रवर्मा’ से करते हैं, किंतु यह समीकरण भी मान्य नहीं है क्योंकि चंद्रवर्मा एक साधारण राजा था जिसे समुद्रगुप्त ने सरलतापूर्वक उन्मूलित कर दिया था।

रमेशचंद्र मजूमदार मेहरौली के चंद्र का समीकरण कुषाण शासक कनिष्क प्रथम से करते हैं जिसे खोतानी पाण्डुलिपि में ‘चंद्र कनिष्क’ कहा गया है। किंतु इस मत से भी सहमत होना कठिन है क्योंकि कनिष्क बौद्ध मतानुयायी था और उसके राज्य का विस्तार दक्षिण में नहीं था।

इसी प्रकार फ्लीट, आयंगर, राधागोविंद बसाक जैसे कुछ इतिहासकार चंद्र को ‘चंद्रगुप्त प्रथम’ मानते हैं, किंतु चंद्रगुप्त प्रथम का साम्राज्य बहुत सीमित था और बंगाल तथा दक्षिण भारत पर उसका कोई प्रभाव नहीं था। यही नहीं, कुछ इतिहासकार ‘चंद्र’ की पहचान समुद्रगुप्त से भी करते हैं, किंतु इस लेख में उसके अश्वमेध यज्ञ का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, जबकि यह मरणोत्तर लेख है।

अधिकांश विद्वान् ‘चंद्र’ की पहचान चंद्रगुप्त द्वितीय से करते हैं। लेख में चंद्र की विजयों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि ‘उसने वंग प्रदेश में शत्रुओं के एक संघ को पराजित किया था और सिंधु के सप्तमुखों (प्राचीन सप्तसैंधव देश की सात नदियों) को पार करके वाह्लीक (बल्ख) देश तक युद्ध में विजय प्राप्त की थी। दक्षिण में उसकी ख्याति फैली हुई थी और वह भगवान् विष्णु का परम भक्त था।’ वंग की पहचान साधारणतया पूर्वी बंगाल से की जाती है। वाह्लीक-विजय का अभिप्राय बल्ख (बैक्ट्रिया) से लिया जा सकता है, यद्यपि इसका तात्कालिक तात्पर्य संभवतः वाह्लीक जाति से है।

बंगाल विजय

मेहरौली के स्तंभलेख से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने बंगाल के शासकों के एक सम्मिलित संघ को पराजित किया था। वस्तुतः पश्चिमी बंगाल का बाँकुड़ा वाला क्षेत्र समुद्रगुप्त द्वारा जीता जा चुका था और उत्तरी एवं पूर्वी बंगाल अब भी जीतने को अवशिष्ट था। प्रयाग-प्रशस्ति के अनुसार समतट, डवाक आदि प्रत्यंत राज्य समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करते थे।

संभवतः गुप्त साम्राज्य की अराजक परिस्थितियों और काठियावाड़-गुजरात के शकों को पराजित करने में चंद्रगुप्त द्वितीय की व्यस्तता का लाभ उठाकर बंगाल के कुछ पुराने राजकुलों ने गुप्त-सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। शकों और उत्तर-कुषाणों से निपटने के बाद चंद्रगुप्त ने बंगाल के शत्रुओं के इस संघ का उन्मूलन किया (यस्योद्वर्त्तयतः प्रतीयमुरसा शत्रुन्समेत्यागतान्)। मेहरौली लेख के अनुसार इस सम्राट की भुजाओं पर तलवार के द्वारा कीर्ति लिखी गई थी (खड्गेन कीर्तिभुजे)। इस विजय से संपूर्ण वंग-भूमि पर गुप्त-सत्ता स्थापित हो गई और ताम्रलिप्ति जैसे समृद्ध बंदरगाह पर गुप्तों का अधिकार हो गया जिससे व्यापार-वाणिज्य की बहुत उन्नति हुई।

वाह्लीक विजय

मेहरौली स्तंभलेख के अनुसार चंद्रगुप्त द्वितीय ने सिंधु के सात मुखों को पार कर वाह्लीकों पर विजय प्राप्त की थी। पंजाब की सात नदियों- यमुना, सतलुज, व्यास, रावी, चिनाब, झेलम और सिंधु का प्रदेश प्राचीन समय में ‘सप्तसैंधव’ कहलाता था। वाह्लीक विजय से अभिप्राय संभवतः बल्ख (बैट्रिया) से न होकर वाह्लीक जाति से है। उस समय पश्चिमोत्तर सीमा पर पंजाब में उत्तर-कुषाणों का राज्य विद्यमान था और संभवतः इन्हीं उत्तर-कुषाणों को वाह्लीक कहा गया है जो कभी बल्ख (बैट्रिया) में शासन कर चुके थे। चंद्रगुप्त द्वितीय ने सप्तसैंधव प्रदेश को पारकर पंजाब में जाकर इन उत्तर-कुषाणों को पराजित किया। इस विजय के परिणामस्वरूप गुप्त साम्राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा सुदूर वंक्षु नदी तक पहुँच गई।

चंद्रगुप्त द्वितीय की दक्षिण भारत की विजय

मेहरौली लेख के अनुसार चंद्रगुप्त द्वितीय की ख्याति दक्षिण भारत तक फैली हुई थी। वस्तुतः चंद्रगुप्त ने दक्षिण भारत के वाकाटक और कदंब जैसे शक्तिशाली राजवंशों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित कर अपने प्रभाव का विस्तार किया था। उसकी पुत्री प्रभावतीगुप्ता के काल में वाकाटक राज्य पूर्णतया उसके प्रभाव में था।

भोज के श्रृंगारप्रकाश से पता चलता है कि चंद्रगुप्त ने कालीदास को अपना दूत बनाकर कुंतल नरेश काकुत्स्थवर्मा के दरबार में भेजा था। कालीदास ने लौटकर सूचना दी थी कि कुंतल नरेश अपना राज्यभार चंद्रगुप्त को सौंपकर भोग-विलास में निमग्न हो गया था। क्षेमेंद्र ने ‘औचित्य-विचारचर्चा’ में कालीदास के एक श्लोक का उद्धरण दिया है जिससे लगता है कि कुंतल प्रदेश का शासन वस्तुतः चंद्रगुप्त ही चलाता था।

स्पष्ट है कि दक्षिण के वाकाटक और कुंतल राज्यों पर चंद्रगुप्त का प्रभाव था। संभवतः इन्हीं प्रभावों के कारण मेहरौली स्तंभलेख में काव्यात्मक ढ़ंग से लिखा गया है कि ‘चंद्र के प्रताप के सौरभ से दक्षिण के समुद्र-तट आज भी सुवासित हो रहे हैं।’

मेहरौली लेख के ‘चंद्र’ की अन्य विशेषताएँ भी चंद्रगुप्त द्वितीय के संबंध में सत्य प्रतीत होती हैं। चंद्रगुप्त द्वितीय ने भी ‘चंद्र’ की भाँति शकपति की हत्या करके अपने बाहुबल से अपना राज्य प्राप्त किया था और लगभग चालीस वर्षों की लंबी अवधि तक शासन किया था। उसकी ‘परमभागवत’ उपाधि से स्पष्ट है कि वह विष्णु का अनन्य भक्त था।

इस प्रकार मेहरौली स्तंभलेख के ‘चंद्र’ की प्रायः सभी विशेषताएँ चंद्रगुप्त द्वितीय के व्यक्तित्व और चरित्र में परिलक्षित होती हैं। लेख की लिपि भी गुप्तकालीन है और चंद्रगुप्त द्वितीय की कुछ मुद्राओं पर उसका नाम भी ‘चंद्र’ मिलता है। संभवतः उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र कुमारगुप्त प्रथम ने अपने पिता की स्मृति में इस लेख को उत्कीर्ण कराया था।
चंद्रगुप्त द्वितीय का साम्राज्य-विस्तार (Chandragupta II’s Empire Expansion)


चंद्रगुप्त द्वितीय का साम्राज्य-विस्तार

अपनी विजयों के परिणामस्वरूप चंद्रगुप्त द्वितीय ने एक सुविस्तृत साम्राज्य की स्थापना की। उसके समय में गुप्त साम्राज्य अपनी शक्ति की चरमसीमा पर पहुँच गया था। पश्चिमी भारत के शक-महाक्षत्रपों और गांधार-कंबोज के उत्तर-कुषाणों के पराजित हो जाने से गुप्त साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय की घाटी से दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत हो गया था। दक्षिण भारत के जिन राजाओं को समुद्रगुप्त ने अपने अधीन किया था, वे अब भी अविकल रूप से चंद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करते थे। उसके लेख और सिक्के इस विस्तृत भूभाग में कई स्थानों से प्राप्त हुए हैं।

अश्वमेध यज्ञ

चंद्रगुप्त द्वितीय द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता है। बनारस के तिगवा नामक गाँव से घोड़े की एक प्रस्तर-मूर्ति मिली है जिस पर ‘चंद्रगु’ लेख उत्कीर्ण है। जे. रत्नाकर के अनुसार यह अश्वमेध की अश्व-प्रतिमा हो सकती है और यह पाठ ‘चंद्रगुप्त’ का नामांश है। किंतु इसकी प्रमाणिकता संदिग्ध है।


चंद्रगुप्त द्वितीय की मुद्राएँ (Chandragupta II’s Currencies)चंद्रगुप्त द्वितीय की मुद्राएँ

चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपने विशाल साम्राज्य की आवश्कता के अनुसार अनेक प्रकार की मुद्राओं का प्रचलन करवाया था। स्वर्ण मुद्राओं के साथ-साथ इस नरेश की रजत एवं ताम्र-मुद्राएँ भी प्राप्त हुई हैं। स्वर्ण मुद्राओं को दीनार तथा रजत मुद्राओं को ‘रुप्यक’ (रुपक) कहा जाता था। स्वर्ण मुद्राएँ संभवतः सार्वभौम प्रचलन के लिए थीं जो उसकी वीरता और तत्त्कालीन आर्थिक संपन्नता का सूचक हैं। चंद्रगुप्त की स्वर्ण मुद्राओं का विवरण निम्नलिखित है-

धनुर्धारी प्रकार: इन मुद्राओं के पुरोभाग पर धनुष-बाण लिए राजा की आकृति, गरुड़ध्वज तथा मुद्रालेख ‘देवश्रीमहाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तः’ अंकित है। पृष्ठभाग पर देवी के साथ राजा की उपाधि ‘श्रीविक्रम’ उत्कीर्ण है।

छत्रधारी प्रकार: इस प्रकार की मुद्राओं के मुख भाग पर राजा आहुति डालते हुए खड़ा है, उसका बायां हाथ तलवार की मुठिया पर है। राजा के पीछे एक बौना छत्र लिए खड़ा है। इस ओर दो प्रकार के लेख मिलते हैं- ‘महाराजाधिराज श्री चंद्रगुप्त’ तथा ‘विक्रमादित्य पृथ्वी को जीतकर उत्तम-कर्मों द्वारा स्वर्ग को जीतता है’ (महाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तः तथा क्षितिमवजित्य सुचरितैः दिवं जयति विक्रमादित्यः)। पृष्ठ भाग पर कमल के ऊपर देवी चित्रित हैं और मुद्रालेख ‘विक्रमादित्यः’ उत्कीर्ण है।

पर्यंक प्रकार: इन मुद्राओं के मुख भाग पर सुसज्जित राजा हाथ में कमल लिये पलंग पर आसीन है और मुद्रालेख ‘देवश्रीमहाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तस्य विक्रमादित्यस्य’ तथा पलंग के नीचे ‘रूपाकृति’ उत्कीर्ण है। कुछ मुद्राओं के मुख भाग पर उसकी उपाधि ‘परमभागवत’ भी मिलती है।

सिंह-निहंता प्रकार: इस प्रकार की मुद्राओं के मुख भाग पर सिंह को धनुषबाण अथवा कृपाण से मारते हुए राजा की आकृति उत्कीर्ण है और पृष्ठ भाग पर बैठी हुई देवी का अंकन है। इस प्रकार की मुद्राएँ कई वर्ग की हैं और उन पर भिन्न-भिन्न मुद्रालेख अंकित है, जैसे- नरेंद्रचंद्र पृथ्वी का अजेय राजा सिंह-विक्रम स्वर्ग को जीतता है, (नरेंद्रचंद्र प्रथितदिव जयत्यजेयो भुवि सिंह-विक्रम), ‘देवश्रीमहाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तः’ अथवा ‘महाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तः’ आदि।

अश्वारोही प्रकार: इन मुद्राओं के मुख भाग पर अश्वारोही राजा की आकृति तथा मुद्रालेख ‘परमभागवत महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्तः’ अंकित है। पृष्ठ भाग पर बैठी देवी और उपाधि ‘अजितविक्रमः’ उत्कीर्ण है।

चंद्रगुप्त द्वितीय ने रजत एवं ताम्र मुद्राओं का भी प्रचलन करवाया था जो स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए थीं। उसने शक-महाक्षत्रपों को जीतने के बाद विजित क्षेत्रों में पुरानी शक-मुद्राओं के अनुकरण पर रजत मुद्राओं का प्रचलन करवाया। इन रजत मुद्राओं के मुख भाग पर राजा की और पृष्ठ भाग पर गरुड़ की आकृति उत्कीर्ण है तथा ‘परमभागवत महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्तविक्रमादित्य’ तथा ‘श्रीगुप्तकुलस्यमहाराजाधिराज श्रीगुप्तविक्रमांकाय’ लेख मिलते हैं। उत्तर-पश्चिमी भारत में उसकी जो मुद्राएँ मिली हैं, वे कुषाण नमूने की हैं।

चंद्रगुप्त द्वितीय ने ताँबे के कई प्रकार की मुद्राओं का भी प्रचलन किया था। इन मुद्राओं के मुख भाग पर ‘श्रीविक्रम’ अथवा ‘श्रीचंद्र’ तथा पृष्ठ भाग पर गरुड़ की आकृति के साथ ‘श्रीचंद्रगुप्त’ अथवा ‘चंद्रगुप्त’ खुदा हुआ है।

चंद्रगुप्त द्वितीय की शासन-व्यवस्था (Chandragupta II’s Administration)

चंद्रगुप्त द्वितीय महान् विजेता होने के साथ-साथ एक कुशल प्रशासक भी था। उसका चालीस वर्षीय शासन शांति, सुव्यवस्था एवं समृद्धि का काल था। सम्राट् स्वयं राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था। उसकी सहायता के लिए मंत्रिपरिषद् होती थी। राजा के बाद दूसरा उच्च अधिकारी ‘युवराज’ होता था। गुप्तकाल में युवराजों की सहायता के लिए स्वतंत्र परिषद् हुआ करती थी।

चंद्रगुप्तकालीन अभिलेखों में अनेक पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है। उसके एक मंत्री शिखरस्वामी को करमदंडा अभिलेख में ‘कुमारामात्य’ भी कहा गया है। चंद्रगुप्त का संधिविग्रहिक (अन्वयप्राप्तसचिव) वीरसेन ‘शैव’ था जिसका उल्लेख उदयगिरि गुहालेख में है। साँची लेख से ज्ञात होता है कि उसका सेनाध्यक्ष आम्रकार्दव था जो अनेक युद्धों का विजेता (अनेकसमरावाप्तविजययशस्तपताकः) था। लेखों एवं मुद्राओं के आधार पर चंद्रगुप्तकालीन कुछ शासकीय विभागों के पदाधिकारियों का नाम इस प्रकार है-

‘कुमारामात्य’ विभिन्न प्रकार के उच्च प्रशासनिक पदाधिकारियों का वर्ग था। इनका कार्यालय कुमारामात्याधिकरण कहलाता था।

‘बलाधिकृत’ सेना का सर्वोच्च पदाधिकारी होता था जिसका कार्यालय बलाधिकरण कहा जाता था।

‘रणभंडाराधिकृत’ सैन्य-सामग्री को सुरक्षित रखने वाला प्रधान अधिकारी था और इसका कार्यालय रणभांडाधिकरण कहलाता था।

‘दंडपाशिक’ पुलिस विभाग का पदाधिकारी था जो दंडपाशाधिकरण में बैठता था।

‘भटाश्वपति’ अश्वसेना का प्रधान होता था। ‘महादंडनायक’ मुख्य न्यायाधीश होता था और ‘महाप्रतीहार’ मुख्य दौवारिक होता था।

‘विनयस्थितिस्थापक’ का प्रमुख कार्य राज्य में शांति और कानून-व्यवस्था को बनाये रखना था। इसके अलावा विनयशूर, तलवर और उपरिक आदि भी प्रशासनिक व्यवस्था के अधिकारी थे।

सत्ता का विकेंद्रीकरण

साम्राज्य को प्रशासनिक सुविधा के लिए विभिन्न इकाइयों में विभाजित किया गया था। शासन की प्रांतीय इकाई ‘देश’ या ‘भुक्ति’ कहलाती थी। प्रांतों के मुख्य अधिकारी ‘उपरिक’ कहे जाते थे। तीरभुक्ति का राज्यपाल चंद्रगुप्त द्वितीय का पुत्र गोविंदगुप्त था, जिसका उल्लेख बसाढ़ मुद्रालेख में है। सनकानीक महाराज पूर्वी मालवा का राज्यपाल रहा होगा। प्रांतों का विभाजन अनेक प्रदेशों या विषयों में हुआ था।

वैशाली के सर्वोच्च शासकीय अधिकारी का विभाग वैशाली-अधिष्ठान-अधिकरण कहलाता था। नगरों एवं ग्रामों के शासन के लिए अलग परिषद् होती थी। ग्राम शासन के लिए ग्रामिक, महत्तर एवं भोजक नामक पदाधिकारियों की नियुक्ति होती थी।

चंद्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र थी। किंतु परवर्ती कुंतलनरेशों के अभिलेखों में उसे पाटलिपुत्रपुरवराधीश्वर एवं उज्जयिनीपुरवराधीश्वर दोनों कहा गया है। संभव है कि शक रुद्रसिंह तृतीय की पराजय के बाद चंद्रगुप्त ने अपने राज्य की दूसरी राजधानी उज्जयिनी में बनाई हो। साहित्यिक ग्रंथों में विक्रमादित्य को इन दोनों ही नगरों से संबद्ध किया गया है। उज्जयिनी विजय के बाद ही मालव संवत् विक्रमादित्य के नाम से संबद्ध होकर विक्रम संवत् नाम से अभिहित होने लगा।

चंद्रगुप्त द्वितीय के राज्यकाल में भारत आने वाले चीनी यात्री फाह्यान (400-411 ई.) ने लिखा है कि भारत के लोग अहिंसक और शांतिप्रिय थे, वे राजा की भूमि जोतते थे और लगान के रूप में उपज का कुछ अंश राजा को देते थे। उन्हें कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता थी और वे कोई भी व्यवसाय कर सकते थे। उस समय मृत्यदंड नहीं दिया जाता था। सामान्यतया अर्थदंड लगाया जाता था, किंतु जघन्य अपराधों के लिए अंग-भंग भी किया जाता था। लोग लहसुन-प्याज तक नहीं खाते थे और सुरापान नहीं करते थे। देश में चोर-डाकुओं का कोई भय नहीं था। उसने लिखा है कि देश में व्यापार-व्यवसाय की स्थिति उन्नत थी। लोग संपन्न और सुखी थे तथा मानवीयता से परिपूर्ण थे। शिक्षण-संस्थाओं को सहयोग देना, धार्मिक संस्थाओं को दान देना और परस्पर सहयोग करना लोगों की स्वाभाविक प्रकृति थी। चंद्रगुप्तकालीन शांति और सुव्यवस्था की ओर संकेत करते हुए कालीदास ने लिखा है-

‘यस्मिन्महीं शासति वाणिनीनां निद्रां विहारार्थ पथे गतानाम्।

वातोऽपि नास्रंसयदंशुकानि को लम्बयेदाहरणाय हस्तम्।।’

अर्थात् जिस समय वह राजा शासन कर रहा था, उपवनों में मद पीकर सोती हुई सुन्दरियों के वस्त्रों को स्पर्श करने का साहस वायु तक में नहीं था, तो फिर उनके आभूषणों को चुराने का साहस कौन कर सकता था?

चंद्रगुप्त द्वितीय का धर्म और धार्मिक नीति (Religion and Religious Policy of Chandragupta II)

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य वैष्णवधर्म का अनुयायी ‘परमभागवत’ था। मेहरौली स्तंभलेख के अनुसार उसने विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्वज की स्थापना करवाई थी। उसने योग्यता के आधार पर विभिन्न धर्मों के लोगों को उच्च पदों पर नियुक्त किया था। उसका संधिविग्रहिक वीरसेन शैव था जिसने शिव की पूजा के लिए उदयगिरि पहाड़ी पर एक गुफा का निर्माण करवाया था (भक्त्याभगवतः शम्भोः गुहामेकमकारयत्)। उसका सेनापति आम्रकार्दव बौद्ध था जिसने साँची के श्रीमहाविहार को ईश्वरवासक ग्राम और पच्चीस दीनार दान दिया था (प्रणिपत्य ददाति पंचविंशतीः दीनारान्)। उस समय यज्ञ करने वाले, शिव, विष्णु एवं सूर्य के उपासक, जैन, बौद्ध सभी मतों के मानने वाले परस्पर प्रेम से रहते थे।

चंद्रगुप्त द्वितीय की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ (Cultural Achievements of Chandragupta II)

चंद्रगुप्त के शासनकाल में जीवन के सभी क्षेत्रों में सर्वांगीण विकास हुआ तथा धर्म, दर्शन, ज्योतिष, खगोलशास्त्र, गणित, विज्ञान, आयुर्वेद, साहित्य और कलाओं की उन्नति हुई। संभवतः यही कारण है कि अनेक इतिहासकारों ने उसके शासनकाल को भारतीय इतिहास को‘स्वर्णयुग’ बताया है।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य विद्या एवं कला का उदार संरक्षक था। उसके शासनकाल में पाटलिपुत्र और उज्जयिनी शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे। अनुश्रुतियों के अनुसार संस्कृत के अमरकवि कालीदास, प्रसिद्ध ज्योतिष विद्वान् वराहमिहिर, आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटकर्पर, वररुचि जैसे ‘नवरत्न’ उसके दरबार की शोभा थे। उसका संधिविग्रहिक वीरसेन व्याकरण, न्याय, मीमांसा एवं शब्द का विद्वान् तथा कवि था (शब्दार्थ-न्याय-लोकज्ञे कविः पाटलिपुत्रकः)। राजशेखर की काव्यमीमांसा से पता चलता है कि उज्जयिनी में कवियों की परीक्षा लेने वाली एक विद्वत्परिषद् थी जिसने कालीदास, भर्तृमेठ, भारवि, अमरु, हरिश्चंद्र, चंद्रगुप्त आदि कवियों की परीक्षा ली थी। इसके नाम से चलाया गया विक्रम संवत् संवत्सर की गणना में आज भी प्रयुक्त होता है।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में पश्चिमी सीमांत के विस्तार से उत्तर भारत की संस्कृति और वाणिज्य पर व्यापक प्रभाव पड़ा। उज्जयिनी इस काल का प्रमुख व्यापारिक केंद्र था, जहाँ अधिकतर व्यापारिक मार्ग एक-दूसरे से मिलते थे। एक बार फिर पाटलिपुत्र की सड़कें उत्तरी तथा मध्य भारत के निर्माण-केंद्रों से होती हुई समुद्र तक पहुँच गईं। पाटलिपुत्रा (पटना) से कोशांबी, उज्जयिनी होते हुए एक मार्ग गुजरात में भडौंच (भृगुकच्छ) बंदरगाह तक जाता था, जहाँ से समुद्री मार्ग द्वारा पश्चिमी देशों- मिस्र, रोम, ग्रीस, फारस और अरब देशों से व्यापार होता था। पूर्व में बंगाल की खाड़ी में ताम्रलिप्ति जैसा बड़ा बंदरगाह था, जहाँ से पूर्व एवं सुदूर-पूर्व के देशों- बर्मा, जावा, सुमात्रा, चीन आदि से व्यापार होता था। पूर्वी बंगाल के उत्तम सूती वस्त्र, पश्चिम बंगाल का सिल्क, बिहार का नील, वाराणसी, अनहिलवाड़ा-पाटन की स्वर्ण कशीदाकारी तथा किनख्वाब, हिमालय क्षेत्रों के राज्यों के इत्र, कपूर तथा दक्षिण भारत के मसाले, इन बंदरगाहों तक आसानी से पहुँचने लगे। पश्चिमी व्यापारी इस व्यापार के बदले बड़ी मात्रा में रोम से सोना लाये जिसका प्रभाव चंद्रगुप्त द्वितीय की विभिन्न स्वर्ण मुद्राओं पर परिलक्षित होता है। भारत से मुख्यतः मोती, मणि, सुगंधी, सूती वस्त्र, मसाले, नील, दवाइयाँ, हाथीदाँत आदि निर्यात किये जाते थे। विदेशों से चाँदी, ताँबा, टिन, रेशम, घोड़े, खजूर आदि मँगाये जाते थे।

इस प्रकार चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य उदार, न्यायप्रिय तथा सुयोग्य प्रशासक था। इस प्रतापी नरेश के काल में न केवल व्यापार-वाणिज्य की उन्नति हुई, अपितु शिल्पों और उद्योगों का भी विकास हुआ जिसके कारण प्रजा सुखी और संतुष्ट थी। राजनीतिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों की दृष्टि से अनेक इतिहासकारों ने इस नरेश के काल को ‘स्वर्णयुग’ की संज्ञा प्रदान की है। इस गुप्त सम्राट का मूल्यांकन करते हुए कालीदास ने लिखा है कि ‘भले ही पृथ्वी पर सहस्त्रों राजा हों, किंतु पृथ्वी इस राजा से उसी प्रकार राजनवती (राजा वाली) कही गई है, जिस प्रकार नक्षत्र, तारा, ग्रह आदि के होने पर भी रात्रि केवल चंद्रमा से ही चाँदनी वाली कही जाती है-

‘कामं नृपाः संतु सहस्त्रशोऽन्ये राजन्वतीमाहुरनेन भूमिम्।

नक्षत्र ताराग्रहसंकुलापि, ज्योतिष्मती चंद्रमसैव रात्रिः।।’