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Sunday, September 18, 2022

SETH HANUMAN PRASAD PODDAR - हनुमान प्रसाद पोद्दार: किसी थ्रिलर फिल्म से कम नहीं है इनकी कहानी

SETH HANUMAN PRASAD PODDAR - हनुमान प्रसाद पोद्दार: किसी थ्रिलर फिल्म से कम नहीं है इनकी कहानी


भाई साहब में स्टार संपादक के भी सारे गुर थे. यह उनके संपर्कों का ही कमाल था कि गीता प्रेस लागत मूल्य से भी कम कीमत पर गीता को घर-घर पहुंचा पाया. कल्याण एक अरसे तक हिंदू धर्म, उसके इतिहास, कर्मकांड और आध्यत्म पर विमर्श का प्लेटफार्म बना रहा.

21 जुलाई 1916 को कलकत्ता के मारवाड़ी समुदाय में अफवाहों का बाजार गरम था. उस दिन तड़के पुलिस ने घनश्याम दास बिड़ला के घर पर छापा मारा. कलकत्ता तब भारत में बरतानवी हुकूमत की राजधानी होता था. और, बिड़ला केवल 22 वर्ष के थे. वे तो नहीं मिले, पर बड़ा बाजार और आसपास के इलाकों में बसे मारवाड़ियों के कुछ और घरों पर छापे डालकर पुलिस ने 3 युवकों को गिरफ्तार किया और उनके पास से 31 माउजर पिस्तौलें बरामद की.

इनमें से एक थे, 23-वर्षीय हनुमान प्रसाद पोद्दार, जो बाद में गीता प्रेस और कल्याण से जुड़े. बंगाल तब क्रांतिकारियों का गढ़ होता था. महर्षि अरबिंदो की अनुशीलन समिति की तर्ज पर बिड़ला और पोद्दार भी मारवाड़ी युवकों का एक क्रांतिकारी ग्रुप चलाते थे. बम-पिस्तौल वाले क्रांतिकारी. इस उग्र राष्ट्रवादी ग्रुप ने एक हथियार गोदाम से 50 पिस्तौलें और 46,000 गोलियां गायब कर दी थीं. कुख्यात रौलट एक्ट वाले जस्टिस एसएटी रौलट ने इस सनसनीखेज कांड के बारे में लिखा: “बंगाल में क्रांतिकारी अपराध के विकास में यह सबसे महत्वपूर्ण घटना थी.“ गीता प्रेस के बारे में नई जमीन तोड़ने वाली अपनी पुस्तक, ‘गीता प्रेस एण्ड द मेकिंग ऑफ हिन्दू इंडिया’, में पत्रकार अक्षय मुकुल ने विस्तार से इस घटना का जिक्र किया है.


भाई साहब के नाम से प्रसिद्ध हनुमान प्रसाद पोद्दार का जीवन किसी थ्रिलर की तरह घुमावदार और दिलचस्प था: बम-पिस्तौल वाले क्रांतिकारी, असफल व्यापारी, सफल कथावाचक, महात्मा गांधी के भक्त, हिन्दू महासभा के आधार स्तम्भ, जुनूनी संपादक और धन्ना-सेठ मारवाड़ी परिवारों के पंच. गीता प्रेस और कल्याण का कोई भी जिक्र उनके बिना अधूरा रहेगा. 1926 में कल्याण के शुरू होने से 1971 में अपनी मृत्यु तक वे इसके संपादक थे. अगर वे न होते तो गीता प्रेस और कल्याण शायद कभी उस ऊंचाई को नहीं छू पाता जहां वह पहुंचा.

जुनूनी संपादक
संपादक के रूप में उनकी सफलता इसलिए महत्वपूर्ण है कि कल्याण कमर्शियल नहीं, विशुद्ध आइडियालाजिकल काम था. मिशन था, हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार. इसके बावजूद वहां काम करने वालों और लेखकों की लिस्ट किसी भी संपादक के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है. पहली संपादकीय टीम के एक सदस्य थे नंद दुलारे वाजपेई थे, जो अग्रलेख लिखने के अलावा संपादक के नाम आए पत्रों के जवाब देते थे और रामायण का संपादन करते थे. उन्हे हिंदी जगत में प्रसिद्ध आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल का वारिस माना जाता था.

पहले अंक में अन्य धार्मिक रचनाओं के अलावा महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के लेख थे. गांधी के लेख बाद में भी छपते रहे. नियमित लेखकों में महर्षि अरविंद भी थे और आचार्य नरेंद्रदेव भी, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी थे और एस राधाकृष्णन जैसे विद्वान भी, थिऑसोफिकल सोसाइटी की एनी बेसेंट थीं तो गीता प्रवचन लिखने वाले विनोबा भावे भी थे और दीनबंधु एंड्रयूज भी. उस समय का हुज-हू आप कल्याण के पन्नों पर पा सकते थे: लाल बहादुर शास्त्री, पुरुषोत्तम दास टंडन, पट्टाभि सीतारमैया, केएम मुंशी, बनारसी दास चतुर्वेदी, करपात्री महाराज, सेठ गोविंददास, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, गुरु गोलवलकर, रघुवीर.

भाई साहब में स्टार संपादक के सारे गुर मौजूद थे. बड़े और स्थापित लेखकों के पीछे पड़कर वे उनसे लिखवाकर ही दम लेते थे. प्रेमचंद तक से उन्होंने लिखवा लिया. इस लिस्ट में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पंत भी शामिल हैं. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कल्याण के लिए लिखा भी, और उसके नियमित पाठक भी थे. उन्होंने पोद्दार को पत्र लिखा कि ईश्वर अंक पढ़कर उनकी आंखों में आंसू आ गए: “आप महान हैं, आपका काम महान है.”

कुछ काम तो गीता प्रेस ने वाकई अद्भुत किए थे. उस जमाने में हरिवंश राय बच्चन मधुशाला लिखकर छा गए थे. पोद्दार के सहयोगी राधा बाबा के कहने पर उन्होंने अवधी में गीता का अनुवाद किया, जो जन गीता के नाम से छपी. बाद में बच्चन ने हिन्दी में भी गीता का अनुवाद किया. महान गायक विष्णु दिगंबर पलुस्कर की मानस पर आधारित 89 गीतों की ‘’संगीत रामचरितमानस’ 1956 में छपी. उसमें खयाल भी था, ठुमरी भी थी और दादरा भी था. अपनी पुस्तक में अक्षय मुकुल बताते हैं की उसके म्यूज़िकल नॉटेशन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने तैयार किए थे.

पोद्दार मेहनती और जुनूनी संपादक थे. वार्षिक विशेषांकों के लिए वे हिंदुस्तान के कोने-कोने में विषय के विशेषज्ञों और लेखकों से संपर्क करते थे. कई दफा अंग्रेजी, संस्कृत, बांग्ला, मराठी और गुजराती में लेख आते थे, जिन्हे ट्रांसलेट कर छापा जाता था. उनका आभामंडल ऐसा था कि लोग अच्छी खासी नौकरियां छोड़कर कल्याण में पेट भात पर खटने को तैयार हो जाते थे.

चुंबकीय व्यक्तित्व

बहुत कम ऐसे रसूखदार लोग थे, जिन्हे पोद्दार नहीं जानते थे. गांधीवादी जमनालाल बजाज उन्हे बहुत मानते थे. इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका उनके मित्र थे. उद्योगपति रामकृष्ण डालमिया इतने घनिष्ट थे कि वे अपनी आधा दर्जन बीवियों के बारे में उनसे खुलकर बातें करते थे. अक्षय मुकुल के मुताबिक आर्थिक घोटालों में जेल जाने के बाद जब डालमिया टाइम्स ऑफ इंडिया से हाथ धो बैठे तो पोद्दार ने तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री से डालमिया की सिफारिश की.


मुकुल के मुताबिक, लोग उनसे तरह-तरह के काम के लिए संपर्क करते थे. सीतामऊ के राजा राम सिंह ने ध्यान करने के लिए महल में कमरा बनवाया. उन्होंने पोद्दार से पूछा कि दीवारों का कलर क्या हो! सेठ गोविंददास अपनी फर्म के शेयर एक राजा को बेचना चाहते थे, तो इसके लिए उन्होंने भाईजी को पकड़ा. सर्व सेवा संघ के काका कालेलकर और विमला ठक्कर को डालमिया-जैन ट्रस्ट से 250 रुपए महीने की इमदाद मिलती थी. 1958 में पैसे आने बंद हो गए तो उन्होंने पोद्दार को गुहार लगाई. अगले साल वजीफा बहाल हो गया. आज के संपादक विद्या भास्कर जब नई नौकरी तलाश रहे थे तो रामनाथ गोयनका से उनकी सिफारिश पोद्दार ने ही की.

यह उन संपर्कों का ही कमाल था कि गीता प्रेस लागत मूल्य से भी कम कीमत पर गीता को घर-घर पहुंचा पाया. कल्याण एक अरसे तक हिंदू धर्म, उसके इतिहास, कर्मकांड और आध्यत्म पर विमर्श का प्लेटफार्म बना रहा.

SABHAR: N. K. SINGH

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