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Friday, September 2, 2022

THE GREAT VAISHYA EPEROR - समुद्रगुप्त ‘पराक्रमांक’ (Samudragupta Prakramank’)

THE GREAT VAISHYA EPEROR - समुद्रगुप्त ‘पराक्रमांक’ (Samudragupta Prakramank’)

चंद्रगुप्त प्रथम के बाद 335 ई. में लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से उत्पन्न उसका पुत्र (महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्तपुत्रस्य लिच्छविदौहित्रस्य महादेव्यां कुमारदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराज श्रीसमुद्रगुप्तस्य) ‘पराक्रमांक’ समुद्रगुप्त गुप्त राजसिंहासन पर बैठा, जो संपूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास के महानतम् शासकों में नामित किया जाता है। उसका शासनकाल भारतीय इतिहास के पृष्ठों में राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से उत्कर्ष का काल माना जाता है। विलक्षण एवं बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न यह सम्राट कुशल योद्धा, प्रवीण सेनापति, सफल संगठनकर्त्ता, काव्यप्रेमी तथा कला एवं संस्कृति का प्रकांड उन्नायक था। यद्यपि गुप्त-साम्राज्य की स्थापना का श्रेय उसके पिता चंद्रगुप्त प्रथम को प्राप्त है, किंतु उसके संवर्धन एवं विस्तार का वास्तविक कार्य समुद्रगुप्त ने ही संपन्न किया।


मत्स्य-न्याय के समकालीन वातावरण की समाप्ति, प्रबल प्रतिद्वंदियों का उन्मूलन एवं अतीव गर्वित शक्तियों का मान-मर्दन कर उसने अपने पिता द्वारा समर्पित वसुधा के सफल-संरक्षण के कठिन उत्तरदायित्व को निभाते हुए तेजस्वी सम्राट का नव-आदर्श प्रस्तुत किया। यह सम्राट यदि एक ओर ‘सर्वराजोच्छेता’ था, तो दूसरी ओर ‘शास्त्रतत्त्वार्थभर्त्ता’ भी था।

समुद्रगुप्त के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का समुचित निदर्शन हरिषेण विरचित प्रयाग-प्रशस्ति में मिलता है। महादंडनायक ध्रुवभूति का पुत्र हरिषेण समुद्रगुप्त का कुमारामात्य और संधिविग्रहिक था। इस प्रशस्ति से समुद्रगुप्त के राज्यारोहण, विजय एवं साम्राज्य-विस्तार के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है। यह अभिलेख मूलरूप में कोशांबी में था जिस पर मौर्य सम्राट अशोक ने अपना लेख उत्कीर्ण करवाया था। संभवतः इसे मुगलकाल में इलाहाबाद के किले में लाया गया। इस स्तंभ पर जहाँगीर के काल का भी लेख मिलता है।

अशोक तथा जहाँगीर के लेखों के बीच समुद्रगुप्त का लेख मिलता है। यह लेख संस्कृत भाषा की चंपूशैली में है। प्रशस्ति का पूर्वभाग पद्य एवं उत्तरभाग गद्य में लिखा गया है। पूर्वार्द्ध के आठ श्लोकों में मात्र तीसरा और चौथा श्लोक ही पूर्णरूप से मिलता है, अन्य श्लोक आधे-अधूरे हैं। तीसरे श्लोक में उसके विद्या-व्यसन तथा चौथे श्लोक में उसके युवराज चुने जाने का वर्णन है। प्रशस्ति के उत्तरार्द्ध में उसके आर्यावर्त्त, आटविक राज्यों, दक्षिणापथ अभियान तथा सीमांत राज्यों एवं विदेशी शक्तियों के द्वारा उसकी अधीनता स्वीकार करने का विवरण है।

प्रयाग-प्रशस्ति में कोई तिथि नहीं है। इसकी शैली के आधार पर फ्लीट ने संभावना प्रकट की थी कि यह लेख उसके किसी उत्तराधिकारी ने उत्कीर्ण कराया होगा। किंतु लेख में समुद्रगुप्त के अश्वमेध यज्ञ का वर्णन नहीं है, जिससे लगता है कि इस लेख को यज्ञ-संपादन के पहले ही उत्कीर्ण कराया गया था। चूंकि अभिलेख अतिशयोक्तिपूर्ण और चाटुकारिता की शैली में है, इसलिए इसका सावधानीपूर्वक उपयोग करने की आवश्यकता है।

एरण का लेख: समुद्रगुप्त का एक खंडित लेख एरण (सागर, मध्य प्रदेश) से भी मिला है, जो संभवतः किसी सामंत द्वारा उत्कीर्ण कराया गया था। इस लेख में समुद्रगुप्त को पृथु, राघव आदि राजाओं से बढ़कर दानी कहा गया है, जो प्रसन्न होने पर कुबेर तथा रुष्ट होने पर यमराज के समान था। लेख से पता चलता है कि ऐरिकिण प्रदेश (एरण) उसका भोगनगर था। संभवतः समुद्रगुप्त ने अपने दक्षिण भारतीय अभियान के दौरान एरण को ही अपना सैनिक केंद्र बनाया था।

गया एवं नालंदा के ताम्रफलक लेख: इसके अलावा गया तथा नालंदा से दो ताम्रफलक लेख प्राप्त हुए हैं। इनमें समुद्रगुप्त का नाम और उसकी उपलब्धियाँ उल्लिखित हैं। किंतु फ्लीट और दिनेशचंद्र सरकार जैसे इतिहासकार इस लेख को जाली मानते हैं। नालंदा के ताम्रफलक लेख को यद्यपि रमेशचंद्र मजूमदार समुद्रगुप्त की मौलिक मुद्रा मानने का आग्रह करते हैं, किंतु कुछ विद्वान् इसे भी कूटरचित मानते हैं।

मुद्रा-साक्ष्य: समुद्रगुप्त की छः प्रकार की स्वर्ण मुद्राएँ मिली हैं जिन्हें गरुड़, धनुर्धर, परशु, अश्वमेध, व्याघ्रनिहंता एवं वीणावादन प्रकार के नाम से जाना जाता है। इन मुद्राओं से उसकी अभिरुचि और राज्यकाल की घटनाओं की सूचना मिलती है। इनमें से गरुड़, धनुर्धर, परशु जैसी मुद्राएँ उसके सैनिक जीवन से संबंधित लगती हैं।

उत्तराधिकार युद्ध और राज्यारोहण (Succession War and Enthronement of Samudragupta)

प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि चंद्रगुप्त प्रथम के अनेक पुत्रों में समुद्रगुप्त सबसे योग्य और प्रतिभाशाली था। लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी का पुत्र होने के कारण भी उसका विशेष महत्त्व था। चंद्रगुप्त ने उसे ही अपना उत्तराधिकारी चुना और अपने इस निर्णय को राज्यसभा बुलाकर सभी सभ्यों के सम्मुख उद्घोषित किया। इस समय प्रसन्नता के कारण उसका सारा शरीर रोमांचित हो उठा था और आँखों में आँसू छलक गये थे। उसने सबके सामने समुद्रगुप्त को गले लगाया और कहा, ‘तुम सचमुच आर्य हो, और अब राज्य का पालन करो।’ इस निर्णय से राज्यसभा में एकत्र हुए सभी सभ्यों को प्रसन्नता हुई, किंतु अन्य राजकुमारों (तुल्यकुलजों) के मुख मलीन हो गये। चंद्रगुप्त द्वारा समुद्रगुप्त को उत्तराधिकारी नियुक्त करने के निर्णय से संभवतः उसके अन्य पुत्र प्रसन्न नहीं हुए।

रैप्सन और फादर हेरास का विचार है कि राज्याभिषेक के बाद समुद्रगुप्त के भाइयों ने ‘काच’ के नेतृत्व में उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया। काच नाम के कुछ सोने के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं, जिनके मुख भाग पर राजा की आकृति तथा मुद्रालेख ‘काच पृथ्वी को जीतकर उत्तम कर्मों द्वारा स्वर्ग को जीतता है’ (काचोगामवजित्य दिवं कर्मभिरुत्तमैर्जयति) उत्कीर्ण है तथा पृष्ठ भाग पर ‘सर्वराजोच्छेता’ (समस्त राजाओं का उन्मूलन करनेवाला) उपाधि अंकित है। रैप्सन और फादर हेरास का अनुमान है कि यह काच चंद्रगुप्त का बड़ा पुत्र था, जिसने उसकी मृत्यु के बाद सिंहासन पर अधिकार कर लिया। गुप्तकाल के अन्य सोने के सिक्कों की अपेक्षा काच के सिक्कों में सोने की मात्रा बहुत कम है। इससे लगता है कि भाइयों के इस संघर्ष से राज्यकोष के ऊपर बुरा असर पड़ा और इसलिए काच को अपने सिक्कों में सोने की मात्रा कम करनी पड़ी। किंतु काच अधिक समय तक शासन नहीं कर सका और समुद्रगुप्त ने शीघ्र ही पाटलिपुत्र के सिंहासन पर अधिकार कर लिया।

किंतु उत्तराधिकार के इस युद्ध का समर्थन किसी अन्य स्रोत से नहीं होता है। ‘काच’ नामक गुप्त शासक की सत्ता को मानने का आधार केवल वे सिक्के हैं, जिन पर उसका नाम ‘सर्वराजोच्छेता’ विशेषण के साथ अंकित है। गुप्तवंश के इतिहास में ‘सर्वराजोच्छेता’ उपाधि एकमात्र समुद्रगुप्त के लिए ही प्रयुक्त है और अनेक विद्वानों का विचार है कि काच समुद्रगुप्त का ही दूसरा नाम था और काच नामधारी सिक्के भी उसी के हैं।

एलन के अनुसार काच वस्तुतः समुद्रगुप्त का मौलिक नाम था, किंतु बाद में दिग्विजय करके जब वह ‘आसमुद्राक्षितीश’ बन गया, तब उसने काच के स्थान पर ‘समुद्रगुप्त’ नाम धारण कर लिया था। काच नामधारी सिक्कों का मुद्रालेख ‘काच पृथ्वी को विजित कर उत्तम कर्मों द्वारा स्वर्ग की विजय करता है’, समुद्रगुप्त के अश्वमेध प्रकार के सिक्कों पर उत्कीर्ण मुद्रालेख ‘वह सम्राट भूमंडल की विजय करके स्वर्गलोक की विजय करता है’ (राजाधिराजोपृथिवीं विजित्य दिवं जयति) से मिलता-जुलता है।

इसी प्रकार प्रयाग-प्रशस्ति में भी कहा गया है कि ‘समस्त पृथ्वी को जीत लेने के कारण उसकी कीर्ति भूमंडल में विचरण करती हुई इंद्रलोक में पहुँच गई थी’ (सर्वपृथ्वीविजय जनितोदयव्याप्त निखलावनितलां कीर्तिमितस्त्रिदशपति भवनगमनावाप्त)। इससे लगता है कि काच नामधारी सिक्के स्वयं समुद्रगुप्त के ही हैं। आर.पी. त्रिपाठी का सुझाव है कि ‘तुल्यकुलज’ का आशय गुप्तवंशीय राजकुमारों से न होकर अन्य समान राजवंशों के राजकुमारों से है, जो समुद्रगुप्त जैसे शक्तिशाली शासक के सिंहासनारोहण से अपने विजित किये जाने के भय से दुःखी हो गये थे। इस प्रकार इससे उत्तराधिकार-युद्ध का आशय नहीं निकालना चाहिए। यदि ऐसा हुआ भी हो, तो भी यह निश्चित है कि समुद्रगुप्त ने अपने पराक्रम के बल पर विद्रोहियों को शांत कर दिया था।

वाकाटक लेखों में भी समुद्रगुप्त के लिए ‘तत्पादपरिगृहीत’ शब्द प्रयुक्त है, जिससे स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त ने अनेक राजकुमारों में से पुत्र समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था। रमेशचंद्र मजूमदार का अनुमान है कि समुद्रगुप्त का राज्याभिषेक कर चंद्रगुप्त ने संन्यास ग्रहण कर लिया था।

समुद्रगुप्त का धरणि-बंध अभियान (Samudragupta’s ‘Dharani-Bandha’ Campaign)

गृह-कलह से निवृत्त होकर राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर समुद्रगुप्त ने दिग्विजय की महती योजना बनाई, जिसका उद्देश्य प्रयाग-प्रशस्ति के शब्दों में ‘धरणिबंध’ (धरती को बांधना) था। इस दिग्विजय अभियान का विवरण इलाहाबाद की प्रयाग-प्रशस्ति पर उत्कीर्ण है। प्रशस्ति के अनुसार वह विविध कोटि की युद्ध-कलाओं का मर्मज्ञ था एवं सैकड़ों लड़ाइयों में उसने भाग लिया था (विविधसमरशतावरण दक्षस्य)। उसकी मुद्राओं पर उसे अनेक युद्धों में विजय-हेतु प्रख्यात (समरशतविततविजयो) बताया गया है। यह ‘पराक्रमांक’ (पराक्रम के लिए प्रसिद्ध) नरेश परसा, बाण, शंकु, शक्ति, तोमर, भिंदिपाल, नाराच एवं वैतस्तिक आदि अनेक शस्त्रों के प्रयोग में निपुण था। अपने बाहुबल पर भरोसा करने वाले (स्वभुजबलपराक्रमैक बंधोः) इस ‘सर्वराजोच्छेता’ सम्राट को शत्रुओं का मान-मर्दन करने वाला (जितरिपु), अजेय (अजितः), अद्वितीय योद्धा (अप्रतिरथः), अतुलनीय पराक्रमी (अप्रतिवार्य्यवीर्य्य), पृथ्वी को जीतने वाला (विजित्य क्षितिं), प्रतिद्वंद्वी राजपुत्रों का विजेता (राजजेता), अपने पराक्रम द्वारा अनेक नरेशों को पराजित करने वाला (स्वभुजविजितानेकनरपतिः) तथा स्वर्गलोक को जीतने की महत्त्वाकांक्षा से युक्त (दिवं जयति) बताया गया है।

समुद्रगुप्त का प्रथम आर्यावर्त्त अभियान (Samudragupta’s first Aryavarta Campaign)

समुद्रगुप्त एक असाधारण सैनिक योग्यता वाला महान् सम्राट था। उसने अपने प्रथम आर्यावर्त अभियान में उत्तर भारत के तीन राजाओं को पराजित कर अपने अधीन किया, जिनका नामोल्लेख प्रयाग-प्रशस्ति की तेरहवीं-चौदहवीं पंक्ति में मिलता है। इन राजाओं का नाम इस प्रकार है- अच्युत्, नागसेन और कोतकुलज।

अच्युत: अच्युत अहिछत्र का शासक था, जिसका समीकरण बरेली के आधुनिक रामनगर से किया जाता है। इस क्षेत्र से अच्युत नामधारी मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं। उसकी मुद्राओं की बनावट नागवंशी मुद्राओं से मिलती-जुलती है, जिससे यह नागवंशी शासक प्रतीत होता है। इससे स्पष्ट है कि समुद्रगुप्त के समय में अहिछत्रा में नागवंश की कोई महत्त्वपूर्ण शाखा शासन कर रही थी।

नागसेन: नागसेन भी नागवंशी शासक था, जिसकी पहचान हर्षचरित में उल्लखित नागसेन से की जाती है। इसकी राजधानी पद्मावती थी। पद्मावती की पहचान ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में स्थित आधुनिक पद्म-पवाया से की जाती है। इस स्थान से नाग-मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं, जिससे लगता है कि यहाँ भी नाग वंश की कोई शाखा शासन कर रही थी। काशीप्रसाद जायसवाल इसे मथुरा का शासक मानते हैं।

अच्युत् और नागसेन संभवतः भारशिव के नागवंश से संबंधित थे। यद्यपि भारशिव नागों की शक्ति का पहले ही पतन हो चुका था, किंतु कुछ क्षेत्रों में इनके छोटे-छोटे शासक अब भी शासन कर रहे थे। पराक्रमी समुद्रगुप्त ने ‘धरणिबंध’ के उच्च-आदर्श को प्राप्त करने के लिए इन नागवंशीय शासकों को पराजित कर उत्तर भारत में अपनी सत्ता को सुदृढ़ आधार प्रदान किया और अपनी राजकीय मुद्राओं के ऊपर गरुड़ के चित्र को अंकित कराना प्रारंभ किया।

कोटकुलज: कोटकुल में उत्पन्न इस शासक का नाम प्रयाग-प्रशस्ति में मिट गया है और मात्रा ‘ग’ अक्षर शेष है। दिनेशचंद्र सरकार जैसे विद्वानों का अनुमान है कि यह गणपतिनाग हो सकता है, जिसका उल्लेख प्रशस्ति की इक्कीसवीं पंक्ति में है।

काशीप्रसाद जायसवाल भ्रमवश कोटकुल की पहचान कौमुदीमहोत्सव में उल्लखित मगधवंश के कल्याणवर्मा से करते हैं। ‘कोट’ नामांकित कुछ मुद्राएँ पंजाब और दिल्ली से प्राप्त हुई हैं, जिससे लगता है कि इस राजकुल का शासन संभवतः इसी प्रदेश में था। रमेशचंद्र मजूमदार के अनुसार कोतकुल शासक कान्यकुब्ज (पुष्पपुर) का शासक था।

काशीप्रसाद जायसवाल का विचार है कि आर्यावर्त्त के तीनों राजाओं ने एक सम्मिलित संघ बना लिया था और इस संघ को समुद्रगुप्त ने कोशांबी में पराजित किया था। सत्यता जो भी हो, समुद्रगुप्त ने अपने बाहुबल द्वारा इन तीनों राजाओं को जीतकर अपने अधीन कर लिया। इस युद्ध को ‘आर्यावर्त्त का प्रथम युद्ध’ कहा जाता है। मनुस्मृति में पूर्वी समुद्र से लेकर पश्चिमी समुद्र तक और विंध्याचल तथा हिमालय पर्वतों के बीच स्थित भूभाग को आर्यावर्त्त कहा गया है।

समुद्रगुप्त का दक्षिणापथ अभियान (Samudragupta’s ‘Dakshinapath’ Campaign)

प्रयाग-प्रशस्ति में प्रथम आर्यावर्त्त अभियान के पश्चात् समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ अभियान का उल्लेख मिलता है। इससे लगता है कि उत्तर भारत में अपनी शक्ति को सुदृढ़ कर समुद्रगुप्त ने दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया और ऐरिकिणि प्रदेश (एरण) को सैनिक गतिविधियों का केंद्र बनाकर दक्षिणापथ के विजय की योजना बनाई। अपने दक्षिणापथ अभियान में समुद्रगुप्त ने कुल बारह शासकों को पराजित कर अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। दक्षिणापथ के पराजित बारह राज्यों तथा उनके राजाओं का नाम प्रयाग-प्रशस्ति की उन्नीसवीं तथा बीसवीं पंक्तियों में मिलता है, जिनका विवरण निम्नलिखित है-

कोशल का महेन्द्र: कोशल का अभिप्राय दक्षिण कोशल से है, जिसमें आधुनिक मध्य प्रदेश के विलासपुर, रायपुर और सम्भलपुर के प्रदेश सम्मिलित थे। संभवतः गंजाम कोएक भाग भी इसमें सम्मिलित था। इसकी राजधानी श्रीपुर की पहचान रायपुर के उत्तर-पूर्व स्थित सिरपुर से की जाती है।

अच्युत् तथा नागसेन की पराजय के बाद दक्षिण कोशल से उत्तर के सभी प्रदेश गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत थे। दक्षिण की ओर विजय-यात्रा करते हुए सबसे पहले दक्षिण कोशल का ही स्वतंत्र राज्य पड़ता था। महेंद्र को पराजित करने के कारण उड़ीसा में समुद्रगुप्त के प्रभाव का सूत्रपात हो गया। इससे पता चलता है कि वह अपने दक्षिणापथ अभियान में उड़ीसा से होकर पूर्वी घाट की ओर आगे बढ़ा था।

महाकांतार का व्याघ्रराज: कोशल के दक्षिण-पूर्व में महाकांतार (जंगली प्रदेश) था। रमेशचंद्र मजूमदार ने महाकांतार को उड़ीसा में स्थित जयपुर नामक वनमय प्रदेश से समीकृत किया है जिसे प्राचीन अभिलेखों में ‘महावन’ कहा गया है। हेमचंद्र्र रायचौधरी ने महाकांतार की पहचान कांतार से की है, जो वैनगंगा एवं पूर्वी कोशल के बीच स्थित था, जहाँ आजकल गोण्डवाना का सघन जंगल है।

फ्लीट तथा दिनेशचंद्र सरकार ने व्याघ्रराज की पहचान व्याघ्रदेव से की है जो वाकाटक महाराज पृथिवीषेण का सामंत था। मिराशी का अनुमान है कि नचना एवं गंज के लेखों का व्याघ्रदेव वाकाटक महाराज पृथिवीषेण द्वितीय का मांडलिक रहा होगा। भंडारकर व्याघ्रदेव की पहचान उच्चकल्पवंशी (बुंदेलखंड के जासो एवं अजयगढ़ के राजवंश) व्याघ्र से करते हैं, जो जयनाथ का पिता था और जिसका नामोल्लेख शर्वनाथ के खोह अभिलेख में है।

कोराल का मंटराज: बर्नेट एवं रायचौधरी के अनुसार कोराल से तात्पर्य दक्षिण भारत के करोड़ नामक किसी आधुनिक ग्राम से है। कुछ विद्वान् इस स्थान को उड़ीसा के गंजाम जिले में स्थित आधुनिक कोलाड़ से समीकृत करते हैं। उदयनारायन राय के अनुसार इसका आशय आधुनिक कोड़ाल से है जो गंजाम जिले में ही स्थित है। वस्तुतः कोराल राज्य दक्षिणी मध्य प्रदेश के सोनपुर प्रदेश के आसपास स्थित था।

पिष्टपुर का महेंद्रगिरि: इस स्थान की पहचान गोदावरी जिले में स्थित वर्तमान पीठापुरम् से की जाती है, जो प्राचीन काल में पिष्टपुर कहलाता था। इसका नामोल्लेख पुलकेशिन् द्वितीय के ऐहोल अभिलेख में भी हुआ है (पिष्टं पिष्टपुरं येन जातं दुर्गमदुर्गमम्)। पिष्टपुरी का उल्लेख महाराज संक्षोभ के खोह ताम्रपट्ट (गुप्त संवत् 209) में भी मिलता है, जो किसी स्थानीय देवी का नाम प्रतीत होता है।

कोट्टूर का स्वामिदत्त: कोट्टूर की पहचान गंजाम जिले के आधुनिक कोठूर से की जा सकती है। सैलेतोर इसे बेलारी जिले के गुडलिगी तालुका (पश्चिमी घाट) के वर्तमान कोट्टूर से समीकृत करते हैं। जी. रामदास के अनुसार कोट्टूर महेंद्रगिरि स्थान का नाम है, इसका तात्पर्य पूर्वी घाट की पहाड़ियों से है। इसलिए इससे किसी शासक का भाव निकालना उचित नहीं है।

स्वामिदत्त दो राज्यों का शासक था। एक की राजधानी पिष्टपुर और दूसरे की राजधानी पूर्वी घाट के निकट कोट्टूर में थी। समुद्रगुप्त द्वारा दक्षिणापथ में पराजित किये गये राजाओं की संख्या बारह नहीं, ग्यारह मानना चाहिए, किंतु इस निष्कर्ष से सहमत होना कठिन है।

एरण्डपल्ल का दमन: फ्लीट ने इसकी पहचान खानदेश में स्थित एरण्डोल के साथ की है और जुबो डुब्रील ने इसे उड़ीसा के समुद्रतट पर स्थित एरण्डपल्ली माना है। इसका उल्लेख कलिंग नरेश देवेंद्रवर्मा के ‘सिद्धांतम्’ के ताम्रलेखों में हुआ है। एरण्डपल्ल की पहचान कलिंग के दक्षिण विजगापट्टम में स्थित एंडपिल्ली से की जानी चाहिए।

काँची का विष्णुगोप: काँची का अभिप्राय दक्षिण भारत के काँजीवरम् से है। काँची दक्षिण भारत का प्रसिद्ध नगर था। वहाँ पल्लवों की राजधानी थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इस नगर की प्रशंसा की है। विष्णुगोप पल्लववंशी सम्राट प्रतीत होता है। आंध्र प्रदेश के पूर्वी जिलों और कलिंग को जीतकर समुद्रगुप्त ने अपने अधीन कर लिया।

अवमुक्त का नीलराज: काशीप्रसाद जायसवाल ने इसकी पहचान हाथीगुम्फा लेख में उल्लिखित अवराज से की है जिसकी राजधानी पिथुंड थी। रायचौधरी के अनुसार नीलराज नीलपल्ली की याद दिलाता है जो गोदावरी जिले के समुद्रतट पर स्थित एक प्राचीन बंदरगाह था। ब्रह्मपुराण में गोदावरी तट पर स्थित अविमुक्त क्षेत्र का उल्लेख मिलता है। प्रयाग-प्रशस्ति का अवमुक्त कभी-कभी इसी स्थान का स्मरण दिलाता है। किंतु लगता है कि यह राज्य काँची के समीप ही स्थित था।

वेंगि का हस्तवर्मन्: वेंगी की पहचान वेगी या पेद्दि-वेगी से की जाती है। यह राज्य कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच में स्थित था। वेंगि नाम की नगरी इस प्रदेश में आज भी विद्यमान है। हस्तिवर्मन् शालंकायनवंशी नरेश हस्तिवर्मा प्रथम लगता है जिसके अभिलेख पेद्दि-वेगी से मिले हैं। शालंकायन राजवंश दक्षिण भारत कोएक महत्त्वपूर्ण राजकुल था जिसे टाल्मी ने ‘सलकेनोई’ कहा है।

पाल्लक का उग्रसेन: यह स्थान संभवतः आधुनिक आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले में था। वहाँ का पलक्कड़ नामक स्थान पल्लव राज्य कोएक विशिष्ट केंद्र था। डुब्रील, दिनेशचंद्र सरकार एवं हेमचंद्र रायचौधरी प्रयाग-प्रशस्ति के पालक को पलक्कड़ से समीकृत करते हैं। कुछ इतिहासकार इसकी पहचान आधुनिक पालकोल्लू से करते हैं, जो गोदावरी नदी के मुहाने के निकट स्थित है।

देवराष्ट्र का कुबेर: कुछ विद्वान् इसे सतारा जिले में मानते हैं और कुछ विजगापट्टम जिले में। विजगापट्टम से प्राप्त एक ताम्रलेख में एलामांची का उल्लेख मिलता है। इस लेख के अनुसार यह स्थान देवराष्ट्र प्रदेश में स्थित था। एलामांची की पहचान आंध्र प्रदेश में स्थित आधुनिक एलमांचिली से की जाती है और अधिकांश इतिहासकार देवराष्ट्र का समीकरण इसी एलमांचिली प्रदेश से करते हैं।

कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि काँची, वेंगि और अवमुक्त राज्यों के शासक पल्लव वंश के थे जिन्हें समुद्रगुप्त ने संभवतः सम्मिलित रूप से एक ही युद्ध में पराजित किया था क्योंकि देवराष्ट्र का प्रदेश दक्षिण से उत्तर की ओर लौटते हुए मार्ग में पड़ता था।

कुस्थलपुर का धनंजय: कुछ इतिहासकारों ने भ्रमवश इसका समीकरण कुस्थलपुर से कर दिया था, जो द्वारकापुरी का एक अन्य नाम था। आयंगर के अनुसार कुस्थलपुर से तात्पर्य कुशस्थली नदी के पार्श्ववर्ती क्षेत्रों से है। वस्तुतः यह राज्य उत्तरी आर्काट जिले में स्थित था। इसकी स्मृति कुट्टलूर के रूप में आज भी सुरक्षित है।

समुद्रगुप्त की दक्षिण नीति (Samudragupta’s South Policy)

इस प्रकार समुद्रगुप्त सफलतापूर्वक विजय-यात्रा करता हुआ सुदूर दक्षिण में काँची तक पहुँच गया। प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि इन नरेशों को पराजित करने के बाद समुद्रगुप्त ने उनका मूलोच्छेद नहीं किया और उन्हें कृपापूर्वक स्वतंत्र कर दिया था (सर्वदक्षिणापथ राजग्रहणमोक्षानुग्रह)। इससे प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त इन दक्षिणी राजाओं से भेंट-उपहारादि प्राप्त करके ही संतुष्ट हो गया था। संभवतः इसीलिए समुद्रगुप्त को ‘अनेक उन्मूलित राजवंशों को पुनः प्रतिष्ठित करने वाला’ कहा गया है (अनेकभ्रष्ट राज्योत्सन्न राजवंशप्रतिष्ठापनोद्भूत निखिलभुवनविचरणाशांतयशस)। समुद्रगुप्त की इस दक्षिण विजय की तुलना रघुवंश में वर्णित महाराज रघु की ‘धर्मविजय’ से की जा सकती है-

ग्रहीत प्रतिमुक्तस्य स च धर्मविजयीनृपः।

श्रियं महेन्द्रनाथस्य जहार न तु मेदिनीम्।।

संभवतः समुद्रगुप्त को इस अभियान में आने वाली विविध भौगोलिक कठिनाइयों से यह अनुभव हो गया था कि सुदूर दक्षिण के इन प्रदेशों पर अपनी राजधानी पाटलिपुत्रा से नियन्त्रित करना संभव नहीं होगा, इसलिए उसने विजित दक्षिणी राज्यों को लौटा दिया और उनकी सहानुभूति प्राप्त की।

कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि समुद्रगुप्त ने पहले उड़ीसा स्थित राज्यों को पराजित किया। पूर्वी दकन की विजय करता हुआ जब वह कृष्णा अथवा कावेरी नदी तक बढ़ आया तो विष्णुगोप के नेतृत्व में पूर्वी घाट के राजाओं के एक सम्मिलित दल ने उसे कोल्लेर झील के तट पर पराजित कर दिया जिसके परिणामस्वरूप वह उड़ीसा के तटवर्ती भागों में की गई विजयों का परित्याग कर अपनी राजधानी लौट आया। किंतु यह विचार एक कल्पनामात्र है। प्रयाग-प्रशस्ति से स्पष्ट है कि वह पूर्वी घाट के नरेशों को पराजित करता हुआ पल्लवों की राजधानी कांची तक पहुँच गया था। यह उसकी दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता थी कि उसने केंद्रीय दकन और पश्चिमी घाट की ओर अभियान नहीं किया क्योंकि ऐसा करने पर उसे वाकाटकों और शकों की शक्ति का सामना करना पड़ता जो तत्कालीन परिस्थितियों में आत्मघाती सिद्ध होता। फिर भी लगता है कि समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ अभियान में वाकाटक नरेश पृथ्वीषेण के सामंत व्याघ्रदेव को पराजित किया था। एरण लेख से स्पष्ट है कि ऐरिकिणि प्रदेश पर समुद्रगुप्त का अधिकार था। संभव है कि जब समुद्रगुप्त दक्षिणापथ के राज्यों को पराजित करता हुआ काँची पहुँचा हो तो उसे आर्यावर्त्त के नौ नरेशों के विद्रोह की सूचना मिली हो और उसे अपना दक्षिणापथ-अभियान छोड़कर वापस आना पड़ा हो।

काशीप्रसाद जायसवाल का अनुमान है कि दक्षिणापथ के बारह राज्य दो दलों में संगठित थे। प्रथम दल में कोट्टूर के स्वामिदत्त और एरण्डपल्ल के दमन थे जिनका नेता कोराल का मंटराज था। दूसरे दल में अवशिष्ट नव-राज्यों के नरेश सम्मिलित थे जिनका प्रधान नेता काँची का पल्लव नरेश विष्णुगोप था।

आर.एन. दंडेकर का कहना है कि दक्षिण के सभी बारह नरेश समुद्रगुप्त के विरुद्ध एक ही दल में संगठित थे और समुद्रगुप्त ने इस संगठित मोर्चा को कोलेयर-कासार के तट पर हराया था। प्रयाग-प्रशस्ति में इस स्थान को कोराल कहा गया है, किंतु दक्षिणापथ के राज्य आधुनिक रायपुर से लेकर काँची तक के विस्तृत क्षेत्र में फैले हुए थे, इसलिए इन दूरस्थ प्रदेशों का एक या दो दलों में संगठित होना तत्कालीन परिस्थितियों में संभव नहीं लगता है। वस्तुतः समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ के नरेशों को एक या दो युद्धों में नहीं, बल्कि अलग-अलग कई युद्धों में पराजित किया होगा।

इतिहासकारों का अनुमान है कि समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ अभियान का प्रमुख उद्देश्य आर्थिक रहा होगा। वस्तुतः दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापारिक संपर्क के कारण पूर्वीघाट के राज्य आर्थिक दृष्टि से अधिक संपन्न और समृद्ध थे। कुबेर और धनंजय जैसे नाम उनकी संपन्नता के ही सूचक हैं। इस अभियान के द्वारा समुद्रगुप्त ने पूर्वीघाट के संपन्न शासकों से अपार धन-संपत्ति प्राप्त किया होगा।
समुद्रगुप्त का द्वितीय आर्यावर्त्त अभियान (Samudragupta’s Second Aryavarta Campaign)

प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि दक्षिणापथ अभियान से लौटकर समुद्रगुप्त को उत्तर भारत में पुनः एक सैनिक अभियान करना पड़ा जिसे ‘द्वितीय आर्यावर्त्त अभियान’ कहा जाता है। ऐसा लगता है कि जब समुद्रगुप्त दक्षिण भारत में अपनी विजय-यात्रा में व्यस्त था, उत्तरी भारत (आर्यावर्त) के अधीनस्थ राजाओं ने विद्रोह कर दिया और अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। अपने द्वितीय आर्यावर्त्त अभियान में समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के नौ राज्यों को न केवल अपने अधीन किया, अपितु उनका समूलोच्छेद कर दिया। प्रशस्ति में इस नीति को ‘प्रसभोद्धरण’ कहा गया है जो ‘ग्रहणमोक्षानुग्रह’ की नीति के प्रतिकूल थी। इस प्रकार जड़ से उखाड़े गये राजाओं का नाम प्रयाग-प्रशस्ति की इक्कीसवीं पंक्ति में मिलता है- रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चंद्रवर्मा, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत, नंदि और बलवर्मा।

रुद्रदेव: के.एन. दीक्षित, काशीप्रसाद जायसवाल एवं वासुदेव विष्णु मिराशी के अनुसार यह वाकाटक वंश का प्रसिद्ध शासक रुद्रसेन प्रथम था। किंतु प्रयाग-प्रशस्ति से स्पष्ट है कि रुद्रदेव आर्यावर्त्त का शासक था, जबकि रुद्रसेन दक्षिणापथ का। दिनेशचंद्र सरकार इसका समीकरण शक-क्षत्रप रुद्रदामन् द्वितीय या उसके पुत्र रुद्रदामन् तृतीय से करते हैं। ‘रुद्र’ नामांकित कुछ मुद्राएँ कोशांबी से प्राप्त हुई हैं जो लिपि के आधार पर चतुर्थ शताब्दी ई. की लगती हैं। प्रयाग-प्रशस्ति के रुद्रदेव का समीकरण इस कोशांबी नरेश से किया जा सकता है।

मतिल: मत्तिल अंकित एक मुद्रा बुलन्दशहर से मिली है जिसे कुछ विद्वान् मतिल की मुद्रा मानते हैं। इस आधार पर वह आधुनिक बुलंदशहर के आसपास का शासक प्रतीत होता है।

नागदत्त: दिनेशचंद्र सरकार इसे उत्तरी बंगाल का शासक मानते हैं। किंतु वह कान्तिपुरी का कोई नागवंशी शासक था। संभवतः समुद्रगुप्त की राजमहिषी दत्तदेवी इसी नागदत्त की बहन थी।

चंद्रवर्मा: यह पश्चिमी बंगाल के आधुनिक बांकुड़ा जिले के आसपास शासन करता था। बांकुड़ा के निकट सुसुनिया पहाड़ी की एक चट्टान पर उत्कीर्ण शिलालेख में चंद्रवर्मा नामक नरेश का नामोल्लेख मिलता है जो सिंहवर्मा का पुत्र एवं पुष्करण नामक स्थान का स्वामी था। पुष्करण का समीकरण बाँकुड़ा जिले के पोखरन से किया जा सकता है।

गणपतिनाग: भंडारकर के अनुसार गणपतिनाग विदिशा के प्रसिद्ध नाग राजवंश से संबंधित था। गणपतिनाग के कुछ सिक्के बेसनगर से भी उपलब्ध हुए हैं, किंतु इस नरेश की मुद्राएँ विदिशा की अपेक्षा मथुरा से अधिक मिली हैं, जिससे लगता है कि उसने अपनी राजधानी विदिशा से मथुरा स्थानान्तरित कर दिया था।

नागसेन: पद्मावती के इस नागवंशी शासक को समुद्रगुप्त ने अपने प्रथम आर्यावर्त्त अभियान में पराजित किया था जो कालांतर में स्वतंत्र हो गया था। समुद्रगुप्त ने पुनः आक्रमण कर इसका समूलोन्मूलन कर इसके राज्य को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया।

अच्युत्: इस शासक को भी समुद्रगुप्त ने प्रथम आर्यावर्त युद्ध में पराजित किया था। किंतु लगता है कि समुद्रगुप्त की व्यस्तता का लाभ उठाकर यह भी स्वतंत्र हो गया था। यही कारण है कि आर्यावर्त्त की दूसरी सूची में इसका नाम पुनः मिलता है। समुद्रगुप्त ने इसका उन्मूलन कर इसे अपने राज्य में मिला लिया।

नंदि: संभवतः नंदि का संबंध पद्मावती के नागवंश से था।

बलवर्मा: आर.एन. दंडेकर के अनुसार यह असम का शासक था जो हर्ष के समकालीन कामरूप नरेश भाष्करवर्मा का दसवां पूर्वज था। किंतु प्रयाग-प्रशस्ति में कामरूप को प्रत्यन्त राज्य बताया गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार बलवर्मा कोटकुलज नृपति था, जिसे प्रथम आर्यावर्त्त अभियान में समुद्रगुप्त ने पराजित किया था। संभवतः बलवर्मा मौखरियों का कोई पूर्वज था।

रैप्सन ने समुद्रगुप्त द्वारा पराजित आर्यावर्त्त के नौ नरेशों की पहचान पुराणों में वर्णित नवनागों से की है जो पद्मावती, कान्तिपुरी और मथुरा में शासन करते थे-

नव नागस्तु भोक्ष्यन्ति पुरीं चम्पावतीं नृपाः।

मथुरां च पुरीं रम्यां नागाः भोक्ष्यन्ति सप्त वै।।

उनके अनुसार इन सभी नाग नरेशों ने समुद्रगुप्त के विरुद्ध एक मोर्चा बना लिया था और एक तुमुल युद्ध में उसने इन्हें पराजित किया। किंतु राजनीतिक और भौगोलिक परिस्थितियों के कारण इस प्रकार के संयुक्त मोर्चा के गठन की सम्भावना नहीं लगती है।

प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि आर्यावर्त्त नरेशों के जीतने के कारण समुद्रगुप्त की महानता बहुत बढ़ गई। प्रशस्ति की भाषा से लगता है कि उसने ‘सर्वराजोच्छेत्ता’ नीति का पालन करते हुए इन सभी राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। समुद्रगुप्त की इस नीति की तुलना हेमचंद्र रायचौधरी ने कौटिल्य के ‘असुर-विजय’ से की है। समुद्रगुप्त की इन विजयों के परिणामस्वरूप उसका राज्य पूरब में बंगाल के बांकुड़ा वाले जिले से लेकर पश्चिम में पूर्वी मालवा तक तथा हिमालय से लेकर विंध्य तक प्रसरित हो गया था।
समुद्रगुप्त की आटविक राज्यों की विजय (Samudragupta’s Conquest of the Territorial States)

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार शासकों को आटविक शक्तियों को अपना सहयोगी और सहायक बनाने का उद्योग करना चाहिए। आटविक सेनाएं युद्ध के लिए बहुत उपयोगी होती थीं। प्रयाग-प्रशस्ति की इक्कीसवीं पंक्ति से पता चलता है कि समुद्रगुप्त ने प्राचीन मौर्यनीति का प्रयोग करते हुए आटविक राज्यों के शासकों को अपना दास बना लिया था (परिचारिकीकृत सर्वाटविकराजस्य)। फ्लीट के अनुसार ये आटविक राज्य उत्तर में गाजीपुर से लेकर जबलपुर (डभाल) तक फैले हुए थे। समुद्रगुप्त की आटविक विजय का तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि उसके साम्राज्य में आधुनिक जबलपुर तथा उसके आसपास के क्षेत्र सम्मिलित हो गये और उसने ‘हिमवद्विन्ध्यकुंडला’ के आदर्श को पूर्ण किया। संभवतः इन आटविक राज्यों पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में ही उसने व्याघ्र-निहन्ता प्रकार की मुद्राओं का प्रचलन किया और ‘व्याघ्र-पराक्रम’ की उपाधि धारण की थी।

सीमांत राज्यों की विजय (Victory of Frontier States)

प्रयाग-प्रशस्ति की बाईसवीं पंक्ति में कुछ प्रत्यन्त शक्तियों का नामोल्लेख मिलता है जिन्होंने समुद्रगुप्त के आर्यावर्त्त और दक्षिणापथ के अभियानों से भयभीत होकर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। ऐसे सीमांत राज्य दो प्रकार के थे- पहली कोटि में पाँच प्रत्यंत राज्य थे जो उत्तरी एवं उत्तरी-पूर्वी सीमा पर विद्यमान थे। दूसरी कोटि में मालव अर्जुनायन, यौधेय जैसे नौ गणराज्य थे, जो पंजाब, मालवा, राजस्थान एवं मध्य प्रदेश के कुछ भागों में फैले हुए थे। इन राज्यों ने स्वयमेव समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली। करद बनकर रहने वाले पाँच प्रत्यंत राज्यों नाम हैं- समतट, डवाक, कामरूप, कर्त्तृपुर और नेपाल।

समतट: हेमचंद्र रायचौधरी के अनुसार समतट का आशय बंगाल के पूर्वी समुद्रतट से है। सुधाकर चट्टोपाध्याय के अनुसार इसका तात्पर्य गंगा एवं ब्रह्मपुत्र नदियों के बीच की भूमि से है। वस्तुतः इसका आशय दक्षिण-पूर्वी बंगाल से है।

डवाक: फ्लीट के अनुसार यह आधुनिक ढाका का प्राचीन नाम था। के.एल. बरुआ इसकी पहचान असम राज्य के नोगाँव जिले में स्थित डबोक से करते हैं।

कामरूप: कामरूप से तात्पर्य असम से है। समुद्रगुप्त का समकालीन कामरूप शासक पुष्यवर्मा रहा होगा जो हर्षकालीन भास्करवर्मा का पूर्वज था।

कर्त्तृपुर: फ्लीट ने इसकी पहचान जालन्धर जिले के कर्त्तारपुर से की है। अधिकांश इतिहासकार इसकी पहचान उत्तराखंड के कतुरियाराज से करते हैं।

नेपाल: प्राचीन नेपाल आधुनिक गण्डक एवं कोसी नदियों के बीच स्थित था। समुद्रगुप्त के समय नेपाल में लिच्छवि वंश का शासन था। यह राज्य वैशाली के लिच्छवि राज्य से पृथक् था।

नौ गणराज्य (Nine Republics)

सीमांत (प्रत्यंत) राज्यों की दूसरी कोटि में नौ गणराज्य थे जो समुद्रगुप्त के साम्राज्य की पश्चिमी तथा उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर स्थित थे। समुद्रगुप्तकालीन गणराज्यों का विवरण निम्नलिखित है- मालव, अर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानीक, काक और खरपरिक।

मालव: मालव प्राचीन गणराज्य था जिसका प्रथम उल्लेख पाणिनि के अष्टाध्यायी में मिलता है। यूनानी लेखकों ने मालवों को ‘मल्लोई’ कहा है जो सिकंदर के आक्रमण के समय पंजाब में कहीं शासन करते थे। मजूमदार के अनुसार समुद्रगुप्त के समय में वे मेवाड़, टोंक तथा राजस्थान के दक्षिण-पूर्व भाग पर शासन कर रहे थे। मंदसौर अभिलेखों में मालव संवत् का प्रचुर प्रयोग मिलता है, जिससे लगता है कि मंदसौर से इस गण का विशेष संबंध था।

अर्जुनायन: इस गणराज्य के लोग भरतपुर एवं पूर्वी राजपूताना के बीच कहीं जयपुर के आसपास शासन करते थे।

यौधेय: इस गण की मुद्राएँ सहारनपुर से मुल्तान तक के क्षेत्र से मिली हैं, जिन पर ‘यौधेयगणस्य जयः’ लेख उत्कीर्ण है। विजयगढ़ लेख से लगता है कि इनका राज्य किसी समय आधुनिक भरतपुर तक फैला हुआ था। संभवतः यह गणराज्य सतलज नदी के तटवर्ती प्रदेश जोहियावाड़ के आसपास शासन करता था।

मद्रक: प्राचीन काल में इस गणराज्य के लोग रावी और चेनाब नदियों की मध्यवर्ती भूमि (मद्र देश) में राज्य करते थे। संभवतः मालव आदि गणों की भाँति इस गण के लोग भी दक्षिण अथवा दक्षिण-पूर्व में स्थानांतरित हो गये थे। समुद्रगुप्त के समय में इनका शासन-क्षेत्र स्पष्ट नहीं है।

आभीर: समुद्रगुप्त के समय में यह गणराज्य भिलसा और झाँसी के बीच शासन करता था और इनकी राजधानी संभवतः आधुनिक अहिरवाड़ा में विद्यमान थी। यह स्थान प्राचीन आभीरबाट का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रार्जुन: इस गणराज्य के लोग मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले में शासन कर रहे थे।

सनकानीक: इस गणराज्य के लोग आधुनिक भिलसा में शासन करते थे। चंद्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि के वैष्णव गुहालेख (गुप्त संवत् 82) से पता चलता है कि सनकानीक महाराज भिलसा में गुप्तों की अधीनता स्वीकार करता था। संभवतः विष्णुदास समुद्रगुप्त का समकालीन सनकानीक महाराज था।

काक: काक गणराज्य का उल्लेख महाभारत में है। काक लोग संभवतः आधुनिक साँची में शासन करते थे। वहाँ से प्राप्त कुछ लेखों के अनुसार उसका प्राचीन नाम काकबाट अथवा काकनादबाट था।

खरपरिक: प्रयाग-प्रशस्ति के खरपरिकों की पहचान बतीहागढ़ के लेख में उल्लिखित खरपर (खर्पर) जाति से की जाती है। लेख के प्राप्ति-स्थान से लगता है कि खरपरिक लोग दमोह (मध्य प्रदेश) में राज्य करते थे। संभवतः खरपरिक शैव मतावलम्बी थे और शिवगणों की भाँति खर्पर धारण कर युद्ध करते थे (खर्परपाणयः)।
समुद्रगुप्त की सीमांत नीति (Samudragupta’s Frontier Policy)

प्रयाग-प्रशस्ति की बाईसवीं-तेईसवीं पंक्ति से पता चलता है कि समुद्रगुप्त ने इन सीमांत राज्यों को अपने अधीन कर इनके शासकों को सभी प्रकार के कर देने (सर्वकरदान), अपनी आज्ञा का पालन करने (आज्ञाकरण) तथा विशिष्ट अवसरों पर राजधानी में स्वयं उपस्थित होकर गुप्त-सम्राट को प्रणाम करने (प्रणामागमन) के लिए बाध्य किया था। इससे लगता है कि इन गणराज्यों ने सम्राट के प्रचण्ड शासन (परितोषित प्रचण्डशासनस्य) को स्वीकार कर अपनी पृथक् सत्ता बनाये रखना ही हितकर समझा।

इन सीमांत राज्यों की विजय के बाद समुद्रगुप्त का राज्य उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विंध्य पर्वत, पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी और पश्चिम में चम्बल और यमुना नदियों तक विस्तृत हो गया था। अल्तेकर का अनुमान है कि महत्त्वाकांक्षी समुद्रगुप्त के सैन्य-अभियान के कारण गणराज्यों को बड़ा धक्का लगा। संभवतः कुछ गणराज्यों का अस्तित्व भी समाप्त हो गया। किंतु चंद्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि लेख से लगता है कि अधीनस्थ राज्यों के रूप में गणराज्यों की सत्ता समुद्रगुप्त के बाद भी विद्यमान थी।

विदेशी शक्तियाँ (Foreign Powers)

प्रयाग-प्रशस्ति की तेईसवीं पंक्ति में कुछ विदेशी शक्तियों- देवपुत्रषाहि षाहानुषाही, शक-मुरुंड, सिंहलद्वीप और सर्वद्वीपवासी का भी उल्लेख मिलता है, जिन्होंने समुद्रगुप्त को आत्मसंर्पूण, कन्याओं का उपहार तथा गरुड़ मुद्रा से अंकित उसके आदेश को अपने-अपने शासन-क्षेत्रों में प्रचलित करना स्वीकार कर लिया था (आत्मनिवेदन कन्योपायनदान गरुत्मदंक स्वविषयभुक्ति शासन याचनाद्युपायसेवा)।

देवपुत्रषाहि षाहानुषाही: इससे तात्पर्य उत्तर कुषाणों से है। ए.एस. अल्तेकर के अनुसार समुद्रगुप्त के समय उत्तर कुषाण नरेश किदार था जो पुरुषपुर (पेशावर) में राज्य करता था। वह पहले ससैनियन नरेश शापुर द्वितीय की अधीनता स्वीकार करता था। संभवतः किदार कुषाण ससैनियन नरेश की अधीनता से मुक्त होना चाहता था, इसलिए उसने समुद्रगुप्त के दरबार में अपना दूतमंडल भेजा था। रमेशचंद्र मजूमदार के अनुसार उत्तर-पश्चिम भारत में गडहर नरेश भी समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करता था क्योंकि उसकी एक मुद्रा पर ‘समुद्र’ उत्कीर्ण है।

शक: शक उस समय पश्चिम भारत में शासन कर रहे थे। अल्तेकर के अनुसार समुद्रगुप्तकालीन महाक्षत्रप रुद्रसेन तृतीय था।

मुरुण्ड: टॉल्मी के भूगोल से पता चलता है कि मुरुण्ड लोग गुप्तों के अभ्युदय के पूर्व गंगा की ऊपरी घाटी में राज्य करते थे। चीनी स्रोतों में इन्हें ‘मेउलुन’ कहा गया है। इनका राज्य गंगा नदी के मुहाने से सात हजार ली (लगभग 1200 मील) की दूरी पर स्थित था। यह स्थान कन्नौज हो सकता है। हेमचंद्र के अभिधानचिंतामणि ग्रंथ के अनुसार मुरुण्डों का एक राज्य लम्पाक (आधुनिक लघमन) में स्थित था। संभवतः लघमन के मुरुण्डों के साथ समुद्रगुप्त का कोई राजनीतिक संबंध था।

सिंहलद्वीप: सिंहलद्वीप से तात्पर्य श्रीलंका से है। चीनी स्रोतों से पता चलता है कि समुद्रगुप्त के समकालीन श्रीलंका के शासक मेघवर्ण (चि-मि-किआ-मो-पो) ने बौद्ध यात्रियों की सुविधा के निमित्त बोधिवृक्ष के उत्तर की दिशा में एक सुंदर बौद्ध मठ बनवाया था। इस कार्य की अनुमति प्राप्त करने के लिए सिंहल नरेश ने उपहारों सहित अपना दूतमंडल समुद्रगुप्त की सेवा में भेजा था। ह्वेनसांग की यात्रा के समय यहाँ एक हजार से अधिक बौद्ध भिक्षु निवास करते थे।

सर्वद्वीपवासी: प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि सिंहल के अतिरिक्त कुछ अन्य द्वीपों के वासियों ने भी (सर्वद्वीपवासिभिः) समुद्रगुप्त को बहुमूल्य उपहारादि दिया था। कुछ इतिहासकार सर्वद्वीप से तात्पर्य वायु पुराण में उल्लिखित अठारह पूर्वी द्वीपों से मानते हैं।

इस प्रकार सिंहल, शक, मुरुंड और कुषाण आदि विदेशी शक्तियों ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली थी। किंतु हरिषेण ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि इन शक्तियों के साथ समुद्रगुप्त का कोई प्रत्यक्ष युद्ध हुआ था अथवा मात्र कूटनीतिक संबंध था। जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि ये शासक आत्म-निवेदन, कन्योपायन और भेंट-उपहारादि के द्वारा महाप्रतापी गुप्त सम्राट को संतुष्ट रखते थे और उसके कोप से बचे रहते थे।

समुद्रगुप्त का साम्राज्य-विस्तार (Samudragupta’s Empire Expansion)


अपनी विजयों के परिणामस्वरूप समुद्रगुप्त एक विशाल साम्राज्य का स्वामी हो गया। पश्चिम में गांधार से लेकर पूर्व में असम तक और दक्षिण में सिंहल (लंका) द्वीप से लेकर उत्तर में हिमालय के कीर्तिपुर जनपद तक समुद्रगुप्त की तूती बोलती थी। आर्यावर्त के प्रदेश उसके प्रत्यक्ष नियंत्राण में थे; दक्षिणापथ के शासक उसकी अनुग्रह से अपनी सत्ता बचाए हुए थे; सीमांत-प्रदेशों के राज्य और गणराज्य उसे नियमित रूप से कर भुगतान करते थे और पश्चिमोत्तर भारत की विदेशी शक्तियाँ व दूरस्थ राजा भेंट-उपहारादि समखपत कर उसके साथ मैत्री-संबंध स्थापित किये हुए थे। प्रयाग-प्रशस्ति में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि ‘पृथ्वीभर में कोई उसका प्रतिरथ (विरुद्ध खड़ा होने वाला) नहीं था, संपूर्ण पृथ्वी को उसने एक प्रकार से अपने बाहुबल से बांध रखा था (बाहुवीर्यप्रसरण धरणिबंधस्य)। वस्तुतः समुद्रगुप्त के शासनकाल में सदियों के राजनीतिक विकेंद्रीकरण तथा विदेशी शक्तियों के आधिपत्य के बाद आर्यावर्त एक बार पुनः नैतिक, बौद्धिक एवं भौतिक उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया था।

समुद्रगुप्त की प्रशासकीय व्यवस्था (Samudragupta’s Administrative System)

समुद्रगुप्त एक नीति-निपुण शासक था। उसके शासन-प्रबंध के संबंध में अधिक ज्ञात नहीं है। संभवतः साम्राज्य का केंद्रीय भाग उसके प्रत्यक्ष नियंत्रण में था। प्रयाग- प्रशस्ति में उसके कुछ पदाधिकारियों के नाम मिलते है-

संधिविग्रहिक: यह संधि तथा युद्ध का मंत्री होता था। समुद्रगुप्त का संधिविग्रहिक हरिषेण था जिसने प्रयाग-प्रशस्ति की रचना की थी।

खाद्यटपाकिक: यह राजकीय भोजनशाला का अध्यक्ष होता था। इस पद पर ध्रुवभूति नामक पदाधिकारी नियुक्त था।

कुमारामात्य: ये उच्च श्रेणी के पदाधिकारी होते थे जो अपनी योग्यता के बल पर उच्च से उच्च पद प्राप्त कर सकते थे। गुप्तलेखों में विषयपति, राज्यपाल, सेनापति, मंत्री आदि सभी को कुमारामात्य कहा गया है।

महादंडनायक: दिनेशचंद्र सरकार के अनुसार यह पुलिस विभाग का प्रधान अधिकारी तथा फौजदारी का न्यायाधीश था। अल्तेकर के अनुसार यह सेना का उच्च पदाधिकारी होता था।

समुद्रगुप्त को युद्धों में व्यास्त रहने के कारण शासन-व्यवस्था का स्वरूप निर्धारण करने का अधिक अवसर नहीं मिला। प्रयाग-प्रशस्ति में ‘भुक्ति’ तथा ‘विषय’ शब्दों के प्रयोग से लगता है कि साम्राज्य का विभाजन प्रांतों तथा जिलों में किया गया था।

अश्वमेध यज्ञ : संपूर्ण भारत में एकछत्र अबाधित शासन स्थापित कर और धरणिबंध के आदर्श को पूर्णकर समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया तथा ‘पराक्रमांक’ की उपाधि धारण की। प्रयाग-प्रशस्ति में अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख नहीं मिलता है। इससे लगता है कि इस अश्वमेध यज्ञ का संपूादन प्रशस्ति के लिखे जाने के बाद हुआ था। स्कंदगुप्त के भितरी लेख में समुद्रगुप्त को ‘चिरोत्सन्नाश्वमेधहर्त्तुः’ (चिरकाल से परित्यक्त अश्वमेध-यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाला) और प्रभावतीगुप्ता के पूना ताम्रलेख में ‘अनेकाश्वमेधयाजिन्’ (अनेक अश्वमेध यज्ञ करनेवाला) कहा गया है।

अश्वमेध-यज्ञ के उपलक्ष्य में ही समुद्रगुप्त ने अश्वमेध प्रकार की मुद्राओं का प्रचलन किया होगा। इन मुद्राओं के पुरोभाग पर यज्ञ-यूप में बंधे अश्वमेध अश्व का अंकन है और पृष्ठ भाग पर सम्राट की उपाधि ‘अश्वमेध-पराक्रमः’ मिलती है जो उसके अश्वमेध यज्ञ किये जाने का प्रमाण है। रैप्सन का अनुमान है कि समुद्रगुप्त ने संभवतः कुछ राजकीय मुहरों पर भी अश्वमेध-यज्ञ से संबंधित दृश्यों को अंकित करवाया था। मिट्टी की ऐसी एक मुहर ब्रिटिश संग्रहालय में है जिस पर अश्वमेध का अश्व यज्ञ-यूप में बंधा है और ऊपर ‘पराक्रमः’ लेख अंकित है। यह मुहर समुद्रगुप्त की ‘अश्वमेध-पराक्रमः’ उपाधि का स्मरण कराती है। प्रयाग-प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इन अश्वमेध यज्ञों के अवसर पर वह कृपणों, दीनों, अनाथों और निर्बल लोगों की सहायता कर उनके उद्धार का प्रयास करता था।

समुद्रगुप्त की मुद्राएँ (Samudragupta’s Curre


समुद्रगुप्त प्रतिभा-संपन्न सम्राट था जिसने अपने पिता द्वारा प्रवर्तित गुप्त मुद्रा-कला को संवर्द्धित करते हुए छः प्रकार की स्वर्ण-मुद्राओं का प्रचलन करवाया। इन मुद्राओं से समुद्रगुप्त की व्यक्तिगत अभिरुचि और उसके शासनकाल की घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है। उसके द्वारा प्रवर्तित छः प्रकार की मुद्राओं का विवरण निम्नलिखित है-

धनुर्धर प्रकार: धनुर्धर प्रकार की मुद्राओं के पुरोभाग पर सम्राट युद्ध की पोशाक में धनुष-बाण लिए खड़ा है तथा मुद्रालेख ‘अजेय राजा पृथ्वी को जीतकर उत्तम कर्मों द्वारा स्वर्ग को जीतता है’ द्धअप्रतिरथो विजित्य क्षितिं सुचरितैः दिव जयति) उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी के साथ उसकी उपाधि ‘अप्रतिरथः’ अंकित है।

परशु प्रकार: इस प्रकार की मुद्राओं के मुख भाग पर परशु लिए राजा का चित्र तथा मुद्रालेख ‘कृतांत परशु राजा राजाओं का विजेता तथा अजेय है’ (कृतांतपरशुर्जयतयजित राजजेताजितः) उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर देवी की आकृति और उसकी उपाधि ‘कृतांत परशु’ अंकित है।

व्याघ्रनिहंता प्रकार: इन मुद्राओं के पुरोभाग पर एक सिंह का आखेट करते हुए समुद्रगुप्त की आकृति तथा उसकी उपाधि ‘व्याघ्रपराक्रमः’ अंकित है। पृष्ठ भाग पर मकरवाहिनी गंगा की आकृति के साथ ‘राजा समुद्रगुप्तः’ उत्कीर्ण है। ये सिक्के सर्वाटविकराजविजय से संबंधित प्रतीत होते हैं।

वीणावादन प्रकार: इस प्रकार की मुद्राओं के पुरोभाग पर वीणा बजाते हुए राजा की आकृति तथा मुद्रालेख ‘महाराजाधिराजश्रीसमुद्रगुप्तः’ उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर कार्नकोपिया लिए हुए लक्ष्मी की आकृति अंकित है। इससे लगता है कि समुद्रगुप्त संगीत और कविता का भी प्रेमी था।

गरुड़ प्रकार: इन मुद्राओं के पुरोभाग पर राजा की अलंकृत आकृति के समक्ष गरुड़ध्वज तथा मुद्रालेख ‘सैकड़ों युद्धों का विजेता तथा शत्रुओं का मान-मर्दन करने वाला अजेय राजा स्वर्ग को जीतता है’ (समरशत वितत विजयोजित रिपुरजितो दिवं जयति) अंकित है। पृष्ठ भाग पर सिंहासनासीन लक्ष्मी का चित्र और ‘पराक्रमः’ शब्द उत्कीर्ण है। इस वर्ग की मुद्राएँ सर्वाधिक प्रचलित थीं।

अश्वमेध प्रकार: समुद्रगुप्त ने ‘धरणिबंध’ के उपलक्ष्य में अश्वमेध प्रकार की मुद्राओं का प्रचलन किया था। इन मुद्राओं के पुरोभाग पर यज्ञ-यूप में बँधे अश्व का चित्र तथा मुद्रालेख ‘राजाधिराज पृथ्वी को जीतकर तथा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान कर स्वर्गलोक की विजय करता है’ (राजाधिराजो पृथ्वी विजित्य दिवं जयत्या गृहीत वाजिमेधः) उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर राजमहिषी दत्तदेवी की आकृति के साथ-साथ सम्राट की उपाधि ‘अश्वमेध-पराक्रमः’ मिलती है।

समुद्रगुप्त का चरित्र एवं व्यक्तित्व (Samudragupta’s Character and Personality)

समुद्रगुप्त एक दूरदर्शी एवं पराक्रमी सम्राट था। इसने आर्यावर्त्त के राजाओं का उन्मूलन तथा सुदूर दक्षिण के राज्यों की विजय कर अपनी उत्कृष्ट सैनिक प्रतिभा का परिचय दिया। उसकी मुद्राओं पर कृतांत-परशु, सर्वराजोच्छेता, व्याघ्र-पराक्रमः तथा अश्वमेध-पराक्रमः जैसी भारी-भरकम उपाधियां मिलती हैं जो उसके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का दर्पण हैं। प्रयाग-प्रशस्ति के अनुसार उसमें सैकड़ों युद्धों में विजय प्राप्त करने की अपूर्व क्षमता थी; अपनी भुजाओं से अर्जित पराक्रम ही उसका सबसे उत्तम बंधु था; परशु, बाण, शंकु, शक्ति आदि अस्त्रों-शस्त्रों के सैकड़ों घावों से उसका शरीर सुशोभित था। उसने अपने विजय अभियान में भिन्न-भिन्न राज्यों के साथ एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न न्यायोचित नीतियों का आश्रय लिया जो उसकी दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता का परिचायक है। प्रयाग-प्रशस्ति में उसे ‘देव’ (लोकधाम्नो देवस्य) कहा गया है। वह उसी सीमा तक मनुष्य था, जहाँ तक वह लौकिक क्रियाओं का अनुसरण करता था। प्रयाग-प्रशस्ति में इस अचिंतय पुरुष की तुलना कुबेर, वरुण, इंद्र और यमराज जैसे देवताओं से की गई है तो एरण लेख में पृथु, रघु आदि नरेशों से। वह पराक्रम, शक्ति और विनम्रता जैसे सद्गुणों का भंडार था। उसकी सैनिक योग्यता से प्रभावित होकर ही इतिहासकार स्मिथ ने उसे ‘भारतीय नेपोलियन’ की संज्ञा दी है।

समुद्रगुप्त कवि तथा संगीतज्ञ भी था। वह उच्चकोटि का विद्वान् तथा विद्या का उदार संरक्षक भी था। महादंडनायक ध्रुवभूति के पुत्र संधिविग्रहिक हरिषेण ने उसके वैयक्तिक गुणों और चरित्रा के संबंध में प्रयाग-प्रशस्ति में लिखा है कि ‘उसका मन विद्वानों के सत्संग-सुख का व्यसनी था। उसके जीवन में सरस्वती और लक्ष्मी का अविरोध था। उसने अनेक काव्यों की रचना करके ‘कविराज’ की उपाधि प्राप्त की थी (विद्वज्जनोपजीव्यानेक काव्यक्रियाभिः प्रतिष्ठित कविराजशब्दस्य)। यद्यपि समुद्रगुप्त की किसी रचना का ज्ञान नहीं है, किंतु वामन के काव्यालंकार सूत्रा से पता चलता है कि उसका एक नाम ‘चंद्रप्रकाश’ भी था। संभवतः वह प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् वसुबंधु का आश्रयदाता था।

वह महान् सम्राट संगीत और वीणा-वादन में निपुण था। अपनी मुद्राओं पर वह वीणा बजाते हुए प्रदर्शित किया गया है। प्रयाग-प्रशस्ति में कहा गया है कि गांधर्व विद्या में प्रवीणता के साथ उसने देवताओं के स्वामी (इंद्र) के आचार्य (कश्यप), तुम्बुरु, नारद आदि को भी लज्जित कर दिया था।

समुद्रगुप्त उदार, दानशील, असहायों तथा अनाथों का आश्रयदाता था। वह सज्जनों का उद्धारक और दुर्जनों का संहारक था। उसकी नीति थी कि साधु का उदय और असाधु का प्रलय हो। प्रसन्न होने पर वह कुबेर और क्रुद्ध होने पर यम के समान था (धनान्तकतुष्टिकोप तुल्यः)। उसके यश से तीनों लोक पवित्रा होते थे। उसका हृदय इतना कोमल था कि भक्ति और झुक जाने मात्र से वह वश में हो जाता था। प्रशस्ति में कहा गया है कि उसकी उदारता के कारण ‘श्रेष्ठकाव्य (सरस्वती) तथा लक्ष्मी का शाश्वत विरोध सदा के लिए समाप्त हो गया था। इस प्रकार यदि एक ओर वह मृदु-हृदय एवं अनुकंपावान था, तो दूसरी ओर कृतांतु परशु भी था।

समुद्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ सम्राट था जो वैदिक मार्ग का अनुयायी था। उसे धर्म की प्राचीर (धर्मप्राचीरबंधः) कहा गया है। गया ताम्रपत्र में उसकी उपाधि ‘परमभागवत’ मिलती है। वह विविध सुंदर आचरणों से युक्त बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न सम्राट था। प्रयाग-प्रशस्ति के अनुसार विश्व में कौन सा ऐसा गुण है जो उसमें नहीं है (कोनुसाद्योऽस्य न स्याद् गुणमति)। रमेशचंद्र्र मजूमदार सही लिखते हैं कि ‘लगभग पाँच शताब्दियों के राजनीतिक विकेंद्रीकरण तथा विदेशी आधिपत्य के बाद आर्यावर्त्त पुनः बौद्धिक तथा भौतिक उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया।’

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