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Wednesday, September 7, 2022

RAJA SHIV PRASAD SITARE HIND - राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिन्द'

RAJA SHIV PRASAD SITARE HIND - राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिन्द'

राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिन्द' (३ फरवरी १८२४ -- २३ मई १८९५) हिन्दी के उन्नायक एवं साहित्यकार थे। वे शिक्षा-विभाग में कार्यरत थे। उनके प्रयत्नों से स्कूलों में हिन्दी को प्रवेश मिला। उस समय हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों का बहुत अभाव था। उन्होंने स्वयं इस दिशा में प्रयत्न किया और दूसरों से भी लिखवाया। आपने 'बनारस अखबार(1845)' नामक एक हिन्दी पत्र निकाला और इसके माध्यम से हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया।तथा यह पत्रिका साप्ताहिक थी। इनकी भाषा में फारसी-अरबी के शब्दों का अधिक प्रयोग होता था। राजा साहब 'आम फहम और खास पसंद' भाषा के पक्षपाती और ब्रिटिश शासन के निष्ठावान् सेवक थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इन्हें गुरु मानते हुए भी इसलिए इनका विरोध भी किया था। फिर भी इन्हीं के उद्योग से उस समय परम प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शिक्षा विभाग में हिंदी का प्रवेश हो सका। साहित्य, व्याकरण, इतिहास, भूगोल आदि विविध विषयों पर इन्होंने प्राय: ३५ पुस्तकों की रचना की जिनमें इनकी 'सवानेह उमरी' (आत्मकथा), 'राजा भोज का सपना', 'आलसियों का कोड़ा', 'भूगोल हस्तामलक' और 'इतिहासतिमिरनाशक' उल्लेख्य हैं।


इनका विरोध भी किया था। फिर भी इन्हीं के उद्योग से उस समय परम प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शिक्षा विभाग में हिंदी का प्रवेश हो सका। साहित्य, व्याकरण, इतिहास, भूगोल आदि विविध विषयों पर इन्होंने प्राय: ३५ पुस्तकों की रचना की जिनमें इनकी 'सवानेह उमरी' (आत्मकथा), 'राजा भोज का सपना', 'आलसियों का कोड़ा', 'भूगोल हस्तामलक' और 'इतिहासतिमिरनाशक' उल्लेख्य हैं।

जीवन परिचय

शिवप्रसाद सितारेहिंद का जन्म बनारस की 'भाट की गली' में माघ शुक्ल द्वितीया, संवत् १८८० तदनुसार ३ फरवरी १८२४ को ओसवाल वैश्य जैन परिवार में हुआ था। जागेश्वर महादेव की कृपा से उत्पन्न समझकर नाम शिवप्रसाद रखा गया। घर पर और स्कूल में संस्कृत, हिंदी, बँगला, फारसी, अरबी और अँगरेजी की शिक्षा प्राप्त की।

इनके पिता का नाम गोपीचंद था। पूर्वजों का मूल स्थान रणथंभोर था। वंश के मूल पुरुष गोखरू से ग्याहरवीं पीढ़ी में उत्पन्न भाना नामक इनका पूर्वज अलाउद्दीन खिलजी के साथ रणथंभोर विजय के बाद चंपानेर चला गया। इनके एक पूर्वज को शाहजहाँ ने 'राय' की और दूसरे पूर्वज को मुहम्मदशाह ने 'जगत्सेठ' की उपाधि दी थी। नादिरशाही में परिवार के दो आदमियों के मारे जाने पर इनका परिवार मुर्शिदाबाद चला गया। बंगाल के सूबेदार कासिम अली खाँ के अत्याचारों से तंग आकर इनके दादा राजा अँग्रेजों से मिल गए जिसपर सूबेदार ने उन्हें कैद कर लिया। किसी प्रकार वहाँ से भागकर ये बनारस चले आए और यहीं बस गए।

जब शिवप्रसाद जी ग्यारह साल के थे, पिता का देहांत हो गया। सत्रह साल की उम्र में ही भरतपुर के राजा की सेवा में गए और राज्य के वकील का पद प्राप्त किया। तीन साल बाद नौकरी छोड़ दी। कुछ दिन बेकार रहकर सन् १८४५ में ब्रिटिश सरकार की सेवा स्वीकार की और सुबराँव के सिख युद्ध में सर हेनरी लारेंस की जासूस के रूप में सहायता की। तत्पश्चात् शिमले की एजेंटी के मीर मुंशी नियुक्त हुए। सात साल बाद नौकरी छोड़ काशी चले आए परंतु शीघ्र ही गवर्नर जनरल के एजेंट के आग्रह पर पुन: मीर मुंशी का पद स्वीकार किया और दो ही सालों के भीतर पहले बनारस में शिक्षा विभाग के संयुक्त इंस्पेक्टर और तत्पश्चात् बनारस और इलाहाबाद के स्कूल इंस्पेक्टर नियुक्त हुए। सन् १८७२ ई. में सी. आई. ई. और सन् १८८७ ई. में लार्ड मेयो ने उन्हें इंपीरियल कौंसिल का सदस्य बनाया जहाँ एलबर्ट बिल का विरोध कर उन्होंने उसे पारित न होने दिया। सन् १८७८ ई. में सरकारी नौकरी से पेंशन ले ली। १८७० में 'सितारेहिन्द' तथा १८७४ में 'राजा' का खिताब मिला। यह इच्छा कि 'काशी की मिट्टी जल्द काशी में मिले' २३ मई सन् १८९५ ई. को पूरी हुई।

हिन्दी और देवनागरी का समर्थन

प्रारम्भिक खड़ी बोली हिन्दी के विकास में हिन्दी और नागरी लिपि के अस्तित्व की लड़ाई लड़ने वालों में राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द’ का नाम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वे हिन्दी और नागरी के समर्थन में उस समय मैदान में उतरे जब हिन्दी गद्य की भाषा का परिष्कार और परिमार्जन नहीं हो सका था अर्थात् हिन्दी गद्य का कोई सुव्यवस्थिति और सुनिश्चित नहीं गढ़ा जा सका था। खड़ी बोली हिन्दी घुटनों के बल ही चल रही थी। वह खड़ी होने की प्रक्रिया में तो थी; मगर नहीं हो पा रही थी। क्योंकि एक तरफ अँग्रेजों के आधिपत्य के कारण अँग्रेजी के प्रसार-प्रचार का सुव्यवस्थित अभियान चलाया जा रहा था तो दूसरी तरफ राजकीय कामकाज में, कचहरी में उर्दू समादृत थी।

कहा जाता है कि हिन्दी वाले भी अपनी पुस्तकें फारसी में लिखने लगे थे, जिसके कारण देवनागरी अक्षरों का भविष्य ही खतरे में पड़ गया था। जैसा कि बालमुकुन्दजी की इस टिप्पणी से स्पष्ट होता है-जो लोग नागरी अक्षर सीखते थे, वे फारसी अक्षर सीखने पर विवश हुए और हिन्दी भाषा हिन्दी न रहकर उर्दू न गयी हिन्दी उस भाषा का नाम रहा जो टूटी-फूटी चाल पर देवनागरी अक्षरों में लिखी जाती थी

शिक्षा में मुसलमानों से बहुत आगे रहने के बावजूद सरकारी नौकरियों से वंचित होने पर नागरी लिपि और हिंदी भाषा का व्यवहार करने वाले हिंदुओं में असंतोष होना बिल्कुल स्वाभाविक-सी बात थी और इसके खिलाफ सरकारी क्षेत्रों में नागरी लिपि को लागू करने की माँग भी वाजिब और लोकतांत्रिक थी। इस माँग को सबसे पहले 1868 ई. में राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिंद' ने उठाया। उन्होंने 1868 ई. में युक्त प्रांत की सरकार को एक मेमोरेंडम - 'कोर्ट कैरेक्टर इन दी अपर प्रोविंसेज ऑफ इंडिया' दिया-जब मुसलमानों ने हिंदोस्तान पर कब्जा किया, उन्होंने पाया कि हिंदी इस देश की भाषा है और इसी लिपि में यहाँ के सभी कारोबार होते हैं। ......लेकिन उनकी फारसी शहरों के कुछ लोगों को, ऊपर-ऊपर के दस-एक हजार लोगों को, छोड़कर आम लोगों की जुबान कभी नहीं बन सकी। आम लोग फारसी शायद ही कभी पढ़ते थे। आजकल की फारसी में आधी अरबी मिली हुई है। सरकार की इस नीति को विवेकपूर्ण नहीं माना जा सकता जिसने हिंदुओं के बीच सामी तत्वों को खड़ा कर उन्हें अपनी आर्यभाषा से वंचित कर दिया है; न सिर्फ आर्यभाषा से बल्कि उन सभी चीजों से जो आर्य हैं, क्योंकि भाषा से ही विचारों का निर्माण होता है और विचारों से प्रथाओं तथा दूसरे तौर-तरीकों का। फारसी पढ़ने से लोग फारसीदाँ बनते हैं। इससे हमारे सभी विचार दूषित हो जाते हैं और हमारी जातीयता की भावना खत्म हो जाती है।.......पटवारी आज भी अपने कागज हिंदी में ही रखता है। महाजन, व्यापारी और कस्बों के लोग अब भी अपना सारा कारोबार हिंदी में ही करते हैं। कुछ लोग मुसलमानों की कृपा पाने के वास्ते अगर पूरे नहीं, तो आधे मुसलमान जरूर हो गए हैं। लेकिन जिन्होंने ऐसा नहीं किया, वे अब भी तुलसीदास, सूरदास, कबीर, बिहारी इत्यादि की रचनाओं का आदर करते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि हर जगह, हिंदी की सभी बोलियों में फारसी के शब्द काफी पाए जाते हैं। बाजार से लेकर हमारे जनाने तक में, वे घर-घर में बोले जाते हैं। भाषा का यह नया मिला-जुला रूप ही उर्दू कहलाता है। ......मेरा निवेदन है कि अदालतों की भाषा से फारसी लिपि को हटा दिया जाए और उसकी जगह हिंदी लिपि को लागू किया जाए।

कृतियाँ

साहित्य, व्याकरण, इतिहास, भूगोल आदि विविध विषयों पर इन्होंने प्राय: ३५ पुस्तकों की रचना की। राजा शिवप्रसाद की रचनाओं में निम्नलिखित रचनाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं

मानवधर्मसार
वामा मनरंजन
आलसियों का कोड़ा
विद्यांकुर
राजा भोज का सपना
इतिहास तिमिर नाशक
बैताल पच्चीसी
सवानेह-उमरी (आत्मकथा)
लिपि सम्बन्धी प्रतिवेदन (1868 ई.)

गोविन्द रघुनाथ धत्ते ने सन 1845 में राजा शिव प्रसाद की मदद से ‘बनारस अख़बार’ निकाला था।

राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिन्द' (३ फरवरी १८२४ -- २३ मई १८९५) हिन्दी के उन्नायक एवं साहित्यकार थे। वे शिक्षा-विभाग में कार्यरत थे। उनके प्रयत्नों से स्कूलों में हिन्दी को प्रवेश मिला।  उस समय हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों का बहुत अभाव था। उन्होंने स्वयं इस दिशा में प्रयत्न किया और दूसरों से भी लिखवाया। आपने 'बनारस अखबार(1845)' नामक एक हिन्दी पत्र निकाला और इसके माध्यम से हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया।तथा यह पत्रिका साप्ताहिक थी। इनकी भाषा में फारसी-अरबी के शब्दों का अधिक प्रयोग होता था। राजा साहब 'आम फहम और खास पसंद' भाषा के पक्षपाती और ब्रिटिश शासन के निष्ठावान् सेवक थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इन्हें गुरु मानते हुए भी इसलिए इनका विरोध भी किया था। फिर भी इन्हीं के उद्योग से उस समय परम प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शिक्षा विभाग में हिंदी का प्रवेश हो सका। साहित्य, व्याकरण, इतिहास, भूगोल आदि विविध विषयों पर इन्होंने प्राय: ३५ पुस्तकों की रचना की जिनमें इनकी 'सवानेह उमरी' (आत्मकथा), 'राजा भोज का सपना', 'आलसियों का कोड़ा', 'भूगोल हस्तामलक' और 'इतिहासतिमिरनाशक' उल्लेख्य हैं।

इनका विरोध भी किया था। फिर भी इन्हीं के उद्योग से उस समय परम प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शिक्षा विभाग में हिंदी का प्रवेश हो सका। साहित्य, व्याकरण, इतिहास, भूगोल आदि विविध विषयों पर इन्होंने प्राय: ३५ पुस्तकों की रचना की जिनमें इनकी 'सवानेह उमरी' (आत्मकथा), 'राजा भोज का सपना', 'आलसियों का कोड़ा', 'भूगोल हस्तामलक' और 'इतिहासतिमिरनाशक' उल्लेख्य हैं।

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