इतिहास गहोई समाज
गहोई वैश्य जाति का उदभव और विकास
सृष्टि में मानवीय सभ्यता संस्कृति का जन्म और विकास की श्रंखला तो लाखों करोड़ो वर्ष पुरानी है। प्रारंभ में मनुष्यो को केवल चार वर्णों को तीन गुणों (सत,रज,तम) के आधार पर बांटा गया था- यह भारत में सबसे पहले आर्य संस्कृति के उद्भव और विकास की कहानी है। इस प्रकार सतगुण प्रधान व्यक्ति “ब्राहम्ण“ सत्व तथा रज गुण प्रधान व्यक्ति “क्षत्री“, रज तथा तम गुण प्रधान व्यक्ति “वैश्य“ और तम गुण प्रधान व्यक्ति “शुद्र“ कहलाता था अपने वर्ण की पहचान के लिये ब्राहम्ण का “शर्मा“, क्षत्री को “वर्मा“, वैष्य को “गुप्ता“ और शुद्र को “दास“ की उपाधि दी गई थी। वर्ण के अनुसार ही सबके स्वाभाविक कर्म भी नियत किये गये थे। इस सम्बंध में विस्तृत और प्रामाणिक इतिहास “मनुस्मृति“ हैं। जैसे जैसे मानव संख्या बढती गई स्थानीय समुदाय अपनी विशेष पहिचान और परम्पराओ के साथ जीने के आदी हो गये। जिनका वैश्य वर्ण था उनकी एक शाखा “गहोई वैश्य“ मुख्यतः बुंदेलखण्ड क्षेत्र में थी और अधिकांश लोग ग्रामों में रहकर कृषि, व्यवसाय तथा गोपालन का ही कार्य करते थे। अधिकांश वैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षित होकर कंठी धारण करते थे। घुटनो तक धोती, सलूखा, कुर्ता और पगडी इनकी पोशाक विशेषकर यह शाखा वर्तमान झांसी, दतिया, उरई , कालपी, जालौन, सिंध किनारा के समीपवर्ती क्षेत्रो में ही थी जिनकी स्थानीय पंचायतें होती थी- उनका कोई एक वयोवृद्ध व्यक्ति पंच होता था और परंपराये भी निर्धारित थी। गहोईयों के विशेष पुरोहित होते थे जो इनके विवाह और अन्य धार्मिक अनुष्ठान कराते थे। विवाह के समय, भांवरो के पश्चात वर वधू के पुरोहित एक विशेष स्वस्तिवाचन मंत्र पड़ कर वर वधू को आर्शीवाद देते थे जिसे “शंखोच्चार“ कहा जाता था। इस शाखोच्चार में इस जाति के प्रथम कडी के रूप में “ वैश्रवन कुबेर“ का नाम लिखा जाता था और आखरी कडी के रूप में वर के बाबा का नाम लेकर आर्शीवाद वाचन किया जाता था। यह मन्त्र इस प्रकार है " स्वस्ति श्री मंत धनवंत गुण ज्ञानवंत धनपति कुबेर कोषाध्यक्ष भवानी गोरी शिव भगवंत दासानुदास द्वादस शाखा प्रख्यात विविध रत्नमणि माणिक्य पावन कुल वैश्रवन उदभूत शाखानुशाख सर्व प्रथम अलकापुरी मध्य सानंद षट ऐश्वर्य भोगमान पुनश्च त्रतीय आवास धायेपुरे प्राप्तवान सर्व सम्पति भोगवान गोत्रस्य (वर का गोत्र ) नाम उच्चार सप्रवर गौ ब्रह्मण के प्रति पालक (वर के पिता का नाम तथा निवास ) ग्रामे अद्ध्य वर्त्तमान तस्य प्रपोत्र विवाहे सर्व कर्म सिद्वी ॐ वृद्वि: ॐ वृद्वि: ॐ वृद्वि:" | यह मंत्र तथा जाति का कोई इतिहास लिखित रूप में नही था परन्तु कालान्तर में जब यह प्रथा समाप्त हो गई, गहोई वैश्य जाति समय के साथ बुंदेलखण्ड तक ही सीमित न रहकर पूरे भारत में दूर दूर तक फैल गई तो यह परम्परा लुप्त हो गई। गहोई वैश्य जाति के परंपरागत पुरोहित भी नही रहे, वैज्ञानिक विकास के साथ अन्य जातियो से भी सम्पर्क होता गया परंपराये भी बदलती गई और राष्ट्रीय स्तर पर जातीय संगठन बनने लगे तब पुराने इतिहास की खोज की जाने लगी और अपनी अपनी जाति विशेष के प्रथम कडी के महापुरूषो की घोषणाये भी की गई।
समय और घटनाओ के इस लम्बे प्रवाह में वैश्य वर्ण भी अनेक उपजातियो में विभाजित हो चुका था। इनमें अग्रवाल, माहेश्वरी, जैन आदि कुछ जातियां विशेष रूप से अग्रिणी रही सन 1914 में राष्ट्रीय स्तर पर गहोई वैश्य जाति को भी नरसिंह पुर के एक गहोई वैश्य श्री नाथूराम रेजा ने, गहोई वैश्यों का एक संगठन “गहोई वैश्य महासभा“ के नाम से तैयार किया जिसका प्रथम अधिवेशन नागपुर में उनके ही एक संबंधी श्री बलदेवप्रसाद मातेले के सहयोग से सम्पन्न हुआ तब से यह संगठन “महासभा“ के नाम से बराबर चला आ रहा है जो सन् 2014 मे अपना शतक पूर्ण कर लेगा। चुंकि गहोई वैश्य जाति में 12 गोत्र प्रचलित है जो 12 ऋषियों के नाम पर है अतः इन्हे ही द्वादश आदित्य मान लिया। आदित्य सूर्य को कहते है अतः खुर्देव बाबा को सूर्यावतार मान कर और उनके द्वारा गहोई वंश के एक बालक की रक्षा कर बीज रूप में बचा लिया जिससे गहोई वंश की वृद्धि होती गई तो बहुत भाव तक खुर्देव बाबा की पूजा भी प्रचलित हुई शायद इसी आधार पर हमने अपने ध्वज पर सूर्य को अंकित किया है और सूर्यवंशी भगवान राम से भी इस आधार पर अपना संबंध जोड़ा है क्योकि राम जानकी विवाह की परंपराये गहोई जाति में होने वाले विवाहोत्सव पर भी अपनायी जाती रही तथा उस समय महिलाओ द्वारा गाये जाने वाले गीतों में वर के रूप में राम और वधू के रूप में सीता का नाम भी लिया जाता रहा है। इसलिए प्रतिवर्ष जनवरी 14 संक्रांति को “गहोई दिवस“ घोषित कर दिया जो सूर्य उपासना का एक महान पर्व है।
सन् 2000 में जबलपुर से श्री फूलचंद सेठ द्वारा “गहोई सुधासागर“ नाम से विस्तृत ग्रंथ प्रकाशित किया गया जिसमें अब तक गहोई जाति के उदभव विकास के रूप में प्रचारित सभी विवरण अंकित है और “कुबेर“ के बारे में भी प्रचलित “शाखोच्चार“ का उल्लेख है परन्तु इस ग्रंथ में प्रामाणिक रूप से किसी एक को मान्यता देने का निर्णय नही लिया गया है।
इस संबंध में एक पौराणिक कथा शिवपुराण में अंकित है। यह पूरी कथा शिव पुराण में अध्याय 13 से 20 तक है और इस कथा में “गहोई“ शब्द का भी उल्लेख है। जो भगवान शिव के द्वारा वैकावण को यह आर्शीवाद दिया गया है। “तुम गुहोइयों के अधिपति होगे“। कुबेर की उपाधि दी और विश्व की समस्त सम्पत्ति का अधिपति बनाकर उन्हे अपना सखा घोषित किया तथा कैलाश के समीप अलकापुरी उनका निवास स्थान बनाकर दिया और कुबेर की मान्यता श्रेष्ठ तथा पूज्य देवो में की गई। गीता में भगवान ने उसे अपनी विभूति में गिनाया है श्री वद्रीनारायण तीर्थ में जो मूर्ति है वहाँ कुबेर की भी एक मूर्ति है। दिवाली के दो दिन पूर्व धनतेरस को कुबेर यंत्र की स्थापना करने और उनकी उपासना करने के बाद ही अमावस्या को लक्ष्मीपूजन किया जाता है अतः पूज्य कुबेर को जो धनाध्यक्ष है हम वैश्य वर्ण के लोग कैसे उपेक्षित कर सकते है जब कि वह शिव के वरदान से गहोईयो के अधिपति“ कहे गये है। इस सम्बन्ध में जो पोराणिक कथा है उसके पूरा उल्लेख रामस्वरूप ब्रजपुरिया द्वारा सन 2005 में प्रकाशित पुस्तक गहोई सूत्र में है ।
जिसको निज जाति निज देश पर, नहीं हुआ अभिमान | वह नर नहीं, नर पशु निरा है, और है मृतक समान ||
उक्त पंक्तियाँ पढ़ते ही दद्दा का नाम से विख्यात स्व श्री मैथलीशरण गुप्त को स्मरण करने मात्र से ही गहोई उपजाति के कौशल को भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में विभिन्न क्षेत्रों में अपनी दक्षता का कौशल प्रर्दशित करते समस्त गहोई बंधूजन आज भी गौरव का अनुभव करते हैं |
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि स्व श्री मैथलीशरण गुप्त का राष्ट्र कवि होना गहोई उपजाति नहीं वरन सम्पूर्ण वैश्य जाति का माथा गर्व से ऊपर उठा देता है | दद्दा कि उपजाति का संछिप्त परिचय इसी लेख का हिस्सा है | गहोई उपजती की देश व विदेश में लगभग प्रत्येक क्षेत्र में महान विभूतियाँ रही हैं परन्तु निर्विवादित रूप से राष्ट्रकवि की पदवी से सम्मानित श्री मैथलीशरण गुप्त का नाम सबसे प्रथम स्थान पर लिया जाता है |
हिन्दू धर्म - चार युग - वर्ण व्यवस्था व जाति प्रथा :
हिन्दू धर्म के अनुसार चार युगों सतयुग ( १७२८००० वर्ष), त्रेतायुग ( १२९६००० वर्ष), द्वापरयुग (८६४००० वर्ष) के उपरांत हम वर्तमान में कलयुग (४३२००० वर्ष) में हैं, जिसमें से अभी ५००० से अधिक वर्ष व्यतीत हुए हैं | वेद और गीता भारतीय आर्यों के प्राचीनतम एवं अति महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं |
गीता में भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार " चातुर्वन्य मया सृष्टा गुण कर्म विभागश:" से स्पष्ट है की कर्मानुसार ही वर्ण व्यवस्था महाभारतकाल से पूर्व ही उत्तर वैदिक काल में भी वर्ण व्यवस्था थी | कालांतर में वर्ण व्वयस्था ही जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गयी | दोनों में प्रमुख रूप का यह अंतर है की वर्ण का निश्चय व्यवसाय अथवा कर्म से होता था परन्तु जाति का निश्चय जन्म से अथवा कुल से होने लगा | समय बीतने के साथ ही जाती व्यवस्था का वर्ण व्यवस्था पर भारीपन आम व्यक्ति के व्यवहार व सामाजिक ताने बाने के रूप में परिलक्षित होने लगा था | एक वर्ण के लोग एक ही व्यवसाय करते थे परन्तु एक ही जाति के लोग अनेकों व्यवसाय कर सकते थे |
वर्ण व्यवस्था में सहभोज, यहाँ तक की विवाहों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था, अपितु जाती व्यवस्था में सहभोज व अंतरजातीय विवाह भी प्रतिबंधित हैं |
वर्ण व्यवस्थ व जाती प्रथा के अंतर को समझने के लिए दोनों के बीच मौलिक अंतर समझना जरूरी है |
जाती व्यवस्था की जटिलताओं के चलते समाज में संकीर्णताएं आती गयीं एवं अनेक उपजातिओं नें भी जन्म ले लिया | जाने माने लेखक श्री नेत्र पाण्डेय की "भारत वर्ष का सम्पूर्ण इतिहास" नामक पुस्तक के अनुसार भी भारत में जाति प्रथा को २००० वर्ष से अधिक प्राचीनतम माना गया है |
वैश्य जाति की उपजातियों में अग्रवाल, गहोई, खंडेलवाल, पुरवार, बाथम, गुलहरे, ओमरे, डिढोमर, कोसर, ओसवाल व खारव्वापुर्वर आदि प्रमुख हैं | वैसे भी उपजातियों के गोत्र व आंकनों में कालांतर के साथ हुए उप्भ्रंशों के बाद भी समानताएं स्पस्ट रूप से परिलक्षित होती हैं |
वैश्य जाति की प्रमुख उपजाति 'गहोई' के बारे में सटीकतम व तथ्य परक अवधारणाओं को सूक्ष्म एवं रुचिपरक विधि से यहाँ पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है |
गहोई वैश्य कौन हैं ??
परिचय
वर्तमान समय में विभिन् क्षेत्रों में अपनी काबलियत का डंका बजाने वाले भारतीयों में वैश्य वर्ग की एक उपजाति 'गहोई वैश्य' के बारे में संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है |
गहोई समाज में प्रचलित परिपाटियों के आधार पर यह स्थापित है की प्राचीनकाल से गहोई वैश्य महाराज दशरथ के मंत्री श्री सुमंत जी के वंसज हैं | हिन्दू धर्म में विवाह के समय मंडप, तेल चढ़ना, कंगन बांधना व खुलना जैसे प्रमुख नेग प्रचलित हैं | विभिन्न वैश्य वर्गों में यह नेग लड़के वाला अपने ही घर पर करने के बाद ही बारात ले जाता है | केवल गहोई वैश्यों के उपरोक्त नेग-संस्कार वधु पक्ष के घर पर ही संपन्न होते हैं | तथ्य परक है की प्रभु श्री रामचन्द्र जी के विवाह वर्णनअनुसार, भगवान श्री राम का मुन्ड़प, तेल चढ़ना, कंगन बंधना, व खुलना आदि संस्कार / नेग राजा जनक के द्वार पर ही हुए थे एवं उन्ही नेग / संस्कारों का अनुकरण श्री सुमंत्र जी नें अपने वंश में अपना लिया था |
इस सम्बन्ध में स्व. श्री राधेश्याम गुप्त (झुंदेले), सेंथल, बरेली उ.प्र. द्वारा लिखित उपलब्ध लेखों का उपसगाहर भी मानने योग्य है की "गहोई वैश्य, वैदिक वर्ण व्यवस्था युग की वैश्य जाति है | गहोई शब्द किसी संस्कृत वैदिक शब्द से बना है एवं कालांतरवश, वर्तमान में अपभ्रंश रूप में गहोई बोला जाता है |
श्री राधेश्याम गुप्त लिखित " जातीय इतिहाश और वंशावली सम्बन्धी आवश्यक द्रष्टव्य नोट्स" में ही उक्त संस्कृत वैदिक शब्द 'गुहा' के बारे में भी काफी प्रकाश डाला है | इसके अतिरिक्त विद्वान मनीषियों में प्रमुख श्री जानकी प्रसाद जी गुप्त (झुंदेले), सेंथल नें भी गहोई विषयों के जातीय इतिहास में "गहोई शब्द की मूल खोज" नामक शीर्षक में गहोई शब्द के संदर्भ में महाभारत के अंतर्गत विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र में भगवान विष्णु के नामों में " करणं कारणं कर्ता विकार्तांग हनो गुह: गुह्यो गभीरो गहनों गुप्तश्च्चक गधाधर:" पाठ पढने का भी उल्लेख किया गया है |
गहोई समाज के प्रमुख लेखक एवं विद्वान मनीषियों - गहोई समाज के इतिहास व गोत्रों इत्यादि के बारे में लेखक अथवा संकलनकर्ता के रूप में अपनी कृतियों को प्रकाशित करवाने वाले मुख्य विद्वान मनीषीगण निम्नानुसार हैं:
श्री गोपीलाल (गोपीनाथ) जी सेठ, जबलपुर, म.प्र.
श्री जानकी प्रसाद जी गुप्त (झुंदेले), सेंथल, बरेली, उ.प्र.
श्री पन्ना लाल जी पहारिया, कोंच, उ.प्र.
श्री राधेश्याम गुप्ता (झुंदेले), सेंथल, बरेली, उ.प्र.
श्री झुंडीलाल जी मिसुरह, उरई, जालौन, उ.प्र.
श्री नारायण दास जी कनकने, लश्कर, ग्वालियर, म.प्र.
श्री गोविन्द दास जी सेठ, (झाँसी वाले), कोलकत्ता, प. बं.
श्री राम दास जी नीखरा, झाँसी, उ.प्र.
श्री मुक्ता प्रसाद जी तरसौलिया, कानपुर, उ.प्र.
श्री झुंडीलाल जी की पुस्तक "गहोई वैश्य जाति का सचित्र इतिहास".में गहोई जाति की जन्मभूमि, गोत्र, आंकने, गहोई जाति के जैनियों से सम्बन्ध, वेशभूषा, प्रमुख संपत्तियां व ट्रस्ट, गहोई सती स्थान व शिक्षा प्रसार समितियों आदि विषयों पर तथ्य परक विवरण दिया है | इन्होनें सन् १९२० ई. में वकालत की परीक्षा पास करने के उपरांत वकालत के साथ साथ सन् १९२१ ई. में सामाजिक विकास की कड़ी में जुड़ते हुए " गहोई वैश्य के सेवक " नाम से मासिक पत्र भी निकला | आज के समय में यह जानकार आश्चर्य ही होगा की श्री झुंडीलाल जी नें श्री रासिकेंद्र जी को साथ लेकर आजादी से २४ वर्ष पूर्व, १९२४ में कालपी में ' महासभा का राष्ट्रीय अधिवेशन' आहूत किया था |
राष्ट्रीय स्तर पर संचालित होने वाले गहोई महासभा को वर्ष १९१४ ई. में जन्म देने वाले श्री नाथूराम रेजा को समस्त गहोई समाज की ओर से ननम प्रेषित करने का प्रयास कर रहा हूँ | गहोई महासभा के वर्तमान कार्य शैली, पदाधिकारियों का विवरण एवं सूक्ष्म संविधान भी पाठकों को उपलब्ध कराने का प्रयास रहेगा |
महासभा के वर्ष १९२४ ई. में कालपी में हुए विराट अधिवेशन से ही समाज एवं संगठन में एक नई स्फूर्ति का संचार हुआ था | उल्लेखनीय है की सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के प्रयास उसी समय प्रारंभ किये गए थे एवं इसी कारण गहोई उपजाति के वर्तमान विकास का श्रेय उनके पूर्वजों को ही जाता है |
वर्ष १९२४ ई. में हुए अधिवेशन में लिए गए क्रांतिकारी निर्णय आज की पीढी को अवगत करने हेतु कृम्बद्ध रूप का PTO लिखा है
गहोई उपजाति के गोत्र व आंकने:
गोत्र व आंकने के सन्दर्भ में "जाति भास्कर" नामक पुस्तक के अतिरिक्त अन्य प्रमुख लेखकों द्वारा गोत्र व आंकनों के विवरणिका निम्नानुसार ही प्रतीत होती है | क्षेत्रानुसार उच्चारण व प्रचिलित लेखन में कालातर में हुए अपभ्रंश के कारण अश्पष्ठ्ता की श्तिति में निकटतम शब्द को चुनना ही उचित प्रतीत होता है |
गहोई जाति जन्म स्थान, कर्म भूमि एवं वर्तमान मुख्य निवास स्थान:
प्रत्येक मनुष्य को अपनी जन्मभूमि पर गर्व होना तो स्वाभाविक है | निर्विवादित रूप से गहोई वैश्यों की उत्पत्ति बुंदेलखंड में ही रही है | गहोई जाति के पूर्वज यहीं जन्मे एवं तदुपरांत यहीं से ही अन्यत्र स्थानों को गए |
आज पूरे भारतवर्ष में फैले गहोई परिवार कालांतर में बुंदेलखंड से जाकर ही वहाँ बसे हैं | बुंदेलखंड का विस्तार मध्य भारत के उत्तरी भाग में है | गहोई जाति का उत्पत्ति स्थल बुंदेलखंड होने के कारण ही इस जाति के महाराज दशरथ के मंत्री श्री सुमंत जी के वंसज होने के तर्क को और बल मिलता है | यह तो निर्विवादित ही है की वनवास को जाते समय भगवान् श्रीराम को अयोध्या की सीमापार कर चित्रकूट तक श्री सुमंत जी ही विदा करने गए थे | ऐसा भी माना जाता है की चित्रकूट के निकट श्री सुमंत के परिजन निवास करते थे एवं सामने न रहकर भी प्रभु श्रीराम नें सेवाभाव से अभिभूत होकर वनवास का अधिकतम समय चित्रकूट में ही काटा था |
गहोई जाति के शिरोमणी कवि सम्राट श्री मैथिलीशरण गुप्त (कनकने), एवं प्रख्यात कवि श्री द्वारका प्रशाद जी रासिकेंद्र की जन्मभूमि एवं क्रीडा स्थली बुंदेलखंड ही रही है | इसी कड़ी में लगभग ४०० वर्ष पूर्व श्री सुखदेव बडेरिया (भांडेर निवासी) की 'वनिक प्रिया' नाम की पुस्तक अपने समय की श्रेष्ठतम रचनाओं में गिनी जाती थी |
"कृषि, वाणिज्य, गो-रक्षा वैश्य कर्म स्वभावजय" को मानने वाली गहोई जाति के वीरों का इतिहास में खूब बखान किया गया है | गहोई वीरों में लाला हरदौल, चिरस्मरणीय श्री हरजूमल गहोई (महाराजा छत्रसाल के सर्वाधिक विश्वशनीय सेनापति), श्री गंगाराम चउडा की वीरता के कारण ही बुंदेलखंड के विभिन्न क्षेत्रों में इनके चबूतरे बने हुए हैं एवं घर घर आज भी पूजे जाते हैं | गहोई वीरों की चर्चा हो तो गहोई वीर नवलसिंह गोहद को गहोई समाज के साथ-साथ उस समय के शक्तिशाली महाराजा सिंधिया के परिजन भी सदैव याद रखते हैं |
महाराजा सिंधिया की फौज से मुकाबला करते समय रण में शीश कर जाने पर गहोई वीर नवलसिंह का रुंद लड़ता रहा था | "ग्वालियर नामे" नामक पुस्तक में लिखे दोहे को पढने मात्र से ही गौरव का अनुभाग होता है :
" नवल सिंह से सूर जो " लून्वें बीस पचास ते पटेल के काक को करते निपट विनास "
कृषि क्षेत्र में गाहोई जाति का लोहा मानना पड़ेगा की यहाँ कई अंचल तो ऐसे भी हैं की एक ही गाव की जमीन में सभी प्रकार की फसलें पैदा की जाती हैं | गेहूं, चना, जौ, मटर, मसूर, लाही, अलसी, धान, जीरा, गन्ना, आलू, मूंगफली, शकरकंद, आदि सभी वस्तुएं कई गाओं में पैदा होती हैं |
कालांतर में व्यवसाय आदि की द्रष्टि से कई गहोई परिवार देश के विभिन्न भागों में पुनर्स्थापित हो गए एवं समस्त भारतवर्ष में अपनी कार्य कुशलता, कृषि एवं व्यापर के क्षेत्र में डंका बजाया | इनमें कलकत्ता, बम्बई, बंगलोर, दिल्ली, नागपुर, इंदौर, कानपुर, आगरा, सीतापुर, बरेली ( सेंथल व नवाबगंज), पूरनपुर, ओयल, लखीमपुर खीरी, मुरादाबाद, फर्रुखाबाद, पटना, मद्रास, सहारनपुर, मेरठ, आदि स्थानों पर कम संख्या में होने के बाद भी गहोई जाति के लोगों नें अपना विशिष्ठ स्थान सदैव स्थापित रखा है |
वर्तमान में गहोई परिवारों के युवा वर्ग नें शिक्षा के क्षेत्र में ऊंची बुलंदियों को छूने के बाद देश ही नहीं वरन विदेशों में भी विज्ञानं, शिक्षा, कंप्यूटर, तकनीकी, वित्त, चिकित्सा व प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में भी अपने झंडे गाड रखे हैं |
जिन जिलों में गहोईयों की जनसँख्या अधिक है वहाँ पर ये राजनितिक रूप से भी समर्थ हैं | इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है की उरई, मऊरानीपुर, कटनी, डबरा आदि नगर पालिकाओं के अध्यक्ष समय-समय पर गहोई रहे हैं |
गहोई उपजाति के " गई वैश्यों" के नाम से मुरादाबाद और आसपास के क्षेत्रों में " गई वैश्यों" के नाम से बसे कई गहोई परिवार सभासदों के रूप में राजनितिक रूप से भी समाज का नेतृत्व करते हैं |
इस कड़ी में ९५% से अधिल मुस्लिम आबादी वाले क़स्बे - सेंथल (बरेली) में रहने वाले गहोई परिवार पूरे जनपद में एक विशिष्ठ प्रतिष्ठा रखते हैं | उल्लेखनीय है की सेंथल कस्बे में गहोई परिवारों के पूर्वजों नें उच्च न्यायलय में मुकदमा जीतकर मस्जिद के ठीक बराबर में "श्री राधा कृष्ण मंदिर" का निर्माण करवाया था जिसमें आज भी अनवरत रूप से पूजा अर्चना की जाती है |
इसी प्रकार कलकत्ता, दिल्ली, पटना, नागपुर, व इंदौर में अग्रणी व्यवसाइयों में स्थापित गहोई परिवारों को कौन नहीं जानता |
विकाशशील देशों के आर्थिक व सामाजिक मामलों के जानकार, भारतीय विदेश सेवा से सेवानिवृत डा. लक्ष्मी नारायण पिपरसैनियाँ की ख्याति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है | डा. पिपरसैनियाँ भी गहोई समाज में वांछित जाग्रति हेतु सदैव अमूल परिवर्तन के कट्टर पक्षधर रहे हैं | वर्तमान में वयोवृद्ध रूप में भी समाज को दिशा देने का इनका प्रयास सतत जारी रहता है |
पूर्ण नहीं है मौलिक भी नहीं है पर एक अच्छा प्रयास बिल्कुल है आपको मेरा साधुवाद
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