राव शेखा का घर-शेखावाटी। इस अंचल में चुरू, सीकर और झुझंनू सम्मिलित हैं। परीलोक जैसी हवेलियाँ, इस क्षेत्र को पर्यटकों के लिए स्वर्ग बनाती हैं। इस हवेलियों के वास्तुशिल्प और इनकी दीवारों पर की गई रंग बिरंगी, अद्भुत चित्रकारी देखकर, हर कोई ठगा सा रह जाता है। लगता है हम किसी कल्पना लोक में आ गए हैं। बहुरंगी राजस्थान के पर्यटन को बढ़ावा देने में, यहाँ की अद्भुत हवेलियों का विशेष सहयोग है। राजस्थान के उत्तरी भाग में स्थित शेखावाटी अपने शिल्प और स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। यहाँ की हवेलियाँ और भव्य आशियाने, अट्ठारहवीं और बीसवीं शताब्दी के मध्य बनाए गए थे। शेखावाटी में बड़े-बड़े सेठों - बिड़ला, डालमियां, चमड़िया, पोद्दार, कानोड़िया, गोयनका, बजाज, झुनझुनवाला, रूइया, खेमका, सर्राफ, सिंहानिया की हवेलियाँ, अधिकतर खाली पड़ी हैं। यहाँ सिर्फ चौकीदार रहते हैं, क्योंकि सेठों के परिवार अधिकतर बड़े शहरों या विदेशों में हैं। इन सेठों ने विदेशों के खूब दौरे किए और जब भारत के गाँवों में बैलगाड़ी और घोड़ागाड़ी से आगे लोगों ने कुछ नहीं देखा था, उस समय इन सेठों ने अपनी हवेलियों में विदेशों में देखी कारों, हवाई जहाजों के चित्र बनवाए। आज जब विदेशी यहाँ आकर यह हवेलियाँ देखते हैं तो चित्रकारी को देखकर अचम्भित रह जाते हैं। पौराणिक कथाओं, भगवान राम और कृष्ण की वीरता की कथाएं और रंग बिरंगे फूल, पत्ते, बेल-बूंटे, चिड़ियाँ, मोर, शेर, सांप, हिरण, हाथी-सभी तरह के पशु- पक्षियों के चित्रों से सुसज्जित हवेलियाँ उस समय की कला यात्रा को जीवंत करती हैं। यहाँ हवेलियों के अलावा मंदिर व बावड़ियाँ भी कलात्मक रूप से सजाई गई हैं।
लेख साभार: http://www.tourism.rajasthan.gov.in/hi/shekhawati.html
शेखावाटी में दिल के झरोखे सी हैं ये अग्रेजों के जमाने की हवेलियां
इस धरा की पहचान अपनी विविधता के लिए होती रही है...। यहां का कण-कण संस्कृति व विरासत की गाथा बयां करता है। इस धरती का अतीत हमें आज भी ऊजाज़् देता है। ऐसा वैभवशाली अतीत जिसकी ख्याती केवल देश में ही नहीं, बल्कि सात समंदर पार भी है। देश-विदेश के कोने-कोने से हर साल यहां पयज़्टक आते हैं हमारी विरासत निहारने...। यही नहीं, इस धरती ने उन सपूतों को जन्म दिया है जो आज देश की अथज़्व्यवस्था में खासा दखल रखते हैं। लेकिन, इस उजाले का एक स्याह पक्ष भी है।
इतनी सम्पन्नता व वैभव के बाद भी आज यहां की विरासत अपने आखिरी दिन गिन रही है। यहां की बिखरती विरासत और इस दिशा में सरकार की उदासीनता निराश करने वाली है। विश्व पयज़्टन दिवस के अवसर पर सीकर जिले की विरासत व पयज़्टन क्षेत्र की चुनौतियों की दशा व दिशा बतलाती लक्ष्मणगढ़ से प्रभाष नारनौलिया, फतेहपुर से निरंजन पारीक, रामगढ़ शेखावाटी से लक्ष्मीकांत मिश्रा की रिपोटज़्।
पेरिस की नादली से लें प्रेरणा
फतेहपुर. पेरिस की नादील ली प्रिंस एक दशक पहले जब फतेहपुर घूमने आईं, तो उन्हें यहां की भित्ति चित्र से सजी हवेलियों ने काफी आकषिज़्त किया। लेकिन बिखरती विरासत को देखकर उन्हें काफी निराशा भी हुई। नादील ने यहां की विरासत को संवारने का बीड़ा उठाया और एक हवेली खरीदकर आटज़् गलैरी की स्थापना की। लुप्त होने की कगार पर पहुंची भित्ति चित्र कलाएं पुन: जीवित हो उठी हैं।
इठलाती विरासत पर हावी तरक्की
लक्ष्मणगढ़. सांस्कृतिक धरोहर सहेजे लक्ष्मणगढ़ की गिनती हेरिटेज सिटी के तौर पर होती है। यहां की प्रमुख विरासतों मेंं ऐतिहासिक दुगज़्, चार-चौक की हवेली, प्राचीन मन्दिर तथा महाजनों द्वारा निमिज़्त जोहड़, उत्तम दृश्य व बेजोड़ स्थापत्य कला की पुरानी हवेलियां हैं। लेकिन, प्रवासियों के मोहभंग होने तथा सरकारी उदासनीता ने धरोहरों को खुदज़्बुदज़् कर दिया है। समय के साथ ही हवेलियों की जगह कंक्रीट की इमारतें अपनी जगह बनाती जा रही हैं।
मुगल-ब्रितानी दौर की कला
ऐतिहासिक इमारतों व धरोहरों के रूप में यहां की भव्य हवेलियां सबसे प्रमुख हैं। उत्तर-मुगल तथा ब्रितानी दौर की स्थापत्य कला तथा हिन्दू-मुस्लिम शैली की चित्रकारी से युक्त लक्ष्मणगढ़ की ऐतिहासिक हवेलियां बरबस ही आकषिज़्त कर लेती हैं। इन हवेलियों की दीवारों पर नक्काशी बेहद चिकनी, आकषज़्क तथा उच्चस्तरीय हैं। भित्ति-चित्रों में ब्रितानी दौर का आधुनिक-दृष्टिकोण स्पष्ट दिखाई देता हैं। वहीं पुरानी हवेलियों में हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य शैली का सुन्दर मिश्रण हैं।
125 हवेलियां, 36 छतरियां पर...
रामगढ़ शेखावाटी
रामगढ शेखावाटी को सेठों का रामगढ़ कहा जाता है। पौद्दार सेठों की विशाल ताजमहल से बतियाती छतरियंा पयज़्टकों को आकषिज़्त करती हैं। रामगोपाल पौद्दार की छतरी के ढोले पर रंग बिरंगे भ्ित्तिचित्रों के माध्यम से रामायण के चित्र अंकित हैं। कई फिल्मों की शूटिंग भी हो चुकी है। यहां तीन किमी. के दायरे में 125 हवेलियंा, 36 छतरियंा व 100 मंदिर है, लेकिन ये आज वजूद के लिए जूझ रहे हैं। सरकार की उदासीनता विरासत पर भारी दिख रही है।
सीकर. शहर में पयज़्टन की अपार संभावनाएं है, पर जिम्मेदारों की अनदेखी भारी पड़ रही है। सीकर आने के लिए पयज़्टकों को मश्क्कत करनी पड़ती है। सरकार की अनदेखी की वजह से होटल इंडस्ट्री भी बहुत फल-फूल नहीं पाई है। सैलानियों को जानकारी देने के लिए गाइड की भी कोई व्यवस्था नहीं है। जहां अन्य शहरों में पयज़्टन को बढ़ावा देने की होड़ लगी है, वहीं सीकर जिले में पयज़्टकों के लिए मूलभूत सुविधाएं ही नदारद हैं। हषज़् पवज़्त को सालों से पयज़्टन के लिए विकसित किया जा रहा है लेकिन आज भी हकीकत सबके सामने है।
चांदसिंह की छतरी
नेछवा के पास गनेड़ी में स्थित इस छतरी को पुरातत्व विभाग ने संरक्षित स्मारक तो घोषित कर दिया लेकिन कभी इसकी सुध तक नहीं ली। अपनी बनावट के लिए मशहूर इस छतरी की पत्थरों से चिनाई बेजोड़ है। सरकार यदि ध्यान दे तो क्षेत्र पयज़्टन के क्षेत्र में विकसित हो सकता है। आज बस जरूरत है तो यहां की धरोहर को सहेजने की। विरासत को एक मंच देने की।
साभार: patrika.com/-news/special-report-on-world-heritage-day-1335662
Open Art Gallery of Wall Paintings Havelis of Shekhawati
अध्त्तचित्रों की ओपन आर्ट गैलेरी शेखावाटी की हवेलियाँ
भित्तिचित्रों की ओपन आर्ट गैलेरी - शेखावाटी की हवेलियाँ
शेखावाटी की हवेलियाँ आम्बेर के कच्छवाहा राजकुमार शेखा (ई.1433-88) ने आम्बेर राज्य के उत्तर में काफी बड़ा रेगिस्तानी क्षेत्र अपने अधीन किया जो शीघ्र ही उसके बेटों-पोतों ने छोटे-छोटे ठिकानों में बांट लिया। यह क्षेत्र राव शेखा के नाम पर शेखवाटी कहलाया। इन ठिकानों में बहुत से व्यापारी आकर बस गए क्योंकि यह क्षेत्र सिल्क रूट पर स्थित था जिससे होकर पश्चिमी देशों के बहुत से व्यापारी अपना माल लेकर भारत आते थे और भारत से नया माल खरीदकर पश्चिमी देशों के लिए विभिन्न बंदरगाहों तक ले जाते थे। शेखवाटी के सेठ इस विदेशी माल को खरीदते थे तथा उसे देश के अन्य भागों में ले जाकर बेच देते थे।
इस काल में जिस प्रकार राजपूत शासक एवं ठाकुर, गढ़ अथवा दुर्ग में निवास करते थे, उसी प्रकार राजस्थान का समृद्ध श्रेष्ठि वर्ग हवेलियों में निवास करता था। ये हवेलियाँ विशाल महलों के समान होती थीं जिनमें विलासिता के समस्त सुख-साधन उपलब्ध रहते थे। इन हवेलियों में महंगी चित्रकारी करवाई जाती थी तथा उन्हें विभिन्न प्रकार की मूर्तियों, झरोखों, कलात्मक स्थापत्य एवं गलीचों आदि से सजाया जाता था। दीवारों, छतों एवं किवाड़ों पर सोने की कलम का काम करवाया जाता था तथा छतों और दीवारों पर सोने की मीनाकारी करवाई जाती थी।
ई.1818 में जब राजपूत रियासतें ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ अधीनस्थ संधियां करने पर विवश हुईं तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने पारम्परिक सिल्क रूट को बर्बाद कर दिया क्योंकि अब कम्पनी अपने माल के अतिरिक्त और किसी व्यापारी को भारत में व्यापार नहीं करने देना चाहती थी। इसलिए शेखावाटी के सेठ अपने पारम्परिक व्यापार से हाथ धो बैठे। ई.1820 के निकट शेखावाटी के व्यापारी, अपनी हवेलियों को छोड़कर कलकत्ता, मद्रास तथा बम्बई आदि बंदरगाहों के आसपास जाकर बसने लगे ताकि यूरोप से आने वाले ईस्ट इण्डिया कम्पनी के व्यापारिक जहाजों से सौदा खरीद कर उसे देश के अन्य हिस्सों में ले जाकर बेच सकें तथा अपना माल यूरोपीय सौदागरों को बेच सकें। इन व्यापारियों ने अपनी हवेलियों को अपने पैतृक गांवों में बने रहने दिया। अब वे शादी-विवाह, धार्मिक आयोजन एवं पारिवारिक उत्सवों में भाग लेने के लिए अपनी हवेलियों में लौट कर आते थे।
एक लोकगीत के अनुसार शेखावाटी में कभी 22 कोट्याधिपति सेठ रहते थे जो भारत के सर्वाधिक धनी परिवार थे। इनमें अग्रवाल, मित्तल, गोयनका, सिंघानिया, खेतान, मोदी, कोठारी, मोरारका, झुंझुनवाला, पोद्दार, रुइया, बिड़ला, डालमिया, लोहिया, जालान, ओसवाल आदि प्रमुख थे। इन सेठों के अपने परिवारों के साथ कलकत्ता, बम्बई एवं मद्रास आदि स्थानोें को चले जाने के कारण वर्ष के अधिकांश दिनों में ये हवेलियाँ सूनी दिखाई देने लगीं। जब इन सेठों की नई पीढ़ियां तैयार हुईं तो ये हवेलियाँ पूरी तरह से उपेक्षित होने लगीं।
शेखवाटी क्षेत्र 13,784 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत है जिसमें सेठों की पुरानी हवेलियाँ आज भी दिखाई देती हैं। यद्यपि अब बहुत सी हवेलियाँ गिर गई हैं या गिरने की अवस्था तक पहुंच गई हैं तथापि बहुत सी हवेलियाँ अब भी अच्छी दशा में हैं जिन्हें देखने के लिए विश्व भर से पर्यटक आते हैं। यही कारण है कि शेखवाटी को आज विश्व की विशालतम ओपन एयर आर्ट गैलेरी कहा जाता है।
देश की आजादी के बाद इन सेठों की नई पीढ़ियों ने इन हवेलियों को बेचना आरम्भ किया। दिल्ली से निकट होने के कारण इस क्षेत्र में पर्यटन की संभावनाएं मौजूद थीं इसलिए बहुत सी हवेलियों में होटल खुल गए। बगड़ नामक कस्बे में सेठ पीरामल चतुर्भुज माखनिया की हवेली ई.1928 में बनी थी। सेठ पीरामल इस हवेली को छोड़कर बम्बई चला गया। दिल्ली के निकट स्थित होने के कारण शेखावाटी में सबसे पहले इसी हवेली में होटल खुला। इस हवेली की दीवारों पर उड़ती हुई परियों, देवताओं एवं देवी-देवताओं के फ्रेस्को (भित्तिचित्र) बने हुए हैं। इन भित्तिचित्रों पर अंग्रेजी चित्रकला एवं संस्कृति का प्रभाव दिखाई देता है क्योंकि अनेक अंग्रेज परिवार ई.1803 से जयपुर में रह रहे थे। डूंडलोद ठिकाने के बैठकखाने में डूंडलोद ठाकुर के मन-पसंद घोड़ों के चित्र बने हुए हैं।
शेखावाटी की हवेलियों के भित्तिचित्रों का निर्माण अनेक प्रकार की तकनीकों, अनेक प्रकार के रंगों, अनेक प्रकार के भावों एवं अनेक प्रकार के विषयों आदि को लेकर हुआ है। कहीं-कहीं ये पेंटिंग्स वृहद कैनवास के साथ उकेरी गई हैं तो कहीं-कहीं ये अत्यंत सूक्ष्म चित्रों एवं बेलबूटों के साथ उपस्थित हैं। इनमें जनजीवन की झांकियाों से लेकर धार्मिक प्रसंग, रागमालाएं, बारहमासा, लोक विश्वास, ऐतिहासिक घटनाएं, ऐतिहासिक व्यक्तित्व, पुष्प एवं लताएं तथा प्रेमाख्यान चित्रित किए गए हैं।
छतों पर रसमण्डल अर्थात् वृत्ताकार नृत्य करती हुई नृत्यांगनाएं, कृष्ण एवं गोपियों का महारास आदि का चित्रण किया गया है। प्रेमाख्यानों में ढोला-मारू का आख्यान सर्वाधिक चित्रित हुआ है। कुछ स्थानों पर बींजा-सोरठ, सस्सी-पन्नू, लैला-मजनूं एवं हीर-रांझा के प्रेमाख्यान भी चित्रित किए गए हैं। शेखावाटी की हवेलियों के भित्तिचित्रों में प्रायः प्राकृतिक रंगों का ही प्रयोग हुआ है। सफेद रंग दर्शाने के लिए हल्का पीला रंग प्रयुक्त किया जाता था जो आम की पत्तियों पर गौमूत्र छिड़ककर बनाया जाता था। सिंदूर, सोने एवं चांदी से बने रंग केवल पूजाघरों एवं शयनागारों में प्रयुक्त होते थे। ई.1860 से लेकर ई.1914 की अवधि में बने चित्रों में जर्मनी में बने कृत्रिम रंगों का भी बहुतायत से प्रयोग हुआ है। ई.1914 में प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ हो जाने से जर्मनी से रंग का आना बंद हो गया। इसलिए विश्वयुद्ध काल के चित्रों में ये रंग अनुपस्थित हैं।
सेठ अर्जुनदास गोयनका हवेली संग्रहालय की स्थापना डूंडलोद कस्बे में ई.1875 में बनी गोयनकाओं की हवेली में की गई है। यह 19वीं शताब्दी में सेठों की जीवनशैली को दर्शाने वाली प्रमुख हवेलियों में से एक है। इसमें पुरानी शैली के 20 कक्ष बने हुए हैं। इसका अलंकृत दुर्गनुमा द्वार, आगंतुक को सीधे ही मर्दाना कक्ष में ले जाता है। बाहरी लोगों के लिए यहीं तक आने की अनुमति होती थी। इस कक्ष में एक गद्दे पर चार मनुष्याकार प्रतिमाएँ प्रदर्शित की गई हैं जिनमें से एक व्यापारी है तथा तीन गा्रहक हैं। इस बरामदे से बाहर की तरफ पंखा हिलाने वाला दिखाई दे रहे है जो छत में लटके बड़े कपड़े के पंखे को हिलाकर हवा कर रहा है। यह व्यक्ति प्रायः गूंगा और बहरा होता था ताकि व्यापार की गोपनीयता बनाए रखी जा सके।
इस हवेली के जनाना भाग में उस काल की स्त्रियों की दिनचर्या एवं जीवन शैली का दृश्य बनाया गया है। औरतों को चक्की, बड़े आकार के बर्तन, चकला-बेलन, मिट्टी के घड़े, पनियारा आदि का प्रयोग करते हुए दिखाया गया है।
नवलगढ़ स्थित मोरारका हवेली को 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सेठ जयराम दास मोरारका ने बनवाया था। यह लम्बे काल तक अनुपयोगी अवस्था में पड़ी रही। वर्ष 2014 में डॉ. हॉचलैण्ड के निर्देशन में इस हवेली का पुनरुद्धार करवाया गया। इस हवेली के फर्श एवं दीवारों का जीर्णोद्धार कार्य परम्परागत निर्माण सामग्री से करवाया गया जिससे ये अपने मूल स्वरूप में दिखाई दें। इस हवेली में 700 भित्तिचित्र एवं 160 कलात्मक दरवाजों का पुनरुद्धार किया गया। नवलगढ़ में ही उत्तरा हवेली का भी जीर्णोद्धार करवाया गया। उत्तरा हवेली ई.1890 में सेठ केसरदेव मोरारका ने बनवाई थी।
सेठ आनंदी लाल पोद्दार ने ई.1902 में पोद्दार हवेली का निर्माण करवाया। इसे सेठ आनंदी लाल के पौत्र कांतिकुमार पोद्दार ने संग्रहालय तथा कला एवं सांस्कृतिक केन्द्र में बदल दिया गया है। हवेली में 11,200 वर्ग मीटर में बने 750 भित्तिचित्रों का जीर्णोद्धार करवाया गया। इसे सेठ आनंदीलाल के पुत्र रामनाथ पोद्दार के नाम पर रामनाथ पोद्दार संग्रहालय कहा जाता है।
इस हवेली में राजस्थानी जनजीवन की कई गैलेरी बनाई गई हैं जिनमें पारम्परिक वाद्य यंत्र, त्यौहार मनाने की विधियां, विभिन्न प्रकार के आभूषण, लघुचित्र, हस्तकलाएं, दुर्ग, महल, वधू, वेशभूषाएं, पत्थर की कलाएं, लकड़ी एवं संगमरमर की कलाकृतियां, पगड़ियां आदि भी प्रदर्शित की गई हैं।
रामगढ़ सेठों का नामक कस्बे में बनी हवेलियों में शेखावाटी क्षेत्र के सर्वाधिक भित्तिचित्र बने हुए हैं। वर्तमान समय में इस कस्बे को पेंटेड टाउन (चित्रित कस्बा) के नाम से ख्याति प्राप्त हो रही है। खण्डेलवाल परिवार ने एक शताब्दी पुरानी खेमका हवेली का जीर्णोद्वार करवाकर उसे रामगढ़ फ्रेस्को होटल में बदल दिया है। पोद्दारों से विवाद हो जाने के कारण सवलाका सेठों ने रामगढ़ कस्बे के द्वार के बाहर सवालका हवेली बनाई जो इस कस्बे की सबसे बड़ी हवेली है। इसकी छतों में फारस एवं बेल्जियम के कांच का प्रयोग करके धार्मिक प्रसंगों के चित्र बनाए गए हैं।
ई.1850 के आसपास शेखावाटी की हवेलियों के भित्तिचित्रों में अंग्रेजी सेनाओं के सैनिकों एवं उनके द्वारा प्रयुक्त होने वाली मशीनों का चित्रण होने लगा। कुछ चित्रों में उनके द्वारा प्रयुक्त पैडल स्टीमर्स तथा कोर्गो बोट्स भी दिखाए गए हैं। ई.1872 में बने एक भित्तिचित्र में रेलेवे का लोकोमोटिव रेल इंजन बनाया गया है। कुछ चित्रों में रेल के डिब्बों में स्त्री-पुरुषों के प्रेम-प्रसंगों को भी चित्रित किया गया है। 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में बने कुछ चित्रों में हाथी एवं ऊँटों के साथ साइकिल, कार, उड़ने वाले गुब्बारे, वायुयान आदि बने हुए हैं। उस काल में हवाई जहाजों को राजस्थान में चीलगाड़ी कहा जाता था। इसी काल में कुछ चित्रों में यूरोपीय औरतें ग्रामोफोन पर गीत सुनती हुई दिखाई गई हैं।
महनसर में बने नारायण निवास का निर्माण ई.1768 में हुआ था। अब यहाँ एक होटल चलता है। इसके निकट ही एक भवन सोने-चांदी की दुकान कहलाता है। इसका निर्माण ई.1846 में पोद्दार हवेली के अंतर्गत हुआ था। यह हवेली शेखवाटी की सर्वश्रेष्ठ चित्रित हवेलियों में से एक है। इसकी दीवारों पर सोने एवं चांदी की पत्तियां सजाई गई हैं। इसके भित्तिचित्रों में रामकथा, कृष्णलीला एवं भगवान विष्णु के अवतारों से सम्बन्धित दृश्य चित्रित किए गए हैं।
दिल्ली-बीकानेर मार्ग पर स्थित मण्डावा में 175 हवेलियाँ हैं। इनमें गुलाब राय लाडिया हवेली तथा मुरमुरिया हवेली में पूर्व एवं पश्चिम की भित्तिचित्र कलाओं का सुंदर संगम हुआ है। ई.1755 में मण्डावा ठाकुर ने अपने रावले के जनाना कक्षों में सुंदर भित्तिचित्र बनवाए। रावले के दीवानखाने (अतिथि बैठक कक्ष) में फैमिली-पोट्रेट लगे हुए हैं।
ई.1998 में फ्रैंच कलाकार नादिन ले प्रिंस ने नंदलाल देवड़ा की हवेली खरीदी। यह हवेली ई.1802 में बनी थी। नादिन ने स्थानीय कलाकारों की सहायता से इस हवेली के भित्तिचित्रों का जीर्णोद्धार एवं पुनरुत्थान किया और इस हवेली में एक सांस्कृतिक केन्द्र खोल दिया जिसमें उसकी कलाकृतियों के साथ-साथ फ्रेंच कलाकारों, भारतीय कलकारों एवं आदिवासी कलाकारों के चित्रों का प्रदर्शन किया गया है। इसी हवेली से लगभग 200 गज की दूरी पर सराफ हवेली है। इसमें भी बेल्जियन कांच की सजावट वाली मौलिक चित्रकारी है। ई.1925 में बनी ज्वाला प्रसाद भरतिया हवेली में अचम्भित कर देने वाले भित्तिचित्र बने हुए हैं। इस हवेली में लगे लकड़ी के दरवाजों पर कलात्मक खुदाई की गई है।
अलसीसर में अनेक मंदिर, कुएं, छतरियां, धर्मशालाएं, हवेलियाँ आदि स्थित हैं जिनमें दुर्लभ भित्तिचित्र देखे जा सकते हैं। इनमें ई.1595 में इन्द्रचंद केजड़ीवाल की बनाई हुई इन्द्रविलास हवेली में 100 कमरे हैं। अलसीसर में ही 170 वर्ष पुरानी सेठ कस्तूरीमल द्वारा बनवाई गई हवेली है जिसे झुंझुनवाला की हवेली कहते हैं। इसके दो कमरों में अद्भुत भित्तिचित्र बने हुए हैं।
चूरू जिले के महनसर कस्बे में स्थित मालजी का कमरा में बने भित्तिचित्र भी एक मध्यकालीन सम्पन्न चित्रशाला का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस कमरे मंर बनी महफिल में पौराणिक आख्यानों, अवतारों, देवी-देवताओं, मध्यकालीन राजसी वैभव, राजदरबार, शिकार, चौपड़, हाथी, घोड़े, रथ, बारात आदि के दृश्य चित्रित हैं। लक्ष्मी, गणेश एवं हनुमानजी के चित्रों के साथ-साथ सिपाही, बंदर एवं नारी मूर्तियां बनी हुई हैं। मुख्य भवन की दूसरी मंजिल के कक्ष में लगभग ढाई फुट ऊंची पट्टी भित्तिचित्रों की बनाई गई है। चारों ओर किनारी बनाकर बीच में मुख्यचित्र बनाए गए हैं जिनमें जल-रंगों एवं तैल-रंगों का प्रयोग हुआ है। इन चित्रों में जीवन के विविध पक्षों यथा शृंगार, साहित्य, दर्शन आदि को प्रस्तुत करते हुए विभिन्न जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, वनस्पति, नदी, नाले आदि चित्रित किए गए हैं। भवन की दीवारों पर ऐतिहासिक महापुरुषों, उनकी वीरगाथाओं, देवी-देवताओं की लीलाओं तथा पौराणिक आख्यानों के चित्र बने हुए हैं। ये चित्र विभिन्न शैलियों में बने हुए हैं जिनमें मुगल चित्रशैली, राजपूत चित्रशैली, पहाड़ी चित्रशैली, नाथद्वारा चित्रशैली, अंग्रेजी प्रभावयुक्त चित्रशैली एवं लोकचित्रण कला प्रमुख हैं। रियासती काल में सेठों द्वारा इस प्रकार के कमरे लोकानुरंजन के उद्देश्य से बनाए जाते थे। इनमें तोलाराम का कमरा तथा मालजी का कमरा अधिक प्रसिद्ध हुए। हवेली और कमरे में यह अंतर होता था कि जहाँ हवेली निजी उपयोग के लिए होती थी, वहीं कमरा सार्वजनिक उपयोग के लिए होता था। इस प्रकार इस क्षेत्र की हवेलियों में भित्तिचित्रों का एक दुर्लभ खजाना है जो विश्व में अन्य किसी भी देश में उपलब्ध नहीं है। इन्हें विश्व धरोहर घोषित किया जाना चाहिए तथा विश्व भर के कलाप्रेमियों, शोधकर्ताओं एवं पर्यटकों के लिए इस क्षेत्र में भ्रमण एवं निवास हेतु विश्वस्तरीय सुविधाएं उपलब्ध कराई जानी चाहिए।
साभार: rajasthanhistory.com/blog/museums-of-rajasthan/open-art-gallery-of-wall-paintings-havelis-of-shekhawati
शेखावटी हवेलियों के बारे में जानकारी के लिए पढ़िए..
inditales.com/hindi/rajasthan-ki-shekhawati-haveliyan
राजस्थान की बात करते ही राजसी ठाट के दृश्य जेहन में उभर आते हैं। रजवाड़ों के ठाट देखने हों तो लोग जोधपुर, जयपुर और उदयपुर का रुख करते हैं, पर अगर आपको राजस्थान के कलाप्रेमी सेठों के जीवन से रूबरू होना है तो आपको मंडावा आना चाहिए। यहां आप मध्यकालीन भारत की तस्वीर को भी करीब से देख और समझ पाएंगे। यहां के हर दरो-दीवार में छुपी है उस जमाने की अनूठी तस्वीर। मंडावा एक छोटा मगर जीवंत कस्बा है। इस पूरे क्षेत्र को ‘शेखावटी’ भी कहा जाता है। राजस्थान के शूरवीर राजपूतों में शेखावत राजवंश का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। समूचे भारत में केवल शेखावटी ही एकमात्र ऐसा स्थान था, जिस पर अंग्रेज कभी पूरी तरह हुकूमत नहीं कर सके।
👉👉👉लुभाती है फ्रेस्को पेंटिंग की जीवंतता: सेठसाहूकारों का इलाका मंडावा अपनी भित्ति चित्रकारी (जिसे ‘फ्रेस्को पेंटिंग’ भी कहा जाता है) के लिए दुनियाभर में मशहूर है। कहते हैं फ्रेस्को पेंटिंग्स 200 साल पुरानी है, लेकिन इनकी चमक आज भी नई जैसी लगती है। इन पेंटिंग्स को बनाने में जो रंग इस्तेमाल किए जाते थे, वे शुद्ध प्राकृतिक हुआ करते थे। इन पेंटिंग्स को ही नहीं, बल्कि रंगों को तैयार करने में भी चित्रकार जी-जान लगा दिया करते थे। इस संबंध में एक कहानी मशहूर है। किसी सेठ ने अपनी हवेली को रंगने का ठेका यहां के चित्रकार को दिया। सेठ कोलकाता में व्यापार करते थे। जब वह 4 महीने बाद लौटे तो देखा कि हवेली जस की तस है और चित्रकार वहां बैठकर रंग बना रहा है। सेठ जी ने नाराजगी दिखाते हुए उससे कहा कि इतना समय बीत गया और तुमने एक पत्थर तक नहीं रंगा। चित्रकार को भी गुस्सा आया और उसने रंग में घुला ब्रश दीवार पर फेंक दिया। आज भी पत्थर की दीवार पर उस रंग के निशान हैं। ये रंग बेहद पक्के होने के कारण सालों साल टिके रहते थे।
👉👉👉 हवेलियों का बॉलीवुड कनेक्शन! : किसी फिल्म के सेट की तरह दिखता है हवेलियों से भरा यह नगर। यहां 100 से ज्यादा हवेलियां हैं। इन खूबसूरत हवेलियों में आज कोई नहीं रहता और ये वीरान पड़ी हैं। फिलहाल इनकी रखवाली के लिए कुछ चौकीदार ही मौजूद हैं। यहां आकर लगता है कि पिछले सौ साल से वक्त जैसे ठहर-सा गया है। इसीलिए यह जगह बॉलीवुड की पहली पसंद है। 1989 में आई फिल्म ‘बंटवारा’, फिर ‘गुलामी’ से लेकर पिछले कुछ सालों में आई फिल्मों ‘जब वी मेट’, ‘पहेली’, ‘लव-आजकल’, ‘बजरंगी भाईजान’, ‘पीके’, ‘जेड प्लस’, ‘मिर्जिया’, ‘हॉफ गर्लफ्रेंड’ आदि की शूटिंग यहां हुई है। इस अनोखे गांव के हर निवासी ने किसी न किसी फिल्म में कोई न कोई काम किया है!
👉👉👉ओपन आर्ट गैलरी: मंडावा में घूमने का सबसे अच्छा तरीका है पैदल चलना, क्योंकि यहां हर गली में एक हवेली है और हर हवेली एक ‘ओपन आर्ट गैलरी’ की तरह आगंतुकों के लिए खुली रहती है। यहां के लोगों की मानें तो भारत की तरक्की में विशेष योगदान देने वाले मारवाड़ी व्यापारी घराने, जैसे-बिड़ला, मित्तल, बजाज, गोयनका, झुनझुनवाला, डालमिया, पोद्दार, चोखानी आदि के दादा-परदादाओं ने इस नगर को बसाया था और इन्हीं सेठों ने यहां एक से बढ़कर एक खूबसूरत हवेलियां भी बनवाई थीं। करीब सौ-डेढ़ सौ साल पुरानी इन हवेलियों की दीवारों, मेहराबों, खंभों पर बने भित्ति-चित्रों की खूबसूरती हर किसी का मन् मोह लेती है। इन चित्रों में रामायण, महाभारत और कृष्ण-लीला के प्रसंग बहुत बारीकी से चित्रित किए गए हैं। कुछ हवेलियों में राजस्थानी लोक कथाओं, पशु-पक्षियों, मिथकों, धार्मिक रीति-रिवाजों, आधुनिक रेल, जहाज, मोटर, ईसा मसीह आदि का चित्रण रंगों के माध्यम से किया गया है।
👉👉👉होड़ में हुईं आलीशान: कहते हैं कि हवेलियां जिस दौर में तैयार हुईं, उस दौरान यहां आपस में प्रतिस्पर्धा थी कि किसकी हवेली कितनी शानदार होगी। कलाप्रेमी सेठों के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी। अत: अपनी हवेलियों के सौंदर्यीकरण में वे कोई कसर नहीं रखना चाहते थे। ऐसा माना जाता है कि मंडावा पुराने सिल्क रूट पर पड़ने वाला मुख्य व्यापारिक केंद्र था, इसलिए यहां के व्यापारी खूब फलेफूले। कालांतर में उनके पास इतना पैसा आ गया कि उन्हें इस छोटे से कस्बे में रहना अप्रासंगिक लगने लगा और वे मुंबई, दिल्ली, सूरत, कोलकाता जैसे बड़े व्यापारिक नगरों की ओर चले गए। अब इन हवेलियों के मालिक किसी मांगलिक अवसर पर अपने कुलदेवता की पूजा-अर्चना करने हवेलियों में लौटते हैं, बाकी समय ये हवेलियां लगभग वीरान रहती हैं।
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