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Thursday, April 3, 2014

MAHARAJA AGRASEN - महाराजा अग्रसेन




ऐसी मान्यता है कि महाराजा अग्रसेन अग्रवाल जाति के पितामह थे। धार्मिक मान्यतानुसार इनका जन्म मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्रीराम की चौंतीसवी पीढ़ी में सूर्यवशीं क्षत्रिय कुल के महाराजा वल्लभ सेन के घर में द्वापर के अन्तिमकाल और कलियुग के प्रारम्भ में आज से 5000 वर्ष पूर्व हुआ था।

महाराजा अग्रसेन समाजवाद के प्रर्वतक, युग पुरुष, राम राज्य के समर्थक एवं महादानी थे। महाराजा अग्रसेन उन महान विभूतियों में से थे जो सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखायः कृत्यों द्वारा युगों-युगों तक अमर रहेगें।

जीवन परिचय

महाराजा अग्रसेन जी का जन्म अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को हुआ, जिसे अग्रसेन जयंती के रूप में मनाया जाता है। महाराजा अग्रसेन का जन्म लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व प्रताप नगर के राजा वल्लभ के यहाँ सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल में हुआ था। वर्तमान में राजस्थान व हरियाणा राज्य के बीच सरस्वती नदी के किनारे प्रतापनगर स्थित था। राजा वल्लभ के अग्रसेन और शूरसेन नामक दो पुत्र हुये। अग्रसेन महाराज वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। महाराजा अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ॠषि ने महाराज वल्लभ से कहा था, कि यह बहुत बड़ा राजा बनेगा। इस के राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और हज़ारों वर्ष बाद भी इनका नाम अमर होगा।


माधवी का वरण

महाराज अग्रसेन ने नाग लोक के राजा कुमद के यहाँ आयोजित स्वंयवर में राजकुमारी माधवी का वरण किया इस स्वंयवर में देव लोक से राजा इंद्र भी राजकुमारी माधवी से विवाह की इच्छा से उपस्थित थे परन्तु माधवी द्वारा श्री अग्रसेन का वरण करने से इंद्र कुपित होकर स्वंयवर स्थल से चले गये इस विवाह से नाग एवं आर्यकुल का नया गठबंधन हुआ।


तपस्या

कुपित इंद्र ने अपने अनुचरो से प्रताप नगर में वर्षा नहीं करने का आदेश दिया जिससे भयंकर आकाल पड़ा। चारों तरफ त्राहि त्राहि मच गई तब अग्रसेन और शूरसेन ने अपने दिव्य शस्त्रों का संधान कर इन्द्र से युद्ध कर प्रतापनगर को विपत्ति से बचाया। लेकिन यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं था। तब अग्रसेन ने भगवान शंकर एवं महालक्ष्मी माता की अराधना की, इन्द्र ने अग्रसेन की तपस्या में अनेक बाधाएँ उत्पन्न कीं परन्तु श्री अग्रसेन की अविचल तपस्या से महालक्ष्मी प्रकट हुई एवं वरदान दिया कि तुम्हारे सभी मनोरथ सिद्ध होंगे। तुम्हारे द्वारा सबका मंगल होगा। माता को अग्रसेन ने इन्द्र की समस्या से अवगत कराया तो महालक्ष्मी ने कहा, इन्द्र को अनुभव प्राप्त है। आर्य एवं नागवंश की संधि और राजकुमारी माधवी के सौन्दर्य ने उसे दुखी कर दिया है, तुम्हें कूटनीति अपनानी होगी। कोलापुर के राजा भी नागवंशी है, यदि तुम उनकी पुत्री का वरण कर लेते हो तो कोलापुर नरेश महीरथ की शक्तियाँ तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी, तब इन्द्र को तुम्हारे सामने आने के लिए अनेक बार सोचना पडेगा। तुम निडर होकर अपने नये राज्य की स्थापना करो।

सुन्दरावती का वरण


कोलापुर में नागराज महीरथ का शासन था। राजकुमारी सुन्दरावती के स्वयंवर में अनेक देशों के राजकुमार, वेश बदलकर अनेक गंधर्व व देवता उपस्थित थे, तब भगवान शंकर एवं माता लक्ष्मी की प्रेरणा से राजकुमारी ने श्री अग्रसेन को वरण किया। दो-दो नाग वंशों से संबंध स्थापित करने के बाद महाराजा वल्लभ के राज्य में अपार सुख समृद्धि व्याप्त हुई, इन्द्र भी श्री अग्रसेन से मैत्री के बाध्य हुये।

अग्रोहा का निर्माण

महाराजा वल्लभ के निधन के बाद श्री अग्रसेन राजा हुए और राजा वल्लभ के आशीर्वाद से लोहागढ़ सीमा से निकल कर अग्रसेन ने सरस्वती और यमुना नदी के बीच एक वीर भूमि खोजकर वहाँ अपने नए राज्य अग्रोहा का निर्माण किया और अपने छोटे भाई शूरसेन को प्रतापनगर का राजपाट सौंप दिया। ॠषि मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण रखा गया जिसे अग्रोहा नाम से जाना जाता है।

अठारह यज्ञ

महाराजा अग्रसेन स्टाम्प

माता लक्ष्मी की कृपा से श्री अग्रसेन के 18 पुत्र हुये। राजकुमार विभु उनमें सबसे बड़े थे। महर्षि गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को 18 पुत्र के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया। माना जाता है कि यज्ञों में बैठे 18 गुरुओं के नाम पर ही अग्रवंश (अग्रवाल समाज) की स्थापना हुई । यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी। प्रथम यज्ञ के पुरोहित स्वयं गर्ग ॠषि बने, राजकुमार विभु को दीक्षित कर उन्हें गर्ग गोत्र से मंत्रित किया। इसी प्रकार दूसरा यज्ञ गोभिल ॠषि ने करवाया और द्वितीय पुत्र को गोयल गोत्र दिया। तीसरा यज्ञ गौतम ॠषि ने गोइन गोत्र धारण करवाया, चौथे में वत्स ॠषि ने बंसल गोत्र, पाँचवे में कौशिक ॠषि ने कंसल गोत्र, छठे शांडिल्य ॠषि ने सिंघल गोत्र, सातवे में मंगल ॠषि ने मंगल गोत्र, आठवें में जैमिन ने जिंदल गोत्र, नवें में तांड्य ॠषि ने तिंगल गोत्र, दसवें में और्व ॠषि ने ऐरन गोत्र, ग्यारवें में धौम्य ॠषि ने धारण गोत्र, बारहवें में मुदगल ॠषि ने मन्दल गोत्र, तेरहवें में वसिष्ठ ॠषि ने बिंदल गोत्र, चौदहवें में मैत्रेय ॠषि ने मित्तल गोत्र, पंद्रहवें कश्यप ॠषि ने कुच्छल गोत्र दिया। 17 यज्ञ पूर्ण हो चुके थे। जिस समय 18 वें यज्ञ में जीवित पशुओं की बलि दी जा रही थी, महाराज अग्रसेन को उस दृश्य को देखकर घृणा उत्पन्न हो गई। उन्होंने यज्ञ को बीच में ही रोक दिया और कहा कि भविष्य में मेरे राज्य का कोई भी व्यक्ति यज्ञ में पशुबलि नहीं देगा, न पशु को मारेगा, न माँस खाएगा और राज्य का हर व्यक्ति प्राणीमात्र की रक्षा करेगा। इस घटना से प्रभावित होकर उन्होंने क्षत्रिय धर्म को अपना लिया। अठारवें यज्ञ में नगेन्द्र ॠषि द्वारा नांगल गोत्र से अभिमंत्रित किया।

ॠषियों द्वारा प्रदत्त अठारह गोत्रों को महाराजा अग्रसेन के 18 पुत्रों के साथ महाराजा द्वारा बसायी 18 बस्तियों के निवासियों ने भी धारण कर लिया एक बस्ती के साथ प्रेम भाव बनाये रखने के लिए एक सर्वसम्मत निर्णय हुआ कि अपने पुत्र और पुत्री का विवाह अपनी बस्ती में नहीं दूसरी बस्ती में करेंगे। आगे चलकर यह व्यवस्था गोत्रों में बदल गई जो आज भी अग्रवाल समाज में प्रचलित है।

अठारह गोत्र

महाराज अग्रसेन के 18 पुत्र हुए, जिनके नाम पर वर्तमान में अग्रवालों के 18 गोत्र हैं। ये गोत्र निम्नलिखित हैं: -

गोत्रों के नामऐरन बंसल बिंदल भंदल धारण गर्ग गोयल गोयन जिंदल

कंसल कुच्छल मधुकुल मंगल मित्तल नागल सिंघल तायल तिंगल



समाजवाद का अग्रदूत

महाराजा अग्रसेन को समाजवाद का अग्रदूत कहा जाता है। अपने क्षेत्र में सच्चे समाजवाद की स्थापना हेतु उन्होंने नियम बनाया कि उनके नगर में बाहर से आकर बसने वाले व्यक्ति की सहायता के लिए नगर का प्रत्येक निवासी उसे एक रुपया व एक ईंट देगा, जिससे आसानी से उसके लिए निवास स्थान व व्यापार का प्रबंध हो जाए। महाराजा अग्रसेन ने तंत्रीय शासन प्रणाली के प्रतिकार में एक नयी व्यवस्था को जन्म दिया, उन्होंने पुनः वैदिक सनातन आर्य सस्कृंति की मूल मान्यताओं को लागू कर राज्य की पुनर्गठन में कृषि-व्यापार, उद्योग, गौपालन के विकास के साथ-साथ नैतिक मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा का बीड़ा उठाया।

महाराज अग्रसेन ने 108 वर्षों तक राज किया। उन्होंने महाराज अग्रसेन जीवन मूल्यों को ग्रहण किया उनमें परंपरा एवं प्रयोग का संतुलित सामंजस्य दिखाई देता है। महाराज अग्रसेन ने एक ओर हिन्दू धर्म ग्रंथों में वैश्य वर्ण के लिए निर्देशित कर्म क्षेत्र को स्वीकार किया और दूसरी ओर देशकाल के परिप्रेक्ष्य में नए आदर्श स्थापित किए। उनके जीवन के मूल रूप से तीन आदर्श हैं- लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, आर्थिक समरूपता एवं सामाजिक समानता। एक निश्‍चित आयु प्राप्त करने के बाद कुलदेवी महालक्ष्मी से परामर्श पर वे आग्रेय गणराज्य का शासन अपने ज्येष्ठ पुत्र विभु के हाथों में सौंपकर तपस्या करने चले गए।

साभार : भारत डिस्कवरी

BRAVE & BRILLIANT VAISHYA COMMUNITY - व्यापारिक समुदायों की खासियत

मारवाड़ी कलकत्ता में कैसे आए? कृष्ण कुमार बिड़ला की आत्मकथा ब्रशेज विद हिस्ट्री में इसकी कहानी है, ‘16वीं सदी तक व्यापारिक समुदाय राजस्थान तक ही सीमित थे। अकबर के प्रमुख सेनापति और अंबेर के राजा मान सिंह ने जब दूरदराज के इलाकों को जीतना शुरू किया, तो उनके साथ ही व्यापारिक समुदाय के लोग अपनी जन्मभूमि से बाहर निकले। और फिर समय के साथ-साथ पूरे देश में फैल गए।’

इस किताब को पढ़ने से पहले तक मैंने इस बारे में बिल्कुल नहीं सोचा था। मान सिंह शेखावटी का रहने वाला था, उसी इलाके का, जहां का बिड़ला परिवार है। मान सिंह को 1594 में बंगाल का गवर्नर बनाया गया, इस पद पर वह कई साल तक रहे। इसका अर्थ हुआ कि मारवाड़ी बंगाल में 400 साल से रह रहे हैं। यहां मारवाड़ी शब्द सभी राजस्थानी बनियों के लिए इस्तेमाल होता है, चाहे वे मारवाड़ के हों, मेवाड़ के हों या शेखावटी के।

बिड़ला का कहना है कि उत्तर भारत में तीन मुख्य व्यापारिक समुदाय हैं- अग्रवाल, ओसवाल और महेश्वरी। इनमें महेश्वरी समुदाय सबसे छोटा है और बिड़ला परिवार इसी समुदाय का है। बिड़ला बताते हैं कि महेश्वरी मूल रूप में क्षत्रिय हैं, जिन्होंने वैश्य बनना पसंद किया। युद्ध लड़ने वाले पूर्वजों का दावा सभी व्यापारिक समुदायों में पाया जाता है, चाहे वे पंजाब के खत्री हों या फिर गुजरात और सिंध के लोहणा। अग्रवालों की उत्पत्ति नाम की एक छोटी-सी किताब में कहा गया है कि वे क्षत्रिय पूर्वज राजा अग्रसेन की संतान हैं। उनके पूर्वज चाहे जो कोई भी हों, लेकिन मारवाड़ी कलकत्ता में काफी अच्छी तरह रच-बस गए, क्योंकि बंगालियों में कोई व्यापारिक समुदाय नहीं है। ठीक उसी तरह, जैसे गुजराती मुंबई में बसे।

भीम राव अंबेडकर ने इस पर 1948 में एक बहुत अच्छा लेख लिखा था। लेख का शीर्षक था- ‘महाराष्ट्रा ऐज अ लिंग्विस्टिक प्रोविंस’ यानी एक भाषायी प्रांत के रूप में महाराष्ट्र। इंडियन मर्चेट चैंबर ने एक प्रस्ताव पारित करके यह मांग की थी कि बंबई (अब मुंबई) को भावी महाराष्ट्र का हिस्सा न बनाया जाए। यह लेख उसी के जवाब में था। अंबेडकर ने इस लेख में बताया है कि यह प्रस्ताव पास करने वालों में एक भारतीय ईसाई के अपवाद के अलावा बाकी सभी गुजराती व्यापारी थे। इसके बाद अंबेडकर ने बताया कि गुजराती व्यापारी किस तरह बंबई में आए और छा गए। सच यह है कि ब्रिटिश सरकार ने सूरत से बनियों का आयात किया था, ताकि बंबई में बना नया बंदरगाह जोर पकड़ सके। मराठियों में भी कारोबार करने वाली जातियां नहीं होतीं। इसके लिए गुजरात के इन लोगों ने ब्रिटिश सरकार के सामने दस मांगें रखी थीं, जिनमें से कुछ का जिक्र अंबेडकर ने अपने लेख में किया था।


 ये मांगें थीं-

- दक्षिण बंबई की जमीन पर घर या गोदाम बनाने के लिए कोई किराया नहीं लिया जाएगा। (शायद यही वजह है कि मालाबार हिल, कोलाबा और नेपियन सी रोड के इलाके में बहुत सारे गुजराती मिल जाते हैं)

- किसी भी अंग्रेज, पुर्तगाली, ईसाई या मुसलमान को उनके परिसर में रहने की इजाजत नहीं होगी। वे वहां किसी जीव को मार भी नहीं सकेंगे।

- किसी भी वाद या अन्य मामले में गवर्नर या डिप्टी गवर्नर किसी बनिया को सार्वजनिक तौर पर गिरफ्तार नहीं करेंगे, उसका अपमान नहीं करेंगे और उसे नोटिस दिए बिना जेल नहीं भेजेंगे।

- किसी युद्ध या अन्य किसी खतरे की स्थिति के लिए किले में (आज का फोर्ट इलाका) उसका एक गोदाम होगा, जहां वह अपने सामान, अपनी संपत्ति और अपने परिवार को सुरक्षा के लिए रख सकेगा।

- उसे अपने साथ छाता लेकर चलने का अधिकार होगा। (शायद यह बनियों को सम्मान का आभामंडल देने के लिए जरूरी लगा होगा)।

इसी तरह, सूरत के पारसियों ने शांति की मीनार के लिए मुफ्त जमीन की मांग की थी, जिसे 1672 में बंबई के दूसरे गवर्नर गेराल्ड औंगियर ने उन्हें इसके लिए जमीन दी भी।

व्यापारिक समुदायों की क्या खासियत होती है? बाकी समुदायों से उनमें क्या अलग होता है? एक तो वे बहुत बहादुर होते हैं और अपनी महत्वाकांक्षाओं के साथ पूरी दुनिया में कहीं भी जा सकते हैं, जबकि हम सब जैसे बाकी लोग अपनी जाति के इलाके में ही रह जाते हैं। अपनी किताब इंडियाज न्यू कैप्टलिस्ट्स: कास्ट, बिजनेस ऐंड इंडस्ट्री इन मॉर्डन नेशन स्टेट में हरीश दामोदरन ने लिखा है, ‘चाहे वे हिंदू हों, पारसी हों या मुसलमान, इन सभी समुदायों में कुछ समानताएं होती हैं- शादी व कारोबारी लेन-देन के लिए कड़े नियम और इसके अलावा सामाजिक मूल्यों के लिए काफी संकीर्ण होना।’

रुपये-पैसे का लेन-देन एक ऐसा रिश्ता है, जिससे एक पक्ष को फायदा होता है और दूसरे पक्ष को न तो कोई फायदा होता है और न कोई नुकसान। इसका एक उदाहरण है, बनियों का एक-दूसरे को बिना किसी ब्याज के पूंजी देना।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)


आकार पटेल, वरिष्ठ पत्रकार, दैनिक हिन्दुस्तान