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Saturday, April 20, 2013

सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य - HEMU VIKRAMADITYA



सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य या केवल हेमू (१५०१-१५५६) एक हिन्दू राजा था, जिसने मध्यकाल में १६वीं शताब्दी में भारत पर राज किया था। यह भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण समय रहा जब मुगल एवं अफगान वंश, दोनों ही दिल्ली में राज्य के लिये तत्पर थे। कई इतिहसकारों ने हेमू को 'भारत का नैपोलियन' कहा है |

16वीं शताब्दी में एक नाम हेमू का आता है। महाराज हेमचन्द्र विक्रमादित्य वह विद्युत की भांति चमके और देदीप्यमान हुए। हेमू दोसर वैश्य भार्गव वंश के गोलिश गोत्र में उत्पन्न राय जयपाल के पौत्र और पूरनमाल के पुत्र थे। हेमू का एक दूसरा नाम हेमू बनिया बक्कल भी था. हेमू 16वीं शताब्दी का सबसे अधिक विलक्षण सेनानायक था । राजा विक्रमाजीत हेमू जन्म से मेवात स्थित रिवाड़ी के हिंदू थे जो अपने वैयक्तिक गुणों तथा कार्यकुशलता के कारण यह सूर सम्राट् आदिलशाह के दरबार का प्रधान मंत्री बन गया थे। यह राज्य कार्यो का संचालन बड़े योग्यता पूर्वक करते थे। आदिलशाह स्वयं अयोग्य थे और अपने कार्यों का भार वह हेमू पर डाले रहते थे।

जिस समय हुमायूँ की मृत्यु हुई उस समय आदिलशाह मिर्जापुर के पास चुनार में रह रहे थे। हुमायूँ की मृत्यु का समाचार सुनकर हेमू अपने स्वामी की ओर से युद्ध करने के लिए दिल्ली की ओर चल पड़े। वह ग्वालियर होते हुए आगे बढे और उसने आगरा तथा दिल्ली पर अपना अधिकार जमा लिया। तरदीबेग खाँ दिल्ली की सुरक्षा के लिए नियुक्त किया गया था। हेमू ने बेग को हरा दिया और वह दिल्ली छोड़कर भाग गया।

इस विजय से हेमू के पास काफी धन, लगभग 1500 हाथी तथा एक विशाल सेना एकत्र हो गई थी। उन्होंने अफगान सेना की कुछ टुकड़ियों को प्रचुर धन देकर अपनी ओर कर लिया। तत्पश्चात्‌ उन्होंने प्राचीन काल के अनेक प्रसिद्ध हिंदू राजाओं की उपाधि धारण की और अपने को 'राजा विक्रमादित्य' अथवा विक्रमाजीत कहने लगे। इसके बाद वह अकबर तथा बैरम खाँ से लड़ने के लिए पानीपत के ऐतिहासिक युद्धक्षेत्र में जा डटे। 5 नवंबर, 1556 को युद्ध प्रारंभ हुआ। इतिहास में यह युद्ध पानीपत के दूसरे युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। हेमू की सेना संख्या में अधिक थी तथा उसका तोपखाना भी अच्छा था किंतु एक तीर सम्राट हेमचन्द्र की आँख को छेदता हुआ सिर तक चला गया। हेमचन्द्र ने हिम्मत न हारते हुए तीर को बाहर निकाला परन्तु इस प्रयास में पूरी की पूरी आँख तीर के साथ बाहर आ गई। आपने अपने रूमाल को आँख पर लगाकर कुछ देर लड़ाई का संचालन किया, परन्तु शीघ्र ही बेहोश होकर अपने ``हवाई´´ नामक हाथी के हौदे में गिर पड़े।

शहर के कतोपुर स्थित साधारण परिवार से निकलकर अंतिम हिंदू सम्राट होने का गौरव प्राप्त करने वाले राजा हेमचंद विक्रमादित्य 7 अक्टूबर 1556 को मुगलों को हराकर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुए थे।

आपका महावत आपको युद्ध के मैदान से बाहर निकाल रहा था कि मुगल सेनापति अली कुली खान ``हवाई´´ हाथी को पकड़ने के लिए आगे बढ़ा और बेहोश हेमू को गिरफ्तार करने में कामयाब हो गया। इस प्रकार दुर्भाग्यवश सम्राट हेमचन्द्र एक जीता हुआ युद्ध हार गये और भारत के अंतिम हिन्दू सम्राट हेमचन्द्र दोसर वैश्य (भार्गव) वंश का शासन 29 दिन के बाद समाप्त हो गया।

बैराम खाँ के लिए यह घटना एकदम अप्रत्याशित थी। बैराम खाँ ने अकबर से प्रार्थना की कि हेमू का वध करके वह `गाज़ी´ की पदवी का हक़दार बने। आनन-फानन में अचेत हेमू का सिर धड़ से अलग कर दिया। जिससे हेमू के समर्थकों की हिम्मत या भविष्य के विद्रोह की संभावना को पूरी तरह कुचल दिया जाय।

दिल्ली पर अधिकार हो जाने के बाद बैराम खाँ ने हेमू के सभी वंशधरों का क़त्लेआम करने का निश्चय किया। हेमू के समर्थक अफ़ग़ान अमीर और सामन्त या तो मारे गए या फिर दूर-दराज़ के ठिकानों की तरफ भाग गए। बैराम खाँ के निर्देश पर उसके सिपहसालार मौलाना पीर मोहम्मद खाँ ने हेमू के पिता को बंदी बना लिया और तलवार के वार से उनके वृद्ध शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। और उसने हेमू के समस्त वशधरों यानी सम्पूर्ण ढूसर भार्गव कुल को नष्ट करने का निश्चय किया। अलवर, रिवाड़ी नारनौल, आनौड़ आदि क्षेत्रों में बसे हुए दोसर वैश्य कहलाए जाने वाले भार्गव जनों को चुन-चुन कर बंदी बनाया। साथ ही हेमू के अत्यन्त विश्वास पात्र अफ़गान अधिकारियों और सेवकों को भी नहीं बक्शा।

अपनी फ़तह के जश्न में उसने सभी बंदी ढूसर भार्गवों और सैनिकों के कटे हुए सिरों से एक विशाल मीनार बनवाई।

यह बात इतिहास में कुछ इस तरह कही जाती है-

साह कहीं बनियन को लाओ, मारो सबन जहाँ लगि पावो |
आहिदी गये पकड़ सब लाये, लाय झरोखों तारे दिखाए |
तब उजीर ने विनती किन्ही , चुक सबे दुसर सिर किन्ही |
उन्हें छोर तब दुसर ही पकडे, पकड़ पकड़ बेरहीन में जकडे |

हेमू के बाद दुसर वैश्य समाज के लोग हरियाणा व् दिल्ली से पूर्व की ओर पलायन करने लगे और गंगा के किनारे वर्तमान कानपूर एवं उन्नाव तथा रायबरेली के बैसवारा के क्षेत्रों में बस गये |

साभार : http://dosarvaish.com/

दोसर वैश्य समाज का इतिहास - कौन ? - कैसे ? - कहाँ से ?


आज दोसर वैश्य समाज के हर व्यक्ति के मन में एक प्रश्न उठता है कि दोसर वैश्य समाज में जन्म लिया है तो इसकी उत्पत्ति कहाँ और कैसे हुई। इसकी जानकारी ज्ञात हो सके इसके लिए मैंने समाज और राजनीती में कार्य करते हुए और विभिन्न प्राचीन पुस्तको से जो जानकारी प्राप्त हुई वह मैं आप सबकी जानकारी के लिए लिख रहा हूँ ।

गोत्र - 
महाभारत व जातक आदि प्राचीन ग्रंथो में व्यक्ति का परिचय पूछते समय उसका नाम तथा गोत्र दोनों विषय में पुछा जाता था । गोत्रो की परंपरा प्राचीन ऋषियों से चली आ रही है , मान्यता है कि मूल पुरुष ब्रह्मा के चार पुत्र - भ्रगु , अंगिरा , मरीचि और अत्रि हुए । ये चार ऋषि गोत्रकर्ता थे । 
ऋषि मरीचि के पुत्र कश्यप थे , हमारा दोसर वैश्य समाज कश्यप ऋषि का गोत्र है ।
उत्पत्ति का स्थल -
दोसर वैश्य ,"दूसर वैश्य "का कालांतर में परिवर्तित रूप है । डा . मोतीलाल भार्गव द्वारा लिखी पुस्तक "हेमू और उसका युग "से पता चलता है कि दूसर वैश्य हरियाणा में दूसी गाँव क़े मूल निवासी थे ।जो कि गुरगाव जनपद के उपनगर रिवाड़ी के पास स्थित है ।यह स्थान बलराम जी (बलदाऊ)की ससुराल जो वधुसर कि दूसर और बाद में दूसी कहलाया ।

दोसर वैश्य समाज की विजय गाथा / दिल्ली विजय -  

हेमू की दिल्ली विजय - 
भारतीय इतिहास में प्रशिद्ध हेमचन्द्र विक्रमादित्य 'हेमू' दोसर वैश्य जाति के थे । हेमू के पिता का नाम पूरन दास और चाचा का नाम नवलदास था जो दोसर वैश्य समाज के प्रशिद्ध संत थे । हेमू ने 6 अक्टूबर सन 1556 को दिल्ली विजय प्राप्त की । 300 वर्षो बाद किसी हिन्दू शासक ने दिल्ली की सत्ता प्राप्त की थी ।

दॊसर वैश्य का वर्गीकरण -
पंडित कामता प्रसाद द्वारा लिखी पुस्तक "जाति भास्कर " सम्वत 1960 विक्रमी के लगभग से पता चलता है कि इसमें लगभग 400 वैश्य उप-जातियों का विवरण है ।इस सूची में दोसर वैश्य के स्थान पर दूसर वैश्य का विविरण मिलता है जो कि दिल्ली और मिर्जापुर के बीच गंगा किनारे निवास करते है ।

दोसर वैश्य समाज की धार्मिक मान्यताएं - 
दोसर वैश्य समाज गाय को बहुत ही सुभ एवं पवित्र मानते थे । दोसर वैश्य समाज वैष्णव् मत को मानने वाले है । उत्तर भारत में केवल दोसर वैश्य समाज में विवाह में वधू को निगोड़ा पहनाया जाता था । आज भी दोसर वैश्य समाज के अतिरिक्त आज किसी समाज में निगोड़ा नहीं पहनाया जाता है |

मोती लाल जी का शॊध - 
ब्रिटिश शासनकाल में सन 1880 में मोतीलाल भार्गव द्वारा दिए गए शॊध पुत्र "हेमू और उसका युग" में वर्रण है - दूसी जो हेमू का जन्म स्थान था वहां वैश्य को दूसी वैश्य जो वर्तमान में दॊसर वैश्य कहा गया है ।

साभार : http://dosarvaish.com/

कहाँ से आता था राजाओं के पास इतना धन ?




बचपन से ही राजस्थान के किले, हवेलियाँ आदि देखने के बाद मन सोचता था कि उस राजस्थान में जहाँ का मुख्य कार्य कृषि ही था और राजस्थान में जब वर्षा ही बहुत कम होती थी तो कृषि उपज का अनुमान भी लगाया जा सकता है कि कितनी उपज होती होगी? सिंचाई के साधनों की कमी से किसान की उस समय क्या आय होती होगी? जो किसी राजा को इतना कर दे सके कि उस राज्य का राजा बड़े बड़े किले व हवेलियाँ बनवा ले| जिस प्रजा के पास खुद रहने के लिए पक्के मकान नहीं थे| खाने के लिए बाजरे के अलावा कोई फसल नहीं होती थी| और बाजरे की बाजार वेल्यु तो आज भी नहीं है तो उस वक्त क्या होगी? राजस्थान में कर से कितनी आय हो सकती थी उसका अनुमान शेरशाह सूरी के एक बयान से लगाया का सकता है जो उसने सुमेरगिरी के युद्ध में जोधपुर के दस हजार सैनिको द्वारा उसके चालीस हजार सैनिको को काट देने के बाद दिल्ली वापस लौटते हुए दिया था – “कि एक मुट्ठी बाजरे की खातिर मैं दिल्ली की सल्तनत खो बैठता|”

मेरा कहने का मतलब सिर्फ इतना ही है कि जिस राज्य की प्रजा गरीब हो वो राजा को कितना कर दे देगी ? कि राजा अपने लिए बड़े बड़े महल बना ले| राजस्थान में देश की आजादी से पहले बहुत गरीबी थी| राजस्थान के राजाओं का ज्यादातर समय अपने ऊपर होने वाले आक्रमणों को रोकने के लिए आत्म-रक्षार्थ युद्ध करने में बीत जाता था| ऐसे में राजस्थान का विकास कार्य कहाँ हो पाता ? और बिना विकास कार्यों के आय भी नहीं बढ़ सकती| फिर भी राजस्थान के राजाओं ने बड़े बड़े किले व महल बनाये, सैनिक अभियानों में भी खूब खर्च किया| जन-कल्याण के लिए भी राजाओं व रानियों ने बहुत से निर्माण कार्य करवाये| उनके बनाये बड़े बड़े मंदिर, पक्के तालाब, बावड़ियाँ, धर्मशालाएं आदि जनहित में काम आने वाले भवन आज भी इस बात के गवाह है कि वे जनता के हितों के लिए कितना कुछ करना चाहते और किया भी|

अब सवाल ये उठता है कि फिर उनके पास इतना धन आता कहाँ से था ?


राजस्थान के शहरों में महाजनों की बड़ी बड़ी हवेलियाँ देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि उनके पास धन की कोई कमी नहीं थी कई सेठों के पास तो राजाओं से भी ज्यादा धन था और जरुरत पड़ने पर ये सेठ ही राजाओं को धन देते थे| राजस्थान के सेठ शुरू ही बड़े व्यापारी रहें है राजा को कर का बहुत बड़ा हिस्सा इन्हीं व्यापरियों से मिलता था| बदले में राजा उनको पूरी सुरक्षा उपलब्ध कराते थे| राजा के दरबार में सेठों का बड़ा महत्व व इज्जत होती थी| उन्हें बड़ी बड़ी उपाधियाँ दी जाती थी| सेठ लोग भी अक्सर कई समारोहों व मौकों पर राजाओं को बड़े बड़े नजराने पेश करते थे| कालेज में पढते वक्त एक ऐसा ही उदाहरण सुरेन्द्र सिंह जी सरवडी से सीकर के राजा माधो सिंह के बारे में सुनने को मिला था- राजाओं के शासन में शादियों में दुल्हे के लिए घोड़ी, हाथी आदि राजा की घुड़साल से ही आते थे| राज्य के बड़े उमराओं व सेठों के यहाँ दुल्हे के लिए हाथी भेजे जाते थे|

सीकर में राजा माधोसिंह जी के कार्यकाल में एक बार शादियों के सीजन में इतनी शादियाँ थी कि शादियों में भेजने के लिए हाथी कम पड़ गए| जन श्रुति है कि राजा माधो सिंह जी ने राज्य के सबसे धनी सेठ के यहाँ हाथी नहीं भेजा बाकि जगह भेज दिए| और उस सेठ के बेटे की बारात में खुद शामिल हो गए जब दुल्हे को तोरण मारने की रस्म अदा करनी थी तब वह बिना हाथी की सवारी के पैदल था यह बात सेठजी को बहुत बुरी लग रही थी| सेठ ने राजा माधो सिंह जी को इसकी शिकायत करते हुए नाराजगी भी जाहिर की पर राजा साहब चुप रहे और जैसे ही सेठ के बेटे ने तोरण मारने की रस्म पूरी करने को तोरण द्वार की तरफ तोरण की और हाथ बढ़ाया वैसे ही तुरंत राजा ने लड़के को उठाकर अपने कंधे पर बिठा लिया और बोले बेटा तोरण की रस्म पूरी कर| यह दृश्य देख सेठ सहित उपस्थित सभी लोग आवक रह गए| राजा जी ने सेठ से कहा देखा – दूसरे सेठों के बेटों ने तो तोरण की रस्म जानवरों पर बैठकर अदा की पर आपके बेटे ने तो राजा के कंधे पर बैठकर तोरण रस्म अदा की है| इस अप्रत्याशित घटना व राजा जी द्वारा इस तरह दिया सम्मान पाकर सेठजी अभिभूत हो गए और उन्होंने राजा जी को विदाई देते समय नोटों का एक बहुत बड़ा चबूतरा बनाया और उस पर बिठाकर राजा जी को और धन नजर किया| इस तरह माधोसिंह जी ने सेठ को सम्मान देकर अपना खजाना भर लिया|

इस घटना से आसानी से समझा जा सकता है कि राजस्थान के राजाओं के पास धन कहाँ से आता था| राजाओं की पूरी अर्थव्यवस्था व्यापार से होने वाली आय पर ही निर्भर थी न कि आम प्रजा से लिए कर पर|

व्यापारियों की राजाओं के शासन काल में कितनी महत्ता थी सीकर की ही एक और घटना से पता चलता है- सीकर के रावराजा रामसिंह एक बार अपनी ससुराल चुरू गए| चुरू राज्य में बड़े बड़े सेठ रहते थे उनके व्यापार से राज्य को बड़ी आय होती थी| चुरू में उस वक्त सीकर से ज्यादा सेठ रहते थे| जिस राज्य में ज्यादा सेठ उस राज्य को उतना ही वैभवशाली माना जाता था| इस हिसाब से सीकर चुरू के आगे हल्का पड़ता था| कहते है कि ससुराल में सालियों ने राजा रामसिंह से मजाक की कि आपके राज्य में तो सेठ बहुत कम है इसलिए लगता है आपकी रियासत कड़की ही होगी| यह मजाक राजा रामसिंह जी को चुभ गई और उन्होंने सीकर आते ही सीकर राज्य के डाकुओं को चुरू के सेठों को लूटने की छूट दे दी| डाकू चुरू में सेठों को लूटकर सीकर राज्य की सीमा में प्रवेश कर जाते और चुरू के सैनिक हाथ मलते रह जाते| सेठों को भी परिस्थिति समझते देर नहीं लगी और तुरंत ही सेठों का प्रतिनिधि मंडल सीकर राजाजी से मिला और डाकुओं से बचाने की गुहार की|

राजा जी ने भी प्रस्ताव रख दिया कि सीकर राज्य की सीमाओं में बस कर व्यापार करो पूरी सुरक्षा मिलेगी| और सीकर राजा जी ने सेठों के रहने के लिए जगह दे दी, सेठों ने उस जगह एक नगर बसाया , नाम रखा रामगढ़| और राजा जी ने उनकी सुरक्षा के लिए वहां एक किला बनवाकर अपनी सैनिक टुकड़ी तैनात कर दी| इस तरह सीकर राज्य में भी व्यवसायी बढे और व्यापार बढ़ा| फलस्वरूप सीकर राज्य की आय बढ़ी और सेठों ने जन-कल्याण के लिए कई निर्माण कार्य यथा विद्यालय, धर्मशालाएं, कुँए, तालाब, बावड़ियाँ आदि का निर्माण करवाया| जो आज भी तत्कालीन राज्य की सीमाओं में जगह जगह नजर आ जाते है और उन सेठों की याद ताजा करवा देते है|


इस तरह के बहुत से सेठों द्वारा राजाओं को आर्थिक सहायता देने या धन नजर करने के व जन-कल्याण के कार्य करवाने के किस्से कहानियां यत्र-तत्र बिखरे पड़े| बुजुर्गों के पास सुनाने के लिए इस तरह की किस्सों की कोई कमी ही नहीं है| अक्सर राजा लोग ही इन धनी महाजनों से जन-कल्याण के बहुत से कार्य करवा लेते थे| बीकानेर के राजा गंगासिंह जी के बारे में इस तरह के बहुत से किस्से प्रचलित है कि कैसे उन्होंने धनी सेठों को प्रेरित कर जन-कल्याण के कार्य करवाये| वे किसी भी संपन्न व्यक्ति से मिलते थे तो वे उसे एक ही बात समझाते थे कि इतना कमाया, नाम किया पर मरने के बाद क्या ? इसलिए जीते जी कुछ जन-कल्याण के लिए कर ताकि मरने के वर्षों बाद तक लोग तुझे याद रखे| और उनकी बात का इतना असर होता था कि कुछ धनी सेठों ने तो अपना पुरा का पुरा धन जन-कल्याण में लगा दिया|


राजा गंगासिंह जी के मन में जन-कल्याण के लिए कार्य करने का इतना जज्बा था कि उन्होंने आजादी से पहले ही भांकड़ा बांध से नहर ला कर रेगिस्तानी इलाके को हराभरा बना दिया था| रेवाड़ी से लेकर बीकानेर तक उन्होंने अपने खजाने व सेठों के सहयोग से रेल लाइन बिछवा दी थी| दिल्ली के स्टेशन पर बीकानेर की रेल रुकने के लिए प्लेटफार्म तक खरीद दिए थे| और यही कारण है कि आज भी बीकानेर वासियों के दिलों में महाराज गंगासिंह जी के प्रति असीम श्रद्धा भाव है| उपरोक्त कुछ किस्सों व राजस्थान में सेठों व राजाओं के संबंध में बिखरे पड़े किस्सों कहानियों से साफ़ जाहिर है कि राजाओं के पास जो धन था वह गरीब प्रजा का शोषण कर इकट्ठा नहीं किया जाता था बल्कि राज्य के व्यवसायियों द्वारा किये जाने वाले व्यापार से मिलने वाले कर से खजाने भरे जाते थे|

पर अफ़सोस आज के व्यवसायी जो सरकारों को अपनी जेब में रखने का दावा करते है वे जन-कल्याण के लिए खर्च करना तो दूर उल्टा सत्ताधारी नेताओं, मंत्रियों से मिलकर आम-गरीब जनता व देश के संसाधनों को लूटकर सरकारी खजाना खाली कर अपना खजाना भरने में लगे है|


साभार : श्री रतन सिंह जी शेखावत 

सत्ता पर सेठों (व्यापारियों) का प्रभाव तब और अब

पिछले दिनों आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल ने एक प्रेस कांफ्रेंस में रिलाइंस द्वारा सरकार से मिलीभगत कर देश के संसाधनों को जिस तरह से लूटा उसका खुलासा किया साथ ही मुकेश अम्बानी की यह कहते हुए ऑडियो टेप भी सुनाई कि सत्तधारी दल तो उसकी जेब की दुकान है| तब से आम आदमी हैरान परेशान कि कैसे एक औधोगिक घराना सरकार को अपनी मुट्ठी में रखता है| यदि एक रिलाइंस कम्पनी जिसे चाहे मंत्री बनवा सकती है जिसे चाहे मंत्रिमंडल से हटवा सकती है तो देश में और भी कई औधोगिक घराने है उनका भी तो सरकार पर इसी तरह का वर्चस्व होगा| आज आम आदमी यह समझ ही नहीं पा रहा कि सरकार वे लोग चला रहें है जिन्हें उसने वोट देकर संसद में पहुँचाया था या उनकी आड़ में कोई और सरकार चला रहें है|

पिछले दिनों हुए खुलासों के बाद अब देश के आम नागरिक को शंका होने लगी है कि पता नहीं इस तरह के गठबंधन ने देश के संसाधनों को कितना लूटा होगा ? और लूट रहें है| राज्य सत्ता पर व्यापारियों (महाजनों) का प्रभाव कोई नई बात नहीं है| देश की स्वतंत्रता से पहले भी महाजनों का देश के सभी छोटे-बड़े राजाओं, नबाबों और बादशाहों पर अपने अकूत धन दौलत की वजह से प्रभाव रहा है| किसी भी सरकार को चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है यह धन जितना किसी भी राज्य को व्यवसायी कमा कर दे सकते है उतना कभी भी आम-जनता नहीं दे सकती| राजाओं के जमाने में भी राज्य के बड़े बड़े सेठ राजा को आर्थिक मदद देकर राज्य में अपने व्यवसाय के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ और सुरक्षा प्राप्त करते थे| साथ ही राजा के दरबार में उपाधियाँ पाकर सम्मान भी पाते थे|



पर अपने अकूत धन के माध्यम से उस समय के महाजन सिर्फ राजा को ही प्रभावित नहीं रखते थे बल्कि अपना धन सामाजिक कार्यों व जन-कल्याण की योजनाओं में खर्च कर आमजन से भी आदर, सम्मान पाते थे| पुरानी चलती आ रही किसी भी जनश्रुति में कभी किसी पुराने समय के सेठ के बारे में कोई गलत बात अब तक नहीं सुनी| राजस्थान के छोटे बड़े कस्बों व शहरों में आज भी सेठों द्वारा बनाये गए बड़े बड़े विद्यालय भवन, कालेज,धर्मशालाएं,कुँए,पक्के तालाब व बावड़ियाँ जगह जगह देखी जा सकती है| सैकड़ों वर्ष पहले सेठों द्वारा जन-कल्याण के लिए भवन व निर्माण आज भी देखकर लोग उनके प्रति श्रद्धा भाव दर्शाते हुए नतमस्तक हो जाते है| राजस्थान के सेठों ने तो दूर दूर जाकर दूसरे राज्यों में व्यापार कर धन कमाया और अपनी गाढ़ी कमाई का हिस्सा राजस्थान में लाकर जन-कल्याण में खर्च किया|

राजा व तत्कालीन शासक बड़े सेठों से मिलने वाले धन की वजह से भले ही उनके प्रभाव में होते थे पर वे अपने राज्य की संपदा व संसाधनों को ऐसे कभी ना लूटने देते थे जैसे आज के बड़े सेठ, महाजन हमारे द्वारा चुनी गई लोकतान्त्रिक सरकार और हमारी सेवा के लिए रखे गए सरकारी सेवकों से मिलकर देश के संसाधनों को लूट रहें है| एक उस वक्त के व्यवसायी थे जो जनहित में खुलकर खर्च करते थे और आज उन्हीं की पीढ़ी के लोग जनहित के बहाने कमाने के चक्कर में रहते है| पुराने सेठों द्वारा बनाई गई स्कूलों में जहाँ आम विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर पाता था वहीं आज के उधमियों ने शिक्षा व सामान्य उपचार को को भी व्यवसाय बना लिया और दोनों ही व्यवसायों में आज जितनी लूट-पाट मची है सबके सामने है|

व्यवसायी तब भी सता को प्रभावित करते थे और आज भी पर उस वक्त के व्यवसायियों व वर्तमान व्यवसायियों की नैतिकता में रात दिन का फर्क है| पुराने समय के व्यवसायियों द्वारा जहाँ जन-कल्याण के लिए खर्च करने के कारण उनके प्रति आम-जन के मन आदर, सम्मान व श्रद्धाभाव होता था वहीं आज के व्यवसायियों द्वारा राजनीतिज्ञों व अफसरों से गठजोड़ कर देश के संसाधनों को लूटने की वजह से आम जन इनसे घृणा व नफरत करता है|

साभार : श्री रतन सिंह शेखावत, ज्ञान दर्पण

व्यापार ही नहीं शौर्य में भी कम ना रहे है बणिये


स्वाभिमान के मामले में समझौता करने वाले लोगों पर अक्सर लोग व्यंग्य कसते सुने जा सकते है कि- “बनिये की मूंछ का क्या ? कब ऊँची हो जाये और कब नीची हो जाय ?”

राजस्थान में तो एक कहावत है –गाँव बसायो बाणियो, पार पड़े जद जाणियो” कहावत के जरिये बनिए द्वारा बसाये किसी गांव की स्थिरता पर ही शक किया जाता रहा है|

उपरोक्त कहावतों से साफ है कि अपने व्यापार की सफलता के लिए व्यापारिक धर्म निभाने की बनिए की प्रवृति को लोगों ने उसकी कायरता समझ लिया जबकि ऐसा नहीं है बनिए ने अपनी मूंछ कभी नीची की है यानी कहीं समझौता किया है तो वह उसकी एक व्यापारिक कार्यविधि का हिस्सा मात्र है| कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यापार में सौम्य व्यवहार, मृदु भाषा व संयम के बिना सफल नहीं हो सकता और बनियों ने अपने इन्हीं गुणों के आधार पर व्यापार के हर क्षेत्रों में सफलता चूमी है|

बनियों के इन्हीं गुणों की वजह से उनको कायर मानने वाले लोग यह क्यों नहीं समझते कि आज तो व्यापार करना आसान है, ट्रांसपोर्ट के साधनों से एक जगह से दूसरी जगह माल लाना ले जाना, बैंकों के जरिये धन का स्थानांतरण करना एकदम आसान है जबकि पूर्व काल में जब न बैंक थे न आवागमन के साधन थे तब भी बनिए अपने घर से हजारों मील दूर ऊंट, बैल गाड़ियों में माल भरकर यात्राएं करते हुए व्यापार करते थे रास्ते में डाकुओं द्वारा लुटे जाने का पूरा खतरा ही नहीं रहता था बल्कि कई छोटे शासक भी डाकुओं की भूमिका निभाते हुए व्यापारिक काफिलों को लुट लिया करते थे फिर भी अपने धन व जान की परवाह किये बगैर बनिए बेधड़क होकर दूर दूर तक अपने काफिले के साथ व्यापार करते घूमते रहते थे| उनका यह कार्य किसी भी वीरता व साहस से कम नहीं था|

व्यापार ही क्यों युद्धों में भी बनियों ने क्षत्रियों की तरह शौर्य भी दिखा इस क्षेत्र में भी पीछे नहीं रहे जोधपुर जैसलमेर का इतिहास पढ़ते हुए ऐसे कई उदाहरण पढने को मिल जाते है| इन पूर्व राज्यों में कई बनिए राज्य के सफल प्रधान सेनापति रहे है जिनकी वीरता व कूटनीति का इतिहासकारों ने लोहा माना है|

राजस्थान का प्रथम इतिहासकार मुंहता नैणसी (मोहनोत नैणसी) जो जैन था और जोधपुर के राजा जसवंत सिंह का सफल प्रधान सेनापति था जिसने जोधपुर राज्य की और से कई युद्ध अभियानों का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया| जोधपुर राज्य में महाराजा भीमसिंह व उनके बाद महाराजा मानसिंह के समय में इंद्रराज सिंघवी नामक बनिया जोधपुर का सेनापति रहा जिसकी वीरता, राजनैतिक समझ और कूटनीति इतिहास में भरी पड़ी है| इंद्रराज सिंघवी ने अपनी राजनैतिक कूटनीति व समझदारी से जोधपुर राज्य को ऐसे बुरे वक्त में युद्ध से बचाया था जब जोधपुर महाराजा के ज्यादातर सामंत विरोधियों से मिल जयपुर व बीकानेर की सेनाओं को जोधपुर पर चढ़ा लाये थे और जोधपुर की सेना में सैनिक तो दूर तोपें इधर उधर करने के लिए मजदुरों तक की कमी पड़ गयी थी| ऐसी स्थिति में इंद्रराज सिंघवी ने अपने बलबूते जोधपुर किले से बाहर निकल ऐसी चाल चली कि जयपुर, बीकानेर की सेनाओं को जोधपुर सेना के कमजोर प्रतिरोध के बावजूद मजबूर होकर वापस लौटना पड़ा|

आजादी के कुछ समय पहले भी जब जयपुर की सेना ने सीकर के राजा को गिरफ्तार करने हेतु सीकर पर चढ़ाई की तो शेखावाटी की समस्त शेखावत शक्तियाँ एकजुट होकर जयपुर सेना के खिलाफ आ खड़ी हुई यदि वह युद्ध होता तो भयंकर जनहानि होती पर शेखावाटी के सेठ जमनालाल बजाज की सुझबुझ व कूटनीति ने शेखावाटी व जयपुर के बीच होने वाले इस भयंकर युद्धपात से बचा लिया|

इन उदाहरणों के अलावा राजस्थान के पूर्व राज्यों के इतिहास में आपको कई ऐसे सफल सेनापतियों के बारे में पढने को मिलेगा जो बनिए थे और उन्होंने अपना परम्परागत व्यापार छोड़ सैन्य सेवा में अपनी वीरता व शौर्य का लोहा मनवाया| ज्ञान दर्पण पर जल्द ही आपको ऐसे शौर्य पुरुषों का परिचय भी पढने को मिलेगा|




साभार : SRI RATAN SINGH SHEKHAWAT