कुषाण साम्राज्य के पतन के समय उत्तरी भारत में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, उससे लाभ उठाकर बहुत से प्रान्तीय सामन्त राजा स्वतंत्र हो गए थे।
सम्भवतः इसी प्रकार का एक व्यक्ति 'श्रीगुप्त' भी था। गुप्त राजवंश की स्थापना महाराजा गुप्त ने लगभग 275 ई. में की थी। उनका वास्तविक नाम श्रीगुप्त था।
उसने मगध के कुछ पूर्व में चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार नालन्दा से प्रायः चालीस योजन पूर्व की तरफ़, अपने राज्य का विस्तार किया था।
अपनी शक्ति को स्थापित कर लेने के कारण उसने 'महाराज' की पदवी ग्रहण की।
चीनी बौद्ध यात्रियों के निवास के लिए उसने 'मृगशिख़ावन' के समीप एक विहार का निर्माण कराया था, और उसका ख़र्च चलाने के लिए चौबीस गाँव प्रदान किए थे।
गुप्त राजा स्वयं बौद्ध नहीं थे, पर क्योंकि बौद्ध तीर्थ स्थानों का दर्शन करने के लिए बहुत से चीनी इस समय भारत में आने लगे थे। अतः महाराज श्रीगुप्त ने उनके आराम के लिए यह महत्त्वपूर्व दान दिया था।
दो मुद्राएँ ऐसी मिली हैं, जिनमें से एक पर 'गुतस्य' और दूसरी पर 'श्रीगुप्तस्य' लिखा है। सम्भवतः ये इसी महाराज श्रीगुप्त की हैं।
प्रभावती गुप्त के पूना स्थित ताम्रपत्र अभिलेख में श्री गुप्त का उल्लेख गुप्त वंश के आदिराज के रूप में किया गया है। लेखों में इसका गोत्र धारण बताया गया है।
धारण अगरवाल वैष्यो का एक गोत्र होता हैं. जिससे यह पता चलता हैं की गुप्त वंश के सम्राट अग्रवाल वैश्य थे.
श्री गुप्त ने 'महाराज' की उपाधि धारण की। श्रीगुप्त के समय में महाराजा की उपाधि सामन्तों को प्रदान की जाती थी, अतः श्रीगुप्त किसी के अधीन शासक था । प्रसिद्ध इतिहासकार के. पी. जायसवाल के अनुसार श्रीगुप्त भारशिवों के अधीन छोटे से राज्य प्रयाग का शासक था
इत्सिंग के अनुसार श्री गुप्त ने मगध में एक मंदिर का निर्माण करवाया तथा मंदिर के लिए 24 गांव दान में दिए थे।
इसके द्वारा धारण की गई उपाधि 'महाराज' सामंतों द्वारा धारण की जाती थी, जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि श्रीगुप्त किसी शासक के अधीन शासन करता था।
Sri Gupta (240–280) was a pre-imperial Gupta king in northern India and start of the Gupta dynasty. A portion of northern or central Bengal might have been the home of Guptas at that time, but however not much evidence is available. Maharaj Srigupta belongs to a vaishya lineage.
The first evidence of Śri Gupta comes from the writings of I-tsing around 690 CE who describes that the Poona copper inscription of Prabhavati Gupta, a daughter of Chandra Gupta, describes "Maharaja Sri-Gupta" as the founder of the Gupta dynasty. According to I-tsing's account, Śri Gupta ordered the construction of a temple at Mṛgaśikhāvana for the use of Buddhist pilgrims coming from China, endowing it with the revenue from 40 villages.
Historian A. K. Narain (1983) noted that contemporary scholarship is unaware of Śri Gupta's religious affiliation, due to the lack of surviving evidence. Narain suggested that because he constructed a temple for Chinese Buddhist pilgrims, Śri Gupta might have been a Buddhist himself, or a member of the Hindu sect of Vaiṣṇavism who was tolerant of Buddhist activity in his kingdom. This latter scenario would have been comparable with the later Gupta monarchs, who were predominantly Vaiṣṇavites, but under whose regimes heterodox religious movements like Buddhism and Jainism were allowed to flourish.
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