मारवाड़ी कलकत्ता में कैसे आए? कृष्ण कुमार बिड़ला की आत्मकथा ब्रशेज विद हिस्ट्री में इसकी कहानी है, ‘16वीं सदी तक व्यापारिक समुदाय राजस्थान तक ही सीमित थे। अकबर के प्रमुख सेनापति और अंबेर के राजा मान सिंह ने जब दूरदराज के इलाकों को जीतना शुरू किया, तो उनके साथ ही व्यापारिक समुदाय के लोग अपनी जन्मभूमि से बाहर निकले। और फिर समय के साथ-साथ पूरे देश में फैल गए।’
इस किताब को पढ़ने से पहले तक मैंने इस बारे में बिल्कुल नहीं सोचा था। मान सिंह शेखावटी का रहने वाला था, उसी इलाके का, जहां का बिड़ला परिवार है। मान सिंह को 1594 में बंगाल का गवर्नर बनाया गया, इस पद पर वह कई साल तक रहे। इसका अर्थ हुआ कि मारवाड़ी बंगाल में 400 साल से रह रहे हैं। यहां मारवाड़ी शब्द सभी राजस्थानी बनियों के लिए इस्तेमाल होता है, चाहे वे मारवाड़ के हों, मेवाड़ के हों या शेखावटी के।
बिड़ला का कहना है कि उत्तर भारत में तीन मुख्य व्यापारिक समुदाय हैं- अग्रवाल, ओसवाल और महेश्वरी। इनमें महेश्वरी समुदाय सबसे छोटा है और बिड़ला परिवार इसी समुदाय का है। बिड़ला बताते हैं कि महेश्वरी मूल रूप में क्षत्रिय हैं, जिन्होंने वैश्य बनना पसंद किया। युद्ध लड़ने वाले पूर्वजों का दावा सभी व्यापारिक समुदायों में पाया जाता है, चाहे वे पंजाब के खत्री हों या फिर गुजरात और सिंध के लोहणा। अग्रवालों की उत्पत्ति नाम की एक छोटी-सी किताब में कहा गया है कि वे क्षत्रिय पूर्वज राजा अग्रसेन की संतान हैं। उनके पूर्वज चाहे जो कोई भी हों, लेकिन मारवाड़ी कलकत्ता में काफी अच्छी तरह रच-बस गए, क्योंकि बंगालियों में कोई व्यापारिक समुदाय नहीं है। ठीक उसी तरह, जैसे गुजराती मुंबई में बसे।
भीम राव अंबेडकर ने इस पर 1948 में एक बहुत अच्छा लेख लिखा था। लेख का शीर्षक था- ‘महाराष्ट्रा ऐज अ लिंग्विस्टिक प्रोविंस’ यानी एक भाषायी प्रांत के रूप में महाराष्ट्र। इंडियन मर्चेट चैंबर ने एक प्रस्ताव पारित करके यह मांग की थी कि बंबई (अब मुंबई) को भावी महाराष्ट्र का हिस्सा न बनाया जाए। यह लेख उसी के जवाब में था। अंबेडकर ने इस लेख में बताया है कि यह प्रस्ताव पास करने वालों में एक भारतीय ईसाई के अपवाद के अलावा बाकी सभी गुजराती व्यापारी थे। इसके बाद अंबेडकर ने बताया कि गुजराती व्यापारी किस तरह बंबई में आए और छा गए। सच यह है कि ब्रिटिश सरकार ने सूरत से बनियों का आयात किया था, ताकि बंबई में बना नया बंदरगाह जोर पकड़ सके। मराठियों में भी कारोबार करने वाली जातियां नहीं होतीं। इसके लिए गुजरात के इन लोगों ने ब्रिटिश सरकार के सामने दस मांगें रखी थीं, जिनमें से कुछ का जिक्र अंबेडकर ने अपने लेख में किया था। ये मांगें थीं-
- दक्षिण बंबई की जमीन पर घर या गोदाम बनाने के लिए कोई किराया नहीं लिया जाएगा। (शायद यही वजह है कि मालाबार हिल, कोलाबा और नेपियन सी रोड के इलाके में बहुत सारे गुजराती मिल जाते हैं)
- किसी भी अंग्रेज, पुर्तगाली, ईसाई या मुसलमान को उनके परिसर में रहने की इजाजत नहीं होगी। वे वहां किसी जीव को मार भी नहीं सकेंगे।
- किसी भी वाद या अन्य मामले में गवर्नर या डिप्टी गवर्नर किसी बनिया को सार्वजनिक तौर पर गिरफ्तार नहीं करेंगे, उसका अपमान नहीं करेंगे और उसे नोटिस दिए बिना जेल नहीं भेजेंगे।
- किसी युद्ध या अन्य किसी खतरे की स्थिति के लिए किले में (आज का फोर्ट इलाका) उसका एक गोदाम होगा, जहां वह अपने सामान, अपनी संपत्ति और अपने परिवार को सुरक्षा के लिए रख सकेगा।
- उसे अपने साथ छाता लेकर चलने का अधिकार होगा। (शायद यह बनियों को सम्मान का आभामंडल देने के लिए जरूरी लगा होगा)।
इसी तरह, सूरत के पारसियों ने शांति की मीनार के लिए मुफ्त जमीन की मांग की थी, जिसे 1672 में बंबई के दूसरे गवर्नर गेराल्ड औंगियर ने उन्हें इसके लिए जमीन दी भी।
दक्षिण अफ्रीका में मेमन किस तरह आए? हमें पता है कि जब गांधी महज 23 साल के थे, तो नटाल में उनका गुजराती मुसलमानों से विवाद हुआ था। लेकिन वे गुजराती मुसलमान वहां क्या कर रहे थे? मिहिर बोस ने अपनी किताब द मेमंस में बताया है कि मारीशस के एक भारतीय सेठ अबूबकर अमद ने नटाल में दुकान खोलने की सोची। नटाल के अंग्रेजों को पता नहीं था कि भारतीय व्यापारी क्या कर सकते हैं। जल्द ही उन्हें पता चल गया। ‘उसकी संपन्नता की कहानी उसके शहर पोरबंदर पहुंची। कई दूसरे मेमन भी नटाल पहुंच गए। इसके बाद वहां सूरत से बोहरा भी पहुंचे। कारोबारियों को मुनीम चाहिए था, सो उनके साथ वहां हिंदू मुनीम भी पहुंच गए।’
पाकिस्तान में कोई अर्थव्यवस्था ही नहीं है, इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि पंजाब के कारोबार करने वाले सारे हिंदू और सिख इसे छोड़कर चले गए। अब वहां कराची में जो बचे हैं, वे सब गुजराती मेमन, खोजा और बोहरा ही हैं।
व्यापारिक समुदायों की क्या खासियत होती है? बाकी समुदायों से उनमें क्या अलग होता है? एक तो वे बहुत बहादुर होते हैं और अपनी महत्वाकांक्षाओं के साथ पूरी दुनिया में कहीं भी जा सकते हैं, जबकि हम सब जैसे बाकी लोग अपनी जाति के इलाके में ही रह जाते हैं। अपनी किताब इंडियाज न्यू कैप्टलिस्ट्स: कास्ट, बिजनेस ऐंड इंडस्ट्री इन मॉर्डन नेशन स्टेट में हरीश दामोदरन ने लिखा है, ‘चाहे वे हिंदू हों, पारसी हों या मुसलमान, इन सभी समुदायों में कुछ समानताएं होती हैं- शादी व कारोबारी लेन-देन के लिए कड़े नियम और इसके अलावा सामाजिक मूल्यों के लिए काफी संकीर्ण होना।’
रुपये-पैसे का लेन-देन एक ऐसा रिश्ता है, जिससे एक पक्ष को फायदा होता है और दूसरे पक्ष को न तो कोई फायदा होता है और न कोई नुकसान। इसका एक उदाहरण है, बनियों का एक-दूसरे को बिना किसी ब्याज के पूंजी देना।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
साभार : आकार पटेल, वरिष्ठ पत्रकार, दैनिक हिन्दुस्तान
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