प्रिय मित्रो यह चिटठा हमारे महान वैश्य समाज के बारे में है। इसमें विभिन्न वैश्य जातियों के बारे में बताया गया हैं, उनके इतिहास व उत्पत्ति का वर्णन किया गया हैं। आपके क्षेत्र में जो वैश्य जातिया हैं, कृपया उनकी जानकारी भेजे, उस जानकारी को हम प्रकाशित करेंगे।
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Tuesday, December 29, 2015
Thursday, December 17, 2015
जयदयाल गोयन्दका - JAY DAYAL GOENKA
जयदयाल गोयन्दका (जन्म : सन् 1885 - निधन : 17 अप्रैल 1965) श्रीमद्भगवद् गीता के अनन्य प्रचारक थे। वे गीताप्रेस, गीता-भवन (ऋषीकेश, स्वर्गाश्रम), ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम (चूरू) आदि के संस्थापक थे।
जयदयाल गोयन्दका का जन्म राजस्थान के चुरू में ज्येष्ठ कृष्ण 6, सम्वत् 1942 (सन् 1885) को श्री खूबचन्द्र अग्रवाल के परिवार में हुआ था। बाल्यावस्था में ही इन्हें गीता तथा रामचरितमानस ने प्रभावित किया। वे अपने परिवार के साथ व्यापार के उद्देश्य से बांकुड़ा (पश्चिम बंगाल) चले गए। बंगाल में दुर्भिक्ष पड़ा तो, उन्होंने पीड़ितों की सेवा का आदर्श उपस्थित किया।
उन्होंने गीता तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों का गहन अध्ययन करने के बाद अपना जीवन धर्म-प्रचार में लगाने का संकल्प लिया। इन्होंने कोलकाता में "गोविन्द-भवन" की स्थापना की। वे गीता पर इतना प्रभावी प्रवचन करने लगे थे कि हजारों श्रोता मंत्र-मुग्ध होकर सत्संग का लाभ उठाते थे। "गीता-प्रचार" अभियान के दौरान उन्होंने देखा कि गीता की शुद्ध प्रति मिलनी दूभर है। उन्होंने गीता को शुद्ध भाषा में प्रकाशित करने के उद्देश्य से सन् 1923 में गोरखपुर में गीता प्रेस की स्थापना की। उन्हीं दिनों उनके मौसेरे भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार उनके सम्पर्क में आए तथा वे गीता प्रेस के लिए समर्पित हो गए। गीता प्रेस से "कल्याण" पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ। उनके गीता तथा परमार्थ सम्बंधी लेख प्रकाशित होने लगे। उन्होंने "गीता तत्व विवेचनी" नाम से गीता का भाष्य किया। उनके द्वारा रचित तत्व चिन्तामणि, प्रेम भक्ति प्रकाश, मनुष्य जीवन की सफलता, परम शांति का मार्ग, ज्ञान योग, प्रेम योग का तत्व, परम-साधन, परमार्थ पत्रावली आदि पुस्तकों ने धार्मिक-साहित्य की अभिवृद्धि में अभूतपूर्व योगदान किया है।
उनका निधन 17 अप्रैल 1965 को ऋषिकेश में गंगा तट पर हुआ।
सेठ जयदयाल गोयन्दका द्वारा स्थापित प्रकल्प
वे अत्यन्त सरल तथा भगवद्विश्वासी थे। उनका कहना था कि यदि मेरे द्वारा किया जाने वाला कार्य अच्छा होगा तो भगवान उसकी सँभाल अपने आप करेंगे। बुरा होगा तो हमें चलाना नहीं है।
गोविन्द-भवन-कार्यालय, कोलकाता
यह संस्थाका प्रधान कार्यालय है जो एक रजिस्टर्ड सोसाइटी है। सेठजी व्यापार कार्यसे कोलकाता जाते थे और वहाँ जानेपर सत्संग करवाते थे। सेठजी और सत्संग जीवन-पर्यन्त एक-दूसरेके पर्याय रहे। सेठजीको या सत्संगियोंको जब भी समय मिलता सत्संग शुरू हो जाता। कई बार कोलकातासे सत्संग प्रेमी रात्रिमें खड़गपुर आ जाते तथा सेठजी चक्रधरपुरसे खड़गपुर आ जाते जो कि दोनों नगरोंके मध्यमें पड़ता था। वहाँ स्टेशन के पास रातभर सत्संग होता, प्रात: सब अपने-अपने स्थानको लौट जाते। सत्संगके लिये आजकलकी तरह न तो मंच बनता था न प्रचार होता था। कोलकातामें दुकानकी गद्दियोंपर ही सत्संग होने लगता। सत्संगी भाइयोंकी संख्या दिनोंदिन बढ़ने लगी। दुकानकी गद्दियोंमें स्थान सीमित था। बड़े स्थानकी खोज प्रारम्भ हुई। पहले तो कोलकाताके ईडन गार्डेनके पीछे किलेके समीप वाला स्थल चुना गया लेकिन वहाँ सत्संग ठीकसे नहीं हो पाता था। पुन: सन् 1920 के आसपास कोलकाताकी बाँसतल्ला गलीमें बिड़ला परिवारका एक गोदाम किराये पर मिल गया और उसे ही गोविन्द भवन (भगवान् का घर) का नाम दिया गया। वर्तमानमें महात्मा गाँधी रोडपर एक भव्य भवन ‘गोविन्द-भवन’ के नामसे है जहाँपर नित्य भजन-कीर्तन चलता है तथा समय-समयपर सन्त-महात्माओंद्वारा प्रवचनकी व्यवस्था होती है। पुस्तकोंकी थोक व फुटकर बिक्रीके साथ ही साथ हस्तनिर्मित वस्त्र, काँचकी चूडियाँ, आयुर्वेदिक ओषधियाँ आदिकी बिक्री उचित मूल्यपर हो रही है।
गीताप्रेस-गोरखपुर
कोलकातामें श्री सेठजी के सत्संगके प्रभावसे साधकोंका समूह बढ़ता गया और सभीको स्वाध्यायके लिये गीताजीकी आवश्यकता हुई, परन्तु शुद्ध पाठ और सही अर्थकी गीता सुलभ नहीं हो रही थी। सुलभतासे ऐसी गीता मिल सके इसके लिये सेठजीने स्वयं पदच्छेद, अर्थ एवं संक्षिप्त टीका तैयार करके गोविन्द-भवनकी ओरसे कोलकाता के वणिक प्रेससे पाँच हजार प्रतियाँ छपवायीं। यह प्रथम संस्करण बहुत शीघ्र समाप्त हो गया। छ: हजार प्रतियोंके अगले संस्करणका पुनर्मुद्रण उसी वणिक प्रेससे हुआ। कोलकातामें कुल ग्यारह हजार प्रतियाँ छपीं। परन्तु इस मुद्रणमें अनेक कठिनाइयाँ आयीं। पुस्तकोंमें न तो आवश्यक संशोधन कर सकते थे, न ही संशोधनके लिये समुचित सुविधा मिलती थी। मशीन बार-बार रोककर संशोधन करना पड़ता था। ऐसी चेष्टा करनेपर भी भूलोंका सर्वथा अभाव न हो सका। तब प्रेसके मालिक जो स्वयं सेठजीके सत्संगी थे, उन्होंने सेठजीसे कहा – किसी व्यापारीके लिये इस प्रकार मशीनको बार-बार रोककर सुधार करना अनुकूल नहीं पड़ता। आप जैसी शुद्ध पुस्तक चाहते हैं, वैसी अपने निजी प्रेसमें ही छपना सम्भव है। सेठजी कहा करते थे कि हमारी पुस्तकोंमें, गीताजीमें भूल छोड़ना छूरी लेकर घाव करना है तथा उनमें सुधार करना घावपर मरहम-पट्टी करना है। जो हमारा प्रेमी हो उसे पुस्तकोंमें अशुद्धि सुधार करनेकी भरसक चेष्टा करनी चाहिये। सेठजीने विचार किया कि अपना एक प्रेस अलग होना चाहिये, जिससे शुद्ध पाठ और सही अर्थकी गीता गीता-प्रेमियोंको प्राप्त हो सके। इसके लिये एक प्रेस गोरखपुरमें एक छोटा-सा मकान लेकर लगभग 10 रुपयेके किरायेपर वैशाख शुक्ल 13, रविवार, वि. सं. 1980 (23 अप्रैल 1923 ई0) को गोरखपुरमें प्रेसकी स्थापना हुई, उसका नाम गीताप्रेस रखा गया। उससे गीताजीके मुद्रण तथा प्रकाशनमें बड़ी सुविधा हो गयी। गीताजीके अनेक प्रकारके छोटे-बड़े संस्करणके अतिरिक्त श्रीसेठजीकी कुछ अन्य पुस्तकोंका भी प्रकाशन होने लगा। गीताप्रेससे शुद्ध मुद्रित गीता, कल्याण, भागवत, महाभारत, रामचरितमानस तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थ सस्ते मूल्यपर जनताके पास पहुँचानेका श्रेय श्रीजयदयालजी गोयन्दकाको ही है। गीताप्रेस पुस्तकोंको छापनेका मात्र प्रेस ही नहीं है अपितु भगवान की वाणीसे नि:सृत जीवनोद्धारक गीता इत्यादिकी प्रचारस्थली होनेसे पुण्यस्थलीमें परिवर्तित है। भगवान शास्त्रोंमें स्वयं इसका उद्घोष किये हैं कि जहाँ मेरे नामका स्मरण, प्रचार, भजन-कीर्तन इत्यादि होता है उस स्थानको मैं कभी नहीं त्यागता।नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च।मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।
गीताभवन, स्वर्गाश्रम ऋषिकेश
गीताजी के प्रचारके साथ ही साथ सेठजी भगवत्प्राप्ति हेतु सत्संग करते ही रहते थे। उन्हें एक शांतिप्रिय स्थलकी आवश्यकता महसूस हुई जहाँ कोलाहल न हो, पवित्र भूमि हो, साधन-भजनके लिये अति आवश्यक सामग्री उपलब्ध हो। इस आवश्यकताकी पूर्तिके लिये उत्तराखण्डकी पवित्र भूमिपर सन् 1918 के आसपास सत्संग करने हेतु सेठजी पधारे। वहाँ गंगापार भगवती गंगाके तटपर वटवृक्ष और वर्तमान गीताभवनका स्थान सेठजीको परम शान्तिदायक लगा। सुना जाता है कि वटवृक्ष वाले स्थानपर स्वामी रामतीर्थने भी तपस्या की थी। फिर क्या था सन् 1925 के लगभगसे सेठजी अपने सत्संगियोंके साथ प्रत्येक वर्ष ग्रीष्म-ऋतुमें लगभग 3 माह वहाँ रहने लगे। प्रात: 4 बजेसे रात्रि 10 बजेतक भोजन, सन्ध्या-वन्दन आदिके समयको छोड़कर सभी समय लोगोंके साथ भगवत्-चर्चा, भजन-कीर्तन आदि चलता रहता था। धीरे-धीरे सत्संगी भाइयोंके रहनेके लिये पक्के मकान बनने लगे। भगवत्कृपासे आज वहाँ कई सुव्यवस्थित एवं भव्य भवन बनकर तैयार हो गये हैं जिनमें 1,000 से अधिक कमरे हैं और सत्संग, भजन-कीर्तनके स्थान अलग से हैं। जो शुरूसे ही सत्संगियोंके लिये नि:शुल्क रहे हैं। यहाँ आकर लोग गंगाजीके सुरम्य वातावरणमें बैठकर भगवत्-चिन्तन तथा सत्संग करते हैं। यह वह भूमि है जहाँ प्रत्येक वर्ष न जाने कितने भाई-बहन सेठजीके सान्निध्यमें रहकर जीवन्मुक्त हो गये हैं। यहाँ आते ही जो आनन्दानुभूति होती है वह अकथनीय है। यहाँ आने वालोंको कोई असुविधा नहीं होती; क्योंकि नि:शुल्क आवास और उचित मूल्यपर भोजन एवं राशन, बर्तन इत्यादि आवश्यक सामग्री उपलब्ध है।
श्री ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम, चूरू
जयदयालजी गोयन्दकाने इस आवासीय विद्यालयकी स्थापना इसी उद्देश्यसे की कि बचपनसे ही अच्छे संस्कार बच्चोंमें पड़ें और वे समाजमें चरित्रवान्, कर्तव्यनिष्ठ, ज्ञानवान् तथा भगवत्प्राप्ति प्रयासी हों। स्थापना वर्ष 1924 ई0 से ही शिक्षा, वस्त्र, शिक्षण सामग्रियाँ इत्यादि आजतक नि:शुल्क हैं। उनसे भोजन खर्च भी नाममात्रका ही लिया जाता है।
गीताभवन आयुर्वेद संस्थान
जयदयालजी गोयन्दका पवित्रताका बड़ा ध्यान रखते थे। हिंसासे प्राप्त किसी वस्तुका उपयोग नहीं करते थे। आयुर्वेदिक औषधियोंका ही प्रयोग करते और करनेकी सलाह देते थे। शुद्ध आयुर्वेदिक औषधियोंके निर्माणके लिये पहले कोलकातामें पुन: गीताभवनमें व्यवस्था की गयी ताकि हिमालयकी ताजा जड़ी-बूटियों एवं गंगाजलसे निर्मित औषधियाँ जनसामान्यको सुलभ हो सकें।
सन्दर्भ
जयदयाल गोयन्दकाजी गोविन्द भवन कार्यालय के संस्थापक थे। गीताप्रेस, गोविन्द भवन कार्यालय का एक प्रतिष्ठान है। उक्त लिखित बातें उन व्यक्तियों से प्राप्त हुई हैं जो उनके जीवनकाल में साथी रहे थे।
साभार: विकिपीडिया
Wednesday, December 16, 2015
गीताप्रेस, गोरखपुर
वैश्य समुदाय द्वारा स्थापित गीताप्रेस या गीता मुद्रणालय, विश्व की सर्वाधिक हिन्दू धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित करने वाली संस्था है। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर के शेखपुर इलाके की एक इमारत में धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन और मुद्रण का काम कर रही है। इसमें लगभग २०० कर्मचारी काम करते हैं। यह एक विशुद्ध आध्यात्मिक संस्था है। देश-दुनिया में हिंदी, संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशित धार्मिक पुस्तकों, ग्रंथों और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री कर रही गीताप्रेस को भारत में घर-घर में रामचरितमानस और भगवद्गीता को पहुंचाने का श्रेय जाता है। गीता प्रेस की पुस्तकों की बिक्री 18 निजी थोक दुकानों के अलावा हजारों पुस्तक विक्रेताओं और 30 प्रमुख रेलवे स्टेशनों पर बने गीता प्रेस के बुक स्टॉलों के जरिए की जाती है। गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा कल्याण (हिन्दी मासिक) और कल्याण-कल्पतरु (इंग्लिश मासिक) का प्रकाशन भी होता है।
गीताप्रेस की स्थापना सन् 1923 ई० में हुई थी। इसके संस्थापक महान गीता-मर्मज्ञ श्री जयदयाल गोयन्दका थे। इस सुदीर्घ अन्तरालमें यह संस्था सद्भावों एवं सत्-साहित्य का उत्तरोत्तर प्रचार-प्रसार करते हुए भगवत्कृपा से निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर है। आज न केवल समूचे भारत में अपितु विदेशों में भी यह अपना स्थान बनाये हुए है। गीताप्रेस ने निःस्वार्थ सेवा-भाव, कर्तव्य-बोध, दायित्व-निर्वाह, प्रभुनिष्ठा, प्राणिमात्र के कल्याण की भावना और आत्मोद्धार की जो सीख दी है, वह सभी के लिये अनुकरणीय आदर्श बना हुआ है।
करीब 90 साल पहले यानी 1923 में स्थापित गीता प्रेस द्वारा अब तक 45.45 करोड़ से भी अधिक प्रतियों का प्रकाशन किया जा चुका है। इनमें 8.10 करोड़ भगवद्गीता और 7.5 करोड़ रामचरित मानस की प्रतियां हैं। गीता प्रेस में प्रकाशित महिला और बालोपयोगी साहित्य की 10.30 करोड़ प्रतियों पुस्तकों की बिक्री हो चुकी है।
गीता प्रेस ने 2008-09 में 32 करोड़ रुपये मूल्य की किताबों की बिक्री की। यह आंकड़ा इससे पिछले साल की तुलना में 2.5 करोड़ रुपये ज्यादा है। बीते वित्त वर्ष में गीता प्रेस ने पुस्तकों की छपाई के लिए 4,500 टन कागज का इस्तेमाल किया।
गीता प्रेस की लोकप्रिय पत्रिका कल्याण की हर माह 2.30 लाख प्रतियां बिकती हैं। बिक्री के पहले बताए गए आंकड़ों में कल्याण की बिक्री शामिल नहीं है। गीता प्रेस की पुस्तकों की मांग इतनी ज्यादा है कि यह प्रकाशन हाउस मांग पूरी नहीं कर पा रहा है। औद्योगिक रूप से पिछडे¸ पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस प्रकाशन गृह से हर साल 1.75 करोड़ से ज्यादा पुस्तकें देश-विदेश में बिकती हैं।
गीता पे्रस के प्रोडक्शन मैनेजर लालमणि तिवारी कहते हैं, हम हर रोज 50,000 से ज्यादा किताबें बेचते हैं। दुनिया में किसी भी पब्लिशिंग हाउस की इतनी पुस्तकें नहीं बिकती हैं। धार्मिक किताबों में आज की तारीख में सबसे ज्यादा मांग रामचरित मानस की है। अग्रवाल ने कहा कि हमारे कुल कारोबार में 35 फीसदी योगदान रामचरित मानस का है। इसके बाद 20 से 25 प्रतिशत का योगदान भगवद्गीता की बिक्री का है।
गीता प्रेस की पुस्तकों की लोकप्रियता की वजह यह है कि हमारी पुस्तकें काफी सस्ती हैं। साथ ही इनकी प्रिटिंग काफी साफसुथरी होती है और फोंट का आकार भी बड़ा होता है। गीताप्रेस का उददेश्य मुनाफा कमाना नहीं है। यह सदप्रचार के लिए पुस्तकें छापते हैं। गीता प्रेस की पुस्तकों में हनुमान चालीसा, दुर्गा चालीसा और शिव चालीसा की कीमत एक रुपये से शुरू होती है।
गीता प्रेस के कुल प्रकाशनों की संख्या 1,600 है। इनमें से 780 प्रकाशन हिंदी और संस्कृत में हैं। शेष प्रकाशन गुजराती, मराठी, तेलुगू, बांग्ला, उड़िया, तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में हैं। रामचरित मानस का प्रकाशन नेपाली भाषा में भी किया जाता है।
तमाम प्रकाशनों के बावजूद गीता प्रेस की मासिक पत्रिका कल्याण की लोकप्रियता कुछ अलग ही है। माना जाता है कि रामायण के अखंड पाठ की शुरुआत कल्याण के विशेषांक में इसके बारे में छपने के बाद ही हुई थी। कल्याण की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि शुरुआती अंक में इसकी 1,600 प्रतियां छापी गई थीं, जो आज बढ़कर 2.30 लाख पर पहुंच गई हैं। गरुड़, कूर्म, वामन और विष्णु आदि पुराणों का पहली बार हिंदी अनुवाद कल्याण में ही प्रकाशित हुआ था।
गीता प्रेस की कुछ विशेषताएं
गीताप्रेस की कुछ विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
गीता प्रेस सरकार या किसी भी अन्य व्यक्ति या संस्था से किसी तरह का कोई अनुदान नहीं लेता है।
गीता प्रेस में प्रतिदिन 50 हजार से अधिक पुस्तकें छपती हैं।
92 वर्ष के इतिहास में मार्च, 2014 तक गीता प्रेस से 58 करोड़, 25 लाख पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें गीता 11 करोड़, 42 लाख। रामायण 9 करोड़, 22 लाख। पुराण, उपनिषद् आदि 2 करोड़, 27 लाख। बालकों और महिलाओं से सम्बंधित पुस्तकें 10 करोड़, 55 लाख। भक्त चरित्र और भजन सम्बंधी 12 करोड़, 44 लाख और अन्य 12 करोड़, 35 लाख।
मूल गीता तथा उसकी टीकाओं की 100 से अधिक पुस्तकों की 11 करोड़, 50 लाख से भी अधिक प्रतियां प्रकाशित हुई हैं। इनमें से कई पुस्तकों के 80-80 संस्करण छपेे हैं।
यहां कुल 15 भाषाओं (हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, गुजराती, मराठी, बंगला, उडि़या, असमिया, गुरुमुखी, नेपाली और उर्दू) में पुस्तकें प्रकाशित होेती हैं।
यहां की पुस्तकें लागत से 40 से 90 प्रतिशत कम दाम पर बेची जाती हैं।
पूरे देश में 42 रेलवे स्टेशनों पर स्टॉल और 20 शाखाएं हैं।
गीता प्रेस अपनी पुस्तकों में किसी भी जीवित व्यक्ति का चित्र नहीं छापती है और न ही कोई विज्ञापन प्रकाशित होता है।
गीता प्रेस से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'कल्याण' की इस समय 2 लाख, 15 हजार प्रतियां छपती हैं। वर्ष का पहला अंक किसी विषय का विशेषांक होता है।
गीता प्रेस का संचालन कोलकाता स्थित 'गोबिन्द भवन' करता है।
सम्बन्धित संस्थाएं
गीताप्रेस, गोविन्द भवन कार्यालय, कोलकाता का भाग है।
अन्य सम्बन्धित संस्थान हैं :
गीता भवन, हृषिकेश
ऋषिकुल्-ब्रह्मचर्य आश्रम् (वैदिक विद्यालय), चुरू, राजस्थान
आयुर्वेद संस्थान, हृषिकेश
गीताप्रेस सेवा दल (प्राकृतिक आपदाओं के समय सहायता करने के लिये)
हस्त-निर्मित वस्त्र विभाग
साभार: विकिपीडिया
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