गोपीनाथ साहा का जन्म पश्चिम बंगाल में ज़िला हुगली के सरामपुर में सन् 1901 में पिता विजय कृष्ण साहा के घर में हुआ था। प्रतिष्ठित परिवार ने स्कूल की शिक्षा भी दी। परन्तु उन्होंने देशभक्ति का मार्ग चुन लिया और 1921 के असहयोग आन्दोलन में तन, मन, धन से समर्पित होकर कार्य किया। इसके बाद वे देवेन डे, हरिनारायण और ज्योशि घोष क्रान्तिकारियों के संपर्क में आकर ‘युगान्तर दल’ के सक्रिय सदस्य बन गए। उन दिनों कलकत्ता में पुलिस के डिटेक्टिव डिपार्टमेन्ट के मुखिया चार्ल्स टेगार्ट ने क्रान्तिकारियों के ख़िलाफ़ बहुत सख्ती से मोर्चा खोला हुआ था। देशभक्तों के ऊपर बहुत ज़ुल्म किया जा रहा था। टेगार्ट के सख्त रवैये के चलते बहुत से क्रान्तिकारियों को फाँसी पर लटकाया जा चुका था। बहुतेरे जेलों में सड़ रहे थे। ऐसे में ‘युगान्तर दल’ ने यह निर्णय लिया कि टेगार्ट का काम तमाम कर दिया जाए। इससे क्रान्तिकारियों का मनोबल बढ़ेगा और पुलिस का टूटेगा तथा शहीद क्रान्तिकारियों का बदला भी लिया जा सकेगा । उसको ख़त्म करने की ज़िम्मेदारी गोपीनाथ साहा को दी गई। दिनाँक 12 जनवरी 1924 को चौरंगी रोड पर टेगार्ट के आने की भनक थी। घात लगाकर गोपीनाथ ने आने वाले अंग्रेज पर फॉयर किया। उनका ख़्याल था कि वह चार्ल्स टेगार्ट है। परन्तु बाद में पता चला कि मारा जाने वाला एक सिविलियन अंग्रेज था जो किसी कम्पनी में कार्य करता था। उसका नाम अर्नेस्ट डे था। लोगों ने उनका पीछा किया और गोपीनाथ साहा पकडे ग़ए। गोपीनाथ के ऊपर मुक़द्दमा दर्ज़ करके न्यायलय में केस चलाया गया। 21 जनवरी, 1924 को पेशी पर उन्होंने जज से मुख़ातिब होकर बड़ी बेबाक़ी और बहादुरी से कहा, ‘कंजूसी क्यों करते हैं, दो-चार धाराएँ और भी लगाइए’। बहुत ही साहस और दिलेरी से उन्होंने केस का सामना किया।
उच्च अदालत में पेशी पर उन्होंने कहा; मैं तो चार्ल्स टेगार्ट को ठिकाने लगाना चाहता था क्योंकि उसने देश-प्रेमी क्रान्तिकारियों को काफी तंग कर रखा था। लेकिन उसकी क़िस्मत अच्छी थी कि वह बच निकला और इस बात का दु:ख है कि एक मासूम व्यक्ति मारा गया। परन्तु मुझे विश्वास है कि कोई न कोई क्रान्तिकारी मेरी इस इच्छा को ज़रूर पूरी करेगा। अदालत ने उनके इस बयान पर 16 फरवरी को उन्हें फाँसी की सज़ा सुनाई। सज़ा सुनते ही वे खिलखिलाकर हँसे और बोले; मैं फाँसी की सज़ा का स्वागत करता हूँ। मेरी इच्छा है कि मेरे रक्त की प्रत्येक बूंद भारत के प्रत्येक घर में आज़ादी के बीज बोए। एक दिन आएगा जब ब्रिटिश हुक़ूमत को अपने अत्याचारी रवैये का फल भुगतना ही पड़ेगा।
1 मार्च 1924 को उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया। और एक साहसी वीर देश के लिए 23 वर्ष की आयु में शहीद हो गया। फाँसी के तख्ते पर वह प्रसन्न मुद्रा में पहुँचा। काल-कोठरी से लाने से कुछ क्षण पहले ही उन्होंने अपनी माँ को पत्र लिखा; तुम मेरी माँ हो यही तुम्हारी शान है। काश! भगवान हर व्यक्ति को ऐसी माँ दे जो ऐसे साहसी सपूत को जन्म दे। गोपीनाथ साहा की बहादुरी, संकल्प, दृढ़-निश्चय और शहादत की दास्तान तब तक ज़िन्दा रहेगी जब तक संसार चलता रहेगा। हमारी आज़ादी जो उन जैसे अनगिनत शहीदों के बलिदान से मिली है, उसकी सार्थकता और औचित्य को और मज़बूत बनाएँ और देश में ‘सबसे पहले देश’ के मनोभाव के साथ सामाजिक तथा आर्थिक विषमताएँ दूर कर भारत को एक समृद्ध-शक्तिशाली देश बनाएँ। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
साभार: saadarindia.com/
No copy option? Why? Such stinginess really hurts the name and fame of the Vaisya Samaj. Otherwise, the article is commendable though could be more detailed.
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