Mahajan Seth Lakshmi Chandra of Mathura
मथुरा के सेठ लक्ष्मीचंद्र अपने समय के अत्यंत प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वे महाजन सेठ मणिराम के ज्येष्ठ पुत्र थे। फतेहचंद और मणिराम के पिता श्री जिनदास जयपुर राज्य के मालपुरा गाँव में रहने वाले साधारण वर्ग के खंडेलवाल जैन वैश्य महाजन थे। फतेहचंद और मणिराम बेहतर आजीविका की तलाश में जयपुर गए थे। मणिराम ने जयपुर छोड़कर अन्यत्र व्यापार में भाग्य आजमाया। रास्ते में एक धर्मशाला में उन्होंने एक साधारण से दिखने वाले बीमार व्यक्ति की सेवा की और उसकी जान बचाई। वे कोई और नहीं, ग्वालियर राज्य के धनी गुजराती महाजन सेठ राधामोहन पारीख थे, जिन पर वहाँ के शासक की विशेष कृपा थी। उनके स्वार्थी सेवकों ने उनका सारा कीमती सामान और संपत्ति छीनकर उन्हें धर्मशाला में ही छोड़ दिया था। उनकी सेवाओं से अत्यंत कृतज्ञ और प्रसन्न होकर सेठ राधामोहन मणिराम को अपने साथ ग्वालियर ले गए और उन्हें कपड़े के व्यवसाय में स्थापित कर दिया। ग्वालियर के शासक की पत्नी महारानी बैजाबाई का सेठ पारीख पर गहरा आदर और विश्वास था। उन्होंने उन्हें मथुरा में एक विशाल मंदिर बनवाने का आदेश दिया। मणिराम के साथ सेठ पारीख वहीं बस गए और बैंकिंग का व्यवसाय शुरू किया। उन्होंने व्यापारिक कार्य मणिराम को सौंप दिया और स्वयं धार्मिक जीवन व्यतीत करने लगे। महारानी की इच्छानुसार सेठ मणिराम ने मथुरा में प्रसिद्ध द्वारकाधीश मंदिर का निर्माण कराया। जैन होने के कारण उन्होंने मथुरा के निकट चौरासी में प्रसिद्ध जंबूस्वामी जैन मंदिर का भी निर्माण कराया। 1825 में उन्होंने छैढ़ाला की रचना करने वाले पं. दौलतराम को अपने यहाँ रहने के लिए आमंत्रित किया। निःसंतान होने पर सेठ राधामोहन ने सेठ मणिराम के ज्येष्ठ पुत्र लक्ष्मीचन्द्र जैन को गोद ले लिया। सेठ लक्ष्मीचन्द्र ने एक बड़े व्यापारी और धार्मिक प्रवृत्ति के प्रभावशाली व्यक्ति के रूप में खूब नाम कमाया। उनके समय में परिवार का नाम और प्रतिष्ठा चरम पर थी। उनकी हुण्डियों की दूर-दूर तक साख थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के बड़े अंग्रेज अधिकारी भी उनका बड़ा सम्मान करते थे। वे साहसी, निर्भीक और स्वतंत्र स्वभाव के थे। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जहाँ एक ओर उन्होंने अंग्रेजों की सहायता की, वहीं दूसरी ओर उन्होंने मथुरा की जनता को अंग्रेजों और विद्रोही सेनाओं के अत्याचार और अन्याय से बचाया। कुछ समय तक उन्होंने मथुरा और उसके आस-पास के क्षेत्रों पर लगभग नियंत्रण कर लिया था। 1857 के बाद वे अंग्रेजों और मथुरा की जनता, दोनों के बीच और अधिक लोकप्रिय हो गए। सेठ लक्ष्मीचंद्र जैन की अपने धर्म में गहरी आस्था थी। उनके भाई राधा कृष्ण और गोविंद दास वैष्णव संतों के भक्त थे। जब सेठ लक्ष्मीचंद्र एक विशाल संघ के साथ जैन तीर्थस्थलों की यात्रा पर निकले, तो उनकी अनुपस्थिति में उनके भाइयों ने वृंदावन में प्रसिद्ध रंगजी मंदिर का निर्माण कार्य आरंभ किया। स्वदेश लौटने पर धार्मिक रूप से सहिष्णु सेठ लक्ष्मीचंद्र ने अपने भाइयों की सहायता की और अपनी देखरेख में मंदिर का निर्माण पूरा कराया। उन्होंने इस मंदिर और मथुरा स्थित द्वारकाधीश मंदिर के रखरखाव के लिए जागीरें प्रदान की थीं। उनके पुत्र सेठ रघुनाथ दास एक धार्मिक प्रवृत्ति के प्रमुख व्यवसायी थे। उन्होंने चौरासी स्थित जम्बूस्वामी मंदिर में ग्वालियर से लाकर भगवान अजितनाथ की एक भव्य मूर्ति स्थापित की थी।उन्होंने वहां 8 दिवसीय कार्तिकी मेला और रथ जुलूस भी शुरू किया। निःसंतान, सेठ रघुनाथ दास ने 1853 में पैदा हुए लक्ष्मी दास को गोद लिया था, जो उनके चाचा राधा कृष्ण के पुत्र थे। वह अपने समय के जैन समाज के एक प्रमुख नेता थे। उन्होंने 1884 में अखिल भारतीय दिग जैन महासभा की स्थापना की। उन्होंने मथुरा में इसके कई सत्र आयोजित किए और उन सम्मेलनों और कार्तिकी मेले में एक उदार मेजबान थे। उनके सक्रिय प्रयासों से महासभा ने चौरासी में जैन महाविद्यालय की स्थापना की थी।
अंग्रेजी सरकार ने उन्हें राजा और सी.आई.ई. की उपाधि से सम्मानित किया था। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन मथुरा में उनके निजी अतिथि रहे थे। जयपुर, भरतपुर, ग्वालियर, धौलपुर और रामपुर आदि राज्यों के शासकों के साथ उनके घनिष्ठ संबंध थे। अपने उदार और मददगार स्वभाव तथा ज़रूरतमंदों व गरीबों के प्रति दयालु हृदय के कारण वे जनता के बीच बहुत लोकप्रिय थे। उन्होंने बहुत ही शालीन जीवन जिया।
बाद में कलकत्ता कोठी में अपने लेखाकार के नासमझी भरे कदमों और अंग्रेज अफसरों की धूर्त नीतियों के कारण उन्हें व्यापार में भारी नुकसान उठाना पड़ा। 1900 में 47 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
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