#KASLWAR VAISHYA - कलवारों के भगवान बलभद्र
आप सभी हैहयवंशी, बलभद्रवंशी कलचुरी राजवंश में उत्त्पन समस्त कलवार, कलार और कलार बंधुओं को हार्दिक बधाई और आत्मीय शुभकामनाएं देते हुए अंतर्मन से आह्लादित हूँ।
ब्रह्मा को सृष्टि रचियता मानते हुए यदि वंशावली का अवलोकन किया जाये तो ब्रह्मा से भृगु, शुक्र, अत्तरी, चंद्र .... होते हुए बीसवीं पीढ़ी में चक्रवर्ती राजधिराज श्री कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन जी महाराज उत्प्पन हुए और इनके प्रपोत्र के प्रपोत्र श्री बलभद्र जी द्वापरयुग में अवतरित हुए।
श्री विष्णु की सेविका योगमाया ने कंस के कारगृह में बंदी जीवन जीने वाली माता देवकी के सातवें गर्भ को श्री वसुदेव की धर्मपरायणा पत्नी रोहिणी के गर्भ में संकर्षण विधि के द्वारा स्थापित कर दिया। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को रोहिणी नक्षत्र, तुला लग्न में भगवान प्रकट हुए।
बाल्यकाल में अपने अनुज श्री कृष्ण के साथ कई लीला करने वाले बलराम के सहस्त्र नाम हैं पर उनमें नौ नाम प्रसिद्ध है, जो इस प्रकार हैं – 1. संकर्षण, 2. अनंत, 3. बलदेव, 4. हली, 5. शीतिवासा, 6. मूसली, 7. रेवतीरमण, 8. रौहिणेय और 9. बलभद्र
श्री बलभद्र की पूजा केवल कलवार, कलाल और कलारों के द्वारा जन्मोतस्व के रूप में ही नहीं मनाया जाता है अपितु देश के कई भागों में अलग अलग रूप में होती है। मध्य और पश्चिम भारत में मनाया जाने वाला हलषष्ठी का व्रत भी श्री बलभद्र को ही समर्पित है और श्री बलभद्र की तरह बलशाली और श्रेष्ठ आचरणभाषी पुत्र की प्राप्ति के लिए किया जाता है, जिसमे औरतें जमीन में पैदा होने वाले उस तरह के अनाज का प्रयोग नहीं करती जिसमें हल का प्रयोग होता रहा है, साथ ही गाय के दुग्ध या इससे बने पदार्थ का उपयोग भी नहीं करती हैं।
बलभद्र किसानों के भी देवता हैं और उनके प्रेरक भी। हल और मुसल जैसे कृषकयंत्रों को शस्त्र के रूप में प्रयोग कर कृषक को कुशल योद्धा बना दिया।
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में सम्पूर्ण भारत वर्ष में 500 से भी अधिक स्थानों पर बलभद्र जन्मोतस्व मनाया जाता है साथ ही कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया ... जैसे विकसित देशों में भी बलभद्र जनमोत्स्व की धूम रहती है।
विश्वप्रसिद्ध श्री जगन्नाथ धाम की पुरी रथ यात्रा जिसमें भगवान् श्री बलभद्र अपने अनुज और बहन सुभद्रा के साथ विराजमान रहते हैं। पश्चिम बंगाल का विश्व प्रसिद्ध मायापुर मंदिर के साथ इस्कॉन मंदिर में भी श्री बलभद्र अपने अनुज के साथ वास करते हैं।
ब्रह्मा जी के द्वारा रचित और श्री बलभद्र को समर्पित षोडशाक्षर मंत्र "ॐ कीं कालिंदी भेदनाय संकर्षणाय स्वाहा" का जाप दुःख, व्याधि और पापों को हरने वाला है।
मेरी जानकारी में यह जाति एकमात्र ऐसी जाति है जो आदि काल से विवाह संबंधों में "बान" का प्रयोग करती है। इस बान प्रथा के कारण नजदीकी रिश्तों (वर/ वधु के पिता के खुद का वंश - मूलबान , वर/ वधु के पिता की दादी का मायका का वंश - ददियाउर , वर/ वधु के पिता के नाना का वंश - ननियाउर, वर/ वधु के माता के मायके का वंश - ससुराल, वर/ वधु के माता के नाना का वंश - सास का नैहर) में शादी नहीं होती है, जिसे आज का विज्ञान भी मान्यता देता है और आधुनिक विज्ञान में 'MARRIAGE WITHIN BLOOD RELATION AND EFFECT' के शीर्षक से कई शोध पत्र मौजूद हैं, यानि विज्ञान ने जिसे आज माना, वह ज्ञान हमारे पास कई सौ वर्षों पूर्व से ज्ञात है।
श्री बलभद्र से हमारा सम्बन्ध आदिकाल से चला आ रहा है जिसका प्रमाण हमारे रीति- रिवाज और प्रथा में हज़ारों हज़ार साल से है। स्वजातीय समाज में आज कि तारीख में भी होने वाले सारे वैवाहिक कार्यक्रम में भगवान् श्री बलभद्र की पूजा कुलदेव के रूप में ही होती आ रही है और इस पूजन के बिना विवाह संपन्न ही नही हो सकते।
कलवार समाज अपने शादी ब्याह में जिस बेलभदर (यह भाषाई अपभ्रंश है सही उच्चारण बलभद्र है) के बात का जिक्र करता है वह वास्तव में बलभद्र का भात है यानी हमारे कुलदेवता भगवान बलभद्र और बलभद्र मनावन की रस्म भी अपने भगवान बलभद्र को मनाने से जुड़ी है।
महाभारत काल में भगवान् बलभद्र ने जब सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से तय कर दिया तो श्री कृष्ण को यह नागवार गुजरा और उन्होंने अपने सखा अर्जुन को समझा कर सुभद्रा का अपहरण करवा लिया। जिस रथ में सुभद्रा को लेकर अर्जुन गए उस रथ को खुद सुभद्रा ही चला रही थी। जब श्री बलभद्र को यह जानकारी हुई तो वे क्रोधित हो गए हुए अर्जुन को दण्डित करने निकल पड़े। तब श्री कृष्ण ने दाऊ को समझाया कि “हमारी बहन अर्जुन से प्रेम करती हैं और वह रथ चला कर अर्जुन का अपहरण कर के ले गई है।अर्जुन अपराधी नहीं हैं तथा वह सुभद्रा के लिए सुपात्र भी है |" इस तरह बलभद्र जी को बहुत अनुनय विनय कर के मनाया गया। इसी अनुनयपूर्वक मनाने की विधि को "मनावन" बोला जाता है। श्री बलभद्र जी मान गए और विवाह हेतु शुभाशीष दिया | तभी से कलवार जाति में बलभद्र मनावन की परंपरा चली आ रही है इस विधि को मान कर ही आज भी विवाह सम्पन्न होते हैं|
इस रस्म को मानाने के लिए सर्वप्रथम कुम्हार के घर से बलभद्र जी की एक मिट्टी की छोटी प्रतिमा लाई जाती है | इस प्रतिमा को जौ से सजाया जाता है | बाजे गाजे के साथ इस प्रतिमा को घर की महिलाएं ले कर आती हैं इसे “श्री बलभद्र लाना” कहतें हैं| वैवाहिक विधि - विधान में हल के पाटे का भी उपयोग किया जाता है, जिसे शिरीष कहते हैं। उपवास रह कर अति शुद्धता और भक्ति के साथ पूजा स्थान पर कुल देवता बलभद्र जी को स्थान दिया जाता है और पूजा की जाती है | छोटे छोटे चुकिया कलश जो ढक्कन के साथ होता है उनके सम्मुख रखा जाता है | इन पात्रों को चना दाल तथा शुद्ध घी से बने मीठी बुंदिया से भरा जाता है और ढक दिया जाता है | एक पात्र में चीनी का शरबत भी भरा जाता है | एक पत्तल में पान का बीड़ा, और दांत सफा करने हेतु खरिक्का रखा जाता है | श्री बलभद्र भगवान जी को भोग लगाने के लिए “कच्ची रसोई” जैसे भात, दाल, बजका, बरी, अदौरी, फुलौरा (एक तरह की खास मिठाई), सब्जी, इत्यादि बनायीं जातीं है, फिर थाली में भोग लगाया जाता है | प्रसाद में अर्पित भोग को उसी थाली में मिला कर अपने वंश के सदस्यों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है !
यह पूजा 5 पुरुष जो कि अपने कुल (एक मुलबान) के होते हैं, करतें हैं | ये पांचो व्यक्ति उस थाली को पकड़ कर एक सदस्य प्रश्न करता है और शेष ४ के साथ अन्य उपस्थित समूह उत्तर देता है!
प्रश्न 1 “बलभद्र जी उठलें ? ” उत्तर 1“ हाँ उठलें !”
प्रश्न 2 “ बलभद्र जी मुहँ धोवलें ?”
उत्तर 2 - “ हाँ धोवलें !”
प्रश्न 3 “बलभद्र जी खाना खइलन ?”
उत्तर 3 - “हाँ खइलन !”
प्रश्न 4 “बलभद्र जी कुल्ला कइलन ?”
उत्तर 4 - सबकोई मिलकर स्वांग करते हुए एक साथ “हाँ कुल्ला कइलन!”
प्रश्न 5 “बलभद्र पान खइलन”
उत्तर 5 सभी पान खाने के स्वांग के साथ देते है “हाँ खइलन!”
इसे सम्पन्न करने के बाद समझा जाता है कि बलभद्र जी अब मान गए हैं, अतः उनके आशीर्वाद से विवाह निर्विघ्न रूप से संपन्न होगा |
विवाह होने तक श्री बलभद्र जी की प्रतिमा को पूजा घर में रखा जाता है | “चौठारी” (विवाह का चौथा दिन - दूल्हा - दुल्हन के हांथों के मंगल बंधनवार को खोलने तथा मंदिरों में दर्शन वाले दिन ) इस प्रतिमा को बड़े ही श्रद्धा, सम्मान और प्यार से नजदीक के नदी में विसर्जित कर दिया जाता है |
यह श्री बलभद्र के वंशज होने का आध्यात्मिक और धार्मिक प्रमाण है।
अब स्वजातीय समाज के सामाजिक और राजनितिक स्थिति पर नज़र डालने से पता चलता है की पुरे भारत वर्ष में लगभग 10 करोड़ की आबादी वाला यह समाज आज जाग्रत हो रहा है और राजनितिक भागीदारी की मांग करने लगा है।
भारत वर्ष में जाति प्रथा आदि काल से चली आ रही है। प्रारंभ की वर्ण व्यवस्था आज जातियों व उपजातियो में बिखर चुकी है। दिन प्रतिदिन यह लघु रूपों में बिखरती जा रही है। आज की कलवार, कलाल या कलार जाति जो कभी क्षत्रिय थी, आज कई राज्यों में वैश्यों के रूप में पहचानी जाती है। यह हैहय वंश या कलचुरि वंश की टूटती हुई श्रंखला की कड़ी मात्र है। इसे और टूटने से बचाना है।
वर्ण व्यवस्था वेदों की देन है, तो जातियाँ व उपजातियाँ सामाजिक व्यवस्था की उपज है।
कलवार शब्द की उत्पत्ति का अध्ययन करने पर पता चलता है कि मेदिनी कोष में कल्यपाल/ कल्पपाल शब्द का अर्थ 'न्यायाधिपति प्रजापति' है। कल्यपाल/ कल्पपाल शब्द का अपभ्रंश ही कलवार है।
कल्हण कृत राज तरंगिणी संस्कृत ग्रन्थ में जो काश्मीर के प्राचीन महाराजाओं का इतिहास है, राज्यक्रम का वर्णन करते हुए आचार्य ने करकोटि राज्यवंश के पश्चात कल्पपाल राज्यवंश का वर्णन किया है। कल्पपाल के वंशज अपने आगे वरमन उपाधि का प्रयोग करते हैं। वरमन की उपाधि केवल क्षत्रिय के लिए प्रचलित थी। आज भी कलवार जाति के लोग इस उपाधि का प्रयोग करते हैं। इस उपनाम के लोग बंगाल में बहुतायत में हैं और आज भी खुद को क्षत्रिय ही मानते हैं।
पद्मभूषण डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक "अशोक का फूल" में लिखा हैं कि कलवार हैहय क्षत्रिय थे। सेना के लिए कलेऊ की व्यवस्था करते थे, इसीलिए कालांतर में वैश्य कहलाये। क्षत्रियो के कलेवा में मादक द्रव्य भी होता था, इसी लिए ये मादक द्रव्यों का कारोबार करने लगे और आगे चलकर इस मादक द्रव्य ने कलवार की सामाजिक मर्यादा घटा दी।
श्री नारायण चन्द्र साहा की जाति विषयक खोज से यह सिद्ध होता हैं की कलवार उत्तम क्षत्रिय थे। जब गजनवी ने कन्नौज पर हमला किया तो उसका मुकाबला कालिंदी पार के कलवारों ने किया था, जिसके कारण इन्हें कलिंदिपाल भी बोलने लगे। इसी कलिंदिपाल का अपभ्रंश भी कलवार ही हैं।
संस्कृत व्युत्पत्ति से कलवार शब्द का भी अपना एक स्वत्रन्त्र अर्थ है - यथा कलः सुन्दरः वारयस्य यानी जिनके दिन वाणिज्य व्यवहारादि द्वारा सुखमय रहते हों, वे कलवार कहलाये।
आचार्य क्षितिमोहन सेन शास्त्री ने भारत वर्ष में जाति भेद" नामक पुस्तक के पृष्ठ 153 में लिखा है -
"गुरु गोविन्द सिंह के खालसा धर्म में जाति धर्म निर्विशेष सभी सादर स्वीकृत हुए हैं उनमे कलवार यानी मद्य विक्रेता कलाल जाति भी क्रमशः अभिजात हो सकी है।"
हैययवंशी क्षत्रिय कलवार, कलाल व कलार का ज्ञात इतिहास लाखों साल पुराना है। स्वजातीय इतिहास में नर्मदा नदी तट स्थित और राजा हैहय के प्रपौत्र महिष्मान द्वारा बसाया गया महिष्मति नगर (वर्तमान में मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में महेश्वर के नाम से प्रसिद्द है, जो कार्तवीर्य सहस्त्ररार्जुन जी महाराज कि राजधानी थी) का विशेष धार्मिक महत्व है। इसी तरह शेषनाग अवतार श्री बलभद्र जी से सम्बंधित गोकुल, मथुरा ...आदि के भी धार्मिक रूप से विशेष महत्व हैं।
अनुसंधानों से पता चलता हैं कि कलवार जाति के तीन बड़े - बड़े हिस्से हुए हैं, वे हैं प्रथम पंजाब दिल्ली के खत्री, अरोरे कलवार यानि की कपूर, खन्ना, मल्होत्रा, मेहरा, सूरी, भाटिया , कोहली, खुराना, अरोरा ...... इत्यादि। दूसरा हैं राजपुताना के मारवाड़ी कलवार यानि अगरवाल, वर्णवाल, लोहिया ..... आदि। तीसरा हैं देशवाली कलवार जैसे अहलूवालिया, वालिया, बाथम, शिवहरे, माहुरी, शौन्द्रिक, साहा, गुप्ता, महाजन, कलाल, कराल, कर्णवाल, सोमवंशी, सूर्यवंशी, जैस्सार, जायसवाल, व्याहुत, चौधरी, प्रसाद, भगत ..... आदि।
कश्मीर के कुछ कलवार बर्मन तथा कुछ शाही उपनाम धारण करते हैं। झारखण्ड के कलवार प्रसाद, साहा, चौधरी, सेठ, महाजन, जायसवाल, भगत, मंडल .... आदि प्रयोग करते हैं। नेपाल के कलवार शाह उपनाम का प्रयोग करते हैं। जैन पंथ वाले जैन कलवार कहलाये।
आज इस इतिहास को जान जान तक पहुंचाने की नितांत आवश्यकता है ताकि हमारी वर्तमान और आगामी पीढ़ी इसे सहेज कर और समृद्ध बना सके।
IIजय कलवार, जय कलाल व जय कलारII
IIजय सहस्त्रार्जुन, जय बलभद्र II

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