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Saturday, August 31, 2013

VARDHAN DYNASTY - वर्धन वंश

वर्धन वंश

छठी शती के प्रारम्भ में वैश्य पु्ष्यभूति ने पुष्यभूति वंश थानेश्वर में एक नये राजवंश की नींव डाली। इस वंश का पाँचवा और शक्तिशाली राजा प्रभाकरनवर्धन(लगभग 583 - 605 ई.) हुआ।  उसकी उपाधि 'परम भट्टारक महाराजाधिराज' थी। उपाधि से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया था। बाणभट्ट द्वारा रचित 'हर्षचरित' से पता चलता है कि इस शासक ने सिंध, गुजरात और मालवा पर अधिकार कर लिया था। 

गांधार प्रदेश तक के शासक प्रभाकरवर्धन से डरते थे तथा उसने हूणों को भी पराजित किया था। राजा प्रभाकरवर्धन के दो पुत्र राज्यवर्धन, हर्षवर्धन और एक पुत्री राज्यश्री थी। राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरी वंश के शासक गृहवर्मन से हुआ था। उस वैवाहिक संबंध के कारण उत्तरी भारत के दो प्रसिद्ध मौखरी और वर्धन राज्य प्रेम-सूत्र में बँध गये थे, जिससे उन दोनों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी। 

हर्षचरित से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने अपनी मृत्यु से पहले राज्यवर्धन को उत्तर दिशा में हूणों का दमन करने के लिए भेजा था। संभवत: उस समय हूणों का अधिकार उत्तरी पंजाब और कश्मीर के कुछ भाग पर ही था। शक्तिशाली प्रभाकरवर्धन का शासन पश्चिम में व्यास नदी से लेकर पूर्व में यमुना तक था।

साभार: भारत डिस्कवरी

Sunday, August 25, 2013

NARSINGHGUPTA - नरसिंह गुप्त


नरसिंह गुप्त सुविख्यात गुप्त वंश का एक प्रमुख शासक था। वह सम्राट पुरुगुप्त का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था। उसके बौद्ध पिता ने एक बौद्ध आचार्य को उसकी शिक्षा के लिए नियत किया था। नरसिंहगुप्त ने अपने नाम के साथ 'बालादित्य' उपाधि प्रयुक्त की थी। उसके सिक्कों पर एक तरफ़ उसका चित्र है और 'नर' लिखा है, दूसरी तरफ़ 'बालादित्य' लिखा गया है। अपने गुरु की शिक्षाओं के कारण नरसिंह गुप्त ने भी बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया था। नरसिंहगुप्त बौद्ध धर्म का कट्टर अनुयायी था। उसने नालन्दा में, जो उत्तरी भारत में बौद्ध शिक्षा का विश्वविख्यात केन्द्र था, ईंटों का एक भव्य मन्दिर बनवाया था। इस मन्दिर में 80 फुट ऊँची बुद्ध की ताम्र-प्रतिमा की स्थापना की गई थी। विद्वानों ने बालादित्य को ही हूण शासक मिहिरकुल का विजेता माना है, जिसकी सत्ता 533-534 ई. में समाप्त कर दी गई। उसके शासन काल में भी गुप्त साम्राज्य का ह्रास जारी रहा। पुरुगुप्त और नरसिंहगुप्त दोनों का राज्यकाल 467 से 473 ई. तक है। 

साभार: भारत डिस्कवरी प्रस्तुति

GAHOI VAISHYA - गहोई वैश्य

गहोई वैश्य जाति का उदभव और विकास

सृष्टि में मानवीय सभ्यता संस्कृति का जन्म और विकास की श्रंखला तो लाखों करोड़ो वर्ष पुरानी है। प्रारंभ में मनुष्यो को केवल चार वर्णों को तीन गुणों (सत,रज,तम) के आधार पर बांटा गया था- यह भारत में सबसे पहले आर्य संस्कृति के उद्भव और विकास की कहानी है। इस प्रकार सतगुण प्रधान व्यक्ति “ब्राहम्ण“ सत्व तथा रज गुण प्रधान व्यक्ति “क्षत्री“, रज तथा तम गुण प्रधान व्यक्ति “वैश्य“ और तम गुण प्रधान व्यक्ति “शुद्र“ कहलाता था अपने वर्ण की पहचान के लिये ब्राहम्ण का “शर्मा“, क्षत्री को “वर्मा“, वैष्य को “गुप्ता“ और शुद्र को “दास“ की उपाधि दी गई थी। वर्ण के अनुसार ही सबके स्वाभाविक कर्म भी नियत किये गये थे। इस सम्बंध में विस्तृत और प्रामाणिक इतिहास “मनुस्मृति“ हैं। जैसे जैसे मानव संख्या बढती गई स्थानीय समुदाय अपनी विशेष पहिचान और परम्पराओ के साथ जीने के आदी हो गये। जिनका वैश्य वर्ण था उनकी एक शाखा “गहोई वैश्य“ मुख्यतः बुंदेलखण्ड क्षेत्र में थी और अधिकांश लोग ग्रामों में रहकर कृषि, व्यवसाय तथा गोपालन का ही कार्य करते थे। अधिकांश वैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षित होकर कंठी धारण करते थे। घुटनो तक धोती, सलूखा, कुर्ता और पगडी इनकी पोशाक विशेषकर यह शाखा वर्तमान झांसी, दतिया, उरई , कालपी, जालौन, सिंध किनारा के समीपवर्ती क्षेत्रो में ही थी जिनकी स्थानीय पंचायतें होती थी- उनका कोई एक वयोवृद्ध व्यक्ति पंच होता था और परंपराये भी निर्धारित थी। गहोईयों के विशेष पुरोहित होते थे जो इनके विवाह और अन्य धार्मिक अनुष्ठान कराते थे। विवाह के समय, भांवरो के पश्चात वर वधू के पुरोहित एक विशेष स्वस्तिवाचन मंत्र पड़ कर वर वधू को आर्शीवाद देते थे जिसे “शंखोच्चार“ कहा जाता था। इस शाखोच्चार में इस जाति के प्रथम कडी के रूप में “ वैश्रवन कुबेर“ का नाम लिखा जाता था और आखरी कडी के रूप में वर के बाबा का नाम लेकर आर्शीवाद वाचन किया जाता था। यह मन्त्र इस प्रकार है " स्वस्ति श्री मंत धनवंत गुण ज्ञानवंत धनपति कुबेर कोषाध्यक्ष भवानी गोरी शिव भगवंत दासानुदास द्वादस शाखा प्रख्यात विविध 

रत्नमणि माणिक्य पावन कुल वैश्रवन उदभूत शाखानुशाख सर्व प्रथम अलकापुरी मध्य सानंद षट ऐश्वर्य भोगमान पुनश्च त्रतीय आवास धायेपुरे प्राप्तवान सर्व सम्पति भोगवान गोत्रस्य (वर का गोत्र ) नाम उच्चार सप्रवर गौ ब्रह्मण के प्रति पालक (वर के पिता का नाम तथा निवास ) ग्रामे अद्ध्य वर्त्तमान तस्य प्रपोत्र विवाहे सर्व कर्म सिद्वी ॐ वृद्वि: ॐ वृद्वि: ॐ वृद्वि:" | यह मंत्र तथा जाति का कोई इतिहास लिखित रूप में नही था परन्तु कालान्तर में जब यह प्रथा समाप्त हो गई, गहोई वैश्य जाति समय के साथ बुंदेलखण्ड तक ही सीमित न रहकर पूरे भारत में दूर दूर तक फैल गई तो यह परम्परा लुप्त हो गई। गहोई वैश्य जाति के परंपरागत पुरोहित भी नही रहे, वैज्ञानिक विकास के साथ अन्य जातियो से भी सम्पर्क होता गया परंपराये भी बदलती गई और राष्ट्रीय स्तर पर जातीय संगठन बनने लगे तब पुराने इतिहास की खोज की जाने लगी और अपनी अपनी जाति विशेष के प्रथम कडी के महापुरूषो की घोषणाये भी की गई।

समय और घटनाओ के इस लम्बे प्रवाह में वैश्य वर्ण भी अनेक उपजातियो में विभाजित हो चुका था। इनमें अग्रवाल, माहेश्वरी, जैन आदि कुछ जातियां विशेष रूप से अग्रिणी रही सन 1914 में राष्ट्रीय स्तर पर गहोई वैश्य जाति को भी नरसिंह पुर के एक गहोई वैश्य श्री नाथूराम रेजा ने, गहोई वैश्यों का एक संगठन “गहोई वैश्य महासभा“ के नाम से तैयार किया जिसका प्रथम अधिवेशन नागपुर में उनके ही एक संबंधी श्री बलदेवप्रसाद मातेले के सहयोग से सम्पन्न हुआ तब से यह संगठन “महासभा“ के नाम से बराबर चला आ रहा है जो सन् 2014 मे अपना शतक पूर्ण कर लेगा। चुंकि गहोई वैश्य जाति में 12 गोत्र प्रचलित है जो 12 ऋषियों के नाम पर है अतः इन्हे ही द्वादश आदित्य मान लिया। आदित्य सूर्य को कहते है अतः खुर्देव बाबा को सूर्यावतार मान कर और उनके द्वारा गहोई वंश के एक बालक की रक्षा कर बीज रूप में बचा लिया जिससे गहोई वंश की वृद्धि होती गई तो बहुत भाव तक खुर्देव बाबा की पूजा भी प्रचलित हुई शायद इसी आधार पर हमने अपने ध्वज पर सूर्य को अंकित किया है और सूर्यवंशी भगवान राम से भी इस आधार पर अपना संबंध जोड़ा है क्योकि राम जानकी विवाह की परंपराये गहोई जाति में होने वाले विवाहोत्सव पर भी अपनायी जाती रही तथा उस समय महिलाओ द्वारा गाये जाने वाले गीतों में वर के रूप में राम और वधू के रूप में सीता का नाम भी लिया जाता रहा है। इसलिए प्रतिवर्ष जनवरी 14 संक्रांति को “गहोई दिवस“ घोषित कर दिया जो सूर्य उपासना का एक महान पर्व है।

सन् 2000 में जबलपुर से श्री फूलचंद सेठ द्वारा “गहोई सुधासागर“ नाम से विस्तृत ग्रंथ प्रकाशित किया गया जिसमें अब तक गहोई जाति के उदभव विकास के रूप में प्रचारित सभी विवरण अंकित है और “कुबेर“ के बारे में भी प्रचलित “शाखोच्चार“ का उल्लेख है परन्तु इस ग्रंथ में प्रामाणिक रूप से किसी एक को मान्यता देने का निर्णय नही लिया गया है। 

इस संबंध में एक पौराणिक कथा शिवपुराण में अंकित है। यह पूरी कथा शिव पुराण में अध्याय 13 से 20 तक है और इस कथा में “गहोई“ शब्द का भी उल्लेख है। जो भगवान शिव के द्वारा वैकावण को यह आर्शीवाद दिया गया है। “तुम गुहोइयों के अधिपति होगे“। कुबेर की उपाधि दी और विश्व की समस्त सम्पत्ति का अधिपति बनाकर उन्हे अपना सखा घोषित किया तथा कैलाश के समीप अलकापुरी उनका निवास स्थान बनाकर दिया और कुबेर की मान्यता श्रेष्ठ तथा पूज्य देवो में की गई। गीता में भगवान ने उसे अपनी विभूति में गिनाया है श्री वद्रीनारायण तीर्थ में जो मूर्ति है वहाँ कुबेर की भी एक मूर्ति है। दिवाली के दो दिन पूर्व धनतेरस को कुबेर यंत्र की स्थापना करने और उनकी उपासना करने के बाद ही अमावस्या को लक्ष्मीपूजन किया जाता है अतः पूज्य कुबेर को जो धनाध्यक्ष है हम वैश्य वर्ण के लोग कैसे उपेक्षित कर सकते है जब कि वह शिव के वरदान से गहोईयो के अधिपति“ कहे गये है। इस सम्बन्ध में जो पोराणिक कथा है उसके पूरा उल्लेख रामस्वरूप ब्रजपुरिया द्वारा सन 2005 में प्रकाशित पुस्तक गहोई सूत्र में है ।

साभार: http://www.gahoi.co.in, गहोई समाज इंडिया। 

Wednesday, August 21, 2013

KUMARGUPTA - II - कुमारगुप्त द्वितीय


नरसिंह गुप्त के बाद कुमारगुप्त द्वितीय पाटलिपुत्र के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ। 

कुमारगुप्त द्वितीय ने भी 'विक्रमादित्य' की उपाधि ग्रहण की। 

कुमारगुप्त द्वितीय अन्य गुप्त सम्राटों के समान वैष्णव धर्म का अनुयायी था, और उसे भी 'परम भागवत्' लिखा गया है। 

कुमारगुप्त द्वितीय ने कुल चार वर्ष राज्य किया। 

477 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। 

सम्राट स्कन्दगुप्त के बाद दस वर्षों में गुप्त वंश के तीन राजा हुए। 

इससे स्पष्ट प्रतीत होता है, कि यह काल अव्यवस्था और अशान्ति का था। 

अपने चार वर्ष के शासन काल में कुमारगुप्त द्वितीय 'विक्रमादित्य' ने अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए। 

कुमारगुप्त द्वितीय ने वाकाटक राजा से युद्ध किए, और मालवा के प्रदेश को जीतकर फिर से अपने साम्राज्य में मिला लिया। 

वाकाटकों की शक्ति अब फिर से क्षीण होने लगी। 

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति

Friday, August 16, 2013

SKANDGUPTA - स्कन्दगुप्त

कुमारगुप्त की पटरानी का नाम महादेवी अनन्तदेवी था। उसका पुत्र पुरुगुप्त था। स्कन्दगुप्त की माता सम्भवतः पटरानी या महादेवी नहीं थी। ऐसा प्रतीत होता है, कि कुमारगुप्त की मृत्यु के बाद राजगद्दी के सम्बन्ध में कुछ झगड़ा हुआ, और अपनी वीरता तथा अन्य गुणों के कारण स्कन्दगुप्त गुप्त साम्राज्य का स्वामी बना। अपने पिता के शासन काल में ही 'पुष्यमित्रों' को परास्त करके उसने अपनी अपूर्व प्रतिभा और वीरता का परिचय दिया था। पुष्यमित्रों का विद्रोह इतना भयंकर रूप धारण कर चुका था, कि गुप्तकाल की लक्ष्मी विचलित हो गई थी और उसे पुनः स्थापित करने के लिए स्कन्दगुप्त ने अपने बाहुबल से शत्रुओं का नाश करते हुए कई रातें ज़मीन पर सोकर बिताईं। जिस प्रकार शत्रुओं को परास्त कर कृष्ण अपनी माता देवकी के पास गया था, वैसे ही स्कन्दगुप्त भी शत्रुवर्ग को नष्ट कर अपनी माता के पास गया। इस अवसर पर उसकी माता की आँखों में आँसू छलक आए थे। राज्यश्री ने स्वयं ही स्कन्दगुप्त को स्थायी रूप में वरण किया था। सम्भवतः बड़ा लड़का होने के कारण राजगद्दी पर अधिकार तो पुरुगुप्त का था, पर शक्ति और वीरता के कारण राज्यश्री स्वयं ही स्कन्दगुप्त के पास आ गई थी। 

हूणों की पराजय

स्कन्दगुप्त के शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना हूणों की पराजय है। हूण बड़े ही भयंकर योद्धा थे। उन्हीं के आक्रमणों के कारण 'युइशि' लोग अपने प्राचीन निवास स्थान को छोड़कर शकस्थान की ओर बढ़ने को बाध्य हुए थे, और युइशियों से खदेड़े जाकर शक लोग ईरान और भारत की तरफ़ आ गए थे। हूणों के हमलों का ही परिणाम था, कि शक और युइशि लोग भारत में प्रविष्ट हुए थे। उधर सुदूर पश्चिम में इन्हीं हूणों के आक्रमण के कारण विशाल रोमन साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया था। हूण राजा 'एट्टिला' के अत्याचारों और बर्बरता के कारण पाश्चात्य संसार में त्राहि-त्राहि मच गई थी। अब इन हूणों की एक शाखा ने गुप्त साम्राज्य पर हमला किया, और कम्बोज जनपद को जीतकर गान्धार में प्रविष्ट होना प्रारम्भ किया। हूणों का मुक़ाबला कर गुप्त साम्राज्य की रक्षा करना स्कन्दगुप्त के राज्यकाल की सबसे बड़ी घटना है। 

एक स्तम्भालेख के अनुसार स्कन्दगुप्त की हूणों से इतनी ज़बर्दस्त मुठभेड़ हुई कि सारी पृथ्वी काँप उठी। अन्त में स्कन्दगुप्त की विजय हुई, और उसी के कारण उसकी अमल शुभ कीर्ति कुमारी अन्तरीप तक सारे भारत में गायी जाने लगी, और इसीलिए वह सम्पूर्ण गुप्त वंश में 'एकवीर' माना जाने लगा। बौद्ध ग्रंथ 'चंद्रगर्भपरिपृच्छा' के अनुसार हूणों के साथ हुए इस युद्ध में गुप्त सेना की संख्या दो लाख थी। हूणों की सेना तीन लाख थी। तब भी विकट और बर्बर हूण योद्धाओं के मुक़ाबले में गुप्त सेना की विजय हुई। स्कन्दगुप्त के समय में हूण लोग गान्धार से आगे नहीं बढ़ सके। गुप्त साम्राज्य का वैभव उसके शासन काल में प्रायः अक्षुण्ण रहा। स्कन्दगुप्त के समय के सोने के सिक्के कम पाए गए हैं। उसकी जो सुवर्ण मुद्राएँ मिली हैं, उनमें भी सोने की मात्रा पहले गुप्तकालीन सिक्कों के मुक़ाबले में कम है। इससे अनुमान किया जाता है, कि हूणों के साथ युद्धों के कारण गुप्त साम्राज्य का राज्य कोष बहुत कुछ क्षीण हो गया था, और इसीलिए सिक्कों में सोने की मात्रा कम कर दी गई थी। 

सुदर्शन झील

स्कन्दगुप्त के समय में सौराष्ट्र (काठियावाड़) का प्रान्तीय शासक 'पर्णदत्त' था। उसने गिरिनार की प्राचीन सुदर्शन झील की फिर से मरम्मत कराई थी। इस झील का निर्माण सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के समय में हुआ था। तब सुराष्ट्र का शासक वैश्य 'पुष्यगुप्त' था। पुष्यगुप्त ही इस झील का निर्माता था। बाद में अशोक के समय में प्रान्तीय शासक यवन 'तुषास्प' ने और फिर महाक्षत्रप 'रुद्रदामा' ने इस झील का पुनरुद्धार किया। गुप्त काल में यह झील फिर ख़राब हो गई थी। अब स्कन्दगुप्त के आदेश से 'पर्णदत्त' ने इस झील का फिर जीर्णोद्वार किया। उसके शासन के पहले ही साल में इस झील का बाँध टूट गया था, जिससे प्रजा को बड़ा कष्ट हो गया था। स्कन्दगुप्त ने उदारता के साथ इस बाँध पर खर्च किया। पर्णदत्त का पुत्र 'चक्रपालित' भी इस प्रदेश में राज्य सेवा में नियुक्त था। उसने झील के तट पर विष्णु भगवान के मन्दिर का निर्माण कराया। स्कन्दगुप्त ने किसी नए प्रदेश को जीतकर गुप्त साम्राज्य का विस्तार नहीं किया। सम्भवतः इसकी आवश्यकता भी नहीं थी, क्योंकि गुप्त सम्राट 'आसमुद्र क्षितीश' थे।

साभार: भारत डिस्कवरी, भारत डिस्कवरी प्रस्तुति


Thursday, August 15, 2013

KUMAR GUPTA - 1 - कुमारगुप्त प्रथम महेन्द्रादित्य


चंद्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त राजगद्दी पर बैठा। यह पट्टमहादेवी ध्रुवदेवी का पुत्र था।  इसके शासन काल में विशाल गुप्त साम्राज्य अक्षुण्ण रूप से क़ायम रहा।  बल्ख से बंगाल की खाड़ी तक इसका अबाधित शासन था। सब राजा, सामन्त, गणराज्य और प्रत्यंतवर्ती जनपद कुमारगुप्त के वशवर्ती थे। गुप्त वंश की शक्ति इस समय अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। कुमारगुप्त को विद्रोही राजाओं को वश में लाने के लिए कोई युद्ध नहीं करने पड़े। 

उसके शासन काल में विशाल गुप्त साम्राज्य में सर्वत्र शान्ति विराजती थी। इसीलिए विद्या, धन, कला आदि की समृद्धि की दृष्टि से यह काल वस्तुतः भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' था। अपने पिता और पितामह का अनुकरण करते हुए कुमारगुप्त ने भी अश्वमेध यज्ञ किया। उसने यह अश्वमेध किसी नई विजय यात्रा के उपलक्ष्य में नहीं किया था। कोई सामन्त या राजा उसके विरुद्ध शक्ति दिखाने का साहस तो नहीं करता, यही देखने के लिए यज्ञीय अश्व छोड़ा गया था, जिसे रोकने का साहस किसी राजशक्ति ने नहीं किया था। कुमारगुप्त ने कुल चालीस वर्ष तक राज्य किया। 

उसके राज्यकाल के अन्तिम भाग में मध्य भारत की नर्मदा नदी के समीप 'पुष्यमित्र' नाम की एक जाति ने गुप्त साम्राज्य की शक्ति के विरुद्ध एक भयंकर विद्रोह खड़ा किया। ये पुष्यमित्र लोग कौन थे, इस विषय में बहुत विवाद हैं, पर यह एक प्राचीन जाति थी, जिसका उल्लेख पुराणों में भी आया है। पुष्यमित्रों को कुमार स्कन्दगुप्त ने परास्त किया। 

साभार : भारत डिस्कवरी, भारत डिस्कवरी प्रस्तुति


Thursday, August 8, 2013

CHANDRAGUPT VIKRAMAADITYA - चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य



चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की मुद्राए 

चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (शासन: 380-412 ईसवी) गुप्त राजवंश का राजा था। समुद्रगुप्त का पुत्र 'चन्द्रगुप्त द्वितीय' समस्त गुप्त राजाओं में सर्वाधिक शौर्य एवं वीरोचित गुणों से सम्पन्न था। शकों पर विजय प्राप्त करके उसने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की। वह 'शकारि' भी कहलाया। वह अपने वंश में बड़ा पराक्रमी शासक हुआ। मालवा, काठियावाड़, गुजरात और उज्जयिनी को अपने साम्राज्य में मिलाकर उसने अपने पिता के राज्य का और भी विस्तार किया। चीनी यात्री फ़ाह्यान उसके समय में 6 वर्षों तक भारत में रहा।

चन्द्रगुप्त द्वितीय का सेनापति आम्रकार्द्दव था। उसे देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री, श्रीविक्रम, विक्रमादित्य, परमाभागवत्, नरेन्द्रचन्द्र, सिंहविक्रम, अजीत विक्रम आदि उपाधि धारण किए थे। अनुश्रूतियों में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावतीका विवाह वाकाटक नपरेश रुद्रसेन से किया, रुद्रसेन की मृत्यु के बाद चन्द्रगुप्त ने अप्रत्यक्ष रूप से वाकाटक राज्य को अपने राज्य में मिलाकर उज्जैन को अपनी दूसरी राजधानी बनाई। इसी कारण चन्द्रगुप्त द्वितीय को 'उज्जैनपुरवराधीश्वर' भी कहा जाता है। उसकी एक राजधानी पाटलिपुत्र भी थी। अतः चन्द्रगुप्त द्वितीय को 'पाटलिपुत्र पुरावधीश्वर' भी कहा गया है। दक्षिण भार में कुंतल एक प्रभावशाली राज्य था। 'शृंगार प्रकाश' तथा' कंतलेश्वरदीत्यम्' से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय का कुंतल नरेश से मैत्रीपूर्ण संबंध था। कुंतल नरेश ककुत्स्थवर्मन ने अपनी पुत्री का विवाह गुप्त नरेश से कर दिया। इस वैवाहिक संबंध की पुष्टि क्षेमेन्द्र की औचित्य विचार चर्चा से भी होती है।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन-काल भारत के इतिहास का बड़ा महत्त्वपूर्ण समय माना जाता है। चीनी यात्री फ़ाह्यान उसके समय में 6 वर्षों तक भारत में रहा। वह बड़ा उदार और न्याय-परायण सम्राट था। उसके समय में भारतीय संस्कृति का चतुर्दिक विकास हुआ। महाकवि कालिदास उसके दरबार की शोभा थे। वह स्वयं वैष्णव था, पर अन्य धर्मों के प्रति भी उदार-भावना रखता था। गुप्त राजाओं के काल को भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' कहा जाता है। इसका बहुत कुछ श्रेय चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की शासन-व्यवस्था को है।

राजगद्दी पर आरूढ़ होने के बाद चंद्रगुप्त के सम्मुख दो कार्य मुख्य थे रामगुप्त के समय में उत्पन्न हुई अव्यवस्था को दूर करना, उन म्लेच्छ शकों का उन्मूलन करना, जिन्होंने ने केवल गुप्तश्री के अपहरण का प्रयत्न किया था, अपितु जिन्होंने कुलवधू की ओर भी दृष्टि उठाई थी।

चंद्रगुप्त के सम्राट बनने पर शीघ्र ही साम्राज्य में व्यवस्था क़ायम हो गई। वह अपने पिता का योग्य और अनुरूप पुत्र था। अपनी राजशक्ति को सुदृढ़ कर उसने शकों के विनाश के लिए युद्धों का प्रारम्भ किया।

विष्णुपुराण 4,24,68 से विदित होता है कि संभवत: गुप्तकाल से पूर्व अवन्ती पर आभीर इत्यादि शूद्रों या विजातियों का आधिपत्य था.  ऐतिहासिक परंपरा से हमें यह भी विदित होता है कि प्रथम शती ई. पू. में (57 ई. पू. के लगभग) विक्रम संवत के संस्थापक किसी अज्ञात राजा ने शकों को हराकर उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाया था। गुप्तकाल में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने अवंती को पुन: विजय किया और वहाँ से विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंका। कुछ विद्वानों के मत में 57 ई. पू. में विक्रमादित्य नाम का कोई राजा नहीं था और चंद्रगुप्त द्वितीय ही ने अवंती-विजय के पश्चात मालव संवत् को जो 57 ई. पू. में प्रारम्भ हुआ था, विक्रम संवत का नाम दे दिया।

शक-विजय

विदेशी जातियों की शक्ति के इस समय दो बड़े केन्द्र थे;

काठियावाड़ और गुजरात के शक - महाक्षत्रप

गान्धार-कम्बोज के कुषाण।

शक-महाक्षत्रप सम्भवतः 'शाहानुशाहि कुषाण' राजा के ही प्रान्तीय शासक थे, यद्यपि साहित्य में कुषाण राजाओं को भी शक-मुरुण्ड (शकस्वामी या शकों के स्वामी) संज्ञा कहा गया है। पहले चंद्रगुप्त द्वितीय ने काठियावाड़ - गुजरात के शक-महाक्षत्रपों के साथ युद्ध किया। उस समय महाक्षत्रप 'रुद्रसिंह तृतीय' इस शक राज्य का स्वामी था। चंद्रगुप्त के द्वारा वह परास्त हुआ, और गुजरात-काठियावाड़ के प्रदेश भी गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित हो गए।

शकों की पराजय में वाकाटकों से भी बड़ी सहायता मिली। दक्षिणापथ में वाकाटकों का शक्तिशाली राज्य था। समुद्रगुप्त ने वहाँ के राजा 'रुद्रदेव या रुद्रसेन' को परास्त किया था, पर अधीनस्थ के रूप में वाकाटक वंश की सत्ता वहाँ पर अब भी विद्यमान थी। वाकाटक राजा बड़े ही प्रतापी थे, और उनकी अधीनता में अनेक सामन्त राजा राज्य करते थे। वाकाटक राजा रुद्रसेन द्वितीय के साथ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की कन्या 'प्रभावती गुप्त' का विवाह भी हुआ था। 'रुद्रसेन द्वितीय' के साथ गुप्त वंश की राजकुमारी का विवाह हो जाने से गुप्तों और वाकाटकों में मैत्री और घनिष्ठता स्थापित हो गई थी। इस विवाह के कुछ समय बाद ही तीस वर्ष की आयु में रुद्रदेन द्वितीय की मृत्यु हो गई। उसके पुत्र अभी छोटी आयु के थे, अतः राज्यशासन प्रभावती गुप्त ने अपने हाथों में ले लिया, और वह वाकाटक राज्य की स्वामिनी बन गई। इस स्थिति में उसने 390 ई. से 410 ई. के लगभग तक राज्य किया। अपने प्रतापी पिता चंद्रगुप्त द्वितीय का पूरा साहाय्य और सहयोग प्रभावती को प्राप्त था। जब चंद्रगुप्त ने महाक्षत्रप शक-स्वामी रुद्रसिंह पर आक्रमण किया, तो वाकाटक राज्य की सम्पूर्ण शक्ति उसके साथ थी।

उपाधियाँ

गुजरात-काठियावाड़ के शकों का उच्छेद कर उनके राज्य को गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत कर लेना चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है। इसी कारण वह भी 'शकारि' और 'विक्रमादित्य' कहलाया। कई सदी पहले शकों का इसी प्रकार से उच्छेद कर सातवाहन सम्राट 'गौतमी पुत्र सातकर्णि' ने 'शकारि' और 'विक्रमादित्य' की उपाधियाँ ग्रहण की थीं। अब चंद्रगुप्त द्वितीय ने भी एक बार फिर उसी गौरव को प्राप्त किया। गुजरात और काठियावाड़ की विजय के कारण अब गुप्त साम्राज्य की सीमा पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत हो गई थी। नये जीते हुए प्रदेशों पर भली-भाँति शासन करने के लिए पाटलिपुत्र बहुत दूर पड़ता था। इसलिए चंद्रगुप्त द्वितीय ने उज्जयिनी को अपनी दूसरी राजधानी बनाया।

साम्राज्य विस्तार

गुजरात-काठियावाड़ के शक-महाक्षत्रपों के अतिरिक्त गान्धार कम्बोज के शक-मुरुण्डों (कुषाणों) का भी चंद्रगुप्त ने संहार किया था। दिल्ली के समीप महरौली में लोहे का एक 'विष्णुध्वज (स्तम्भ)' है, जिस पर चंद्र नाम के एक प्रतापी सम्राट का लेख उत्कीर्ण है। ऐतिहासिको का मत है, कि यह लेख गुप्तवंशी चंद्रगुप्त द्वितीय का ही है। इस लेख में चंद्र की विजयों का वर्णन करते हुए कहा गया है, कि उसने सिन्ध के सप्तमुखों (प्राचीन सप्तसैन्धव देश की सात नदियों) को पार कर वाल्हीक (बल्ख) देश तक युद्ध में विजय प्राप्त की थी। पंजाब की सात नदियों यमुना, सतलुज, व्यास, रावी, चिनाब, जेलहम और सिन्धु का प्रदेश प्राचीन समय में 'सप्तसैन्धव' कहाता था। इसके परे के प्रदेश में उस समय शक-मुरुण्डों या कुषाणों का राज्य विद्यमान था। सम्भवतः इन्हीं शक-मुरुण्डों ने ध्रुवदेवी पर हाथ उठाने का दुस्साहस किया था। अब ध्रुवदेवी और उसके पति चंद्रगुप्त द्वितीय के प्रताप ने बल्ख तक इन शक-मुरुण्डों का उच्छेद कर दिया, और गुप्त साम्राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा को सुदूर वंक्षु नदी तक पहुँचा दिया।

बंगाल

महरौली के इसी स्तम्भलेख में यह भी लिखा है, कि बंगाल में प्रतिरोध करने के लिए इकट्ठे हुए अनेक राजाओं को भी चंद्रगुप्त ने परास्त किया था। सम्भव है, कि जब चंद्रगुप्त द्वितीय काठियावाड़-गुजरात के शकों को परास्त करने में व्यापृत था, बंगाल के कुछ पुराने राजकुलों ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया हो, और उसे बंगाल जाकर भी अपनी तलवार का प्रताप दिखाने की आवश्यकता हुई हो।

दक्षिणी भारत

चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में गुप्त साम्राज्य अपनी शक्ति की चरम सीमा पर पहुँच गया था। दक्षिणी भारत के जिन राजाओं को समुद्रगुप्त ने अपने अधीन किया था, वे अब भी अविकल रूप से चंद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करते थे। शक-महाक्षत्रपों और गान्धार-कम्बोज के शक-मुरुण्डों के परास्त हो जाने से गुप्त साम्राज्य का विस्तार पश्चित में अरब सागर तक और हिन्दूकुश के पार वंक्षु नदी तक हो गया था।

अश्वमेध

चंद्रगुप्त की उपाधि केवल 'विक्रमादित्य' ही नहीं थी। शिलालेखों में उसे 'सिंह-विक्रम', 'सिंहचन्द्र', 'साहसांक', 'विक्रमांक', 'देवराज' आदि अनेक उपाधियों से विभूषित किया गया है। उसके भी अनेक प्रकार के सिक्के मिलते हैं। शक-महाक्षत्रपों को जीतने के बाद उसने उनके प्रदेश में जो सिक्के चलाए थे, वे पुराने शक-सिक्कों के नमूने के थे। उत्तर-पश्चिमी भारत में उसके जो बहुत से सिक्के मिले हैं, वे कुषाण नमूने के हैं। चंद्रगुप्त की वीरता उसके सिक्कों के द्वारा प्रकट होती है। सिक्कों पर उसे भी सिंह के साथ लड़ता हुआ प्रदर्शित किया गया है, और साथ में यह वाक्य दिया गया है, क्षितिमवजित्य सुचरितैः दिवं जयति विक्रमादित्यः पृथिवी का विजय प्राप्त कर विक्रमादित्य अपने सुकार्य से स्वर्ग को जीत रहा है। अपने पिता के समान चंद्रगुप्त ने भी अश्वमेध यज्ञ किया।

विभिन्न संदर्भ

शकारि समुद्रगुप्त के पुत्र एवं उज्जयनी के विख्यात विद्याप्रेमी सम्राट के रूप में ये प्रसिद्ध हैं। इनका वास्तविक नाम चन्द्रगुप्त है। अश्वमेध के अनंतर इन्होंने 'विक्रमादित्य' की उपाधि ग्रहण की थी। इतिहास में इनकी सभा के नौ रत्न उस समय के अपने विषय में पारंगत एवं मनीषी विद्वान थे। इनके नाम क्रमश: कालिदास, वररुचि, अमर सिंह, धंवंतरि, क्षपणक, वेतालभट्ट, वराहमिहिर, घटकर्पर, और शंकु थे। इनका समय इतिहास के विद्वान लेखकों द्वारा ईसा पूर्व पह्ली शती निर्धारित होता है। इनके नाम से चलाया गया विक्रमी संवत संवत्सर की गणना में आज भी प्रयुक्त होता है।

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Wednesday, August 7, 2013

SAMUDRA GUPTA - समुद्रगुप्त

समुद्र गुप्त (335-376) 

चंद्रगुप्त प्रथम के बाद समुद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठा। चंद्रगुप्त के अनेक पुत्र थे। पर गुण और वीरता में समुद्रगुप्त सबसे बढ-चढ़कर था। लिच्छवीकुमारी श्रीकुमारदेवी का पुत्र होने के कारण भी उसका विशेष महत्त्व था। चंद्रगुप्त ने उसे ही अपना उत्तराधिकारी चुना, और अपने इस निर्णय को राज्यसभा बुलाकर सभी सभ्यों के सम्मुख उद्घोषित किया। यह करते हुए प्रसन्नता के कारण उसके सारे शरीर में रोमांच हो आया था, और आँखों में आँसू आ गए थे। उसने सबके सामने समुद्रगुप्त को गले लगाया, और कहा - 'तुम सचमुच आर्य हो, और अब राज्य का पालन करो।' इस निर्णय से राज्यसभा में एकत्र हुए सब सभ्यों को प्रसन्नता हुई।

सम्भवतः चंद्रगुप्त ने अपने जीवन काल में ही समुद्रगुप्त को राज्यभार सम्भलवा दिया था। प्राचीन आर्य राजाओं की यही परम्परा थी। चंद्रगुप्त के इस निर्णय से उसके अन्य पुत्र प्रसन्न नहीं हुए। उन्होंने समुद्रगुप्त के विरुद्ध विद्रोह किया। इनका नेता 'काच' था। प्रतीत होता है, कि उन्हें अपने विद्रोह में सफलता भी मिली। 'काच' नाम के कुछ सोने के सिक्के भी उपलब्ध हुए हैं। इनमें गुप्त काल के अन्य सोने की सिक्कों की अपेक्षा सोने की मात्रा बहुत कम है। इससे अनुमान होता है, कि भाइयों की इस कलह में राज्यकोष के ऊपर बहुत बुरा असर पड़ा था, और इसीलिए काच ने अपने सिक्कों में सोने की मात्रा कम कर दी थी। पर काच देर तक समुद्रगुप्त का मुक़ाबला नहीं कर सका। समुद्रगुप्त अनुपम वीर था। उसने शीघ्र ही भाइयों के इस विद्रोह को शान्त कर दिया, और पाटलिपुत्र के सिंहासन पर दृढ़ता के साथ अपना अधिकार जमा लिया। काच ने एक साल के लगभग तक राज्य किया। काच नामक गुप्त राजा की सत्ता को मानने का आधार केवल वे सिक्के हैं, जिन पर उसका नाम 'सर्वराजोच्छेता' विशेषण के साथ दिया गया है। अनेक विद्वानों का मत है, कि काच समुद्रगुप्त का ही नाम था। ये सिक्के उसी के हैं, और बाद में दिग्विजय करके जब वह 'आसमुद्रक्षितीश' बन गया था, तब उसने काच के स्थान पर समुद्रगुप्त नाम धारण कर लिया था।

दिग्विजय

गृहकलह को शान्त कर समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए संघर्ष प्रारम्भ किया। इस विजय यात्रा का वर्णन प्रयाग में अशोक के मौर्य के प्राचीन स्तम्भ पर बड़े सुन्दर ढंग से उत्कीर्ण है। सबसे पहले आर्यावर्त के तीन राजाओं को जीतकर अपने अधीन किया गया। इनके नाम हैं—

अहिच्छत्र का राजा अच्युत,

पद्मावती का राजा नागसेन और

राजा कोटकुलज।

सम्भवतः अच्युत और नागसेन भारशिव के वंश के साथ सम्बन्ध रखने वो राजा थे। यद्यपि भारशिव नागों की शक्ति का पहले ही पतन हो चुका था, पर कुछ प्रदेशों में इनके छोटे-छोटे राजा अब भी राज्य कर रहे थे। गुप्तों के उत्कर्ष के समय इन्होंने चंद्रगुप्त प्रथम जैसे शक्तिशाली राजा की अधीनता में 'सामन्त' की स्थिति स्वीकार कर ली थी। पर समुद्रगुप्त और उसके भाइयों की गृहकलह से लाभ उठाकर ये अब फिर से स्वतंत्र हो गए थे। यही दशा कोटकुल में उत्पन्न राजा की भी थी, जिसका नाम प्रयाग के स्तम्भ की प्रशस्ति में मिट गया है। 'कोट' नाम से अंकित सिक्के पंजाब और दिल्ली में उपलब्ध हुए है। इस कुल का राज्य सम्भवतः इसी प्रदेश में था। सबसे पूर्व समुद्रगुप्त ने इन तीनों राजाओं को जीतकर अपने अधीन किया, और इन विजयों के बाद बड़ी धूमधाम के साथ पुष्पपुर पाटलिपुत्र में पुनः प्रवेश किया।भारतवर्ष पर एकाधिकार

उसका समय भारतीय इतिहास में `दिग्विजय` नामक विजय अभियान के लिए प्रसिद्ध है; समुद्रगुप्त ने मथुरा और पद्मावती के नाग राजाओं को पराजित कर उनके राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया। उसने वाकाटक राज्य पर विजय प्राप्त कर उसका दक्षिणी भाग, जिसमें चेदि, महाराष्ट्र राज्य थे, वाकाटक राजा रुद्रसेन के अधिकार में छोड़ दिया था। उसने पश्चिम में अर्जुनायन, मालव गण और पश्चिम-उत्तर में यौधेय, मद्र गणों को अपने अधीन कर, सप्तसिंधु को पार कर वाल्हिक राज्य पर भी अपना शासन स्थापित किया। समस्त भारतवर्ष पर एकाधिकार क़ायम कर उसने `दिग्विजय` की। समुद्र गुप्त की यह विजय-गाथा इतिहासकारों में 'प्रयाग प्रशस्ति` के नाम से जानी जाती है।समुद्र्गुप्त की दिग्विजय

इस विजय के बाद समुद्र गुप्त का राज्य उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विंध्य पर्वत, पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी और पश्चिम में चंबल और यमुना नदियों तक हो गया था। पश्चिम-उत्तर के मालव, यौघय, भद्रगणों आदि दक्षिण के राज्यों को उसने अपने साम्राज्य में न मिला कर उन्हें अपने अधीन शासक बनाया। इसी प्रकार उसने पश्चिम और उत्तर के विदेशी शक और 'देवपुत्र शाहानुशाही` कुषाण राजाओं और दक्षिण के सिंहल द्वीप-वासियों से भी उसने विविध उपहार लिये जो उनकी अधीनता के प्रतीक थे। उसके द्वारा भारत की दिग्विजय की गई, जिसका विवरण इलाहाबाद क़िले के प्रसिद्ध शिला-स्तम्भ पर विस्तारपूर्वक दिया है।`विक्रमादित्य' समुद्र्गुप्त

आर्यावत में समुद्रगुप्त ने 'सर्वराजोच्छेत्ता' नीति का पालन नहीं किया । आर्यावत के अनेक राजाओं को हराने के पश्चात उसने उन राजाओं के राज्य को अपने राज्य में मिला लिया। पराजित राजाओं के नाम इलाहबाद - स्तम्भ पर मिलते हैं - अच्युत, नागदत्त, चंद्र-वर्मन, बलधर्मा, गणपति नाग, रुद्रदेव, नागसेन, नंदी तथा मातिल। इस महान विजय के बाद उसने अश्वमेघ यज्ञ किया और `विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की थी। इस प्रकार समुद्रगुप्त ने समस्त भारत पर अपनी पताका फहरा कर गुप्त-शासन की धाक जमा दी थी।मथुरा पर विजय

उत्तरापथ के जीते गये राज्यों में मथुरा भी था, समुद्रगुप्त ने मथुरा राज्य को भी अपने साम्राज्य में शामिल किया। मथुरा के जिस राजा को उसने हराया। उसका नाम गणपति नाग मिलता है। उस समय में पद्मावती का नाग शासक नागसेन था, जिसका नाम प्रयाग-लेख में भी आता है। इस शिलालेख में नंदी नाम के एक राजा का नाम भी है। वह भी नाग राजा था और विदिशा के नागवंश से था। समुद्रगुप्त के समय में गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। इस साम्राज्य को उसने कई राज्यों में बाँटा।

समुद्रगुप्त के परवर्ती राजाओं के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गंगा यमुना का दोआब 'अंतर्वेदी विषय' के नाम से जाना जाता था। स्कन्दगुप्त के राज्य काल में अंतर्वेदी का शासक 'शर्वनाग' था। इस के पूर्वज भी इस राज्य के राजा रहे होंगे। सम्भवः समुद्रगुप्त ने मथुरा और पद्मावती के नागों की शक्ति को देखते हुए उन्हें शासन में उच्च पदों पर रखना सही समझा हो। समुद्रगुप्त ने यौधेय, मालवा, अर्जुनायन, मद्र आदि प्रजातान्त्रिक राज्यों को कर लेकर अपने अधीन कर लिया। दिग्विजय के पश्चात समुद्रगुप्त ने एक अश्वमेध यज्ञ भी किया। यज्ञ के सूचक सोने के सिक्के भी समुद्रगुप्त ने चलाये। इन सिक्कों के अतिरिक्त अनेक भाँति के स्वर्ण सिक्के भी मिलते है।दक्षिण विजय

आर्यवर्त में अपनी शक्ति को भली-भाँति स्थापित कर समुद्रगुप्त ने दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया। इस विजय यात्रा में उसने कुल बारह राजाओं को जीतकर अपने अधीन किया। जिस क्रम से इनको जीता गया था, उसी के अनुसार इनका उल्लेख भी प्रशस्ति में किया गया है। ये राजा निम्नलिखित हैं -

कोशल का महेन्द्र

यहाँ कोशल का अभिप्राय दक्षिण कोशल से है, जिसमें आधुनिक मध्य प्रदेश के विलासपुर, रायपुर और सम्बलपुर प्रदेश सम्मिलित थे। इसकी राजधानी श्रीपुर (वर्तमान सिरपुर) थी। दक्षिण कोशल से उत्तर की ओर का सब प्रदेश गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत था, और अच्युत तथा नागसेन की पराजय के बाद यह पूर्णतया उसके अधीन हो गया था। आर्यावर्त में पराजित हुए नागसेन की राजधानी ग्वालियर क्षेत्र में 'पद्मावती' थी। अब दक्षिण की ओर विजय यात्रा करते हुए सबसे पहले दक्षिण कोशल का ही स्वतंत्र राज्य पड़ता था। इसके राजा महेन्द्र को जीतकर समुद्रगुप्त ने अपने अधीन किया।

महाकान्तार का व्याघ्रराज

महाकोशल के दक्षिण-पूर्व में महाकान्तार (जंगली प्रदेश) था। इसी के स्थान में आजकल गोंडवाना के सघन जंगल है।

कौराल का मंत्रराज

महाकान्तार के बाद 'कौराल' राज्य की बारी आई। यह राज्य दक्षिणी मध्य प्रदेश के सोनपुर प्रदेश के आसपास था।

पिष्टपुर का महेंन्द्रगिरि

गोदावरी ज़िले में स्थित वर्तमान पीठापुरम ही प्राचीन समय में पिष्टपुर कहलाता था। वहाँ के राजा महेन्द्रगिरि को भी परास्त कर के समुद्रगुप्त ने अपने अधीन किया।

कोट्टर का राजा स्वामिदत्त

कोट्टर का राज्य गंजाम ज़िले में था।

ऐरण्डपल्ल का दमन

ऐरण्डपल्ल का राज्य कलिंग के दक्षिण में था। इसकी स्थिति 'पिष्टपुर' और 'कोट्टर' के पड़ोस में सम्भवतः विजगापट्टम ज़िले में थी।

कांची का विष्णुगोप

कांची का अभिप्राय दक्षिण भारत के कांजीवरम से है। आन्ध्र प्रदेश के पूर्वी ज़िलों और कलिंग को जीतकर अपने अधीन किया।

अवमुक्त का नीलराज

यह राज्य कांची के समीप में ही था।

वेंगि का हस्तवर्मन

यह राज्य कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच में स्थित था। वेंगि नाम की नगरी इस प्रदेश में अब भी विद्यमान है।

पाल्लक का उग्रसेन

यह राज्य नेल्लोर ज़िले में था।

देवराष्ट्र का कुबेर

इस राजा के प्रदेश के सम्बन्ध में ऐतिहासिकों में मतभेद है। कुछ विद्वान इसे सतारा ज़िले में मानते हैं, और अन्य विजगापट्टम ज़िले में। काँची, वेंगि और अवमुक्त राज्यों के शासक पल्लव वंश के थे। सम्भवतः उन सब की सम्मिलित शक्ति को समुद्रगुप्त ने एक साथ ही परास्त किया था। देवराष्ट्र का प्रदेश दक्षिण से उत्तर की ओर लौटते हुए मार्ग में आया था।

कौस्थलपुर का धनंजय

यह राज्य उत्तरी आर्कोट ज़िले में था। इसकी स्मृति कुट्टलूर के रूप में अब भी सुरक्षित है।

पुन: युद्ध

दक्षिण भारत के इन विभिन्न राज्यों को जीतकर समुद्रगुप्त वापस लौट आया। दक्षिण में वह काँची से आगे नहीं गया था। इन राजाओं को केवल परास्त ही किया गया था, उनका मूल से उच्छेद नहीं किया गया था। प्रयाग की समुद्रगुप्त प्रशस्ति के अनुसार इन राजाओं को हराकर पहले क़ैद कर लिया गया था, पर बाद में अनुग्रह करके उन्हें मुक्त कर दिया गया था।गुप्त साम्राज्य में विलय

ऐसा प्रतीत होता है, कि जब समुद्रगुप्त विजय यात्रा के लिए दक्षिण गया हुआ था, उत्तरी भारत (आर्यावर्त) के अधीनस्थ राजाओं ने फिर से विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया। उन्हें फिर से दोबारा जीता गया। इस बार समुद्रगुप्त उनसे अधीनता स्वीकार कराके ही संतुष्ट नहीं हुआ, अपितु उसने उनका मूल से उच्छेद कर दिया। इस प्रकार जड़ से उखाड़े हुए राजाओं के नाम ये हैं - रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मा, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युतनन्दी और बलवर्मा। इनमें से नागसेन और अच्युत के साथ समुद्रगुप्त के युद्ध हो चुके थे। उन्हीं को परास्त करने के बाद समुद्रगुप्त ने धूमधाम के साथ पाटलिपुत्र (पुष्पपुर) में प्रवेश किया था। अब ये राजा फिर से स्वतंत्र हो गए थे, और इस बार समुद्रगुप्त ने इनका समूलोन्मूलन करके इनके राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया। रुद्रदेव वाकाटक वंशी प्रसिद्ध राजा रुद्रसेन प्रथम था। मतिल की एक मुद्रा बुलन्दशहर के समीप मिली है। इसका राज्य सम्भवतः इसी प्रदेश में था। नागदत्त और गणपतिनाथ के नामों से यह सूचित होता है, कि वे भारशिव नागों के वंश के थे, और उनके छोटे-छोटे राज्य आर्यावर्त में ही विद्यमान थे। गणपतिनाथ के कुछ सिक्के बेसनगर में भी उपलब्ध हुए हैं। चन्द्रवर्मा पुष्करण का राजा था। दक्षिणी राजपूताना में सिसुनिया की एक चट्टान पर उसका एक शिलालेख भी मिला है। सम्भवतः बलवर्मा कोटकुलज नृपति था, जिसे पहली बार भी समुद्रगुप्त ने पराजित किया था। ये सब आर्यावर्ती राजा इस बार पूर्ण रूप से गुप्त सम्राट द्वारा परास्त हुए, और इनके प्रदेश पूरी तरह से गुप्त साम्राज्य में शामिल कर लिए गए।कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार

आटविक राजाओं के प्रति समुद्रगुप्त ने प्राचीन मौर्य नीति का प्रयोग किया। कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार आटविक राजाओं को अपना सहयोगी और सहायक बनाने का उद्योग करना चाहिए। आटविक सेनाएँ युद्ध के लिए बहुत उपयोगी होती थीं। समुद्रगुप्त ने इन राजाओं का अपना 'परिचारक' बना लिया था।समुद्रगुप्त की अधीनता

इसके बाद समुद्रगुप्त को युद्धों की आवश्यकता की नहीं हुई। इन विजयों से उसकी धाक ऐसी बैठ गई थी, कि अन्य प्रत्यन्त (सीमा-प्रान्तों में वर्तमान) नृपतियों तथा यौधेय, मालव आदि गणराज्यों ने स्वयमेव उसकी अधीनता स्वीकृत कर ली थी। ये सब कर देकर, आज्ञाओं का पालन कर, प्रणाम कर, तथा राजदरबार में उपस्थित होकर सम्राट समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकृत करते थे। इस प्रकार करद बनकर रहले वाले प्रत्यन्त राज्यों के नाम हैं -

समतट या दक्षिण-पूर्वी बंगाल

कामरूप या असम

नेपाल

डवाक या असम का नोगाँव प्रदेश

कर्तृपुर या कुमायूँ और गढ़वाल के पार्वत्य प्रदेश।

निःसन्देह ये सब गुप्त साम्राज्य के प्रत्यन्त या सीमा प्रदेश में स्थित राज्य थे।अधीनस्थ राज्य

इस प्रकार जिन गणराज्यों ने गुप्त सम्राट की अधीनता को स्वीकार किया, वे निम्नलिखित थे - मालव, आर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानिक, काक़ और ख़रपरिक। इनमें से मालव, आर्जुनायन, यौधेय, मद्रक और आभीर प्रसिद्ध गणराज्य थे। कुषाण साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर इन्होंने अपनी स्वतंत्रता को पुनः स्थापित किया था, और धीरे-धीरे अपनी शक्ति बहुत बढ़ा ली थी। अब समुद्रगुप्त ने इन्हें अपने अधीन कर लिया, पर उसने इनको जड़ से उखाड़ फैंकने का प्रयत्न नहीं किया। वह केवल कर, प्रणाम, राजदरबार में उपस्थिति तथा आज्ञाविर्तिता से ही संतुष्ट हो गया। इन गणराज्यों ने भी सम्राट की अधीनता स्वीकार कर अपनी पृथक सत्ता को बनाए रखा। प्रार्जुन, काक, सनकादिक और ख़रपरिक छोटे-छोटे गणराज्य थे, जो विदिशा के समीपवर्ती प्रदेश में स्थित थे। अनेक विद्वानों के मत में इनकी स्थिति उत्तर-पश्चिम के गन्धार सदृश राज्यों के क्षेत्र में थी।समुद्रगुप्त का प्रशस्ति गायन

दक्षिण और पश्चिम के अन्य बहुत से राजा भी सम्राट समुद्रगुप्त के प्रभाव में थे, और उसे आदरसूचक उपहार आदि भेजकर संतुष्ट रखते थे। इस प्रकार के तीन राजाओं का तो समुद्रगुप्त प्रशस्ति में उल्लेख भी किया गया है। ये 'देवपुत्र हिशाहानुशाहि', 'शक-मुरुण्ड' और 'शैहलक' हैं। दैवपुत्र शाहानुशाहि से कुषाण राजा का अभिप्राय है। शक-मुरुण्ड से उन शक क्षत्रपों का ग्रहण किया जाता है, जिनके अनेक छोटे-छोटे राज्य इस युग में भी उत्तर-पश्चिमी भारत में विद्यमान थे। उत्तरी भारत से भारशिव, वाकाटक और गुप्त वंशों ने शकों और कुषाणों के शासन का अन्त कर दिया था। पर उनके अनेक राज्य उत्तर-पश्चिमी भारत में अब भी विद्यमान थे। सिंहल के राजा को सैहलक कहा गया है। इन शक्तिशाली राजाओं के द्वारा समुद्रगुप्त का आदर करने का प्रकार भी प्रयाग की प्रशस्ति में स्पष्ट रूप से लिखा गया है।

कन्योपायन

ये राजा आत्मनिवेदन, कन्योपायन, दान, गरुड़ध्वज से अंकित आज्ञापत्रों के ग्रहण आदि उपायों से सम्राट समुद्रगुप्त को प्रसन्न रखने का प्रयत्न करते थे। आत्मनिवेदन का अभिप्राय है, अपनी सेवाओं को सम्राट के लिए अर्पित करना। कन्योपायन का अर्थ है - कन्या विवाह में देना। राजा लोग किसी शक्तिशाली सम्राट से मैत्री सम्बन्ध बनाये रखने के लिए इस उपाय का प्रायः प्रयोग करते थे। सम्भवतः सिंहल, शक और कुषाण राजाओं ने भी समुद्रगुप्त को अपनी कन्याएँ विवाह में प्रदान की थीं। दान का अभिप्राय भेंट-उपहार से है। सम्राट समुद्रगुप्त से ये राजा शासन (आज्ञापत्र) भी ग्रहण करते थे। इन सब उपायों से वे महाप्रतापी गुप्त सम्राट को संतुष्ट रखते थे, और उसके कोप से बचे रहते थे। इस प्रकार पश्चिम में गान्धार से लगाकर पूर्व में असम तक और दक्षिण में सिंहल (लंका) द्वीप से शुरू कर उत्तर में हिमालय के कीर्तिपुर जनपद तक, सर्वत्र समुद्रगुप्त का डंका बज रहा था। आर्यावर्त के प्रदेश सीधे उसके शासन में थे, दक्षिण के राजा उसके अनुग्रह से अपनी सत्ता क़ायम रखे हुए थे। सीमाप्रदेशों के जनपद और गणराज्य उसे बाक़ायदा कर देते थे, और दूरस्थ राजा भेंट-उपहार से तथा अपनी सेवाएँ समर्पण कर उसके साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित किए हुए थे। प्रयाग की प्रशस्ति में गुप्त सम्राट की इस अनुपम शक्ति को कितने सुन्दर शब्दों में यह कहकर प्रकट किया है, कि पृथ्वी भर में कोई उसका 'प्रतिरथ' (ख़िलाफ़ खड़ा हो सकने वाला) नहीं था, सारी धरणी को उसने एक प्रकार से अपने बाहुबल से बाँध सा रखा था।

अश्वमेध यज्ञ

सम्पूर्ण भारत में एकछत्र अबाधित शासन स्थापित कर और दिग्विजय को पूर्ण कर समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया। शिलालेखों में उसे 'चिरोत्सन्न अश्वमेधाहर्ता' (देर से न हुए अश्वमेध को फिर से प्रारम्भ करने वाला) और 'अनेकाश्वमेधयाजी' (अनेक अश्वमेध यज्ञ करने वाला) कहा गया है। इन अश्वमेधों में केवल एक पुरानी परिपाटी का ही अनुसरण नहीं किया गया था, अपितु इस अवसर से लाभ उठाकर कृपण, दीन, अनाथ और आतुर लोगों को भरपूर सहायता देकर उनके उद्धार का भी प्रयत्न किया गया था। प्रयाग की प्रशस्ति में इसका बहुत स्पष्ट संकेत है। समुद्रगुप्त के कुछ सिक्कों में यज्ञीय अश्व का भी चित्र दिया गया है। ये सिक्के अश्वमेध यज्ञ के उपलक्ष्य में ही जारी किए गए थे। इन सिक्कों में एक तरफ़ जहाँ यज्ञीय अश्व का चित्र है, वहीं दूसरी तरफ़ अश्वमेध की भावना को इन सुन्दर शब्दों में प्रकट किया गया है - 'राजाधिराजः पृथिवीमवजित्य दिवं जयति अप्रतिवार्य वीर्यः'—राजाधिराज पृथ्वी को जीतकर अब स्वर्ग की जय कर रहा है, उसकी शक्ति और तेज़ अप्रतिम है।

गुण और चरित्र

सम्राट समुद्रगुप्त के वैयक्तिक गुणों और चरित्र के सम्बन्ध में प्रयाग की प्रशस्ति में बड़े सुन्दर संदर्भ पाये जाते हैं। इसे महादण्ड नायक ध्रुवभूति के पुत्र, संधिविग्रहिक महादण्डनायक हरिषेण ने तैयार किया था। हरिषेण के शब्दों में समुद्रगुप्त का चरित्र इस प्रकार का था - 'उसका मन विद्वानों के सत्संग-सुख का व्यसनी था। उसके जीवन में सरस्वती और लक्ष्मी का अविरोध था। वह वैदिक मार्ग का अनुयायी था। उसका काव्य ऐसा था, कि कवियों की बुद्धि विभव का भी उससे विकास होता था, यही कारण है कि उसे 'कविराज' की उपाधि दी गई थी। ऐसा कौन सा ऐसा गुण है, जो उसमें नहीं था। सैकड़ों देशों में विजय प्राप्त करने की उसमें अपूर्व क्षमता थी। अपनी भुजाओं का पराक्रम ही उसका सबसे उत्तम साथी था। परशु, बाण, शंकु, शक्ति आदि अस्त्रों-शस्त्रों के सैकड़ों घावों से उसका शरीर सुशोभित था। उसकी नीति यह थी, कि साधु का उदय और असाधु का प्रलय हो। उसका हृदय इतना कोमल था, कि भक्ति और झुक जाने मात्र से वश में आ जाता था।'

समुद्रगुप्त के सिक्के

समुद्रगुप्त के सात प्रकार के सिक्के इस समय में मिलते हैं।

पहले प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें वह युद्ध की पोशाक पहने हुए है। उसके बाएँ हाथ में धनुष है, और दाएँ हाथ में बाण। सिक्के के दूसरी तरफ़ लिखा है, "समरशतवितत-विजयी जितारि अपराजितों दिवं जयति" सैकड़ों युद्धों के द्वारा विजय का प्रसार कर, सब शत्रुओं को परास्त कर, अब स्वर्ग को विजय करता है।

दूसरे प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें वह परशु लिए खड़ा है। इन सिक्कों पर लिखा है, "कृतान्त (यम) का परशु लिए हुए अपराजित विजयी की जय हों।

तीसरे प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें उसके सिर पर उष्णीष है, और वह एक सिंह के साथ युद्ध कर उसे बाण से मारता हुआ दिखाया गया है। ये तीन प्रकार के सिक्के समुद्रगुप्त के वीर रूप को चित्रित करते हैं।

पर इनके अतिरिक्त उसके बहुत से सिक्के ऐसे भी हैं, जिनमें वह आसन पर आराम से बैठकर वीणा बजाता हुआ प्रदर्शित किया गया है। इन सिक्कों पर समुद्रगुप्त का केवल नाम ही है, उसके सम्बन्ध में कोई उक्ति नहीं लिखी गई है। इसमें सन्देह नहीं कि जहाँ समुद्रगुप्त वीर योद्धा था, वहाँ वह संगीत और कविता का भी प्रेमी था।

सिंहल से सम्बन्ध

समुद्रगुप्त के इतिहास की कुछ अन्य बातें भी उल्लेख योग्य हैं। इस काल में सीलोन (सिंहल) का राजा मेघवर्ण था। उसके शासन काल में दो बौद्ध-भिक्षु बोधगया की तीर्थयात्रा के लिए आए थे। वहाँ पर उनके रहने के लिए समुचित प्रबन्ध नहीं था। जब वे अपने देश को वापिस गए, तो उन्होंने इस विषय में अपने राजा मेघवर्ण से शिकायत की। मेघवर्ण ने निश्चय किया, कि बोधगया में एक बौद्ध-विहार सिंहली यात्रियों के लिए बनवा दिया जाए। इसकी अनुमति प्राप्त करने के लिए उसने एक दूत-मण्डल समुद्रगुप्त की सेवा में भेजा। समुद्रगुप्त ने बड़ी प्रसन्नता से इस कार्य के लिए अपनी अनुमति दे दी, और राजा मेघवर्ण ने 'बौधिवृक्ष' के उत्तर में एक विशाल विहार का निर्माण करा दिया। जिस समय प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्यू-त्सांग बोधगया की यात्रा के लिए आया था, यहाँ एक हज़ार से ऊपर भिक्षु निवास करते थे।

पटरानी

सम्राट समुद्रगुप्त की अनेक रानियाँ थी, पर पटरानी (अग्रमहिषी पट्टमहादेवी) का पद दत्तदेवी को प्राप्त था। इसी से चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का जन्म हुआ था। पचास वर्ष के लगभग शासन करके 378 ई. में समुद्रगुप्त स्वर्ग को सिधारे।

पुत्र

समुद्र गुप्त के दो पुत्र थे-

रामगुप्त

चंद्रगुप्त ।

समुद्र गुप्त के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त मगध का सम्राट हुआ था ।

साभार : भारत डिस्कवरी 


Tuesday, August 6, 2013

GHATOTKACH GUPT - घटोत्कच (गुप्त काल)

घटोत्कच (300-319 ई.) गुप्त काल में श्रीगुप्त का पुत्र और उसका उत्तराधिकारी था। लगभग 280 ई. में श्रीगुप्त ने घटोत्कच को अपना उत्तराधिकारी बनाया था। घटोत्कच तत्सामयिक शक साम्राज्य का सेनापति था। उस समय शक जाति ब्राह्मणों से बलपूर्वक क्षत्रिय बनने को आतुर थी। घटोत्कच ने 'महाराज' की उपाधि को धारण किया था।

घटोत्कच के काल की कुछ मुद्राएँ ऐसी मिली हैं, जिन पर 'श्रीघटोत्कचगुप्तस्य' या केवल 'घट' लिखा है।

शक राज परिवार तो क्षत्रियत्व हस्तगत हो चला था, किन्तु साधारण राजकर्मी अपनी क्रूरता के माध्यम से क्षत्रियत्व पाने को इस प्रकार लालायित हो उठे थे, कि उनके अत्याचारों से ब्राह्मण त्रस्त हो उठे।

ब्राह्मणों ने क्षत्रियों की शरण ली, किन्तु वे पहले से ही उनसे रुष्ट थे, जिस कारण ब्राह्मणों की रक्षा न हो सकी।

ठीक इसी जाति-विपणन में पड़कर एक ब्राह्मण की रक्षा हेतु घटोत्कच ने 'कर्ण' और 'सुवर्ण' नामक दो शक मल्लों को मार गिराया।

यह उनका स्पष्ट राजद्रोह था, जिससे शकराज क्रोध से फुँकार उठे और लगा, मानों ब्राह्मण और क्षत्रिय अब इस धरती से उठ जायेंगे।

‘मधुमती’ नामक क्षत्रिय कन्या से घटोत्कच का पाणिग्रहण (विवाह) हुआ था।

लिच्छिवियों ने घटोत्कच को शरण दी, साथ ही उनके पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम के साथ अपनी पुत्री कुमारदेवी का विवाह भी कर दिया।

प्रभावती गुप्त के पूना एवं रिद्धपुर ताम्रपत्र अभिलेखों में घटोच्कच को गुप्त वंश का प्रथम राजा बताया गया है।

इसका राज्य संभवतः मगध के आसपास तक ही सीमित था।

महाराज घटोत्कच ने लगभग 319 ई. तक शासन किया था।

साभार: भारत डिस्कवरी प्रस्तुति

Friday, August 2, 2013

CHANDRAGUPTA - I, चंद्रगुप्त प्रथम

यह इतिहास प्रसिद्ध वैश्य,  गुप्त वंश का प्रवर्तक और प्रथम शासक था। इस वंश का आरंभ 26 जनवरी 320 ई. को माना जाता है। कदाचित इसी तिथि को चंद्रगुप्त प्रथम का राज्याभिषेक हुआ था। चंद्रगुप्त ने, जिसकी शासन पहले मगध के कुछ भागों तक सीमित था। अपने राज्य का विस्तार इलाहाबाद तक किया। महाराजाधिराज की उपाधि धारण करके इसने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया।

नाग राजाओं के शासन के बाद गुप्त राजवंश स्थापित हुआ जिसने मगध में देश के एक शक्तिशाली साम्राज्य को स्थापित किया । इस वंश के राजाओं को गुप्त सम्राट के नाम से जाना जाता है। गुप्त राजवंश का प्रथम राजा `श्री गुप्त हुआ, जिसके नाम पर गुप्त राजवंश का नामकरण हुआ। द्वितीय राजा महाराज गुप्त था। उसका लड़का घटोत्कच हुआ, जिसका पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम 320 ई. में पाटलिपुत्र का शासक हुआ। घटोत्कच के उत्तराधिकारी के रूप में सिंहासनारूढ़ चन्द्रगुप्त प्रथम एक प्रतापी राजा था। उसने 'महाराजधिराज' उपाधि ग्रहण की और लिच्छिवी राज्य की राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर लिच्छिवियों की सहायता से शक्ति बढाई। इसकी पुष्टि दो प्रमाणों से होती है।

स्वर्ण सिक्के जिसमें 'चन्द्रगुप्त कुमार देवी प्रकार', 'लिच्छवि प्रकार', 'राजारानी प्रकार', 'विवाह प्रकार' आदि हैं।

दूसरा प्रमाण समुद्रगुप्त के प्रयाग अभिलेख हैं जिसमें उसे 'लिच्छविदौहित्र' कहा गया है।

कुमार देवी के साथ विवाह कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली का राज्य प्राप्त किया। चन्द्रगुप्त कुमारदेवी प्रकार के सिक्के के पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी दुर्गा की आकृति बनी है। वह एक शक्तिशाली शासक था, चंद्रगुप्त के शासन काल में गुप्त-शासन का विस्तार दक्षिण बिहार से लेकर अयोध्या तक था । 

इस राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी।

चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने शासन काल में एक नया संवत चलाया ,जिसे गुप्त संवत कहा जाता है। यह संवत गुप्त सम्राटों के काल तक ही प्रचलित रहा बाद में उस का चलन नहीं रहा। चन्द्रगुप्त प्रथम ने एक संवत 'गुप्त संवत' (319-320 ई.) के नाम से चलाया। गुप्त संवत तथा शक संवत (78 ई.) के बीच 240 वर्षों का अन्तर है।

घटोत्कच के बाद महाराजाधिराज चंद्रगुप्त प्रथम हुए। गुप्त वंश के पहले दो राजा केवल महाराज कहे गए हैं। पर चंद्रगुप्त को 'महाराजाधिराज' कहा गया है। इससे प्रतीत होता है, कि उसके समय में गुप्त वंश की शक्ति बहुत बढ़ गई थी।

प्राचीन समय में महाराज विशेषण तो अधीनस्थ सामन्त राजाओं के लिए भी प्रयुक्त होता था। पर 'महाराजाधिराज' केवल ऐसे ही राजाओं के लिए प्रयोग किया जाता था, जो पूर्णतया स्वाधीन व शक्तिशाली हों। प्रतीत होता है, कि अपने पूर्वजों के पूर्वी भारत में स्थित छोटे से राज्य को चंद्रगुप्त ने बहुत बढ़ा लिया था, और महाराजाधिराज की पदवी ग्रहण कर ली थी। पाटलिपुत्र निश्चय ही चंद्रगुप्त के अधिकार में आ गया था, और मगध तथा उत्तर प्रदेश के बहुत से प्रदेशों को जीत लेने के कारण चंद्रगुप्त के समय में गुप्त साम्राज्य बहुत विस्तृत हो गया था। इन्हीं विजयों और राज्य विस्तार की स्मृति में चंद्रगुप्त ने एक नया सम्वत चलाया था, जो गुप्त सम्वत के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है।

मगध के उत्तर में लिच्छवियों का जो शक्तिशाली साम्राज्य था, चंद्रगुप्त ने उसके साथ मैत्री और सहयोग का सम्बन्ध स्थापित किया। कुषाण काल के पश्चात इस प्रदेश में सबसे प्रबल भारतीय शक्ति लिच्छवियों की ही थी। कुछ समय तक पाटलिपुत्र भी उनके अधिकार में रहा था। लिच्छवियों का सहयोग प्राप्त किए बिना चंद्रगुप्त के लिए अपने राज्य का विस्तार कर सकना सम्भव नहीं था। इस सहयोग और मैत्रीभाव को स्थिर करने के लिए चंद्रगुप्त ने लिच्छविकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह किया, और अन्य रानियों के अनेक पुत्र होते हुए भी 'लिच्छवि-दौहित्र' (कुमारदेवी के पुत्र)समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियत किया।

ऐसा प्रतीत होता है, कि इस काल में लिच्छवि गण के राजा वंशक्रमानुगत होने लगे थे। गणराज्यों के इतिहास में यह कोई अनहोनी बात नहीं है। कुमारदेवी लिच्छवि राजा की पुत्री और उत्तराधिकारी थी। इसीलिए चंद्रगुप्त के साथ विवाह हो जाने के बाद गुप्त राज्य और लिच्छवि गण मिलकर एक हो गए थे।

चंद्रगुप्त के सिक्कों पर उसका अपना और कुमारदेवी दोनों का नाम भी एक साथ दिया गया है। सिक्के के दूसरी ओर 'लिच्छवयः' शब्द भी उत्कीर्ण है। इससे यह भली-भाँति सूचित होता है कि, लिच्छवि गण और गुप्त वंश का पारस्परिक विवाह सम्बन्ध बड़े महत्त्व का था। इसके कारण इन दोनों के राज्य मिलकर एक हो गए थे, और चंद्रगुप्त तथा कुमारदेवी का सम्मिलित शासन इन प्रदेशों पर माना जाता था।

श्रीगुप्त के वंशजों का शासन किन प्रदेशों पर स्थापित हो गया था, इस सम्बन्ध में पुराणों में लिखा है, कि 'गंगा के साथ-साथ प्रयाग तक व मगध तथा अयोध्या में इन्होंने राज्य किया।

समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी बनाने के बाद चन्द्रगुप्त प्रथम ने सन्यास ग्रहण किया। 330 ई. चंद्रगुप्त प्रथम की मृत्यु हो गई।

चंद्रगुप्त के उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य को बहुत बढ़ा लिया था। अतः पुराणों का यह निर्देश उसके पूर्वजों के विषय में ही है। सम्भवतः महाराजाधिराज चंद्रगुप्त प्रथम बंगाल से प्रारम्भ कर पश्चिम में अयोध्या और प्रयाग तक के विशाल प्रदेश का स्वामी था, और लिच्छवियों के सहयोग से ही इस पर अबाधित रूप से शासन करता था। इस प्रतापी गुप्त सम्राट का सम्भावित शासन काल 315 या 319 से 328 से 335 ई. तक था।

साभार: http://bharatdiscovery.org, भारत कोष , भारत डिस्कवरी प्रस्तुति

Thursday, August 1, 2013

GUPTA DYNESTY - गुप्त राजवंश

इस वैश्य गुप्त वंश की स्थापना 320 ई. लगभग चंद्रगुप्त प्रथम ने की थी और 510 ई. तक यह वंश शासन में रहा। गुप्त काल भारत का स्वर्ण काल कहा गया है. इसी शासन काल के कारण उस समय भारत वर्ष सोने की चिड़िया कहलाया। आरम्भ में इनका शासन केवल मगध पर था, पर बाद में गुप्त वंश के राजाओं ने संपूर्ण उत्तर भारत को अपने अधीन करके दक्षिण में कांजीवरम के राजा से भी अपनी अधीनता स्वीकार कराई। इस वंश में अनेक प्रतापी राजा हुए। कालिदास के संरक्षक सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय (380-415 ई.) इसी वंश के थे। यही 'विक्रमादित्य' और 'शकारि' नाम से भी प्रसिद्ध हैं। नृसिंहगुप्त बालादित्य (463-473 ई.) को छोड़कर सभी गुप्तवंशी राजा वैदिक धर्मावलंबी थे। बालादित्य ने बौद्ध धर्म अपना लिया था।

गुप्त राजवंशों का इतिहास साहित्यिक तथा पुरातात्विक दोनों प्रमाणों से प्राप्त होता है। गुप्त राजवंश या गुप्त वंश प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से एक था। इसे भारत का 'स्वर्ण युग' माना जाता है। गुप्त काल भारत के प्राचीन राजकुलों में से एक था। मौर्य चंद्रगुप्त ने गिरनार के प्रदेश में शासक के रूप में जिस 'राष्ट्रीय' (प्रान्तीय शासक) की नियुक्ति की थी, उसका नाम 'वैश्य पुष्यगुप्त' था। शुंग काल के प्रसिद्ध 'बरहुत स्तम्भ लेख' में एक राजा 'विसदेव' का उल्लेख है, जो 'गाप्तिपुत्र' (गुप्त काल की स्त्री का पुत्र) था। अन्य अनेक शिलालेखों में भी 'गोप्तिपुत्र' व्यक्तियों का उल्लेख है, जो राज्य में विविध उच्च पदों पर नियुक्त थे। इसी गुप्त कुल के एक वीर पुरुष श्रीगुप्त ने उस वंश का प्रारम्भ किया, जिसने आगे चलकर भारत के बहुत बड़े भाग में मगध साम्राज्य का फिर से विस्तार किया।

साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में इस अवधि का योगदान आज भी सम्मानपूर्वक स्मरण किया जाता है। कालिदास इसी युग की देन हैं। अमरकोश, रामायण,महाभारत, मनुस्मृति तथा अनेक पुराणों का वर्तमान रूप इसी काल की उपलब्धि है। महान गणितज्ञ आर्यभट्ट तथा वराहमिहिर गुप्त काल के ही उज्ज्वल नक्षत्र हैं। दशमलव प्रणाली का आविष्कार तथा वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला ओर धातु-विज्ञान के क्षेत्र की उपलब्धियों पर आज भी लोगों का आनंद और आश्चर्य होता है।

इस राजवंश में जिन शासकों ने शासन किया उनके नाम इस प्रकार है:-

श्रीगुप्त (240-280 ई.),

घटोत्कच (280-319 ई.),

चंद्रगुप्त प्रथम (319-335 ई.)

समुद्रगुप्त (335-375 ई.)

रामगुप्त (375 ई.)

चंद्रगुप्त द्वितीय (375-414 ई.)

कुमारगुप्त प्रथम महेन्द्रादित्य (415-454 ई.)

स्कन्दगुप्त (455-467 ई.)

साभार: भारत डिस्कवरी, भारत कोष