कुछ शताब्दी पहले राजस्थान से निकलकर मारवाड़ी उद्यमियों ने भारत में कारोबार को जिस तरह नई ऊंचाई दी, वह उनकी मेहनत और जोखिम उठाने के साहस के कारण ही संभव हुआ। थॉमस ए टिम्बर्ग की यह किताब उनकी व्यापारिक सफलता की पड़ताल करती है.
उद्यमियों के तौर पर मारवाड़ियों की प्रतिष्ठा बहुत पुरानी है। इतिहास बताता है कि सत्रहवीं शताब्दी में पहली बार जगत सेठ के पूर्वज और वाराणसी के अग्रवाल मुगल बादशाह के पीछे-पीछे बंगाल पहुंचे थे। राजस्थान से बाहर बंगाल की तत्कालीन राजधानी मुर्शिदाबाद, बर्दवान और असम उनके शुरुआती ठिकाने थे। वे राजस्थान से बाहर क्यों निकले? इसलिए कि छोटे-छोटे राजाओं ने जब ब्रिटिशों के वित्तपोषक (फाइनेंसर) की भूमिका अख्तियार कर ली, तब व्यापारियों के लिए वहां रहकर कारोबार करना मुश्किल हो गया। जो लोग शुरुआत में पूर्वी भारत की ओर गए, बाद में उन्होंने अपने परिवार के लोगों को भी बाहर निकलने को प्रेरित किया। इसके अलावा राजस्थान का मौसम भी वहां से बाहर निकलने का कारण बना। मुर्शिदाबाद के पतन के बाद कोलकाता लंबे समय तक इनके कारोबार का केंद्र रहा। तुलनात्मक रूप से दिल्ली और मुंबई में इनकी बसावट कम रही। लेकिन पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट सरकार आने के बाद कोलकाता में कारोबार की संभावना भी शिथिल हुई और मारवाड़ी उद्यमियों के जाने-बसने की गति भी। उत्तर प्रदेश के हाथरस, खुर्जा और कानपुर में मारवाड़ियों की बसावट बहुत पुरानी रही है।
भारत के मारवाड़ी समुदाय की तुलना लेखक ने ब्रिटिश रॉथ्सचाइल्ड समुदाय और अमेरिका के रॉकफेलर और फोर्ड घरानों से की है। ये सभी अपने संयुक्त परिवार, संसाधन, मेहनत और नए क्षेत्र में जोखिम उठाने के साहस के कारण कई सदियों तक व्यापार के शिखर पर बने रहे। मारवाड़ी उद्यमियों ने असम जैसे दुर्गम इलाके में व्यापार की संभावनाएं तलाशीं, अंग्रेजों के साथ मिलकर काम किया, नामचीन विदेशी कंपनियों के भारतीय एजेंट के तौर पर अपनी पहचान बनाई, तो सट्टेबाजी में भी हाथ आजमाया, जिसमें जोखिम बहुत था। कारोबारी उभार की कई घटनाओं में हालांकि किस्मत का भी उतना ही योगदान है।
इस संदर्भ में लेखक ने रामकृष्ण डालमिया का जिक्र किया है, जिन्होंने चांदी की सट्टेबाजी में सब कुछ खो दिया था, अपनी पत्नी का गहना भी। एक समय लंदन टेलीग्राम करने के लिए पोस्ट ऑफिस जाने के पैसे तक उनके पास नहीं थे। लेकिन, एक दिन चांदी ने उनकी किस्मत पलट दी। सबसे बड़ी मारवाड़ी फर्म ताराचंद-घनश्यामदास का भी यहां विस्तार से विवरण है। कायदे से इसी फर्म ने देश में मारवाड़ी फर्म की बनावट और संस्कृति तय की। आजादी के बाद भी इन उद्यमियों ने व्यापार में अपना वर्चस्व जारी रखा। हालांकि गुरचरण दास का मानना है कि लाइसेंस-कोटा दौर में उनकी क्षमता प्रभावित हुई, क्योंकि नई सोच या जोखिम लेने के बजाय उन्हें सरकारी तौर-तरीकों और लालफीताशाही से निपटने में ही बहुत समय लग जाता था। कई मारवाड़ी उद्यमियों ने नई अर्थनीति का विरोध किया था, लेकिन तथ्य बताते हैं कि आज भी ये बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तुलना में अधिक सफल हैं।
इतिहास के अध्येता पलासी के युद्ध के संदर्भ में जगत सेठ के बारे में जानते हैं। जगत सेठ के पूर्वज हीरानंद साहू 1652 में नागौर से पटना गए थे। उनके बड़े बेटे माणिक चंद सत्रहवीं शताब्दी के आखिर में ढाका गए। जब मुर्शिद कुली खां मुर्शिदाबाद आए, तब उनके साथ माणिक चंद भी थे। उस समय उनकी फर्म की शाखाएं हुगली, कोलकाता, बनारस और दिल्ली में थीं। इन्हीं माणिक चंद के बेटे फतेह चंद को मुगल बादशाह ने 1722 में जगत सेठ की उपाधि दी थी। आंकड़ों के मुताबिक, 1718 से 1757 तक ईस्ट इंडिया कंपनी जगत सेठ की फर्म से सालाना चार लाख कर्ज लेती थी। डच और फ्रेंच कंपनियों को भी यह फर्म कर्ज देती थी। हालांकि कारोबार मंदा होने पर इसी जगत सेठ खानदान ने उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजों से पेंशन ली।
यह बात बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि राष्ट्रीय आंदोलन से बहुत पहले भारत में अपना व्यापारिक साम्राज्य स्थापित करने की मंशा रख चुके अंग्रेजों के निशाने पर मारवाड़ी उद्यमी ही थे। बंगाल में व्यापार करने आए मारवाड़ी जब जमींदार का दर्जा हासिल करने लगे, तब अंग्रेजों ने जमीन खरीदने का कानून ही बदल डाला। वे समझ चुके थे कि भारत में उनकी व्यापारिक महत्वाकांक्षा को यही लोग चुनौती दे सकते हैं। विश्व युद्ध के दौरान जब कारतूस ढोने के लिए जूट के बोरे की भारी मांग थी और पूर्वी भारत में जूट का कच्चा माल `पाट’ इफरात में पैदा होता था, तब जूट मिलों का स्वामित्व भारतीयों, खासकर मारवाड़ियों के पास जाने से रोकने में ब्रिटिशों ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यहां तक कि पहली बार जब एक मारवाड़ी ने जूट मिल खोली, तो उन्हें जमीन देने में आनाकानी की गई, मालभाड़े के लिए उनसे ज्यादा पैसे वसूले गए और उन्हें इंडियन जूट मिल एसोसिएशन की सदस्यता भी नहीं दी गई। लेकिन ये बंदिशें भी उन्हें आगे बढ़ने में नहीं रोक पाईं। व्यापार से इतर साहित्य, संस्कृति, कला और राजनीति में भी उन्होंने अपनी छाप छोड़ी। राजनीति में राममनोहर लोहिया से लेकर कमलनाथ तक इनकी सूची प्रभावित करती है।
अपने विषय पर यह प्रामाणिक किताब है, लेकिन इधर-उधर बिखरे तथ्यों के बजाय सिलसिलेवार चीजें बताई जातीं, तो यह और पठनीय बन सकती थी। `द स्टोरी ऑफ इंडियन बिजनेस’ सीरीज के अंतर्गत प्रकाशित इस किताब की भूमिका इसके संपादक गुरचरण दास ने लिखी है।
पुस्तक के अंश
अंश-1
उन्नीसवीं शताब्दी में मारवाड़ी उद्यमियों ने पूर्व और मध्य भारत में, खासकर बंगाल में बंगाली व्यापारियों और पंजाबी खत्रियों को पीछे छोड़ अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज की। वहां व्यापार में तो इनकी सर्वोच्चता स्थापित हुई ही, एक भाषा के रूप में हिंदी को पुनर्जीवित करने, हिंदुत्व को आधुनिक धर्म के तौर पर स्थापित करने और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को गति देने में भी इन्होंने बड़ी भूमिका निभाई। आर्थिक संसाधन, परिश्रम और नए क्षेत्र में जोखिम उठाने का साहस दिखाकर इन्होंने हर क्षेत्र में अपना प्रभाव स्थापित किया। राष्ट्रीय राजनीति से लेकर सांस्कृतिक परिदृश्य तक में इनकी दमदार मौजूदगी है।...सामाजिक बदलाव का भी इनमें सुबूत दिखता है। जैसे, बिड़ला परिवार ने विदेश यात्रा, पाश्चात्य शिक्षा और विवाह से जुड़े विधि-निषेध तोड़े।
अंश-2
सफल उद्यमियों के तौर पर मारवाड़ियों के स्थापित होने की कई ठोस वजहें रही हैं। पारंपरिक पारिवारिक कारोबार के तौर पर उनके पास सीखने और आगे बढ़ने का एक मजबूत नेटवर्क था। कारोबार के सिलसिले में नई जगह पर जाने पर जिन 'बासा' में वे ठहरते, वहां खाने और रुकने की सुविधा के अलावा उन्हें अपना समाज भी मिलता। उनके व्यवसायी मित्र और रिश्तेदार हमेशा उनकी मदद करने को तैयार रहते। अपनी मजबूत सामाजिक-आर्थिक स्थिति का लाभ उन्हें मुगलों और अंग्रेजों के समय में मिला। नई अर्थनीति भी उनके लिए संभावना लेकर आई है। चूंकि वे आधुनिकतम शिक्षा आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, ऐसे में, व्यापार की शुरुआत करने और उसे सफलतापूर्वक चलाने में वे खुद को पहले की तुलना में कहीं योग्य और सक्षम पाते हैं।
साभार : अमर उजाला, नई दिल्ली, रविवार, 15 जून 2014, पुस्तक अंश (THE MARWARIS: FROM JAGAT SETH TO BIRLAS)
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