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Wednesday, October 29, 2014

SACHIN BANSAL - BINNI BANSAL (FLIPCART) - सचिन बंसल - बिन्नी बंसल - सिखाई भारत को ऑनलाइन खरीददारी

सचिन बंसल व बिन्नी बंसल - फ्लिप्कार्ट के संस्थापक 




शुरुआत 

2007 में फ्लिपकार्ट ने पुस्तकें बेचनी शुरू कीं


बड़ी छलांग

'साइट' पर आज होते हैं एक लाख से ज्यादा सौदे, 6 अरब डॉलर का व्यवसाय

संदेश

प्रतियोगिता से डरें नहीं, काम बढ़ाते रहें

आप देश में नए उद्यमियों और ई-कामर्स की बात करें और सचिन बंसल की अनदेखी करें, यह हो नहीं सकता। 33 साल के सचिन साफ्टवेयर इंजीनियर, इन्टरनेट उद्यमी और फ्लिपकार्ट के संस्थापक हैं। सचिन मूल रूप से चंडीगढ़ से संबंध रखते हैं। उन्होंने अपने मित्र बिन्नी बंसल के साथ मिलकर फ्लिपकार्ट की स्थापना की। दोनों का संबंध चंडीगढ़ और आईआईटी (दिल्ली) से रहा है।

हालांकि सचिन और बिन्नी दोनों का उपनाम एक है, पर आपस में कोई रिश्ता नहीं है। दोनों ने ई-कामर्स के काम को उस दौर में सीखा,जब ये अमेजन में काम कर रहे थे। सचिन बंसल की आवाज में आजकल नई बुलंदी आ गई है। कमाई के हिसाब से भारत की सबसे बड़ी ऑनलाइन रीटेलर कंपनी फ्लिपकार्ट के सीईओ सचिन कहते हैं कि वे अपनी कंपनी में दुनिया के सबसे बेहतरीन पेशेवरों को रखना पसंद करते हैं। दूसरे नंबर के लिए उनके पास जगह नहीं है। सचिन ने बताया कि सन् 2007 में मूलत: पुस्तकों की आनलाइन खरीद-बिक्री लिए बनी यह वेबसाइट अब अपने ग्राहकों को इलेक्ट्रानिक उपकरण और अन्य वस्तुएं खरीदने का विकल्प भी देती है। फ्लिपकार्ट पर क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड, नेटबैंकिंग, ई-गिफ्ट वाउचर और सुपुर्दगी पर नकद अदायगी (कैश ऑन डिलीवरी) के जरिये भुगतान किया जा सकता है। सचिन ने बताया कि उन्होंने किताबें बेचनी शुरू कीं, फिर इलेक्ट्रानिक्स और दूसरे उत्पाद बेचने शुरू किए। फ्लिपकार्ट के एक करोड़ पंजीकृत उपभोक्ता हैं। हर दिन कंपनी एक लाख उत्पादों की आपूर्ति करती है। सचिन बंसल ने कहा कि कंपनी का उद्देश्य भारत में ई-कारोबार के लिए इकोसिस्टम बनाने का है, क्योंकि देश में 50 करोड़ से ज्यादा लोग अगले पांच साल में ऑनलाइन होने वाले हैं। हजारों उद्यमियों के ऑनलाइन होने से हमें लॉजिस्टिक और भुगतान संबंधी समस्याएं दूर करनी होंगी। इसके लिए हमें तकनीक के क्षेत्र में बड़े निवेश की जरूरत है। इससे ऑनलाइन खरीददारी की दुनिया बदल जाएगी और हम भारत की सबसे बड़ी कंपनी बन जाएंगे। फ्लिपकार्ट में नए निवेश के बाद इसकी कीमत छह से सात अरब डॉलर के बीच पहुंच गई है, भारत की सबसे बड़े रियल एस्टेट कंपनी डीएलएफ से भी ज्यादा। सचिन ने एक जगह कहा था, हमें जो भी अच्छा आदमी मिल जाए, उसे भर्ती कर लेंगे। हम तकनीकी लोगों की तादाद बढ़ा रहे हैं। सिर्फ भारत ही नहीं बाहर से भी लोगों को ला रहे हैं।

अमरीका के बढ़ते दखल से सचिन भले ही इनकार करें, लेकिन बेंगलुरू स्थित फ्लिपकार्ट के मुख्यालय में जोश बढ़ने का सीधा संबंध दुनिया के सबसे बड़े ऑनलाइन रिटेलर अमेजन के पिछली जून में भारत में प्रवेश से है। अमेजन के भी सीईओ जेफबेजोज हाल ही में भारत में थे। वे भी भारत के बाजार पर कब्जा जमाना चाहते हैं। अमेजन इंडिया का दफ्तर बेंगलुरू में फ्लिपकार्ट से सिर्फ कुछ दूरी पर है। करीब दो दशक के अनुभव और भारी जेब के बल पर जेफबेजोज की कंपनी अमेजन फ्लिपकार्ट को तगड़ी टक्कर दे सकती है। यह भी सच है कि मुकाबला टक्कर का हो तो फ्लिपकार्ट जैसी कंपनी में चमत्कार हो सकते हैं। अमेजन इन नाम से भारत में बाजार खुलने से एक महीना पहले फ्लिपकार्ट ने अपना बाजार खोला। उसने पेजिपी नाम से ऑनलाइन भुगतान कर सरल और सुरक्षित विकल्प देने का ऐलान किया था। फ्लिपकार्ट पर दिन में एक लाख के आसपास सौदे होते हैं, इसलिए कंपनी को भरोसा है कि इस बल पर मुनाफा कमालेगी। सचिन बंसल अमेजन से किसी तरह की टक्कर से इनकार करते हैं। सचिन की मानें तो उनकी नजर में यह मुकाबला अच्छा है। हालात और दिलचस्प हो रहे हैं। हम प्रतियोगिता पर ध्यान नहीं देते, वैसे भी कारोबार बढ़ाने पर तुले हैं। सचिन की चिंता तो इस बात को लेकर है कि 2020 तक उन्हें जो करना है उसके मुकाबले अभी बहुत मामूली काम हो रहा है।

सचिन खुदरा विक्रेताओं की संख्या मौजूदा 1,000 से बढ़ाकर एक साल में 10,000 से 15,000 तक कर लेना चाहते हैं। उनका कहना है, हमने पिछले आठ महीनों में ईकोसिस्टम के साथ इस बारे में बहुत सीखा है कि कारोबार बढ़ाने के लिए कैसी टेक्नोलॉजी चाहिए। हमें लगता है, आधे से ज्यादा कारोबार 'थर्ड पार्टी' विक्रेता से आएगा। सचिन बंसल ने बताया कि फ्लिपकार्ट फैशन और सिलेसिलाए वस्त्रों में अपनी उपस्थिति बढ़ाना चाहता है, क्योंकि उनमें औसतन 20 से 30 प्रतिशत मुनाफे की गुंजाइश है। इसके विपरीत इलेक्ट्रानिक्स जैसी श्रेणियों में मुनाफा इससे आधे से भी कम है और शिपमेंट का किराया भी नहीं निकलता। फैशन वाले आनलाइन विक्रेताओं की साइट पर ज्यादा लोग आते हैं। बहरहाल, आपको सचिन बंसल को भारत का बेहद सफल नये जमाने का उद्यमी तो मानना पड़ेगा। उन्होंने हिन्दुस्थानियों को ऑनलाइन खरीददारी सिखाई।

साभार : पाञ्चजन्य , १८ अक्टूबर, २०१४ 


Wednesday, October 1, 2014

Dilip Shanghvi - दिलीप संघवी



Dilip Shanghvi (born 1955 in Mumbai, India) is the founder and managing director of Sun Pharmaceutical Industries Limited. Sun Pharma was founded in 1983 and it is currently the second-largest drugmaker in India. Appreciation of the Sun Pharma stock led to a 50% surge in his personal wealth, amounting to USD 4.7 billion. Sanghvi is now the third richest Indian pushing the IT czar Azim Premji to the 4th spot.

Mr. Shanghvi is also the Chairman and Managing Director of Sun Pharmaceutical Advanced Research Company Ltd. (SPARC Ltd.); an International pharmaceutical company engaged in research and development of drugs and delivery systems. SPARC, created in 2007 by the de-merger of innovative business from Sun Pharma, is the first pure-R&D company to be listed on the Indian stock exchanges.

Shanghvi holds a Bachelor of Commerce degree from the University of Calcutta. He is an alumnus of J. J. Ajmera High School andBhawanipur Education Society College, from where he did his schooling and graduation, respectively. His younger brother, Mr. Jayant Sanghvi lives in Vadodara and owns a real-estate business named Pratham Enterprises.

India’s traditional capitalists

These days, I’m in the Chettiar Belt of Tamil Nadu which has for centuries been a hub of vibrant industry in the south. It is primarily known as a textile hub, with several export firms having based their businesses here. History has it that at one point of time the Chettiars were a vibrant business community of the south that once controlled business activity comparable to the scale of the more well known Marwaris who originated from Rajasthan. However, most of the Chettiars’ capital was locked up in Burma and the Japanese invasion of the country during the 2nd World War resulted in colossal losses and the community’s eventual marginalization.


While the Marwaris are the most well-known, the fabric of traditional business groups in India is more myriad. Although most of the traditional communities come within the Vaishya caste of the Varna (the Hindu caste system), there are non- Vaishyagroups as well. Subsequently, they’re often referred to as the Vaishya-plus communities. These communities (referred to as the Vaishya-plus communities) comprised of particular ethnic communities or castes and were distinguished from the rest on account of particular defining features.

The Gujarati Banias and Jains, the Marwaris of Rajasthan as well as the Banias and Jains from Punjab, Haryana and the greater Hindi heartland could be classified as the Bania cluster which most closely fits the Vaishya or mercantile community in the Hindu chaturvarna (four-order) system. The traditional communities also consisted of the Lohanas and Bhatias, hailing from Sindh and Gujarat (mainly Kutch and Kathiawar), the Nattukottai Chettiars, from the Sivaganga and Pudukottai districts of Tamil Nadu, the Parsis as well as the Memons, Khojas and Bohras – three Muslim commercial communities of Sindh-Gujarat. The lineages of these Muslim communities can be traced to the Lohanas and other Hindu trading castes, but by virtue of the religion, fall outside the chaturvarna hierarchy. The Lohanas, Bhatias and Chettiars do not categorically fall within the Vaishya class on account of the absence of a well-defined Kshatriya (warrior) class in either Sindh and Kutch-Kathiawar or the South of India. These Vaishya-plus communities not only enjoyed a differentiating scale of operations spread over large areas, but also followed distinct orthodox and conservative norms such as vegetarianism, rigid rules of marriage, so on and so forth. They dominated business until Independence in 1947.

There have been many structural changes in the societal fabric post Independence. Entrepreneurship, it appears, is increasingly breaking free of the boundaries of the traditional merchant communities to reflect individual entrepreneurial behavior. The diminishing presence of the once powerful Parsi business community (of which the Tatats, Wadias belong) is another such change.

An excellent reference for those interested in India’s modern business history is Harish Damodaran’s “India New Capitalists”. The book is the product of what appears to be an expansive and thorough research effort into India’s business history. He seeks to address three lacunae in Indian business history: the lack of adequate works on the current period, an absence of research on non-traditional mercantile classes and the contemporary literature’s negligence of businesses in the South. He brings in his journalistic style that breathes simplicity and lucidity into the documentation. The book has a brilliant reportage of facts, insightful analyses and intriguing anecdotes that enliven what could have otherwise been a tedious work of social history. It gives a penetrative sense of the nation’s history and can be recommended as an easy read even for one who is unfamiliar with the ethos of the Indian sub-continent.

I’d rate ‘India’s new capitalists’ as a seminal contribution to the field of Indian business in general, and business history in particular.

साभार : http://natureofperception.wordpress.com

DR. VED PRATAP VAIDIK - डॉ. वेद प्रताप वैदिक




डॉ० वेद प्रताप वैदिक (जन्म: 30 दिसम्बर 1944 , इंदौर, मध्य प्रदेश) भारतवर्ष के वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक, पटु वक्ता एवं हिन्दी प्रेमी हैं। हिन्दी को भारत और विश्व मंच पर स्थापित करने की दिशा में सदा प्रयत्नशील रहते हैं। भाषा के सवाल पर स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गांधी और डॉ० राममनोहर लोहिया की परम्परा को आगे बढ़ाने वालों में डॉ० वैदिक का नाम अग्रणी है।

वैदिक जी अनेक भारतीय व विदेशी शोध-संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ रहे हैं। भारतीय विदेश नीति के चिन्तन और संचालन में उनकी भूमिका उल्लेखनीय है। अपने पूरे जीवन काल में उन्होंने लगभग 80 देशों की यात्रायें की हैं।

अंग्रेजी पत्रकारिता के मुकाबले हिन्दी में बेहतर पत्रकारिता का युग आरम्भ करने वालों में डॉ• वैदिक का नाम अग्रणी है। उन्होंने सन् 1958 से ही पत्रकारिता प्रारम्भ कर दी थी। नवभारत टाइम्स में पहले सह सम्पादक, बाद में विचार विभाग के सम्पादक भी रहे। उन्होंने हिन्दी समाचार एजेन्सी भाषा के संस्थापक सम्पादक के रूप में एक दशक तक प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया में काम किया। सम्प्रति भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष तथा नेटजाल डाट काम के सम्पादकीय निदेशक हैं।

वेद प्रताप वैदिक का जन्म 30 दिसम्बर 1944 को इंदौर एक सभ्रान्त वैश्य परिवार में हुआ। वे सदैव प्रथम श्रेणी के छात्र रहे। दर्शन और राजनीति उनके मुख्य विषय थे। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएचडी करने के पश्चात् कुछ समय दिल्ली में राजनीति शास्त्र का अध्यापन भी किया।

अपने अफ़गानिस्तान सम्बन्धी शोधकार्य के दौरान श्री वैदिक को न्यूयार्क के कोलम्बिया विश्वविद्यालय¸ लन्दन के प्राच्य विद्या संस्थान¸ मास्को की विज्ञान अकादमी और काबुल विश्वविद्यालय में अध्ययन का विशेष अवसर मिला। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञों में उनका स्थान महत्वपूर्ण है। उन्होंने लगभग पचास देशों की यात्रा की है। वे रूसी, फारसी, अंग्रेजी, संस्कृत व हिन्दी सहित अनेक भारतीय भाषाओं के विद्वान हैं। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में अखिल भारतीय स्तर पर अनेकों बार पुरस्कृत किये जा चुके वैदिक जी अपने मौलिक चिन्तन और प्रभावशाली वक्तृत्व के लिये जाने जाते हैं।

उन्होंने हिन्दी समाचार एजेन्सी भाषा के संस्थापक सम्पादक के रूप में एक दशक तक प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया में काम किया। इसके पूर्व वे नवभारत टाइम्स में सम्पादक भी रहे। उस समय नवभारत टाइम्स सर्वाधिक पढा जाने वाले हिन्दी अखबार था। इस समय वे भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष तथा नेटजाल डाट काम नामक बहुभाषी पोर्टल के सम्पादकीय निदेशक हैं।

वैदिक जी का हिन्दी प्रेम

1957 में सिर्फ 13 वर्ष की आयु में उन्होंने हिन्दी के लिये सत्याग्रह किया और पहली बार जेल गये। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर अपना शोध ग्रन्थ हिन्दी में लिखा जिसके कारण ‘स्कूल ऑफ इण्टरनेशनल स्टडीज़’ (जे०एन०यू०) ने उनकी छात्रवृत्ति रोक दी और स्कूल से उन्हें निकाल दिया। इस ज्वलन्त मुद्दे को लेकर 1966-67 में भारतीय संसद में जबर्दस्त हंगामा हुआ। डॉ० राममनोहर लोहिया, मधु लिमये, आचार्य कृपलानी, हीरेन मुखर्जी, प्रकाशवीर शास्त्री, अटल बिहारी वाजपेयी, चन्द्रशेखर, भागवत झा आजाद, हेम बरुआ आदि ने वैदिक का समर्थन किया। अन्ततोगत्वा श्रीमती इन्दिरा गान्धी की पहल पर ‘स्कूल’ के संविधान में संशोधन हुआ और वैदिक को वापस लिया गया। इसके बाद वे हिन्दी-संघर्ष के राष्ट्रीय प्रतीक बन गये।

वैदिक जी अनेक भारतीय व विदेशी शोध-संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ रहे हैं। उन्होंने भारतीय विदेश नीति के चिन्तन और संचालन में उल्लेखनीय भूमिकायें निभायी हैं। अपने पूरे जीवन काल में उन्होंने लगभग 80 देशों की यात्रायें की हैं।

अंग्रेजी पत्रकारिता के मुकाबले हिन्दी में बेहतर पत्रकारिता का युग आरम्भ करने वालों में डॉ• वैदिक का नाम अग्रणी है। 1958 में बतौर प्रूफ रीडर वे पत्रकारिता में आये, 12 वर्ष तक नवभारत टाइम्स में पहले सह सम्पादक फिर सम्पादक के पद पर रहे। आजकल वे प्रेस ट्रस्ट ऑफ इण्डिया की हिन्दी समाचार समिति भाषा के सम्पादक हैं।

उन्हें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उस समय काफी लम्बी लड़ाई लडनी पड़ी जब उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध पर अपना शोध प्रबन्ध हिन्दी में प्रस्तुत किया जिसे विश्वविद्यालय प्रशासन ने अस्वीकार कर दिया और उनसे कहा कि आप अपना शोध प्रबन्ध अंग्रेजी में ही लिखकर दें। वैदिक जी भी जिद्द पर अड़ गये और उन्होंने संघर्ष शुरू कर दिया। बात बहुत आगे संसद तक जा पहुँची अनेक राजनेता उनके समर्थन में आगे आये और परिणाम यह हुआ कि आखिर में प्रशासन को झुकना ही पड़ा।

डॉ. वैदिक ने पिछले 50 वर्षों में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिये अनेकों आन्दोलन चलाये और अपने चिन्तन व लेखन से यह सिद्घ किया कि स्वभाषा में किया गया काम अंग्रेजी के मुकाबले कहीं बेहतर हो सकता है। उन्होंने एक लघु पुस्तिका विदेशों में अंग्रेजी भी लिखी जिसमें तर्कपूर्ण ढँग से यह बताया कि कोई भी स्वाभिमानी और विकसित राष्ट्र अंग्रेजी में नहीं, बल्कि अपनी मातृभाषा में सारा काम करता है। उनका विचार है कि भारत में अनेकानेक स्थानों पर अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण ही आरक्षण अपरिहार्य हो गया है जबकि इस देश में इसकी कोई आवश्यकता नहीं है।

प्रकाशित पुस्तकें

भारतीय विदेश नीति : नये दिशा संकेत (नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली 1971)

अंग्रेजी हटाओ : क्यों और कैसे ? (प्रभात प्रकाशन, दिल्ली 1973)

अफगानिस्तान में सोवियत-अमरीकी प्रतिस्पर्धा (नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली 1973).

हिन्दी का सम्पूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ? (प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली 1994)

अफगानिस्तान : कल, आज और कल (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली 2002).

वर्तमान भारत (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली 2002).

महाशक्ति भारत (राजकमल प्रकाशन दिल्ली 2002).

सम्पादित पुस्तक

हिन्दी पत्रकारिता : विविध आयाम संपादित (नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली 1976)

अंग्रेजी पुस्तक

एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका : इंडिया‘ज़ ऑप्शंस‘ (नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली 1985).

पुरस्कार एवं सम्मान

काबुल विश्वविद्यालय द्वारा अफगानिस्तान सम्बन्धी शोधग्रन्थ पर दस हजार रुपये की सम्मान राशि, 1972

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमरीकी प्रतिस्पर्धा‘ ग्रन्थ पर गोविन्द वल्लभ पन्त पुरस्कार, 1976

उत्तर प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा हिंदी सेवा के लिये ‘पुरुषोत्तम दास टण्डन‘ स्वर्ण पदक, 1988

मधुवन (भोपाल) द्वारा पत्रकारिता में ‘श्रेष्ठ कला आचार्य‘ की उपाधि, 1989

हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा पत्रकारिता के लिये इक्कीस हजार रुपये की सम्मान राशि, 1990

डॉ. राममनोहर लोहिया सम्मान, कानपुर, 1990

इण्डियन कल्चरल सोसायटी द्वारा ‘लाला लाजपतराय सम्मान‘, 1992

मीडिया इण्डिया सम्मान, नई दिल्ली, 1992

प्रधानमन्त्री द्वारा रामधारी सिंह दिनकर शिखर सम्मान, 1992