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Saturday, March 21, 2015

गहोई वैश्य जाति का उदभव और विकास

सृष्टि में मानवीय सभ्यता संस्कृति का जन्म और विकास की श्रंखला तो लाखों करोड़ो वर्ष पुरानी है। प्रारंभ में मनुष्यो को केवल चार वर्णों को तीन गुणों (सत,रज,तम) के आधार पर बांटा गया था- यह भारत में सबसे पहले आर्य संस्कृति के उद्भव और विकास की कहानी है। इस प्रकार सतगुण प्रधान व्यक्ति “ब्राहम्ण“ सत्व तथा रज गुण प्रधान व्यक्ति “क्षत्री“, रज तथा तम गुण प्रधान व्यक्ति “वैश्य“ और तम गुण प्रधान व्यक्ति “शुद्र“ कहलाता था अपने वर्ण की पहचान के लिये ब्राहम्ण का “शर्मा“, क्षत्री को “वर्मा“, वैष्य को “गुप्ता“ और शुद्र को “दास“ की उपाधि दी गई थी। वर्ण के अनुसार ही सबके स्वाभाविक कर्म भी नियत किये गये थे। इस सम्बंध में विस्तृत और प्रामाणिक इतिहास “मनुस्मृति“ हैं। जैसे जैसे मानव संख्या बढती गई स्थानीय समुदाय अपनी विशेष पहिचान और परम्पराओ के साथ जीने के आदी हो गये। जिनका वैश्य वर्ण था उनकी एक शाखा “गहोई वैश्य“ मुख्यतः बुंदेलखण्ड क्षेत्र में थी और अधिकांश लोग ग्रामों में रहकर कृषि, व्यवसाय तथा गोपालन का ही कार्य करते थे। अधिकांश वैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षित होकर कंठी धारण करते थे। घुटनो तक धोती, सलूखा, कुर्ता और पगडी इनकी पोशाक विशेषकर यह शाखा वर्तमान झांसी, दतिया, उरई , कालपी, जालौन, सिंध किनारा के समीपवर्ती क्षेत्रो में ही थी जिनकी स्थानीय पंचायतें होती थी- उनका कोई एक वयोवृद्ध व्यक्ति पंच होता था और परंपराये भी निर्धारित थी। गहोईयों के विशेष पुरोहित होते थे जो इनके विवाह और अन्य धार्मिक अनुष्ठान कराते थे। विवाह के समय, भांवरो के पश्चात वर वधू के पुरोहित एक विशेष स्वस्तिवाचन मंत्र पड़ कर वर वधू को आर्शीवाद देते थे जिसे “शंखोच्चार“ कहा जाता था। इस शाखोच्चार में इस जाति के प्रथम कडी के रूप में “ वैश्रवन कुबेर“ का नाम लिखा जाता था और आखरी कडी के रूप में वर के बाबा का नाम लेकर आर्शीवाद वाचन किया जाता था। यह मन्त्र इस प्रकार है " स्वस्ति श्री मंत धनवंत गुण ज्ञानवंत धनपति कुबेर कोषाध्यक्ष भवानी गोरी शिव भगवंत दासानुदास द्वादस शाखा प्रख्यात विविध

रत्नमणि माणिक्य पावन कुल वैश्रवन उदभूत शाखानुशाख सर्व प्रथम अलकापुरी मध्य सानंद षट ऐश्वर्य भोगमान पुनश्च त्रतीय आवास धायेपुरे प्राप्तवान सर्व सम्पति भोगवान गोत्रस्य (वर का गोत्र ) नाम उच्चार सप्रवर गौ ब्रह्मण के प्रति पालक (वर के पिता का नाम तथा निवास ) ग्रामे अद्ध्य वर्त्तमान तस्य प्रपोत्र विवाहे सर्व कर्म सिद्वी ॐ वृद्वि: ॐ वृद्वि: ॐ वृद्वि:" | यह मंत्र तथा जाति का कोई इतिहास लिखित रूप में नही था परन्तु कालान्तर में जब यह प्रथा समाप्त हो गई, गहोई वैश्य जाति समय के साथ बुंदेलखण्ड तक ही सीमित न रहकर पूरे भारत में दूर दूर तक फैल गई तो यह परम्परा लुप्त हो गई। गहोई वैश्य जाति के परंपरागत पुरोहित भी नही रहे, वैज्ञानिक विकास के साथ अन्य जातियो से भी सम्पर्क होता गया परंपराये भी बदलती गई और राष्ट्रीय स्तर पर जातीय संगठन बनने लगे तब पुराने इतिहास की खोज की जाने लगी और अपनी अपनी जाति विशेष के प्रथम कडी के महापुरूषो की घोषणाये भी की गई।

समय और घटनाओ के इस लम्बे प्रवाह में वैश्य वर्ण भी अनेक उपजातियो में विभाजित हो चुका था। इनमें अग्रवाल, माहेश्वरी, जैन आदि कुछ जातियां विशेष रूप से अग्रिणी रही सन 1914 में राष्ट्रीय स्तर पर गहोई वैश्य जाति को भी नरसिंह पुर के एक गहोई वैश्य श्री नाथूराम रेजा ने, गहोई वैश्यों का एक संगठन “गहोई वैश्य महासभा“ के नाम से तैयार किया जिसका प्रथम अधिवेशन नागपुर में उनके ही एक संबंधी श्री बलदेवप्रसाद मातेले के सहयोग से सम्पन्न हुआ तब से यह संगठन “महासभा“ के नाम से बराबर चला आ रहा है जो सन् 2014 मे अपना शतक पूर्ण कर लेगा। चुंकि गहोई वैश्य जाति में 12 गोत्र प्रचलित है जो 12 ऋषियों के नाम पर है अतः इन्हे ही द्वादश आदित्य मान लिया। आदित्य सूर्य को कहते है अतः खुर्देव बाबा को सूर्यावतार मान कर और उनके द्वारा गहोई वंश के एक बालक की रक्षा कर बीज रूप में बचा लिया जिससे गहोई वंश की वृद्धि होती गई तो बहुत भाव तक खुर्देव बाबा की पूजा भी प्रचलित हुई शायद इसी आधार पर हमने अपने ध्वज पर सूर्य को अंकित किया है और सूर्यवंशी भगवान राम से भी इस आधार पर अपना संबंध जोड़ा है क्योकि राम जानकी विवाह की परंपराये गहोई जाति में होने वाले विवाहोत्सव पर भी अपनायी जाती रही तथा उस समय महिलाओ द्वारा गाये जाने वाले गीतों में वर के रूप में राम और वधू के रूप में सीता का नाम भी लिया जाता रहा है। इसलिए प्रतिवर्ष जनवरी 14 संक्रांति को “गहोई दिवस“ घोषित कर दिया जो सूर्य उपासना का एक महान पर्व है।

सन् 2000 में जबलपुर से श्री फूलचंद सेठ द्वारा “गहोई सुधासागर“ नाम से विस्तृत ग्रंथ प्रकाशित किया गया जिसमें अब तक गहोई जाति के उदभव विकास के रूप में प्रचारित सभी विवरण अंकित है और “कुबेर“ के बारे में भी प्रचलित “शाखोच्चार“ का उल्लेख है परन्तु इस ग्रंथ में प्रामाणिक रूप से किसी एक को मान्यता देने का निर्णय नही लिया गया है।

इस संबंध में एक पौराणिक कथा शिवपुराण में अंकित है। यह पूरी कथा शिव पुराण में अध्याय 13 से 20 तक है और इस कथा में “गहोई“ शब्द का भी उल्लेख है। जो भगवान शिव के द्वारा वैकावण को यह आर्शीवाद दिया गया है। “तुम गुहोइयों के अधिपति होगे“। कुबेर की उपाधि दी और विश्व की समस्त सम्पत्ति का अधिपति बनाकर उन्हे अपना सखा घोषित किया तथा कैलाश के समीप अलकापुरी उनका निवास स्थान बनाकर दिया और कुबेर की मान्यता श्रेष्ठ तथा पूज्य देवो में की गई। गीता में भगवान ने उसे अपनी विभूति में गिनाया है श्री वद्रीनारायण तीर्थ में जो मूर्ति है वहाँ कुबेर की भी एक मूर्ति है। दिवाली के दो दिन पूर्व धनतेरस को कुबेर यंत्र की स्थापना करने और उनकी उपासना करने के बाद ही अमावस्या को लक्ष्मीपूजन किया जाता है अतः पूज्य कुबेर को जो धनाध्यक्ष है हम वैश्य वर्ण के लोग कैसे उपेक्षित कर सकते है जब कि वह शिव के वरदान से गहोईयो के अधिपति“ कहे गये है। इस सम्बन्ध में जो पोराणिक कथा है उसके पूरा उल्लेख रामस्वरूप ब्रजपुरिया द्वारा सन 2005 में प्रकाशित पुस्तक गहोई सूत्र में है ।

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