पुरानी कहावत है कि ‘जहां न जाए गाड़ी, वहां जाए मारवाड़ी। यह पूरी तरह से सही भी है। मारवाड़ी इस देश के कोने-कोने में व्यापार, उद्योग चलाते मिल जाएंगे। गुजरातियों की तरह धंधा करना तो उनके खून में होता है। जब 80 के दशक में असम में छात्र आंदोलन पूरे जोर शोर से चल रहा था तब दिल्ली से ट्रेन द्वारा गुवाहाटी पहुंचने में 36 घंटे लगे थे। वहां के मारवाड़ी गोयनका परिवार से मित्रता हो गई। पता चला कि उनके पूर्वज दो सौ साल पहले ही वहां आकर बस गए थे। वहां तब रेल भी नहीं थी। वे न केवल वहां सफलतापूर्वक अपना काम धंधा कर रहे थे, बल्कि वहां वे समाज में पूरी तरह से रच बस भी गए थे। मारवड़ियों की सबसे बड़ी खूबी यही होती है कि वे बिना किसी से टकराए या प्रतिस्पर्धा किए अपना धंधा करते हैं। दूसरी अहम बात यह है कि वे अपनी संपन्नता का दिखावा नहीं करते हैं। मैंने यहीं बात अपने शहर के जाने माने उद्योगपतियों जेके व केडिया के घरों में भी देखी।
जेके अर्थात जुग्गीलाल कमलापत सिंहानिया ने कानपुर में जो भव्य मंदिर बनवाया उसकी गिनती इस देश के आधुनिकतम मंदिरों में की जा सकती है। जहां स्वच्छता व प्रबंधन देखने लायक है। तब इस परिवार के बारे में कहा जाता था कि जब कमलापत सिंहानिया कानपुर आए तो उनके हाथों में सिर्फ एक लोटा था। उनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं था। उन्होंने वह लोटा एक भड़भूजे (चना चबेना भून कर बेचने वाले) के पास गिरवी रख कर उससे चने लिए। बाद में अपन साम्राज्य स्थापित किया।
किवंदती थी कि जब उन्होंने वह लोटा वापस लेना चाहा तो उसने उसे लौटाने से इनकार कर दिया। जब तक वह जीवित रहा वह हर साल उस लोटे को एक बांस में टांग कर अपनी दुकान के आगे लटका देता था और जोर-जोर से यह कहता कि यह जेके का लोटा है। जब उनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं था तब मैंने उन्हें चने दिए थे। मारवाड़ियों के बारे में ऐसे तमाम किस्से कहानियां की भरमार है। उनकी सफलता की सबसे बड़ी वजह यह है कि वे बड़े से बड़ा जोखिम उठाने के लिए तैयार रहते हैं उनके बारे में कहा जाता है कि कभी किसी मारवाड़ी के साथ प्रतिस्पर्धा मत करना। इसी गुण के चलते बिड़ला ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जूट के कारोबार में करोड़ों बनाए थे। यही स्थिति रामकृष्ण डालमिया की भी थी। उन्होंने तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु तक से टकराव ले लिया था और इसकी कीमत भी चुकाई।
रामकृष्ण डालमिया राजस्थान के न होकर हरियाणा की राजनीति के गढ़ माने जाने वाले शहर रोहतक के थे। जहां के सर छोटू राम से लेकर भूपिंदर सिंह हुड्डा तक हैं। वे काफी धनी परिवार से थे हालांकि जब वे 1930 के मंदी के दौर में कलकत्ता पहुंचे तो उनकी आर्थिक स्थित काफी कमजोर थी। जब वे महज 22 साल के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। उन पर अपने परिवार की जिम्मेदारी आ पड़ी। उनके परिवार में उनकी मां, दादी, तीन बहनें व पत्नी थे। उन्होंने कलकत्ता में 13 रुपए प्रति माह किराए पर एक कमरा लिया व वहीं रहते हुए अपना धंधा शुरु कर दिया। चांदी के प्रति उनका खास लगाव था। एक ज्योतिषी ने उनसे कहा था कि अगर तुम चांदी का धंधा करोगे तो बहुत फूलो फलोगे। उन्होंने इसमें सट्टेबाजी की और काफी नुकसान उठाया। एक मौका तो ऐसा भी आया कि वे दिवालिया घोषित कर दिए गए। बाजार में कोई उनसे बात तक करने को तैयार नहीं था। उस दौरान उन्हें लंदन से टेलीग्राम मिला कि चांदी के दाम बढ़ने वाले हैं। उस समय उनकी जेब में एक रुपया तक नहीं था। वे दौड़कर बाजार गए पर कोई भी उनकी मदद करने के लिए तैयार नहीं हुआ। सबने उनका मखौल ही उड़ाया। थक हार कर वे अपने ज्योतिषी के पास गए जो कि काफी पैसे वाला था। वह 7500 पौंड की चांदी खरीदने को तैयार हो गया। इसमें डालमिया को 100 का कमीशन मिलना था। चूंकि उनकी जेब खाली थी इसलिए ज्योतिषी ने उन्हें 10 रुपए देते हुए कहा कि तार घर जाओ और लदंन टेलीग्राम भेज दो। उनके पास टांगे के लायक पैसे भी नहीं थे इसलिए वे ट्राम पकड़कर टेलीग्राफ आफिस पहुंचे और तार कर दिया। अगले दिन जब वे गंगा स्नान कर रहे थे तो उनके पास ज्योतिषी का नौकर आया और बोला कि वे चाहते हैं कि यह सौदा न किया जाए। वे सन्न रह गए थे। तुरंत ज्योतिषी के पास पहुंचे उसे बहुत समझाया पर वह कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं था। वे दुखी हो गए। घर लौटे तो उन्हें तार मिला कि सौदा हो गया था। बाजार नीचे आ जाने के कारण उन्हें तगड़ा नुकसान हुआ है एक दिन में यह पूंजी घट कर आधी रह गई थी। अगले कुछ दिनों में उनकी किस्मत ने साथ दिया और उन्होंने इस धंधे में बहुत मोटा मुनाफा कमाया। उन्होंने मुनाफा वसूली करने की जगह कुछ और पैसा लगना चाहा। इसके लिए अपनी पत्नी का एकमात्र हार चुरा कर उसे दो सौ रुपए में गिरवी पर रख दिया और इसके लिए 10 हजार पौंड का जोखिम लिया। किस्मत ने साथ दिया और चांदी के दाम फिर बढ़ गए। इस मुनाफे के जरिए उन्होंने पुनः किसी और एजेंट के माध्यम से चांदी खरीदी। अगले चंद दिनों में वे अपनी पूंजी सात गुना कर चुके थे।
उनका कोई दोस्त नहीं था। उन्होंने अपनी मां को सारी बात बताई। उनकी मां को जब बीवी का जेवर गिरवी रखने की बात पता चली तो वे काफी दुखी हुई। उन्होंने उनसे कहा कि इसे तुरंत छुड़ा कर ले आओ और भविष्य में फिर कभी ऐसा काम नहीं करना। उन्होंने कहा कि हम लोग 50 रुपए महीने में घर का खर्च चला सकते हैं। यह सुनने के बाद उन्होंने अपने एजेंट को तार भेज कर उससे मुनाफा वसूली करने को कहा। किस्मत उनका साथ दे रही थी। एजेंट को तार नहीं मिला। इस बीच चांदी का बाजार चढ़ता गया और अंततः उनका मुनाफा 15 गुना बढ़ गया। अब उनके पास धंधा करने के लिए पर्याप्त पैसा था। उन्होंने उद्योगों और रियल एस्टेट का साम्राज्य खड़ा किया। एक समय तो ऐसा था कि उनकी गिनती देश के तीन सबसे बड़े उद्योगपतियों में होती थीं। उनके बेटे संजय डालमिया आज भी अपने 30 जनवरी, मार्ग स्थित विशाल घर में जब किसी को खाने पर आमंत्रित करते हैं तो खाना चांदी के बर्तनों में परोसा जाता है जो कि आम क्राकरी की तुलना में बेहद भारी होते हैं।
ज्यादातर मारवाड़ी राजस्थान मूल के हैं। इनमें से भी अधिकांश शेखावटी के रहने वाले हैं। जाने माने उद्योगपति जीडी बिड़ला के बाबा शिव नारायण जब मुंबई गए तो तो वे कुछ एक ‘बासा’में ठहरे थे। बासा एक ऐसी लॉज होती थी, जिसे मारवाड़ी मिल कर चलाते थे। वह बहुत कम पैसे में सोने व खाने की व्यवस्था हो जाती थी। यह मूलतः व्यापार के गुरुकुल साबित होते थे। जहां कि मारवाड़ी आपसी बातचीत व अनुभवों के जरिए धंधे के गुण सीखते थे। जब टेलीग्राम का आविष्कार नहीं हुआ था तब यह लोग व्यापरिक सूचनाओं के आदान-प्रदान करने के लिए कबूतरों और शीशे का इस्तेमाल करते थे। वे दर्पण के जरिए संकेत भेजते थे। आज मारवाड़ी दुनिया के हर कोने में छाए हुए हैं। जब कोई उनसे नाराज हो जाता है तो यह कहता है कि ‘सड़क बिगाड़े बैलगाड़ी और धंधा बिगाड़े मारवाड़ी।’
साभार : विनम्र, नया इंडिया
वाह गजब की रोचक पोस्ट ...मैं अपने मित्रों को आपकी इस पोस्ट का पता दूंगा ,,,,मारवाड़ी ............खूबसूरत जानकारी ...
ReplyDelete