ANKIT AGRAWAL - कानपुर के अंकित ने समस्या से निकाला करोड़ों की कमाई का रास्ता
कानपुर के अंकित अग्रवाल अपने एक चेक रिपब्लिक दोस्त के साथ गंगा किनारे बैठे थे। उस दिन मकर संक्रांति थी। विदेशी दोस्त ने गंगा के मटमैले पानी में सैकड़ों लोगों को नहाते देखा तो परेशान हो गया। पूछा- लोग इतने गंदे पानी में क्यों नहा रहे हैं? इसे साफ क्यों नहीं करते? सरकार और सिस्टम पर दोष लगाकर अंकित बात टालने लगे। विदेशी दोस्त ने कहा तुम खुद क्यों नहीं कुछ करते? इसी वक्त चढ़ावे के फूलों से लदा एक टेम्पो आकर रुका और अपना सारा कचरा गंगा जी में उड़ेल दिया। उसी वक्त अंकित के दिमाग में Phool स्टार्टअप का विचार आया।
आइडियाः मंदिर में चढ़ाए फूलों से अगरबत्ती और फ्लेदर
Phool मंदिरों में चढ़ाए गए फूलों को इकट्ठा करता है और उनकी प्रोसेसिंग करके अगरबत्ती, धूपबत्ती और फ्लेदर (फूलों से बना लेदर) बनाता है। इससे कचरा तो कम होता ही है, करोड़ों की कमाई और सैकड़ों लोगों को रोजगार भी मिलता है। Phool के फाउंडर अंकित बताते हैं, ‘हम लोग रोजाना करीब साढ़े तीन टन फूल कानपुर के मंदिरों और तिरुपति से उठाते हैं। इससे अगरबत्ती और धूपबत्ती बनाते हैं। हमने ढाई साल की रिसर्च के बाद एक चमड़े का विकास किया है जो फूल से तैयार होता है।’
स्टार्टः 2 किलो फूल और 72 हजार रुपए से शुरुआत
Phool का आइडिया आने के बाद अंकित ने रिसर्च करनी शुरू की। वो बताते हैं, ‘करीब दो महीने में मुझे समझ आ गया कि मंदिरों से जो फूल निकलता है उसका कोई समाधान नहीं है। कुछ लोग खाद वगैरह बनाते हैं, लेकिन उससे कोई खास कमाई नहीं होती। मैंने 2 किलो फूल और 72 हजार रुपए से शुरुआत की। अपने आइडिया के साथ IIT, IIM और अन्य संस्थानों की प्रतियोगिताओं में जाने लगा। इनके जरिए ही मैंने 20 लाख रुपए इकट्ठा कर लिए। एक साल बाद मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी और पूरी तरह स्टार्टअप में लग गया।’
इसके बाद अंकित ने अपने कॉलेज के दोस्त अपूर्व को साथ जुड़ने के लिए राजी किया। अपूर्व उस वक्त बेंगलुरु में एक बड़ी कंपनी में मार्केटिंग की नौकरी करते थे। अंकित कहते हैं, ‘Phool का आइडिया भले ही मेरा था लेकिन इसे एक ब्रांड बनाने में अपूर्व का बड़ा योगदान है।’
स्ट्रगलः फूल देने के लिए राजी नहीं थे मंदिर
अपूर्व बताते हैं, ‘सबसे बड़ी समस्या थी मंदिर में जाकर लोगों को राजी करना कि वे फूल पानी में फेंकने की बजाए हमें दे दें। लोगों को बताया कि हम 'तेरा तुझको अर्पण' प्रथा को आगे बढ़ा रहे हैं। यानी हम मंदिरों से फूल लेकर अगरबत्ती और धूपबत्ती बनाते हैं जो भगवान को ही अर्पित होता है। लोगों की आस्था के साथ कोई खिलवाड़ नहीं किया जा रहा।’
पूरे प्रॉसेस के बारे में अपूर्व बताते हैं, ‘हम मंदिरों में जाकर अपनी गाड़ियों से फूल उठा लेते हैं। फैक्ट्री में लाकर फूलों से नमी हटाई जाती है और उन्हें सुखाया जाता है। इसके बाद फूल के बीच का भाग और पत्तियां अलग कर लेते हैं। दोनों का अलग-अलग इस्तेमाल होता है। फिर इसे एक मशीन में डालकर पेस्टिसाइड वगैरह को अलग करते हैं। इतने प्रॉसेस के बाद ये एक पाउडर बन जाता है। इसे आटे की तरह गूंथ लिया जाता है और हाथों से अगरबत्ती और धूपबत्ती बनाई जाती है। इसके बाद प्राकृतिक खुशबू में डुबोकर पैकिंग कर दी जाती है।’
चढ़ावे के फूलों को साफ करती महिलाएं (साभार- Phool.co)
फंडिंगः लॉकडाउन का कठिन दौर और फिर 10 करोड़ की फंडिंग
Phool ने शुरुआत में सोशल अल्फा, DRK फाउंडेशन, IIT कानपुर और कुछ अन्य संस्थाओं से 3.38 करोड़ रुपए के फंड जुटाए। इससे उनका काम ट्रैक पर आ गया। फिर आया कोरोना का दौर। अपूर्व बताते हैं, ‘लॉकडाउन के ढाई महीने में कंपनी के पास कोई आमदनी नहीं थी लेकिन खर्च बरकरार था। मैनेजमेंट टीम ने ढाई महीने कोई सैलरी नहीं ली। हमारे पास सिर्फ 4 महीने के लिए कंपनी चलाने के पैसे बचे थे।’
इसके बाद अगस्त 2020 में Phool को IAN फंड (स्टार्टअप को फंड देने वाली संस्था) और सैन फ्रांसिस्को के ड्रेपर रिचर्ड्स कपलान फाउंडेशन ने मिलकर 1.4 मिलियन डॉलर यानी करीब 10.40 करोड़ रुपए की फंडिंग दी है। कंपनी का कहना है कि रूटीन खर्च के लिए वो अपने प्रोडक्ट से कमाई कर लेते हैं। फंडिंग का इस्तेमाल रिसर्च एंड डेवलपमेंट के काम में किया जाएगा।
फूलों की पत्तियां और बीच का भाग अलग किया जाता है और इसका इस्तेमाल अगरबत्ती बनाने में होता है
टारगेटः इस कॉन्सेप्ट को दुनिया भर में ले जाने का लक्ष्य
अपूर्व बताते हैं, ‘सितंबर 2018 में हमने पहला प्रोडक्ट हमारी वेबसाइट से बेचा था। उस वक्त दिन के दो या तीन ऑर्डर आते थे। आज हमें रोजाना 1 हजार ऑर्डर मिलते हैं। इसके आगे का हमारा ये स्टेप होगा कि क्या हम इस कॉन्सेप्ट को ग्लोबल लेवल तक लेकर जा सकते हैं। अगरबत्ती का मार्केट छोटा है इसलिए हम लेदर पर पूरा फोकस कर रहे हैं।’
अपूर्व कहते हैं, 'मैं बेंगलुरु में टॉप कंपनियों के साथ मार्केटिंग में काम करता था। जब मैंने पिताजी को बताया कि मुझे कानपुर जाकर कुछ करना है तो उन्होंने कहा- बेंगलुरु से लोग सिंगापुर जाते हैं। कानपुर कोई नहीं जाता, लेकिन मुझे पता था कि सबसे बुरा क्या होगा। यही कि हम फेल हो जाएंगे। लेकिन सबसे अच्छा क्या होगा इसकी कोई सीमा नहीं है।'
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