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Friday, August 16, 2024

VAISHYA KINGS OF INDIAN HISTORY - भारतीय इतिहास के वैश्य राजा

VAISHYA KINGS OF INDIAN HISTORY - भारतीय इतिहास के वैश्य राजा

भारत के प्राचीन इतिहास में बहुत से राजा हुवे हैं, जिन्हें स्पष्ट रूप से वैश्य लिखा गया है। पुराणों की वंशावलियों में केवल वैशालक वंश ही ऐसा है, जिसे वैश्य वंश कहा जा सकता है। पर बाद के इतिहास में अनेक ऐसे वंश आते हैं, जिन्हें विविध लेखकों ने वैश्य लिखा है । इनमें मुख्य मगध का गुप्त वंश, स्थाएवीश्वर ( थानेसर ) का वर्धन वंश और चम्पावती का नाग वंश हैं। मंजुश्रीमूल कल्प नामक जो बौद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ उपलब्ध हुवा है, उसमें विविध राजाओं की जाति साथ में दी गई है। उसके कुछ उद्धरण हम यहां देते हैं

"उस समय दो बहुत धनी आदमी थे, जो विष्णु के पुत्र ये। उनमें से एक का नाम भ से शुरू होता था । वे दोनों मुख्य मन्त्री थे । वे दोनों अत्यन्य धनी, श्रीमान्, प्रसिद्ध और शासन कार्य में रत थे | आगे चल कर वे स्वयं स्वामी ( मनुजेश्वर ) हो गये, और उनमें से एक राजा ( भूपाल ) हो गया । तदनन्तर, ७८ वर्ष तक तीन राजाओं ने राज्य किया । वे श्रीकण्ठ के निवासी थे । एक का नाम आदित्य था, वह वैश्य था और स्थाण्वीश्वर में रहता था । अन्त में ह ( हर्ष वर्धन ) नाम का राजा सब देशों का चक्रवतीं राजा ( सर्वभूमिनराधिपः ) हो गया । इस उद्धरण में थानेसर के वर्धन राजाओं का हाल दिया गया है। इन्हें स्पष्ट रूप से वैश्य लिखा हैं । इस वंश का प्रारम्भ आदित्य या आदित्यवर्धन से माना है, जिसकी वंशावली यह है राज्यवर्ध, आदित्यवर्धन,प्रभाकरवर्धन, हर्षवर्धन.

1. विष्णु प्रभवौ तत्र महाभोगो धनिनो तदा / ६१४ मध्यमात् तौ भकाराद्यौ मन्त्रिमुख्यौ उभौ तदा । धनिनौ श्रमितौ ख्यातौ शासनेऽस्मि हिते रतौ ॥ ६१५ ततः परेण मंत्री भूपालौ जातौ मनुजेश्वरौ ॥

भारतीय इतिहास के वैश्य राजा हर्षवर्धन का शासनकाल ६०६ ईस्वी से ६४७ ईस्वी तक है । इस वंश ने कुल ७८ वर्ष ( या दक्षिणी भारत में प्राप्त मंजुश्रीमूल कल्प की प्रति के अनुसार ११५ वर्ष ) तक राज्य किया । प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनत्सांग ने भी, जो महाराज हर्षवर्धन की राजसभा में देर तक रहा था, इन राजाओं को वैश्य लिखा है । राज्यवर्धन और हर्षवर्धन के सम्बन्ध में मंजु श्री मूलकल्प की निम्नलिखित पंक्तियां उल्लेख योग्य हैं

“उस समय मध्यदेश में र ( राज्यवर्धन ) नाम का राजा अत्यन्त प्रसिद्ध होगा । वह वैश्य जाति का होगा । वह शासन कार्य में अत्यन्त समर्थ तथा सोम नाम के राजा के समान ही होगा । उसका छोटा भाई ह (हर्षवर्धन ) एक ही वीर होगा । उसकी सेना बहुत बड़ी होगी । वह शूर, पराक्रमी तथा बड़ा प्रसिद्ध होगा । सोम ( शशांक ) राजा के विरुद्ध आक्रमण कर वह वैश्य राजा (हर्षवर्धन ) उसे परास्त करेगा ।

" सप्त्यष्टौ तथा श्रीरिण श्रीकण्ठावासिनस्तदा । आदित्यनामा वैश्यास्तु स्थानमीश्वरवासिनः ।।६१७ भविष्यति न सन्देहो अन्ते सर्वत्र भूपतिः हकाराख्यो नामतः प्रोक्तो सर्वभूमिनराधिपः ।। ६१८ मंजुश्रीमूलकल्प पृष्ठ ४५ I. भविष्यते च तदाकाले मध्यदेशे नृपो वरः । काराख्यस्तु विद्यात्मा वैश्य वृत्तिमचञ्चलः ।। ७१६ शासनेऽस्मिं तथा शक्त सोमाख्य ससमो नृपः । ७२० तस्याप्यनुजो ह्काराख्य एकवीरो भविष्यत.”

यह बात महत्व की है, कि थानेसर के जिन राजाओं का भारतीय इतिहास में इतना महत्व है, और जिन्होंने कुछ समय के लिये प्रायः सारे उत्तरी भारत को अपने आधीन कर लिया था, वे वैश्य थे। थानेसर करनाल जिले में है, करनाल और थानेसर हिसार व अगरोहा से दूर नहीं हैं । भाटों के गीतों के अनुसार अगरोहा छोड़कर अग्रवालों ने जो प्रारम्भिक बस्तियां बसाई थीं, उनमें ये स्थान अन्तर्गत थे । कोई आश्चर्य नहीं, कि स्थाएवीश्वर के वैश्य राजाओं का-जो उरु चरितम् के शूरसेन की तरह एक अन्य राजा के मन्त्री बन कर फिर स्वयं सर्वेसर्वा हो गये थे--अगरोहा के वैश्य आग्रेय गण के साथ कोई सम्बन्ध हो।

मंजुश्री मूल कल्प ने नाग वंश को भी वैश्य लिखा है। भारतीय इतिहास में नाग वंश का बड़ा महत्व है। जायसवाल जी ने इनकी प्रसिद्ध भारशिव वंश से एकता स्थापित की है। नागों का वर्णन इस प्रकार किया गया है

"तब फिर वैश्य वंश का राजा शिशु राज्य करेगा। फिर नागराज नाम का राजा गौड देश का शासन करेगा। उसके समीप ब्राह्मण और वैश्य रहेंगे । नागराजा स्वयं भी वैश्य होंगे और वैश्यों से ही घिरे रहेंग”

" महासन्य समायुक्तः शूरः क्रान्तविक्रमः ।। ७२१. निर्धास्ये हकाराख्यो नृपतिं सामं विश्रुतम् वैश्यवृत्तिस्ततो राजा महासन्यो महाबलः ।। ७७२ पराजयामास सोमाख्यम् .. .. . . . . . ७१५ मंजुश्रीमूलकल्प पृष्ठ ५३-५४ वैश्यवर्णशिशुस्तदा १७४६ नागराजसमायो गौडराजा”

इन वैश्य नागों का इतिहास हमें लिखने की प्राकश्यकता नहीं। श्री काशीप्रसाद जी ने इस बात पर आश्चर्य प्रगट किया है, कि इन नाग राजाओं को वैश्य क्यों लिखा गया है । पर हमें इसमें कोई आश्चर्य प्रतीत नहीं होता। नाग राजाओं का वैश्य अग्रवंश से प्राचीन सम्बन्ध है। उनको भी यदि वैश्य जातियों में सम्मिलित किया गया हो, तो यह सर्वथा सम्भव है।

वर्धन तथा नाग वंश के अतिरिक्त भारतीय इतिहास के सुप्रसिद्ध गुप्त वंश को भी मंजुश्री मृल कल्प ने वैश्य लिखा है । इसी गुप्त वंश में चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय ( विक्रमादित्य ), कुमारगुप्त और स्कन्दगुप्त जैसे प्रसिद्ध सम्राट् हुवे। इस सम्बन्ध में भी मंजुश्री मूल कल्प की निम्नलिखित बातें उल्लेख योग्य हैं

"निःसन्देह उस देश में तब एक राजा होगा, जो मधुरा ( मथुरा) का उत्पन्न हुवा होगा, और जिसकी माता वैशाली की होगी। वह वणिक् (वैश्य ) जाति का होगा। वह मगध देश का राजा हो जावेगा।" 

"अन्ते तस्य नपे तिष्ठं जयाचावर्णनद्विशौ ।।७५० 
वैश्यः परिवृता वैश्यं नागाहृयो समन्ततः ।।७५. १. 
मंजुश्रीमूलकल्प पृ० ५५-५६ 1. 
भविष्यन्ति न सन्देह: तस्मिं दश नराधिपाः 
मथुराजातो वैशाल्या वणिक् पूर्वी नपो वरः 
सोऽपि पूजितमूर्तिस्तु मागधानां नृपो भवेत् ।।७६० मंजुश्रीमूलकल्प पृ०”

यह वर्णन गुप्तवंश के एक राजा के सम्बन्ध में किया गया है । इससे तीन बातें स्पष्ट हैं—-गुप्तवंश के राजा वैश्य जाति के थे । उनका उद्भव मथुरा में हुवा था और उनका वैशाली के साथ सम्बन्ध था। मथुरा उस प्रदेश में है, जहां से वैश्य आग्रेयगन  दूर नहीं है ।

स्वयं मथुरा का घनिष्ठ सम्बन्ध राजा अग्रसेन के भाई वैश्य शूरसेन के साथ जोड़ा गया है। उरुचरितम् के अनुसार तो शौरसेन देश जो मथुरा कहाने लगा, उसका कारण यह वैश्य शूरसेन ही था। वैशाली के प्राचीन राजवंश वैशालक वंश का उद्भव वैश्य भलन्दन तथा वात्सप्री से हुबा था, राजा विशाल की कन्याओं से राजा धनपाल के पुत्रों का विवाह हुवा था। इस प्रकार वैशाली के वंश का वैश्यों के साथ गहरा सम्बन्ध है, और गुप्तों का वैश्य होना सर्वथा संगत है। 

गुप्तवंशी सम्राट वैश्य थे, यह जहां मंजुश्रीमूलकल्प से सूचित होता है, वहां इन राजाओं का अपने नामों के साथ 'गुप्त' लगाना भी इसी बात का द्योतक है। 'गुप्त' लगाने की परम्परा वैश्यों में ही है, और धर्मग्रन्थों ने भी इसका विधान किया है. गुप्त सम्राटों का गोत्र धारण था । एक शिलालेख में गुप्त राजकुमारी प्रभाकरगुप्ता को धारण गोत्रीया' लिखा गया है । उसके पति का गोत्र 'विष्णुवृद्ध' था । प्रभाकर गुप्ता का अपना गोत्र धारण था

सम्भवतः धारण गोत्री गुप्तों के प्रतिनिधि हैं। गुप्त सम्राटों की जाति को निश्चित करने का एक अच्छा साधन कुमारी प्रभाकर गुप्ता का धारण गोत्र है । यह धारण गोत्र ढैरण (धरण) की शकल में वैश्य अग्रवालों में पाया जाता है ।

धारण-गोत्रीया प्रभाकर गुप्ता का विवाह जिस कुमार से हुवा था, उसके वंश को भी वैश्य कहा गया है, उसका वैश्य धारण गोत्र की कुमारी से विवाह होना अधिक संगत है, छोटी जाति की कुमारी से नहीं। ___ गुप्त सम्राटों ने अपनी जाति को छिपाया है, यह कहना शायद उचित नहीं है । सम्भवतः, अपने वंश के सम्बन्ध में सब से अधिक स्पष्ट रूप से उन्होंने ही सूचना दी है । धर्म ग्रन्थों के आदेश 'गुप्तेति वैश्यस्य' का अनुसरण करते हुवे उन्होंने 'गुप्त' शब्द का अपने नामों के साथ प्रयोग किया है। धर्मस्मृतियों के निर्माण का समय भी ऐतिहासिक लोग प्रायः गुप्त काल को मानते

Tuesday, August 13, 2024

वैश्य जाति की उत्पत्ति, इतिहास एवं परिचय

वैश्य जाति की उत्पत्ति, इतिहास एवं परिचय


वैश्य हिंदू वर्ण व्यवस्था के चार वर्णों में से एक है। वैश्य हिन्दू जाति व्यवस्था के अंतर्गत वर्णाश्रम का तृतीय एवं महत्त्वपूर्ण स्तंभ है। इस समुदाय में प्रधान रूप से किसान, पशुपालक, और व्यापारी समुदाय शामिल हैं।

व्युत्पत्ति

'वैश्य' शब्द वैदिक 'विश्' से आया है, जिसका तात्पर्य है- 'प्रजा'। शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से 'वैश्य' यह शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है, जिसका आधारभूत अर्थ "बसना" होता है। मनुस्मृति के मुताबित वैश्यों की उत्पत्ति ब्रह्मा के उदर अर्थात पेट से हुई है। हालाकि कुछ अन्य विचारों के अनुसार ब्रह्मा से जन्मने वाले ब्राह्मण हुए और विष्णु भगवान से पैदा होने वाले वैश्य कहलाये और शंकर जी जिनकी उत्पत्ति हुई वो क्षत्रिय कहलाए. आज भी इसलिये ब्राह्मण वर्ण माँ सरस्वती (विद्या की देवी), वैश्य वर्ण माँ लक्ष्मी (धन की देवी), क्षत्रिय माँ दुर्गे (दुष्टों को विनाश करने वाली) को पूजते है।

वैश्य वर्ण का इतिहास

वैश्य समुदत के प्रवर्तक भगवान विष्णु एवं कुलदेवी माता लक्ष्मी
 
वैश्य समुदाय का इतिहास जानने से पूर्व हमें यह जानना जरुरी है कि वैश्य शब्द आखिर आया कहाँ से? दरअसल वैश्य संस्कृत शब्द विश् से आया है। विश् शब्द का तात्पर्य है प्रजा। प्राचीन काल में प्रजा (अर्थात समाज) को विश् नाम से संबोधित किया जाता था। इसके मुख्य संरक्षक को विशपति (यानि राजा) कहते थे, जो चयन से चुनाव के माध्यम से किया जाता था।

मनु के अनुसार चार प्रधान सामाजिक वर्ण शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय तथा ब्राह्मण थे, जिनमें सभ्यता के विकास के संग-संग नए व्यवसाय भी बाद में जुड़ते चले गए थे। शूद्रों के आखेटी कम्युनिटी में अनसिखियों को बोझा व सामान ढोने का कार्य दिया जाता था। बाद में उसी समुदाय के लोगो को जब कुछ लोगों ने कृषि क्षेत्र में छोटा-मोटा मजूरी करने का कार्य सीखा, तो वह आखेट करने के बजाय कृषि कार्य करने लगे। ज्यादातर ऐसे लोगों में जिज्ञासा का आभाव, अज्ञानता और जिम्मेदारी सम्भालने के प्रति बेपरवाही की मानसिकता रही। वें अपनी तब की जरूरतों की पूर्ति के अतिरिक्त कुछ और सोचने में अक्षम और निष्क्रिय रहे। उनके अन्दर स्वयं से बात करने की सीमित क्षमता थी, जिस वजह से वह समुदाय की चीजो का दूसरे समुदायों के संग लेन-देन नहीं कर सकते थे।

धीरे-धीरे आखेटी सामज किसानी करने लगा। समाज के लोग कृषि औरर कृषि से सम्बंधित अन्य व्यव्साय भी सीखने लगे। समुदाय के लोगों ने भोजन और कपडा आदि की निजी आवश्यकताओ की आपूर्ति भी कृषि के उत्पादकों से करनी प्रारंभ कर दी थी। उन्होंने कृषि प्रधान जानवर/पशु पालने आरम्भ किया और उनको अपनी सम्पदा में सम्मिलित कर लिया। श्रम के स्थान पर पशुओ तथा कृषि से उत्पन्न उत्पादकों का लेन-देन होने लगा। मानव समुदाय बंजारा जीवन त्यागकर कृषि तथा जल श्रोतो (नदियाँ, तालाव इत्यादि) के निकट रहने लगे। इस तरह का जीवन ज्यादा सुखप्रद था।

ज्यों-ज्यों क्षमता और सामर्थ्य बढ़ा, उसी के मुताबित नये किसान व्यवसायी समुदाय के पास शूद्रों (शुद्र, हिन्दू वर्ण व्यवस्था में चतुर्थ स्थान) से ज्यादा साधन आते गये और वह एक ही जगह पर निवास कर सुखमय जीवन व्यतीत करने लगे। अब उनका प्रमुख उद्देश्य संसाधन संग्रहित करना और उनको वैश्य व्यापारी इस्तेमाल में लाकर ज्यादा सुख-सम्पदा एकत्रित करना था। इस व्यवसाय को संचालित करने हेतु व्यापारिक कौशल्या, सूझबूझ, व्यवहार-कुशलता, वाक्पटुता, परिवर्तनशीलता, खतरा अथवा जोखिम उठाने की क्षमता व साहस, धीरज, परिश्रम की जरुरत थी।


जिनमे इस प्रकार गुण निहित अथवा या जिन्होंने इस प्रकार की क्षमता हासिल कर ली थी, वह वैश्य वर्ग में शामिल हो गया। वैश्य कृषि-खेती, उत्पादक वितरण, पशुपालन और कृषि से जुडी औज़ारों व उपकरणों के संधारण (रखरखाव) तथा क्रय-विक्रय का व्यवसाय करने लगे। उनका जीवन शूद्र वर्ग के लोगो से अधिक आरामदायक हो गया और उन्होंने शूद्र जाति के लोगो को अनाज, कपड़ा, रहने का व्यवस्था आदि की जरुरी सुविधायें प्रदान कर अपनी मदद के लिये निजी अधिकार में रखना प्रारंभ कर दिया। इस तरह सभ्यता के विकास के संग जब वस्त्र, अनाज, रहवास आदि के बदले पैसे देने की रिवाज विकसित होने लगी तो उसी के संग ही ‘सेवक’ व्यव्साय का भी जन्म हुआ। बेशक, समाज में वैश्यों का जीवन स्तर (स्टेटस) और मान-सम्मान शूद्रों से प्रकृष्ट था। आज हमारा वैश्य समुदाय एक प्रशिक्षशित वर्ग के रूप में स्वयं को स्थापित कर चूका है।

पारंपरिक कर्तव्य


हिन्दू वर्ण व्यवस्था में वैश्य
 
हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार वैश्य कृषि और पशुपालन में पारंपरिक भूमिका निभायी थी, लेकिन समय के साथ वे भूमि मालिक, व्यापारियों और साहुकार आदि के रूप में आये। वैश्य, ब्राह्मण / बहूण और क्षत्रिय /छेत्री वर्णों के सदस्यों के साथ, द्विव्या का दावा करते हैं। भारतीय और नेपाली व्यापारियों को क्रमशः दक्षिण पूर्व एशिया और तिब्बत क्षेत्रों में हिंदू संस्कृति के प्रसार के लिए श्रेय दिया गया है।

ऐतिहासिक रूप से, वैश्य अपने परंपरागत व्यापार और वाणिज्य के अलावा अन्य भूमिकाओं में शामिल रहे हैं। इतिहासकार राम शरण शर्मा के अनुसार, गुप्त साम्राज्य एक वैश्य राजवंश था जो "दमनकारी शासकों के खिलाफ प्रतिक्रिया का परिणाम था।"

वैश्यों का आधुनिक समुदाय
 
वैश्य वर्ण में कई जाति या उप-जातियाँ होतीहैं, जिनमे विशेष रूप से अग्रहरि, अग्रवाल, बार्नवाल, गहौइस, कसौधन, महेश्वरी, खांडेलवाल, महावार, लोहानस, ओसवाल, रौनियार, आर्य वैश्य आदि है।


VAISHYA ORIGIN & HISTORY

VAISHYA ORIGIN & HISTORY

वैश्य समुदाय हिंदू धर्म में चार मुख्य जातियों में से एक है, जिसकी उत्पत्ति प्राचीन भारतीय उपमहाद्वीप से हुई है। ऐसा माना जाता है कि वे पौराणिक राजा वैश्रवण के वंशज हैं, जो अपने धन और समृद्धि के लिए जाने जाते थे। समय के साथ, वे प्रमुख व्यापारी , व्यापारी और बैंकर बन गए, जिन्होंने भारत के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

उनके इतिहास का पता वैदिक काल से लगाया जा सकता है, जहाँ उन्हें ब्राह्मणों और क्षत्रियों के साथ तीन प्राथमिक जातियों में से एक के रूप में उल्लेख किया गया था। इस समय के दौरान, वे कृषि , मवेशी पालन और कपड़ा उत्पादन जैसी व्यापारिक गतिविधियों में शामिल थे । उन्होंने कर संग्रहकर्ता , एकाउंटेंट और अन्य प्रशासनिक पदों पर कार्य करते हुए राज्य के प्रशासन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बाद के समय में, वैश्यों ने अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना जारी रखा, खासकर मुगल साम्राज्य के दौरान जब उन्होंने साहूकार , व्यापारी और किसान के रूप में काम किया । उनमें से कई लोग दक्षिण एशिया , पूर्वी अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया सहित दुनिया के विभिन्न हिस्सों में भी चले गए, जहाँ उन्होंने खुद को सफल व्यवसायी और उद्यमी के रूप में स्थापित किया।

आज, वैश्य समुदाय भारतीय समाज का एक अभिन्न अंग बना हुआ है, जिसके कई सदस्य वित्त, आईटी और विनिर्माण जैसे विभिन्न उद्योगों में लगे हुए हैं। हालाँकि, अपनी सफलता के बावजूद, उन्हें अभी भी सामाजिक असमानता और भेदभाव से संबंधित चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, खासकर ग्रामीण इलाकों में जहाँ पारंपरिक जाति पदानुक्रम कायम है।

वितरण और जनसंख्या

2011 की भारतीय जनगणना के अनुसार, वैश्य भारत की कुल आबादी का लगभग 25% हिस्सा हैं। वे भारत के सभी हिस्सों में पाए जाते हैं, लेकिन पंजाब, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली और पश्चिम बंगाल जैसे उत्तरी और पश्चिमी क्षेत्रों में उनकी आबादी सबसे अधिक है। इन क्षेत्रों के भीतर विभिन्न राज्यों में वैश्यों का वितरण अलग-अलग है, कुछ राज्यों में उनकी सांद्रता दूसरों की तुलना में अधिक है। उदाहरण के लिए, पंजाब में, वे सबसे बड़ा समुदाय बनाते हैं, जो राज्य की आबादी का लगभग आधा हिस्सा है। गुजरात और महाराष्ट्र जैसे अन्य राज्यों में, वे महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक हैं। अपनी बड़ी संख्या के बावजूद, वैश्य ऐतिहासिक रूप से अपने व्यावसायिक कौशल और उद्यमशीलता के लिए जाने जाते हैं , जिसने उनकी आर्थिक सफलता में योगदान दिया है।

हिंदू धर्म में सामाजिक स्थिति

हिंदू धर्म में , वैश्यों को ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र के साथ चार मुख्य जातियों या सामाजिक वर्गों में से एक माना जाता है। उन्हें अक्सर व्यापारी, व्यापारी, किसान और ज़मींदार के रूप में वर्णित किया जाता है, और वे भारत की अर्थव्यवस्था और समाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

"वैश्य" शब्द संस्कृत शब्द "गाय चराने" से आया है, जो कभी इस जाति के बीच एक सामान्य व्यवसाय था। हालाँकि, समय के साथ, उनके व्यवसायों में विविधता आई है, और आज कई वैश्य व्यवसाय, उद्योग, कृषि और अन्य क्षेत्रों में काम करते हैं।

हिंदू शास्त्रों में, वैश्यों के पास कुछ ऐसे गुण होते हैं जो उन्हें अन्य जातियों से अलग करते हैं। उदाहरण के लिए, उन्हें वाणिज्य, व्यापार और कृषि में कुशल माना जाता है, और वे अपने परिवार और समुदायों के प्रति कर्तव्य और जिम्मेदारी की भावना के लिए भी जाने जाते हैं।

हालाँकि, समाज में अपनी प्रमुख स्थिति के बावजूद, वैश्य पूरे इतिहास में भेदभाव और उत्पीड़न से मुक्त नहीं रहे। उदाहरण के लिए, ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान, उन्हें जबरन श्रम और भूमि अलगाव सहित विभिन्न प्रकार के शोषण और दमन का सामना करना पड़ा। फिर भी, वैश्य आज भी भारतीय समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, विशेषकर वाणिज्य, उद्योग और कृषि के क्षेत्रों में।

व्यवसाय और पेशे

वैश्य पारंपरिक रूप से व्यापार , कृषि और वाणिज्य में अपनी भागीदारी के लिए जाने जाते थे। वे पूरे इतिहास में व्यापारियों , व्यापारियों , बैंकरों , किसानों और ज़मींदारों जैसे विभिन्न व्यवसायों में शामिल रहे हैं। प्राचीन भारत में, वे समाज में महत्वपूर्ण पदों पर थे, जिसमें कर संग्रहकर्ता और सम्पदा के प्रशासक होना शामिल था । वैश्य जाति को व्यवसाय प्रबंधन और वित्त में अपनी विशेषज्ञता के लिए भी जाना जाता था , जिसने उन्हें धन संचय करने और भारतीय समाज में एक प्रभावशाली वर्ग के रूप में खुद को स्थापित करने की अनुमति दी। आज, वैश्य समुदाय के कई सदस्य उद्यमिता, उद्योग और वाणिज्य में शामिल हैं, जो भारत के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।

विवाह और पारिवारिक जीवन

हिंदू धर्म में, विवाह को दो व्यक्तियों, आमतौर पर विपरीत लिंग के लोगों के बीच एक पवित्र बंधन माना जाता है, जो आध्यात्मिक और भावनात्मक तरीके से अपने जीवन को साझा करने के लिए एक साथ आते हैं। वैश्य इस परंपरा के अपवाद नहीं हैं और जब शादी की बात आती है तो वे समान नियमों और रीति-रिवाजों का पालन करते हैं।

विवाह के लिए उपयुक्त साथी चुनने की प्रक्रिया में कुंडली मिलान , संभावित भागीदारों से मिलना , उपहारों का आदान-प्रदान और अंत में 'वैभवी विवाह' नामक समारोह के माध्यम से गाँठ बाँधना जैसे कई चरण शामिल हैं। इस समारोह में कई रस्में शामिल हैं जैसे माला का आदान-प्रदान , चार हाथों की प्रार्थना और अग्नि के चारों ओर सात कदम । इस समारोह के दौरान दूल्हा और दुल्हन सात वचन भी लेते हैं जिसमें जीवन भर एक-दूसरे से प्यार, सम्मान और समर्थन करने के वादे शामिल हैं। 

पारिवारिक जीवन

के संदर्भ में , वैश्यों के पास आमतौर पर बड़े परिवार होते हैं जिनमें माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी और कभी-कभी अधिक दूर के रिश्तेदार भी शामिल होते हैं। वे परिवार इकाई के भीतर मजबूत संबंध बनाए रखने पर बहुत महत्व देते हैं और अपने बड़ों की देखभाल करने में विश्वास करते हैं। पारिवारिक समारोह और उत्सव उनकी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और वे अक्सर खाना पकाने, खाने और सामाजिक रूप से एक साथ समय बिताते हैं। कुल मिलाकर, वैश्यों का वैवाहिक और पारिवारिक जीवन एक पवित्र संस्था के रूप में परिवार की अवधारणा और प्रियजनों के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखने के महत्व के इर्द-गिर्द घूमता है।

आहार संबंधी अभ्यास

वैश्यों को हिंदू धर्म में चार मुख्य जातियों में से एक माना जाता है और उनके अपने अलग-अलग खान-पान के तरीके हैं। वे आम तौर पर शाकाहारी या मांसाहारी होते हैं, लेकिन गोमांस से परहेज करते हैं और शराब का सेवन भी सीमित करते हैं। वैश्यों के प्राथमिक खाद्य स्रोतों में गेहूं, चावल और अन्य अनाज जैसे अनाज के साथ-साथ दाल और छोले जैसी फलियाँ शामिल हैं । वे दूध, दही और घी सहित डेयरी उत्पादों का भी सेवन करते हैं । इसके अलावा, वे केले, आम, बादाम और अखरोट जैसे फल और मेवे खाने का आनंद लेते हैं। कुछ वैश्य समुदाय मांस भी खा सकते हैं, खासकर मछली, लेकिन यह उनके आहार का मुख्य हिस्सा नहीं है। कुल मिलाकर, वैश्य समुदाय अपनी धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं का पालन करते हुए संतुलित और पौष्टिक आहार बनाए रखने पर बहुत ज़ोर देता है।

बोली जाने वाली भाषाएं

वैश्य समुदाय विभिन्न भाषाएँ बोलने में अपनी दक्षता के लिए जाना जाता है। वे हिंदी में धाराप्रवाह हैं , जो उनकी मातृभाषा है और पूरे भारत में व्यापक रूप से बोली जाती है। इसके अतिरिक्त, वे अंग्रेजी में भी कुशल हैं , जिसका आमतौर पर व्यापार और शिक्षा के क्षेत्र में उपयोग किया जाता है। इस समुदाय के कई सदस्यों ने भोजपुरी, मराठी, गुजराती और पंजाबी जैसी क्षेत्रीय बोलियों में भी महारत हासिल की है। ये भाषा कौशल उन्हें भारत के विभिन्न हिस्सों और विदेशों के लोगों के साथ प्रभावी ढंग से संवाद करने में सक्षम बनाते हैं।

त्यौहार और समारोह

वैश्य समुदाय अपने त्योहारों और समारोहों के लिए जाना जाता है जिन्हें अक्सर बड़े उत्साह और खुशी के साथ मनाया जाता है। वैश्य समुदाय द्वारा मनाए जाने वाले सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक दिवाली या दीपावली है, जिसे रोशनी के त्योहार के रूप में भी जाना जाता है। यह त्योहार भगवान कृष्ण की राक्षस नरकासुर पर जीत के उपलक्ष्य में हर साल अक्टूबर/नवंबर में मनाया जाता है। इस त्योहार के दौरान, लोग अपने घरों को रोशनी, मोमबत्तियों और तेल के दीयों से सजाते हैं और इस अवसर को चिह्नित करने के लिए पटाखे फोड़ते हैं। वैश्य समुदाय द्वारा
मनाया जाने वाला एक और महत्वपूर्ण त्योहार नवरात्रि है , जो देवी दुर्गा को समर्पित है। यह हर साल सितंबर/अक्टूबर में मनाया जाता है और इसमें नौ दिनों का उपवास और पूजा शामिल होती है। लोग इस त्योहार के दौरान देवी की प्रार्थना करते हैं और विभिन्न अनुष्ठान करते हैं। वैश्य समुदाय द्वारा मनाया जाने वाला तीसरा त्योहार होली है इन तीन प्रमुख त्योहारों के अलावा, वैश्य समुदाय कई क्षेत्रीय त्योहार भी मनाता है जैसे पोंगल, मकर संक्रांति और गुरु नानक जयंती।

वस्त्र और आभूषण

वैश्य पुरुष आमतौर पर कुर्ता या शर्ट के साथ धोती या पैंट पहनते हैं, जबकि महिलाएं सलवार कमीज या लहंगा चोली पहनती हैं। उनके पास आभूषणों की अपनी अलग शैली भी है, जिसमें सोने या चांदी से बने हार, चूड़ियाँ और झुमके शामिल हैं । पुरुषों के लिए पगड़ी और महिलाओं के लिए दुपट्टे जैसे पारंपरिक सामानों का उपयोग भी वैश्यों के बीच आम है। इन वस्तुओं के अलावा, वे धार्मिक प्रतीक जैसे रुद्राक्ष की माला और तांबे या पीतल से बने कंगन भी पहन सकते हैं।

शिक्षा और साक्षरता दर

2011 की भारतीय जनगणना के अनुसार, वैश्य समुदायों में साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से अधिक है। भारत में कुल साक्षरता दर लगभग 74% है, जबकि वैश्यों में साक्षरता दर लगभग 85% है। इस उच्च साक्षरता दर का श्रेय पूरे इतिहास में शिक्षा और सीखने पर उनके मजबूत जोर को दिया जा सकता है । वैश्य समुदाय द्वारा स्थापित
शैक्षणिक संस्थानों ने समाज के सभी वर्गों के बीच साक्षरता और शिक्षा को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वे ऐसे स्कूल और कॉलेज स्थापित करने में अग्रणी थे, जो जाति या पंथ की परवाह किए बिना सभी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करते थे। वास्तव में, इनमें से कई संस्थान आज भी फल-फूल रहे हैं और उच्च शिक्षित व्यक्तियों को तैयार करना जारी रखते हैं जो देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं । इसके अलावा, वैश्य समुदाय तकनीकी शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों को बढ़ावा देने में भी सहायक रहा है।

Monday, August 12, 2024

वैश्य बल के बिना सुधारों का कोई मतलब नहीं

वैश्य बल के बिना सुधारों का कोई मतलब नहीं


आर्थिक सुधार शुरू होने के पच्चीस साल बाद, हमें वैश्य शक्ति को पुनः जागृत करने की आवश्यकता है।
अगले कुछ दशकों तक अपने देश की राजनीतिक और सैन्य शक्ति को आर्थिक ताकत के साथ समर्थन देने के लिए, हमें बस एक अंतिम सुधार की आवश्यकता है: इसके रास्ते से हट जाना।

इसे राजनीतिक रूप से हेरफेर किया गया है, जिसमें एक तरफ श्रेय लिया जाता है और दूसरी तरफ साजिश रची जाती है। इसने अर्थशास्त्रियों की एक पूरी पीढ़ी को गुमराह किया है, जिनमें से कुछ इसे सभी आर्थिक समस्याओं के लिए एक रामबाण उपाय के रूप में देखते हैं और अन्य इसे एक ऐसी प्रणाली के रूप में देखते हैं जो अंततः ध्वस्त हो जाएगी। इसे अशिक्षित लोगों द्वारा पूजा और निंदा की गई है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे लाभार्थियों के किस पक्ष में खड़े हैं। इसके समर्थकों का दावा है कि यह निरंकुशता, संदेह और नियंत्रण के दोषों को नष्ट करता है और उपभोग, विकास और व्यापार के गुणों को आशीर्वाद देता है। इसके विरोधियों का दावा है कि यह असमानताओं को बढ़ाता है, पूंजीवादी एजेंडे को आगे बढ़ाता है, हमारे देश को आर्थिक साम्राज्यवाद के अधीन बनाता है, अमीर अल्पसंख्यकों की जेबें भरता है और गरीब बहुसंख्यकों का शोषण करता है।

सभी सही हैं। कोई भी सही नहीं है।

और हर कोई मुद्दे से चूक रहा है।

व्यापार के नियमों में बाहरी बदलाव से कुछ हासिल नहीं होता। पिछले 25 सालों की तरह वे समाज की भावना को मीठा कर सकते हैं, लेकिन अंदरूनी चीजें कड़वी ही रहेंगी। भारतीय उद्यमियों को प्रयोग करने, बढ़ने, धन बनाने और असफल होने की आजादी देने का उद्देश्य बाहरी बदलाव से पूरा नहीं होगा। भारत को और अधिक की जरूरत है। आर्थिक शक्ति का स्रोत कहीं और है, एक अदृश्य आध्यात्मिक शक्ति में।

न अच्छा न बुरा, न पुण्य न पाप, न काला न सफेद; यह शक्ति हवा, ज्वार-भाटे और पृथ्वी के घूमने और घूमने की तरह है। राजनीति से प्रेरित सतहों से कहीं अधिक गहरी, स्वर्ग से भी ऊंची जहां अर्थशास्त्र के देवता फलते-फूलते हैं, जटिल बाजारों के विस्तार से कहीं अधिक व्यापक, सुधारों को आगे बढ़ाने वाली शक्ति एक सर्वव्यापी और सर्वज्ञ वास्तविकता है जिसने केवल 25 साल पहले अपनी सर्वशक्तिमान शक्ति के कुछ अंशों को फिर से खोजा है। पहले मुगलों और बाद में अंग्रेजों द्वारा राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक हमलों के तहत, यह शक्ति राष्ट्र की चेतना से हट गई थी। या हो सकता है, यह इसके विपरीत था।

भारत को बेहतर बनाने के लिए हमें एक नए पुनरुद्धार, एक नए दृष्टिकोण, एक अधिक जड़, अधिक जमीनी परिवर्तन की आवश्यकता है - शायद एक आध्यात्मिक क्रांति। हमें धन के सभी रूपों की चेतना को वापस लाने की आवश्यकता है। हमें अपने उद्यमियों, अपने धन के निर्माताओं, समाज के आयोजकों पर थूकना बंद करना होगा। हमें अपने वैश्यों का सम्मान करने की आवश्यकता है, समाज की वह शाखा जो व्यवसायों और शिल्प, उद्योग और व्यापार, धन सृजन और परोपकार के माध्यम से अपने स्वधर्म - स्वयं बनने - को व्यक्त करती है।

इससे पहले कि मैं उन लोगों की उदास और असहनीय शक्ति से कुचला जाऊं जो इस विचार को सिर्फ़ इसलिए अस्वीकार करते हैं क्योंकि उन्होंने जाति व्यवस्था को सभी बुराइयों का सार समझ लिया है, मुझे इस पैराग्राफ़ को समाप्त करने की अनुमति दें। वैश्य एक ऐसा अस्तित्व है जिसका अस्तित्व या आंतरिक प्रकृति ज्ञान, सामग्री और मनुष्यों की विभिन्न शाखाओं को एक साथ लाने और उन्हें नए उद्यमों की ओर संगठित करने की क्षमता से निर्देशित होती है, जिससे उसके भागों का योग बढ़ता है। जबकि पैसा एक मीठा उपोत्पाद है, वैश्य का आनंद निर्माण, आयोजन और सृजन से आता है। उन विचारों को आयात करना जो कहीं और सफल रहे हैं और उनसे यहाँ भी वही चमत्कार करने की उम्मीद करना विचार, वाणी और कर्म का आलस्य है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र की तरह वैश्य भी चेतना का एक जटिल नेटवर्क है।

शायद आलोचकों को यह पसंद न आए; वे इसे स्वीकार न करें, लेकिन भारत कभी दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी, जिसकी जीडीपी हिस्सेदारी 1 ई.पू. में 32.9 प्रतिशत थी, द वर्ल्ड इकोनॉमी: हिस्टोरिकल स्टैटिस्टिक्स के अनुसार । विश्व जीडीपी में यह हिस्सेदारी 1500 ई.पू. तक गिरकर 24.3 प्रतिशत हो गई थी और अंग्रेजों से अपनी स्वतंत्रता मिलने के तीन साल बाद, यह गिरकर 4.2 प्रतिशत हो गई थी। इस अपमानजनक पराजय का मुख्य दोष हमारे देश से क्षत्रिय शक्ति का पतन था, जिसके बाद एक कमजोर राष्ट्र को पश्चिम से आए आक्रमणकारियों द्वारा सिलसिलेवार लूटा गया।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि अगर कोई राष्ट्र खुद को छोड़ देता है, खुद को क्षय होने देता है, और अपनी जड़ता को बनाए रखने के लिए "आध्यात्मिक खोज" का उपयोग करता है, तो हम विजेताओं को इसे निगलने के लिए दोषी नहीं ठहरा सकते। लेकिन अपनी स्वतंत्रता के बावजूद, अगर हम गरीबी की बेड़ियों में जकड़े रहते हैं, पुनरुत्थान को अस्वीकार करते हैं और वही करते रहते हैं जो हमें साम्राज्यवादी संविधान के नियंत्रण से मिला है, तो यह स्पष्ट है कि बड़ी ताकतें खेल रही हैं, जो राजनीतिक विकल्पों और आर्थिक प्रणालियों से परे हैं। स्वतंत्रता के एक चौथाई सदी बाद 1973 तक भारत का सकल घरेलू उत्पाद हिस्सा और गिरकर 3.1 प्रतिशत हो गया, जो उस घटती हुई ताकत का प्रमाण है।

और सुधार? खैर, 1991 में शुरू हुए सुधारों और परिणामों के बीच बहुत कम कारण-कार्य संबंध है। आज, पिछले दशक में तेज आर्थिक वृद्धि, 25 वर्षों की अपेक्षाकृत खुली अर्थव्यवस्था और समृद्धि की समग्र भावना के बावजूद, विश्व जीडीपी में भारत का हिस्सा 2.8 प्रतिशत है - जो 1973 में बंद अर्थव्यवस्था की तुलना में कम है, जो अंग्रेजों ने हमें छोड़ा था उससे भी कम है। इसका मतलब है कि भारत की आर्थिक महत्ता जितनी दिखती है, उससे कहीं अधिक है, समीकरणों, परिपूर्ण बाजारों, ट्रिकलडाउन से परे क्षेत्रों में और अधिक काम करने की आवश्यकता है।

भारत के आर्थिक पतन का असली कारण यह है कि सामूहिक चेतना के रूप में हम अपने वैश्यों को तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं, जबकि हम पश्चिम (गूगल, वाल-मार्ट, शेवरॉन) और पूर्व (पेट्रो चाइना, अलीबाबा, गजप्रोम) के वैश्यों का जश्न मनाते हैं। वैश्य क्षमता बिजनेस स्कूलों में प्रबंधकों की फौज बनाने या वित्तीय दिमागों को चलाने वाले गणितीय समीकरणों के खेल में नहीं है। शिक्षा इस कौशल की सतह को भी मुश्किल से छू पाती है। यह कुछ और गहरा है।

क्योंकि हम इस वैश्य शक्ति से दूर रहते हैं, इसलिए हमें केवल जुगाड़ या छोटे-मोटे नवाचारों पर गर्व है, जो व्यक्तियों या समुदायों की मदद करते हैं। नतीजतन, हमारे वैश्यों की ऊर्जा बिखरी हुई है, जो कभी-कभी, कभी-कभी, छोटे-मोटे सौदों और सड़ती हुई राजनीति में दिखाई देती है। सामूहिक रूप से, हमने अपने धन सृजनकर्ताओं को आध्यात्मिक रूप से दो कौड़ी के छोटे-मोटे चूहे के रूप में शर्मिंदा किया है, जो धन की सुरंगों के बीच बिल बनाते हैं या इससे भी बदतर, पश्चिम और पूर्व द्वारा त्यागे गए मार्गों का आँख मूंदकर अनुसरण करते हैं। हमने उन पर भ्रष्टाचार की शाही मुहर लगा दी है। उन्हें सुविधा प्रदान करने के बजाय, हमने एक प्रणाली, एक बुनियादी ढाँचा बनाया है, जहाँ उन्हें हर बॉयलर, हर वित्तीय सौदे, हर कदम पर संगठित घर्षण का सामना करना पड़ता है।

सांस्कृतिक रूप से, हम मध्यम आकार की कंपनियों में उपाध्यक्ष बनकर खुश हैं, लेकिन छोटे उद्यमों के निर्माता होने पर शर्मिंदा हैं जो एक दशक में बड़े हो सकते हैं, स्टार्टअप इकोसिस्टम के मौजूदा उछाल और पतन के बावजूद। सबूत चाहिए? वैवाहिक पृष्ठों का अध्ययन करें। स्वतंत्र भारत की आत्मा को स्वतंत्रता के उत्सव को शक्ति देने के लिए वैश्य की आर्थिक गतिशीलता की आवश्यकता थी। इसके बजाय राजनीतिक प्रतिष्ठान ने आर्थिक गतिविधि को अपराध और वैश्य को अपराधी में बदल दिया, विडंबना यह है कि इस "अपराधी" को तब भी पोषित किया जाता है जब हम उसके चेहरे पर लात मारते हैं।

इस कलंक का समर्थन हमारे विचारक कर रहे थे, जिन्होंने न तो अर्थशास्त्र और भगवद् गीता पढ़ी है और न ही भारत से उत्पन्न शासन प्रणालियों को समझने की परवाह की है। बौद्धिक धक्का, अगर वह था, 1950 और 1960 के दशक में एक और सोवियत संघ बनने की ओर, 1970 और 1980 के दशक में एक और यूरोप, 1990 और 2000 के दशक में एक और अमेरिका, आज एक और चीन। जबकि भारत की आकांक्षा एक आर्थिक कल्पना से दूसरी में कूदती है, जो इस बात पर निर्भर करती है कि बाहरी दुनिया क्या तय करती है और "सफलता" के रूप में लेबल करती है, हम एक ऐसा राष्ट्र बने हुए हैं जो नकल करने की कोशिश कर रहा है - बिल्लियाँ ऊपर चढ़ती रहती हैं। इसलिए, हमने आजादी के बाद समाजवादी मॉडल को अपनाया। यह 1980 के दशक के मध्य में विफल हो गया, और हम दिशाहीन हो गए, इसलिए हमने अगला विकल्प, पूंजीवादी मॉडल को पकड़ लिया।

लेकिन बहुपक्षीय एजेंसियों की विचारधाराएँ क्षणभंगुर और अपने मालिकों की ज़रूरतों के अधीन होती हैं, किसी निरपेक्ष नहीं। जब ये एजेंसियाँ अपने "मालिकों" के लिए व्यापक आर्थिक समाधान सुझाती हैं, तो वे बिना किसी प्रयास के लक्ष्य बदल देती हैं - किसी भी कीमत पर तीसरी दुनिया के देशों के लिए राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने से लेकर वैश्विक आर्थिक संकट के शुरू होने और पश्चिम में आने पर उन्हें अनदेखा करने तक। उदाहरण के लिए, 1997 के एशियाई वित्तीय संकट के रूप में जाने जाने वाले वियतनाम, इंडोनेशिया और थाईलैंड को उन्होंने जो सुधार सुझाया, वह था सरकारी खर्च को कम करना, राजकोषीय घाटे में कटौती करना और दिवालिया वित्तीय संस्थानों को खत्म होने देना। लेकिन जब 2008 के अमेरिकी आर्थिक संकट की बात आई, जिसे "वैश्विक" आर्थिक संकट करार दिया गया, तो एक बहुत ही अलग नुस्खा अपनाया गया - "बहुत बड़े विफल होने वाले" बैंक जिन्होंने जानबूझकर संकट पैदा किया था, उन्हें सरकार द्वारा समर्थन दिया गया, और उनके अधिकारियों को अत्यधिक बोनस दिया गया, जिसके कारण ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन और 99 प्रतिशत का रोना शुरू हुआ। सिर्फ़ एक दशक में, खेल के नियम और साथ ही उनके पीछे की विचारधाराएँ बदल गईं।

ऐसा इसलिए है क्योंकि नियम पश्चिम द्वारा, पश्चिम के लिए बनाए गए थे और इसलिए वे पश्चिम के हैं। किसी राष्ट्र या राष्ट्रों के समूह द्वारा मिलकर जो करना है, उसे करने में कुछ भी गलत नहीं है। समस्या यह है कि हम यह उम्मीद करते हैं कि जो चेतना के एक समूह में काम करता है, वह दूसरे में भी उतनी ही कुशलता से काम करेगा। सामान्य रूप से भारतीय तरीके तक पहुँचने और उसे खोदने तथा विशेष रूप से वैश्य चेतना का समर्थन करने में हमारी असमर्थता ने इस शक्ति को और कमजोर कर दिया।

सतही शब्दावली से नशे में चूर, "सुधारवादी" बुद्धिजीवी 1969 में भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण की निंदा करते हैं (यह निश्चित रूप से गलत था), लेकिन 2008 में अमेरिका (फैनी मै और फ्रेडी मैक) और ब्रिटेन (नॉर्दर्न रॉक) में प्रभावी रूप से उसी कार्रवाई की सराहना करते हैं। स्पष्ट रूप से, हमारी बौद्धिकता का कोई आधार नहीं है। हमारे ब्राह्मण, पश्चिम के अनुभव और ज्ञान का हवाला देते हुए, ईमानदारी या विद्वता से रहित हैं। स्पष्ट करने के लिए: जबकि ज्ञान में कुछ भी गलत नहीं है, पूर्वी या पश्चिमी, लेकिन राष्ट्रों की सांस्कृतिक वास्तविकता के प्रति सचेत हुए बिना विचारों की अंधाधुंध नकल करना बहुत गलत है - प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों की नकल करना किसी को बुद्धिजीवी नहीं बनाता है।

जिसे "सुधार" के रूप में जाना जाता है, वह तेजी से पश्चिम के विचारों को उधार लेने जैसा लग रहा है, जो भारत को उनकी आर्थिक प्रयोगशाला और भारतीयों को उनका गिनीपिग बनाने की अनुमति दे रहा है। अपने स्वयं के दिशानिर्देशों के बारे में अनिश्चित, अपने सांस्कृतिक संदर्भों के बारे में अस्पष्ट, 1.2 अरब लोगों पर आर्थिक नीति के प्रभाव के बारे में बेफिक्र, राजनेताओं, नौकरशाहों, अर्थशास्त्रियों और बुद्धिजीवियों के एक छोटे समूह ने आयातित नीतियों को हमारे गले में ठूंस दिया है। इनमें से कुछ ने निस्संदेह काम किया है - भारत आज दुनिया की शीर्ष 10 अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, यह दुनिया का छठा सबसे बड़ा कार बाजार और दूसरा सबसे बड़ा स्मार्टफोन बाजार है। लेकिन अधिकांश ने नहीं किया है - हम प्रति व्यक्ति आय में 164 में से 120वें स्थान पर हैं, हमारी आबादी के तीन प्रतिशत से भी कम लोग कर देते हैं

अधीनता का माहौल, छोटे इंस्पेक्टर की सर्वोच्चता का प्रतिमान, भारत की सेवा करने के बजाय नियंत्रण करने के लिए बनाए गए पुराने कानूनों की भूलभुलैया यह सुनिश्चित करती है कि प्रतिभा बाहर चली जाए - भारतीय वैश्य का स्वभाव भारत के बाहर अपना स्वधर्म पाता है। एक राष्ट्र के रूप में, हमने अपने वैश्यों को तम की जंजीरों में बांध दिया है, जो सुस्ती और जड़ता की स्थिति है। हम जीवित रहने से संतुष्ट हैं। हमारे लिए गतिशीलता, उद्यम, नौकरियों से भरी अर्थव्यवस्था की ऊँचाई नहीं है। इससे भी बदतर, जो लोग बड़े पैमाने पर परियोजनाएँ और सैकड़ों हज़ारों नौकरियाँ बनाते हैं, उनकी निंदा की जाती है, उनका जश्न नहीं मनाया जाता।

हमें “भारतीय” तरीके को फिर से खोजने और लागू करने की जरूरत है। यह केवल हमारी आध्यात्मिक जड़ों से आ सकता है, दूसरों की आकांक्षाओं की नकल करने से नहीं। भगवद् गीता कहती है कि अपने कर्म के नियम का पालन करना बेहतर है, चाहे वह कितना भी बुरा क्यों न हो, दूसरे के, चाहे वह कितना भी अच्छा क्यों न हो। हमने अपनी आजादी के पहले 44 वर्षों में नियंत्रण की एक ऊपर से नीचे की कमांड अर्थव्यवस्था के माध्यम से अपने वैश्यों की ऊर्जा को बर्बाद कर दिया, जिसने प्रभावी रूप से जड़ता को कानूनी और संस्थागत बना दिया, हमारी चेतना को सुन्न कर दिया, हमें कुशल क्लर्क और प्रबंधक बनने के लिए प्रेरित किया। जब हम 1991 में सुधारों के माध्यम से बदलाव के लिए खड़े हुए, तो हमने उन्हें शून्य आधार नहीं दिया, बल्कि उन्हें हमारी आत्मा के लिए विदेशी नीतियों में फंसा दिया, उन मानदंडों की ओर जिनका हमारे लिए कोई मतलब नहीं था।

सामूहिक चेतना के रूप में, बहुत लंबे समय से, हमने वैश्य की गतिशील शक्ति को दबा दिया है। हमने इसके परिणाम एक ऐसे राष्ट्र के रूप में देखे हैं जो सभी विपरीत पैकेजिंग के बावजूद गरीब बना हुआ है। हम आज सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था हो सकते हैं, लेकिन सामाजिक संकेतकों के बोझ तले दबे हुए हैं। भले ही भारत दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है, लेकिन हमारे व्यवसायों का कोई पैमाना नहीं है, हमारे वैश्य छाया में काम करते हैं। जो लोग ऐसा करते हैं, वे विश्वासघात के माध्यम से वहां पहुंचे हैं, न कि परिष्कार या कड़ी मेहनत से। उन्हें बर्खास्त और नष्ट करने की आवश्यकता है। यहां तक ​​कि हमारे वैश्यों का दान जो लाखों लोगों के जीवन को बदल देता है, वह भी पर्याप्त नहीं है।

हमें इसे बदलने की जरूरत है। और उस बदलाव की पहली झलक- लेकिन याद रखें, केवल पहली और नाजुक झलक- दिखाई दे रही है। धन के प्रति चेतना बढ़ रही है। यह एक तकनीकी अति-कूद द्वारा उत्प्रेरित होगी जो हमारे राष्ट्र के अंदरूनी हिस्सों तक पहुँचती है और वैश्यों तक पहुँच प्रदान करती है, जो अब बिना किसी संपर्क के एक द्वीप पर फंसे हुए हैं, उनकी प्रतिभा हमारे तिरस्कार से दब गई है, ऐसे भूगोल में जिन्हें हम मानचित्र पर पहचान नहीं सकते हैं।

अंग्रेजी बोलने वाले बकबक करने वाले इसे नहीं समझ पाएंगे, क्योंकि वे अपनी खूबसूरत सेल्फी में व्यस्त हैं, वे जो धन इकट्ठा कर पाए हैं, उसमें सुरक्षित हैं, अपने छोटे-छोटे संरक्षित घरों में आत्मसंतुष्ट हैं और सभी भारतीय चीजों पर जहर उगल रहे हैं। वैश्य क्रांति नीचे से शुरू होगी। यह हमारे राष्ट्र की आत्मा से फैलेगा, उन लोगों से जो शिक्षित नहीं हो सकते हैं लेकिन जानते हैं, जिनके पास वित्त तक पहुंच नहीं हो सकती है लेकिन वे निर्माण करेंगे, जो धन को लक्ष्य के रूप में नहीं चाहते हैं बल्कि निर्माण करेंगे।

वैश्य कोई व्यक्ति, समुदाय या समूह नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक प्रवृत्तियों का एक समूह है, एक अवस्था है, संगठन की एक शक्ति है। हर व्यक्ति इस शक्ति का उपयोग नहीं कर सकता; अन्यथा, पैसे वाला कोई भी व्यक्ति सफल उद्यम बना सकता था। इस शक्ति को अपने अंदर प्रवाहित करने के लिए आपको विशेष कौशल की आवश्यकता होती है - जैसे कि शांति, आत्म-नियंत्रण और तपस्या के बल से ब्राह्मण ज्ञान का उपयोग करता है; वीरता, संकल्प और लड़ाई के बल से क्षत्रिय गतिशीलता का नेतृत्व करता है; और सेवा के बल से शूद्र स्थिरता सुनिश्चित करता है। साथ मिलकर, वे एक सामाजिक पारिस्थितिकी तंत्र बनाते हैं।

वैश्य शक्ति भारत में समाप्त हो चुकी है और पश्चिम के साथ-साथ पूर्व में भी पनप रही है। इस शक्ति, इस शक्ति, संसाधनों को संगठित करने और धन बनाने की इस क्षमता को फिर से जगाने के लिए, हर भारतीय के हक की समृद्धि को हर घर में लाने के लिए, अगले कुछ दशकों में हमारे देश की राजनीतिक और सैन्य शक्ति को आर्थिक ताकत के साथ वापस लाने के लिए, हमें बस एक आखिरी सुधार की जरूरत है: इसके रास्ते से हट जाओ।


गौतम चिकरमाने

BANAJIGA - VAISHYA CASTE OF KARNATAK

BANAJIGA - VAISHYA CASTE OF KARNATAK 

Historian's suggest that BANAJIGA was the first branch in BALIJAs.

Primarily Traders by Occupation BANAJIGAs seem to have been formed by a small Social Change. In the state of Karnataka, BALIJAs are known as BANAJIGAs. Variations of the name in use in the medieval past were Balanja, Bananja, Bananju, and Banijiga, with probable cognates Balijiga, Valanjiyar, Balanji, Bananji and derivatives such as Baliga, all of which are said to be derived from the Sanskrit term Vanik or Vanij, for trader.

Veera Balaingyas were mentioned in Kakatiya inscriptions. They were powerful and wealthy merchants who were highly respected in Kakatiyan society. The BANAJIGAs had the title Setty and were primarily Tax collectors and Merchants.

BANAJIGA were the Rich and Powerful Traders and Merchants of the Kakatiya dynasty. There was mention of some very old Trading Guilds concentrated in Bellary in Karnataka. Infact Historian's suggest this was the first branch in Balijas.

BANAJIGA have been mentioned in several Vijayanagar accounts as wealthy merchants who controlled powerful trading guilds . To secure their loyalty, the Vijayanagar kings made them Desais or "superintendents of all castes in the country". They were classified as right-hand castes .

David Rudner claims that the BANAJIGA fissioned off as a separate caste from the Balija Nayaks warriors as recent as the 19th century; and accordingly they have closer kinship ties to the Nayak warriors than to BANAJIGA merchants. However, the BANAJIGAs were mentioned as rich traders and merchants during the Kakatiya Dynasty associated with some very old trading guilds concentrated in Bellary, Karnataka . Veera Balingyas (Vira Banajigas) were mentioned in the inscriptions of the Chalukyas of Badami and the Kakatiya dynasty as powerful and wealthy merchants who were known as "Five Hundred Lords of Ayyavolu". They have also been mentioned in Vijayanagar inscriptions. Some BANAJIGA Settys today assume the spelling variation Shetty .

The BANAJIGAs comprised a trade guild, Five Hundred Lords of Ayyavolu, in the medieval period.

Aihoḷe (Kannada ಐಹೊಳೆ) is a village having a historic temple complex in the Bagalkot district of Karnataka, India and located 510 km from Bangalore. It is known for Chalukyan architecture, with about 125 stone temples dating from 5th century CE, and is a popular tourist spot in north Karnataka. It lies to the east of Pattadakal, along the Malaprabha River, while Badami is to the west of both. With its collection of architectural structures, Aihoḷe has the potential to be included as a UNESCO World heritage site.

मुख्य रूप से व्यवसाय के आधार पर व्यापारी BANAJIGAs का गठन एक छोटे से सामाजिक परिवर्तन द्वारा किया गया प्रतीत होता है। कर्नाटक राज्य में बलिजा को बनजिगा के नाम से जाना जाता है। मध्ययुगीन अतीत में उपयोग में आने वाले नाम के भिन्न रूप थे बलांजा, बनांजा, बनांजू और बनिजिगा, जिनके संभावित सजातीय बालिजिगा, वलंजियार, बालनजी, बनानजी और बालिगा जैसे व्युत्पन्न हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि ये सभी संस्कृत शब्द वणिक या से व्युत्पन्न हैं। वणिज, व्यापारी के लिए।

वीर बालिंग्याओं का उल्लेख काकतीय शिलालेखों में किया गया है। वे शक्तिशाली और धनी व्यापारी थे जिनका काकतीय समाज में बहुत सम्मान था। BANAJIGAs का शीर्षक सेट्टी था और वे मुख्य रूप से कर संग्रहकर्ता और व्यापारी थे।

बनजिगा काकतीय राजवंश के अमीर और शक्तिशाली व्यापारी थे। कर्नाटक के बेल्लारी में केंद्रित कुछ बहुत पुराने व्यापारिक संघों का उल्लेख था। वास्तव में इतिहासकारों का सुझाव है कि यह बालिजास में पहली शाखा थी।

विजयनगर के कई खातों में बनजिगा का उल्लेख धनी व्यापारियों के रूप में किया गया है, जो शक्तिशाली व्यापारिक संघों को नियंत्रित करते थे। उनकी वफादारी सुनिश्चित करने के लिए, विजयनगर के राजाओं ने उन्हें देसाई या "देश की सभी जातियों का अधीक्षक" बना दिया। उन्हें दाहिने हाथ वाली जातियों के रूप में वर्गीकृत किया गया था।

डेविड रुडनर का दावा है कि बानाजिगा हाल ही में 19वीं सदी में बलिजा नायक योद्धाओं से एक अलग जाति के रूप में विभाजित हो गया; और तदनुसार उनका बनजिगा व्यापारियों की तुलना में नायक योद्धाओं के साथ घनिष्ठ संबंध है। हालाँकि, कर्नाटक के बेल्लारी में केंद्रित कुछ बहुत पुराने व्यापारिक संघों से जुड़े काकतीय राजवंश के दौरान BANAJIGAs का उल्लेख अमीर व्यापारियों और व्यापारियों के रूप में किया गया था। वीरा बालिंग्या (वीरा बनजिगास) का उल्लेख बादामी के चालुक्यों और काकतीय राजवंश के शिलालेखों में शक्तिशाली और धनी व्यापारियों के रूप में किया गया था, जिन्हें "अय्यावोलु के पांच सौ भगवान" के रूप में जाना जाता था। इनका उल्लेख विजयनगर शिलालेखों में भी किया गया है। कुछ BANAJIGA Settys आज शेट्टी की वर्तनी भिन्नता मानते हैं।

मध्ययुगीन काल में बानाजिगा में एक व्यापार संघ, फाइव हंड्रेड लॉर्ड्स ऑफ अय्यावोलु शामिल था।

ऐहोए (कन्नड़ आयहोले) भारत के कर्नाटक के बागलकोट जिले में एक ऐतिहासिक मंदिर परिसर वाला एक गाँव है और बैंगलोर से 510 किमी दूर स्थित है। यह चालुक्य वास्तुकला के लिए जाना जाता है, जिसमें 5वीं शताब्दी ईस्वी के लगभग 125 पत्थर के मंदिर हैं, और यह उत्तरी कर्नाटक में एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। यह पत्तदकल के पूर्व में मालाप्रभा नदी के किनारे स्थित है, जबकि बादामी दोनों के पश्चिम में है। वास्तुशिल्प संरचनाओं के अपने संग्रह के साथ, ऐहोए में यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल के रूप में शामिल होने की क्षमता है।

जो लोग कट्टर वीरशैव/लिंगायत (धार्मिक विचारधारा में डूबे हुए) हैं, वे आम तौर पर जाति से पहचाने जाने से बचते हैं, क्योंकि उनका मानना ​​है कि शिव की कृपा सभी पर समान है, और सभी शिव के लिए समान हैं। यह पुरानी पीढ़ी के लिए विशेष रूप से सच है। इसलिए उन व्यवसायों की पहचान करना मुश्किल है जो बंगलादेशी लोगों के स्वामित्व में हैं।

हालांकि, अगर लिंगायत के पास ज़्यादातर व्यवसाय हैं, तो वे बनजीगा होंगे। सालों पहले की बातचीत याद आती है (यह तब की बात है जब जंगम (पुजारी), भंडारी (कोषाध्यक्ष) और बनजीगा (व्यापारी) की तुलना की जा रही थी) किसी ने टिप्पणी की थी कि बनजीगा के बिना ज़्यादातर मठ और मंदिर काम नहीं करेंगे क्योंकि वे सभी बनजीगा संरक्षण के कारण बनाए और बनाए रखे गए हैं। यह आज भी सच है। वे तमिलनाडु के नागराथर की तरह हैं जो मठों को वित्तपोषित करते थे (और कुछ आज भी वित्तपोषित करते हैं)।

जहां तक ​​राजनेताओं की बात है तो कुछ जाने-माने बंगाली राजनेता हैं बी.एस. येदियुरप्पा, वीरेन्द्र पाटिल, जे.एच. पटेल।

कृपया ध्यान दें कि यह चित्रण बहुत ही उलझा हुआ है, क्योंकि बनजिगा के भीतर कई उपजातियाँ मौजूद हैं, जैसे कि आदि बनजिगा, पंचमसाली बनजिगा, इत्यादि। मूल रूप से, इसका मतलब है कि प्रत्येक समुदाय के भीतर व्यापारी मौजूद थे, क्योंकि बनजिगा केवल व्यापारी का एक वैकल्पिक नाम है।

हालांकि, ऐसे मूल बनजीगा भी हैं जो पंचमसाली (बुनकर) बनजीगा जैसे अन्य लोगों के साथ विवाह नहीं करते (जहां तक ​​मेरी जानकारी है, हालांकि यह एक परिवार से दूसरे परिवार में अलग-अलग हो सकता है)। ये मूल बनजीगा (यानी, जिनकी कोई उपजाति नहीं है ) अय्यावोले (वीरा-बलंजा) जैसे प्राचीन व्यापारिक संघों से निकले होंगे । ये अंतर निकट संपर्क में स्पष्ट हो जाते हैं, क्योंकि ऐसे बनजीगा अधिक धनी होते हैं (वे धनी वोक्कालिगा (गौड़ा) के साथ सबसे अधिक भूमि वाले समूह हैं), वे अधिक शिक्षित भी होते हैं, और आम तौर पर ऐसे परिवारों से आते हैं जिन्होंने कई पीढ़ियों तक वीरशैव/लिंगायत मठों का संरक्षण किया।