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Friday, June 15, 2012

छत्तीसगढ़ में वैश्य समाज-Vaishya Community in Chattisgarh


भारतीय गणतंत्र के 26 वें राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ का उदय 1 नवम्बर 2000 को हुआ। इसके पूर्व यह क्षेत्र मध्यप्रदेश का हिस्सा था। 1 नवंबर 1956 को मध्य प्रदेश के निर्माण के रूप में यह मध्य प्रांत एवं बरार का अंग था। प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ का उत्तरी भाग (रायपुर, बिलासपुर क्षेत्र) दक्षिण कौशल के नाम विख्यात था, जबकि दक्षिणी भारत (बस्तर क्षेत्र) दंडकारण्य, महाकांत्तार, चक्रकोट के नाम से जाना जाता था।   
भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था व अतंर्गत ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र चार वर्ण आते थे। धर्म के कर्ता-धर्ता होने के कारण ब्राम्हणों से संबंधित तथा राजकीय प्रमुख होने के कारण क्षत्रियों से संबंधित विवरण बहुतायद से मिलते हैं, किन्तु वैश्य समाज का उल्लेख यदा-कदा ही मिलता है, छत्तीसगढ़ के प्राचीन अभिलेखों में वैश्य समाज से संबंधित दो नाम बड़े महत्व के साथ मिलते हैं। प्रथम जाजल्लदेव के रतनपुर शिलालेख कलचुरी संवत् 866 (ई. 1114) में श्रेष्ठी यश का उल्लेख हुआ है, जिससे ज्ञात होता है कि रत्नदेव (प्रथम) के समय श्रेष्ठी यश रतनपुर का नगर प्रमुख था। इसी प्रकार पृथ्वी देव द्वितीय के समय के कोटगढ़ शिलालेख से ज्ञात होता है, कि रत्नदेव द्वितीय की माता लाच्छल्लादेवी वल्लभराव नाम वैश्य को अपने दत्तक पुत्र जैसा मानती थी। यह रत्नदेव द्वितीय का सामन्त था, इस अभिलेख में वल्लभराज द्वारा निर्मित हटकेश्वर निर्मित हटकेश्वर पुरी का उल्लेख है तथा इसके द्वारा एक सरोवर बनाने की जानकारी मिलती है।
छत्तीसगढ़ में वर्तमान में बड़ी संस्था में अग्रवाल जाति के लोग निवास करते है। इन्हें छत्तीसगढ़ अग्रवाल के नाम जाता है। स्थानीय परंपरा के अनुसार जहांगीर के शासनकाल में छत्तीसगढ़ में कल्याण साय नामक एक राजा हुए। कल्याण साय के दिल्ली जहांगीर के दरबार में जाने का विवरण इतिहास में मिलता है। कहा जाता है, कि दिल्ली से लौटते समय राज व्यवस्था को ठीक से संचालित करने के लिये कल्याण साय अपने साथ 5 घर ब्राम्हण, क्षत्रिय 5 घर कायस्थ और 5 घर अग्रवालों को लेकर आये थे। इन्ही अग्रवालों को कालान्तर में छत्तीसगढ़ अग्रवाल के नाम से संबोधित किया जाने लगा, कुछ लोग मंडला से अग्रवालों के आने की कथा बताते है और कुछ कहना है कि औरंगजेब के शासनकाल में धर्मपरिवर्तन से बचने के लिये छत्तीसगढ़ आ गये। छत्तीसगढ़ी अग्रवालों को यंहा दाऊ भी कहा जाता है, जो प्रतिष्ठा का सूचक है। परंपरा के रूप में छत्तीसगढ़ अग्रवालों के गोत्र सिंहल सिंघल, गोयल, गर्ग, नागल, वसिल, मुद्गल आदि मिलते है।  
छत्तीसगढ़ अग्रवालों ने दान आदि क विशेष उल्लेखनीय कार्य किये है। जैतूसाव क द्वारा पुरानी बस्ती में मंदिर का निर्माण कराया गया था बाद में जहां मंहत लक्ष्मी नारायण दास हुये थे। जो एम. एल. ए. राज्य सभा सदस्य और कांग्रेसाध्यक्ष भी रहे। तरेंगा के दाऊ कल्याण सिंह के नाम पर है, इसके अतिरिक्त दाऊ कल्याण सिंह ने अपने पिता के कहने पर टी. बी. अस्पताल बनवाया था, इन्हें रायबहदुर और दीवान बहादुर की उपाधियां भी अंग्रेज सरकार ने दी थी ।
जहां तक वर्तमान में छत्तीसगढ़ के वैश्य समाज का प्रथम लगभग 19 वी शताब्दी में आवागमन के विकास के साथ बड़ी संख्या में यहां वैश्यों का आगमन हुआ। जिसमें मुख्यरूप से उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बुंदेलखंड गुजरात के वैश्य उल्लेखनीय है। इनका आगमन लगभग 150-200 वर्शों का है।
छत्तीसगढ़ में वैश्य समाज अलग-अलग क्षेत्रीय समुदायों में अपनी-अपनी विरासत के अनुसार जीवन निर्वाह कर रहा है। इनकी कोई एक साथ समग्र पहचान नही है।  
छत्तीसगढ़ के सामाजिक राजनीतिक एवं धार्मिक जीवन में वैश्यों का विशेश महत्व रहा है, आवश्यकता इस बात की है कि इसे सिलसिलेवार एकत्रित समग्ररूप से प्रकाश में लाया जावे।  
छत्तीसगढ़ के वैश्यों की अन्य शाखा में तेली (साहू), जायसवाल की जानकारी भी यहां मिलती है। छत्तीसगढ़ की प्रतिद्ध धार्मिक नगरी राजिम का संबंध राजीव अथवा तेलिन से है। यहां का प्रसिद्ध राजीव लोचन मंदिर का संबध उनसे स्थापित किया जाता है, छ.ग. में तेलीय वैश्य बड़ी संख्या में है। इसी प्रकार जायसवाल समाज से संबंधित किवदंतियां एवं लोक कथाये भी यहां पर प्रचलित है।



साभार  - रमेश कुमार जैन 

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