श्रेष्ठी पाड़ाशाह और पारस पत्थर
पाड़ाशाह नाम के धर्मात्मा श्रेष्ठी (व्यापारी) गृहपति गहोई जाति के वैश्य रत्न थे जो चेंदी जनपद (वर्तमान चंदेरी ) के थुबौन ग्राम (वर्तमान अतिशय क्षेत्र थुबौन जी ) के रहने वाले कहे जाते थे । बचपन से ही पाड़ाशाह को जैन धर्म में सच्ची आस्था थी । वह स्वभाव से सरल होकर सत्य, अहिंसा एवं रतनात्रय धर्म के पक्के श्रद्धालु भक्त थे । बचपन से ही उन्हें जैन धर्म के ज्ञान की देवोपुनीत प्रतिभा की देन थी । पुण्य कर्मो के प्रभाव से उन्हें धनी होने का सौभाग्य प्राप्त था। बाल्यावस्था से ही इस पुण्य जीव के भाव जगह जगह जिन मंदिर बनवाना, प्रतिष्ठा करना तथा धर्म की प्रभावना करते रहने का था ।
पाड़ाशाह अधिकतर पाड़ो की पीठ पर सामान क्रय विक्रय का व्यापार किया करते थे। वह एक कुशल व्यापारी थे । संभवतः इसीलिए इनका नाम पाड़ाशाह पड़ा हो, पूर्व नाम कुछ और हो।
एक दिन जब वह अपने पाड़ो सहित ग्राम बजरंगढ़ की ओर जा रहे थे की रास्ते में पठार पर उनके पाड़ो में से एक पाड़ा गुम हो गया। वह चिन्तित हुवे अपने गुमशुदा पाड़े की खोज करने लगे। परेशान होकर जब वह निराश होकर लौट रहे थे तो उन्हें गुमशुदा पाड़ा दिखा और उसके गले की लोहे की जंजीर सोने (स्वर्ण) की हो गयी थी, वही उन्हें खोज करने पर पारस पत्थर मिला। पारस पत्थर पाकर उनकी धर्म प्रभावना प्रबल हो उठी। उन्हें उसी रात्रि को ऐसा सपना आया कि वो इस पारस पत्थर द्वारा इसी ग्राम में जिनालय का निर्माण कराये और ऐसा ही हुआ पाड़ाशाह ने मुख्य मंदिर का निर्माण कराया और तभी से इस पठार के रास्ते का नाम पाड़ा-खोह के नाम से प्रसिद्ध हो गया। उन्होंने मंदिर और मूर्तियाँ निर्मित कराकर उन्हें प्रतिष्ठित कराने का संकल्प किया और सर्वप्रथम उन्होंने बजरंगढ़ में ही पाड़ा-खोह नामक स्थान से 2 किलोमीटर दूर दक्षिण में भगवान शांतिनाथ के भव्य जिनालय का निर्माण कराया और उसमे इन तीनों तीर्थंकरों की विशाल प्रतिमायें फाल्गुन सुदी 6 विक्रम सम्वत 1236 को प्रतिष्ठित करायी । यह क्षेत्र पाड़ाशाह की उदारता, धर्मनिष्ठा एवं जैन संस्कृति का ज्वलंत प्रमाण है ।
पाड़ाशाह ने अपने जीवन काल में इस क्षेत्र के अलावा भी कई विशाल मंदिरों का निर्माण कराया जिनमे मनोज्ञ मनभावन मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराई है जैसे थूबौन जी, चंदेरी, आहार जी, पपोरा जी, झालरापाटन, चाँदखेड़ी, बानपुर, सोनागिर का एक मंदिर, भियादांत बेरसिया, वर्री, मामोन (भाभोंन), सतना, सुम्मे के पहाड़, परचाई चौरासी, गोलाकोट, सेरोन जी खलारा, बल्हारपुर, सुखाया, शेषई, राई, पनवाडा, आमेट, दूवकुण्ड, आरा (अगरा), में भी जिनालयों का निर्माण कराया ।
प्रायः उन्होंने शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ तीर्थंकर की प्रतिमाये प्रतिष्ठित करायी। उनमे सर्वत्र मूलनायक भगवान शांतिनाथ की प्रतिमा को ही रखा। कहीं कहीं तो उन्होंने शांतिनाथ भगवान की प्रतिमा ही प्रतिष्ठित करायी। इससे ऐसा लगता है कि धर्म वात्सल्य पाड़ाशाह की यधपि सभी तीर्थंकरो के प्रति अगाथ श्रद्धा थी, किन्तु शांतिनाथ भगवान के प्रति उनका विशेष आकर्षण था । संभवतः शांतिनाथ भगवान के दर्शन, पूजन और नाम स्मरण से उन्हें अपेक्षाकृत अधिक शांति प्राप्त होती थी।
पाड़ाशाह द्वारा निर्मित एक माणिक रत्न की 17 इंच की पद्मप्रभु की पदमासन प्रतिमा बूढी चंदेरी के जंगल में बहने वाली नदी के किनारे एक विशाल जैन मंदिर “बीठ्ली” में आज भी मौजूद है ।
पूर्वकालीन इतिहास
किसी भी क्षेत्र के इतिहास पर जब नज़र डाली जाती है तो हमें क्षेत्र के निर्माण व अतिशय की जानकारी सहर्ष उपलब्ध हो जाती है परन्तु बजरंगढ़ का इतिहास पढने से पूर्व हमें यहाँ की राजनैतिक, सामाजिक व भौगोलीक सीमाओं का भी एक वृहत इतिहास जान पढता है। जो इस पावन अतिशय क्षेत्र की समृद्धशाली गौरव गाथा है।
इस नगर ने इतिहास के अनेक उत्थान-पतन और राजनैतिक अनेक उथल-पुथल देखी है । इतिहास में इस नगर के कई नाम प्राप्त होते है – जैसे मूसागढ़, झरखोन, सारखोन, बजरंगढ़, जयनगर, जैनागढ़। इन नामों का अपना-अपना एक इतिहास भी है।
कहा जाता है लगभग संवत 1200 के पूर्व से ही यहाँ अलग अलग समुदायों का शासन रहा है इसका पूर्व नाम “मूसागढ़ ” हुआ करता था जहाँ नन्दवंशीय अहीरों के वंशज बेरगढ़ियों का राज था। किला उस समय छोटी बस्ती के रूप में था तथा तलहटी में लगभग 100 जैन परिवारों की बस्ती हुआ करती थी जो आसपास के क्षेत्रो में व्यापर संलग्न थी। कालांतर में बेरगढ़ियों व झिरवार रघुवंशियों के बीच शासन सत्ता को लेकर युद्ध हुआ तथा झिरवार रघुवंशियों को सत्ता हासिल हो गई और इस नगर का नामकरण“झरखोन ” रखा गया और फिर बदलते बदलते “सारखोन” हो गया ।
“झरखोन” के दक्षिण पश्चिम में राघौगढ़ में खीची राजपूत चौहानों का शासन था। उन दिनों महाराजा धीरजसिंह जी गद्दी आसीन थे उस समय इनका शासन खिलचीपुर, चाचौड़ा, भदोरा, राघौगढ़ आदि में विधमान था। यह समस्त क्षेत्र “खीचीबाड़ा” कहलाता था।
महाराजा धीरज सिंह को अपने राज्य की सीमाएं विस्तारित करने का शौक था वह छोटी छोटी जागीरो को अपने में मिला लेना चाहते थे इसी उद्देश्य से उन्होंने बजरंगगढ़ पर आक्रमण कर दिया और किले पर अपनी विजय प्राप्त कर ली अब “झरखोन ”महाराजा राघौगढ़ के अधीन आ गया था ।
गढ़ी (किले) में विजयोल्लास मनाया जा रहा था । महाराजा धीरजसिंह जी इसमें सम्मलित होने के लिए सदर दरवाजे से गढ़ी (किले) की ओर बढ़ रहे थे की अचानक एक बेरगढ़िये ने महाराज पर आक्रमण कर उनकी हत्या कर दी। महाराज की मृत्यु के पश्चात् खीजी चौहान अपना आधिपत्य न रख सके और बेरगढ़ियों ने पूरे “झरखोंन” पर अपना शासन स्थापित कर लिया।
महाराजा धीरजसिंह की हत्या की घटना 18 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में घटित हुई थी किन्तु इसी शताब्दी के उत्तरार्ध में सम्वत 1833 में धीरजसिंह के प्रपोत्र बलवंत सिंह ने “झरखोंन” पर आक्रमण करके बेरगढ़ियो को मार भगाया और इस प्रकार अपने प्रपितामह की हत्या का प्रतिशोध लिया। उसने “झरखोंन” का नाम परिवर्तन करके “बजरंगढ़” कर दिया जो आजतक इसी नाम से पहचाना जाता है। उसने नवीन किला बनवाया।
बजरंगढ़ और जैनागढ़
सम्वत 1855 में राजा बलवंत सिंह की मृत्यु के पश्चात राजा जयसिंह “बजरंगढ़” की गद्दी पर आसीन हुए।
राजा जयसिंह ने किले को व किले का निचला भाग की बसाहट कार्य तेजगति से प्रारंभ किया। तब किले के निचले भाग जयनगर कहते थे ।
उस समय लगभग 200 जैन परिवार यहाँ निवास करते थे और यह सम्वत 1200 से ही व्यवसाय का बड़ा केंद्र रहा। राज्य में जैन समाज का बड़ा सम्मान और प्रभाव था। जब इन सभी बातों का जिक्र महाराजा जयसिंह के दरबार में हुआ तो उन्होंने अगहन वदी 13 बुधवार सम्वत 1855 को “जैनागढ़” नाम घोषित कर दिया। सम्वत 1855 से सम्वत 1872 तक महाराजा जयसिंह ने “बजरंगढ़ और जैनागढ़” पर अपना शासन प्रशासन किया।
महाराजा जयसिंह के सुशासन का अंत
सम्वत 1872 चेत्र वदी 1 बुधवार को बजरंगढ़ में ढिंढोरा हुआ। सिन्धे अलीजाह के फ़्रांसिसी सेनापति सर जॉन वेप्तिस ने रात्रि के मध्य में किले पर चढाई की, घमासान युद्ध प्रारंभ हुआ, राजा जयसिंह ने अपने आपको वीरगति में जाने के पूर्व खीची वंश की मर्यादा को चिरस्मरणीय बनाये रखने के लिए अपनी रानीयों के सतीत्व को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें रनवास के पिछले भाग में जिन्दा चुनवा दिया और वीरों की तरह दुश्मन से बदला लेने को जान बचाकर स्वयं वहां से निकल गए जो केवल यादगार बन उस खीची वंश के यशश्वी वीर की याद दिला रहा है ।
मयाचंद नाज़र जो महाराजा जयसिंह का विरोधी था, सर जॉन बत्तीस से मिल गया व “बजरंगढ़ और जैनागढ़” पर ग्वालियर स्टेट के नियम शर्तों के अनुसार चेत्र वदी 2 गुरूवार सम्वत 1872 को गादी पूजन कर, काबिज हो गया।
सम्वत 1876 से बजरंगढ़ श्रीमंत महाराजा अलीजाह बहादुर श्री दौलत रामजी शिन्धे ने अपने नियमानुसार इसे जिले का दर्जा घोषित कर दिया और यहाँ का प्रशासन ग्वालियर स्टेट के अंतर्गत चालू कर दिया । बाद में सम्वत 1895 में राय बहादुर लक्ष्मण सिंह को जिला मजिस्ट्रेट बनाये गए। ग्वालियर शासन काल में यहाँ कई देव स्थान, शासकीय कार्यालय, भवन आदि का निर्माण कराया गया। 1895 के समय गुना एक छोटा सा गावं हुआ करता था । स्वतंत्रता के पश्चात देसी रियासतों के भारत में विलय होने पर बजरंगढ़ मध्यप्रदेश के गुना जिले के अंतर्गत आ गया ।
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