मैं हूं इरा सिंघल। मैंने आईएएस टॉप किया है। आज लोग मुझे जानते हैं, लेकिन एक समय मुझे अपनी पहचान के लिए संघर्ष करना पड़ा। मैंने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। बचपन में ही मेरी रीढ़ की हड्डी सिकुड़ने लगी। मेडिकल में इसे रेअरेस्ट माना जाता है। डॉक्टर्स ने इसे स्कोलियोसिस बताया। मुझे उस उम्र में इस बीमारी का पता भी नहीं था। पर मेरी ज़िंदगी में संघर्ष यहीं से शुरू हो गया। ऑपरेशन कराने में जान का खतरा था, तो माता-पिता ने जाेखिम नहीं लिया। मेरी ज़िंदगी अपनी राह पर थी, तो यह स्थिति भी साथ थी।
स्कूल में एडमिशन का समय आया, तो बहुत मुश्किलें आईं। मुझे यह तक कहा गया कि मैं नाक में बोलती हूं। बड़ी मिन्नतों के बाद अलग से टेस्ट लिया। पांचवीं तक मैं हमेशा फर्स्ट आई, क्योंकि मां पढ़ाई पर ध्यान देती थी। बाद में पापा को बिज़नेस में घाटा होने पर ऐसे हालात हो गए कि मेरी पढ़ाई भी प्रभावित होने लगी। पापा ने 1993 में एक बिज़नेस शुरू किया, जिसमें बड़ा नुकसान हुआ। 1997 तक तो आर्थिक हालात बेहद खराब हो गए। हम किराए के घर में रहे। पैसों की इतनी कमी थी कि घर में एक टेबल फैन खरीदने के भी पैसे नहीं थे। बाद में मकान मालिक ने हमें पंखा दिया।
इरा कहती हैं, ‘अब दुनिया मेरे जैसों को अलग तरीके से देखने लगेगी।’ मेरी हमेशा से इच्छा कुछ अलग करने की ही रही है। 1995 में दिल्ली आने से पूर्व हमारा परिवार मेरठ में रहता था। जहां मैंने सोफिला गर्ल्स स्कूल से पहली से छठी तक की पढ़ाई की। वहां से दिल्ली आने के बाद दिल्ली के लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल से 10वीं पास की फिर धौला कुआं स्थित आर्मी पब्लिक स्कूल से अपनी 12वीं की पढ़ाई पूरी की। वर्ष 2006 में एनएसआईटी द्वारका से पढ़ाई की। वर्ष 2006 से 2008 तक डीयू के एफएमएस से फाइनेंस और मार्केटिंग में एमबीए किया। फिर कैडबरी इंडिया में कस्टमर डेवलपमेंट मैनेजर की पोस्ट पर दो साल तक काम किया।
बचपन में मुझे डॉक्टर बनने का शौक था। पढ़ाई में भी अच्छी थी, लेकिन पापा ने समझाया कि पढ़ाई तो कर लोगी लेकिन खड़े होकर घंटो सर्जरी कैसे करोगी। मन मारकर मैंने डीयू के नेताजी सुभाष इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लिया। यहां बीटेक कंप्यूटर साइंस में दाखिला मिला। परीक्षा होने से कुछ दिन पहले पढ़ाई करती थी। अच्छे नंबरों से पास हुई। कॉलेज के दिनों में मैंने थियेटर ग्रुप भी ज्वाइन किया, क्योंकि शारीरिक दिक्कतों ने कभी मेरा हौसला नहीं तोड़ा। मन में हमेशा यह कोशिश रहती की दूसरों के समकक्ष आने के लिए मुझे थोड़ी ज्यादा कोशिश करनी है। यही ज्यादा कोशिश मुझे यहां तक ले आई। मैंने भूगोल को मुख्य विषय के रूप में चुना, मन लगाकर पढ़ाई की। वर्ष 2010 के पहले ही प्रयास में सफलता मिली। मेरा मन विदेश सेवा में जाने का था, लेकिन मेडिकल शर्तों की वजह से मुझे पोस्टिंग नहीं दी गई। लगातार तीन बार सिविल सेवा की परीक्षा मैंने उत्तीर्ण की। परीक्षा पास करने के बाद भी पोस्टिंग न मिलना यकीनन कठिन रहा। मैंने हार नहीं मानी। अपने हक के लिए कोर्ट गई, इसमें पापा ने बहुत फाइट लड़ी। हर कदम पर वे मेरे साथ रहे।
2011 में मैंने परीक्षा पास कर ली थी, लेकिन इसके जश्न पर तब पानी फिर गया, जब सरकार ने मुझे नियुक्ति देने से इंकार कर दिया। इतना ही नहीं, मेरी उम्मीदवारी ही खत्म कर दी गई, क्योंकि उनका मानना था कि मैं इस काम के लिए शारीरिक रूप से अक्षम हूं। एक कारण यह दिया गया कि 62 फीसदी विकलांगता ने मेरी दोनों बाहों को प्रभावित किया है, जिसके कारण मैं किसी चीज़ को न खींच सकती हूं, न धकेल सकती हूं और न उठा सकती हूं। बड़ी अजीब बात थी कि सरकार को लगता था कि भारतीय राजस्व सेवा के दायित्व को निभाने के लिए इन शारीरिक क्षमताओं की जरूरत है। मैंने सोच लिया कि मैं यह मूर्खतापूर्ण नियम अपने पर लागू नहीं होने दूंगी। अपनी लड़ाई मैं केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण तक लाई।
वहां 18 महीने तक संघर्ष चला और मेरे पक्ष में फैसला आया। बेंच के सदस्यों ने भी इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि क्या वाकई किसी आईआरएस ऑफिसर को किसी रेड के दौरान ऐसे भारी पैकेट उठाने की जरूरत पड़ती है। मेरी मेडिकल जांच में मैंने उन्हें बता दिया कि 10 किलो तक का वजन तो मैं उठा सकती हूं। जिस दिन मैंने यूपीएससी की परीक्षा पास की, केंद्रीय कार्मिक प्रशासन विभाग से फोन आया कि मंत्री महोदय मुझसे मिलना चाहते हैं। मजे की बात यह है कि ये वही विभाग है, जिसने मुझे आईआरएस की परीक्षा पास करने के बाद ठुकरा दिया था। वर्ष 2014 में आईआरएस सेवा में ज्वाइनिंग मिली, इस दौरान एक दोस्त से मुलाकात हुई, जिसने कहा कि मैं चौथी बार आईएएस के लिए परीक्षा दूं। मैंने उसकी सलाह मानी और दो महीने तक उसके साथ ग्रुप डिस्कशन और पढ़ाई की। जिससे न केवल मेरा चयन हुआ, बल्कि मैं परीक्षा में टॉप कर सकी।
मेरी शारीरिक सीमाएं कभी मुझे अपने सपनों को साकार करने में बाधा नहीं लगी। सच तो यह है कि जब हम अपनी सीमाएं और मर्यादाएं तोड़ते हैं, तो ही सीमित दायरे से बाहर आते हैं और कामयाबी के लायक बनते हैं। हर संघर्ष आपको कुछ न कुछ सीखाता है। संघर्ष में हार की संभावना तो रहती है, लेकिन जीवन में आपको लड़ते चले जाना पड़ता है। किसी न किसी तरह का संघर्ष हर व्यक्ति को करना पड़ता है और इससे बचना तो मेरे ख्याल से जिंदगी को ठुकराने जैसा ही है।
मेरे माता-पिता फाइनेंशियल एवं इंशुरेन्स कंसलटेन्सी के व्यवसाय में हैं। उन्होंने कभी मुझे विकलांग मानकर मेरे साथ व्यवहार नहीं किया। बचपन से ही उन्होंने मुझे यह सिखाया है कि परिस्थितियों को एक शारीरिक रूप से सामान्य व्यक्ति की तरह कैसे देखना चाहिए। मेरा संघर्ष इसलिए नहीं था कि मैं शारीरिक रूप से अक्षम थी, बल्कि संघर्ष इसलिए था कि मैं महिला हूं। जैसे हर महिला को भेदभाव और एक पिछड़ी सोच का सामना करना पड़ता है, वैसा ही मुझे भी करना पड़ा। आईएएस अफसर की भूमिका में भी मैं महिला, बच्चों और शारीरिक रूप से विकलांग लोगों के लिए काम करना चाहूंगी। यह सफलता पाकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मैं हर किसी से यह कहना चाहती हूं कि अपनी बेटी को पढ़ने और काम करने दीजिए। उन्हें दुनिया में जाने दीजिए और अपनी ज़िंदगी खुद बनाने का मौका दीजिए।
साभार: दैनिक भास्कर
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