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Saturday, October 31, 2015

RANI SATI - अमर वीरांगना: श्री राणीसती जी की जीवन गाथा

या देवी सर्व भूतेशु सति रुपेणी संस्थिता ।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नारायणी नमोसतुते ॥

माँ रानी सती 

माता रानी सती जी  का मंदिर


माँ नारायणी का जन्म वैश्य जाती के अग्रवाल वंश में हरियाणे में धनकुबेर सेठ श्री घुरसमाल जी गोयल के सं १३३८ वि कार्तिक शुक्ला ८ शुभ मंगलवार रात के १२ बजे पश्चात हरियाणे की प्राचीन राजधानी ‘महम’ नगर के ‘ढ़ोकवा’ उपनगर में हुआ था।
संवत् तेरह सौ अडतीस कार्तिक शुक्ला मंगलवार ।

बारह बजकर दस मिनट, आधे रात लिया अवतार ।

(सती मंगल से)

सेठ घुरसमाल महाराजा अग्रसेन जी के सुपुत्र श्री गोंदालाल के वंशज थे। गोयल गोत्र के थे। सेठ जी ‘महम’ के तो नगर सेठ थे हे लेकिन उस समय उनकी मानता व सम्मान दिल्ली के बादशाहों तक थी। उन दिनों एक तरह से दिल्ली का शासन मह्म्वालों के इशारों पर चलता था| दिल्ली हिसार (ग्रांड ट्रंक) सड़क पर सैंकड़ो महल, मन्दिर, मकबरे, मस्जिदों, भवनों के खंडहर दोनों तरफ आज भी है, जिससे सिद्ध होता है की उस ज़माने में महम समृध्दशाली व विशाल नगर रहा होगा।

बचपन

दुर्गे हे ये शिवे अम्बिके, ये हे आदि भवानी है।
जन जन को दे रही सभी कुछ, जग में सती नारायणी हैं।

इनका नाम ‘नारायणी’ बाई रखा गया था। ये बचपन में धार्मिक व सतियों वाले खेल सखियों के साथ खेला करती थी। कथा आदि में विशेष रूचि लेती थी। बड़ी होने पर सेठजी ने इन्हे धार्मिक शिक्षा , शस्त्र शिक्षा, घुड़सवारी आदि की भी शिक्षा दिलाई थी। इन्होंने इनमें प्रवीणता प्राप्त कर ली थी। उस समय हरियाणा में ही नहीं उत्तर भारत में भी इनके मुकाबले कोई निशानेबाज बालिका एवं पुरुष भी नहीं था|

बचपन का शील स्वभाव निरख, पित – मात स्वजन हर्षाते थे।
कुल का ये मान बढायेगी, मंतव्य सभी दर्शाते थे ॥
भरपूर भक्ति और धर्म सहित, नितकर्म ‘नारायणी’ करती थी।
निज दिव्य ओज से भावी का, आभास कराया करती थी।

(प्राचीन पोथी अग्नि समाधि से)

बचपन में ही ये अपने चमत्कार दिखलाने लगी थी। एक डाकिन (पुराने ज़माने में बच्चे खाने वाली एक औरात) महम नगर में आया करती थी। इनकी सुन्दरता की ख्याति सुनकर डाकिन एक दिन आई। इन पर हमला करने की तो हिम्मत नही पड़ी, लेकिन डाकिन इनकी सहेली को उठाकर लेके जाने लगी| उन्हें आता देख डाकिन बेहोश होकर अंधी हो गई।

डाकिन अंधी हो चली, खड़ी नगर के बाहर।
दीखे उसको कुछ नही, करने लगी विचार।

(सती मंगल से)

डाकिन के पास पहुंचकर नारायणी जी ने तुंरत सहेली को छुड़ाया और उसे जीवित किया। डाकिन इनका ये चमत्कार देखकर डर गई। उसने हाथ जोड़कर क्षमा मांगी और प्रतिज्ञा की कि आगे से मैं बच्चे नही खाया करूंगी। इन्होंने उसे क्षमा किया और उसकी आँखे भी ठीक कर दी। इस तरह दादी ने अपने बहुत सारे चमत्कार बचपन में दिखाए।

विवाह

इनका जन्म अग्रवाल कुल शिरोमणि हिसार राज्य के मुख्य दिवान स्वनाम धन्य सेठ श्री जालानदास जी बंसल के सुपुत्र श्री तनधनदास जी के साथ मंगसिर शुक्ला ८ सं. १३५१ मंगलवार को महम नगर में बहुत ही धूमधाम से समारोह पूर्वक हुआ था। इनके पिता श्री ने जो दहेज़ दिया था उसमे हाथी, घोडे, ऊंट, घोड़े और सैकड़ोँ छवड़े सामान से भरे हुए दिये थे। सबसे विशेष वस्तु एक ‘श्यामकर्ण’ घोड़ी थी। उस काल में उत्तर भारत में यही केवल एक ‘श्यामकर्ण’ घोड़ी थी।

श्री तनधन दास जी का जीवन परिचय

इनका जन्म वैश्य जाती में महाराज अग्रसैन जी के सुपुत्र विशाल्देव जी (वीरभान जी) के वंश में हुआ था। इनके वंशज ‘बंसल’ गोत्री कहाये । उसी बंसल गोत्र में सेठजी श्री जालानदास जी के श्री तनधनदास जी ने जन्म लिया था। इनके एक छोटे भाई का नाम कमलराम था।

उस समय हिसार का नवाबी राज्य आजकल के हरियाणा प्रदेश से बड़ा था। उसी नवाबी राज्य हिसार केश्री जालानदासजी मुख्य दिवान थे । इनकी न्यायप्रियता की धाक दूर-दूर तक राज्यों में थी। ये चतुर व कर्मठ शासक थे।विवाह के पश्चात श्री तनधनदास जी सायकाल अपनी ससुराल वाली घोड़ी पर सैर करने हिसार में जाया करते थे। नवाब के पुत्र शेह्जादे को दोस्तों ने भड़काया कि जैसी घोड़ी दिवान के लड़की के पास है ऐसी तेरे राज्य में नही है। शहजादा तो घोड़ी देखकर पहले से हे जला भुना बैठा था। दोस्तों कि बातो ने आग में घी का काम किया। शहजादा तुंरत नवाब साहब के पास गया और घोड़ी लेने की हठ की। नवाब ने दिवान साहब को बुलाकर घोड़ी मांगी। दिवानजी ने कहा – मालिक ये घोड़ी मेरी नही है। लड़के को ससुराल से मिली है। वह घोड़ी नहीं देंगे। आप क्षमा करें। समय व संस्कार की बात है। नवाब ने घोड़ी छीनने का प्रयत्न किया। संघर्ष में बहुत से सैनिक सेनापति सहित मारे गये।

भाग दौड़ पल्टन गई|
कहा नवाब सन जाय।
सेनापति रण खेत में, दिये प्राण गवांय।

(सती मंगल से)

यह देखकर नवाब ज्यादा निराश हो गया और दोस्तों की बातों में आकर दिवानजी की हवेली से घोड़ी लाने आधी रात को गया। नया आदमी देखकर घोड़ी हिनहिनाने लगी। शाम हो गई। श्री तनधन जी सांग (भाला) लेकर उस ओर चले।

तब लक्ष साध कर शब्द-भेद । तन धन ने उठा फेंकी॥
इक चीख उठी, हो गया ढेर। इक मनुज देह गीरती देखि ॥

(अग्नि समाधी से)


सांग के एक वार में हे नवाबजादा मारा गया। दिवानजी ने मिलकर विचार किया और तुरन्त हिसार छोड़कर झुंझनू – नवाब के पास जाने का निर्णय किया क्यूंकि हिसार और झुंझनू के नवाबो की आपस में लड़ाई व शत्रुता थी। रातों रात हिसार से परिवार सहित दिवानजी चल पड़े।

उधर सुबह होने पर नवाब ने शहजादे को महलों में नहीं देखा। चरों ओर तलाश की गई। अंत में दिवानजी की हवेली से शहजादे की लाश लायी गई। नवाब के महल में कोहराम मच गया। नवाब ने सेना को तुरन्त दिवान को पकड़ लाने का आदेश दिया। सेना चारों और चल पड़ी, उत्तर की और जाने वाली सेना ने लुहारू के पास दिवानजी को जातें हुए देखा। लेकिन तब तक दिवान सपरिवार झुंझनू राज्य की सीमा में प्रवेश कर चुके थे। हिसारी सेना की ताकत झुंझनू सेना से टक्कर लेने की नहीं थी, सेना निराश होकर हिसार लौट आई। नवाब सब सुनकर सिर पीटकर रह गया।

श्री जालान्दास जी के सपरिवार जी के झुंझनू पहुँचने पर नवाब साहब ने शाही मुरतब व लवाजमें के साथ स्वंय नगर सीमा पर स्वागत सम्मान किया और दिवान (मुख्यमंत्री) का पद दिया। उन्होंने हिसार से भी उच्चकोटि का कार्यकर जनता व नवाब के विश्वास पात्र बनकर शानदार ढंग से रहने लगे। राज्यभर में दिवानसाहब की न्यायप्रियता व शासन की धूम मच गई।

मुकलावा (गौना)

‘महम’ नगर चूँकि हिसार राज्य में था। इसलिए शहजादे काण्ड की शान्ति के बाद सेठ घुर्सामल जी के मुकलावा करने के लिए झुंझनू दिवान साहब के पास ब्राह्मण द्बारा निमंत्रण भेजा। साथ ही सारे समाचार और मंगसिर क्रष्ण १ मंगलवार का लग्न मुहूर्त भेज दिया। झुंझनू से लौटकर ब्राह्मण ने मुहूर्त पर कुंवर तनधनदास जी के आने का सुसमाचार नगर सेठ को बताया।

लग्न-मुहूर्त से ४ दिन पहले श्री तनधनदास जी मित्रों व साथियों सहित ढोकवा (महम) सांयकाल पहुंच गये। नगर सेठ की और से स्वागत सत्कार का शानदार व सराहनीय प्रबंध किया गया। सेठ जी श्री तनधनदास जी से प्रार्थना की कि आप महम में ही निवास कीजिये।

जो इच्छा हो व्यापार या कार्य कीजिये। लेकिन गर्वीले श्री तनधन जी ने ससुराल में रहना स्वीकार नहीं किया। मंगसिर कृष्णा १ सं. १३५२ मंगलवार को प्रात: शुभ बेला में नगर सेठ श्री घुरसामल जी ने मुकलावा देकर बाई नारायणी जी को कुंवर श्री तनधनदास जी के साथ झुंझनू के लिए विदा किया। साथ में बहुत धन तथा सामान आदि भी दिया।

श्री तनधन जी के रवाना होते समय अपशकुन होने लगे, सामने छिंक हुई। यह देखकर सबको बहुत ही फिकर व विचार हुआ। पर वीर तनधन जी ने श्री गणेश मनाकर अपनी पत्नी नारायणी देवी के साथ झुंझनू प्रस्थान किया।

मार्ग में दोपहर भोजनादि के बाद आगे चले। नवाब हिसार के राज्य कि सीमा को एक और बचाते हुए दोपहर बाद भिवानी नगर से ४-५ मील दूर ‘देवसर’ की पड़ी के पास पहुंचे ही थे कि पहाड़ी क्षेत्र के खडड खेलों से निकल निकलकर हिसार नवाब की फौजों ने इन पर भयंकर हमला कर दिया।

मार्ग झुंझनू निकट ‘देवसर’ । सेना हिसारी ने घेरा ॥
था सोर झाडियों खड्डों से । मारो पकडो करके घेरा ॥

(अग्नि समाधी से)

श्री तनधन जी के दल ने संख्या में उनसे कम होतें हुये भी वीरता से डटकर हिसारी फौजों से युद्ध किया। हिसारी फौजें श्री तनधन जी के दल की मार न सह सकने के कारण अस्त-व्यस्त होकर भाग चली।

तनधन ने जीवन की बाजी । खांडे से खुल खुल कर खेली ॥
तौबा तौबा अल्ला करते । दम तोड़ा जिसने भी झेली ॥

(अग्नि समाधी से)

नवाबी फौजों के भाग जाने पर सिपहसालार ने छुप कर पीछे से आकर धोखे से दुधारे से श्री तंधन जी पर वार किया ।

कलियुग के इस अभिमन्यु को । घेरा धोखे से वार किया ॥
गडजोड़ा बांधे ‘तंधन’ को । मार दुधारा ख़तम किया ॥

(अग्नि समाधी से)

लेकिन मरते मरते भी वीर तंधन ने सिपहसालार का सिर अपनी सिरोही (तलवार) से एक ही वार में काट दिया।

सती-स्थल

देवसर (भिवानी)

लड़ाई के समय हल्ला बहुत हुआ था। नवाबी फौजे तितर-बितर होने लगी थी। इससे पहाड़ी के नीचे क्षेत्र में वातावरण शान्त सा हो गया। पर्देदार रथ में बैंठी नवेली बहु नारायणी जी ने ये देखने के लिए जरा पर्दा हटाया कि क्या बात हुई। पर्दा हटाते ही जो कुछ देखा, वह सब देखकर सन्न रह गई। रथ के सामने उनके प्राणप्रिय तनधन जी का शव पड़ा हुआ था।

थोड़े समय बाद हे वीर तनधन जी की मृत्यु समाचार जानकर नवाबी फौजें वापस उसी और घेरा डालने आगे लगी। वीरांगना नारायणी जी ने सब देखा और तुंरत निर्णय कर क्रोध में भरकर अपने पति की तलवार हाथ में लेकर उनकी घोडी पर सवार हो गई और रणचणडी सी फौजों पर टूट पड़ी।

ले खडग, नयन अंगार भरे।
ललकारा कुछ को मार दिया॥
इस आधी हारी बाजी को।
माँ जितुंगी ये ठान लिया॥

(अग्नि समाधी से)

श्री नारायणी जी ने कुछ ही समय में अधिकांश नवाबी फौज को मार डाला।

या शेष बचा राणा सेवक । और घोडी उनके पास खड़ी ॥
चिता बनाओं जल्दी से । सती होने तैयार खड़ी ॥

श्री नारायणी जी ने कहा की कोई है । ये सुनते ही घोडी का राणा (सेवक) घायल अवस्था में गिरता पड़ता आया। पुछा क्या आज्ञा है। नारायणी ने कहा – मैं इसी पहाड़ी के नीचे सती होउंगी। जल्दी चिता बनाओं, संध्या होने वाली है।

राणाजी ने झुंझनू ले चलो – सेवक ने कहा। नारायणी ने कहा – मेरा झुंझनू तो सामने है, वहा जाकर क्या करुँगी। जल्दी चिता बना दो, सूर्य छिपने वाला है। ये सुनकर राणा ने आस पास से तुंरत लकड़िया चुनकर इकट्ठी कर चिता बनाई। सती की आज्ञा से राणा ने, तब वहाँ चिता बना दी थी ।

पति का शव गोदी में लेकर, बैठी वह सतवाली थी ॥
स्वय उठी अन्दर से ज्वाला, पति के लोक सिधारी थी ।
धूं धूं करके जली चिता, हो गई सती नारायणी थी ॥

(जीवन गाथा से)

श्री नारायणी जी पति का शव लेकर चिता पर बैठ गई। उसी क्षण सती तेज से अग्नि प्रगट हुई । चिता धायं धायं जलने लगी।

‘महम-झुंझनू’ बीच रहा एक शिखर ‘देवसर’ का भारी ।
उसके नीचे पति संग में, सती हुई दादी म्हारी ॥
‘हरियाणे’ की अमर लाड़ली ही तो ‘श्री रानी सती’ है ।
उलट पुलट कर गाथा,
गाँव गाँव में गूंजे है॥

चिता धायं धायं कर जलने लगी। इसी बीच मारकाट भागदौड़ देखकर आपास के गावों के नर नारियों के झुंड इकट्ठे हो गए। चिता पर नारियल, चावल, घी आदि सामान चड़ने लगे। जय जयकार होने लगी।

गावं गावं से जन-जन आया, पुष्पों की बौछार रहा।
मंगसिर क्रष्ण भोग नौमी को, सटी हुई ‘नारायणी’ थी ॥

थोड़े समय बाद आप चिता में से देवी रूप में प्रगत हुई और मधुर वाणी से बोली – हे राणाजी, मेरी चिता ३ दिन में ठंडी हो जाएगी। भास्मी इकट्ठी करके मेरी चुनरी में बाँध हमारी घोड़ी पर रख देना। तुम भी बैठ जाना। घोड़ी ख़ुद ही जहाँ ठहर जाए उसी स्थान पर मै अपने प्यारे पति के साथ निवास करती हुई जन-जन का भला व कल्याण करती रहूंगी|

ले त्रिशूल राणा ,जन-जन के समुख प्रगट हुई देवी ।
भस्मी को घोड़ी पर रख दो, राणा से बोली देवी ॥

(जीवन गाथा से)

तीन दिन बाद चिता ठंडी होने पर राणा ने सती नारायणी के आदेशानुसार भस्मी इकट्ठी करके उनकी चुनड़ी में बाँध कर घोड़ी पर रख दी और ख़ुद भी बैठ गये। घोड़ी उत्तर दिशा की और झुंझनू के माढ पर चल पड़ी। घोड़ी चलती चलती झुंझनू के बीड़ (गोचर भूमि) को पार करके झुंझनू नगर के उत्तर दिशा में आकर रुक गई। राणा ने अनेक प्रयत्न किये। पर घोड़ी वहीं डट गई।

सती भस्मी

झुंझनू आगमन

राणा ने घोड़ी को वहीं एक जाटी वृक्ष से बांधकर दीवानजी श्रीजालानदास जी के घर जाकर मार्ग के सब समाचार सुनाये। सुनते ही सेठजी का परिवार रो पड़ा, घर में कोहराम मच गया। बहुत समझाने पर सब घोड़ी के पास श्मशान में आये वहां चोतरा बनाकर भस्मी को स्थापित कर पूजन किया गया।

पूजन किया भस्मी का सबने, पावन मरघट में आकर ।
फिर सम्मान किया देवी का, सुंदर सा ‘मंढ’ बनाकर ॥

(जीवन गाथा से)

कुछ लोगों में सती होने पर शंका हुई। उसी समय चेंतरे पर चढे हुए पूजा के सामान से आग की चिनागारिया निकलने लगी। चेंतरे ने चिता का रूप ले लिये । ये देखकर जन-जन जयकार करता हुआ श्मसान की और उमड़ पड़ा। चौतरें पर १३ दिन १३ रात अग्नि चिता सी जलती रही। अंत में बहुत प्रार्थना करने तथा क्षमा मांगने पर जलते हुये चौतरें पर से मधुर वाणी सुनाई दी की ‘चौतरें’ पर जल चढ़ाओँ।

सती चिता ठंडी करने को, जन-जन जल लाया था।
उसी समय से सती देहरी पर, जन-जन जल है चढ़ा रहा ॥

(आज भी समस्त मंदिरों की देहरी पर प्रथम जल चढ़ता है। पूजा सामग्री हो या न हो केवल जल चढ़ाने से हे श्री रानी सती जी प्रसन्न हो जाती है।)

ये सुनते ही जन समूह पात्रों में जल ले लेकर चढ़ाने लगा और चिता शांत हो जाने पर पूजा-दान शुरू हो गया।ये प्रत्यक्ष चमत्कार देखकर जनता जय जय करने लगी।

दूसरा चमत्कार

भस्मी का भूतल प्रवेश

जब पूजा जात-धोक सती की चालू थी। उसी समय जन-जन के सामने तभी हुआ विस्फोट यकायक।

विस्मय एक हुआ भारी ॥
धरती फटी, समाई भस्मी ।
घोड़ी और सम्पत साड़ी ॥

(अग्नि समाधी से)

अर्थात उस समय चौतरें पर यकायक विस्फोट (धमाका) हुआ। जन साधारण ने आश्चर्य से देखा कि चौतरें वाली भूमि फट गई और भस्मी, घोडी और जो-जो सामान को राणा साथ लाये थे, सब के सब उसी भूमि में समा गये। उसी समय तीसरा चमत्कार हुआ कि सब सामान के भूमि में समा जाने के बाद चौतरा फिर जैसा था, वैसा हो गया।

अनुमानत: आज जो विशाल मन्दिर (मंढ) बना हुआ है, ये उसी चौतरे पर चौथा मन्दिर है ।

स्वर्गारोहण

देवसर पड़ी के निचे मंगसिर क्रष्ण ९ सं. १३५२ मंगलवार को जब माँ नारायणी जी सती हो गई तो उसी समय दशों दिगपालों व् अन्य देवलोकों में जयकार होने लगी और कहने लगे कलियुग में सतियाँ आज भी है।

१३ सतियों के मंढ

श्री रानीसती जी माँ नारायणी सं. १३५२वि. में ‘देवसर‘ में सती हुई थी। इनके ही परिवार में सं १७६२वि. तक १२ सतियाँ और हुई। इन १२ सतियों के छोटे छोटे सुंदर कलात्मक मंढ शवेत संगमरमर के एक पंक्ति में बने हुए थे। जिनकी मान्यता व् पूजा बराबर होती आ रही है ।

श्री जालानदास जी के पुत्र कि पुत्रवधू सं. १३५२ में सती हुई। इसी कुल कि १२ सतियाँ झुंझनू में और हुई। (१) माँ नारायणी (२) जीवणी सती (३) पूर्णा सती (४) पिरागी सती (५) जमना सती (६) टीली सती (७) बानी सती (८) मैनावती सती (९) मनोहरी सती (१०) महादेई सती (११) उर्मिला सती (१२) गुजरी सती (१३) सीता सती


साभार : BY SAKSHI LIHLA
















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