हम रौनियार वैश्य और हमारा वैश्य वंश-
हमारी रौनियार वैश्य की इतिहास गाथा के प्रथम पुरुष सम्राट चन्द्रगुप्त बिक्रमादित्य हैं,जो गुप्त बंश के सस्थापक थे । इनकी शादी नेपाल की राज कुमारी" कुमारदेवी" से हुआ था ,नेपाल हमारे बंश का ननिहाल है । हमारी राजधानी पटलिपुत्रा थी जो आज पटना कहलाता है । हमारे ही समय में स्वेत हूँण का आक्रमण हुआ था जिसका लोहा हमारे पूर्वज सम्राट स्कन्द गुप्त ने लिया था । हम ही सम्राट हेमचन्द्र बिक्रमादित्य के बंशज है जिसे हेमू के नाम से पुकारते है जो दिल्ली से भारत देश चलाता था ।मध्यकाल में हमें अपमानित करने के लिए "रनहार" (रण +हार) कहा गया जो आधुनिक काल तक आते -आते अपभ्रंश" रौनियार "प्रचलित हो गया ।प्राचीन काल मे भी मुझे करास्कर (कड़कश आबाज मे बात करने वाला ,कड़ी संघर्ष ,कड़ी मेहनत करनेवाला )कहा गया । हमसे अत्याचार बर्दास्त नहीं होता ,अन्याय के खिलाफ खड़े हो जाना डीएनए में है।
ऋग्वेद का दसवां मण्डल के पुरुष सूक्त मे ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य की उत्पाती की गई। वैश्य शब्द वैदिक विश् से निकला है। अर्थ की दृष्टि से वैश्य शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है जिसका मूल अर्थ बसना होता है। वैदिक काल में प्रजा मात्र को विश् कहते थे। पर बाद में जब वर्ण व्यवस्था हुई, तब वाणिज्य व्यवसाय और गौ पालन आदि करने वाले लोग वैश्य कहलाने लगे। इनका धर्म यजन, अध्ययन और पशुपालन तथा वृति कृषि और वाणिज्य था। आजकल अधिकांश वैश्य प्रायः वाणिज्य, व्यवसाय करके ही जीविका निर्वाह करते हैं। वैश्य वर्ण (वर्ण शब्द का अर्थ है-जिसको वरण किया जाए वो समुदाय ) रौनियार वैश्य का इतिहास जानने के पहले हमे वैश्य के विषय मे जानना होगा । हमे यह जानना होगा की वैश्य शब्द कहां से आया है? वैश्य शब्द विश से आया है, विश का अर्थ है प्रजा, प्राचीन काल मे प्रजा (समाज) को विश नाम से पुकारा जाता था। विश के प्रधान संरक्षक को विशपति (राजा) कहते थे, जो निर्वाचन से चुना जता था। वैश्य समाज व्यापार से समाज में रोजगार के अवसर प्रदान कराता है। सामाजिक कार्य मे दान से समाज कि आवश्यकता की पूर्ति करता है। जिससे उसे समाज में शुरू से ही विशिष्ट स्थान प्राप्त है।
ऋग्वेद का दसवां मण्डल के पुरुष सूक्त मे ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य की उत्पाती की गई। कौटिल्य के अर्थशास्त्र- कौटिल्य का निर्देश है की गंधी , कारस्कर,माली ,धान्य के व्यापारी और प्रधान शिल्पी, क्षत्रियों के साथ राजमहल से पूर्वी भागो में निवास करें ,पक्वान्न ,मदिरा और मांस के बिक्रयी वैश्य राजप्रासाद से दक्षिण के भागों में रहे ,ऊनी और सूती बस्त्रों के शिल्पी तथा जौहरी ब्रहमानों के संग उत्तर दिशा में रहें ।
सिन्धु- घटी की सभ्यता का निर्माण तथा प्रसार दूर के देशों तक वैश्यों ने किया या उनकी वजह से हुआ है। सिन्धु- घाटी की सभ्यता मे जो विशालकाय बन्दरगाह थे वे उत्तरी अमेरिका तथा दक्षिणी अमेरिका, यूरोप के अलग-अलग भाग तथा एशिया (जम्बोदीप) आदि से जहाज दवरा व्यापार तथा आगमन का केन्द्र थे।मध्यकाल मे नमक के व्यापारी अफ्रीका भी जाते थे ,नाइजेरिय के टिंबकटु स्थान के गाफ़र जाती के पाण्डुलिपि से पता चलता है की भारतिए व्यापारी नमक के बदले सोना ले जाते थे ,यहाँ बसे गफार जाती का मूल बंश ब्रिक्ष भारतिय व्यापारियो का बताया जाता है ।
हजारो वर्षो से खेती ,पशुपालन ,बाणिज्य ,कारीगरी ,उद्धोग-धंधा तथा अन्य प्रकार के स्वरोजगार व्यापार श्रेणी के मेहनतकश और कड़ी मेहनत से जीविका उपार्जन करने बालो की अपमान जनक स्थिति से गुजरना पड़ा है। ये सभी व्यापारी की श्रेणी में आते है यानि कमेरा(काम काजी लोग ) वर्ग जिसे वैश्य कहते हैं । इसी श्रेणी की एक वैश्य की जाती “कारस्कर “था । जिसका गोत्र कश्यप था । इस समुदाय के लोग फेरि लगाकर नमक व अन्य बस्तुए बेचते थे ,जो नमक बनाकर एवं उत्खनन करके उससे खड़िया नमक ,साधारण नमक एवं सेंधा नमक आदि गाँव –शहर ,देश –विदेश मे बेचते थे । अन्नय आदि बस्तु के बदले बिक्रय करते थे ,इस तरह मुख्य व्यावसाय नमक उत्पादन से लेकर वितरण था । कड़ी मेहनत ,संघर्सशील और बस्तुएँ बेचने के क्रम मे चिल्लाने के कारण प्राचीन काल मे इस जाती को “कारस्कर ”( कड़ी मेहनत,संघर्षशिलता, जुझारूपन और कर्कस आवाज में बोलने बाला )बताया और नीची जाती कहाँ ,एवं अपमानित किया जाता था। कुछ अंग्रेज़ विद्वान इस समुदाय के अधिकांश लोग को जुझारूपन ,फेरि लगाकर नमक बेचते समय चिल्लाने –गाने के कारण इसका नाम रोने –हारे ,तथा रनहार के अपभ्रंश जो बाद मे प्रचलित रौनियार ,रोनियर ,नोनियार ,नोनिया नूनियार [सभी वैश्य जाती ]का सम्बोधन हो गया बताया है । (अर्थशास्त्र पीटरसन की डिक्शनरी ऑफ फीक पृष्ट 303-4) वह आज भी रौनियार प्रचलित है । मेहनती कामों में लगे हुये लोगों को शुरू से लांछित और अपमानित किया जाता रहा है ,जबकि देश के आर्थिक स्थिति मजबूत करने में रौनियार समुदाय की अहम भूमिका थी । सदियों से देशहित ,समाजहित एवं धार्मिकहित में इस समुदाय के लोगों ने अग्रिणी भूमिका निभाते आया है ।
विक्रमादित्य सम्राट चन्द्रगुप्त को कौन नहीं जानता है । अगर भारतवर्ष को सोने की चिड़ियाँ कहा गया था तो वह काल चन्द्रगुप्तबंश का था।किन्तु उस समय भी इस समुदाय के लोगों को अपमानित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखा था । “कौमुदी महोत्सव नामक प्राचीन नाटक “में चन्द्रगुप्त को “कारस्कर” बताकर ऐसे नीच जाती के पुरुष को राजा होने के अयोग्य बताया है । जबकि वकाटक महारानी प्रभावती गुप्ता के अभिलेख (महरौली और प्रयाग लौह स्तम्भ लेख )में गुप्तों की वंशावली दी गई है । गुप्त अभिलेखों में जो वंश वृक्षों में सर्वप्रथम नाम ‘श्री गुप्त ‘ का आता है ।“ श्री “शब्द सम्मानार्थ है “गुप्त ”का शाब्दिक अर्थ संरक्षित है । “श्री गुप्त ” का अर्थ लक्ष्मी व्दरा रक्षित (लक्ष्मी पुत्र ) है । चन्द्रगुप्त ,समुद्रगुप्त ,कुमारगुप्त तथा कार्तिकय व्दरा रक्षित हुआ । जो किसी प्रतापी राजा के लिए अत्यंत उपयुक्त है । चीनी यात्री इत्सिंग ने भी यात्रा वृतांत में “चे –लि –कि –तो”(लक्ष्मी पुत्र) बताया है । स्वयं समुद्रगुप्त कि प्रयाग प्रशस्ति –महाराजा श्री गुप्त प्रपौत्रस्य महाराजा घटोत्कच पौत्रस्य महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त पुत्रस्य .....श्री समुद्रगुप्तस्य ......क्रमशः ! (1)कुमार गुप्त प्रथम ,स्कन्ध गुप्त ,पुरू गुप्त ,नरसिंह गुप्त बालादित्य ,कुमार गुप्त व्दितिये ,बुध्द गुप्त ,तथागत गुप्त ,बज्रगुप्त ,भानु गुप्त वैन्य गुप्त व्दादशादित्य गुप्त ........परमभट्टारिकायां राजां महादेव्यां श्री श्रीमती देवयामुतपन्ना ।
मेहरौली एवं प्रयाग प्रशस्ति से स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त के विरासत लक्ष्मी पुत्र “चे –लि –कि –तो” है । जो सम्मानजनक नमक के व्यापार में लगी जाती का वंशज है । चन्द्रगुप्त की एक स्वर्णमुद्रा है जिस पर एक ओर लिच्छवियः तथा दूसरी ओर चन्द्रगुप्त तथा कुमार देवी उत्कीर्ण है एवं दोनों का चित्र उस पर अंकित है । लिच्छवियों के वैवाहिक संबंध चन्द्रगुप्त के साथ था ,इस कारण इस समुदाय के वंशज को क्षत्रिय भी माना जाने लगा था ,और उत्तर का भू-भाग तथा पश्चिम बंगाल के भू-भाग गुप्तो के अधिकार मे था एवं उत्तर बिहार (वैशाली तक )जो लिच्छवियों की राजकुमारी कुमार देवी के अधिकार मे था । दोनों वंशों का एकीकरण हो गया तथा चन्द्रगुप्त प्रथम ने प्रराक्रम से अन्य राज्यों को जीत कर पाटलीपपुत्र मे फिर से एक साम्राज्य की नींव डाली एवं शुभ अवसर पर महाराजाधिराज की पदवि धारण किया । .........वायुपुराण में ’भोक्षन्ते गुप्त –वंशजाः’ एवं अपने राज्याभिषेक की तिथि को नए संवत ‘गुप्त संवत ‘का घोषणा किए जो तिथि 20 दिसंबर 318 ई॰ अथवा 26 फरवरी 320 ई॰ निश्चित होती है । लगभग 319-320 ई॰ से गुप्त संवत का श्रीगणेश होता है । इस समय तक आते-आते भारत का नक्शा चतुर्भुज की तरह हो गया था तथा भारतवर्ष को सोने की चिड़ियाँ नाम से संबोधित किया जाने लगा था । सम्राट स्कन्ध गुप्त के समय भारत पर कई वार श्वेत हूणों का भयानक आक्रमण हुआ था ,जिसमे गुप्त वंश विजय प्रप्त किया था। इन आक्रमणों ने स्कन्ध गुप्त की शक्ति को झकझोर दिया तथा काफी धन-जन की हानी उठाना पड़ा था। (बिष्णु स्तम्भ-कंधार –हुणेयस्य समागतस्य समरे दोभर्या धरा कंम्पित भीमावर्तकस्य )सम्राट बुद्ध गुप्त तक अपने साम्राज्य की सुरक्षा में लगा रहा ,किन्तु बार-बार हूण आक्रमण जारी रहा । एरण अभिलेख बुद्ध गुप्त ने 484-85ई॰ में प्रसारित किया था। इनके मृत्यु के बाद हूणों ने कब्जा कर लिया । बुद्ध गुप्त के पश्चात उत्तराधिकारी तथागत गुप्त ,नरसिंह गुप्ता ,वैन्य गुप्त तक आते-आते अपने साम्राज्य को एक नहीं रख पायेँ । प्रायः सभी लड़ाई हारते चले गए । छोटे-छोटे राज्यों में देश का विघटन हो गया । छोटे-बड़े सामंतों ने भी कब्जा कर लिया । इस तरह से लंबे समय से गुप्त वंशों का विघटन होते चला गया । सभी लड़ाईयाँ हारते-हारते गुप्त सम्राट के वंशज को मध्यकाल आते आते रणहार (रण +हार)कहा जाने लगा । जो प्राचीन काल मे कारस्कर वंशबृक्ष का था । कारस्कर जाती नमक के व्यापारी थे,अब मध्यकाल मे इनका सम्बोधन रणहार जो काफी प्रचलित हो गया । उस समय अपमान सूचक था । मध्यकाल में सम्राट हेमचन्द्र हेमू जो 1556 में दिल्ली के साशक थे उन्हे भी हारना पड़ा था ,हेमू के बाद के समय तक आते-आते रणहार (रण +हार) शब्द का मध्य –आधुनिक काल में अपभ्रंस रौनियार ,रोनियार ,नूनियार ,नूनिया ,लानियार (सभी वैश्य वर्ग ) गुप्त वंशजों को कहा जाने लगा , जो आज उस गुप्त वंश के समुदाया का जाती सूचक हो गया है। वर्त्तमान में इस जाती का नाम हीं रौनियार हो गया है ।.( कुछ अंग्रेज़ विद्वान इस समुदाय के अधिकांश लोग को जुझारूपन ,फेरि लगाकर नमक बेचते समय चिल्लाने –गाने के कारण इसका नाम रोने –हारे ,तथा रनहार के अपभ्रंश जो बाद मे प्रचलित रौनियार ,रोनियर ,नोनियार ,नोनिया नूनियार लानियार जाती का सम्बोधन हो गया बताया है । (अर्थशास्त्र पीटरसन की डिक्शनरी ऑफ फीक पृष्ट 303-4)).
हम अपने विरासत के इतिहास की छान-बिन करने पर पाते है की शुरू में कारस्कर जाती जिसका गोत्र कश्यप थी , लिच्छवि राजकुमारी ‘कुमार देवी ‘से वैवाहिक संबंध चन्द्रगुप्त से होना ,चीनी यात्री व्हेनसांग का विवरण ,नेपाल की वंशावली ,प्राचीन तिब्ती ग्रन्थ ‘दुल्व ‘आदि से भी प्रमाणित है । उक्त वैवाहिक संबंध से लिच्छवि तथा गुप्त राज्य का एकिकारण हो सका ,उस समय उत्तर का कुछ भू-भाग तथा पश्चिमी बंगाल पर गुप्तों का अधिकार था और उत्तर बिहार लिच्छवियों के अधिकार में था ,चन्द्रगुप्त ने पराक्रम से अन्य राज्यों को भी जीत कर पाटलीपुत्र में फिर से एक साम्राज्य की नींव रखी तथा उस शुभ अवसर पर ‘महाराजाधिराज ‘की उपाधि धारण किया ,इसका प्रमाण स्वयं चन्द्रगुप्त की है ।
परंतु यह प्रमाणित नहीं है की गुप्त वंश के आदि पुरुष क्षत्रिय थे । गुप्त वंश को जाट या शूद्र भी नहीं कहा जा सकता , क्योंकि भारतिये सांस्कृति में पुरुष के विवाह के उपरांत पुरुष के जाती से ही वंश का जाती माना जाता है । गुप्त वंश तो वैश्य है ,यह प्रमाणित है । गुप्त वंश के पूर्वज नमक के व्यापार करते थे, हमारे कुल देवता लक्ष्मी है तथा हमारे पूर्वजों के द्वारा पीढ़ी –दर पीढ़ी चले आ रहे कहानी से भी गुप्त वंश वैश्य हैं । मौर्य वंश भी वैश्य थे यह भी प्रमाणित है । यह दोनों वंश बौद्ध हो गए थे । गुप्त वंश बौद्ध से पुनः वैश्य हिन्दू हुये थे । जिनके वंशज आज भी वही है । जिनके नाम के साथ गुप्त तथा गुप्ता (पुलिंग तथा स्त्रीलिंग ) पीढ़ी-दर-पीढ़ी आज तक जुड़ा चला आ रहा है । सदियों से वे आज भी वैश्य हैं । उनके वंशज आज भी लक्ष्मी महारानी के साथ-साथ कुल देवता कि पुजा में ‘अहम श्री गुप्तस्याः वंशजाः ‘कहकर पूजा में अपने पूर्वजों को याद कराते हैं और उसी गुप्त वंश को रणहार (रण +हार )तथा रोने-हारे मिलकर या रौनियार शब्द जो अपभ्रंस है कहा जाता है जिसका गोत्र आज भी कश्यप है । जो प्राचीन काल में कास्करजाती (नमक बेचनेवाला जाती )था । हमारे आखिरी पुरखे हिन्दू सम्राट विक्रमादित्य हेमचन्द्र @हेमू साह जिनके हम वंशज हैं प्रमाणित है । हमारे पूर्वजों ने समग्र समाज कि अगुआई कि थी ।
हमें अपनी विरासत से प्रेरणा लेकर समग्र समाज कि अगुआई आगें बढ़कर करना चाहिए । अपनी विरासत कि परम्पराको कायम करना चाहिए । राजनीति में रौनियार समुदाया कि कोई जगह नहीं दी जा रही है ऐसी परिस्थिति में इस समुदाय के स्वाभिमान को जगाना और एकता कायम करना अत्यंत आवश्यक है । यह समग्र समाज कि विकास के लिए भी आवश्यक है कि रौनियार समाज को इस कार्य के लिए आगे लाया जाय इतिहास में हमारे पुरखों ने किया है ,आज समग्र समाज का नेतृत्व करने के लिए रौनियार को आगें बढ़-चढ़ कर आना चाहिए ।
साभार: डॉ ॰ कामेश्वर गुप्ता ,अध्यक्ष (प्रोफेशनल ),अखिल भारतीय वैश्य सम्मेलन..
Great history. Padh ke bhut proud feel ho rha h are purvis ne aisa kam Kiya ki hum unpe garv kre. but ham kya kar rahe hai????
ReplyDeleteSocha hai kavi aapne??
Utsaw Gupta
Utsawkmr@gmail.com
last me jo line likha hai(hame apni baraat se prerna lekar sare samaj ki aguwai karne ke liye, pahle apne Swabhimaan ko jaana hoga aur fir se ekta kayam karni hogi) vaish samaj ek dusra ko please support kre.
Bahut khoob lekin isse bhi agadi ke history padhne ko milta to bahut axa lagta
ReplyDeleteअद्भुत जानकारी रोचकता से परिपूर्ण है।
ReplyDeleteReally nice.
ReplyDeleteI have a question that every rauniyar like me has same gotra 'kashyap'.
Yes If he or she is a Rauniyar then his or her gotra is Kashyap other wise not Rauniyar.Usha Rani Gupta
DeleteApne purwajo par garv hai
ReplyDeleteNicely narrates
ReplyDeleteहेमू को किसी भी इतिहासकार ने रौनियार नहीं बताया है लेकिन रौनियार ने इन्हें ब्रांड एम्बेसडर बना लिया इसे कहते हैं यारो का यार रौनियार होशियार
ReplyDeleteIsaliye mere blood me rajputon se 100 guna jade garmi h
ReplyDeleteHistorical primary sources hai kya aap ke pass ki andhe tarike se rauniyaro Ka itihas likh diya..Mai
ReplyDeleteEk itihas a Ka student Hu aisa to Kisi historian be nhi Likha hai...Satyam rauniyar form BHU
Jao ja k PTA kro hemu ka direct descendant Ko ek lekhk b h ..vo rauniyar h and Sasaram me ja k dekho proofs
ReplyDeleteRouniyaar Caste ki kuldevi aur kuldevta kaun hain ? Kya Bandi Parmeshwari kuldevi hain?
ReplyDeleteCan anyone tell where is the temple of Bandi Parmeshwari ?? Please help.
ReplyDeleteRoniyar samaj ka history k post karne k liye pravin Gupta ji ko dhanyawad.Manishji Bandi parmeshwari hmare kuldevta hai unka koi temple nhi hai unki sthapana piri dar piri ham apne gharon m karte hain jab tak ak ghar m hote hai sal m ak bar hi unki puja hoti hai shadi m chothari par pure gotiya k Puja jha bhi Ho ak bar hoti h larke k shadi par gold ka thosa &larki k shadi m silver ka thosa.sirf hamari jati m larka k shadi m maath bnata hai.50yearspahle meri maa ne bataya tha k Hemu last hindu raja the jinhone panipat ka dushra yudh lara tha uske baad Sasaram Bihar se Rauniyar baniya south Bihar (Jharkhand) U P,MP, Bengal Orissa & Nepal k or playan kiye
Delete--Usha Rani Gupta
DeleteGreat information
DeletePl, brief about rouniwar look Devi name as Johadiya Daadi
Deleteरौनीयार का इतिहास आज जान कर बहुत खुशी हुई
ReplyDeleteजय रौनीयार
ReplyDeleteKya rauniyar bania aur saundik baniya k bich shadi possible h ? Unn dono ka he gotra kashyap hota h
ReplyDeleteWelcome
ReplyDeleteWelcome guest
ReplyDeleteI'm proud to be a Rauniyar.I am a surgeon,associate professor in surgery in darbhanga medical college,bihar a permanent resident of patna.
ReplyDeleteहेमचंद्र का जन्म 1501 ई. में अलवर, राजस्थान में हुआ था। उनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्हे ‘हेमू‘के नाम से भी जाना जाता था। उनके पिता का नाम राय पूरनमल था, जो उस वक़्त एक पुरोहित थे। बाद के समय में मुग़लों द्वारा पुरोहितों को परेशान करने की वजह से राय पूरनमल रेवाड़ी, हरियाणा में आकर नमक का व्यवसाय करने लगे। अपनी छोटी आयु से ही हेमू शेरशाह सूरी के लश्कर को अनाज एवं पोटेशियम नाइट्रेट मुहैया करने के व्यवसाय में पिता का हाथ बंटाने लगे थे। 1540 ई. में शेरशाह सूरी ने बादशाह हुमायूँ को हरा कर क़ाबुल लौट जाने पर विवश कर दिया था। हेमू ने उसी वक़्त रेवाड़ी में धातु से कई तरह के हथियार बनाने के काम की नीव रख दी थी, जो आज भी रेवाड़ी में पीतल, ताँबा, इस्पात के बर्तन के आदि बनाने के काम के रूप में जारी है।
Deleteउच्च पद और लोकप्रियता
शेरशाह सूरी की1545 में मृत्यु हो जाने के बाद इस्लामशाह सूर ने उसकी गद्दी संभाली। इस्लामशाह ने हेमू की प्रशासनिक क्षमता को पहचान लिया और उसे व्यापार और वित्त संबधी कार्यों के लिए अपना निजी सलाहकार नियुक्त कर लिया। हेमचंद्र ने भी अपनी योग्यता को सिद्ध किया और इस्लामशाह सूर का विश्वास का पात्र बन गया। इस्लामशाह हेमू से हर मसले पर राय लेने लगा था। हेमू के काम से खुश होकर उसने हेमू को “दरोगा-ए-चौकी” बना दिया और उच्च पद प्रदान किया। बाद में इस्लामशाह की मृत्यु के बाद उसके बारह वर्ष के अल्प वयस्क पुत्र फ़िरोजशाह को उसी के चाचा के पुत्र आदिलशाह सूरी ने मार दिया और राजगद्दी पर क़ब्ज़ा कर लिया। आदिलशाह ने हेमू को अपना वजीर नियुक्त किया। आदिलशाह एक अय्याश और शराबी व्यक्ति था। उसे शासन की बिल्कुल भी परवाह नहीं थी। उस समय सम्पूर्ण अफ़ग़ान शासन का भार हेमू के ही हाथ में आ गया था। सेना के भीतर से भी हेमू का विरोध हुआ, लेकिन उसने अपने सारे विरोधियों को हरा कर शांत कर दिया। उस समय तक हेमू की सेना के अफ़ग़ान सैनिक, जिनमे से अधिकतर का जन्म भारत में ही हुआ था, अपने आप को भारत का रहने वाला मानने लग गए थे और वे मुग़ल शासकों को विदेशी मानते थे। इसी वजह से हेमू हिन्दू और अफ़ग़ान दोनों में ही काफ़ी लोकप्रिय हो गया था।
दिल्ली पर अधिकार
हुमायूँ, जो कि पहले 1540 में शेरशाह सूरी द्वारा पराजित कर खदेड़ दिया गया था, उसने दुबारा हमला करके शेरशाह सूरी के भाई को युद्ध में परास्त किया और दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इस समय अफ़ग़ान सरदार आपस में ही संघर्ष कर रहे थे, और हेमू बंगाल में अव्यवस्था को दूर करने में व्यस्त था। परंतु उस समय सात महीने के बाद हुमायूँ की मृत्यु हो गई। और तब हेमू ने दिल्ली की तरफ़ रुख किया और रास्ते में बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की कई रियासतों को जीत हासिल कि । आगरा में मुग़ल सेनानायक इस्कंदर ख़ान उज़्बेग को जब यह पता चला की हेमू उनकी तरफ़ आ रहा है तो वह बिना युद्ध किये ही मैदान छोड़ कर भाग गया। 7 अक्टूबर, 1556 . में हेमू ने तरदी बेग ख़ान (मुग़ल) को हरा कर दिल्ली पर विजय हासिल की। यहीं पर हेमू का राज्याभिषेक हुआ और उसे विक्रमादित्य की उपाधि से नवाजा गया। लगभग तीन शताब्दियों के मुस्लिम शासन के बाद पहली बार कोई हिन्दू दिल्ली का राजा बना। भले ही हेमू का जन्म ब्राह्मण समाज में हुआ और उसका पालन-पोषण भी पूरे धार्मिक तरीके से हुआ था, लेकिन वह सभी धर्मों को समान मानता था। इसीलिए उसकी सेना के अफ़ग़ान अधिकारी उसको पूरी इज्ज़त देते थे और इसलिए भी क्योकि वह एक कुशल सेनानायक साबित हो चूका था
हेमचंद्र का जन्म 1501 ई. में अलवर, राजस्थान में हुआ था। उनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्हे ‘हेमू‘के नाम से भी जाना जाता था। उनके पिता का नाम राय पूरनमल था, जो उस वक़्त एक पुरोहित थे। बाद के समय में मुग़लों द्वारा पुरोहितों को परेशान करने की वजह से राय पूरनमल रेवाड़ी, हरियाणा में आकर नमक का व्यवसाय करने लगे। अपनी छोटी आयु से ही हेमू शेरशाह सूरी के लश्कर को अनाज एवं पोटेशियम नाइट्रेट मुहैया करने के व्यवसाय में पिता का हाथ बंटाने लगे थे। 1540 ई. में शेरशाह सूरी ने बादशाह हुमायूँ को हरा कर क़ाबुल लौट जाने पर विवश कर दिया था। हेमू ने उसी वक़्त रेवाड़ी में धातु से कई तरह के हथियार बनाने के काम की नीव रख दी थी, जो आज भी रेवाड़ी में पीतल, ताँबा, इस्पात के बर्तन के आदि बनाने के काम के रूप में जारी है।
ReplyDeleteउच्च पद और लोकप्रियता
शेरशाह सूरी की1545 में मृत्यु हो जाने के बाद इस्लामशाह सूर ने उसकी गद्दी संभाली। इस्लामशाह ने हेमू की प्रशासनिक क्षमता को पहचान लिया और उसे व्यापार और वित्त संबधी कार्यों के लिए अपना निजी सलाहकार नियुक्त कर लिया। हेमचंद्र ने भी अपनी योग्यता को सिद्ध किया और इस्लामशाह सूर का विश्वास का पात्र बन गया। इस्लामशाह हेमू से हर मसले पर राय लेने लगा था। हेमू के काम से खुश होकर उसने हेमू को “दरोगा-ए-चौकी” बना दिया और उच्च पद प्रदान किया। बाद में इस्लामशाह की मृत्यु के बाद उसके बारह वर्ष के अल्प वयस्क पुत्र फ़िरोजशाह को उसी के चाचा के पुत्र आदिलशाह सूरी ने मार दिया और राजगद्दी पर क़ब्ज़ा कर लिया। आदिलशाह ने हेमू को अपना वजीर नियुक्त किया। आदिलशाह एक अय्याश और शराबी व्यक्ति था। उसे शासन की बिल्कुल भी परवाह नहीं थी। उस समय सम्पूर्ण अफ़ग़ान शासन का भार हेमू के ही हाथ में आ गया था। सेना के भीतर से भी हेमू का विरोध हुआ, लेकिन उसने अपने सारे विरोधियों को हरा कर शांत कर दिया। उस समय तक हेमू की सेना के अफ़ग़ान सैनिक, जिनमे से अधिकतर का जन्म भारत में ही हुआ था, अपने आप को भारत का रहने वाला मानने लग गए थे और वे मुग़ल शासकों को विदेशी मानते थे। इसी वजह से हेमू हिन्दू और अफ़ग़ान दोनों में ही काफ़ी लोकप्रिय हो गया था।
दिल्ली पर अधिकार
हुमायूँ, जो कि पहले 1540 में शेरशाह सूरी द्वारा पराजित कर खदेड़ दिया गया था, उसने दुबारा हमला करके शेरशाह सूरी के भाई को युद्ध में परास्त किया और दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इस समय अफ़ग़ान सरदार आपस में ही संघर्ष कर रहे थे, और हेमू बंगाल में अव्यवस्था को दूर करने में व्यस्त था। परंतु उस समय सात महीने के बाद हुमायूँ की मृत्यु हो गई। और तब हेमू ने दिल्ली की तरफ़ रुख किया और रास्ते में बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की कई रियासतों को जीत हासिल कि । आगरा में मुग़ल सेनानायक इस्कंदर ख़ान उज़्बेग को जब यह पता चला की हेमू उनकी तरफ़ आ रहा है तो वह बिना युद्ध किये ही मैदान छोड़ कर भाग गया। 7 अक्टूबर, 1556 . में हेमू ने तरदी बेग ख़ान (मुग़ल) को हरा कर दिल्ली पर विजय हासिल की। यहीं पर हेमू का राज्याभिषेक हुआ और उसे विक्रमादित्य की उपाधि से नवाजा गया। लगभग तीन शताब्दियों के मुस्लिम शासन के बाद पहली बार कोई हिन्दू दिल्ली का राजा बना। भले ही हेमू का जन्म ब्राह्मण समाज में हुआ और उसका पालन-पोषण भी पूरे धार्मिक तरीके से हुआ था, लेकिन वह सभी धर्मों को समान मानता था। इसीलिए उसकी सेना के अफ़ग़ान अधिकारी उसको पूरी इज्ज़त देते थे और इसलिए भी क्योकि वह एक कुशल सेनानायक साबित हो चूका था
Request you please don't do wrong blogging.
ReplyDeleteKindly rectify your knowledge through Wikipedia, indian medical history, jivani Hindi, the most authentic source.
ReplyDeleteIf your blogging is correct then share your sources from where you collected the rubbish knowledge on hemu.
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