जैन समुदाय के बारे में बातें करते हुए हम प्राय: इस बात को अनदेखा कर देते हैं कि जैन जाति नहीं, धर्म है। जाति की बात करें, तो जैन धर्म के अधिकांश अनुयायी जाति से बनिए होते हैं। इस प्रसंग में यह बात ध्यान देने की है कि जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों में से बड़ी संख्या क्षत्रिय राजपरिवारों के युवाओं की थी। जैन धर्म के सिद्धांतों में सर्वाधिक महत्व अहिंसा का माना जाता है। इस धर्म की आस्था का मूल सूत्र ही है : अहिंसा परमो धम:। यह स्वीकार करने के बाद स्वभावत: अपने से इतर प्राणियों के प्रति दया भाव या परोपकार वृत्ति को जीवन में चरितार्थ करने की अपेक्षा जैन धर्म में आस्था रखने वालों से की जाती है।
सिद्धांतत: जैन समुदाय को किसी जाति तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। किसी भी व्यक्ति को, जिसकी आस्था जैन धर्म के सिद्धांतों में हो, इस धर्म में दीक्षा लेने का अधिकार होना चाहिए। उसी तरह, जैसे बौद्ध धर्म में दीक्षित होने का विकल्प सामान्य जन के पास होता है, लेकिन जैन धर्म में अगर सिद्धांतत: यह स्वीकार्य भी हो, तो इसका चलन कम-से-कम मेरी जानकारी में तो नहीं है। इतना ही नहीं, इस समुदाय की अपनी वर्ग और जाति व्यवस्था है।
विश्वास की दृष्टि से इनके दो वर्ग हैं - दिगंबर और श्वेतांबर। जैसा इन संज्ञाओं से स्पष्ट है, दिगंबर वर्ग के आराध्य नग्न तीर्थंकर होते हैं और श्वेतांबर वर्ग के श्वेत वस्त्रधारी। मूलत: अपरिग्रह और त्याग पर आधारित पहले वर्ग में यह वृत्ति अपनी चरम अवस्था में वस्त्र का त्याग कर वनवास और तपस्या पर बल देती है। तपस्वी और संन्यासी के लिए तो गृहस्थ धर्म का परित्याग करने के बाद यह जीवनचर्या अनिवार्य हो जाती है, पर औसत सामाजिक व्यक्ति के लिए इस धर्म की शर्तों और विधि-विधान का, रोजमर्रा की जिंदगी में पालन करना बहुत कठिन होता है।
उदाहरण के लिए आज की व्यस्त दिनचर्या में सूर्यास्त से पहले भोजन करने के नियम का निर्वाह करना बेहद कठिन है। जैन धर्म में मांसाहार का तो प्रश्न ही नहीं उठता, शाकाहारियों के लिए भी आलू, फूलगोभी, कटहल, जिमीकंद, टमाटर जैसी सब्जियां खाना वर्जित है। सवाल व्यावहारिकता का है। इतनी वर्जनाओं पर टिकी जीवन पद्धति का निर्वाह करने में दिक्कतें पेश आती हैं, इसलिए क्रमश: इनका उल्लंघन करनेवालों की संख्या बढ़ती जाती है।
कहने के लिए जैन धर्म है जाति नहीं, पर व्यवहार में इसकी अपनी जाति व्यवस्था है। जहां तक मेरी जानकारी है, अग्रवाल इस व्यवस्था में सबसे ऊंचे और उसके बाद ओसवाल, खंडेलवाल जैसे तमाम उपवर्ग आते हैं, जबकि व्यवहार में हर दृष्टि से ये तथाकथित उपवर्ग किसी से कमतर नहीं होते। इस तरह के विभाजनों की व्यर्थता या तर्कहीनता के कारण जैन समुदाय ने पिछली आधी शताब्दी के दौरान इनसे अपने को क्रमश: मुक्त किया है। उसी तरह जैसे व्यवसाय, शिक्षा-दीक्षा आदि सभी दृष्टियों से इस समुदाय ने बड़ी तेजी से उन्नति की है।
कभी-कभी लगता है कि आरंभ में व्यापार तक सीमित करने का एक कारण यह भी हो सकता है कि एक जगह टिक कर रहने से धर्म में निर्धारित कठिन जीवनचर्या का निर्वाह करना ज्यादा सुविधाजनक रहता होगा, पर अगर आज सरकार ने जैन समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में मान्यता दी है तो उसका कारण यही है कि इसमें धार्मिक विश्वास जिस जीवनचर्या को प्रस्तावित करते हैं, उसको स्वीकार करने में व्यावहारिक कठिनाई के कारण इसमें संख्या विस्तार का अवकाश अन्य मतों की अपेक्षा कम रहा है।
साभार: नवभारत टाइम्स| Mar 29, 2015, 01.27 AM IST, निर्मला जैन.