आर्य और आर्येतर वैश्यों की गाथा
मुझे अपनी पूर्वलिखित कुछ बातों को दुहराते हुए अपनी बात कहनी होगी। जैसे आज धनाढ्य वैश्यों के लिए श्रेष्ठ (सेठ), श्रेष्ठिन् (सेठी) का प्रयोग होता है और कुछ वंश-परंपराओं में सेठ और सेठी उपनाम बन चुके हैं, ठीक इसी तरह, हड़प्पा काल में अन्य वरिष्ठों के अतिरिक्त धनाढ़्य बनियों के लिए भी 'आर्य' का प्रयोग होता था। ऋग्वेद में जिनकी चिन्ताएं सबसे मुखर रूप में व्यक्त हुई हैं, वे वणिक् वर्ग की और विशेषत: सुदूर व्यापार में अग्रणी इन व्यापारियों के ही सरोकार हैं इसलिए ऋग्वेद को वैश्यों का वेद माना गया है। कहते हैं वैश्य वर्ण की उत्पत्ति ऋग्वेद से हुई: 'ऋग्भ्यः जातं वैश्यं वर्णं आहु:'।
ऋग्वेद में सौ शरद् जीने की जो आकांक्षा है - जीवेम शरद: शतम् .... अदीना: स्याम शरद: शतम्, उसकी विचित्र व्याख्यायें करके यथार्थ से धयान हटाने के प्रयत्न होते रहे। यह कि सर्दी के कारण जाड़े में मौतें बहुत होती थीं, इसलिए वे कामना करते थे कि जाड़े के मौसम से पार पा जाएं। शरद् ऋतु की इससे अनूठी समझ हो नहीं सकती। खैर, यह व्यापारिक यात्राओं और उनसे मालामाल होने का यही उत्साह था जिसके कारण वे सौ शरद जीने और आजीवन आत्मावलंबी रहने की कामना करते थे। बरसात बीतते ही, सबके देना पावना का हिसाब करके वे व्यापार के लिए या खनिज संपदा के दोहन के लिए निकलते थे, इसलिए शरद ऋतु को वैश्यों की ऋतु कहा जाता था - शरद् ऋतु: वै वैश्य ऋतु:।
सुदूर यात्रा पर जाने वाले व्यापारियों की चिन्ता क्या थी? चिन्ता एक हो तो कहें, घर छोड़ते ही चिन्ता के पहाड़:
१. सभी देव प्रसन्न रहें और अनिष्ट से बचाएं - शं नो मित्र:, शं वरुण:, शं नो भवतु अर्यमा ....
२. मौसम ठीक रहे, आंधी, तूफान न आए, जल धाराएं प्रखर न मिलें, राह में पेट भरने के लिए मधर फल-कन्द मिलें ...- मधु वाता ऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धव: । माध्वी: न: सन्तु ओषधी:।.....
३. मेरी जान न चली जाय, लुटेरे या शत्रु हमें बन्दी न बना लें, खाने के लाले न पड. जांय - मा नो वधी: इन्द्र मा परा दा मा नो प्रिया भोजनानि प्रमोषी: ।...
४. हमें भ्रांति न हो, थकान न लगे, तन्द्रा न सताए- न मा तमन् नो श्रमन् न उत तन्द्रन् न वोचाम मा सुनेतेति सोमम् ,
५. हे इन्द्र तुम्हारे सख्य के बूते हमे डर न सताए, सख्ये त इन्द्र वाजिनो मा भेम शवसस्पते ।
६. हे देवताओ, अपने उपासकों को इन निर्मम प्राणघाती हिंसकों से बचाना - त्राध्वं नो देवा निजुरो वृकस्य त्राध्वं कर्तादवपदं यजत्राः ।।
७. कदाशयी बटमार हमारे ऊपर हावी न हो जाएं- मा नः स्तेन ईषत मा अघशंस: ।
८. इंद्र तुम अकूत धन देने वाले, हमें भी मालामाल कर देना -भूरिदा भूरि देहि नो मा दभ्रं भूर्या भर । भूरि घेदिन्द्र दित्ससि ।।
९. हमें किसी दूसरे के असाधारण करतब का लाभ न तो स्वयं लेना पड़े न हमारी आद-औलाद को - मा कस्याद्भुतक्रतू यक्षं भुजेमा तनूभिः । मा शेषसा मा तनसा ।।
१०. आने वाली भोर हमारी रक्षा करे, उफनती हुई नदिया हमारी रक्षा करें - अवन्तु मामुषसो जायमाना अवन्तु मा सिन्धवः पिन्वमानाः ।
११. हमें भूखा न रहना पड़े, दुष्टों के अधीन न होना पड़े, हम देश में रहें या जंगल में, कहीं हमें हिंसा का शिकार न होना पड़े - मा नः क्षुधे मा रक्षसे ऋतावः मा नः दमे मा वन आ जुहूर्थाःहिंसीः ।।
१२. दूसरे के कुकर्म का दंड हमें न भोगना पड़े - मा वो भुजेमान्यजातमेनो मा तत्कर्म वसवो यच्चयध्वे ।।
१३. एक पाप होने पर, दो पाप होने पर, तीन पाप होने पर, या कई पाप हो जायं तो भी, हमारे प्राण न लेना - मा न एकस्मिन्नागसि मा द्वयोरुत त्रिषु । वधीर्मा षूर भूरिषु ।।
१४. सब कुछ देखने, सुनने वाले हे देव तुमसे बिनती करता हूं कि मेरे सेवको और सहायकों को किसी तरह की क्षति न पहुंचने पाए - चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि मा नः प्रजां रीरिषः मोत वीरान् ।।
ये ही लोग थे जो सन्मार्ग पर उसी तरह निरुपद्रव चलते हुए जैसे सूर्य और चन्द्रमा अपने मार्ग पर चलते है, कल्याण सहित चलते, किसी को चोट पहुंचाए बिना अादान प्रदान करते हुए, जान पहचान बढ़ाते हुए मेले ठेले लगाते हुए विचरण करते थे - स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव । पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि ।।
और इन्होंने ही दूर पराए देशों में अपने प्रताप से वे प्राचीरवेष्ठित बस्तियां बसाई थीं जिनको वे आर्यों की बस्ती (आर्यस्थान) कहते थे और जिनकी संज्ञा उनकी गतिविधि के पूरे क्षेत्र से जुड़ गई थी - आर्याना (अफगानिस्तान), ईरान, ऐरनवेजो और इन्हीं की नकल पर इनके संपर्क में आने वाले जन भी अपने को आर्य कहने लगे थे - आरी (जर्मन), आर्मीनिया, आयरलैंड में जिनका रहस्य छिपा है। इस तरह एक खास अर्थ में इनको छोड़ कर दूसरे आर्येतर थे।
सहोभिर्विश्वं परि चक्रमू रजः पूर्वा धामानि अमिमिमानाः।
तनूषु विश्वा भुवना नि येमिरे प्रासारयन्त पुरुध प्रजा अनु।।
और इसी के बल पर कहते थे कि हमने समस्त संसार में आर्यव्रत का प्रसार किया है - आर्या व्रता विसृजन्त: अधि क्षमि । पर क्या था यह आर्यव्रत ? यह था जल की उपलब्धता का तरीका निकालना, पशुपालन, उद्यानिकी या बागबानी, कृषि, खनिज पदार्थों की खोज में भागीदारी पर साथ ही था प्रथमत: भाषा और संस्कृति का संचार या ज्ञान का प्रसार - ब्रह्म॒ गामश्वं॑ ज॒नय॑न्त॒ ओष॑धी॒र्वन॒स्पती॑न्पृथि॒वीं पर्व॑ताँ अ॒पः । सूर्यं॑ दि॒वि रो॒हय॑न्तः सु॒दान॑व॒ आर्या॑ व्र॒ता वि॑सृ॒जन्तो॒ अधि॒ क्षमि॑ ॥
संस्कृत का तो नहीं पर वैदिक संपर्क भाषा का प्रसार भारोपीय क्षेत्र में कैसे हुआ था इसे इस सिरे से ही समझा जा सकता है।
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