KANU VAISHYA SAMAJ HISTORY
इतिहास किसी भी देश और जाति के उत्थान की कुंजी है । किसी भी देश तथा समाज के उत्थान व पतन तथा वहाँ के ज्ञान-विज्ञान, कला-साहित्य, एवं संस्कृति का ज्ञान हमें इतिहास के द्वारा ही मिल सकता है । हमें अपने पूर्वजों के श्रेष्ठ कार्यों की जानकारी इतिहास के माध्यम से ही मिल सकती है । जिस जाति के पास अपने पूर्वजों का इतिहास नहीं उसे प्राय: मृत समझा जाता है । अर्थात् जिस व्यक्ति को अपने इतिहास की जानकारी नहीं वो इतिहास का निर्माण नहीं कर सकता । वास्तव में इतिहास ही ज्ञान की कुंजी व ज्ञान का विशाल भंडार होता है । इतिहास वह पवित्र धरोहर है जो जाति को अंधकार से निकाल कर प्रकाश की और ले जाती है । हर व्यक्ति दूसरों से तुलना करके अपने आप को श्रेष्ठ प्रमाणित करने में गौरव महसूस करता है और उसके लिए इतिहास से बढ़कर कोई आधार नहीं हो सकता । किसी जाति को जीवित रखने तथा विकास के पथ पर आगे बढ़ने के लिए इतिहास से अधिक कोई प्रेरणा का स्त्रोत नहीं हो सकता । इसलिए साहित्य जगत् में इतिहास को भारी महत्व दिया गया है । इतिहास पूर्वजों की अमूल्य निधि है और वही भटके हुए मनुष्यों को मार्ग दिखाता है । किसी भी देश या जाति का उत्थान और पतन देखना हो तो उस देश या जाति का इतिहास उठाकर देख लें । यदि किसी देश या जाति को मिटाना है तो उसका इतिहास मिटा दें वह देश या जाति स्वत: मिट जायेगी । इतिहास के अभाव में वह जाति या देश अपना मूल स्वरूप ही खो बैठेगी, वह भटक जायेगी । इतिहास इस बात का साक्षी है कि विजेता देश या जातियों ने किसी को दबाना या कुचलना चाहा तो पहले उसके इतिहास को नष्ट किया जिससे वे वास्तविकता को भूल कर गुलामी की बेड़ियों में कैद हो गये । अंग्रेज जब भारत में आए तो सबसे पहले यहां के इतिहास संस्कृति को नष्ट किया । इतिहास के अभाव में आज बहुत सी जातियों का पता लगाना कठिन हो गया है । भारत में परशुराम के भय से क्षत्रिय लोग कई जातियों में मिल गए । उसके बाद मुगल शासकों के अत्याचार से कई नई जातियाँ बन गई । महाभारत काल में भी कई जातियाँ डगमगा गई और छिन्न-भिन्न हो गई । पहले जहाँ चार वर्ण थे वहाँ भारत में आज लगभग पौन चार हजार जातियाँ हो गई । पिछड़ी हुई जातियों का इतिहास नि:सन्देह गौरवशाली रहा है अतीत के पन्नों को बटोर कर पिछड़ी हुई जातियों में मानव की महत्ता, स्वाभिमान तथा स्वगरिमा जागृत करने की और ज्यादा जरूरत है । पिछड़ी जातियाँ सदियों से शोषित, पीड़ित और उपेक्षित रही है । उनमें आत्मविश्वास और विकास की चेतना जागृत करना आवश्यक है तभी उनमें आगे बढ़ने की भावना वेगवती बनेगी । सरकार द्वारा विकास के जो साधन और सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही है उसका लाभ उन्हें तभी मिल पाएगा जब उनमें विकास की चेतना उत्पन्न होगी । इतिहास उनकी सोई महत्ता और अतीत के गौरव को जागृत करेगा तब उनमें स्वविकास की प्रेरणा आएगी । इतिहास की आवश्यकता का अनुभव आज के युग में कई जातियाँ कर रही है । सही रूप में देखा जाय तो जो जातियाँ आज पिछड़ी हुई मानी जाती है वे उन्हीं शासक वर्ग के वंशजों में से हैं जो शासन सत्ता के विध्वंश हो जाने से अपने प्राणों को बचाने के लिए इन जातियों में मिल गए और जो नहीं मिले उन्हें गुलाम बनाकर तुर्कों के हाथ बेच डाले गए । शेष जो रहे वे अपने इतिहास और अस्तित्व को ही भूल गए । दूषित वर्ण व्यवस्था के कारण जिन लोगों पर इतिहास और साहित्य रचना का दायित्व था उन लोगों ने भी पिछड़ी जातियों के प्रति कभी भी उदारता का परिचय नहीं दिया । आज हम इतिहास को देखते हैं तो शासकों की नामावली तथा शौर्य गाथाओं के सिवाय कुछ नहीं मिलता । जिन लोगों पर यह दायित्व था उन्हें इतिहास में सभी वर्गों और जातियों को स्थान देना चाहिए था मगर संकीर्णता और पक्षपात बरात । राज्यों के उत्थान और पतन में शासक वर्ग के साथ-साथ अन्य जातियों का भी त्याग और बलिदान रहा है । मगर इतिहास के ठेकेदारों ने उन्हें समुचित स्थान देना ठीक नहीं समझा । आज जब पिछड़ी जातियों के लोग अपने पूर्वजों के गौरवपूर्ण इतिहास को कहीं से भी खोज कर सामने लाते हैं तो उसमें गौरव के साथ-साथ आक्रोश पैदा होता है कि इतने महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों को इतिहास से क्यों विलोपित किया गया ? आज भारत विभिन्न जातियों एवं संस्कृतियों की संगम स्थली है । हजारों वर्षों के उतार-चढ़ाव से नए-नए विचारों तथा जीवन-पद्धतियों का प्रभाव यहाँ के निवासियों पर पड़ा है । लेकिन आदमी-आदमी के बीच भेदभाव की जो परम्परा इस देश के ज्ञात इतिहास के प्रारंभ से अब तक देखने को मिलती है, वह अविचल है, स्थिर है । भारत में जीवन-निर्वाह के बेहतर साधनों की तलाश में आर्य यहाँ आए थे, फिर धीरे-धीरे साम-दण्ड-भेद की नीति से मालिक बन बैठे ओर समस्त मानव जाति को कार्य की दृष्टि से चार वर्णों में विभाजित कर दिया । यह विभाजन जाति विभेद के आधार पर नहीं किया गया यह चार वर्ण इस प्रकार है : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र । वेदों में कहा गया है की उस विरट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिये, सिने से वैश्य, और कमर से नीचे के भाग से शुद्र उत्पन्न हुए । इतिहास में कानू राजाओं का उल्लेख जानबूझकर नहीं किया गया । इसलिए कानू जाति के इतिहास का मूल स्वरूप और सामाजिक-आर्थिक स्थिति का विश्लेषण जहाँ जरूरी है, वहीं बराबरी की हैसियत प्राप्त करने के लिए क्या किया जाना चाहिए, इस पर भी गहरे चिन्तन-मनन करने की आवश्यकता है । हमारे महापुरूषों ने जो रास्ता दिखाया है, उस पर दृढ़ प्रतिज्ञ होकर चले बिना अस्तित्व को बरकरार रखना संभव नहीं हो पाएगा । कानू जाति के गौरवशाली इतिहास से सबक लेकर बदलते विश्व परिदृश्य में सामूहिक प्रयासों से किस प्रकार सामाजिक प्रतिष्ठा और आर्थिक मजबूती प्राप्त करें, यह हमारी विवेचना का केन्द्र बिन्दु बने, तो मंजिल की ओर महत्वपूर्ण कदम होगा । हमें दूसरों से भी सिखने की जरूरत है कि कम संसाधनों के बावजूद कैसे आगे बढ़ रहे हैं । दुसरों की मानसिकता बदलने के साथ-साथ अपनी कमजोरी को भी दूर करने कर ध्यान दिए बिना (मतलब उन्हे दूर किए बिना) सार्थक परिणामों की आशा नहीं की जा सकती । बौद्धिक कौशल और त्याग की अद्भुत मिसाल है कानू समाज । अर्वाचीन काल से ही इस समाज के लोगों ने सांस्कृतिक, राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में अपनी अमीट छाप छोड़ी है । पुरे देश में अपनी छाप छोड़ने वाले साधु-संत और समाज को नई दिशा देने वाले क्रांतिकारी विचारक इस समाज की अमूल्य निधि है । कानू जाति को इतिहास की आवश्यकता अन्य पिछड़ी जातियों की तुलना में ज्यादा है । अन्य पिछड़ी जातियों का वर्णन तो फिर भी इतिहास में कहीं न कहीं किसी रूप में आया है मगर कानू जाति को इतिहास में आज दिन तक कहीं स्थान नहीं दिया गया । इतिहास के अभाव में कानू जाति न तो संगठित हो सकी और न तेज गति से विकास कर सकी । कानू जाति का इतिहास सदैव गौरवशाली रहा है । इस जाति में विद्वान संत महात्मा तथा समाज सुधारक हुए हैं ।कानू जाति की आदर्श परम्पराएं रही हैं । वर्तमान और भावी पीढ़ि को इन सब बातों की जानकारी देना नितान्त आवश्यक है । इनमें जब तक आत्म गौरव पैदा नहीं होगा तब तक यह जाति विकास की दौड़ में पीछे रहेगी । इसलिए एक सुव्यवस्थित और गौरवशाली इतिहास का होना कानू जाति के उत्थान के लिए अत्यावश्यक है । इस वेबसाईट में संक्षिप्त कानू समाज के गौरवशाली इतिहास का वर्णन दिया जा रहा है जिसका आप सभी महानुभावों को ज्ञान होना अत्यावश्यक है । जिस जाति या इन्सान को मिटने का अहसास नहीं होता । उस जाति व इन्सान का दुनियां में इतिहास नहीं होता ।।
–वर्ण व्यवस्था
आज भारत विभिन्न जातियों एवं संस्कृतियों की संगम स्थली है । हजारों वर्षों के उतार-चढ़ाव से नए-नए विचारों तथा जीवन-पद्धतियों का प्रभाव यहाँ के निवासियों पर पड़ा है । लेकिन आदमी-आदमी के बीच भेदभाव की जो परम्परा इस देश के ज्ञात इतिहास के प्रारंभ से अब तक देखने को मिलती है, वह अविचल है, स्थिर है । आर्य बाहर से आए और उन्होंने यहाँ के मूलनिवासियों को हराकर अपने आचार-विचारों को उन पर थोप दिया, उनकी उन्नतशील सभ्यता और प्रकृतिवादी संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करके एक तरह से उन्हें गुलामों की स्थितियों में ला दिया ।
भारत में जीवन-निर्वाह के बेहतर साधनों की तलाश में आर्य यहाँ आए थे, फिर धीरे-धीरे साम-दण्ड-भेद की नीति से मालिक बन बैठे ओर समस्त मानव जाति को कार्य की दृष्टि से चार वर्णों में विभाजित कर दिया । यह विभाजन जाति विभेद के आधार पर नहीं किया गया यह चार वर्ण इस प्रकार है : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र । वेदों में कहा गया है की उस विरट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिये, सिने से वैश्य, और कमर से नीचे के भाग से शुद्र उत्पन्न हुए ।
मानव शरीर के विश्लेषण से पता चलता है कि हर मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र है । गले के ऊपर वाले भाग को जिसे हम सिर, मस्तक कहते है, यह भग ज्ञान-केन्द्र बिदु है । इस ज्ञान-केन्द्र को ब्रह्म भी कहते हैं । ब्रह्म अर्थात ब्राह्मण । दूसरे भाग भुजाओं और सिने को क्षत्रिय कहते हैं क्योंकि भुजाओं और सिने में सारी वीरता होती है । तीसरा भाग सीना तथा पेट आता है जो वैश्य का प्रतिनिधित्व करता है । व्यापार एवं व्यवसाय के द्वारा समस्त मानव जाति के पोषण का भार वैश्य वर्ण पर जाता है । चौथा भाग कमर के नीचे पैरों तक का शुद्र कहा जाता है ।
मनु स्मृति के अनुसार कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था बनाई गई थी । मनुष्यों में कोई छोटा या बड़ा नही होता । शरीर के सभी अंगों का अपनी अपनी जगह महत्व है । वैसे तो संसार के सभी धर्म, सम्प्रदायों में जाति-पाति का थोड़ा बहुत भेद अवश्य मिलेगा किन्तु वह भेद अहंकार, घृणा और एक-दूसरे को नीचा दिखाने कि भावना से हुआ, क्योंकि धार्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी सभी मनुष्य समान हैं ।
अन्य जातियां संख्या में ब्राह्मण की कुल संख्या से काफी अधिक संख्या में रहे सभी इस देश के मूल निवासी थे । जिनको राजसत्ता, पाप तथा अधर्म का भय दिखाकर ही शारीरिक व मानसिक रूप से गुलाम बनाया गया । ब्राह्मण को यह भय लगा कि यदि वर्ण के आधार पर जाति की पहचान जारी रहती है तो इस आधार पर जातियां संगठित हो सकते हैं, ब्राह्मण की सत्ता को चुनौती दे सकते है, इसलिए वर्ण के आधार पर की गई पहचान को समाप्त करने की साजिश रची गई । जातियाँ आपस में घुल मिल नहीं सकें, इसके लिए शादी विवाह केवल जाति में ही किये जाने की परिपाटी डाली गई । जाति व्यवस्था को मजबूत बनाया गया । जाति के लोगों के आपसी झगड़े जैसे सम्पत्ति, उत्तराधिकार व पति-पत्नि के विवाद जाति पंचायतों द्वारा निपटाने की व्यवस्था स्थापित की । जन्म से लेकर मृत्यु तक के सारे कार्य जाति में ही सम्पन्न होने का रिवाज बन गया । लोगों ने अपनी जाति के बाहर सोचना ही बन्द कर दिया ।
जातियों को समान धरातल पर नहीं रखा । प्रत्येक जाति के लोगों की अलग-अलग बस्ती बसने लगी । बस्तियों के नाम जाति के नाम से होने लगे । जिनको अन्त्यज या अछूत माना गया उनकी बस्तियाँ दूर बसाई गई । एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों में अधिक घुले मिलें नहीं इस बात का विशेष ध्यान रखा गया। ब्राह्मण ने सभी हिन्दुओं को एक समाज के रूप में विकसित होने से रोका आज हालत यह है कि अन्य वर्ण के लोग अनेक जातियों में विभाजित हैं ।
हिन्दु समाज व्यवस्था में ऊँचे पायदान पर बैठे वर्ग ने अपने स्वार्थ के लिए धर्म को आधार बना स्वयं को समाज का अधिष्ठाता घोषित कर बहुसंख्यक वर्ग को जो यहाँ का मूल निवासी है ईश्वरीय उपदेशों के माध्यम से शारीरिक, मानसिक व आर्थिक गुलामी का शिकार बना दिया ।
प्रत्येक वर्ण के लोगों के क्या कार्य या व्यवसाय होगें ? इसका निर्धारण भी ईश्वर से ही करवाया गया । ब्रह्मा, विष्णु, कृष्ण आदि ईश्वर व ईश्वर के अवतारों के माध्यम से ब्राह्मण का काम पढ़ना, पढ़ाना, धर्म का ज्ञान प्राप्त करना, दान लेना, धार्मिक अनुष्ठान करना, क्षत्रिय का काम समाज व देश की रक्षा करना, ब्राह्मण को दान देना, धार्मिक अनुष्ठान कराना, वैश्य का काम व्यवसाय व व्यापार करना तथा ब्राह्मण को दान दक्षिणा व आर्थिक सहयोग प्रदान करना व शूद्र का काम तीनों वर्णों विशेषकर ब्राह्मण की सेवा करना तय करवाये । यदि ईश्वर अथवा ईश्वर अवतारों के द्वारा चारों वर्णों के व्यवसाय, दायित्व व निर्योग्यताएँ तय नहीं करवाई जाती तो ब्राह्मणों के अलावा बाकी वर्ण के लोग इस पर आपत्ति उठा सकते थे और ऐसी स्थिति में योग्यता व्यक्ति का समाज में स्थान तय करने का मापदण्ड बनता। इसलिए सोची समझी साजिश के तहत वर्णानुसार कर्म का सिद्धान्त भी ईश्वरीय उपदेश करार दिया गया ।
आर्य ब्राह्मणों ने अपनी श्रेष्ठता को ओर मजबूत करने की नियत से यह भी तर्क दिया कि व्यक्ति पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार ही वर्ण में जन्म लेता है जिसके पूर्व जन्म के कर्म श्रेष्ठ होते हैं वह ब्राह्मण वर्ण में और जिसके पूर्व जन्म के कर्म अच्छे नहीं रहे जिसने पाप पूर्ण कार्य किये हों उसका जन्म निम्न वर्ण में होता है इसलिए वर्ण में जन्म होना पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम है और पूर्व जन्म के कर्मों का फल समझकर जो भाग्य में लिखा है उसी प्रकार से जन्म वाले वर्ण के लिए निर्धारित कर्म करते रहना चाहिए । तभी मोक्ष संभव है ओर अगला जन्म अच्छे वर्ण में होना भी संभव है । वर्ण में उत्पत्ति को पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम करार दिये जाने से बाकी तीनो वर्णों के लोगों के पास यह विकल्प भी नहीं रहने दिया कि वे वर्तमान में अच्छे कर्म के बल पर अपना वर्ण परिवर्तित कर सकें । इस प्रकार देश के बहुसंख्यक वर्ग की सृजनशीलता, वैज्ञानिक खोज की ललक, आविष्कार की मानसिकता, प्राकृतिक विपदाओं से निजात दिलाने के लिए उपाय तलाशने की इच्छा शक्ति को समाप्त कर दिया । बाकी तीनों वर्णों, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्रों को द्वितीय श्रेणी का नागरिक घोषित कर दिया और ईश्वर अवतार उत्पन्न व घोषित कर उनके माध्यम ये संदेश या उपदेश दिलवा दिया कि ज्ञान व गुण दोनों से रहित होते हुए भी ब्राह्मण पूजने योग्य है । ब्राह्मणों ने अपने आपको समाज का शिक्षक व धर्म का अधिकृत प्रवक्ता स्थापित कर लिया । उनके द्वारा पाप व दुराचरण करने पर भी उन्हें पापी व दुराचारी करार देने का अधिकार किसी को नहीं दिया ।
मनुस्मृति व अन्य धर्मशास्त्रों के अनुसार हिन्दू धर्म का सामाजिक ताना-बाना समान धरातल पर नहीं है । वर्ण-व्यवस्था में जहाँ ब्राह्मण सर्वोच्च शिखर पर स्थापित है वहीं अन्य अन्तिम पायदान पर है । प्रत्येक वर्ण के लोगों के निश्चित व्यवसाय हैं, उन्हें अपनी मर्जी से व्यवसाय चुनने का अधिकार नहीं है । ब्राह्मण के अलावा बाकी वर्ण के लोगों को दूसरे वर्ण के लिए निर्धारित व्यवसाय करने का अधिकार नहीं है । व्यवहार में भी समानता नहीं है, जिस प्रकार इस्लाम व ईसाइयत मे सभी व्यक्ति समान हैं उन्हें किसी भी प्रकार का व्यवसाय करने का अधिकार है उस प्रकार की व्यवसायिक स्वतंत्रता सनातन हिन्दुओं में नहीं है । आजादी के बाद भारतीय संविधान ने स्थिति को बदला है लेकिन धार्मिक अनुष्ठान कराने, मन्दिरों में सेवा पूजा करने का एकाधिकार अब भी ब्राह्मणों के ही पास है जो बिना परिश्रम का काम है । इस कार्य में किसी अन्य वर्ग का दखल नहीं है । ब्राह्मण इस बात पर कट्टिबद्ध है कि मन्दिरों में सेवा-पूजा व धार्मिक अनुष्ठान कराने के क्षेत्र में अन्य वर्ण व जातियों के लोग प्रवेश करने की हिमाकत ही नहीं कर सकें । धार्मिक अंध विश्वासों व परम्पराओं ने लोगों को पूर्णतया ब्राह्मणों पर आश्रित बना दिया है, मन्दिरों में चढ़ावा आता है हमारे देश के तत्कालीन वित्त मंत्री श्री पी. चिबंदरम ने कहा था कि देश के मन्दिरों की सालाना आमदनी सकल बजट से 60 प्रतिशत अधिक है, सारी आमदनी पर केवल ब्राह्मणों का ही एकाधिकार है इस अथाह राशि के खर्च का कोई हिसाब किताब नहीं है मेरे विचार में यह राशि आम लोगों की है इसलिए यदि इस अथाह धनराशि को शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी बुनियादी आवश्यकताओं पर खर्च किया जाये तो यह देश स्वास्थ्य की दृष्टि से तन्दुरस्त व शिक्षा की दृष्टि से बौद्धिक व कुशल राष्ट्र की श्रेणी में आ सकता है । चर्च की आमदनी जनकल्याण कारी योजनाओं पर खर्च हेाती है इस्लाम में भी जक़ात जैसी जनकल्याणकारी योजनाओं पर धर्मादा राशि खर्च होती है लेकिन हिन्दू धर्म के मन्दिरों की आमदनी को केवल एक वर्ण विशेष के लोग ही डकार रहे हैं फिर भी सुदामा कहलाते हैं । आमदनी का ब्यौरा व लेखा जोखा नहीं होने से यदि सर्वे कराया जाये तो साढे तीन करोड़ में से लगभग एक करोड़ ब्राह्मण बी.पी.एल. कार्ड धारक मिल जायेंगे इस प्रकार देश के वंचित व उपेक्षित वर्ग का हक ओर मार रहे हैं इसलिए इस धर्म आधारित आरक्षण को समाप्त किए बिना स्वतंत्रता व समानता का कोई महत्व नहीं है । परम संत शिरोमणी गुरू बाबा गणिनाथ जी ने ऐसे राज की कामना करते हुए एक पद की रचना कि जिसमें काई भूखा न रहे और छोटे-बड़े का भेदभाव भुलाकर सभी मिल-जुलकर रहे ।
भारत में जाति तोड़ो आन्दोलन की चर्चा आज के इस आधुनिक युग की नई युवा पीढ़ि के द्वारा बहुत जोर शोर के साथ की जाती है, लेकिन जाति की दीवारें टूटने की बजाय ओर अधिक मजबूत होती जा रही है, क्योंकि भारत देश की राजनीति जो सभी तालों की चाबी है, इस राजनीति में प्रवेश के लिए टिकीट की आवश्यकता होती है ओर उस टिकीट के लिए प्राथमिकता उसकी जाति के लोगों की संख्या के आधार पर दी जाती है । हमारे राष्ट्रीय स्तर के कई नेता इस बात को खुले आम स्वीकार भी कर चुके है कि भारत के इस समाज में ब्याह-शादी और राजनीति का प्रमुख स्तंभ जाति ही है । लेकिन अब धीरे-धीरे इस युवा पीढ़ि में जाति की प्रासंगिकता कम होती जा रही है । यह तर्क भी अपने आप में वजन तो रखता ही है कि सोच का स्तर जाति से ऊपर उठकर होना चाहिए, राष्ट्र की बेहतरी की बात सोचनी चाहिए , लेकिन जो जातियाँ, सामाजिक और आर्थिक रूप से सदियों से पिछड़ी चली आ रही हैं, उन्हें मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध नहीं है, उन्हें बराबर का इन्सान नहीं समझा जाता है, उनकी बेहतरी के लिए राष्ट्रवादी विचार-धारा वाले लोगों को भी आगे आना चाहिए, क्योंकि वे भी इसी देश के नागरिक है, उन्हें भी दूसरों की तरह तन ढंकने के लिए कपड़ा, खाने के लिए दो वक्त की रोटी और रहने के लिए एक छत की जरूरत है, और साथ ही बराबरी का सम्मान मिलना चाहिए । समाज के ऊँचे कद वाले लोगों और आज के नये युग के आधुनिक विचार धारा वाले लोगों को इसके लिए बाध्य तो नहीं किया जा सकता है लेकिन जो लोग इसी दलदल से निकलकर बाहर आए हैं और आज अच्छे सामाजिक परिवेश में सुख-सुविधाओं से युक्त जीवन-यापन कर रहे हैं, उन्हें उनके बारे में थोड़ा-बहुत तो सोचना ही चाहिए । लेकिन क्या करे यह तो मानव स्वभाव ही है कि लोग अधिकतर अपने बारे में ही सोचता है, और आदमी अगर ऊपर पहुँच जाये तो वह नीचे वालों के बारे में सोचना बन्द कर देता है, लेकिन वही आदमी जब नीचे था तब वह यह सोचा करता था कि ऊपर वाले लोग हमारे बारे में क्यों नही सोचते ! लेकिन इन ऊँचे पदों पर बेठे हुए प्रगतिशील व्यक्तियों का ये सामाजिक दायित्व बनता है कि वे अपनी कौम से संबंध रखने वाले गरीब लोगों के लिए काम करना अपनी पहली प्राथमिकता समझे ।
–कानू समाज वंशावली
-बाबा गणिनाथ वंशावली
–कानू (हलुवाई) जाति के गोत्र, इष्टदेव एवं कुलदेव
कानू (हलुवाई) जाति कश्यप गोत्र के माने जाते हैं । हलुवाई अपने इष्टदेव के रूप में मोदनसेन, यज्ञसेन, गणीनाथ तथा अन्य विभुतियों को पुजते हैं । वे विभिन्न देवी–देवता के रूप में गणपति, सूर्य, अग्नि, काली बन्दी का आराधना करते हैं । मूलतः हलुवाई के वंशज तीन सांस्कृतिक समूहों में होने का वर्णन अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा के वेबसाइट पर पाया गया है । मोदनसेनी हलुवाई मोदनसेन जी महाराज को, यज्ञसेनी हलुवाई यज्ञसेन जी महाराज को तथा मधेशी हलुवाई गणीनाथ जी महाराज से अपना वंश वृक्ष जुड़ा होने का विश्वास करते हैं । मोदनसेन जी कान्यकुब्ज (कन्नौज, उत्तरप्रदेश) में अवतरित हुए । यज्ञसेन जी बिठूर कानपुर (उत्तर प्रदेश) में अवतरित हुए । गणीनाथ जी गुरलामान्धता पर्वत पलवैया (बिहार) में अवतरित हुए । इसी क्षेत्रीय धरातल पर इनके वंशजों का विस्तार हुआ । अर्थात गणीनाथ, मोदनसेन और यज्ञसेन जी महराज तीनों समूह के कुलदेवता के रूप में पूजित होने का वर्णन पाया जाता हैं ।
वैश्य वंशवृक्ष की जड़ में मूल देवता भलनन्दन जी महाराज हैं । उपर अंकित श्लाकों के अनुसार प्रजापति ब्रह्मा के उरू देश से उत्पन्न भलनन्दन के पौत्र के रूप में मोदन उत्पन्न हुए । प्रजापति के द्वारा आयोजित यज्ञ में मोदनसेन जी महाराज को खाद्य–व्यवसायी (हलवाई) का चरित्र प्रदान किया गया उल्लेख होने से उनका वंशज मोदनसेनी (मोदनसेनी हलवाई) कहलाए । उसी तरह राजा दक्ष के यज्ञ के क्रम में यज्ञसेन उत्पन्न हुए । यज्ञसेन के वंशजो द्वारा यज्ञ–निर्मित पदार्थों को व्यापार करने के कारण यज्ञसेनी (यज्ञसेनी हलवाई) कहलाए । संत गणीनाथ एघारवीं सदी में उत्पन्न हुए । वे शिव की अवतार कहलाते हैं । गणीनाथ जी का पिता मनसा राम जी हलुवाई के १४ कुलदेवों में पूजित हैं । आस्था के आधार पर हलवाई जाति में कुलदेवता निम्न प्रकार हैं —
१. हलवाई (मोदनवाल) ः मोदनसेन जी महाराज
२. हलवाई (यज्ञसेनी) ः यज्ञसेन जी महाराज
३. कानू हलवाई ः गणीनाथ जी महाराज
४. कान्य कुब्ज वैश्य (भूर्जि) ः बाबा पलटू दास
५. भौज्य हलवाई ः चन्द्रदेव जी महाराज
६. क्रोंच हलवाई ः कंकाली बाबा
७. गुडिया वैश्य ः यह घटक उड़ीसा प्रान्त में गुड का व्यवसाय और गुड की स्वादिष्ट मिष्ठान बनाने का कार्य करते हैं ।
मोदनसेन जी महाराज
आदि काल में प्रजापति ब्रह्मा के द्वारा विश्व कल्याण के लिए सभी देवी–देवता, ऋषि सम्मिलित महायज्ञ आयोजन किया गया । यज्ञ में मोदनसेन जी पर भोजन व्यवस्था का दायित्व था । भांती भांती के व्यञ्जन और मिष्ठान बनाकर यज्ञजनों को सन्तुष्ट करने के कारण उनको इस कार्य (पाकशास्त्र) के आचार्य घोषित किया गया । बाद में उनके वंशज इसी चक्र द्वारा संसार में फैले । मोदनसेन जी महाराज भलनन्दन जी की चौथी पीढ़ी में तथा उनके पूवर्ज मनु महाराज से सातवीं पीढ़ी में उत्पन्न हुये थे । आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व श्री मोदनसेन जी महाराज की जयन्ती कार्तिक शुक्ल (अक्षय नवमी) को मनाने की परम्परा मिली है ।
यज्ञसेन जी महाराज
प्रजापति दक्ष के यज्ञ के समय महर्षि भृगु ने ऋचाओं के गायन–आवाहन के साथ, ज्योंही यज्ञकुण्ड की दक्षिणाग्नि में घृताहुति दी, त्योंही यज्ञाग्नि से तप्त स्वर्ण की सी कांति लिऐ एक यज्ञ पुरुष प्रकट हुए । यह यज्ञ पुरुष कस्तुरी मृगों से जुते हुए, दिग्विजयी रथ पर आरूढ़, मणिमुकुटों को धारण किये हुए थे । उन्हें महर्षि मृगु ने ऋभु यज्ञसेन नाम से सम्बोधित किया । यज्ञसेन का विवाह ऋषिपुत्री दक्षिणा से हुआ और उनके ९२ पुत्ररत्न हुए । जो यज्ञ–निर्मित पदार्थों को बनाते व व्यापार करते थे । पुराण के प्रथम अंक के सातवें अध्याय के श्लोक ९३ से २९ तक यज्ञसेन वंश का वर्णन मिलता है । यज्ञसेन महाराज के वंशजो को यज्ञसेनी हलुवाई कहा जाता है । यज्ञसेन जी गुरु पूर्णिमा को अवतरित हुए थे । यज्ञसेन जी का उद्भव कहाँ हुआ था इस विषय में मंगली प्रसाद गुप्त ने लिखा है कि ‘बिठूर, जिला कानपुर (उत्तर प्रदेश) में हुए थे ।’ कुछ लोगों का मत है कि कानपुर से कुछ किलोमिटर दूर गंगा–तट पर जाजमऊ में हुये थे । तिसरा मत यह है कि यज्ञसेन जी महाराज मथुरा में हुये थे । कुछ का मत है कि यज्ञपुर तीर्थ (बिहार–उड़िसा) में हुये थे । इनमें बिठूर (कानपुर) ही ठीक प्रतीत होता है, यहाँ यज्ञ कीलक (कीलों) ब्रह्मशिला है, जहाँ पर यज्ञसेन महाराज ने एक महान यज्ञ किया था ।
गणीनाथ जी महाराज
वैशाली (बिहार ) की धरती मानवता के लिए अपने सर्वश्रेष्ठ योगदानो के लिए जानी जाती है . लोकतंत्र की जननी होने से लेकर वर्द्धमान महावीर की जन्मभूमि तथा गौतम वुद्ध की कर्मभूमि होने का सौभाग्य प्राप्त है . कलांतर में उसी क्रम में संत प्रवर बाबा गणीनाथ जी महाराज की चरण धूलि से पवित्र होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था .संत गणीनाथ जी का अवतरण भाद्र कृष्ण पक्छ जन्माष्टमी के बाद आगत शनिवार को वैशाली जिला के पलवैया नामक स्थान पर हुआ था .
भगवान शिव के मानस पुत्र अवतारी श्री गणीनाथ जी महाराज के पालक पिता और माता का नाम क्रमशः श्री मनसा राम साह एवं श्रीमती पनमतिया या पून्यमती था जो जाति के कानू थे . श्री गनिनाथ जी महाराज की शादी खेमा सती ( छेमा सती ) देवी के संग हुआ था , जिनसे तिन पुत्र -श्री गोविन्द जी महाराज ( बाल ब्रहमचारी) , श्री रायचंद्र राय जी , श्री श्रीधर राय जी थे तथा शीलमती `और सोनमती नामक दो पुत्रिया थी .गृहस्थ जीवन में होने के बावजूद भी श्री गनिनाथ जी का अवतरण लोक कल्याण तथा परम मानवीय मूल्यों की स्थापना हेतु था .उन्होंने अपनी आलौकिक शक्तियों से ना केवल समाज में व्याप्त बुराइयो को संवर्द्धन किया बल्कि साथ -साथ समाज में व्याधिग्रस्त तथा असाध्य रोगों से व्यथित लोगो का काया कल्प किया . स्थानीय राजा धरमपाल की आँखों की ज्योति और उसके एकलौते पुत्र की सर्पदंश से मृत्यु पश्चात भी जीवित होने की चमत्कार से प्रभावित होकर पलवैया राज उपहार स्वरूप श्री गनिनाथ जी महाराज को देने का चर्चा मिलाता है . बिहार राज्य के विभिन्न भाषाओ के लोक गीतों, लोक कथाओ में बाबा की महिमा , चमत्कार , जीवन लीला , पुत्रो की शौर्य -पराक्रम, उनके विवाह और लाल खान से युद्ध का चर्चा मगही, भोजपुरी , मैथली , अंगिका में विस्तृत रूप में है .
बाबा गनिनाथ जी महाराज ने अपने राज्य में कृषि ,गौ – रकछा और वाणिज्य विकाश पर बल दिया . वे तन्त्र मन्त्र , योग विदध्या , वेद तत्वों के मर्मग्य ज्ञाता , कुशल ज्ञानी और सैन्य संचालन में निपूर्ण थे . वे महान कर्मयोगी , संत- महात्मा, साधक , योगिधिराज़ और क्रन्तिकारी समाज सुधारक थे . धर्म की रक्छा के लिए शस्त्र उठाकर आतातायियो को परास्तकर तत्कालीन समाज को त्राण दिलाया वही सत हृदय का परिचय देते हुए युद्ध में बंदी लाल खान जैसे मुख्य आततायी का हृदय परिवर्तन कर अपना मुख्य सिपाहसलार ( शिष्य ) बना लिया . बाबा गनिनाथ जी ने कानू या मद्धेशिय वैश्य में मूल डीह का सरचना कर वर्ण संकट के दोष से उबरा . इस प्रकार संत शिरोमणि श्री गनिनाथ जी ने भारत के महान संत परंपरा के उच्चतम जीवन मूल्यों को पुनर्जीवित किया . बाबा गनिनाथ जी ने सभी जाति, वर्णो धर्मो के भेदभाव को भुलाकर मानवता के आदर्श का पाठ पढाया और जन कल्याण की सेवा में अपना जीवन को परित्याग किया . आज भी श्री गनिनाथ जी की पूजा कूल देवता के रूप में किया जाता है और उनकी भक्तो की संख्या करोडो से उपर भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशो के अतिरिक्त नेपाल, वर्मा ,बंगला देश आदि देशो में फैले हुये .
समाज के कुछ व्यक्तियों को बाबा गनिनाथ जी को नाथ संप्रदाय से जूडा ने का भ्रम डाला जा रहा है, जो जन भावनाओ, कूल देवता के प्रति आस्था और इतिहास के प्रति अन्याय है . यह सत्य है की नाथ सम्प्रदाय में गहनी नाथ नामक महान संत हुए जो नवो नाथ में से एक नाथ थे, उनके नाम के साथ आंशिक उच्चारण की समानतावश लोग गनिनाथ और गहनिनाथ को भूल या अज्ञानता वश एक मान कर चर्चा कर देते है. इस सन्दर्भ में लगभग अधिसंख्य समाज के इतिहासकारों , विद्वतजनों ने अपनी- अपनी लेखो, पुस्तकों में बाबा गनिनाथ जी को नाथ संप्रदाय से अलग माना है . इस संदरभ्य में मेरी समाज के कई बुजुर्गो , भक्तो और इतिहास के ज्ञाताओ से बात हुआ जिसमे श्री भोला नाथ “ मधुकर “ बाबा गनिनाथ उपन्यास के रचयिता, श्री गंगा प्रसाद आजाद सतमाल पुरी जी, कामेश्वर प्रसाद जी , डा पुष्पा गुप्ता , प्रध्यापक व सहयोगी डा सरोज प्रधान द्वारा रचित अन्वेषण पुस्तिका बाबा गनिनाथ , स्वय डा सरोज प्रधान जी , पलावैया धाम के मुख्य पंडा जी, बिभिन्न स्मारिकाओ, अपनी वाणी के मुख्य सम्पादक स्व रामावतार गुप्ता द्वारा आलेख , लोक गीतों ( मगही,भोजपुरी, मैथली, ब्रज्जिका , अंगिका ) में बाबा गनिनाथ जी के जीवन गाथाओ, आदि से बाबा गनिनाथ जी के जीवन चरित्र का सजीव वर्णन मिलता है.
–कानू (हलवाई )शब्द की उत्पति
हलवाई भारत में मिष्ठान बनाने वाले को कहते हैं। हलवाई भारत और पकिस्तान में एक जाति हैं जिनका मिठाईयों का पारंपरिक व्यवसाय होता हैं। अरबी शब्द हलवा, जिसका अर्थ मिठाई होता हैं, से हलवाई शब्द की उत्पत्ति मानी जाती हैं। हलवाई शब्द प्रसिद्द भारतीय मिष्ठान हलवा से लिया गया हैं। हलवाई हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्म में पाया जाता हैं। मोदनवाल, कांदु, आदि हलवाई समुदाय द्वारा प्रयोग किया जाने वाला उपनाम हैं।
फिल्म में बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख खान और अभिनेत्री दीपिका पादुकोण स्टारिंग फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस में शाहरुख खान, राहुल नामक हलवाई के किरदार में थे। जिसमे दीपिका पादुकोण (मीना के किरदार में) “डोंट अंडरएस्टीमेट द पॉवर ऑफ़ हलवाई” डायलॉग बोलते हुई दिखी।
–कानू (हलुवाई) जाति का विस्तार
आदि पुरुष श्री मोदनसेन महाराजा के वंशावली सम्बद्ध ग्रन्थों के अनुसार वैश्यों की ३५२ उपजातियां तथा १४४४ ग्रन्थों की संख्या बताई गई है । कानू (हलुवाई) जाति आज संसार भर में फेले हैं । परन्तु इस जाति का उद्गमस्थल कहाँ है ? कुलपुरुष मोदन जी ने अपना वंश पृथ्वी के किस खण्ड से विस्तार किया ? महाराज भलनन्दन जी कान्यकुब्ज देशाधिपति थे । जिनकी राजधानी महोदयपुरी थी । जो अब कन्नौज के रूप में जानी जाती है और यह उत्तर प्रदेश के अन्तर्गत पड़ता है । अस्तु मोदनसेन का विस्तार कान्यकुब्ज देश से हुआ । कालान्तर में मोदन वंशीय वैश्यों का कई वर्ग और उपवर्ग बना ।
यज्ञसेन जी का वंशज कान्यकुब्ज से निचे कानपुर क्षेत्र से हुआ और गणीनाथ जी का वंशज उससे निचे पटना आसपास से चारो ओर फैले । वैश्विक आप्रवासन का प्रभाव इन पर भी पड़ा । और हजारौं वर्ष के दौरान ये संसार भर फैले । कानू (हलुवाई) जाति का कान्यकुब्ज देश से लेकर मध्यदेशीय जनपदों तक का प्राचीन बसोवास आज भारत, नेपाल, पाकिस्तान, बंगलादेश में बटा हुआ है । नेपाल के मधेशी हलुवाई साह, साहु, साउ, गुप्ता, दास सरनेम से जाने जाते हैं । हलुवाई जाति भारत के विहार, वंगाल, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मगध, कन्नौज आदि क्षेत्र से ताल्लुक रखता है । उत्तर प्रदेश में मोदनवाल, यज्ञसेनी, हलुवाई, गुप्ता, पंजाव मे कम्बोज, अडोडा, उडिसा में गुडिया, पश्चिम बंगाल मे मायरा, दास टाइटल से जाने जाते हैं । इनका अभी तक ९–१० उप समूह देखा गया है । जैसे मधेशीया, मोदनसेनी, कान्यकुब्ज, यज्ञसेनी, मघिया, जैनपुरी, कानवो, कैथिया, नगारी, रावतपुरिया, बदशाही । इनकी भाषा क्षेत्र के आधार पर हिन्दी, मैथिली, बंगाली, अवधी, भोजपुरी रहा है । नेपाल मे हिमाली जिला को छोडकर महाभारत पहाड़ एवं तराई भूभाग के प्रायः सभी जगह इनकी कहीं सघन तो कहीं अल्प उपस्थिति पाया जाता है । फिर भी पूर्वी तराई के जिलों में तुलनात्मक रूप में अधिक जनसंख्या पाया जाता है । नेपाल में हलुवाई जाति सामाजिक–पिछड़ेपन एवं विभेद का सिकार हैं । सामाजिक चेतना की कमी के कारण यह अपनी मानवीय मूल्य, धार्मिक मान्यता, सांस्कृतिक गौरव, राजकीय अवसर, व्यावसायिक संरक्षण सर्वपक्षीय हक और अधिकार से वञ्चित हैं ।
-गोत्रों का महत्व एवं उत्पति
गोत्र की परिभाषा :- गोत्र जिसका अर्थ वंश भी है । यह एक ऋषि के माध्यम से शुरू होता है और हमें हमारे पूर्वजों की याद दिलाता है और हमें हमारे कर्तव्यों के बारे में बताता है ।
गोत्रों का महत्व :- जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्व है ।
1. गोत्रों से व्यक्ति और वंश की पहचान होती है ।
2. गोत्रों से व्यक्ति के रिश्तों की पहचान होती है ।
3. रिश्ता तय करते समय गोत्रों को टालने में सुविधा रहती है ।
4. गोत्रों से निकटता स्थापित होती है और भाईचारा बढ़ता है ।
5. गोत्रों के इतिहास से व्यक्ति गौरवान्वित महसूस करता है और प्रेरणा लेता है ।
गोत्रों की उत्पत्ति- हिन्दू धर्म की सभी जातियों में गोत्र पाए गए है । ये किसी न किसी गाँव, पेड़, जानवर, नदियों, व्यक्ति के नाम, ॠषियों के नाम, फूलों या कुलदेवी के नाम पर बनाए गए है । गोत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई इस सम्बंध में धार्मिक ग्रन्थों एवं समाजशास्त्रियों के अध्ययन का सहारा लेना पड़ेगा ।
धार्मिक आधार- महाभारत के शान्तिपर्व (296-17, 18) में वर्णन है कि मूल चार गोत्र थे- अंग्रिश, कश्यप, वशिष्ठ तथा भृगु । बाद में आठ हो गए जब जमदन्गि, अत्रि, विश्वामित्र तथा अगस्त्य के नाम जुड़ गए । गोत्रों की प्रमुखता उस काल में बढी जब जाति व्यवस्था कठोर हो गई और लोगों को यह विश्वास हो गया कि सभी ऋषि ब्राह्मण थे । उस काल में ब्राह्मण ही अपनी उत्पत्ति उन ऋषियों से होने का दावा कर सकते थे । इस प्रकार किसी ब्राह्मण का अपना कोई परिवार, वंश या गोत्र नहीं होता था । एक क्षत्रिय या वैश्य यज्ञ के समय अपने पुरोहित के गोत्र के नाम का उच्चारण करता था । अत: सभी स्वर्ण जातियों के गोत्रों के नाम पुरोहितों तथा ब्राह्मणों के गोत्रों के नाम से प्रचलित हुए । शूद्रों को छोड़कर अन्य सभी जातियों जिनको यज्ञ में भाग लेने का अधिकार था उनके गोत्र भी ब्राह्मणों के ही गोत्र होते थे । गोत्रों की समानता का यही मुख्य कारण है । शूद्र जिस ब्राह्मण और क्षत्रिय परिवार का परम्परागत अनन्तकाल तक सेवा करते रहे उन्होंने भी उन्हीं ब्राह्मणों और क्षत्रियों के गोत्र अपना लिए । इसी कारण विभिन्न आर्य और अनार्य जातियों तथा वर्णों के गोत्रों में समानता पाई जाती है । भाटी, पंवार, परिहार, सोलंकी, सिसोदिया तथा चौहान राजपूतों, मालियों, सरगरों तथा मेघवालों आदि कई जातियों में मिलना सामान्य बात है । सारांश में पुरोहितों तथा क्षत्रियों के परिवारों की जिन जातियों ने पीढ़ि सेवा की उनके गोत्र भी पुरोहितों और क्षत्रियों के समान हो गए । राजघरानों के रसोई का कार्य करने वाले सूद तथा कपड़े धोने का कार्य करने वाले धोबियों के गोत्र इसी वजह से राजपूतों से मिलते हैं । लम्बे समय तक एक साथ रहने से भी जातियों के गोत्रों में समानता आई ।
समाजशास्त्रिय आधार- समाजशास्त्रियों ने सभी जातियों के गोत्रों की उत्पत्ति के निम्न आधार बताए हैं-
1. परिवार के मूल निवास स्थान के नाम से गोत्रों का नामकरण हुआ ।
2. कबीला के मुखिया के नाम से गोत्र बने ।
3. परिवार के इष्ट देव या देवी के नाम से गोत्र प्रचलित हुए ।
4. कबिलों के महत्वपूर्ण वृक्ष या पशु-पक्षियों के नाम से गोत्र बने ।
समाजशास्त्रियों द्वारा उपरोक्त बताए गए गोत्रों की उत्पत्ति के आधार बहुत ही महत्वपूर्ण है । सभी जातियों के गोत्रों की उत्पत्ति उपरोक्त आधारों पर ही हुई है ।
–बीसवीं शताब्दी के पूर्व कानू समाज
भारत वर्ष के मानवीय भूगोल कर्म प्रधान रहा है । कर्म या व्यवसाय के आधार पर आज भी व्यक्ति व उनका सन्तती सम्बोधित होता है । किसी खास कर्म–व्यवसाय में संलिप्त व्यक्ति, परिवार और विस्तारित पारीवारिक संगठनों ने जातीय–संज्ञा प्राप्त की ।
देश, काल और परिस्थिति की धरातल पर सम्पूर्ण मानवीय समाज को कर्म–व्यवसाय के आधार पर चार वर्ण में वर्गीकृत कर जातीय संरचना का निर्माण हुआ । ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य व शूद्र । ईन चार वर्णों के भितर विभिन्न जाति एवं उपजाति विकसित हुआ । इन्हीं वर्ण एवं जातीय संरचना में वैश्य वर्ण अन्तर्गत हलवाई जाति बना । हलवाई को नेपाल में हलुवाई बोला जाता है । हलवाई का पृष्ठभूमि, चरित्र, जीवन और आजीविका ‘अन्न एवं अन्य फसल उगाना, उन पदार्थाें का पाककला के माध्यम से स्वादिष्ट व्यञ्जन और मिष्टान बनाना तथा देवी–देवता, ऋषि–मुनि, पितृ एवं समस्त समाज की क्षुधा को तृप्त करने’ जैसे सर्वाधिक प्राचीन सामाजिक आयाम और प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है । हमारा बहुत पिछला जीवन कबिलाई संस्कृति से जुड़ा हुआ है । कदाचित उन समूहों मे भोजन–प्रभारी (या समूह) भी जाति विशेष के रूप में सम्बोधित होते थे । हमें हमारी आदिम इतिहास, संस्कृति और पहचान पर गर्व है । हम अपनी विशिष्टताओं का स्मरण कर रोमाञ्चित होते हैं । और, यदाकदा टूटी–फूटी जातीय इतिहास और अशिक्षा–गरिबी से ग्रस्त अपने कुटुम्बों की बद्हाली देखकर दुःखी भी होते हैं ।
सम्भवतः इतिहासकारों ने जितनी सजगता एवं तत्परता राजवंशो के इतिहास लेखन में दिखाई है, उतनी जातीय इतिहास लेखन में नहीं । यही कारण है कि जातीय एवं उपजातीय इतिहास विशुद्ध रूप से सामने नहीं आ पाया है । यह खुशी की बात है कि सदियों से शोषित, पीडित, उपेक्षित आम जातियों में २० वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जातीय जागरण का श्री गणेश हुआ और वर्तमान दौर में यह एक उचाइ पर है । सांस्कृतिक जिज्ञासा, पहचान और समान जातीय महता की खोज तीव्र रूप में बढ़ गया है । हलवाई जाति भी इससे अछुता नहीं है ।
भारतीय वाङमय के अनुसार मोदनसेन जी महाराज, यज्ञसेन जी महाराज, गणीनाथ जी महाराज तथा महान संत पलटु दास एवं महाकवि जय शंकर प्रसाद जैसे वैश्य–हलुवाई जाति की महानतम विभुति इस समाज के नहीं बल्कि विश्व के गौरव हैं ।
हलुवाई जाति का प्रादुर्भाव और इतिहास की बातें वेदकाल से लेकर वर्तमान काल खण्डों तक विभिनन समय में सिर्जित यजुर्वेद (अध्याय–३२ सुक्ति–१२), अथर्ववेद गरुड़ पुराण (अध्याय ४४ क–१८), वराहपुराण, मनुस्मृति, गर्ग संहिता (खण्ड–७ अध्याय–८), वर्णविवेक चन्द्रिका, वर्ण विवेकसार जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों में उल्लेख है । आधुनिक काल में विभिन्न विद्वानों द्वारा हलुवाई जाति पर शोध कर विभिन्न ग्रन्थ, शोधपुस्तक, इन्टरनेट प्रकाशित किया गया है । शताब्दी पूर्व स्थापित अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा से लेकर उसके बाद विभिन्न काल में विभिन्न स्थान पर स्थापित संघ–संगठनों ने जाति एकीकरण का प्रयास किया है, जातीय इतिहास और संस्कृति का अध्ययन कर प्रसारित किया है और आधुनिक राज्य व्यवस्था में जातीय हिस्सा प्राप्त करने में क्रियाशील हैं ।
‘वर्णविवेक चन्द्रिका’ में सृष्टि का उत्पत्ति क्रम दिखाते हुए वैश्यों की उत्पत्ति और बाद में हलुवाई वैश्यों की उत्पत्ति का वर्णन निम्न लिखित अनुसार है —
देव देव महादेव लोकानां हितकाकार ।
वर्णानामाश्रमाणां च संकाराणां तथैवच ।।
उत्पत्तिं श्रोतु मिच्छासि विस्तरेण कृपानिधे ।
कृया तृत्या महादेव, फलौ तिष्ठेच मानावः ।।
अर्थात— ‘श्री पार्वती जी ने देवों के देव श्री महादेव जी से पूछा कि हे कृपानिधे ! मनुष्यों के वर्ण, आश्रम, उत्पत्ति तथा संकरों के भेद क्या है ? कृपया लोकों के हित के लिए विस्तार पूर्वक कहिये ।’ इस पर श्री महादेव जी ने कहा—
श्रृणु देवी प्रवक्ष्यामि जातीनांच विनिर्णयम् ।
अव्यक्ताच समुत्पन्ना ब्रह्मविष्णु महेश्वराः ।।
ब्राह्मण निर्मिता वर्णामुख बाहुरूपादतः ।
ब्राह्मणः क्षत्रियों वैश्यः शूद्रश्रैव यथा क्रमम ।।
अर्थात— ‘हे देवी ! सुनो ! जातियों का विवरण इस तरह है कि, पहले अव्यक्त यज्ञ से ब्रह्मा, विष्णु , महेश्वर उद्धत हुए । फिर प्रजापति (ब्रह्मा) ने मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रीय, उरू से वैश्य और पाद से शूद्र वर्ण रचे ।’ फिर
मरीचिरत्र्यंगिरसौ पुलस्यः पुलहः क्रतुः ।
भृगुर्वशिष्ठ श्रयवो नारदो दक्ष एच च ।।
तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च ब्राह्मणेषु प्रतिष्ठिताः ।
वेदाध्ययन सम्पन्ना स्त्रिषु वर्णाषु पूजिताः ।।
अर्थात— मरीचि, अंगिरा, पुलस्य, पुलह, क्रत, भृगु, वशिष्ठ, श्रयव, नारद और दक्ष के पुत्र प्रभृति से ब्राह्मणों का वंश चला । और ये, वेदादि से सम्पन्न तीनों वर्णो से पूजित और गोत्रकार ऋषि हुए । और —
ब्राह्मणो बाहु देशाश्च मनुः स्वायंम्भुवोऽभवत् ।
वाम वाहोः समुत्पन्नां शतरूपा पतिव्रताः ।।
तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च क्षत्रवंशे प्रतिष्ठिताः ।
चतुर्दशमनूनां च वंशास्ते क्षत्र जातयः ।।
अर्थात— प्रजापति के दाहिने बाहु देश से स्वायम्भुवमनु तथा बाहु से उनकी स्त्री शतरूपा नास्त्री उत्पनन हुई । इनके पुत्र पौत्र प्रभृति क्षत्रीय वंश के प्रतिष्ठित हुए ।
इसके बाद —
अरूदेशात्समुतपन्नों ब्राह्मणः प्राणवल्लभे ।
भलनदनेति विख्यातस्तस्य पत्नी मरूत्वति ।।
वत्समीति सुतस्तस्य प्रांशुस्तस्याऽभवनसुतः ।
प्राशोः पुत्राः षडासन्वै तेषां नामानिमे श्रृणु ।।
मोदः प्रमोदो बालश्च मोदनश्च प्रमर्दनः ।
शंकुकर्णेति विख्यातस्तेषां कर्म पृथक् पृथक ।।
अर्थात— प्रजापति के उरू देश से वैश्यों के मूलपुरुष भलनन्दन और उनकी स्त्री मरूत्वती नाम से पैदा हुई । इनके पुत्र वत्सप्रीति, वतसप्रीति से प्रांशु हुए । प्रांशु के छः पुत्र हुए जिनका नाम क्रमशः मोद, प्रमोद, बाल, मोदन, प्रमर्दन, शंकु और कर्ण हुआ । इनके कर्म भी पृथक पृथक हुए ।
मोदनस्य च वंशाये मोदकानां प्रकारकाः ।
वैश्य वृत्ति समाश्रित्य संजाताः पृथिवीतले ।।
अर्थात— मोदन के वंश में, मोदक (लड्डू) आदि का व्यवसाय करने वाले— वैश्य उत्पन्न हुए । जो कि इस वैश्य वृत्ति के द्वारा संसार में फैले । वर्णविवेक चन्द्रिका के अनुसार भलनन्दन और मरूत्वती नाम से उत्पन्न मोदन से हलुवाई जाति की विकास हुई ।
जिस तरह माली द्वारा तोडा गया फूल, डोम द्वारा बनाया गया बा“स का वर्तन, कुम्हार द्वारा बनाया गया मिट्टी का वर्तन धर्म कार्य हेतु शुद्ध माना गया हैं, उसी तरह सिर्फ हलुवाई द्वारा बनायी गई नेवैद्य ही देवी देवता को अर्पण करने के लिए शुद्ध माना गया हैं ।
मोदनसेन, मोदक और मोदनवाल
मोदनसेन महाराजा के बाद व्यञ्जन÷मिष्ठानादि के लिए जातीय कर्म में निरूपित हुए । उनका मूल नाम ‘मोदन’ से मोदक शब्द बना जिसका तात्पर्य सर्वोत्कृष्ठ मिष्ठान्न होता है । संस्कृति में ‘मोदक’ शब्द का अर्थ इस प्रकार दर्शाया गया है— मुद वर्ष ददति मोदक यानि जो सबको आनन्दित करें । मोद से ही मधु अर्थात मिठा होता है । उसी तरह मोदन का अर्थ बताया गया है— जिसमें सबको आनन्दित करने की क्षमता निहित हो । इस तरह संस्कृत के भावार्थ में ‘मोदन’ एक व्यक्तित्व के रूप में और ‘मोदक’ एक वस्तु के रूप में प्रतीत होता है ।
मोदक को बोलचाल में लड्डु कहते हैं । एभयउभि न्चयगउक क्ष्लमष्बके वेवसाइट के अनुसार मिष्ठान बनाने बाले हलुवाई प्रथम पुजीत भगवान् श्री गणेश जी का प्रिय भोजन मोदक (लड्डु) बनाने वाले के नाम से जाने जाते हैं । इसिलिए मोदक बनाने वाले मोदनवाल के रूप में परिचित हैं । आटा, चिनी, घी, बदाम, पिस्ता और केशर के मिश्रण से बनने वाला स्वादिष्ट मिष्टान्न ‘हलवा’ बनाने वाले को हलवाई कहा गया है ।
किन्तु अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा (भदोही, संतकवीरनगर, उत्तरप्रदेश) इस बात से सहमत नहीं है । महासभा की शताब्दी प्रवाह स्मारिका के अनुसार एक मात्र ‘हलवा’ से ‘हलवाई’ समझना उचित नहीं है । क्यों कि हलवा शब्द यहाँ का नहीं है— अरब आदि यवन देशों का है । यहाँ इस तरह के मिष्ठान को ‘मोहनभोग’ कहा जाता है । हलुवाई शब्द हलवा बनाने को लेकर नहीं, बल्कि ‘हलवाही’ शब्द अपभ्रंश होकर हलवाई हुआ जिसका तात्पर्य हल जोतना होता है । हलवाही कर अन्न उगाना और उसका मोदक आदि मिष्ठान सहित विभिन्न व्यञ्जन बनाने के कारण ये हलवाई तथा मोदनवाल आदि शब्दों से परिचित हुए । ‘वाल’ शब्द समूह वाचक है । संस्कृत में इसका अर्थ है— वृक्ष । ये चारो ओर से मिट्टी के घेरे से मेढ़ बन्दी कर दी जाती है । उसे वाल कहा गया है । अतः मोदनवाल सगुणों से परिपूर्ण प्रतीत होता है । हलुवाई जाति विशेष को मोदनवाल टाइटिल से पुकारा जाता था । आज हलुवाई जाति विभिन्न टाइटिल प्रयोग करने लगे है.। मोदनवाल हलुवाई का इतिहास मोदनसेन महाराजा के साथ शुरू होता है । मोदक बनाने वाले मोदनसेन कहलाए ।
–धर्म गुरु की प्रेरणा
धर्म गुरू बाबा गणिनाथ जी महाराज कानू समाज में सनातनी धर्म परम्परा के अग्रणीय संत महापुरूष हुए । आपने समाज को अंधकारमय परिस्थितियों से मुक्ति हेतु संस्कारित करने, सामाजिक, धार्मिक व शैक्षणिक चेतना तथा विभिन्न सुधारों द्वारा समाज को संगठित करने में विशेष भूमिका रही ।
बाबा गणिनाथ जी महाराज के द्वारा किये सद्कार्यों व जीवन संबंधित परिचय या उल्लेख, ‘सर्य’ को ‘दीप’ दिखाने के समान है । परन्तु ऐसा करना भी अवश्यमभवी है, ताकि बाबा गणिनाथ जी महाराज का तेजोमय दिव्य प्रकाश इन शब्दों के माध्यम से वर्तमान व भविष्य में आने वाली पीढ़ियों तक पहुँच सके तथा कानू समाज में उत्पन्न हुई, इस जीवन दायिनी गंगधार रूपी, मानव जाति के लिये कल्याणकारी परम्परा को, निरन्तर, निर्विघ्न, सुचारू रखा जा सके व इससे अनन्त युगों तक प्रेरणा प्राप्त होती रहे ।
मनुष्य में प्रेम-बन्धुत्व हो, सामाजिक कुरीतियों का नाश हो ।
चहुँ-मखी विकास हो, शिक्षा तथा ‘विवेकशील ज्ञान’ का प्रकाश हो ।।
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दया दान सत नम्रता, सब घट हरि समान ।
ज्ञानस्वरूप यह भक्त का लक्षण जान ।।
मान्यजन प्रथा
मान्यजन प्रथा हलवाई जाति का एक सांगठनिक प्रथा है । यह एक प्राचीन जातीय संगठन है जो सभी वैश्य तथा अन्य जातजातियों में भी है । जातीय बाहुल्य इलाका या गावं मान्यजन प्रथा के मातहत संगठित होता था । संगठन के मुखिया को मान्यजन कहा जाता था । जातीय विवाद को सुल्झाने प्रमुख जिम्मेवारी मान्यजन का होता था । उन्हें पुरस्कृत करने या दण्ड देने का अधिकार होता था । कुछ प्रमुख व्यक्ति या सामूहिक÷जातीय छलफल के आधार पर मान्यजन अपना निर्णय देते थे । विवाह, श्राद्ध जैसे संस्कार में मान्यजन का परामर्श लिया जाता था । भोज कार्य में सामूहिक न्यौता मान्यजन के मार्फत दिया जाता था । मान्यजन अपनी कार्य सम्पादन करने हेतु सहयोगी नियुक्त करते थे । आज कल मान्यजन प्रथा संकुचित होते गया है ।
–कुछ ऐतिहासिक तथ्य
-सामाजिक संगठन
अखिल भारतीय मध्यदेशीय वैश्य सभा की स्थापना सर्व कानू समाज के उत्थान के लिए पूर्वजो ने 1905 में मुजफ्फरपुर बिहार में किया था . जो दिल्ली से पंजीकृत है और इसका पंजीकरण संख्या – 27613 है. इस संगठन का कार्य क्षेत्र सम्पूर्ण भारत , नेपाल और भूटान है .
सामाजिक उत्थान के लिए वर्ष 2003 में समाज के प्रबुद्ध लोगो के द्वारा कानू कल्याण महासभा की स्थापना मुजफ्फरपुर में किया गया जो बिहार सरकार से पंजीकृत संस्था है . इसका पंजीकरण संख्या-869 / 2003 -2004 है .इस संस्था का कार्य क्षेत्र सम्पूर्ण बिहार है .
नोट- इसके अतिरिक्त सर्व कानू समाज में अन्य संगठन भी कार्यरत है जिसकी सूची शीघ्र ही अपडेट किया जाएगा .
Our Heroes
–समाज के गौरव
सर्व कानू समाज की गौरवगाथा बहुत लम्बी है । हमारे समाज में अनेकों मनिषियों का जन्म हुआ जिन्होंने हमारे समाज के गौरव को चार चाँद लगाए और समाज को गौरवान्वित किया है । उनकी यशो गाथाऐं सदा-सदा के लिए अमर रहती है, अतीत के सुनहरे कल को आज जिन्होने प्रेरणा स्त्रोत के रूप में दिखाया, ऐसी महानआत्माओं को हम कोटी-कोटी प्रणाम करते है जिनके सदकर्मों से समाज गोरवान्वित हुआ है । ऐसे हमारे समाज के महात्माओं ने हमारी आने वाली पीढ़ि के मार्गदर्शन एवं प्रेरणा स्त्रोत बनकर समाज को और गौरवशाली बनाते हुए एक आदर्श व अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है । हमारे समाज में अनेको ऐसी विभुतियों हुई है जिन्होंने समाज के साथ-साथ देश के लिए भी अपना बलिदान दिया है । हमारे समाज के बन्धुओं ने ऐतिहासीक कार्य किए जिन्हें आज मिसाल के तोर पर देखा जाता है । हमारे समाज में समाज सुधारक ऐसे कई संत महात्मा हुए है उनमें अनुभव के आलोक, आदर्श जीवन की प्रतिभा पलटू दास जी महाराज और आदर्श प्रतिभा के धनी सरयुग दास जी,स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस, संत पलटू प्रसाद,संत हुलास दास ,संत गरीब दास,संत विश्वनाथ प्रसाद ,संत केशो दास ,(साभार- शक्ति प्रेस रीवा) श्री बाबा गया दास परमहंस ने अपना पूरा जीवन सम्पर्पित कर दिया । सर्व कानू बन्धुओं ने अपने देश प्रेमी होने का प्रमाण देते हुए स्वतन्त्रता संग्राम की लड़ाई में अग्रेजों से लोहा लिया ओर देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ओर अपना जीवन देश के लिए बलिदान कर दिया ओर समय आने पर स्वतन्त्रता सेनानीयों ने समाज की सेवा भी की ओर समाज हीत में भी अपना योगदान दिया । समाज के राजनीतिज्ञों ने समाज को राष्ट्रीय स्तर पर एक नई पहचान दिलाते हुए देश की सेवा की है और समाज ने राजनीति में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए मंत्री,विधायक, पार्षद दिये है जिनसे समाज का गौरव बढ़ाया है । हमारे समाज के उदार हृदय, सरलता की प्रतिमूर्ति स्व.श्री विष्णु प्रसाद (बलिया),स्व.श्री मुकुंदलाल जी (दरभंगा),स्व. माधव लाल जी (मुजफ्फरपुर),स्व.श्री हजारीलाल जी (पटना),स्व.श्री शिव प्रसाद जी(बलिया),स्व.श्री बैजनाथ प्रसाद जी (मुजफ्फरपुर),स्व.श्री रईस लाल गुप्ता (बिहार),स्व.माखन लाल गुप्त (गोरखपुर), स्व.पाना लाल आर्य (आरा),स्व.प्रो.लक्ष्मी नारायण सिरिस (दानापुर) दानवीर धर्मनिष्ठ भामाशाह सेठ स्व.श्री राय बहादुर टुनकी साह (मुजफ्फरपुर), स्व. श्री शिव देनी राम (चम्पारण), स्व.श्री राम अयोध्या प्रसाद (चम्पारण) हमारे समाज के ऐसे रत्न है जिनका समाज हमेशा आभारी रहेगा इनके सदकर्मों एवम् महान कार्यों ने समाज का मान-सम्मान बढ़ाया है ओर समाज को एक नई दिशा और गति प्रदान की है श्री नन्द कुमार साह उर्फ़ नंदू बाबू जी ने ऐतिहासिक कानू अधिकार रैली मुजफ्फरपुर, और श्री मुनेश्वर प्रसाद कानू ने बंसी चाचा शहादत दिवस पटना में आयोजित कर समाज को एक राजनैतिक ताकत दिया. यह कानू समाज के इतिहास में बहुत ही सुनेहरा अवसर था, डॉ.विनोद गुप्ता जी ( अयोध्या), स्व. श्री भवानी फेर साव (कलकत्ता) अखिल भारतीय मध्यदेशिये वैश्य सभा दिल्ली प्रदेश ने समाज में वर्षो से विवाह सम्मेलन निशुल्क करवाकर नया र्कितीमान बनाकर कानू समाज का गौरव बढाया है ओर समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है ओर कर रहे है । स्व.राय साहब लक्ष्मण प्रसाद, श्री अशोक कुमार, श्री राज कुमार प्रसाद आदि ने अपनी उच्च शासकीय सेवाओं से समाज के गौरव में अदभूत प्रतिभा का परिचय दिया है जो समाज के लिए गर्व की बात हैं । ऐसी हमारे समाज की महान आत्माओं एवं महात्माओं ने हमारी आने वाली पीढ़ि के मार्गदर्शन एवं प्रेरणा स्त्रोत बनकर समाज को और गौरवशाली बनाते हुए एक आदर्श व अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है ।
ईश-वन्दना
वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्त्तव्य मार्ग पर डट जाएं ।
पर सेवा पर उपकार में हम, निज जीवन सफल बना जाएं ।।
हम दीन दु:खी निबलों विकलों, के सेवक बन सन्ताप हरें ।
जो हैं अटके भूले-भटके, उनको तारें खुद तर जाएं ।।
छल दम्भ द्वेष पाखंड झूँठ, अन्याय से निशि-दिन दूर रहें ।
जीवन हो शुद्ध सरल अपना, शुचि प्रेम सुधा रस बरसाएं ।।
निज आन मान मर्यादा का, प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे ।
जिस देश जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जाएं ।।
–समाज के संत महात्मा
–समाज के ऐतिहासिक कार्य
–समाज के स्वतंत्रासेनानि
एक समय हुआ करता था जब भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था एवं उसमें दुध दही की नदियां बहा करती थी, यह सत्य है लेकिन अंग्रेजों ने भारत के राजा-महाराजओं की आपसी फूट का नाजायज़ फायदा उठाकर कई बहुमुल्य हीरे-जवाहरात, सोना-चांदी एवं अमूल्य साहित्य कब्जें में लेकर अपने देशों में लेकर चले गये । अंग्रेजी हकुमत ने भारत एवं भारतवासियों पर तरह-तरह के जुल्म ढाने लगी । अत्याचार चरम सीमा पर थे । तब देशभक्तों ने भारत को आजाद करने का दृढ़ संकल्प लिया और उसको क्रियान्वित करने में लग गये । महात्मा गांधी ने अहिंसात्मक तरिके से विदेशी हकुमत के खिलाफ पूरे राष्ट्र में स्वतंत्रता संग्राम का आन्दोलन प्रभावित रूप से चलाने का प्रयास किया । दूसरी ओर गर्म दल ने हिंसा-तोड़फोड़ का रास्ता अपना कर अंग्रेजों को यह जता दिया की आजादी हर किमत पर हम लेकर रहेंगे । देश का हर बच्चा-बच्चा आजादी का दिवाना हो चुका था । इस आन्दोलन मे कई स्वतंत्रता सैनानियों को कठोर यातनाएं दे बेरहमी से जेल में ठूस दिया गया तो कईयों की आखों में गरम-गरम सलाखें डालकर जिन्दगी भर के लिए अन्धा कर दिया गया । तो कईयों को गोलियों से छन्नी कर दिया गया । इस प्रकार कई देशभक्तों ने स्वतंत्रता बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति प्रदान की ।
जन चेतना के लिए स्वतंत्रता सेनानियों ने समाचार पत्रों, सूचना पत्रों, नारों, भाषणों का सहारा लेकर देश को आजादी के लिए प्रेरित कर आजादी नई लहर को देश के कोने-कोने तक पहुँचा दिया । देश की आजादी के इस पावन यज्ञ में हर जाति वर्ग तथा धर्म के लोगों ने अपना योगदान दिया ओर इस योगदान में हमारी सर्व कानू जाति भी पीछे नहीं रही और सर्व कानू समाज के सपूत आजादी के लिए सब कुछ न्यौछावर करने तो तैयार थे ओर वे भारत को आजाद कराने के लिए तन-मन-धन से स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े । इस पावन यज्ञ में सर्व कानू समाज के योगदान की ओर दृष्टि डाले तों सर्व कानू समाज के जिन सपूतों ने सक्रिय होकर स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लिया सर्व श्रद्धेय श्री पब्बर राम (गाजीपुर ,उत्तरप्रदेश) , श्रद्धेय श्री रामचंद्र प्रसाद साह उर्फ़ बजरंज बली (हाजीपुर, बिहार ), श्रद्धेय श्री बंशी साह उर्फ़ बंशी चाचा (सीतामढ़ी , बिहार ) , श्रद्धेय श्री बादल गुप्ता (बंगाल ) (18 वर्ष की उम्र में भगत सिंह के साथ फांसी ,अभिलेख सेंट्रल जेल मुजफ्फरपुर में उपलब्ध ), श्रद्धेय श्री दिनेश गुप्ता (बंगाल ) (19 वर्ष की उम्र में भगत सिंह के साथ फांसी, अभिलेख सेंट्रल जेल मुजफ्फरपुर में उपलब्ध) , श्रद्धेय श्री रईस लाल गुप्ता क्रांतकारी (पश्चमी चम्पारण , बिहार ) , श्रद्धेय श्री सूरज साह (बेतिया, बिहार), श्रद्धेय श्री जानकी राम (मुजफ्फरपुर,बिहार), श्रद्धेय श्री प्रो.भुवनेश्वर प्रसाद (बेगूसराय,बिहार),श्रद्धेय श्री साधु शंकर गुप्ता (उज्जैन,मध्यप्रदेश), श्रद्धेय श्री नंदराम गुप्ता (ग्वालियर,मध्यप्रदेश), श्रद्धेय श्री चंद्रशेखर प्रसाद (बलिया, उत्तरप्रदेश), श्रद्धेय श्री सीताराम गुप्ता ( बलिया,उत्तरप्रदेश), श्रद्धेय श्री चन्द्रिका गुप्ता (बलिया, उत्तरप्रदेश), श्रद्धेय श्री फूलचंद गुप्ता (मऊ, उत्तरप्रदेश),स्व0 श्री हरि प्रसाद आर्य (क़ानू)प्यारेपुरा, मऊ (यू0 पी0),स्व0 विश्वनाथ प्र0 गुप्त अमिला, मऊ (यू0 पी0),श्री महावीर प्र0 गुप्त ” बिगुलर” ईशापुर , जौनपुर ,( यू0 पी0),स्व0 डॉ0 सरयू प्र0 गुप्त सिवान , (बिहार),प्रो0 स्व0भुवनेश्वर प्रसाद चेरिया बरियारपुर, बेगुसराय (बिहार),स्व0 श्री अर्जुन साह बलहा नरायणपुर , भागलपुर (बिहार ) (अन्य कई नाम अभी जुड़ना बाकी है ) आदि का नाम मुख्य रूप से उल्लेखनिय है । राष्ट्रीय आन्दोलनों में अग्रणी रहते हुए इन्होंने पुलिस के डंडे खाए, गिरफ्तारियां दी तथा जेल जाकर कठोर यातनाएं सही । एवं साथ ही राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाते हुए राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान अपनी गिरफ्तारियां देकर मातृभूमि के प्रति अपना फर्ज निभाया ।
परन्तु दुर्भाग्य है की राष्ट्रीय आन्दोलनों में छ: माह से अधिक की जेल काटने वाले और स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने वाले अनेको सर्व कानू देश भक्तों को सरकार ने अभी तक स्वतंत्रता सेनानी घोषित नहीं किया है ।
–समाज के राजनीतिज्ञ
सर्व कानू समाज बहुत लम्बे समय से पिछड़ा हुआ है । जिसको छोटा -मोटा व्यवसाय ,मेहनत मजदूरी कर अपना पेट रोजाना भरना पड़ता है लेकिन अब धीरे-धीरे स्थिति सुधरने की उम्मीद दिख रही है । आज हमारे समाज ने अपनी राजनैतिक जड़े मजबूत करने के प्रयास में है और हमारे समाज के बंधुओं ने ग्राम पंचायत से लेकर मंत्री पद तक अपनी दावेदारी साबित की है और समाज का गौरव बढाया है ।
पूर्व में समाज के स्व.श्री पब्बर राम जी विधायक रहकर उत्तरप्रदेश से, स्व.श्री हरी प्रसाद साह जी विधायक एवं मंत्री रहकर बिहार से, स्व.श्री इंद्र कुमार जी एमएलसी रहकर बिहार से,स्व.श्री राम लाल भाई उत्तरप्रदेश से, स्व.श्री शुकदेव प्रसाद साह विधायक रहकर बिहार से , श्रीमती चंद्रमुखी देवी विधायिका रहकर बिहार से,श्री सतीश कुमार विधायक रहकर बिहार से , श्री राजेंद्र प्रसाद गुप्ता एमएलसी रहकर बिहार से , श्री भैया जी कंदोई इंदौर म्युनिस्पल कॉर्पोरेशन इंदौर मध्यप्रदेश से समाज का गौरव बढ़ाते आये है . उत्तर प्रदेश से सर्व क़ानू समाज के प्रथम विधायक स्व0 श्री किशन लाल मद्धेशिय नानपारा , बहराइच (यू0 पी0) ( जनसंघ ,1965 ) समाज का गौरव बढ़ाये है .
वर्तमान में श्री प्रमोद कुमार विधायक सह कैबिनेट मंत्री बिहार सरकार , श्री केदार प्रसाद गुप्ता विधायक के रूप में बिहार से , श्री राधा चरण सेठ एमएलसी के रूप में बिहार से , श्री सुदामा साह विधायक के रूप में बिहार से और श्री अजय कुमार उर्फ़ लल्लू भैया जी विधायक सह नेता प्रतिपक्ष के रूप में उत्तरप्रदेश से , श्री विजय कुमार गुप्ता चेयरमैन असम वित्तीय निगम के रूप में असम से, के अतिरिक्त बिभिन्न राज्यों में जिला परिषद अध्यक्ष ,नगरपालिका अध्यक्ष ,पार्षद ,ग्राम प्रधान ,वार्ड सदस्य,सरपंच , आदि के रूप में अनेको हमारे समाज के लोग समाज का गौरव बढ़ा रहे है .
समाज वही आगे बढ़ता है जिसमें भविष्य की सोच हो, चिन्तन हो । साहित्यकार चिन्तनशील होता हैं । इस लिए वह समाज को दिशा देता है । जिस समाज या जाति का साहित्य नहीं वह दिशाहीन है । वह भटका हुआ समाज है । साहित्य प्रगतिशील समाज की पहचान है । साहित्य का महत्व- मनुष्य के जीवन में साहित्य का बहुत बड़ा महत्व है । मनुष्य के लिए जितना भोजन आवश्यक है, साहित्य भी उतना ही जरूरी है । साहित्य मनुष्य के मस्तिष्क की खुराक हैं । मनुष्य को ज्ञान साहित्य से ही प्राप्त होता है साहित्यकारों ने अनकों लोगों के जीवन को बदला है और जीने की राह दिखाई है । इतिहास गवाह है कि दुनिया में जितनी भी क्रांतियां हुई है उनके जन्मदाता दार्शनिक और साहित्यकार ही है । साहित्यकारों ने युग की दिशाओं को मोड़ा है । साहित्याकर की कलम में असीम ताकत होती है । जो समाज को उचाईयों तक पहुँचा सकती है । किसी भी समाज के विकास और उन्नती में साहित्य का अपना महत्व होता है । सर्व कानू समाज में भी अनकों साहित्यकार हुए है (जिनके नामो की सूची जल्द ही उपलब्ध कराई जा रही है ) जिन्होंने अपनी कला, कार्यकुशलता, लगन, निशकाम सेवा भाव और प्रगतिशील विचार धारा से समाज को नई दिशा दिखाई है । समाज को नई राह दिखाने में हमारे समाज के साहित्यकारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिससे समाज में जागरूकता पैदा हुई है । हमारे समाज में साहित्यकारों की कोई कमी नहीं है । साहित्य के साथ ही समाज का विकास पूर्ण रूप से हो सकता है । इसलिए समाज के हर व्यक्ति को चाहिए कि वह साहित्य के महत्व को समझे ।
-समाज की पत्र-पत्रिकाएं
1905 ई0 में महासभा की स्थापना के साथ ही हमारे पूर्वजों ने समाज की माली हालत में सुधार के लिए चिन्हित कर ससक्त संगठन और शिक्षा पर विशेष बल दिया । इसी समय स्व0श्री मुकुंद लाल जी द्वारा ” कान्दू गोहार ” नामक प्रथम पत्रिका संज्ञान में आता है जो काफी सुर्खियां बटोरीं ।
“दूर अविद्या करो भाईयो, टाट कुटुम्ब और गोतिया से ।
करो जाति काअब गोहार,मिल चुटकी, चन्दा, मुठिया से ।।”
इसी “कान्दू गोहार ” पत्रिका ने लोगों में हलचल मचा दिया, क्योकि उसमे जाति की हीनावस्था के वर्णन ये लाइने कहि गयी थी —
” हुआ कही पर भोज- भात, तब कानू कौवे आते है।
काँव काँवकर , लड़ते भिड़ते , खा पीकर उड़ जाते है।।
सम्भवतः महासभा द्वारा ” वैश्य मित्र “नामक एकमात्र पत्रिका का प्रकाशन किया गया, जो सम्भवतः 1964 ई0 तक चला , समाज को जनसंदेश देने के लिए आजतक कई नामो से पत्र पत्रिकाएं क्रमशः आते -जाते रहे है परन्तु कोई भी पत्र -पत्रिका सुचारू रूप में नही चल पाया वैसे समय -समय पर प्रयास होता रहा कई पत्रिकाएं अल्प आयु तक प्रकाशित होती रही और कालकलवित धन की कमी , इच्छाशक्ति , आपसी तालमेल के आभाव में इतिहास बनता रहा है। लम्बे काल तक समाज को सेवा देने वाली पत्रिकाओ में सम्पादक श्री प्रेमी हृदय द्वारा ” वैश्य वाणी “( पटना), “गंगोजी गणिनाथ गोविन्द जी पत्रिका” (पटना ) , सम्पादक श्री हरेकृष्ण शाह , सम्पादक श्री रामावतार गुप्त द्वारा “अपनी वाणी ” (कलकत्ता), ” वैश्य मित्र” (शक्ति प्रेस , रीवा), श्री राजीव रंजन जी के संपादकीय में ” मधुर वाणी” (बोकारो), श्री राम कुमार गुप्ता के सम्पादकीय में ” वैश्य लहर” (लखनऊ) रहा है ।
प्रो0 जनार्दन प्रसाद , सुल्तानगंज के सम्पादन में “ज्योति ” (भागलपुर कमिशनरी),” वैश्य बन्धु, वैश्य संगम “, “वैश्य सन्देश “(मुंगेर) , श्री एस के निराला के सम्पादकीय में “बाबा गणिनाथ गोविन्द जी सन्देश “(रांची), श्री राजेश्वर प्रसाद नेपाली के संपादकीय में ” गोविन्द सन्देश” (जनकपुर ,नेपाल), “वैश्य चेतना” त्रैमासिक (बनारस) आदि समाज मे आये और गये। इन सभी के प्रकाशन पर पूर्णविराम का कारण लगभग समान है। समय- समय पर लगभग सभी प्रदेशों ने तथा महासभा की राष्ट्रीय कमेटी ने स्मारिका , समाचार पत्र बुलेटिन आदि प्रकाशित करती आई है ।
जबकि वर्तमान में मुजफ्फरपुर से एकमात्र समाज की पत्रिका ” पुनरो उत्थान” त्रैमासिक जीवित है। जिसके मुख्य सम्पादक श्री गोपाल भारतीय जी है।
SABHAR : sarvkanusamaj.wordpress.com
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