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Thursday, October 31, 2024

CA INTERMIDEATE TOPER GIRLS - ALL OF THREE ARE VAISHYA BANIYA

CA INTERMIDEATE TOPER GIRLS - ALL OF THREE ARE VAISHYA BANIYA

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया (ICAI) ने आज सीए फाउंडेशन और इंटरमीडिएट परीक्षा 2024 का रिजल्ट जारी कर दिया है. इस साल की परीक्षा में टॉप थ्री में लड़कियों ने बाजी मारी है. इस साल सीए इंटरमीडिएट परीक्षा में शीर्ष रैंक पर महिलाएं हावी रहीं, जिसमें मुंबई की परमी उमेश पारेख पहले स्थान पर रहीं. इसके बाद तान्या गुप्ता और विधि जैन रहीं.


मुंबई की परमी उमेश पारेख को इस परीक्षा में 500 में से 484 अंक मिले हैं. उन्होंने 80.67 प्रतिशत अंक हासिल किए, जबकि चेन्नई की तान्या गुप्ता ने 76.50 प्रतिशत और दिल्ली की विधि जैन ने 73.50 प्रतिशत अंक हासिल किए हैं.

CA Inter 2024 की टॉपर्स लिस्ट
परमी उमेश पारेख (Parami Umesh Parekh)
तान्या गुप्ता (Tanya Gupta)
विधि जैन (Vidhi Jain)


ICAI के सेंट्रल काउंसिल सदस्य धीरज खंडेलवाल ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर रिजल्ट शेयर करते हुए इस उपलब्धि को ऐतिहासिक बताया है. उन्होंने कहा कि यह मील का पत्थर है, क्योंकि टॉप 3 रैंक महिला उम्मीदवारों के पास गई हैं. खंडेलवाल ने बताया कि ICAI की महिला सदस्यों की संख्या वर्तमान में कुल सदस्यों का 30% है, जो अगले पांच वर्षों में 50% तक पहुंचने की उम्मीद है.

खंडेलवाल ने कहा कि अकाउंटेंसी का क्षेत्र अब महिलाओं के लिए एक प्रमुख करियर विकल्प बनता जा रहा है. यह केवल संख्या में वृद्धि का संकेत नहीं है, बल्कि इस बात का भी प्रतीक है कि कैसे यह क्षेत्र महिलाओं के लिए अवसरों से भरा हुआ है. वर्ष 2008 में ICAI में केवल 8,000 महिला सदस्य थीं, जो 2018 तक बढ़कर 80,000 हो गई, और अब यह संख्या 1,25,000 से अधिक हो चुकी है.

सितंबर सेशन में परीक्षा देने वाले उम्मीदवार ICAI की आधिकारिक वेबसाइट icai.org पर जाकर अपना स्कोरकार्ड देख सकते हैं. पास होने के लिए प्रत्येक पेपर में न्यूनतम 40% अंक और कुल 50% अंकों की आवश्यकता होती है.

Friday, October 25, 2024

KANIRAM NARSINGHDAS HAWELI JHUNJHNU - VAISHYA BANIYA HERITAGE

KANIRAM NARSINGHDAS HAWELI JHUNJHNU - VAISHYA BANIYA HERITAGE


हवेली : इतिहास और खूबसूरती

इस प्राचीन और भव्य हवेली का निर्माण झुंझनूं के एक प्रसिद्ध व्यापारी नृसिंहदास टीबरेवाल ने 1883 में करवाया था। झुंझनूं में टीबरेवाल क्षेत्र व्यापारियों की सघनता के कारण विख्यात था। उन्नीसवीं सदी के मध्य में शेखावाटी के ज्यादातर व्यापारी अपना कारोबार बढ़ाने के लिए कलकत्ता और पूर्वी क्षेत्रों में चले गए। वहां उन्होंने अपनी पहचान मारवाड़ी उद्योगपतियों के रूप में बनाई। पहचान के साथ साथ उनकी साख भी बढ़ी और वे स्थायी रूप से दूसरे राज्यों या विदेशों में बस गए। तब से ये हवेलियां सरकार के संरक्षण में आ गई।
झुंझनू की कनीराम नृसिंहदास टीबरेवाल हवेली सहित अन्य सभी हवेलियां इतिहास की शानदार कारीगरी और स्थापत्य का अद्भुत नमूना हैं। दूसरे स्थानों पर कारोबार बढ़ने के बाद या तो व्यापारियों ने इन्हें बेच दिया या फिर ताले जड़कर हमेशा के लिए चले गए। जिन हवेलियों का कोई दावेदार नहीं बचा उन्हें सरकार ने अपने अधीन ले लिया। कुछ हवेलियों को होटलों में तब्दील कर दिया गया।

टीबरेवाल हवेली की दीवारों पर उकेरित बेलबूटों पर सोने की पॉलिश की गई थी। यहां दीवारों पर हाथ में दर्पण लिए सुंदर स्त्री, पगड़ी पहने एक पुरूष और दंपत्ति के साथ बच्चों की मौजूदगी के भित्तिचित्र हैं जो इलाके की समृद्धि दर्शाते हैं। यह हवेली कई चौकों से युक्त है। चौक के चारों ओर सुंदर कक्ष बने हुए हैं। बरामदों के स्तंभों के बीच धनुषाकार आकृति बनी है। चौक से छत पर जाने के लिए जीने बने हुए हैं। चौक आम तौर पर खुले और बड़े हैं।

झुंझुनूं का महनसर गांव, जहां है सोने-चांदी से लिखी सचित्र रामायण, देखें तस्वीरें

झुंझुनूं का महनसर गांव, जहां है सोने-चांदी से लिखी सचित्र रामायण, देखें तस्वीरें

( झुंझुनूं में है सोने-चांदी से लिखी सचित्र रामायण)


शेखावाटी के सेठ साहुकारो ने अपनी गद्दी (पुराने जमाने का व्यापार करने का कार्यालय) सोने की दुकान में दुर दराज और देश विदेशों से आए व्यापारी महमानों के लिये कमरे में सोने-चांदी की रामायण बनवा रखी थी.


हम बात कर रहे हैं सेठ हरकन्ठ राय पोद्दार के द्वारा बनाये कमरे की. इसे सोने की दुकान कहा जाता है. जो लगभग 175 साल पहले जब इनका हीरे और जवाहरात का व्यापार जापान, चीन और अन्य कई देशों में था. व्यापारी ने लेन देन के लिये सोने की दुकान, कार्यालय (गद्दी) बना रखी थी. झुंझुनू जिले के महनसर गांव में कार्यालय बनवाया था.


महनसर एक छोटा सा गांव है लेकिन उसी गांव में प्रसिद्व सोने-चांदी की रामायण का कमरा है जिसे उस समय सोने की दूकान कहते थे. यह सोने की दुकान महनसर गांव के मुख्य बस स्टैंड पर पोद्दारो की हवेली में है. जिसे अब देखरेख के कारण ज्यादातर बंद ही रखा जाता है. इसे बाहर से आये पर्यटकों के लिये ही खोला जाता है.


इस सोने की दुकान की खास बात यह है कि इसमें राम जन्म से लेकर लव कुश तक पुरी रामायण, देवी देवताओं का सचित्र वर्णन है. ये सोने और चांदी से बनी हुई है. पुरे चित्रों को सोने और चांदी के घोल से बनाया गया है.


यहां के कमरे के खंबो पर रामायण लिखी है. वह भी सोने से पेंट की गई है. जिसमें संस्कृति में रामायण का पाठ लिखा गया है. आज भी यह उसी तरह अकर्षित और सुनहरी दिखाई देती है. किसी के देखेने पर यह नहीं लगता कि यह 175 वर्षों से भी ज्यादा पुराना है.


यहां के सोने-चांदी की पेंटिंग की चमक आज भी बरकरार है. कुछ जगह रखरखाव के अभाव में दीवार में सीलन आ गई है लेकिन अभी भी इसकी चमक बरकरार है.


यह पुरी रामायण दुकान की छत पर बनायी गयी है. पहले समय में शेखावाटी के सभी मकान चुने के बने होते थे ओर इनकी खास बात यह होती थी की इनकी छत ढोले (गोल आकर) की होती थी जो शर्दीयो में गर्म और गर्मियों में ठंडी रहती थी.


175 वर्ष पहले इस सोने की दुकान को हीरे जवाहरात के देश विदेश से आने वाले व्यापारियों के विश्राम के लिए और व्यापारिक कार्य के बनाया गया था. इस सोने की दूकान (गद्दी) में व्यापारियों के विश्राम, आराम और थकान दूर करने के लिए इस कमरे में सम्पूर्ण रामायण सचित्र बनाई गई है. इसमें राम जन्म, राम विवाह से लेकर वनवास और रावण वध, लव कुश तक का चित्रण किया गया है.


इस दुकान के दूसरे और तीसरे भाग में शिव महिमा, कृष्ण लीला और कुछ महाभारत के दृश्य अंकित हैं. सोने की दुकान के पोद्दार परिवार के कुलदीप पोद्दार ने कहा कि पोद्दार परिवार के वंशज कुलदीप पोद्दार ने बताया कि यह सोने की दुकान को उनके बुजर्गो के द्वारा हीरे, जवाहरात के व्यापार करने आने वाले व्यापारियों के लिए बनाया गया था. इसी दुकान में सभी तरह के व्यापार होते थे.

पोद्दार ने आगे बताया कि इस दुकान में सोने-चांदी के घोल से रामायण, कृष्णलीला और महाभारत के सचित्र पेंटिंग अंकित की गई है. साथ ही हर दीवार पर खड़े ढ़ोलो पर भगवान के 52 अवतार के चित्र बने हुए हैं. रामायण में रामचन्द्र भगवान की बारात के दृश्य से लेकर सीता विवाह, सीता हरण, वनवास, रावण वध और लव कुश का चित्रों के द्वारा चित्रार्थ है. साथ ही कृष्णलीला के जन्म से लेकर कंश वध का चित्रण चित्रार्थ के साथ श्रवण कुमार के द्वारा अपने माता पिता को तीर्थ का दृश्य बने हुए हैं.


महनसर के निवासी प्रहलाद पोद्वार ने बताया कि यह सोने की दुकान लगभग 175 वर्ष पुरानी है. यह पूरी इमारत चुने पत्थर से निर्मित है. इस दुकान की खासियत यह है कि यह सर्दियों में गर्म और गर्मियों में ठंडी रहती है. आज भी इस सोने की दुकान को देखने की दीवानगी विदेशों तक देखी जाती है. आज देश ही नहीं विदेशों तक से आने वाले पर्यटकों की पहली पसंद सोने की दुकान देखने की रहती है. सैकड़ों की तादाद में इस दुकान को देखने के लिए पर्यटक आते हैं.



CHAR CHOWK HAWELI - LAXMANGARH - VAISHYA BANIYA HERITAGE

CHAR CHOWK HAWELI - LAXMANGARH - VAISHYA BANIYA HERITAGE

राजस्थान की सबसे खूबसूरत और अनोखी हवेलियों में से एक है चार चौक हवेली राजस्थान। ऊबड़-खाबड़ और हरी-भरी अरावली पहाड़ियों में बसी चार चौक हवेली चार आंगनों वाली हवेली है। राजस्थान भारत में खूबसूरती से डिजाइन किए गए स्मारकों में से एक, यह बीते दिनों की शान और वैभव को याद दिलाता है। चार चौक हवेली और राजस्थान और भारत के अन्य हिस्सों के अन्य पर्यटक आकर्षणों के बारे में ऑनलाइन जानकारी प्रदान करता है।

चार चौक की हवेली, लक्ष्मणगढ़ की सबसे बड़ी हवेली है, जिसका स्वामित्व पहले गनेरीवाला परिवार की कई शाखाओं के पास था. अब इसका प्रबंधन और नेतृत्व श्री गिरधारीलालजी गनेरीवाला करते हैं.

लक्ष्मणगढ़, सीकर में स्थित है और यहां की हवेलियां, उत्तार-मुगल और ब्रितानी दौर की स्थापत्य कला और हिन्दू-मुस्लिम शैली की चित्रकारी का बेहतरीन उदाहरण हैं. लक्ष्मणगढ़ की हवेलियों में बनाए गए भित्ति-चित्रों में ब्रिटिश दौर का आधुनिक-दृष्टिकोण स्पष्ट दिखाई देता है.



लक्ष्मणगढ़ को शेखावाटी का छोटा जयपुर माना जाता था। 1862 में स्थापित, लक्ष्मणगढ़ सीकर के राव राजा लक्ष्मण सिंह द्वारा नियोजित सुनियोजित शहरों में से एक था। किलों से लेकर घंटाघरों तक, लक्ष्मणगढ़ में कई पर्यटन स्थल हैं। 1840 में मुरलीधर गनेरीवाला द्वारा निर्मित, चार चौक हवेली राजस्थान की खूबसूरत हवेलियों में से एक है। राजस्थान की अपनी यात्रा पर इस सदियों पुराने स्मारक को देखना न भूलें जो बीते युग की कला और वास्तुकला के बारे में बहुत कुछ बताता है।

लक्ष्मणगढ़ जयपुर से लगभग 190 किलोमीटर दूर है। चार चौक हवेली आपको बीते हुए राजपूत युग की समृद्ध भव्यता और वैभव की याद दिलाती है। हवेली को राजस्थान के प्रमुख पर्यटक आकर्षणों में से एक माना जाता है ।

चार चौक हवेली को चार आंगनों वाली हवेली के नाम से जाना जाता है। बड़ी-बड़ी पेंटिंग से लेकर जालीदार खिड़कियों तक, भव्य चार चौक हवेली वास्तव में राजपूती भव्यता और सुंदरता का एक सुंदर प्रतीक है। चार चौक हवेली में आपको एक हाथी पर खड़े एक पक्षी की एक सुंदर पेंटिंग देखने को मिलेगी, जिसके शिखर पर एक और हाथी है। पेंटिंग की विशिष्टता निश्चित रूप से इसे आगंतुकों की नज़र में यादगार बनाती है।

चार चौक हवेली के पूर्वी हिस्से में स्थित कमरों की दीवारें और छतें पूरी तरह से पेंटिंग से ढकी हुई हैं। चार चौक हवेली में मौजूद पेंटिंग्स ज़्यादातर नीले रंग से ढकी हुई हैं। विदेशी छवियों से लेकर खूबसूरत और अनोखे सिल्हूट तक, पेंटिंग्स बस एक अलग ही क्लास की हैं। लक्ष्मणगढ़ की सबसे पुरानी हवेलियों में से एक, चार चौक हवेली पर्यटकों के लिए एक आर्ट गैलरी साबित होती है।

फूलों की घुमावदार आकृतियों से लेकर हिंदू पौराणिक कथाओं के दृश्यों वाली छतों पर बनी आकृतियों तक, राजपूतों की उत्कृष्ट कलात्मकता चार चौक हवेली की कला और वास्तुकला में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। यह सदियों पुराना स्मारक आज भी बीते युग की यादें ताज़ा करता है। हालाँकि सामने का हिस्सा पूरी तरह से खराब हो चुका है और चार चौक हवेली के अंदर प्रवेश करने पर आपको मध्ययुगीन आभा और माहौल का एहसास हो सकता है।

Pansari Ki Haveli SHREE MADHOPUR - VAISHYA BANIYA HERITAGE

पंसारी की हवेली - Pansari Ki Haveli


राजस्थान में शेखावाटी क्षेत्र मुख्यतया अपनी हवेलियों, छतरियों एवं बावडियों के लिए सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। यहाँ की हवेलियों पर शोध करने के लिए विश्व के कई देशों के लोग नियमित शेखावाटी में आते रहते हैं।

यूँ तो हवेलियों के लिए रामगढ़, मण्डावा, पिलानी, सरदारशहर, रतनगढ़, नवलगढ़, फतेहपुर, मुकुंदगढ़, झुन्झुनू, महनसर, चूरू आदि शहर ही प्रसिद्ध है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि सीकर जिले के श्रीमाधोपुर कस्बे में भी एक हवेली ऐसी है जिसका नाम शेखावाटी की प्रसिद्ध हवेलियों में शुमार है?

इस हवेली को पंसारी की हवेली के नाम से जाना जाता है। इस हवेली की प्रसिद्धि का आलम यह है कि राजस्थान सरकार द्वारा सरकारी नौकरियों के लिए आयोजित विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में सामान्य ज्ञान के प्रश्नों में इस हवेली के सम्बन्ध में कई बार प्रश्न पूछे जा चुके हैं।

अगर आप गूगल पर शेखावाटी की प्रमुख हवेलियों को सर्च करेंगे तो पाएँगे कि लगभग सभी जनरल नॉलेज सम्बन्धी वेबसाइटों ने पंसारी की हवेली को शेखावाटी की प्रमुख हवेलियों में जगह दे रखी है।

शेखावाटी की हवेलियों में इसका नाम प्रमुखता से लिया जाता है लेकिन श्रीमाधोपुर के अधिकतर लोगों को शायद ही इस हवेली के सम्बन्ध में पता हो।

यह हवेली श्रीमाधोपुर में रेलवे स्टेशन रोड पर सब्जी मंडी के पास स्थित है। इस हवेली का मुख्य द्वार मिट्टी का लेवल बढ़ने से थोडा नीचे चला गया है। अक्सर मुख्य द्वार पर मोटा सा ताला लगा हुआ रहता है।

इस हवेली के पास में रहने वाले लोगों को भी नहीं पता है कि वे लोग उस ऐतिहासिक धरोहर के सानिध्य में रह रहे हैं जिसकी वजह से सम्पूर्ण राजस्थान में श्रीमाधोपुर का नाम प्रसिद्ध है।

हवेली दो मंजिला है जिसकी बाहरी दीवारों पर सुन्दर भित्तिचित्र बने हुए हैं। उपरी मंजिल पर ग्यारह अर्ध चंद्राकार झरोखे बने हुए हैं।

इनके ऊपर पत्थर की बारीक जालियों के रोशनदान बने हुए प्रतीत होते हैं जिनमे रंग बिरंगे काँच लगे हुए हैं। इन झरोखों के ऊपर एक पूरा लम्बा छज्जा बना हुआ है। इन झरोखों से लेकर छज्जे के बीच में सुन्दर भित्तिचित्र बने हुए हैं।

इन भित्तिचित्रों में सुन्दर कलात्मक फूल पत्तियाँ, बेल-बूँटे आदि बने हुए है। साथ ही राधा के साथ कृष्ण, गोपियों के वस्त्र लेकर कदम्ब के पेड़ पर बैठे हुए कृष्ण, गणेश जी, सपेरे के साथ-साथ सामाजिक जन जीवन के चित्र शामिल हैं।

नीचे की मंजिल पर टोडों के नीचे सुन्दर चित्रकारी की हुई है। इनमें बेल बूँटों के साथ-साथ शिव पार्वती, मगरमच्छ से लड़ता हुआ पुरुष, चरखा चलाती महिला, दूसरी महिला की चोटी बनाती हुई महिला, हुक्का पान करता पुरुष, परिवार के साथ महिला की पेंटिंग है।

नीचे की दीवार पर मरम्मत होने के कारण अन्य चित्रकारियाँ समाप्त हो गई हैं। समय के साथ मुख्य दरवाजे का लेवल धरातल से कुछ नीचे चला गया है। अन्दर प्रवेश करने पर चौक बना हुआ है।

इस चौक के बीच में से चारों तरफ देखने पर ऊपरी मंजिल, बारादरी के एक तरफ के तीन प्रवेश द्वारों जैसी प्रतीत होती है।

ऊपर जाने के लिए दो जीने बने हुए हैं। ऊपरी मंजिल पर आगे की तरफ वाले कमरे थोड़े बड़े हैं। ये कमरे मुख्य कक्ष प्रतीत होते हैं जिनमे झरोखों की तरफ सुन्दर मेहराब बने हुए हैं।

अन्दर से झरोखों का नजारा अत्यंत सुन्दर लगता है। झरोखों के ऊपर रोशनदानों में लगे हुए रंग बिरंगे काँच, कमरे की भव्यता में चार चाँद लगाते हैं।

कमरों के दरवाजे लकड़ी के बने हुए हैं जो कि ऐतिहासिक प्रतीत होते हैं। दरवाजों के ऊपर पत्थर की जाली का कलात्मक रोशनदान लगा हुआ है।

कमरों के अन्दर दीवारों पर नीचे की तरफ कलात्मक चित्रकारी के फ्रेम से बने हुए हैं। दीवारों पर लकड़ी की कलात्मक खूँटियाँ लगी हुई है। कोने में सामान रखने के लिए दरवाजों युक्त जगह बनी हुई है।

यह हवेली कब बनी थी और किसने इसे बनवाया था, इसकी जानकारी हमें नहीं मिल पाई है परन्तु जैसा कि इसके नाम से विदित होता है, इसका ताल्लुक जरूर किसी पंसारी परिवार से रहा है।

जिस प्रकार पुरानी धरोहरों को तोड़कर उनकी जगह कमर्शियल या रेजिडेंशियल भवन बन रहे हैं, पता नहीं कब तक यह हवेली अपने इस मूल स्वरुप में रहकर श्रीमाधोपुर का नाम राजस्थान में रोशन करती रहेगी।

स्थानीय नागरिकों के साथ-साथ प्रशासन को भी अपनी इन विरासतों को सहेजकर अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए।

GOENAKA HAWELI FATEHPUR - VAISHYA BANIYA HERITAGE

GOENAKA HAWELI FATEHPUR - VAISHYA BANIYA HERITAGE


1870 में स्थापित महावीर प्रसाद गोयनका हवेली फतेहपुर की सबसे अच्छी हवेलियों में से एक है। हवेली में भित्ति चित्र और भित्ति चित्र उस क्षेत्र में पनपे शिल्प कौशल को दर्शाते हैं। गोयनका समृद्ध व्यवसायी थे और अभी भी हैं। उनकी हवेली शेखावाटी क्षेत्र में देखी जाने वाली सबसे अच्छी हवेली में से एक है। सामान्य तौर पर राजस्थान की हवेलियाँ और विशेष रूप से शेखावाटी की हवेलियाँ अपने रंगीन भित्तिचित्रों के लिए प्रसिद्ध हैं। इन हवेलियों का स्वामित्व धनी व्यापारियों के पास था, जिनके लिए हवेलियों का अधिकांश भाग प्रतिष्ठा के प्रतीक के रूप में कार्य करता था। हालाँकि, तब परिवार भी बहुत बड़े हुआ करते थे और आकार के मामले में हवेली से कम कुछ भी, एक परिवार को समायोजित करने के लिए कठिन होता। इसके अलावा, व्यवसाय भी आमतौर पर सामूहिक रूप से परिवार के सदस्यों- भाइयों या रिश्तेदारों के स्वामित्व में होता था। आय के स्रोतों के बंटवारे से एक ही छत और बहुत कुछ का बंटवारा हुआ।

भारत में महावीर प्रसाद गोयनका हवेली फतेहपुर की दीवारों पर बेहतरीन पेंटिंग हैं। कई पेंटिंग भगवान कृष्ण की लीलाओं को दर्शाती हैं- गोपिनियों के साथ उनकी इश्कबाज़ी, राधा के साथ उनका रोमांस, कुछ सबसे अधिक देखे जाने वाले हैं। इस क्षेत्र में भगवान की लोकप्रियता को देखते हुए, भगवान कृष्ण पूरे राजस्थान में भित्तिचित्रों के लिए एक दिलचस्प और सामान्य विषय बन गए।

फतेहपुर राजस्थान में महावीर प्रसाद गोयनका हवेली का मुख्य आकर्षण ऊपर के कमरे में चित्रित छत है। महावीर प्रसाद गोयनका हवेली फतेहपुर राजस्थान तक मुख्य सड़क को बस स्टैंड से उत्तर की ओर ले जाकर और फिर मुख्य चौराहे पर बाएं मुड़कर पहुंचा जा सकता है। महावीर प्रसाद गोयनका हवेली फतेहपुर के बाईं ओर के घर में भी अच्छा दर्पण काम है, जब राजस्थान में फ्रेस्को कला पर चर्चा करने की बात आती है।

फिर से, शेखावाटी की अधिकांश हवेलियों की तरह, महावीर प्रसाद गोयनका हवेली फतेहपुर एक विशाल नक्काशीदार लकड़ी के द्वार के साथ खुलती है। द्वार एक बाहरी आंगन में खुलता है। यह बाहरी प्रांगण फिर एक छोटे आंतरिक प्रांगण की ओर जाता है। राजस्थान में हवेलियों को आंगनों के विस्तृत नेटवर्क के चारों ओर बनाया गया है। हवेली जितनी बड़ी होगी, उसके आंगनों की संख्या उतनी ही अधिक होगी और वे परिवार की महिलाओं की पवित्रता को बनाए रखने के लिए उतनी ही विशिष्ट होंगी- उन्हें बाहरी दुनिया की एक नज़र रखने से रोकना।

बनिया की खासियत क्या है?

बनिया की खासियत क्या है?

सिन्धु घाटी सभ्यता के साथ भारत की पहचान जुड़ी हुई है। यह सभ्यता कौनसी भाषाएँ बोलती थी इस पर विवाद हो सकता है किन्तु इस सभ्यता की सम्पन्नता पर कोई विवाद नहीं है।

इस सम्पन्नता का एक महत्वपूर्ण कारक सिन्धु घाटी सभ्यता का अन्य प्राचीन सभ्यताओं से व्यापार रहा है। इस व्यापार में वे अपेक्षाकृत प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न अपने गृहक्षेत्र से अनेक उत्पाद अन्य स्थानों तक पहुँचा कर अच्छा लाभ पाते थे। इस लाभ का अंश इन वस्तुओं को उपजाने अथवा बनाने वाले व्यक्तियों तक भी पहुँचता रहा; अतः, सिन्धु घाटी सभ्यता एक साधन सम्पन्न सभ्यता रही है।

उदाहरणार्थ, प्राचीन काल में नीले वर्ण का एकमात्र ज्ञात प्राकृतिक स्रोत राजावर्त्त (लाजवर्त) रत्न था; यह पामीर की गाँठ के निकट अफ़ग़ानिस्तान ले आमू दरिया (वैदिक चक्षु नदी महाभारत वङ्क्षु नदी) के निकट शोर्तुगाय ( شورتوگای) के पर्वतीय क्षेत्र में पाया जाता था। लगभग ईसा पूर्व 3300–2800 के काल में हरियाणा के भिरड़ाना (अङ्ग्रेज़ी वर्तनी : Bhirrana) से पाए पुरातत्त्व महत्त्व के अवशेषों में राजावर्त्त भी मिला है। ध्यान दें कि यह स्थान लगभग आठवीं सहस्राब्दी ईसा पूर्व से सभ्यता का केन्द्र रहा है; और वैदिक सरस्वती के क्षेत्र में है

सिन्धु घाटी सभ्यता में राजावर्त अनेक स्थानों पर और सभी कालों के अवशेषों में मिला है। सिन्धु घाटी सभ्यता से इस रत्न को मेसोपोटेमिया और मिस्र की सभ्यता को निर्यात भी किया जाता रहा। मिस्र की गिरजा (جيزرة) काल की सभ्यता (ईसा पूर्व 3500—3200) के काल से वहाँ राजावर्त के अवशेष मिलते हैं।


किशोरावस्था में काल के गाल में समाने वाले मिस्र के फरोह तुतनखामुन (ईसा पूर्व 1341-1323) के मरणोत्तर मुखौटे में राजावर्त का प्रयोग हुआ है। इसका तात्पर्य यह है कि सिन्धु घाटी सभ्यता का न केवल अफ़ग़ानिस्तान से व्यापारिक सम्बन्ध रहा है; अपितु वहाँ के वणिज मिस्र तक अपने उत्पादों का व्यापार करने में समर्थ थे। यह सम्भवतः विश्व के सबसे प्राचीन सुचारु रूप से चलने वाले व्यापारिक मार्गों में एक है।


ताम्र के इन मणिभों के बीच रेशम के तन्तु मिले हैं।

वस्तुतः हड़प्पा और चान्हूदड़ो में ईसा पूर्व 2450–2000 के काल से घिया-पत्थर और ताम्र की मणियों के भीतर रेशम के तन्तु मिले हैं।

सिन्धु घाटी सभ्यता प्राचीन रेशम के नवीन प्रमाण (NEW EVIDENCE FOR EARLY SILK IN THE INDUS CIVILIZATION) में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के आयरीन एल गुड (I. L. GOOD), एवं विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय के जेम्स एम केनोयर (J. M. KENOYER) तथा आर एच मीडो (R. H. MEADOW) ने नेवासा में ईसा पूर्व 1500 काल के रेशम के प्रमाण दिए हैं।

यह प्रमाण इस काल में रेशम व्यापारिक मार्गों की उपस्थिति का द्योतक हैं। नेवासा महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में है। यहाँ रोमन साम्राज्य के साथ व्यापारिक सम्बन्धों के भी प्रमाण मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि दक्षिण पथ; तथा उत्तर पथ से होते हुए यह स्थान प्राचीन रेशम मार्ग से जुड़ा हुआ था।

जिस प्रकार से भारतीय वणिजों का जाल फैला था यह अनुमान किया जाता है कि भारतीय सङ्गठित व्यापार करते थे; जिसमें नौकाओं और बैलगाड़ियों का परिवहन के लिए उपयोग होता रहा। सिन्धु घाटी की मृण्मुद्राओं तथा अन्य पदार्थों की मुद्राओ को सम्भवतः व्यापारिक सङ्घों तथा अन्य व्यावसायिक (यथा शिल्पी) सङ्घों के सदस्य एक सदस्यता की पहचान के चिह्न के रूप में काम लेते हों।


यह सम्भवतः गज (हाथी), वृषभ (बैल), तथा गण्ड (गैंडा) के प्रतीक चिह्नों वाले व्यावसायिक सङ्घों की मुद्राएँ हैं।

वैदिक काल में वणिज शब्द का प्रयोग उस समय में भी बनियों के होने का वर्णन करते हैं।

याभिः सुदानू औशिजाय वणिजे दीर्घश्रवसे मधु कोशो अक्षरत् ।
कक्षीवन्तं स्तोतारं याभिरावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥११॥ — ऋग्वेदः सूक्तं १.११२

[इस ऋचा का सन्दर्भ दीर्घतमा की पत्नी उशिज के पुत्र, दीर्घश्रवा ऋषि, अकाल-सूखे के समय आजीविका के लिए वाणिज्य में लगे हुए थे। उन्होंने वर्षा के लिए अश्विनीकुमारों की भी प्रशंसा की। और अश्विनी कुमार युगल ने बादलों को प्रेरित किया। हे सुदानव (शोभनदान करने वाले), उशिज के पुत्र औशिजा को, जो वणिज वृत्ति करता है, ऋषि दीर्घश्रवस को, उसकी प्रार्थना पर आपकी प्रेरणा से बादलों ने मधु जैसा जल बरसाया। कक्षिवन्त के स्तुति करने पर हे अश्विनी कुमारों आप उनके पास गए।]

यह ऋचा ऋग्वेद के रचना काल में वणिज (बनिया) के व्यवसाय का होना दर्शाती है। यही नहीं सूखे की स्थिति का भी विवरण देती है। इस कारण बहुधा ऋग्वेद का रचना काल सिन्धु सभ्यता के पतन काल से जोड़ा जाता है।

एता धियं कर्णवामा सखायो ऽप या मातां रणुत वरजं गोः ।
यया मनुर विशिशिप्रं जिगाय यया वणिग वङकुर आपा पुरीषम ॥ — ऋग्वेदः सूक्तं 5.45.6

[आओ, हे मित्रों, हम उस उद्देश्य को पूरा करें जिसके लिए माता रुपी उषा ने किरणों का समूह को प्रकाशित किया; जिसके लिए मनु ने विशिशिप्र पर विजय पाई को जीता था; जिसके लिए भटकते हुए बनिये ने स्वर्ग का जल प्राप्त किया था।]

संस्कृत ग्रन्थों में बनिया के लिए वैदेहक, सार्थवाह, नैगम, वाणिज, वणिज्, पण्याजीव, आपणिक, क्रयविक्रयक, आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है।

गौतम बुद्ध के समय तक वणिज सङ्घ (जिन्हें श्रेणि कहा जाता था) प्रभावी हो चुके थे। इस समय चीन और भारत से मध्य एशिया से होते हुए भूमध्यसागर तक जाने वाले व्यापारिक मार्ग सुव्यवस्थित रूप से चलने लगे थे। यद्यपि इन मार्गों को उस समय प्रचलित इन क्षेत्रों के सभी धर्मों के वणिज उपयोग करते थे; बौद्ध धर्म के के व्यापक प्रचार और प्रसार के लिए यह मार्ग माध्यम बनें। अठारहवीं शताब्दी में इन मार्गों को सामूहिक रूप से रेशम मार्ग (सिल्क रूट) का नाम दिया गया। पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व से ऐसी अनेक श्रेणियों के जैन अथवा बौद्ध मत अपनाने के उल्लेख मिलते हैं। प्राचीन भारत में वणिज ही नहीं; अन्य व्यवसायों की भी श्रेणियाँ थीं।

इस काल में भी यह मार्ग जोखिम से भरे थे। अतः इस मार्ग पर व्यापारी न केवल समूह में जाते थे; अपितु इस कार्य के लिए वे व्यावसायिक सङ्घ भी बनाते थे। इन सङ्घों के कर्ता-धर्ता गणतान्त्रिक विधि से चुने जाते और यह सङ्घ अपने सदस्यों के हितों की रक्षा के लिए अपनी सेनाएँ भी रखते थे। इस सङ्घ में अपने सदस्यों के हितों की रक्षा के सामर्थ्य ने प्राचीन भारत को समृद्ध बनाया। अपने अतिरिक्त आर्थिक संसाधनों को यह श्रेणियाँ ऋण देने का भी कार्य करती थीं; और जनसाधारण के धन को सुरक्षित रखने के भी विश्वसनीय संस्थान थीं। एक प्रकार से यह आधुनिक बैंकों की भूमिका भी निभाते थे। इन‌ श्रेणियों के अधिकारी ज्येष्ठ कहलाते थे।

भारतीय राज्यों को तथा इनके राजाओं को भी इन व्यवसायियों पर लगाए गए करों से बहुत आमदनी होती; तथा इसके प्रतिकार में यह सङ्घ सुरक्षित व्यापारिक मार्गों तथा व्यावसायिक सुरक्षा की अपेक्षा करते थे।

बुद्ध के कुछ समय उपरान्त शक्तिशाली नन्द वंश का मगध साम्राज्य उत्तर भारत के एक वृहद क्षेत्र में अपनी जड़ें जमा चुका था। किन्तु, नन्द साम्राज्य का अन्त एक साधारण लगभग साधनहीन वैश्य परिवार में जन्मे चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया। इसमें आचार्य चाणक्य की भूमिका पर कोई भी प्रश्न नहीं है। किन्तु, क्या आपने विचार किया है कि चन्द्रगुप्त मौर्य तथा चाणक्य को अचानक ही इतनी बडी सेना और समृद्धि कहाँ से मिल गई। इसके लिए अनेक दन्तकथाएँ कही जाती हैं। किन्तु, इसका एक बहुत सहज कारण है। सम्राट घनानन्द को दिए करों का समुचित लाभ न पाकर व्यापारिक सङ्घों ने चन्द्रगुप्त मौर्य को न केवल धन अपितु अपनी सेनाएँ भी उपलब्ध करवाईं; और यही नहीं चन्द्रगुप्त मौर्य को भाड़े के यवन सैनिक भी उपलब्ध करवाने में सहायता दी। परस्पर लाभ के चलते ही मौर्य साम्राज्य का विस्तार भी हुआ। उत्तरापथ (ग्रांड ट्रंक रोड) तथा दक्षिणापथ का पूर्ण विकास भी इस काल से हुआ है।

भारत की नैतिकता और बुद्धिमत्ता का प्रचार-प्रसार भारत से ही विदेश-व्यापार करने वाले वणिकों ने किया; पञ्चतन्त्र, हितोपदेश, कथासरित्सागर, बृहत्कथा, जैसी अनेक कथाएँ वाणिज्य के साथ ही मध्य एशिया से होते हुए फ़ारस, अरब प्रायःद्वीप, यूनान तक पहुँच गईं। पञ्चतन्त्र के मित्रभेद की बारहवीं कथा में ‘वणिजारकसार्थ’ का विवरण मिलता है; सार्थ वस्तुतः (सारथी वाले) वाहनों के समूह को कहा गया है; और वणिजारक वाणिज्य करने वाले को; जिससे बंजारा शब्द की व्युत्पत्ति हुई है।

श्रेणियाँ व्यवसाय पर आधारित थीं; इनमें सम्प्रदाय आधारित भेद नहीं किया जाता था। यह मुख्यतः बाजार के नियमन, मूल्य नियमन, गुणवत्ता नियमन, आधारभूत ढाँचे की व्यवस्था और प्रबन्धन, विवादों का समाधान, और कराधान का कार्य करती रहीं।

अर्थशास्त्र में वर्णित चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में हुए कुछ प्रशासनिक सुधार (समान कराधान की व्यवस्था) इन श्रेणियों को समानान्तर सत्ता केन्द्र न बनने देने के लिए किए गए।

यद्यपि इन श्रेणियों से सभी प्रकार के व्यवसायों को अपने व्यावसायिक हित साधने के लिए अनुकूल वातावरण स्थापित करने में सहायता मिलती थी; किन्तु इनमें चार वर्णों से के इतर व्यवसाय पर आधारित अनेक जातियों के बीज भी इन श्रेणियों में हैं। क्योंकि यह व्यवसाय बहुधा पैतृक व्यवसाय ही हुआ करते थे। इन श्रेणियों में सौ से हजारों तक सदस्य होते थे। अर्थशास्त्र में वर्णित चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में हुए कुछ प्रशासनिक सुधार (समान कराधान की व्यवस्था) इन श्रेणियों को समानान्तर सत्ता केन्द्र न बनने देने के लिए किए गए।

वैश्य वंशज गुप्त साम्राज्य के काल में भी श्रेणियों की यह भूमिका रही। राज्य के विधि-विधान से इतर श्रेणियों के अपने विधि-विधान होते थे। तथा इनके सभी सदस्यों को इन्हें मानना करनी पड़ती थी। चीनी बौद्ध भिक्षुक मोक्षदेव को ह्सुइन त्सांग (玄奘; सरलीकरण : ह्वेन सांग) नाम से जाना जाता है। उन्होनें सम्राट हर्षवर्धन के राज्यकाल में भारत यात्रा की थी। उनकी पुस्तक दा तंग क्सी यू जी (大唐西域記; पश्चिमी साम्राज्यों के अभिलेख) में इस यात्रा का विस्तार से वर्णन है। इस पुस्तक में सम्राट हर्षवर्धन के पूर्वजों के वैश्य (बनिया) होने का वर्णन है; जिन्हें गुप्त साम्राज्य में सामन्त पद दिया गया। इस वंश के पुष्यभूति ने मौर्य साम्राज्य के पतन के उपरान्त लगभग 500 ईस्वी में अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया था। इससे यह सङ्केत मिलता है कि कुछ श्रेणियाँ अत्यधिक प्रभावशाली थीं; और उनके वणिज प्रमुखों का राज्य के कार्य-कलापों तथा विधानों में हस्तक्षेप भी था।

हर्षवर्धन के काल में श्रेष्ठि (व्यापारियों के प्रमुख), सार्थवाह (व्यापारिक वाहनों के सङ्घ के सदस्य), कुलिक (विभिन्न प्रकार की वस्तुओं तथा कलाकृतियों को बनाने वाले तथा कायस्थ (लेखा-जोखा) रखने वाले साम्राज्य के अधिकारियों में सम्मिलित थे। इस काल में व्यापारिक गतिविधियों और श्रेणियों की सम्पन्नता में गिरावट हुई।

हर्षवर्धन के काल में ही भारत में इस्लाम का आगमन हुआ; यद्यपि, यह हर्षवर्धन के राज्यक्षेत्र में न होकर केरल में था। प्रायःद्वीपीय भारत के व्यापारिक न केवल अरब और मिस्र से थे; अपितु, वहाँ के पुरावशेषों में रोमन सिक्कों की अनेक निधियाँ भी मिली हैं। पूर्व में वे दक्षिण पूर्वी एशिया और चीन तक से अपने व्यापारिक सम्बन्ध बनाकर रखते थे। दक्षिण-भारत में इस प्रकार इस्लाम का प्रसार भी मित्रवत व्यापारियों के माध्यम से हुआ। वस्तुतः, इन अरब व्यापारियों के केरल में वैवाहिक सम्बन्धों से केरल के मपिल्ला (മാപ്പിള/ तमिळ மாப்பிள்ளை / माप्पिल्लै; जामाता) होने के कारण मोपला कहलाने वाले मुस्लिम समाज का आविर्भाव हुआ है।

दक्षिण भारत के व्यापारी चीन से पट्टु (பட்டு; संस्कृत पट्ट से रेशम) और दक्षिण-पूर्वी एशिया से मसाले लेकर आते थे; इस कारण दक्षिण के व्यापारी भी बहुत समृद्ध थे। इनसे हुए कराधान से दक्षिण में इस काल से सशक्त साम्राज्यों का युग यौवन पर आया। चालुक्य सम्राट पुलकेशिन द्वितीय ने सम्राट हर्षवर्धन को पराजित कर उनका साम्राज्य विस्तार विन्ध्य के उत्तर तक ही सीमित रखने को विवश कर दिया था।


इस काल के अजन्ता के गुहाचित्रों में ईरान के सासानी साम्राज्य से आए व्यापारियों का भी चित्रण है। जिनसे चालुक्य साम्राज्य के व्यापारियों की समृद्धि से उनकी सैन्यशक्ति का भी बढ़ना दृष्टिगोचर होता है।

इस्लाम के आगमन के उपरान्त भारत के अनेक पत्तनों के माध्यम से अरब विश्व और दक्षिणपूर्व से होते हुए चीन तक जलमार्ग से भी व्यापार बढ़ने लगा। अतः भारतीय वणिज श्रेणियाँ भी समृद्ध होने लगीं। सम्पन्न बनियों का वर्ग श्रेष्ठि कहलाता है; जिससे विभिन्न भाषाओं में शेट्टी (तेलुगु శెట్టి/ कन्नड़ ಶೆಟ್ಟಿ), चेट्टी / चेट्टियार (तमिळ செட்டி / செட்டியார்), सेठ, ह्क्यित्ती (बर्मी : ချစ်တီး) जैसे शब्दों की रचना हुई है। दक्षिण भारतीय बनियों में कुछ इतने प्रभावशाली थे कि उनकी मृत्यु होने पर राजा भी अनेक दिन यात्रा कर श्रद्धाञ्जलि देने जाते थे।

दक्षिण भारत से ही चोल (சோழ) साम्राज्य ने भारत से बाहर श्रीलङ्का, बर्मा, मलय प्रायःद्वीप, सुमात्रा, यावा, पर विजय पाई थी। किन्तु, यह अल्पज्ञात तथ्य है कि इस विजय के लिए आवश्यक जलसेना, जलपोतों, तथा धन को वणिजों ने उपलब्ध करवाया था। इस अभियान का मुख्य कारण दक्षिण-पूर्वी एशिया के श्रीविजय साम्राज्य का जल-दस्युओं को समर्थन देकर व्यापारिक गतिविधियों में भारी बाधा डालना था। तब दक्षिण भारत की व्यापारिक श्रेणियों विशेषकर मणिग्रामं श्रेणि ने चोल सम्राट राजराज चोल को आवश्यक संसाधन उपलब्ध करा कर श्रीविजय साम्राज्य को चोल नियन्त्रण में लाने में सहायता की। चोल साम्राज्य ने चीन तक मार्ग सुरक्षित करने की लिए आवश्यक प्रयास किये।

इनमें से एक केरल की अञ्जुवन्नं (അഞ്ചുവണ്ണം) श्रेणी के एक अरब व्यापारी द्वारा चोल साम्राज्य को लाखों स्वर्ण-मुद्राएँ उपलब्ध करवाने का विवरण मिलता है। अञ्जुवन्नं सम्भवतः मलयालयम അഞ്ചു - पञ्चम तथा संस्कृत वर्ण का मेल है; जो हिन्दू चतुर्वर्ण व्यवस्था के सदस्य नहीं थे; किन्तु, यह अधिक सम्भव है कि यह शब्द फ़ारसी अन्जुमन (انجمن; सङ्गठन) का मलयालयम में अपनाया गया रूप हो। यह सभी श्रेणियाँ वर्तमान कर्णाटक में ऐहोल (ಐಹೊಳೆ) के महासङ्घ ऐन्नूरवर् (तमिळ : ஐந்நூற்றுவர்; पाँचसौ श्रेष्ठ) से सम्बन्ध रखते थे। इन श्रेणियों के बारे में ज्ञात अभिलेख यह बताते हैं कि यह श्रेणियाँ अर्द्धसैनिक बलों के जैसे भी काम करती थीं; और इनमें भारतीय हिन्दू, जैन, बौद्ध, व्यापारियों के अतरिक्त मुस्लिम, सीरियाई कैथोलिक, पारसी (जरथ्रुष्ट के अनुयायियों), तथा यहूदी व्यापारियों के भी सदस्य होने का विवरण मिलता है। अतः बनिये और उनके सङ्घ अपनी व्यक्तिगत धार्मिक पहचान रखते हुए भी एक समूह के रूप में सामूहिक हितों के लिए काम करते रहे हैं।

यद्यपि उत्तर भारत में इस समय घमासान छिड़ा था। अतः व्यावसायिक गतिविधियों में जोखिम बढ़ने लगा था। अतः जहाँ तक सम्भव हो व्यापारी उस पक्ष के साथ रहते थे जो उनका संरक्षण कर पाए। दिल्ली पर मुहम्मद गौरी की विजय के उपरान्त वहाँ इस्लामिक शासन का आरम्भ हो गया था। इस परिस्थिति में अनेक व्यापारी दिल्ली की सल्तनत के निकट रहकर लाभान्वित भी हुए। 1276 ईस्वी के पालम बावड़ी के संस्कृत अभिलेख में एक जैन व्यवसायी उड्ढर ठक्कुर द्वारा लिखवाया है जिन्हें अभिलेख में योगिनीपुरा ढिल्ली का पुरपति कहा गया है। यह अभिलेख तत्कालीन सुल्तान ग़यासुद्दीन बलबन की प्रशस्ति में भी है। यह अभिलेख वणिजों द्वारा सहज रूप से शासन के विश्वासपात्र होकर उच्चपद पाने की क्षमता को दर्शाता है।

सोलहवीं शताब्दी में मुगलों का भारत पर आक्रमण हुआ; किन्तु, मुग़ल साम्राज्य को शेरशाह सूरी ने परास्त किया। इस काल में में जन्में हेमचन्द्र ने एक व्यापारी के रूप में अपना व्यावसायिक जीवन आरम्भ किया। वह अपने व्यापारिक, कूटनीतिक और सैन्य कौशल से शेरशाह के उत्तराधिकारी आदिलशाह के मुख्यमन्त्री बने। अन्ततः 7 अक्टूबर 1556 को दिल्ली पर विजय पाकर वह हेमचन्द्र विक्रमादित्य के रूप में सम्राट बने। यद्यपि, दुर्भाग्य से यह राज अधिक दिन नहीं चल पाया। किन्तु, यह भी एक बनिये के रूप में अपना जीवन आरम्भ करने वाले व्यक्ति के चातुर्य कौशल को दर्शाता है।

[टिप्पणी : बचपन में हेमू बनिये का उल्लेख करते हुए "श्रीकृष्ण" का लिखा एक नाटक तोताराम पढ़ा था; यह स्मरण हो आया है।


हेमचन्द्र की भाँति भामाशाह का चरित्र भी बनियों के गुणों को दर्शाने के लिए उपयुक्त है। यह वही थे जिन्होंने अपनी सम्पत्ति महाराणा प्रताप के मेवाड़ को मुगलों के आधिपत्य से बचाए रखने के सङ्कल्प को बनाए रखने के लिए अर्पित कर दी। उनके भाई ताराचन्द ने तो महाराणा प्रताप के पक्ष में मुगलों से युद्ध भी किया। अधिक आवश्यकता होने पर यह दोनों भेई भी तलवार उठाकर मुगल शासित मालवा से और भी अधिक धन ले आए।

गुरु तेग बहादुर के पार्थिव को ससम्मान विदा करने वाले लक्खीशाह बंजारे का विवरण मैं पूर्व में दिए आलेख में कर चुका हूँ। उनके पास अफ़ग़ानिस्तान से मध्य भारत तक व्यापार करने के लिए लाखों व्यक्तियों और गाड़ियों के कारवाँ थे।

इससे पूर्व पुर्तगाली भी भारत में प्रवेश पा चुके थे। यह उपनिवेश बनाने, ईसाई धर्म का प्रसार करने और व्यापारिक सम्बन्ध से अपनी समृद्धि बढाने के उद्देश्य से आए थे। सत्रहवीं शताब्दी का आरम्भ होते ही डच और अङ्ग्रेज व्यापारिक कम्पनियाँ बनाकर भारत से व्यापार करने के लिए आए। इन कम्पनियों की अपनी सेनाएँ भी थीं। यह भारतीय उपमहाद्वीप के अनेक स्थानों पर अपने उपनिवेश स्थापित करने में सफल रहे। फ्रांस के नीदरलैंड्स पर आधिपत्य के उपरान्त डच ईस्ट इंडिया कम्पनी की भारत और श्रीलङ्का की सम्पत्तियों को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी को हस्तान्तरित कर दिया गया।

भारतीय राजाओं के अतिरिक्त भारतीय वणिजों को भी ईस्ट इंडिया कम्पनी अपना प्रतिद्वन्द्वी मानती थी। अतः घुमक्कड़ व्यापारियों (विशेषकर बंजारा समुदाय को) आपराधिक जातियाँ घोषित कर दिया गया। व्यापारिक और व्यावसायिक श्रेणियाँ भी समाप्त हो चलीं। इससे भारतीय उपमहाद्वीप की समुदायों पर आधारित उद्योगों को भी हानि होने लगी। श्रेणियों का स्वरूप भी सङ्कुचित होने लगा। आज उनके अवशेष कुछ मुख्यतः व्यापार में लगे समुदायों (यथा, पारसी, बोहरा, जैन, आदि) के सामाजिक व्यवहार में देखने को मिलते हैं; जहाँ पारस्परिक सहयोग इन समुदायों को सम्पन्न बनाए रखने में सहायक है।

अंग्रेज़ों के काल में भी इनमें से अनेक वणिक समूहों ने प्रगति की और भारत का औद्योगीकरण भी किया। किन्तु, यह अन्य श्रेणियों के साथ न हो सका; उनके पारम्परिक व्यवसाय धीरे-धीरे अलाभकारी होते गए; और अन्य श्रेणियाँ (तथा उनसे जुड़ी जातियाँ) तेजी से विपन्न होने लगीं। लगभग 1750 तक विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति से अगले सौ वर्ष दूसरे स्थान पर रहते भारत की अर्थव्यवस्था का पतन भी व्यावसायिक श्रेणियों के पतन के साथ दृष्टिगोचर है।

भारत के प्रत्येक नगर-ग्राम में बनिये बसते हैं। वे अनेक संसाधनों की उपलब्धि का एक महत्वपूर्ण स्रोत भी रहे हैं। बनिया होना एक व्यवसाय है; जोकि, जाति तथा धर्म की सीमाओं से परे रहा है। भारत में विभिन्न स्थानों पर प्रवास करते रहने वाले बनिये सांस्कृतिक एकता के भी ध्वजावाहक रहे हैं। गाँवों में बहुधा अधिक व्यक्ति शिक्षित नहीं होते थे; किन्तु, अपना लेखा-जोखा रखने वाले बनिये बहुधा शिक्षित होते थे; और इनमें से अनेक गाँवों में अपनी पण्यशालाओं में ही छोटी पाठशालाएँ भी चलाते थे। इस प्रकार, छोटे स्तर पर वे समाज तक शिक्षा पहुँचाने में सहायक भी रहे। गाँव के साहूकार (बैंकर) होने के कारण वे बहुधा ऊँची ब्याजदर पर ऋण भी देते रहे हैं। जिससे बनियों को बहुधा स्वार्थी जनों के रूप में देखा जाता है। एक-जुटता, व्यावसायिक बुद्धि, समय आने पर रक्षण करने का सामर्थ्य, जाति-धर्म से उठकर शान्ति से व्यवसाय कर पाने की क्षमता बनियों की विशेषताएँ कही जा सकती है; जोकि पूर्वोक्त विवरण से भी स्पष्ट है।

परम्परागत रूप से गुजरात के बनिये बहुधा अपना व्यवसाय वट-वृक्ष के नीचे करते थे। सत्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में सूरत में अपनी पहली व्यापारिक कोठी खोलने के उपरान्त अङ्ग्रेज़ व्यापारियों का इन बनियों से व्यापारिक व्यवहार स्थापित हुआ।


भारत के प्रभाव से दक्षिण पूर्व एशिया में भी बनिये वट-वृक्ष के नीचे व्यापार करते थे। यह चित्र इंडोनेशिया में वट-वृक्ष के नीचे पण्यशालाओं को दर्शाता है।

बनिया शब्द से अङ्ग्रेज़ी भाषा में वट-वृक्ष (बड़ के पेड़) के बनियों के व्यापारस्थल होने के कारण banyan (बैन्यान) शब्द प्रचलित हुआ।


अठारहवीं शताब्दी के मध्य की बनियान

यही नहीं; बनियों द्वारा पहनी जाने वाली सूती बण्डी को भी banyan कहा जाने लगा; जिसे हम अब बनियान कहते हैं।

यूरोप से आए व्यापारियों तथा भारत की व्यावसायिक श्रेणियों में कुछ समानता है; तो बहुत से अन्तर भी। यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है, जिस पर विचार किसी अन्य आलेख में।

साभार : अरविन्द व्यास

बनिया समुदाय का व्यापार में कुशल होने का क्या कारण है?

बनिया समुदाय का व्यापार में कुशल होने का क्या कारण है?

बनिया समाज में अग्रवाल, माहेश्वरी और जैन (ओसवाल, पोरवाल आदि) लोगों को लिया जाता है - मैं यहाँ पर राजस्थान के इन लोगों के बारे में बताऊंगा जिनको मारवाड़ी भी कहा जाता है. ये एक अफ़सोस है की साम्यवादी लेखकों के निहित लक्ष्यों के कारण मारवाड़ी को हर साहित्य और हर फिल्म में एक लोभी लालची के रूप में दर्शाया जाता रहा है. कोई भी फिल्म देखिये या कोई भी काल्पनिक उपन्यास पढ़िए - कुछ पात्र इस प्रकार लिखे जाएंगे - एक मारवाड़ी होगा जो बहुत लोभी और निर्दयी होगा और एक पठान होगा जो बहुत सहयोगी होगा - ये जानबूझ कर इस समाज को हीनभावना से भरने का षड्यंत्र था. मारवाड़ी समाज के बारे में कुछ शोध-आधारित सामग्री प्रस्तुत है - अगर आप फिल्मों में दिए हुए इम्प्रैशन को एक बार के लिए हटाएंगे तो इसको पढ़ पाएंगे नहीं तो आप ये ही मान कर चलेंगे - मारवाड़ी यानी .... .परिवर्तन संसार का नियम है और इसका कोई अपवाद नहीं है. हर अगली पीढ़ी को अपनी पिछली पीढ़ी पुरानी, दकियानूसी, पुरातनपंथी और अविकसित नजर आती है और इसी कारण हर अगली पीढ़ी पिछली पीढ़ी की व्यवस्थाओं को बदल देती है और नयी व्यवस्थाएं स्थापित करने का प्रयास करती है. इसी प्रक्रिया में कई परम्पराएं लुप्त हो जाती है और फिर हम चाह कर भी उनको नहीं सहेज सकते हैं. ऐसी ही एक व्यवस्था है मारवाड़ी प्रबंधन शैली. नयी पीढ़ी ने पाश्चात्य शिक्षा को अपना लिया है और वे अपने आपको मारवाड़ी कहने में भी संकोच करते हैं. जो मारवाड़ी प्रबंध शैली अनेक वर्षों की गुलामी के बाद भी सलामत रह गयी वो आजादी के बाद उपेक्षा का शिकार हुई और कुछ ही दशकों में लुप्त हो गयी. सरकार या किसी भी प्रबंध संस्थान की तरफ से इस अद्भुत प्रबंध शैली को लिपिबद्ध करने के लिए कोई प्रयास नहीं हुए. भारतीय प्रबंध संस्थानों ने विदेशों की प्रबंध शैलियों को सीखने और समझने में अपना सारा समय लगा दिया और उन्ही प्रबंध शैलियों को आगे बढ़ावा दिया लेकिन इस अद्भुत प्रबंध शैली को हीन दृष्टि से देखा और उस उपहास के कारण ये व्यवस्था आज लुप्त हो चुकी है. आज का ये फैशन बन गया है की प्रबंध सीखना है तो अमेरिका की कुछ प्रबंध संस्थाओं में जाओ (वो संस्थाएं वाकई महान है) लेकिन अफ़सोस तो ये है की अद्भुत प्रबंध दक्षता रखने वाले मारवाड़ी अपनी नयी पीढ़ी को अपनी प्रबंध दक्षता सिखाने की बजाय इसी फैशन में बह कर विदेश से प्रशिक्षित करवा रहे हैं. आधुनिक शिक्षित लोगों ने ऐसा चश्मा पहना है की उनको भारतीय व्यवस्थाओं में अच्छाइयां ढूंढने से भी नहीं मिलती हैं - शायद उनको मेरे इस लेख में भी कुछ भी काम का न मिले. लेकिन १०० साल बाद पश्चिम से किसी ने भारत पर अध्ययन किया और फिर किसी ने पूछा की अद्भुत भारतीय व्यवस्थाओं को समूल नष्ट करने के लिए कौन जिम्मेदार है तो क्या जवाब देंगे ?

एक समय मारवाड़ी व्यावसायिक दक्षता पूरी दुनिया में अपनी अद्भुत पहचान स्थापित कर चुकी थी लेकिन आज ये कला लुप्त होने के कगार पर है. मारवाड़ी प्रबंध शैली दुनिया में कहीं पर भी पूरी तरह से लिखी हुई नहीं है और ये उन लोगों के साथ ही विदा हो गयी है जो लोग इस कला में मर्मज्ञ थे. लेकिन जैसे ही ये पूरी तरह लुप्त हो जायेगी - वैसे ही हमें अहसास होगा की एक बहुत ही शानदार प्रबंध व्यवस्था हमने खो दी है.

लुप्त हुई मारवाड़ी व्यवस्था का आज कोई जिक्र बेमानी है लेकिन फिर भी उनकी कुछ व्यवस्थाओं के बारे में मैं अवश्य जिक्र करना चाहूँगा: -

१. मौद्रिक प्रबंधन और ब्याज गणना की अद्भुत व्यवस्था : - मारवाड़ी प्रबंध व्यवस्था का आधार मौद्रिक गणना है और इसी कारण ब्याज को नियमित रूप से गिना जाता है जो की पैसे के समुचित सदुपयोग के लिए जरुरी है. फिल्मों में मारवाड़ी ब्याज पर बहुत ही उपहास और व्यंग्य नजर आते हैं लेकिन आज ये ही व्यवस्थाएं आधुनिक बैंकिंग संस्थाएं अपना रही है. बाल्यकाल से ही गणना (गणित) का प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था और इसी कारण बिना केलकुलेटर के भी कोई भी व्यक्ति दशमलव अंकों की गुना-भाग भी आसानी से कर लिया करते थे और गणना में छोटी से छोटी गलती की भी बड़ी सजा मिलती थी. ब्याज जितना होता है उतना ही लेना सिखाया जाता है - एक पैसा भी हराम का लेना पाप है और इसी प्रशिक्षण के कारण मारवाड़ी ब्याज की गणना भी करता है लेकिन अपने धर्म का भी पालन करता है - लेकिन अफ़सोस ये है की आपने तो फिल्मों में उसको हमेशा लोभी और लालची के रूप में ही देखा है - आप जब तक मारवाड़ी परिवारों में रह कर ये सब नहीं देखोगे विश्वास नहीं करोगे - मैंने तो बचपन से ये सब देखा भी है और बार बार आजमाया भी है - कई बार जान बुझ कर ज्यादा भुगतान कर के भी देखा और एक एक पाई वापिस लेनी पड़ेगी क्योंकि हराम का नहीं लेना बचपन से सिखाया जाता है - बचपन से ये ही प्रशिक्षण मिलता है की सही नियत रखिये और सही गणना करिये

२. जीवन पर्यन्त की प्रबंध कारिणी - यानी मुनीम व्यवस्था: मारवाड़ी व्यवस्था में मुनीम को बहुत ही अधिक महत्त्व दिया जाता था. मुनीम को आधुनिक व्यवस्था के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के सामान इज्जत और सम्मान दिया जाता था और उसके ऊपर पूरा विश्वास किया जाता था. उसको पारिवारिक सदस्य की तरह सम्मान मिलता था. उसको जीवन पर्यन्त के लिए व्यवसाय का प्रबंधक नियुक्त कर दिया जाता था. उसके परिवार की जिम्मेदारियां भी उठाई जाती थी ताकि उसके परिवार को कोई परेशानी न हो.

३. पड़ता व्यवस्था : मारवाड़ी निर्णय का आधार पड़ता यानी शुद्ध लाभ. शुद्ध लाभ की गणना का ये तरीका अद्भुत था. इसमें सिर्फ अस्थायी आय और अस्थायी खर्चों के आधार पर हर निर्णय से मिलने वाले शुद्ध लाभ या हानि पर चिंतन कर के ये निर्णय लिया जाता था की मूल्य क्या रखा जाए.

४. संसाधन बचत : मारवाड़ी अपने हर निर्णय में संसाधनों का कमसे कम इस्तेमाल कर के अधिक से अधिक बचत करने का प्रयास करते थे और इस प्रकार पर्यावरण की बचत में योगदान देते थे. मारवाड़ी एक दूसरे को चिठ्ठी भी लिखते थे तो उसमे कम से कम कागजों का इस्तेमाल करते हुए अधिक से अधिक जानकारियां प्रेषित करते थे.

५. बदला व्यवस्था: मारवाड़ी अपने सौदों को भविष्य में स्थानांतरित करने के लिए बदला व्यवस्था काम में लेते थे जिसके तहत सौदों को आगे की तारीख पर करने के लिए निश्चित दर से ब्याज की गणना होती थी. (ऐसी ही कुछ व्यवस्था विकसित करने के लिए दो अर्थशास्त्रियों को हाल ही में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया लेकिन मारवाड़ियों की इस व्यवस्था को रोक दिया गया था)

६. हुंडी व्यवस्था: आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था के शुरू होने से भी अनेक वर्ष पहले से मारवाड़ी व्यापारी हुंडी व्यवस्था को चलाते आ रहे हैं जिसको अंग्रेजों ने पूरी तरह से रोक दिया और फिर आजादी के बाद आधुनिक सरकार ने पूरी तरह से ख़तम कर दिया था. ये हुंडी व्यवस्था आज की आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था से कम लागत पर मुद्रा के स्थानांतरण का माध्यम था जिसमे बिना तकनीक या बिना इंटरनेट के भी आज की तरह ही एक जगह से दूसरी जगह पर मुद्रा का आदान प्रदान होता था.

७. पर्यावरण अनुकूल निर्णय: मारवाड़ी हमेशा पर्यावरण अनुकूल निर्णय लिया करते थे - जिसमे वे स्थानीय पर्यावरण को नुक्सान पहुंचाए बिना ही व्यापार और व्यवसाय को बढ़ावा देने का प्रयास करते थे.

८. धार्मिक और आध्यात्मिक चेतना : व्यापार शुरू करने से पहले वे मंदिर बनाते थे और शुभ - लाभ लिखते थे. शुभ यानी हर व्यक्ति का कल्याण लाभ से पहले लिखते थे ताकि हर निर्णय को सबके कल्याण के लिए ले सकें. हर निर्णय को धर्म - और अध्यात्म के आधार पर जांचा जाता था. तकनीक के देवता विश्वकर्मा की पूजा की जाती थी तो धन के देवता गणेश और लक्ष्मी को आराध्य माना जाता था. सभी निर्णय सिद्धांतों पर आधारित होते थे और सबसे बड़ा सिद्धांत ये था की जो भी निर्णय हो वो जीवन को जन-कल्याण और आत्मकल्याण की तरफ ले जाए. जीवन का मकसद था केवलयज्ञान की तरफ जाना और इसी लिए हर निर्णय को पुण्य का अवसर के रूप में देखा जाता था और पाप से बचने के प्रयास किये जाते थे. ऐसी तकनीक नहीं अपनायी जाती थी जिससे जीवों का नाश हो. शुरुआत करते समय से ही सकल भ्रमांड के कल्याण को आदर्श के रूप में रखा जाता था.

९. देवों को अर्पण : - हर व्यापारिक निर्णय श्री गणेश और रिद्धि सिद्धी की आराधना के बाद किया जाता है. श्री गणेश विघ्नहर्ता हैं तो उनकी पत्नियां ऋद्धि-सिद्धि यशस्वी, वैभवशाली व प्रतिष्ठित बनाने वाली होती है. आय का कुछ हिस्सा देवों को अर्पित कर दिया जाता था जो किसी न किसी रूप में समाज के कल्याण के काम में आता था. व्यापार की आम्दानी का कुछ भाग गोशाला या ऐसी ही अन्य किसी संस्था को देने से ये माना जाता था की देवताओं का हिस्सा उनको अर्पित कर दिया गया है. प्राचीन भारत में इसी कारण मंदिरों में प्रचुर संपति दान में आती थी जो किसी न किसी रूप में समाज के कल्याण हेतु अर्पित की जाती थी.

१०. गद्दियों की व्यवस्था: आधुनिक तड़क भड़क की जगह मारवाड़ी अपने व्यापारिक प्रतिष्ठानों में गद्दियों की व्यस्था रखते थे जो बहुत ही आरामदायक, आत्मीयता पूर्ण और स्वच्छता पर आधारित माहौल बनाती थी. ये मेहमानों के ढहरने के लिए भी काम आती थी. किसी मेहमान को जरुरत के समय इन्हीं गद्दियों में रुकने के लिए पर्याप्त व्यवस्था कर दी जाती थी ताकि अनावश्यक होटल का खर्च भी नहीं होता था. आधुनिक एयर कंडीशन ऑफिसों से तुलना करके पर्यावरण के ज्यादा अनुकूल क्या है ये आप स्वयं तय कर सकते हैं.

११. बचत और उत्पादकता पर जोर : मारवाड़ी व्यवस्था में बचत और उत्पादकता पर बहुत अधिक जोर दिया जाता था और इसी कारण विषम परिस्थितियों में भी मारवाड़ियों ने व्यापार कर के अपने आप को सफल बनाया. आधुनिक कंपनियों की जगह पर मारवाड़ियों ने बचत और उत्पादकता के क्षेत्र में शानदार कार्य किया और वैश्विक व्यापार स्थापित किया. रविवार की जगह पर अमावस्या की छुट्टी होती थी (यानि महीने में सिर्फ एक दिन की छुट्टी) - लेकिन सामान्य दिनों में भी कार्य के घंटे बहुत ज्यादा होते थे - लेकिन हर कर्मचारी को साल में एक महीने अपने गांव जाने की छुट्टी दी जाती थी.

१२. जरुरत पड़ने पर राज्य की मदद: - मारवाड़ी व्यवसायी उस समय के राजा की जरुरत के समय आर्थिक मदद किया करते थे और इसी कारन अनेक शहरों में मारवाड़ी व्यापारियों को नगर-शेठ की उपाधि दी जाती थी. कई बार देश हित में व्यापार और उद्यम की बलि भी चढ़ा दी जाती थी.

१३. स्थानीय लोगों की भागीदारी: मारवाड़ी जहाँ पर भी व्यापार करने के लिए जाते थे वहां के स्थानीय लोगों को अपने व्यापार और उद्योगों से लाभान्वित करने का प्रयास करते थे और इसी कारण उनको स्थानीय लोगों से पर्याप्त सहयोग और सम्मान मिलता था.

१४. शांतिपूर्ण ढंग से विरोध को सहना : मारवाड़ियों को अन्य भारतियों की तरह सत्ता पक्ष से विरोध का सामना करना पड़ा. डाकुओं, लुटेरों और अनेक अधिकारियों को मारवाड़ी सरल लक्ष्य नजर आते थे जिन पर वे अपने अत्याचार आसानी से कर लेते थे. सत्ताधारी उनसे मनमाना टैक्स वसूलते थे. ब्याज की सूक्ष्म गणना किसी को भी अच्छी नहीं लगती थी. लोग मारवाड़ियों से पैसे तो उधार लेना चाहते थे लेकिन ब्याज नहीं देना चाहते थे लेकिन मारवाड़ियों की सफलता का आधार ही उनकी सूक्ष्म गणना थी जिस के कारण वे पैसे के सही इस्तेमाल पर जोर देते थे. अंग्रेजों और उनके इतिहासकारों ने मारवाड़ियों को सूदखोर के रूप में स्थापित किया क्योंकि अंग्रेजों को मारवाड़ियों की व्यवस्था बैंकिंग व्यवस्था से बेहतर नजर आयी और वे आधुनिक बैंकिंग को बढ़ावा देने के लिए मारवाड़ियों को हटाना चाहते थे - जबकि मारवाड़ी खुद बैंकिंग व्यवस्था के समर्थक थे और बैंकें भी मारवाड़ियों की तरह चक्रवर्ती ब्याज लेती थी. मारवाड़ी किसानों को जरुरत के समय पर ऋण प्रदान करदेते थे और इसी कारण अनेक वर्षों से मारवाड़ियों ने किसानों के साथ मिल कर हर जगह पर कृषि को सफल बनाने में योगदान दिया था लेकिन ये आधुनिक व्यवस्था में नकारात्मकता के माहौल में तब्दील हो गया. अंग्रेजों के बाद में आधुनिक भारत में मारवाड़ियों के योगदान और उद्यमिता को पूरी तरह से विरोध का सामना करना पड़ा और उसी के कारण मारवाड़ियों ने परम्परागत व्यवस्थाओं को बदल दिया और नयी प्रोफेशनल प्रबंधन पर आधारित व्यवस्थाओं को अपना लिया ताकि उनका विरोध न हो. आधुनिक मीडिया द्वारा मारवाड़ियों का पूरी तरह से नकारात्मक चित्रण हुआ और इस प्रकार उनकी उद्यमिता को लगाम लग गयी. मारवाड़ियों की नयी पीढ़ी अपने आपको मारवाड़ी कहने में भी हिचकिचाने लगी.

१५. सामाजिक उद्यमिता : मारवाड़ी उद्यमी अपनी आय में से कुछ राशि बचा कर के समाज के लिए कुछ करना चाहते थे और इसी क्रम में उन्होंने प्याऊ, गोशालाएं, मंदिर, शिक्षण संस्थाएं, अस्पताल और धर्मशालाओं का निर्माण किया. उनके प्रयासों से राजस्थान में विकट परिस्थितियों में भी लोगों को रहने में दिक्कत नहीं आयी. आजादी से पहले अनेक शिक्षण संस्थाएं मारवाड़ियों ने इस प्रकार स्थापित की ताकि भारतीय संस्कृति भी सलामत रहे और युवा पीढ़ी भी शिक्षित हो सके.

१६. विपणन की व्यक्तिगत शैली: - आधुनिक विज्ञापन आधारित व्यवस्था की जगह पर मारवाड़ी व्यवसायी व्यक्तिगत संपर्क और व्यक्तिगत सेवा पर आधारित विपणन व्यवस्था अपनाते थे जिसमे एक व्यक्ति को ग्राहक बनाने के बाद पूरी जिंदगी उसकी जरूरतों के अनुसार उत्पाद उसको प्रदान करते थे. व्यापारिक रिश्तों को पूरी जिंदगी निभाया जाता था और व्यापारिक सम्बन्ध मधुर व्यवहार, वैयक्तिक संबंधों और आपसी विश्वास पर आधारित होते थे. "अच्छी नियत" के आधार पर ही सारे निर्णय लिए जाते थे ताकि पूरी जिंदगी व्यापारिक सम्बन्ध बना रहे और इसी लिए आपसे मेलजोल, जमाखर्च, लेनदेन और आपसी खातों के मिलान पर बहुत अधिक जोर दिया जाता था.

१७ दीर्धजीवी उत्पाद : मारवाड़ी ऐसे उत्पाद विकसित करते थे जो दीर्ध समय तक सलामत रह सके और इस प्रकार निवेश करते थे ताकि दीर्ध काल तक कोई दिक्कत न आये. आधुनिक कम्पनियाँ ऐसे उत्पाद बनाती है जो अलप काल में ही नष्ट हो जाएं. वे पैकेजिंग और विज्ञापन पर अत्यधिक अपव्यय करती है लेकिन मारवाड़ी लोग इस प्रकार के अपव्यय को बचाते थे.

१८. साख पर बल: मारवाड़ी अपने व्यापर में साख बनाने पर सबसे अधिक जोर देते थे और साख पर किसी भी हालत में आंच नहीं आने देते थे. इसी कारण "गुडविल" शब्द के आने से बहुत पहले से साख और "नाम" जैसे शब्द मारवाड़ी व्यापारिक जगत में काम आते थे.

१९. कार्य विभाजन व युवाओं को मार्गदर्शन : मारवाड़ी व्यापर में बुजुर्ग लोग नीतिगत निर्णय लेते हैं लेकिन युवा रोज का काम देखते हैं - अतः इस प्रकार सभी लोगों में काम बंटे रहते थे और आपसी तालमेल भी बना रहता था. सबसे बड़ा पुरुष व्यक्ति कर्ता कहलाता था और वो सभी नीतिगत निर्णय लेता था. परिवार के युवा उससे मार्गदर्शन ले कर रोजमर्रा के निर्णय लेते थे और उसको एक एक पैसे का हिसाब देते थे. पूरे घर में एक ही रसोई होती थी और अन्न का एक दाना भी व्यर्थ में नहीं बहाया जाता था. अन्न का सबसे पहला टुकड़ा गाय, फिर अन्य प्रमुख जानवरों जैसे कुत्तों आदि के लिए निकला जाता था और फिर घर के लोग खाना कहते थे. भोजन सामान्य लेकिन होता था लेकिन बड़े प्यार से मिल कर खाने में अलग ही आनंद होता था. थाली में एक भी दाना व्यर्थ नहीं छोड़ा जाता था. थाली में सबसे पहले कर्ता भोजन की शुरुआत करता था और आखिर में भी वो ये ही देखता की कोई भी भूखा नहीं रह गया है और सबसे आखिरी दाना (अगर कुछ बच जाए) गृह स्वामिनी उठाती थी. आज की बड़ी कंपनियों की पांच सितारा संस्कृति की तुलना में बहुत कम भोजन व्यर्थ जाता था. भोजन के समय ही अच्छे उद्यमियों और अच्छे सामाजिक आदर्शों का वृत्तांत सुनाया जाता था जो युवाओं को श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए प्रेरित करता था. ऐसा माना जाता था की साथ में भोजन करने से आपसी प्रेम बढ़ता है. साल में कम से कम एक बार पूरा परिवार तीर्थयात्रा के लिए या सत्संग के लिए जाता था जो परिवार के लोगों को जीवन मूल्यों से जोड़ देता था. व्यवसाय का केंद्र परिवार था - परिवार का आपसी प्रेम व्यापारिक संबंधों में भी परिलक्षित होता था.

२०. प्रेम भरा संवाद : मारवाड़ी लोगों ने अनेक व्यवस्थाएं की थी जिनमे आपसी मधुर संवाद हो सके. सब पुरुष लोग एक साथ एक ही थाली में भोजन करते थे और सब महिलायें एक साथ एक ही थाली में भोजन करती थी. इस प्रकार भोजन के दौरान आपस में मधुर संवाद स्थापित हो जाता था. रात्रि में युवा वर्ग बुजुर्गों के पैर दबाता था और उसी दौरान बुजुर्ग लोग युवाओं को व्यापारिक सीख भी दिया करते थे और दिन भर के समाचार भी पूछ लेते थे. उसी समय वे उनको व्यावसायिक नीतियों और परम्पराओं की शिक्षा भी प्रदान करते थे. इसी प्रकार मारवाड़ी उद्यमी अपने कर्मचारियों से भी प्रेम से बात करते थे और इस प्रकार एक सौहार्द-पूर्ण माहौल बनाया करते थे.

२१. सुव्यवस्थित खाते और सुव्यवस्थित वार्षिक विवरण : - मारवाड़ी उद्यमी दिवाली से दिवाली अपने व्यापार के बही - खाते रखते थे. बहीखाते बहुत ही सुन्दर अक्षरों में लिखे जाते थे जिनमे कभी भी कोई त्रुटि नहीं होती थी. हर विवरण बहुत ही सहेज कर रखा जाता था. हर दिवाली को नयी पुस्तकों में खाते - बही की पूजा कर के शुरुआत की जाती थी. हर खाता पूरी तरह से व्यवस्थित होता था. उस जमाने में कम्प्यूटर नहीं था अतः सारे खाते वर्षों तक सुरक्षित रखे जाते थे.

पूरी दुनिया जानती है किस प्रकार बजाज, बिरला, सिंघानिया, पीरामल, लोहिया, दुगड़, गोलछा, संघवी, मित्तल, पोद्दार, रुइया, और बियानी आदि घराने अपने व्यापारिक कौशल से आगे बढे हैं. बिरला समूह तो इस बात के लिए जाना जाता है की वो फैक्ट्री बाद में लगाता है - पहले वहां लक्ष्मी नारायण का मंदिर बनाता है, लोगों को रहने के लिए मकान देता है और फिर फैक्ट्री लगाता है. है न अद्भुत बात. भामा शाह ने राणा प्रताप को दिल खोल कर मदद की तो जमनालाल बजाज ने गाँधी जी को दिल खोल कर मदद की. इन्हीं नीतियों के कारण अंग्रेजों के आने से पहले भारत में लाखों गुरुकुल, उपासरे, पोशालाएँ, धर्मशालाएं, भोजनशलायें कार्यरत थी और उस समय की शिक्षा मूल्य परक थी. उस समय में हर घर में श्रवण कुमार जैसे पुत्र होते थे जो अपने व्यापार से ज्यादा अपने माँ - बाप और देश की सेवा को तबज्जु देते थे. मारवाड़ी व्यवस्था में कमियां निकालना बहुत आसान है लेकिन उसकी जो अच्छाइयां हैं उनको अगर आज का उद्यमी अपनाता है तो वो निश्चित रूप से पर्यावरण के अनुकूल प्रबंध व्यवस्था स्थापित कर पायेगा और इससे उसका और इस दुनिया का दोनों का भला ही होगा. लेकिन लुप्त हो रही इस व्यवस्था से सीखना और इसको आगे बचाना अब तो मुश्किल ही है. अमेरिका की आधुनिक प्रबंध शिक्षा हो सकता है अधिक आर्थिक सफलता प्रदान कर दे लेकिन जो सुकून और पर्यावरण से जो जुड़ाव भारतीय व्यवस्थाओं ने स्थापित किया था वो तो अब लुप्त ही हो गया है और इसके लिए वर्तमान पीढ़ी ही जिम्मेदार है.

साभार - त्रिलोक जैन जी

हर बनिया अंततः समाज के बारे में ही सोचता है,,,

हर बनिया अंततः समाज के बारे में ही सोचता है,,,

बनिया ही वह जमात है जिसकी वजह से आज हम सभी का अस्तित्व है,,

किसान और बनिया हमारे समाज की रीढ़ हैं ,, किसान पैदा करता है तो बनिया उस पैदावार या उससे प्राप्त उप पैदावार का समाज में कुशलता के साथ वितरण कर जन जन तक पहुंचाने का काम करता है,,,

हो सकता है आपको बनिया , मुनाफाखोर,,जमाखोर ,,टेक्स चोर,,और ना जाने क्या क्या लगता होगा,,,पर एक बार जब आप व्यापार करके देखें,,, व्यापार को जिंदा रखने के लिए मुनाफा भी आवश्यक है तो जमा रखना भी जरूरी है,,,

बनिया ही वह जमात है जो अपने व्यापार से मुनाफे का कुछ हिस्सा समाज पर ही खर्च सदियों से करता आया है,,

आज हमारे दादे परदादों से लेकर हम आज तक,,जिन अस्पतालों में इलाज करवाया है या करवा रहे हैं वे सभी बनियों की ही देन हैं,,,जिन कूओं और बावड़ियों का पानी हमारे पुरखों ने पीया है वो सब बनियों की ही देन है,,,

मंदिर, स्कूल कालेज ,, धर्मशालाएं,,, जगह जगह प्याऊ, समय देखने के लिए घंटाघर, ,,चुग्गा घर,, अनेकों बिमारियों के इलाज के लिए नियमित शिविरों के आयोजन, गरीबों की बेटियों की शादियां,,, जरुरतमंद विद्यार्थियों के लिए छात्रवृत्ति, सर्दियों में जरुरतमंद के लिए कंबल और गर्म कपड़ों के बंदोबस्त, अपने व्यापार से करोड़ों लोगों को रोजगार,, गौशालाएं,, पशुओं के लिए जगह जगह चारे और पानी की व्यवस्था,,, और भी ना जाने क्या क्या,,

बनियों ने क्या नहीं किया समाज के लिए,,

आज बनिया समाज का ऋण हम तो क्या हमारी सात पुश्तें भी नहीं चुका सकती,,,

बनिया समाज को मेरा सादर प्रणाम,,🙏🙏

Manoj Gorsia

क्‍या कोई हवेली इतनी खुबसूरत हो सकती है -

क्‍या कोई हवेली इतनी खुबसूरत हो सकती है 


क्‍या कोई हवेली इतनी खुबसूरत हो सकती है

डुंडलोद स्थित गोयनका हवेली खुर्रेदार हवेली के नाम से प्रसिद्ध है। स्थापत्य के अप्रतिम उदाहरण इस हवेली का निर्माण उद्योग कर्मी अर्जन दास गोयनका द्वारा करवाया गया था जो अपने समय के सुविज्ञ और दूरदर्शी थे।व्यापार-व्यवसाय से जुड़े होने के बावजूद वे लोक रंग लोकरीति और लोक कलाओं के संरक्षण

डुंडलोद स्थित गोयनका हवेली खुर्रेदार हवेली के नाम से प्रसिद्ध है। स्थापत्य के अप्रतिम उदाहरण इस हवेली का निर्माण उद्योग कर्मी अर्जन दास गोयनका द्वारा करवाया गया था जो अपने समय के सुविज्ञ और दूरदर्शी थे।व्यापार-व्यवसाय से जुड़े होने के बावजूद वे लोक रंग लोकरीति और लोक कलाओं के संरक्षण के प्रबल इच्छुक थे और इसलिए उन्होंने अपनी इस विशालकाय चौक की हवेली के बाहर दो बैठकें, आकर्षक द्वार और भीतर सोलह कक्षों का निर्माण करवाया था जिनके भीतर कोटडि़यों, दुछत्तियों, खूटियों, कडि़यों की पर्याप्त व्यवस्था रखी गई थी। उन्हें प्राचीन दुर्लभ ग्रंथों, आकर्षक बर्तनों, खाट-मुढ्ढियां, झाड़-फानूस, आदमकद शीशों और औषधियों के लिए सुंदर बोतलों को एकत्रित करने का शहंशाही शौक था।

लोक चित्रों का संग्रह


उनके वंशज मोहन गोयनका ने सन् 1950 में हवेली के कुछ कमरे खोल कर देखे थे जिन्हें 2004 में फिर से खोल दिया गया है। भीतर से पूरी तरह चित्रांकित इस हवेली को नया रूप देने का कार्य 2000 में ही शुरू कर दिया था।


उन्होंने यह सोचते हुए कि शेखावटी में कलात्मक और दुर्लभ वस्तुओं के प्रदर्शन का कोई संग्रहालय नहीं है, इस हवेली को एक अतुलनीय संग्रहालय बनाने का निर्णय लिया। इस घुमावदार खुर्रे की हवेली का भीतरी हिस्सा लोक चित्रों से भरा पूरा है जिनमें श्रीकृष्णकालीन लीलाओं के चित्रों की बहुतायत है।

संगमरमरी पत्थरों पर अंकित रासलीला


रामगढ़ शेखावाटी में राम गोपाल पोद्दार की छतरी में राम कालीन कथा चित्रांकित है, घनश्याम दास पोद्दार कीहवेली आकर्षक और कलात्मक है तो ताराचंद रूइया और रामनारायण खेमका हवेली के अपने आकर्षण हैं। झुंझुनूं में टीबड़े वालों की हवेली और ईसरदास मोदी की सैकड़ों खिड़कियों वाली भव्य हवेलियां हैं।


फतेहपुर में नंदलाल डेबड़ा की हवेली, कन्हैयालाल गोयनका की हवेली, नेमी चंद चौधरी की हवेली और सिंघानियों की हवेली ऐसी इमारतें है जिन्हें देखना पर्यटक पसंद करते हैं। महनसर में सेजराम पोद्दार की हवेली की सोने-चांदी की दुकान, पोद्दारों की छतरियां और गढ़ भव्य इमारतें हैं तो बिसाऊ में सीताराम सिगतिया की हवेली और पोद्दारों की हवेली का कोई जवाब नहीं है।


मंडावा में सागरमल लडि़या की हवेली, रामदेव चौखानी की हवेली मोहनलाल नेवटिया की हवेली रामनाथ गोयनका की हवेली हरी प्रसाद ढेंढारिया की हवेली ओर बुधमल मोहनलाल की भी दर्शनीय है।


चूड़ी में शिवप्रसाद नेमाणी की हवेली भी कलात्मकता का परिचय देती है जहां शिवालय की छतरी में श्रीकृष्ण कालीन रासलीलाएं संगमरमरी पत्थरों पर अंकित हैं। चूरू में भी मालजी का कमरा, सुराणों का हवामहल, रामविलास गोयनका की हवेली, मंत्रियों की बड़ी हवेली और कन्हैयालाल बागला की हवेली दर्शनीय है।

सर्वश्रेष्ठ नागरिक बनिये

सर्वश्रेष्ठ नागरिक बनिये 

कुछ समय से सोशल मीडिया पर कुछ लोगो को वैश्यो का तिरस्कार करते देख रही हूँ। कभी लोग उनके सामाजिक योगदान पर सवाल करते है तो कभी उन्हें तरह-तरह के ताने देते है और कुछ लोग तो दो कदम आगे निकलकर उनके अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर रहे है
 
मै भी एक वैश्य हूँ लेकिन पहले ये सबकुछ देखकर भी इग्नोर कर देती थी क्योकि ये बातें यूजलेस लगती थी लेकिन अब लोग हदे पार करने लगे है तो वैश्य जो अभी सिर्फ मौन है आज बताउंगी कि वो कौन है!

शुरुआत भारतीय इतिहास से करती हूँ तो आपको बताती हूँ कि भारतीय इतिहास मे वैश्यो का क्या योगदान था प्राचीनकाल से वैश्यो की आर्थिक स्थिति अच्छी ही रही है राजस्थान के किले, हवेलियाँ आदि देखने के बाद आपने कभी सोचा कि उस राजस्थान में जहाँ का मुख्य कार्य कृषि ही था और राजस्थान में जब वर्षा भी बहुत कम होती थी तो उससे कृषि उपज का अनुमान भी लगाया जा सकता है कि कितनी उपज होती होगी? सिंचाई के साधनों की कमी से किसान की उस समय क्या आय होती होगी? जो किसी राजा को इतना कर दे सके कि उस राज्य का राजा बड़े बड़े किले व हवेलियाँ बनवा ले| जिस प्रजा के पास खुद रहने के लिए पक्के मकान नहीं थे| खाने के लिए बाजरे के अलावा कोई फसल नहीं होती थी| और बाजरे की बाजार वेल्यु तो आज भी कुछ नही है तो उस वक्त क्या होगी? मेरा कहने का मतलब सिर्फ इतना ही है कि जिस राज्य की प्रजा गरीब हो वो राजा को कितना कर दे देगी ? कि राजा अपने लिए बड़े बड़े महल बना ले| राजस्थान में देश की आजादी से पहले बहुत गरीबी थी| राजस्थान के राजाओं का ज्यादातर समय अपने ऊपर होने वाले आक्रमणों को रोकने के लिए आत्म-रक्षार्थ युद्ध करने में बीत जाता था| ऐसे में राजस्थान का विकास कार्य कहाँ हो पाता ? और बिना विकास कार्यों के आय भी नहीं बढ़ सकती| फिर भी राजस्थान के राजाओं ने बड़े बड़े किले व महल बनाये, सैनिक अभियानों में भी खूब खर्च किया| जन-कल्याण के लिए भी राजाओं व रानियों ने बहुत से निर्माण कार्य करवाये| उनके बनाये बड़े बड़े मंदिर, पक्के तालाब, बावड़ियाँ, धर्मशालाएं आदि जनहित में काम आने वाले भवन आज भी इस बात के गवाह है कि वे जनता के हितों के लिए कितना कुछ करना चाहते और किया भी, अब सवाल ये उठता है कि फिर उनके पास इतना धन आता कहाँ से था ?

राजस्थान के शहरों में महाजनों की बड़ी बड़ी हवेलियाँ देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि उनके पास धन की कोई कमी नहीं थी कई सेठों के पास तो राजाओं से भी ज्यादा धन था और जरुरत पड़ने पर ये सेठ ही राजाओं को धन देते थे| राजस्थान के सेठ शुरू ही बड़े व्यापारी रहें है राजा को कर का बहुत बड़ा हिस्सा इन्हीं व्यापरियों से मिलता था| बदले में राजा उनको पूरी सुरक्षा उपलब्ध कराते थे| राजा के दरबार में सेठों का बड़ा महत्व व इज्जत होती थी| उन्हें बड़ी बड़ी उपाधियाँ दी जाती थी| सेठ लोग भी अक्सर कई समारोहों व मौकों पर राजाओं को बड़े बड़े नजराने पेश करते थे| एक ऐसा ही उदाहरण सुरेन्द्र सिंह जी सरवडी से सीकर के राजा माधो सिंह के बारे में सुनने को मिला था- राजाओं के शासन में शादियों में दुल्हे के लिए घोड़ी, हाथी आदि राजा की घुड़साल से ही आते थे| राज्य के बड़े उमराओं व सेठों के यहाँ दुल्हे के लिए हाथी भेजे जाते थे|

सीकर में राजा माधोसिंह जी के कार्यकाल में एक बार शादियों के सीजन में इतनी शादियाँ थी कि शादियों में भेजने के लिए हाथी कम पड़ गए| किंवदन्ती थी कि राजा माधो सिंह जी ने राज्य के सबसे धनी सेठ के यहाँ हाथी नहीं भेजा बाकि जगह भेज दिए| और उस सेठ के बेटे की बारात में खुद शामिल हो गए जब दुल्हे को तोरण मारने की रस्म अदा करनी थी तब वह बिना हाथी की सवारी के पैदल था यह बात सेठजी को बहुत बुरी लग रही थी| सेठ ने राजा माधो सिंह जी को इसकी शिकायत करते हुए नाराजगी भी जाहिर की पर राजा साहब चुप रहे और जैसे ही सेठ के बेटे ने तोरण मारने की रस्म पूरी करने को तोरण द्वार की तरफ तोरण की और हाथ बढ़ाया वैसे ही तुरंत राजा ने लड़के को उठाकर अपने कंधे पर बिठा लिया और बोले बेटा तोरण की रस्म पूरी कर| यह दृश्य देख सेठ सहित उपस्थित सभी लोग अचंभित रह गए| राजा जी ने सेठ से कहा देखा – दूसरे सेठों के बेटों ने तो तोरण की रस्म जानवरों पर बैठकर अदा की पर आपके बेटे ने तो राजा के कंधे पर बैठकर तोरण रस्म अदा की है| इस अप्रत्याशित घटना व राजा जी द्वारा इस तरह दिया सम्मान पाकर सेठजी अभिभूत हो गए और उन्होंने राजा जी को विदाई देते समय नोटों का एक बहुत बड़ा चबूतरा बनाया और उस पर बिठाकर राजा जी को और धन उपहार में दिया| इस तरह माधोसिंह जी ने सेठ को सम्मान देकर अपना खजाना भर लिया|

इस घटना से आसानी से समझा जा सकता है कि राजस्थान के राजाओं के पास धन कहाँ से आता था| राजाओं की पूरी अर्थव्यवस्था व्यापार से होने वाली आय पर ही निर्भर थी न कि आम प्रजा से लिए कर पर|

व्यापारियों की राजाओं के शासन काल में कितनी महत्ता थी सीकर की ही एक और घटना से पता चलता है- सीकर के रावराजा रामसिंह एक बार अपनी ससुराल चुरू गए| चुरू राज्य में बड़े बड़े सेठ रहते थे उनके व्यापार से राज्य को बड़ी आय होती थी| चुरू में उस वक्त सीकर से ज्यादा सेठ रहते थे| जिस राज्य में ज्यादा सेठ उस राज्य को उतना ही वैभवशाली माना जाता था| इस हिसाब से सीकर चुरू के आगे हल्का पड़ता था| कहते है कि ससुराल में सालियों ने राजा रामसिंह से मजाक की कि आपके राज्य में तो सेठ बहुत कम है इसलिए लगता है आपकी रियासत कड़की ही होगी| यह मजाक राजा रामसिंह जी को चुभ गई और उन्होंने सीकर आते ही सीकर राज्य के डाकुओं को चुरू के सेठों को लूटने की छूट दे दी| डाकू चुरू में सेठों को लूटकर सीकर राज्य की सीमा में प्रवेश कर जाते और चुरू के सैनिक हाथ मलते रह जाते| सेठों को भी परिस्थिति समझते देर नहीं लगी और तुरंत ही सेठों का प्रतिनिधि मंडल सीकर राजाजी से मिला और डाकुओं से बचाने की गुहार की| राजा जी ने भी प्रस्ताव रख दिया कि सीकर राज्य की सीमाओं में बस कर व्यापार करो पूरी सुरक्षा मिलेगी| और सीकर राजा जी ने सेठों के रहने के लिए जगह दे दी, सेठों ने उस जगह एक नगर बसाया , नाम रखा रामगढ़| और राजा जी ने उनकी सुरक्षा के लिए वहां एक किला बनवाकर अपनी सैनिक टुकड़ी तैनात कर दी| इस तरह सीकर राज्य में भी व्यवसायी बढे और व्यापार बढ़ा| फलस्वरूप सीकर राज्य की आय बढ़ी और सेठों ने जन-कल्याण के लिए कई निर्माण कार्य यथा विद्यालय, धर्मशालाएं, कुँए, तालाब, बावड़ियाँ आदि का निर्माण करवाया| जो आज भी तत्कालीन राज्य की सीमाओं में जगह जगह नजर आ जाते है और उन सेठों की याद ताजा करवा देते है|

वैश्य हमेशा से ही अपने देश और धर्म के साथ रहे है और ये अभी से नही है बल्कि राजा महाराजाओं के समय से है वैश्य हमेशा से सबको फाइनेंसियल मदद करते आए है जागीरों की प्रशासन व्यवस्था चलाने, सामंतों को ऋण प्रदान करने में, ब्रिटिश सरकार का कर चुकाने तथा राजपूतों को उनकी सामाजिक रूढ़ियों और गौरव का निर्वाह करने के लिए समय समय पर सेठ साहूकारों की शरण लेनी पड़ती थी । इससे वैश्य महाजनों का सामाजिक और राजनितिक रुतबा भी बड़ा था। आदिकाल से लेकर मानव जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के हर क्षेत्र में वैश्य समाज का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रहा हैं महाराणा प्रताप के समय में यह बात उस समय सिद्ध हो गई जब राणा जी पर परेशानी पड़ी और सेना एकत्रित करने के लिये पैसा चाहिये था तो भामाशाह ने अशरफियों का ढेर उनके सामने लगा दिया। इसी प्रकार अन्य शासकों के शासनकाल में भी वैश्य समाज के योगदान को बादशाओं व राजाओं ने खूब सराहा और फिर उन्हे बड़ी बड़ी पदवियां भी दी। कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि वैश्य समाज का मानव जाति के उत्थान में बहुत बडा योगदान रहा है, मेरा मानना है कि हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण वैश्य आखिर खराब कैसे हो सकते हैं। अगर कुछ लोगों को कमी दिखाई देती है तो वो पहले अपने अंदर झांककर देखे और जब वो एक उंगली दूसरे पर उठाता है तो तीन उंगलियां उस पर उठ रही हैं।

क्योंकि कुछ भी कह लों जिस प्रकार अन्नदाता किसान के योगदान को कोई भी नकार नहीं सकता उसी प्रकार वैश्य व्यापारी और बनिया के योगदान को किसी भी क्षेत्र में कोई भी नकारने की स्थिति में सही मायनों में नहीं हैं। और गलत तरीके से किसी को परेशान करना अपनी ही हानि के मार्ग को खोलना ही कहा जा सकता है। कुछ लोग तो ऐसे है जिन्हे पीएम मोदी इसलिए नही पसंद क्योकि वो वैश्य है तभी उनके लिए शेर की खाल गीदड़ या भेड़िया जैसे शब्दो का इस्तेमाल किया जाता है उनको भी बताना चाहूंगी कि भारतवर्ष के इतिहास मे गुप्तवंश का शासन सबसे ज्यादा न्यायप्रिय पराक्रमशाली समृद्ध और दीर्घकालिक रहा है और शेर तो शिकार करने की चीज है जो पहले भी होता था और गुपचुप तरीके से अब भी होता है

"यूनानी शासक सेल्यूकस के राजदूत मैगस्थनीज ने वैश्य समाज की विरासत की प्रशंसा में लिखा है-‘कि देश में भरण- पोषण के प्रचुर साधन तथा उच्च जीवन-स्तर, विभिन्न कलाओं का अभूतपूर्व विकास और पूरे समाज में ईमानदारी, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तथा प्रचुर उत्पादन वैश्यों के कारण है।"

"वैश्य समाज की समाजसेवा प्रवृत्ति की प्रशंसा में राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने दिल्ली में 22 फरवरी 2009 को भाषण के दौरान कहा था कि ‘इस समाज का प्रेम और सद्भाव देश को मंदी के दौर से उबारने में सक्षम है। समाज लोगों की मदद में जुटा हुआ है। सामान्य हैसियत वाला वैश्य बन्धु भी जनसेवा में पीछे नहीं है। ऐसा समाज ही देश को सुदृढ बनाने की क्षमता रखता है।"

"राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने 2 जनवरी 2009 को हैदराबाद में विचार प्रकट करते हुए कहा था कि ‘वैश्य समाज ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में बहुत बड़ा योगदान दिया । स्वतन्त्रता के बाद भी राष्ट्र निर्माण में वैश्य समाज की भूमिका सराहनीय रही। वैश्य समाज ने अपने वाणिज्यिक ज्ञान और व्यापारिक निपुणता का लोहा देश में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में मनवाया है। वैश्य समाज ने देश को बहुत से चिकित्सक, इंजीनियर, वैज्ञानिक समाजसेवी आदि दिए हैं तथा आर्थिक प्रगति और विकास कार्य में हमेशा भरपूर योगदान किया है।"

"डाॅ. दाऊजी गुप्त वैश्य समाज की विरासत को रेखांकित करते हुए लिखते हैं- ‘वणिकों ( वैश्यों ) की आश्चर्यजनक प्रतिभा का प्रथम दिग्दर्शन हमें हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में प्राप्त होता है। उस समय जैसे वैज्ञानिक ढंग से बसाए गए व्यवस्थित नगर आज संसार में कहीं नहीं हैं।आज के सर्वश्रेष्ठ नगर न्यूयार्क, पेरिस, लंदन आदि से हड़प्पा सभ्यता के नगर कहीं अधिक व्यवस्थित थे। ललितकला शिल्पकला और निर्यात-व्यापार पराकाष्ठा पर थे। इनकी नाप-तौल तथा दशमलव-प्रणाली अत्यन्त विकसित थी। भारतीय वणिकों ने चीन, मिश्र, यूनान, युरोप तथा दक्षिणी अमेरिका आदि देशों में जाकर न केवल अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ाया अपितु उन देशों की अर्थव्यवस्था को भी सुधारा। ईसा से 200 वर्ष पूर्व कम्बोडिया, वियतनाम, इण्डोनेशिया, थाईलैण्ड आदि देशों में जाकर बस गए। वहाँ उनके द्वारा बनवाए गए उस काल के सैंकड़ों मन्दिर आज भी विद्यमान हैं। उसी काल में वे व्यापारी भारत से बौद्ध संस्कृति को अपने साथ वहाँ ले गए। वणिकों ने भारतीय धर्म, दर्शन और विज्ञान से सम्बन्धित लाखों ग्रन्थों का अनुवाद कराया जो आज भी वहाँ उपलब्ध हैं।"

किन्तु वैश्य समाज की महान विरासत को इतिहास में उचित स्थान नहीं मिला। इतिहासकारों की संकुचित प्रकृति ही इसका कारण है। किसी देश व समाज का समग्र इतिवृत्त ही इतिहास का विषय होता है, पर प्रायः राजवंशों के उत्थान-पतन के साथ ही इतिहास के आरोह-अवरोह का संगीत चलता रहा है। राजवंशों का इतिहास दरबारी इतिहासकारों पर निर्भर रहा। ऐसे इतिहासकार पूर्ण सत्य का दर्शन न करा सके, फलस्वरूप अपूर्ण इतिहास केवल राजाओं के जन्म, राज्यारोहण, मृत्यु, युद्ध और सुधार के कार्यों में ही चक्कर काटता रहा।

भारत मे मुगलो और ब्रिटिश लूटपाट के बाद भी वैश्यो ने हिम्मत नही हारी बल्कि किसानी और पशुपालन का व्यवसाय किया और तबसे अब तक अपने निरंतर परिश्रम और गतिशीलता से आज भारत और विश्व के व्यावसायिक राजनीतिक व सभी क्षेत्रों मे अपना परचम लहराने मे सफल हुए है

तो जिन्हें वैश्यो से आपत्ति है उनके लिए -

इसे पढ़ कर वैश्यो के बारे में उनकी धारणा ठीक हो जाएगी जिन्हे कुछ भी भ्रम है भारत में वैश्यो की मौजूदा स्थिति जानने के लिए इन तथ्यों को भी जान लें
 
भारत के कुल इनकम टैक्स में 44% योगदान।
भारत में विभिन्न प्रकार के दिए जाने वाले दान में 72% योगदान।
लगभग 17000 गोशालाओं का सुचारु संचालन
भारत के 56% शेयर ब्रोकर वैश्य हैं
भारत की GDP में लगभग 47% योगदान
वैश्य भारत की कुल संपत्ति के 38% पर मालिकाना अधिकार रखते हैं
लगभग 39% चार्टर्ड अकाउंटेंट वैश्य हैं, 21% इंजीनियर,13% डॉक्टर ,24% कंपनी सेक्रेटरी -27% कॉस्ट अकाउंटेंट -11% एम् बी ए, 28% वकील
लगभग 80% से ज्यादा धर्मशालाएं वैश्यो द्वारा संचालित हैं।
मंदिरों में दिए जाने वाले दान में सबसे ज्यादा हिस्सा वैश्यो का होता है
नीचे दी कम्पनिया सिर्फ मारवाड़ी वैश्यो के मालिकाना हक़ वाली है


इसके साथ ही देश के लगभग सभी टॉप बिजनेस घराने वैश्य समाज से ही आते है और जो लोग कहते है कि वैश्य समाज को आरक्षण की क्या जरुरत है वो तो व्यापार ही करेगा उन्हे बता दूं कि सभी वैश्य अमीर नही होते कुछ गरीब भी होते है और व्यापार के लिए धन ही आवश्यकता होती है इसके बावजूद वो आरक्षण और किसी की दया के भरोषे नही बैठते बल्कि अपने लगातार प्रयासो से कुछ तो सचिन बंसल और बिन्नी बंसल (फ्लिपकार्ट के ओनर) बन जाते है बाकी अपने प्रयास से अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी निभाते रहते है विश्व के नए ऑनलाइन बाजार मे अपनी मेहनत से सफल हुए वैश्यो ने ही बाजी मारी है जैसे -मिंत्रा, येभी, इंडियामार्ट, जोमैटो, स्नैपडील आदि

इसके साथ ही वैश्य वर्ण में स्वतंत्रता के संग्राम में आहुति देने वाले बहुत से वीर हुए हैं जैसे- महात्मा गाँधी, सेठ जमनालाल बजाज, सेठ घनश्यामदास बिरला, राम कोठरी और शरद कोठरी

और जिन्हे लगता है वैश्यो का राजनीती मे कोई अस्तित्व नही है तो उनके ज्ञानवर्धन के लिए मै बता दूं कि भारत के पीएम से लेकर कई राज्यो के सीएम और शीर्ष नेता वैश्य समाज से आते है जैसे- अमितशाह, विजय गोयल, पियूष गोयल, डॉ हर्षवर्धन, कैलाश विजयवर्गीय, सुभाष चंद्रा गोयल पी चिदंबरम, अभिषेक मनु सिंधवी, येदुरप्पा, चेट्टियार ब्रदर्स रधुवर दास, अरविंद केजरीवाल सुशील मोदी इत्यादि।

इतना सब कुछ और जनसँख्या में  २५% की हिस्सेदारी और वो भी बिना किसी आरक्षण के क्योकि आगे बढ़ने के लिए दिमाग और मेहनत चाहिए किसी की दया नही
 
मुझे गर्व हैं कि मैं एक वैश्य परिवार में जन्मी हूँ और आगे के सभी जन्मो में वैश्य परिवार में ही जन्म लेना चाहूंगी क्योंकि वैश्यो का इतिहास भी बड़ा शानदार रहा है अपनी मेहनत और गतिशीलता से उनका वर्तमान भी काफी शानदार है उनकी अच्छी सोच और कर्म से उनका भविष्य भी उज्जवल ही रहेगा

लेख साभार - प्रियंका गुप्ता thepriyankagupta.blogspot.com/2018/11/blog-post.html