वैश्य महाजन का अपने गाँव से जुड़ाव
जींद के गाँव घोघड़िया का रहने वाला एक महाजन (गर्ग) परिवार (जो काफी पहले वहां विस्थापन कर चुका है) ने अब अपने पैतृक गाँव में एक डेढ़ करोड़ रुपया लगाकर बच्चों के पढ़ने के लिये लाइब्रेरी बनाई है
यहां गौर करने की बात है कि अगर उक्त परिवार ने ये रुपया मंदिर वगैरा के लिये खर्च किया होता तो मैं बिल्कुल भी यहां जिक्र नहीं करता क्योंकि मंदिर या धर्म के लिये पैसा खर्च करना एक तरह से आदमी की इनवेस्टमैंट होती है, वो स्वार्थ में ऐसा करता है, धार्मिक कर्मकांडों पर खर्च करके वो बदले में भगवान से और ज्यादा कुछ चाहता है, ऊपर से उस खर्च से किसी का व्यक्तिगत कोई फायदा या उन्नति नहीं होती
जबकि नई जैनरेशन के फ्यूचर के लिये लाइब्रेरी पर खर्च करने से बेहतर परोपकार की भावना नहीं हो सकती, इसका मतलब पैसा खर्च करने वाला चाहता है कि केवल मेरे नहीं बल्कि औरों के बच्चों की भी तरक्की हो, वे भी पढ़ लिखकर आगे बढ़ें, नई जैनरेशन ग्रो करे, वास्तव में ये कितनी शानदार संकल्पना है
35-40 साल पीछे जाओ तो तब हर गाँव में एकाध बनिया परिवार रहता था जो बाद में माइग्रेशन करके बाहर जाता चला गया, कोई एकाध गाँव ही अब ऐसा होगा जहां बनिया परिवार अब भी रहते हों
अब भले ही गाँव में उनका कोई भाईचारा, यहां तक कि गोत्र जात का व्यक्ति ना रहता हो तब भी वे उस गाँव से अपना मोह बराबर बना कर रखते हैं, उनकी तरक्की की सोचते हैं, उन्हें अपना मानते हैं
जबकि हमारे गांव में जो एक बार गांव छोड़कर बाहर निकला वो कभी वापस मुड़कर नहीं देखता, वो केवल अपनी तरक्की तक सीमित और खुश रहता है, मैंने तो यहां तक देखा है कि पीछे छुटे परिवार को वो प्रॉपर गाइडेंस तक नहीं देता (कहीं वे भी तरक्की ना कर जाएं)
गाम राम की तो छोड़ो अपने भाई बंधु परिवार कुणबे के लोगों से भी खुद को कनैक्ट करके नहीं रखता, जितना बड़ा ऑफिसर अधिकारी उतना ज्यादा घमंड।
साभार: नवीन कुमार की फेसबुक वाल से

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