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Monday, October 8, 2018

BHAI JI HANUMAN PRASAD PODDAR JI

भाईजी और भारतरत्न (जन्म 6 अक्टूबर)
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इस राष्ट्र में असङ्ख्य "भाई" हुए हैं। यथा : बल्लभ भाई, केशुभाई, धीरूभाई और अंत में में नरेंद्र "भाई"।

"भाई" की सही परिभाषा राष्ट्र के भीतर के ही राष्ट्र "महाराष्ट्र" से अधिक बेहतर कौन जान सकता है।

इतना ही नहीं, "मुम्बई" महाराष्ट्र की राजधानी और राष्ट्र की आर्थिक राजधानी होने के साथ ही "भाइयों" की भी राजधानी है!

बहरहाल, बहरक़ैफ़।

"भाई" असङ्ख्य हुए, किन्तु "भाईजी" सिर्फ एक ही हुए हैं।

वे हैं : "श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार"।

निस्संदेह, वे "भाई" ही हैं सनातन शास्त्र परंपरा के। किसी भी रूप में शास्त्र परिशीलन में संलग्न लोग उन्हें आदर से "भाईजी" का संबोधन देते हैं।

"भाईजी" ने कभी किसी उपाधि या सम्मान का लोभ नहीं किया। उनके लिए सब संगीसाथियों द्वारा दिया गया संबोधन की सबसे बड़ा रहा।

इस संबंध में एक रोज़ एक अनोखी घटना घटी!

ये घटना उन्नीस सौ साठ के आसपास की है।

गीतावाटिका, गोरखपुर के पते पर एक पत्र आया। पत्र का मौजूं कुछ यूँ था :

"श्रीमान हनुमानप्रसाद पोद्दार जी, ये पत्र आपको सूचित करने हेतु है। आपके उत्तर प्रदेश के निवर्तमान मुख्यमंत्री श्री गोविन्द बल्लभ पन्त आपसे भेंट करने के आशय से गोरखपुर आना चाहते हैं। आप अपने उपलब्ध समय के अनुसार दिन दिनाङ्क सूचित कर दीजिये ताकि आप दोनों ही को कोई असुविधा न हो।"

"भाईजी" दिल के धनी थे। वे सामान्य जनों से यों ही घंटों भेंट करते थे। किसी राजनेता के लिए भी कोई रुकावट न थी। उन्होंने लिख भेजा : "जब पन्त जी पास समय हो, पधारें। वाटिका में स्वागत है उनका।"

पन्त जी आये। और बस खो गए उस विराट व्यक्तित्व के सम्मुख!

उनदिनों, गोरखपुर रेलवे स्टेशन से तीन किलोमीटर की दूरी पर लगभग छः सात एकड़ भूमि में फैला एक लघु वनस्थल हुआ करता था। उसका नाम था "गीतावाटिका"।

यही था "भाईजी" का निवास और पन्त जी का "डेस्टिनेशन"!

पन्त जी ने चारों ओर से आम्र, अमरुद, लीची, कदली आदि के वृक्षों से घिरी एक सुन्दर, सुव्यवस्थित वाटिका को देखा। वाटिका के मध्य में बने भवन को भी देखा।

इस भवन में ही पत्रिका "कल्याण" और "कल्याण-कल्पतरु" का प्रधान कार्यालय है। कार्यालय में टंगी लालटेनों को देखकर पन्त जी बोले, भाईजी, क्या यहां विद्युत् प्रकाश नहीं पहुंचा है?

"भाईजी" ने विनम्रता से कहा, सम्पूर्ण अवध प्रान्त को विद्युत् से प्रकाशित करने का कार्य चल रहा है। यत्रतत्र प्रकाश पहुंचा भी था, किन्तु सर्वत्र नहीं।

इस भवन के पीछे अनेक कुटियाएँ बनी थीं। जिनमें संपादक विभाग के अनेक लोग व साधकगण रहते थे।

चतुर्दिक सुन्दर वृक्ष, लताएं, पुष्प, कोकिलादिक का गायन!

कुलमिला कर सर्वत्र पूर्ण सात्त्विक वातावरण को देख पन्त जी में परिहास में कहा, भाईजी, इनमें से एक कुटीर मेरे लिए भी शेष रखिये, मैं जल्द अपने भर से मुक्त होकर आऊंगा।

अंततोगत्वा, पन्त जी जिस कार्य से आये थे, उसके लिए "भाईजी" को लेकर उनके कार्यालय में जा बैठे।

"भाईजी" को एक कागज़ देते हुए बोले, हम इस पत्र के संबंध में आपसे स्वीकृति लेने आये हैं।

"भाईजी" ने पत्र खोला तो मालूम हुआ कि ये तो "भारतरत्न" की उपाधि का प्रस्ताव है। एतदर्थ "भाईजी" की अनुमति मांगी गयी है।

"भाईजी" असहमत हो गए। बोले, ये उपाधि मेरे लिए व्याधि है। पन्त जी, आप मेरे सच्चे हितैषी हैं न, आप मुझे इस व्याधि से बचाएं।

पन्त जी में कहा, भाईजी, ये आग्रह न केवल मेरा है बल्कि राजेंद्र बाबू ने विशेष तौर पर आपको सम्मानित करना चाहा है। आपको उनके आग्रह को मनाना ही चाहिए।

किन्तु "भाईजी" निश्चय कर चुके थे। बोले, राजेंद्र बाबू के प्रति मेरे मन में बड़ा आदरभाव है किंतु उनका यह अनुरोध मैं स्वीकार नहीं कर पाऊंगा। यह उपाधि मेरी भावना के प्रतिकूल है।

"भाईजी" के हृदय की व्यथा देख, पन्त जी बोले, अवश्य आग्रह नहीं करेंगे। इसके एवज में आपसे एक प्रसाद लेंगे।

"भाईजी" ने प्रश्नवाचक मुद्रा से देखा।

पन्त जी कहते रहे, भाईजी, आप अपनी लेखनी मुझे देने की कृपा करें। आपका यह पेन ही मुझे प्रसाद के रूप में चाहिए।

"भाईजी" मंदहास के साथ बोले, हां हां ले जाइए, इसमें भी भला पूछना क्या!

पन्त जी चले गए, उनके साथ वही हुआ : "आये थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास।" पुरस्कार देने आये थे, प्रसाद लेकर गये।

उन्होंने दिल्ली पहुँचकर संबंधित कागज़ी कार्यवाही की और "भाईजी" को एक पत्र लिखा :

"भाईजी! आप इतने महान हैं, इतने ऊंचे महामानव हैं कि भारतवर्ष क्या, सारी दुनिया को इसके लिए गर्व होना चाहिए। मैं आपके स्वरूप को, महत्त्व को न समझकर ही आपको "भारतरत्न" की उपाधि देकर सम्मानित करना चाहता था। आपने इसे स्वीकार नहीं किया, यह बहुत अच्छा किया। आप इस उपाधि से बहुत-बहुत ऊंचे स्तर के हैं। मैं तो आपको हृदय से नमस्कार करता हूँ।"

भाईजी के अनगिनत प्रसङ्ग रसमयी है। उनकी शख्सियत ही रसपूर्ण थी। न मोह, न लोभ, न लालच।

यदि आपको भी रस आया हो तो शनै: शनै: आप लोगों के साथ साझा करूँगा। अभी तो ये शुरुआत है। उनके संस्मरणों से अटा पड़ा है, मेरे दिल का एक कोना!

अस्तु।

प्रखर अग्रवाल जी की फेसबुक वाल से साभार: 
साभार-योगी अनुराग

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