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Sunday, August 28, 2022

AGRAWALS THE GREAT KSHATRIYA - अग्रवंशियो की क्षत्रियता

AGRAWALS THE GREAT KSHATRIYA - अग्रवंशियो की क्षत्रियता

सर्वविदित है की फ़िरोज़ शाह तुगलक के अग्रोहा के विनाश करने से पूर्व आग्रेय गणराज्य पर अग्रवंशीय क्षत्रियों का एकछत्र शासन था.. जिसका जिक्र कई ऐतिहासिक ग्रंथो में है.. उन्हीं में से एक ग्रंथ है मालिक मोहम्मद जायसी कृत "#पद्मावत" महाकाव्य जिसमें अग्रवालों और खत्रियों का जिक्र कुलीन हिन्दू क्षत्रिय वंशों के साथ किया गया है..
 
प्रसंग - जब खिलजी ने चित्तोड़गढ़ दुर्ग पर हमला किया तब राणा रावल रत्नसेन ने अपने मित्र राज्यों को आमंत्रित किया.. सभी मित्र राज्य पहुंचे और उन्होंने एक स्वर में कहा - "चित्तोड़ हिंदुओं की माता है और माता पर विप्पति आने पर उनसे नाता तोड़ा नहीं जाता.. रत्नसेन ने शाका का आह्वाहन किया है और वो हिंदुओं का एक बड़ा राजा है। हिंदुओं का पतंगों की तरह का हिसाब है वो जहाँ भी आग देखते हैं दौड़ कर गिर पड़ते हैं। आप हमें बीड़ा दो ताकि हम भी उसी स्थान पर जाकर मरें। क्योंकि अब जीवित रहना भी हमारे लिए लज्जाजनक है। तब रत्नसेन ने हँसकर उन्हें बीड़ा दिया और कहा की जाओ हिन्दुकुल के वीरों अब आग में जाते हुए पतंगे को कौन रोक सका है?

रत्नसेन चितउर में साजा, आई बजाई पैठी सब राजा।
तोमर, बैस, पवार जो आये, औ गहलोत आयी सिर नाए।।
"खत्री" औ पंचवान बघेले, "अग्रवार" चौहान चन्देले।
गहरवार परिहार सो कुरी, मिलन हंस ठकुराई जूरी।।
आगे टाढ़ वजवहिं हाड़ि, पाछें ध्वजा मरन के काढ़ि।
बाजयिं शंख औ तूरा, चंदन घेवरें भरा सिन्दूरा।।
संचि संग्राम बांधी सत साका, तजि के जीवन मरण सब ताका।

रत्नसेन ने चित्तोड़ में जब सज्जा(तैयारी) की, तो सभी हिन्दू राजे चित्तोड़ में वाद्यादि के साथ आ प्रविष्ट हुए। तोमर वैस और पंवार जो थे वे आये और गहलोतों ने आकर सर झुकाया। "खत्री", पंचवान, बघेल, "अग्रवाल" चंदेल, चौहान गहरवार, परिहार जैसे कुलीन क्षत्रिय राजवंशो की ठकुराई आ जुटि। आगे आगे वो खड़े हुए हाड़ि बजा रहे थे और पीछे मारने की ध्वजा निकाल रहे थे। सींगे, शंख और तुर्य बज रहे थे और वो चंदन और सिन्दूर में लिपटे खड़े थे। संग्राम का संचय कर और सत का साका बांधकर वो जीवन (का मोह) त्यागकर सबने मरने का निश्चय कर लिया था।


इस महाकाव्य को भले ही हम असत्य माने या महज काव्य माने लेकिन इससे एक बात पक्के तौर पर पता चलती है की उस समय तक अग्रवालों और खत्रियों की गिनती कुलीन क्षत्रिय वंशो में ही होती थी..
- प्रखर अग्रवाल

Saturday, August 27, 2022

MOUNTAINEIR ANKITA GUPTA CLIMB ON MOUNT ELBRUS

MOUNTAINEIR ANKITA GUPTA CLIMB ON MOUNT ELBRUS




पर्वतारोही अंकिता गुप्ता ने यूरोप की सबसे ऊंची चोटी माउंट एल्ब्रुस को करा फतह और तिरंगा झंडा फहराया।
छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले में छत्तीसगढ़ पुलिस बल में कांस्टेबल के पद पर पदस्थ पर्वतारोही अंकिता गुप्ता ने यूरोपीय महाद्वीप के माउंट एल्ब्रुस की सबसे ऊंची चोटी फतेह कर ली और वहां तिरंगा लहरा दिया।अंकिता ऐसा कर छत्तीसगढ़ी ही नहीं बल्कि देश का नाम पूरे विश्व में रोशन किया है।छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अंकिता गुप्ता को तिरंगा झंडा देकर माउंट एलब्रुस के लिए रवाना किया था।

यह चोटी 18,510 फीट ऊंचाई पर स्थित है।इस ऊंचाई पर पहुंचकर अंकिता ने एक बार फिर से कवर्धा जिले का नाम पूरी दुनिया में रोशन कर दिखाया है।

15 अगस्त की सुबह 5:45 मिनट पर फहराया तिरंगा झंडा
अंकिता ने 14 अगस्त को चढ़ाई शुरु और 15 अगस्त को सुबह 5:45 बजे पर यूरोप के माउंट एलब्रुस 5,642 मीटर ऊंचाई पर तिरंगा फहराया।माउंट एल्ब्रुस का तापमान इन दिनों माइनस 25 से 30 डिग्री है।अंकिता ने लगभग 45 से 50 किलोमीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से चल रही ठंडी हवाओं का भी सामना किया।अंकिता ने दूसरे दिन यूरोपीय महाद्वीप के सबसे ऊंची चोटी (ऊंचाई 5621 मीटर) माउंट एलब्रुस(पूर्व) की 16 अगस्त को करीब सुबह 4:23 मिनट पर तिरंगा लहराया।

अंकिता ने इस अभियान पर जाने से पहले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से मुलाकात किया था।सीएम ने तिरंगा भेंटकर अंकिता को बधाई दी थी।16 अगस्त को यूरोपीय महाद्वीप स्थित माउंट एल्ब्रुस के( पूर्व ) हिस्से में भी भारत का तिरंगा लहरा कर कवर्धा और देश का नाम पूरी दुनिया में रोशन किया।

छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले में रहने वाली अंकिता गुप्ता छत्तीसगढ़ पुलिस में कांस्टेबल के पद पर तैनात है।अंकिता छत्तीसगढ़ की लड़कियों को पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बल में जाने के लिए ट्रेनिंग भी देती हैं।छत्तीसगढ़ की भूपेश सरकार ने अंकिता गुप्ता को पांच लाख सहायता राशि के तौर पर दी थी।छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अंकिता गुप्ता को तिरंगा झंडा देकर माउंट एल्ब्रुस के लिए रवाना किया था और शुभकामनाएं दी थी।

GOURAV GUPTA - DTU ABVP CHIEF

 

GOURAV GUPTA - DTU ABVP CHIEF


राजधानी में वैश्य भवन का निर्माण

 राजधानी में वैश्य भवन का निर्माण 


Tuesday, August 23, 2022

THE GREAT VAISHYA KING - SAMRAT HARSHVARDHAN

THE GREAT VAISHYA KING - SAMRAT HARSHVARDHAN

ईसा की छठी शताब्दी में उत्तर भारत में एक शक्तिशाली राज्य था, जिसका नाम था थानेश्वर. यंहा पर  वैश्य पुश्यभुती वंश के राजा प्रभाकरवर्धन राज करते थे। वे बड़े वीर, पराक्रमी और योग्य शासक थे।  उनके पिताजी राजा प्रभाकरवर्धन ने महाराज के स्थान पर महाराजाधिराज और परम भट्टारक की उपाधियां धारण की हुई थी । राजा प्रभाकरवर्धन छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मालवों, गुर्जरों और हूणों को पराजित कर चुके थे, किंतु राज्य की उत्तर-पश्चिम सीमा पर प्रायः हूणों के छुट-पुट उपद्रव होते रहते थे। 

नाम हर्षवर्धन
जन्म 590 ई.स
पिता प्रभाकर वर्धन
माता यशोमती
पत्नी दुर्गावती
भाई राजवर्धन

बहन राज्यश्री
बेटे भाग्यबर्धन, कल्याणबर्धन (हर्षबर्धन के दरबार के ही एक मंत्री अरुणाश्वा ने दोनों की हत्या कर दी थी
धर्म हिन्दू, बौद्ध
राजवंश वर्द्धन (पुष्यभूति)
निधन 647 ई.स.

राजा प्रभाकरवर्धन की रानी का नाम यशोमती था। रानी यशोमती के गर्भ से जून 590 में एक परम तेजस्वी बालक ने जन्म लिया था । यही बालक आगे चलकर भारत के इतिहास में राजा हर्षवर्धन के नाम से विख्यात हुआ। Harshvardhan का राज्यवर्धन नाम का एक भाई भी था। राज्यवर्धन हर्षवर्धन से चार वर्ष बड़ा था। हर्षवर्धन की बहन राज्यश्री उससे लगभग डेढ़ वर्ष छोटी थी। इन तीनों बहन-भाइयों में अगाध प्रेम था , हर्षवर्धन एक भारतीय सम्राट थे जो पुष्यभूति परिवार से संबंधित थे।

हर्षवर्धन का प्रारंभिक जीवन –

हर्षवर्धन का जन्म 580 ईस्वी के आसपास हुआ था और इनको वर्धन वंश के संस्थापक प्रभाकर वर्धन का पुत्र माना जाता है। अपनी प्रतिष्ठा से हर्षवर्धन ने राज्य को पंजाब, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और नर्मदा नदी के उत्तर में पूरे भारत-गंगा के मैदान को विस्तारित किया। गौड़ के राजा शशांक द्वारा अपने बड़े भाई राज्यवर्धन की हत्या के बाद Harshvardhan ने गद्दी संभाली। उस समय उनकी उम्र सिर्फ 16 वर्ष की थी। राजगद्दी पर बैठने के बाद हर्षवर्धन ने थानेसर और कन्नौज के दो राज्यों का विलय कर दिया और अपनी राजधानी को कन्नौज में स्थानांतरित कर दिया।

हर्ष एक धर्मनिरपेक्ष शासक थे और सभी धर्मों और धार्मिक निष्ठाओं का सम्मान करते थे। अपने जीवन के शुरुआती दिनों में वह सूर्य के उपासक थे लेकिन बाद में वह शैववाद और बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गए। चीनी तीर्थयात्री ह्वेनसांग के अनुसार, जिन्होंने 636 ईस्वी में हर्षवर्धन के राज्य का दौरा किया था, हर्ष ने कई बौद्ध स्तूप के निर्माण करवाए। हर्षवर्धन नालंदा विश्वविद्यालय का एक महान संरक्षक भी था। हर्षवर्धन चीन-भारतीय राजनयिक संबंध स्थापित करने वाले पहले व्यक्ति थे।
 
हर्षवर्धन का सिहांसनारूढ़ -(Harshavardhan Throne)

हर्ष के पिता का नाम प्रभाकरवर्धन था। प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात राज्यवर्धन राजा हुआ, पर मालव नरेश देवगुप्त और गौड़ नरेश शशांक की दुरभि संधिवश मारा गया। अर्थात बड़े भाई राज्यवर्धन की हत्या के बाद Harshvardhan को 606 में राजपाट सौंप दिया गया। खेलने-कूदने की उम्र में हर्षवर्धन को राजा शशांक के खिलाफ युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा। शशांक ने ही राज्यवर्धन की हत्या की थी। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत में अराजकता की स्थिति बनी हुई थी। ऐसी स्थिति में हर्ष के शासन ने राजनीतिक स्थिरता प्रदान की हुई थी।
 
हर्षवर्धन के साम्राज्य का विस्तार –

यद्यपि नालंदा और बाँसखेड़ा में शिलालेख और उस युग के सिक्के हमें हर्ष के शासनकाल के बारे में कुछ जानकारी भी प्रदान करते हैं, लेकिन सबसे उपयोगी जानकारी बाणभट्ट की हर्ष चरिता और चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के विवरण से मिलती है। ह्वेन त्सांग ने वर्णन किया कि हर्ष ने अपने शासनकाल के पहले छह वर्षों के भीतर पूरे देश को जीत लिया। हालांकि, बयान को गंभीरता से नहीं लिया जाना है। हर्ष ने उत्तर भारत पर भी पूरी तरह से कब्जा नहीं किया था और न ही उसके युद्ध और विजय उसके शासन के पहले छह वर्षों तक सीमित थे।

हर्ष ने पहले बंगाल पर आक्रमण किया। यह अभियान बहुत सफल नहीं था क्योंकि साक्ष्य यह साबित करते हैं कि 637 ईस्वी तक बंगाल और उड़ीसा के बड़े हिस्से पर सासंका का शासन जारी रहा, सासंका की मृत्यु के बाद ही हर्ष अपने मिशन में सफल हुआ।सम्राट हर्षवर्धन ने राज्य को पंजाब, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और नर्मदा नदी के उत्तर में पूरे भारत-गंगा के मैदान तक विस्तारित करने में सफल रहे थे।

हर्षवर्धन का अभियान –

माना जाता है कि सम्राट Harshvardhan की सेना में 1 लाख से अधिक सैनिक थे। यही नहीं, सेनामें 60 हजार से अधिक हाथियों को रखा गया था। लेकिन हर्ष को बादामी के चालुक्यवंशी शासक पुलकेशिन द्वितीय से पराजित होना पड़ा। ऐहोल प्रशस्ति (634 ई.) में इसका उल्लेख मिलता है। 6ठी और 8वीं ईसवीं के दौरान दक्षिण भारत में चालुक्‍य बड़े शक्तिशाली थे। इस साम्राज्‍य का प्रथम शास‍क पुलकेसन, 540 ईसवीं में शासनारूढ़ हुआ। कई शानदार विजय हासिल कर उसने शक्तिशाली साम्राज्‍य की स्‍थापना की थी ।

उसके पुत्रों कीर्तिवर्मन व मंगलेसा ने कोंकण के मौर्यन सहित अपने पड़ोसियों के साथ कई युद्ध करके सफलताएं अर्जित कीं व अपने राज्‍य का और विस्‍तार किया।कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेसन द्वितीय चालुक्‍य साम्राज्‍य के महान शासकों में से एक था। उसने लगभग 34 वर्षों तक राज्‍य किया। अपने लंबे शासनकाल में उसने महाराष्‍ट्र में अपनी स्थिति सुदृढ़ की व दक्षिण के बड़े भू-भाग को जीत लिया। उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि हर्षवर्धन के विरुद्ध रक्षात्‍मक युद्ध लड़ना था।
 
हर्षवर्धन का प्रशासन –

हर्ष ने पिछले महान हिंदू शासकों के मॉडल पर अपने साम्राज्य के प्रशासनिक सेट को बनाए रखा। वे स्वयं राज्य के प्रमुख थे, और सभी प्रशासनिक, विधायी और न्यायिक शक्तियां उनके हाथों में केंद्रित थीं। वह अपनी सेना के पहले कमांडर-इन-चीफ भी थे। हर्ष ने महाराजाधिराज और परम भट्टारक की उपाधि धारण की। वह एक उदार शासक था और व्यक्तिगत रूप से प्रशासन की देखरेख करता था।

वह न केवल एक योग्य शासक था, बल्कि बहुत मेहनती भी था। ह्वेन त्सांग लिखते हैं, “वह अनिश्चितकालीन थे और दिन उनके लिए बहुत छोटा था। उन्होंने अपने विषयों के कल्याण को अपना सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य माना और बरसात के मौसम को छोड़कर, लगातार अपने साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में अपनी आंखों से चीजों को देखने के लिए यात्रा की। वह उनके कल्याण की देखभाल के लिए अपने गाँव-प्रजा के संपर्क में था।

राजा को मंत्रियों की एक परिषद द्वारा सहायता प्रदान की गई थी जो काफी प्रभावी थी। इसने विदेश नीति और आंतरिक प्रशासन के मामलों में राजा को सलाह दी। हर्ष को थानेश्वर के सिंहासन की पेशकश की गई और बाद में, संबंधित राज्यों के तत्कालीन मंत्रियों द्वारा कन्नौज के सिंहासन को। मंत्रियों के अलावा राज्य के कई अन्य महत्वपूर्ण अधिकारी थे जिनके बारे में एक विस्तृत सूची बाणभट्ट ने अपनी हर्षचरित में दी है।

उच्च शाही अधिकारियों में एक महासन्धिविग्रहधर्मी, एक महाबलधारीकृता और एक महाप्रतिहार थे। इसके अलावा, अवंति वह अधिकारी था जो युद्ध और शांति के मामलों को देखता था। सेना के कमांडर-इन-चीफ को सिंघानाड़ा कहा जाता था; कुन्तल घुड़सवार सेना के प्रमुख थे; स्कंदगुप्त युद्ध-हाथी के प्रमुख थे; और नागरिक प्रशासन के प्रमुख को सामंत-महाराजा कहा जाता था।

हर्षवर्धन रचित साहित्य – Harshvardhan literature

Harshvardhan ने ‘रत्नावली’, ‘प्रियदर्शिका’ और ‘नागरानंद’ नामक नाटिकाओं की भी रचना की। ‘कादंबरी’ के रचयिता कवि बाणभट्ट उनके (हर्षवर्धन) के मित्रों में से एक थे। कवि बाणभट्ट ने उसकी जीवनी ‘हर्षच चरित’ में विस्तार से लिखी है। चीन से बेहतर संबंध : महाराज हर्ष ने 641 ई. में एक ब्राह्मण को अपना दूत बनाकर चीन भेजा था। 643 ई. में चीनी सम्राट ने ‘ल्यांग-होआई-किंग’ नाम के दूत को हर्ष के दरबार में भेजा था। लगभग 646 ई. में एक और चीनी दूतमण्डल ‘लीन्य प्याओं’ एवं ‘वांग-ह्नन-त्से’ के नेतृत्व में हर्ष के दरबार में आया था ।

इतिहास के मुताबिक, चीन के मशहूर चीनी यात्री ह्वेन त्सांग हर्ष के राज-दरबार में 8 साल तक उनके दोस्त की तरह रहे थे। तीसरे दूत मण्डल के भारत पहुंचने से पूर्व ही हर्ष की मृत्यु हो गई थी। हर्षवर्धन के अपनी पत्नी दुर्गावती से 2 पुत्र थे- वाग्यवर्धन और कल्याणवर्धन। पर उनके दोनों बेटों की अरुणाश्वा नामक मंत्री ने हत्या कर दी। इस वजह से हर्ष का कोई वारिस नहीं बचा। हर्ष के मरने के बाद, उनका साम्राज्य भी धीरे-धीरे बिखरता चला गया और फिर समाप्त हो गया।

हर्षवर्धन के दरबारी कवि – हर्ष-चरित और कदंबरी के लेखक बाणभट्ट, हर्ष के दरबारी कवि थे।
मौर्य और भारतीधारी, मयूराष्टक और वाक्यपदीय के लेखक भी हर्ष के दरबार में रहते थे।
हर्षवर्धन के दौरान संस्कृति और सभ्यता –

हर्ष की अवधि के दौरान भारत की संस्कृति और सभ्यता में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ। गुप्त युग के दौरान स्थापित की गई परंपराएं और मूल्य जीवन के सभी क्षेत्रों में इस अवधि के दौरान जारी रहे थे ।

I. सामाजिक स्थिति:

जातियों में हिंदू समाज का चार गुना विभाजन प्रभावी रहा, हालांकि, उप-जातियाँ भी उभर रही थीं। जाति-व्यवस्था अधिक कठोर हो रही थी हालांकि अंतर्जातीय विवाह और अंतर्जातीय विवाह संभव थे। महिलाओं की स्थिति में नीचे की ओर की प्रवृत्ति इस उम्र के दौरान बनी रही। सती प्रथा को प्रोत्साहन मिल रहा था, हालांकि यह केवल उच्च जातियों तक ही सीमित था। पुरदाह व्यवस्था नहीं थी लेकिन समाज में महिलाओं के आंदोलनों पर कई प्रतिबंध थे।हालाँकि, सार्वजनिक नैतिकता अधिक थी। लोगों ने एक सरल और नैतिक जीवन का पालन किया और मांस, प्याज और शराब के सेवन से परहेज किया था ।

2.आर्थिक स्थिति:

सामान्य तौर पर, साम्राज्य के भीतर समृद्धि थी। कृषि, उद्योग और व्यापार, दोनों आंतरिक और बाहरी, एक समृद्ध स्थिति में थे। उत्तर-पश्चिम में पेशावर और तक्षशिला जैसे शहर बेशक, हूणों और मथुरा के आक्रमणों से नष्ट हो गए थे और पाटलिपुत्र ने अपना पिछला महत्व खो दिया था, लेकिन प्रयाग (इलाहाबाद), बनारस और कन्नौज साम्राज्य के भीतर समृद्ध शहर थे।

3. धार्मिक स्थिति:

हिंदू धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म अभी भी भारत में लोकप्रिय धर्म थे। हिंदू धर्म लोगों पर अपनी लोकप्रिय पकड़ बनाए हुए था और विभिन्न देवी-देवताओं के मंदिरों को बड़ी संख्या में बनाया गया था। विष्णु और उनके अलग-अलग अवतार और शिव हिंदुओं के सबसे लोकप्रिय देवता थे। प्रयाग और बनारस हिंदू धर्म के प्रमुख केंद्र थे। बौद्ध धर्म का लोकप्रिय संप्रदाय महाज्ञानवाद था।

Harshvardhan Death (हर्षवर्धन मृत्यु)

king harshavardhana ने तक़रीबन चालीस साल तक भारत देश पर अपना शासन चलाया था ,इसके पश्यात 647 ईस्वी में महाराजा की मृत्यु हो गई, राजा हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्यात राज गद्दी के लिए कोई उत्तराधिकारी नहीं बचा था। मृत्यु के पश्यात उनका विशाल साम्राज्य पूरी तरह से ख़त्म हो गया । उनकी विदाय के बाद जिस राजा ने कन्नौज राज्य की राजगद्दी संभाली वे बंगाल के राजा के विरुद्ध जंग में हार गया था और उनका साम्राज्य सम्पूर्ण समाप्त हो चूका था।
 

हर्षवर्धन के रोचक तथ्य 
साम्राट हर्षवर्धन की सेना में तक़रीबन 5,000 हाथी, 2,000 घुड़सवार और 5,000 पैदल सैनिक हुआ करते थे। कालान्तर में हाथियों की संख्या बढ़कर 60,000 और घुड़सवार एक लाख तक पहुंच गई थी। हर्षवर्धन सबसे कीर्तिमान और वीर भारतीय सम्राट थे जो पुष्यभूति परिवार से संबंधित थे। हर्षवर्धन के शासनकाल के दौरान थानेसर और कन्नौज दो साम्राज्य हुआ करते थे उसके पश्यात उन्होंने अपनी राजधानी थानेसर से कन्नौज में बदल दी थी।
 
राजा हर्षवर्धन एक बहुत एक प्रसिद्ध लेखक और अच्छे विद्वान थे , उन्होंने संस्कृत में तीन नाटक रत्नावली, प्रियदर्शिका और नागानंद खुद लिखे थे ।

Monday, August 22, 2022

MONU BANSAL SWIMING CHAMPION - मोनू बंसल

MONU BANSAL SWIMING CHAMPION - मोनू बंसल


राजस्थान में डीग की कुमारी मोनू बंसल ने सेंट्रल सिविल सर्विसेज कल्चरल एंड स्पोर्ट्स बोर्ड, दिल्ली द्वारा आयोजित स्विमिंग चैंपियनशिप 2022-23 में कांस्य पदक अपने नाम किया है।
कुमारी मोनू बंसल ने बताया कि उन्हें तैराकी की प्रेरणा श्री अमरदीप सेन, तैराकी सचिव भरतपुर और बड़े भाई डॉक्टर जगमोहन गुप्ता से मिली है।मोनू ने अपनी सफलता का श्रेय अमरदीप सेन एवं डॉक्टर जगमोहन गुप्ता को दिया है।

हमारे समाज के जो युवा खेलकूद में अपने भविष्य देख रहे हो वो मोनू से प्रेरणा ले सकते हैं।
मोनू को बहुत-बहुत शुभकामनाएं उज्जवल भविष्य की कामना।भगवान श्री नृसिंह नारायण की कृपा आपके ऊपर हमेशा बनी रहे।

SABHAR: NARSINGH SENA



THE GREAT VAISHYA COMMUNITY - वैश्य कुल में उनकी दोनों पराशक्तियों का अवतार

THE GREAT VAISHYA COMMUNITY - वैश्य कुल में उनकी दोनों पराशक्तियों का अवतार

एक बार मेरे एक वैश्य मित्र ने कहा था वैश्य कुल में तो भगवान का कोई अवतार ही नहीं हुआ... मैंने कहा जब भगवान ने अपना पूर्णावतार लिया था तब वैश्य कुल में उनकी दोनों पराशक्तियों का अवतार हुआ था..


एक श्रीअवतार राधिका... जिनके नाम पर पूरा वृन्दावन बल्कि पूरा विश्व राधा राधा करता है... जो स्वयं कृष्ण की अराधिका हैं... जो हमेशा परात्पर विष्णु के हृदय में विराजमान हैं... जो भगवान कृष्ण की मूलप्रकृति हैं.. जो वैकुंठं, गोलोक और पराव्योम कि स्वामिनी हैं.. वही वृषभानु वैश्य के घर किशोरी रूप में प्रगटी थीं...

योगेनात्मा सृष्टिविधौ द्विधारुपो बभूव सः।
पुमांश्च दक्षिणार्द्धाङ्गो वामाङ्ग प्रकृतिः स्मृतः।।
(ब्रह्मवैवर्त, प्रकृति खण्ड, अध्याय १२ श्लोक ९)

#अर्थ- परमात्मा श्रीकृष्ण सृष्टि रचना के समय दो रुपवाले हो गये। दाहिना आधा अङ्ग पुरुष और बाँया अङ्ग प्रकृति रुपा स्त्री हुई।

वृषभानोश्च वैश्यस्य सा च कन्या बभूव ह।
अयोनिसम्भवा देवी वायुगर्भा कलावती।।

#अर्थ- ब्रजभूमि मे अवतार लेने पर वह राधा वृषभानु वैश्य की कन्या हुई। वृषभानु की स्त्री कलावती वायुगर्भा(जिसके गर्भ मे केवल वायु मात्र थी) थी, उसने वायु प्रसव किया। प्रसव होते ही श्री राधा देवी अयोनिजा (गर्भ से उत्पन्न न होनेवाली) प्रकट हो गयीं..

इसी तरह भगवान की दूसरी पराशक्ति योगमाया उनकी अनुजा के रूप में प्रगट हुईं.... नंदलाल वैश्य के वहाँ प्रगट हुईं... जो यदुकुल की कुलदेवी हैं और माता विंध्यवासिनी के रूप में पूजनीय हैं.. भगवान श्री कृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं.. -

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् |
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया || 6||

मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ।

॥ श्रीमात्रे नमः ॥

SABHAR: PRAKHAR AGRAWAL FACEBOOK WALL

Monday, August 15, 2022

VAISHYA HERITAGE - मथुरा का द्वारकाधीश मंदिर

VAISHYA HERITAGE - मथुरा का द्वारकाधीश मंदिर

1814 में सेठ गोकुल दास पारीख द्वारा बनवाया गया मथुरा का द्वारकाधीश मंदिर जो ग्वालियर रियासत का खजांची थे।यह मंदिर विश्राम घाट के नज़दीक है जो शहर के किनारे बसा प्रमुख घाट है।भगवान कृष्ण को अक्सर ‘द्वारकाधीश’ या ‘द्वारका के राजा’ के नाम से पुकारा जाता था और उन्हीं के नाम पर इस मंदिर का नाम पड़ा है।आजकल इस मंदिर का बंदोबस्त वल्लभाचार्य सम्प्रदाय देखती है।मुख्य आश्रम में भगवान् कृष्ण और उनकी प्रिय राधा की मूर्तियाँ हैं।इस मंदिर में दूसरे देवी देवताओं की मूर्तियाँ भी हैं।मंदिर के अन्दर सुन्दर नक्काशी,कला और चित्रकारी का बेहतरीन नमूना देखा जा सकता है।यह मंदिर रोज़ हज़ारों की संख्या में आने वाले पर्यटकों का स्वागत करता है और त्यौहार(होली और जन्माष्टमी) के समय में यहाँ भीड़ और भी बढ़ जाती है। यह अपने झूले के त्यौहार के लिए भी मशहूर है जो हर श्रावण महीने के अंत में आयोजित होता है और इससे बरसात की शुरुआत का आगाज़ भी होता है।




यह समतल छत वाला दो मंज़िला मन्दिर है जिसका आधार आयताकार(118’ X 76’) है।पूर्वमुखी द्वार के खुलने पर खुला हुआ आंगन चारों ओर से कमरों से घिरा हुआ दिखता है।यह मंदिर छोटे-छोटे शानदार उत्कीर्णित दरवाजों से घिरा हुआ है। मुख्य द्वार से जाती सीढ़ियां चौकोर वर्गाकार के प्रांगण में पहुँचती हैं।इसका गोलाकार मठ इसकी शोभा बढ़ाता है।इसके बीच में चौकोर इमारत है जिसके सहारे स्वर्ण परत चढ़े त्रिगुण पंक्ति में खम्बे हैं जिन्हें छत-पंखों व उत्कीर्णित चित्रांकनों से सुसज्जित किया गया है। इसे बनाने में लखोरी ईंट व चूने, लाल एवं बलुआ पत्थर का इस्तेमाल किया गया है।मन्दिर के बाहरी स्वरूप को बंगलाधार मेहराब दरवाजों, पत्थर की जालियों, छज्जों व जलरंगों से बने चित्रों से सजाया है। यह चौकोर सिंहासन के समान ऊँचे भूखण्ड पर बना है। इसकी लम्बाई और चौड़ाई 180 फीट और 120 फीट है। इसका मुख्य दरवाज़ा पूर्वाभिमुख बना है।द्वार से मदिर के आंगन तक जाने के लिए बहुत चौड़ी 16 सीढ़ियाँ हैं। दरवाज़े पर द्वारपालों के बैठने के लिए दोनों ओर दो गौखें हैं जो चार सीढ़ियों पर बने हैं। दूसरा द्वार 15 सीढ़ियों के बाद है। यहाँ पर भी द्वारपालों के बैठने के लिए दोनों ओर स्थान बने हैं। मंदिर के दोनों दरवाज़ों पर विशाल फाटक लगे हैं। मंदिर के आंगन में पहुँचने पर 6 सीढ़ियाँ हैं जो मंदिर के तीनों तरफ बनीं हैं। इन पर चढ़कर ही मंदिर और विशाल मंडप में पहुँचा जा सकता है।

मंडप या जगमोहन छ्त्र
मंडप या जगमोहन छ्त्र के आकार का है।यह मंडप बहुत ही भव्य है और वास्तुशिल्प का अनोखा उदारहण है।यह मंडप खम्बों पर टिका हुआ है।इसके पश्चिम की ओर तीन शिखर बने हैं जिनके नीचे राजाधिराज द्वारिकाधीश महाराज का आकर्षक विग्रह विराजित है।मंदिर में नाथद्वारा की कूँची से अनेक रंगीन चित्र बनाये गये हैं। खम्बों पर 6 फीट पर से यह चित्र बने हैं।लाल, पीले, हरे रंगों से बने यह चित्र भागवत पुराण और दूसरे भक्ति ग्रन्थों में वर्णित भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का चित्रण किया गया है।वसुदेव का यशोदा के पास जाना,योगमाया का दर्शन,शकटासुर वध,यमलार्जुन मोक्ष,पूतना वध,तृणावर्त वध,वत्सासुर वध,बकासुर,अघासुर, व्योमासुर, प्रलंबासुर आदि का वर्णन,गोवर्धनधारण, रासलीला,होली उत्सव,अक्रूर गमन, मथुरा आगमन,मानलीला, दानलीला आदि लगभग सभी झाँकियाँ उकेरी गयीं हैं। द्वारिकाधीश के विग्रह के पास ही उन सभी देव गणों के दर्शन हैं,जो ब्रह्मा के नायकत्व में भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के समय उपस्थित थे और उन्होंने श्रीकृष्ण की स्तुति की थी।गोस्वामी विट्ठलनाथ जी द्वारा बताये गये सात स्वरूपों का विग्रह यहाँ दर्शनीय है। गोवर्धननाथ जी का विशाल चित्र है। गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के पिता वल्लभाचार्य जी और उनके साथ पुत्रों के भी दर्शन हैं।

मंदिर के दक्षिण में परिक्रमा मार्ग पर शालिग्राम जी का छोटा मंदिर है। इसमें गोकुलदास पारीख का भी एक चित्र है।

SABHAR: Narsingh Sena/नृसिंह सेना

SURNAME AGRAWAL TO JHUNJHUNWALA - सरनेम 'अग्रवाल' से 'झुनझुनवाला

SURNAME AGRAWAL TO JHUNJHUNWALA - सरनेम 'अग्रवाल' से 'झुनझुनवाला

गांव से इतना लगाव, सरनेम 'अग्रवाल' से 'झुनझुनवाला' किया:7 महीने पहले राकेश की पत्नी और छोटे भाई का परिवार आया था कुलदेवी पूजने

राकेश झुनझुनवाला को सरनेम झुंझुनूं ने दिया।

द बिग बुल...द किंग ऑफ दलाल स्ट्रीट...शेयर मार्केट का बादशाह। इन सारे नाम से जाना जाता था राकेश झुनझुनवाला को। रविवार को मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली।

राकेश झुनझुनवाला का राजस्थान के झुंझुनूं से भी नाता जुड़ा हुआ है। उनको झुनझुनवाला सरनेम यहीं से मिला। उनका असल सरनेम था अग्रवाल, जो बाद में झुनझुनवाला हुआ।


झुझुनूं के रहने वाले CA मनीष अग्रवाल ने बताया कि राकेश झुनझुनवाला के परदादा और दादा झुंझुनूं से 30 किलोमीटर दूर मलसीसर के रहने वाले थे। 100 साल पहले झुनझुनवाला के दादा परिवार समेत कानपुर चले गए थे। राकेश के दादा सिल्वर के कारोबारी थे। उस समय कानपुर में उन्होंने सिल्वर किंग के नाम से पहचान बना ली। इस बीच राकेश के पिता राधेश्याम इनकम टैक्स ऑफिसर बने और मुंबई में बस गए।

राकेश के दादा और पिता का झुंझुनूं से गहरा लगाव था। यही कारण रहा कि पिता ने सबसे पहले अपना नाम राधेश्याम झुनझुनवाला रखा। इसी सरनेम को राकेश ने भी अपनाया। अग्रवाल सरनेम की जगह अपने पिता की तरह वे भी झुनझुनवाला लगाने लगे। राकेश झुनझुनवाला और उनके छोटे भाई राजेश झुनझुनवाला के परिवार झुंझुनूं से किसी न किसी बहाने जुड़े रहे। यही कारण था कि परिवार अक्सर कुलदेवी राणी सती के दर्शन के लिए यहां आता रहता था।


राकेश झुनझुनवाला का रविवार को मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में निधन हो गया। उनका पैतृक गांव झुंझुनूं के पास मलसीसर है।

7 महीने पहले आया था परिवार

7 महीने पहले जनवरी-फरवरी में राकेश की पत्नी रेखा, छोटा भाई राकेश और उनका परिवार झुंझुनूं आया था। यहां राणी सती मंदिर में दर्शन किए थे। श्रीराणी सती मंदिर ट्रस्ट से जुड़े सीए मनीष अग्रवाल ने बताया कि राकेश भी एक बार मंदिर आए थे। झुनझुनवाला परिवार हर साल मंदिर की वार्षिक पूजा में शामिल होता है। राणी सती माता अग्रवालों की कुल देवी है।


झुंझुनूं का राणी सती मंदिर, यहां हर साल आता है झुनझुनवाला परिवार। यह उनकी कुलदेवी भी हैं।

जिस हवेली को बेचा, आज वहां मार्केट
सेठ मोतीलाल कॉलेज के सचिव जीएल शर्मा बताते हैं कि झुनझुनवाला के परिवार की करीब 70-80 साल यहां पहले हवेली हुआ करती थी। जिसे केडिया परिवार को बेच दी थी। अब उस जगह केडिया मार्केट बना है। अब उनकी झुंझुनूं में कोई संपत्ति तो नहीं है, लेकिन परिवार का जुड़ाव काफी है। 10-15 दिन पहले ही राकेश के भाई राजेश झुनझुनवाला डूंडलोद आए थे।


राकेश झुनझुनवाला के पिता राधेश्याम झुनझुनवाला (कुर्सी पर बैठे) 15 फरवरी 2011 को जेजेटी यूनिवर्सिटी की नींव रखने के लिए झुंझुनूं आए थे।

2011 में पिता के साथ आए थे झुंझुनूं

राकेश झुनझुनवाला का झुंझुनूं की जेजेटी यूनिवर्सिटी से ताल्लुक रहा। पिता राधेश्याम झुनझुनवाला के साथ यूनिवर्सिटी की नींव रखने के लिए 15 फरवरी 2011 को राकेश भी झुंझुनूं आए थे। राकेश झुनझुनवाला का टीबड़ेवाला परिवार में ननिहाल है।

जेजेटी यूनिवर्सिटी के चेयरपर्सन डॉ. विनोद टीबड़ा ने बताया कि राधेश्याम झुनझुनवाला ने यूनिवर्सिटी में मदद करने की बात कही थी। झुनझुनवाला परिवार झुंझुनूं के डूंडलोद में ट्रस्ट के जरिए लोगों की मदद करता है।


2011 में राकेश झुनझुनवाला झुंझुनूं आए थे। तब वे डूंडलोद में विद्यापीठ ट्रस्ट के कार्यक्रम में शामिल हुए थे।

भाई राजेश संभालते हैं मोतीलाल ट्रस्ट
राकेश के भाई राजेश झुनझुनवाला सीए हैं। वे मुंबई के मोतीलाल ट्रस्ट के सभी शिक्षण संस्थाओं का काम देखते हैं। ट्रस्ट का झुंझुनूं में भी सेठ मोतीलाल कॉलेज है। कॉलेज के सचिव जीएल शर्मा ने बताया कि राजेश लगातार डूंडलोद आते हैं। डूंडलोद झुंझुनूं शहर से 25 किलोमीटर दूर है। यहां डूंडलोद विद्यापीठ ट्रस्ट के जरिए झुनझुनवाला परिवार चैरिटी करता है।

Tuesday, August 9, 2022

VANIK RASOI - विशेष है वनिक रसोई

VANIK RASOI - विशेष है वनिक रसोई 



साभार: पुष्पेश पन्त, दैनिक भास्कर