हमारी यह सहज प्रवृत्ति है, कि हम हमारे प्राचीन शास्त्र , तत्वज्ञान और हमारी ऐतिहासिक जीवन पद्धति से आज के आधुनिक जीवन शैली की तुलना करते हैं व वर्णाश्रम की सामाजिक संरचना को समझने का प्रयास करते हैं, इस कला में हम निपुण हैं। वर्णाश्रम के एक एक वर्ण को अलग करके समझा जाए तो पहले दो वर्ण अर्थात ब्राह्मण एवं क्षत्रिय भूत काल से सम्बंधित हैं। आसान शब्दों में कहें तो आज के समय में ऐसे कम ब्राह्मण हैं जिनमें ब्राह्मणत्व के गुण, चरित्र और ज्ञान हैं और सच्चे ब्रह्मज्ञानी तो उनसे भी कम हैं। वैदिक वर्णाश्रम के सर्वोच्च श्रेणी के जो ब्राह्मण रह चुके वह आज के समय में निरर्थक हो चुके हैं। वे केवल ब्राह्मण उपनाम मात्र से पहचाने जाते हैं । जहाँ एक ज़माने में क्षत्रिय और उनके धर्म के विषय में महान काव्य रचे गए थे वह श्रेणी भी आज अपनी पहचान खो बैठी है। आज की वित्त केंद्रित दुनिया में बाद के दो वर्ण ज्यादा प्रचलित हैं , जो धन अर्जित कर रहे हैं वह वर्ण दुनिया की आबादी का अधिकतम हिस्सा निर्मित कर रहे हैं। हमारे प्राचीन वैदिक इतिहास में इन दो वर्णों को वैश्य तथा शूद्र कहा जाता था।
ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण को शास्त्र विधि से समझ कर व उनके आधुनिक रूप को पहचान कर अब तीसरे वर्ण को समझने की आवश्यकता है जिसे सामान्य भाषा में व्यापारी श्रेणी (वैश्य ) कहा जाता है। संस्कृत शब्द वैश्य की व्युत्पत्ति है "विशं याति इति वैश्यः " अर्थात जो धन प्राप्त करे उसे वैश्य कहते हैं।
श्रीमद भागवत भी वैश्य के कर्त्तव्य व गुण पर प्रकाश डालती है :
देवगुर्वच्युते भक्तिस्त्रिवर्गपरिपोषणम् । आस्तिक्यमुद्यमो नित्यं नैपुण्यं वैश्यलक्षणम् ॥
भागवत । ७ । ११ ।२३ ॥
देवता गण के प्रति , गुरु के प्रति , ब्रह्म स्वरूप भगवान विष्णु के प्रति स्थिर भक्ति हो , तीनों पुरुषार्थ : धर्म , अर्थ और काम की पुष्टि जो करे , जो निरंतर धनार्जन करने में निपुण हो , यह सब वैश्य के लक्षण भागवत में बताये गए हैं।
यदि हम आज वैश्य वर्ण को समझने का प्रयास करें और उनके धन एकत्रित करने का प्रयास समझें , और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण अर्थ को नियंत्रित करने की कला को समझना चाहें तो आज के आधुनिक अर्थशास्त्रिक उदाहरण के माध्यम से हम समझ सकते हैं। सामान्य अर्थशास्त्र में उपादान के कारक (भूमि , श्रमिक, पूंजी , उद्यमवृत्ति ) धनार्जित करने के आधार हैं।
प्रथम कारक है भूमि। धरती से प्रदत्त जो भी कीमती वस्तु , जमीन के नीचे या ऊपर हो उसे धरती की संपत्ति ही माना जाता है। मनु स्मृति में बताया गया है :
प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददे पशून् ।
प्रजापति ने पशुओं की उत्पत्ति करके वैश्य वर्ण को प्रदान किया। आज भी पशुओं को संपत्ति माना जाता है।
बीजानामुप्तिविच्च स्यात्क्षेत्रदोषगुणस्य च ।
मानयोगं च जानीयात्तुलायोगांश्च सर्वशः । । मनु स्मृति | ९.३३० । ।
वैश्य को बीज बोने की पद्धति का, विभिन्न प्रकार की मिटटी का , धरती को नापने का व अन्य कीमती पदार्थों के वज़न करने का ज्ञान होना चाहिए।
दूसरा कारक है श्रमिक। पुरे के पुरे उद्योग को जो अपनी मेहनत से चलाता है उसे श्रमिक कहते हैं।
भृत्यानां च भृतिं विद्याद्भाषाश्च विविधा नृणाम् ।
वैश्य को सभी कर्मचारियों के विभिन्न वेतन का ज्ञान होना चाहिए व उनके अनेक भाषाओं में वार्तालाप की क्षमता होनी चाहिए।
वैश्य को केवल स्थानीय मज़दूरों को ही नहीं अपितु विदेशी मज़दूरों को भी नियंत्रित करना आना चाहिए।
तीसरा कारक है अर्थ निवेश। ऐसा कोई व्यापार नहीं है जो बिना पूंजी के हो सके।
धर्मेण च द्रव्यवृद्धावातिष्ठेद्यत्नमुत्तमम् ।
वैश्य को निरंतर धर्मानुसार अपनी संपत्ति की वृद्धि करनी चाहिए।
मनुस्मृति के अनुसार वैश्य को चाहिए कि वह न केवल धन अर्जित करे अपितु उसे फायदेमंद अवसरों में निवेश करे।
ऐसा कोई व्यवसाय नहीं है जिसमें किसी प्रकार से, कुछ मात्रा में आर्थिक जोख़िम न हो और यही उपादान का आखरी चरण है।
व्यवसायी भाव कोई भी व्यापार में अत्यंत आवश्यक है क्योंकि समस्त निर्माण अर्थात उपादान के पहलुओं के मध्य में यह आर्थिक जोख़िम ही है जो एक व्यवसायी या वैश्य को समाज से पृथक करता है, चाहे वह आधुनिक समाज हो या वैदिक ।
सारासारं च भाण्डानां देशानां च गुणागुणान् ।
लाभालाभं च पण्यानां पशूनां परिवर्धनम् । । मनु स्मृति ९.३३१ । ।
वैश्य की कार्य शैली है अनेक पदार्थों में दोषयुक्त अथवा श्रेष्ठ पदार्थों का ज्ञान, मित्र व शत्रु देशों का बोध, निर्माण के कार्यों में फायदा -नुक्सान व पशुओं की वृद्धि में निपुणता।
मनु स्मृति का यह श्लोक व्यवसायी को आर्थिक जोखिम लेने का महत्व समझाता है और कहता है कि यदि कार्य में फायदा और नुक्सान हुआ तो यह व्यवसायी अर्थात वैश्य पर निर्भर है की वह व्यापार इत्यादि को पूर्णतः समझे और निवेश, मज़दूर, संपत्ति ऐसे किसी कार्य में लीं होने से पहले समस्त पहलुओं को पूर्णतः परख लें ।
वैश्य वर्ण समाज का वित्तीय स्तंभ है जिनके बिना उद्योग संभव नहीं, धन नियमित नहीं होता व समाज व दुनिया का अधिकतम वर्ग के पास न कार्य होता है और न ही नियमित धनागमन (वेतन ) होता है। धन जीवन की मूल भूत आवश्यकता है जिससे धर्म की पुष्टि से लेकर स्व का पोषण होता है और इस कारण से धन और इसके निर्माता किसी भी समाज के लिए अत्यंत आवश्यक हैं।
धनात् धर्मं ततः सुखम्
धन से धर्म की प्राप्ति होती है और धर्म से सुख प्राप्त होता है।
साभार: shrinathdham.com/resources/shri-shuk-prashaadi/vaishya.html
No comments:
Post a Comment
हमारा वैश्य समाज के पाठक और टिप्पणीकार के रुप में आपका स्वागत है! आपके सुझावों से हमें प्रोत्साहन मिलता है कृपया ध्यान रखें: अपनी राय देते समय किसी प्रकार के अभद्र शब्द, भाषा का प्रयॊग न करें।